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________________ २०. इक-इक नरकावासा मांय, जघन्य उत्कृष्टी स्थिति कहिवाय। १८. केवलं तेषु जघन्योत्कृष्टविभागो ग्रन्थान्तरादवसेयः । ग्रंथांतर थी लीजै विचार, इहां संखेप कहं अधिकार ।। (वृ०-५० ६६) जिम प्रथम पाथरै जघन्य स्थिति जोय, दश हजार वर्ष नी होय। १६. यथा प्रथमप्रस्तटनरकेषु जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि उत्कृष्ट नेउ राहस वर्ष कहाय, एहिज अर्थ देखा. ताय । उत्कृष्टा तु नवतिरिति। (वृ०-प०६६) जघन्य स्थिति वर्ष दश सहस्र आद, प्रति नरक भिन्न रूप संवाद। २०, २१. जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्रादिका इत्येकं स्थितिज-जब नरकावासै जोय, जघन्य स्थिति पिण ज जइ होय ।। स्थानं, तच्च प्रतिनरकं भिन्नरूपं, सैव समयाधिकेति तेहिज समय अधिक पहिछान, ए बीजो छै स्थिति नो स्थान । द्वितीयम्। (वृ०-५० ६६) ते हिज द्विसमथादिक जोय, तीजो स्थिति-स्थानक होय ।। २२. इम जाव असंख समयाधिक जान, असंख्यातमों ए स्थिति-स्थान। २२. एवं यावदसंख्येयसमयाधिका सा, सर्वान्तिमस्थितिसर्व अंतिम जे स्थिति नों स्थान, कहियै छ निसूणो धर कान ।। स्थानदर्शनायाह (वृ०-प०६९) उत्कृष्ट स्थिति ना अनेक प्रकार, ज-जुबै नरकावास धार। २३. उत्कृष्टा असावनेकविधेति विशेष्यते तस्य-विवक्षितवांछित नरकावासा योग्य, उत्कृष्टी स्थिति तास प्रयोग्य ॥ नरकावासस्य प्रायोग्या--उचिता उत्कर्षिका तत्प्रायो ग्योत्कर्षका इत्यपरं स्थितिस्थानम्। (वृ०-प०६९) २४. इम इक-इक जे नरकावास, जघन्य उत्कृष्टी स्थिति विमास! २४ मिनिस्थानानि । स्थिति-स्थानक तिहां छै असंख्यात, तेह विषै क्रोधादि कहात ।। नारकाणां विभागेन दर्शयन्निदमाह- (वृ०-प०६६) २५. ए प्रभ ! रत्नप्रभाई तास, तीस लाख है नरकावास। २५, २६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढ़वीए तीसाए इक-इक नरकावासे जान, जघन्य स्थिति नारक वर्तमान ।। निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहस्यं कोहोव उत्ता? क्रोध-परिणाम, ए प्रबल क्रोध अशुभ जोग है ताम। पिणयाए ठितीए वट्टमाणा नेरइया कि-कोहोव उत्ता? माणोव उत्ता मान - परिणाम, मायोव उत्ता लोभोव उत्ता ताम?|| माणोवउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता? जिन कहै सर्व नेरइया ताम, क्रोध भाव वर्तत्ता परिणाम ।। २७. गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा १। कोहोवउत्ता। न वत्तें मान माया लोभ मांय, ए प्रबलपणा नी छै अपेक्षाय ।। नरक भवे क्रोध उदय प्रचर, सर्व क्रोध परिणामे सूर। प्रथम भांगो ए आख्यो एक, द्विक सजोगिक छ: हिव पेख ।। द्विक संजोगिया ६ भांगा २६. तथा कोहोवउत्तामाणोवउत्ते पेख, क्रोधी घणां ने मान नो एक। २६-३१. २ अहवा कोहोवउत्ता य, माणोव उत्ते य । ३. अहवा तथा कोहोवउत्ताभाणोव उत्ता' जाण, क्रोधी बहु मानी बहु माण ।।। कोहोव उत्ता य, माणोवउत्ता य । ४. अहवा कोहोतथा कोहोवउत्ता मायोव उत्ते न्हाल, क्रोधी घणां माया इक भाल। वउत्ता य मायोवउत्ते य। ५. अहवा कोहोवउत्ता य, तथा कोहोव उत्ता मायोव उत्ता' विचार, क्रोधी माया बहुवचने धार ।। मायोवउत्ता य। ६. अहवा कोहोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य। ७. अहह्वा कोहोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य। तथा कोहोवउत्ता लोभोवउत्त' जेह, क्रोधी घणां लोभी इक तेह। तथा कोहोव उत्ता लोभोवउत्ता विरंग, त्रिक संजोगी हिवै द्वादश भंग।। त्रिक संजोगिया १२ मांगा ३२. कोहोवउत्ता माणोव उसे जान, भायोवउत्ते इक भंग मान । तथा कोहोवउत्ता माणीव उत्त विचार, मायोव उत्ता दूजा धार ।। तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ता विरंग, मायोवउत्ते तीजो भंग"। तथा कोहोब उत्तामाणोव उत्ता निहाल, मायोव उत्ताच उथो न्हाल"। ३२, ३३. ८. अहवा कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ते य। ६. कोहोबउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ता य। १०. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ते य । ११. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मापोवउत्ता य । १२८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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