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________________ ३४. तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ते प्रसंग, लोभोव उत्ते पंचमो भंग। तथा कोहोव उत्ता माणाव उत्ते संपेख, लोभोवउत्ता छठो देख" ।। ३५. तथा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता विचार, लोभोवउत्ते सप्तम धार"। तथा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता निहाल, लोभोवउत्ता अष्टम भाल" ।। ३६. तथा कोहोवउत्ता मायोव उत्ते विरंग, लोभोवउत्ते नवम भंग"। तथा कोहोवउत्ता मायोवउत्ते संपेख, लोभोवउत्ता दशमों देख" ।। ३७. तथा कोहोवउत्ता मायोव उत्ता विचार, लोभोव उत्ते ए इग्यार"। तथा कोहोवउत्ता मायोवउत्ता निहाल,लोभोवउत्ता बारमों भाल" !। १२. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य। १३. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, लोभोवउत्ता य । १४. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य । १५. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य । १६. कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य । १७. कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ता य । १८. कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य । १६. कोहोबउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य । चउक संजोगिया आठ भांगा ३८. तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ते संपेख, मायोव उत्ते लोभोव उत्ते एक"। ३८-४१. २०. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते, मायोवउत्ते य, लोभोव उत्ते य। तथा कोहोव उत्ता माणोब उत्ते जोय, मायोवउत्ते लोभोव उत्ताए दोय।। २१. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ता य। ३६. तथा कोहोव उत्ता माणोवउत्त दुचीन, मायोवउत्ता लोभोवउत्तेए तीन । २२. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य। तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्त धार, मायोवउत्ता लोभाव उत्ता ए च्यार।। २३. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोव उत्ता य, लोभोवउत्ताय। ४०. तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ता विरंच, मायोवउत्ते लोभोवउत्ते ए पंच"। २४. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य। तथा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता प्रगट, मायोवउत्ते लोभोवउत्ता ए षट। २५. कोहोवउत्ता य, माणोव उत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ताय। ४१. तथा कोहोव उत्ता माणोवउत्ता विख्यात,मायोवउत्ता लोभोवउत्ते ए सात" २६. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्तेय। तथा कोहोव उत्ता माणोवउत्ता दुघाट,मायोव उत्ता लोभोवउत्ताए आठ ।। २७. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य। (श० ११२१७) ४२. जघन्य स्थिति नरकावासै जास, सत्तावीस ए भंगा तास । ४२, ४३. तत्र च प्रतिनरकं जघन्यस्थितिकानां सदैव भावात जघन्य स्थिति ना सदा बहु कोय, ते स्थिति-सत्ताई विरह नहि कोय ।। तेषु च क्रोधोपयुक्तानां बहुत्वात् सप्तविंशतिभंगकाः । ४३. ते भणी क्रोध ना बहु वच जाण, सत्तावीसूई भंगे पिछाण । (वृ०-५० ६६) नरक में क्रोध प्रचूर जगीस, तिण सू क्रोध बहु वच सत्तावीस ।। ४४. जघन्य स्थिती रै ऊपर जाण, एक समय स्थिति अधिक पिछाण । ४४. एकादिसंख्यातसमयाधिकजघन्यस्थितिकानां तु कादाए स्थिति वाला नारक जोय, कदाचि लाभ कदा नहिं होय ॥ चित्कत्वात्। (वृ०-५० ६६) ४५. इमहिज जघन्य स्थिती थी जाण, दोय समय स्थिति अधिक पिछाण। ४५. एवं जाव संखेज्जसमयाहियाए ठितीए। __ जाव संखेज्ज समय अधिकाय, कदाचि लाभ कदा नहि थाय ।। ४६. तिण कारण ए कहियै विशेष, कदे क्रोधी कदे मानी एक। ४६, ४७. तेषु च क्रोधाधुपयुक्तानामेकत्वानेकत्वसंभवादशीकदे माई कदे लोभी एक, प्रबलपण वत्त सुविशेष ।। तिभंगकाः। (वृ०-५० ६९) ४७. कदे क्रोध में वत्तै अनेक, कदे मान बहु वत्त विशेष । माया लोभ इमहिज अवधार, आदि देइ असी भंग विचार ।। ४८. सत्ताई करो विरह तसं जोय, कदाचि लाभ कदा नहिं होय। तिण कारण असी भंगा तास, सूत्रे करी हिव कहिये जास ।। श०१, उ०५, ढा०१६ १२२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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