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पण्णसमत्ते सया जए, समता धम्ममुदाहरे मुणी। सुहमे उ सदा अल्सए, गो कुज्झे णो माणि पाहण ।।
(सूयगडो ११२।२८) इहां कह्यो-प्रज्ञावंत पंच समिते करी संपूर्ण, सदा यत्नवत, कषाय रहित समभाव करी अहिंसादिक धर्म कहै । मुनि संजम ना पालक, सदा अविराधक क्रोध न करै, मान न करै, एहवा गुणां सहित नैं माण कह्यो।
भगवती शतक ५ उद्देशो ६ सूत्र १२४ में अल्प आउखा नै अधिकारे कह्यो ते पाठ---- कहण्णं भंते ! जोवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! पाणे अइवाइत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेण पडिलाभेत्ता-एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्म पकरेंति ।
(भग० ५।१२४) इहां कह्यो-जीव हण, झूठ बोल, तथारूप श्रमण माहण नै अप्रासुक-अनेषणीक प्रतिलाभ तो अल्प आउखो बांधे। जे माहण शब्द नों अर्थ श्रावक करै तेहन लेखै तो श्रावक नै अप्रासुक-अनेषणीक प्रतिलाभ्यां अल्पायु निगोद नों बंधै । जीव हणे, झूठ बोल तेहन जोड़े श्रमण माहण नै अप्रासुक-अनेषणीक प्रतिलाभ एहवं कह्य । ते भणी ए त्रिहुं बोले करी अशुभ अल्पायु बंधै पिण शुभ अल्पायु न बंधै। बलि इहां श्रमण माहण नों अर्थ वृत्तिकार कर्यु ते वृत्ति लिखिये छ। समणं ब'त्ति श्राम्यते-तपस्यतीति श्रमणोऽतस्त, माहणं ब'त्ति मा हनेत्येवं योऽन्यं प्रति वक्ति स्वयं हनननिवतः सन्नऽ सौ माहनः, ब्रह्म वा ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठान वाऽस्याऽस्तीति ब्राह्मणोऽतरत वा शब्दो समुच्चये।
(ब्याख्या-प्र० वृ०-५० २२६) इहां समण माहण बेहुं शब्दे साधु नैं फलाव्या । श्रमण ते तप सहित, तप ते उत्तर-गुण जाणवो। अनै माहन ते अन्य प्रति कहै 'म हणो' अनै पोते हिंसा थकी निवयो ए मूल-गुण जाणवो, ते भणी वा शब्द कह्यो।
तथा सूयगडांग श्रुतखंध २ उद्देश ७ में गोतम स्वामी उदक पेढाल-पुत्र नै कह्यो-तथारूप श्रमण माहण कनै एक वचन ही धारै तिण नै सूक्ष्म दृष्टि करी परम उपगारी जाणी वंदना-नमस्कार करै,सत्कार-सनमान देव, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति एहवा पाठ कह्या। तिहां माहण रो अर्थ टीकाकार शीलाङ्काचार्य इम कियो-तथाभूतथमणस्य ब्राह्मणस्य चांतिके। इहां माहण नों अर्थ ब्राह्मण कियो, पिण स्थूल प्राणातिपात थकी निवौं न कह्यो तथा परम गीतार्थ श्रावक नै न कह्यो। इण लेखै माहण नों अर्थ श्रावक कहै ते विरुद्ध । ___ वलि सूयगडांग श्रुतखंध २ उदेशै ७ सू० ३१ में गोतम उदक ने कह्यो---जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासइ--जे समण माहण नै निदै, अनैरा जीवां सं मित्रीपणो मान, ज्ञान-दर्शण-चारित्रियो घणो गुणवंत पिण समण माहण नै निंदवा थी परलोक नो तथा संजम नो विराधक थाय । अन जे ज्ञान-दर्शण-चारित्रवंत घणो गुणवंत छै ते श्रमण माहण नै न निदै तो परलोक नो तथा संजम नो आराधक थाय । इहां शीलाङ्काचार्य टीका में श्रमण माहण रो अर्थ इम कियो-श्रमणं ते
२८४ भगवती-जोड़
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