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________________ हिव गाथा नों अर्थ, लिखियै छै ते सांभलो। ३६. तत्र परिणामो दर्शित एव । (वृ०-प०२०५) धर परिणाम तदर्थ, प्रथम देखाइयोईज ते ।। ४०. कृष्ण लेश्यादि पिछाण, नील लेश्यादिक प्रति ल है। मनु तिरि भव ए जाण, पन्नवण-टीका में इसो।। ४१. *वर्ण रस जुआ-जुआ लेश्या तणां, गंध धुरली तीन दुर्गध। ४१. 'वन्न' त्ति कृष्णादिलेश्यानां वर्णों वाच्यः... 'गंध' ति द्रव्य-लेस्या - ए अधिकार छै, तेजु पद्म नै शुक्ल सुगंध ।। लेश्यानां गंधो वाच्यः, तत्राद्यास्तिस्रो दुरभिगन्धाः अन्त्यास्तु तदितराः। (वृ०-प० २०५) ४२. अविशुद्ध तीनूं विशुद्ध त्रिण कही, तीनूं अपसत्थ ते अशुभ पिछाण। ४२. 'सुद्ध' त्ति अन्त्या: शुद्धा आद्यास्त्वितराः, 'अप्पसत्थ' तेजु पद्म नै शुक्ल ए विहुं, प्रशस्त द्रव्य भाव बिहं जाण ॥ त्ति आधा अप्रशस्ता अन्त्यास्तु प्रशस्ता.। (वृ०-प० २०५, २०६) ४३. धरली तीन लेस्या संक्लिष्ट छ, अध्यवसाय अशुभ ए भाव। ४३. 'संकिलिट्ठ' त्ति आद्याः संक्लिष्टा अन्त्यास्त्वितराः। अंत नी तीनूं असंक्लिष्ट छै, शुभ अध्यवसाय भाव इण न्याव ।। (वृ०-प० २०६) ४४. शीत नै रुक्ष फर्शवंत धुर विहं, स्निग्ध नै उष्ण अंत विहु जोय। ४४. 'उण्ह' त्ति अन्त्या उष्णाः, स्निग्धाश्च आद्यास्तु शीता आदि विहं लेस्या दुर्गतिगामनी, अंत विहं सुगतिगामनी होय ।। रूक्षाश्च ‘गति' ति आद्या दुर्गतिहेतवोऽन्त्यास्तु सुगतिहेतवः । _ (वृ०-प० २०६) ४५. परिणाम ते छहूंइ लेस्या तणां, विविध जघन्य मझम उत्कृष्ट। ४५. 'परिणाम' त्ति लेश्यानां कतिविधः परिणामः? इति नवविध सत्तावीस भेदे करी, तरतमपणां थी ए पिण इष्ट ।। वाच्य, तत्रासौ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदातनिधा उत्पातादिभेदाद्वा विधेति। (वृ०-५०२०६) ४६. इक्यासी भेदे परिणामै परिणमै, बे सय नै तयांली भेदे देख। अथवा वह भेदे परिणामै करी, परिणमै लेस्या छहूं संपेख ।। ४७. प्रदेश अनंता छहं लेस्या तणां, अवगाह्या असंख्यात प्रदेश। ४७. 'पएस' त्ति आसां प्रदेशा वाच्यास्तत्र प्रत्येकमनन्तप्रदे शिका एता इति 'ओगाह' त्ति अवगाहना आसां वाच्या वर्गणा कही अनंती छहूं तणी, असंख स्थानक छहूं नां सुविशेष ।। तत्रता असंख्यातप्रदेशावगाढा: 'बग्गण' ति वर्गणा आसा वाच्याः, तत्र वर्गणाः कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणाः ताश्चानन्ता औदारिकादिवर्गणावत्, 'ठाण' त्ति तारतम्येन बिचित्राध्यवसायनिबन्धनानि कृष्णादिद्रव्यवन्दानि तानि चासंख्येयानि अध्यवसायस्थानानामसंख्यातत्वादिति। (वृ०-प०२०६) ४८. स्थानक नीं अल्पाबहुत कही अछ, पन्नवण बहु विस्तार सुन्याव। ४८. 'अप्पबहु' ति लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वं वाच्यं । तेहथी संक्षेपे आख्यो छै इहां, देख्यो इहां गाथा नों प्रस्ताव ।। (वृ०-प० २०६) ४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! कही, गोतम गणहर महा सुविनीत। ४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० ४।६) अति आदर देव गुरु रा वचन नै, दशमों उद्देश कह्यो धर प्रीत ।। ५०. शतक चउथो ए संपूर्ण थयो, आखी ए तिहोत्तरमी ढाल । भिक्षु-पट भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' संपति मंगलमाल ।। गीतक-छंद कह वृत्तिकारे तुर्य शत, स्वयमेव सहज सुवोध ही। १. स्वतः सुबोधेऽपि शते तुरीये, कितलीक व्याख्या रची, पय स्वादिष्ट स्वाभाविक मही। व्याख्या मया काचिदियं विधा। सकरा-मिश्रण युक्त स्यूं नहिं ? अपितु युक्त विकास ही। दुग्धे सदा स्वादुतमे स्वभावात्, तिमहीज ए म्हैं जोड कीधी, अल्प - धी तसुं अर्थ ही। क्षेपो न युक्तः किमु शर्करायाः? चतुर्थशते दशमोद्देशकार्थः ।।४।१०॥ (वृ०-५० २०६) *लय-धिन-धिन संत मुनीश्वर मोटका रे। १. ४२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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