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साधना
३१. लोचन और आत्मालोचन जीवनवृत्त
३२. चित्रावली
३. आचार्य भिक्ष और तेरापंथ से सम्बद्ध ग्रन्थ जीवन-वृत्त
३३. आचार्य भिक्षु : जीवन-कथा
३४. आचार्य भिक्षु : धर्म-परिवार इतिहास
३५. शासन-समुद्र तत्त्व-दर्शन
३६. जय तत्त्वबोध
ये सब मिलकर ३६ ग्रन्थ हो जाते हैं। इतना बड़ा कार्य बहुत थोड़े वर्षों में सम्पादित और कुछ मात्रा में अनूदित होकर प्रस्तुत हो रहा है। यह श्रमनिष्ठा का एक निदर्शन है । जयाचार्य के ग्रन्थों के मूलपाठ शोधन में सबसे अधिक श्रम आचार्यश्री ने किया है । नाना प्रकार की संघीय प्रवृत्तियों और साहित्यिक रचनाओं में संलग्न एक आचार्य अपने पूर्वज आचार्य के साहित्य-सम्पादन में इतने श्रम और शक्ति का नियोजन करे, यह कृतज्ञता और श्रद्धा का महान् निदर्शन है।
प्रस्तुत रचना एक महाग्रन्थ है। इसके सम्पादन का कार्य भी गुरुतर है । इस गुरुतर कार्य को आचार्यप्रवर ने गुरुतम बना दिया। जयाचार्य ने मूलपाठ तथा वृत्ति के जिन स्थलों का अनुवाद किया, उन सबकी जोड (पद्यानुवाद) के सामने नियोजित करने से ग्रन्थ की उपयोगिता बढ़ी, पर साथ-साथ सम्पादन कार्य की जटिलता भी बढ़ी।
प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना में जयाचार्य ने बहुत परिश्रम किया था। उनके परिश्रम में हाथ बंटाया था साध्वीप्रमुखा गुलाबसती ने। इसके सम्पादन में आचार्यप्रवर ने भी कम परिश्रम नहीं किया है। पाठ-शोधन से लेकर सम्पादन की सारी प्रकृतियों और प्रवृत्तियों के दायित्व का निर्वाह किया है। इस कार्य में हाथ बंटाया साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने। उन्होंने अत्यधिक समय और शक्ति का नियोजन कर इसे गति दी और दीर्घकाल साध्य कार्य को अल्पकाल साध्य बना दिया। इस महान ग्रंथ को 'सम्पादन के कीर्तिमान' के रूप में उपलब्ध कर साहित्यिक और दार्शनिक जगत् में हमारा धर्मसंघ गौरव-मंडित होगा और चिरकाल तक आचार्यप्रवर एवं साध्वीप्रमुखा के काम का मूल्यांकन करता रहेगा। इस सम्पादन में अन्य साध्वियोंकल्पलताजी, जिनप्र भाजी का भी योगदान रहा है। उनका उल्लेख साध्वीप्रमुखा की सम्पादकीय टिप्पणी में किया गया है। संदर्भ की खोज में मुनि हीरालालजी तथा प्रस्तावना लेखन में मुनि श्रीचन्दजी का सहयोग रहा है।
प्रकाशन-कार्य में प्रबन्ध-सम्पादक श्रीचन्दजी रामपुरिया तथा उनके सहयोगी जनों का पूरा श्रम लगा है।
अनेक उंगलियों के समन्वय से समन्वित होकर अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण एक महान् ग्रन्थ जनता के हाथों में आ रहा है, यह हम सबके लिए उल्लास और गौरव का विषय है।
अणुव्रत भवन, नई दिल्ली १ अगस्त, १९८१
---युवाचार्य महाप्रज्ञ
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