SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. हम पाप अठारे सेदिवे, संसार आउल करत इम पाप अठार अणसेदिवे, संसार परिती करें जंत || इम पाप अठार सेविवे, संसार दीर्घ करंतु । इम पाप अठार अणसे विवै संसार अल्प करै जंतु ॥ इम पाप अठार सेविवे, भ्रमण करें इम पाप अठार अणसेवि, अतिक्रम प्रशस्त चउ मोक्ष अंग छै, अप्रशस्त चउ गुरु लघु ना अधिकार ते, एहिज प्रश्न बारंबार । प्रभु ! अवकाशांतर सातमो, भारे करि गुरु के लघु हलको भार थी, गुरुलघु अगुरुलघु जिन की एकांत गुरु नहीं, केवल लघु गुरुलघु पण कहिये नहीं, अगुरुलघु इक होय || वा०-- -अत्र वृत्तिकार का इहां लघुगुरु नीं ए व्यवस्था नहि कोय निश्चयनय थकी सर्व गुरु अथवा सर्व लघु द्रव्य न हुवै अने व्यवहार थकी वादर स्कंध नै विषै सर्व गुरुपणो अने सर्व लघुपणो जुडै । पिण अनेरा नैं विषै न हुर्व संसार || विपरीत । Jain Education International संगीत || होय ? जोय ? निश्चयनय नै मते चउफर्शी सूक्ष्म अनंत प्रदेशियो स्कंध अ अरूपी द्रव्य ए अगुरुलघु हुवै। शेष बादररूपी द्रव्य गुरुलघु जाणया । ए निश्चयनय नो मत कह्य । अनै व्यवहार थकी गुरु आदि च्यारूई बोल छै, ते देखा है । गुरु ते पाषाण अधोगमन थी । लघु ते धुंओ उर्द्धगमन थी । गुरुलघु ते वायु तिरछो गमन थी । अगुरुलघु ते आकाश तत्स्वभावपणा थी । तवाय सातमी नरक नों, स्यूं प्रभु गुरु कहिवाय ? के लघु – हलको भारे करी, गुरुलघु अगुरुलघु थाय ? नहिं घनोदधि जिन क है - एकांत गुरु नहीं, केवल लघु न गुरुलघु छे अपेक्षाय थी, अगुरुलघु इम घणवाय सातमी नरक नों, सप्तम पृथ्वी सातमी नरक नीं कहिये आकाश छहूंइ नरक नां, जिम एक गुरुलघु सप्तम आकाश । अगुरुलघु पामियं विण नहि कहिये तास || जिम तणुवाय गुरुलघु तिम सगला घनवाय । घनोदधि पृथ्वी छ, कहिये ए वर न्याय || कहाय । थाय ।। देख । एक ॥ सोरठा अवकाशंतर आदि, पूर्व कह्या छै ते बली । गापा अर्द्ध संयादि विण अनुसारे जाणवा ।। १०. एवं संसारं आउलीकरेंति एवं परित्तीकरेंति ११. एवं दीही करेंति एवं हस्सीकरेंति १२. एवं अणुपरिट्टेति एवं वीईवयंति १३. पसत्था चत्तारि अपसत्था चत्तारि । ( ० १२-६-२२१ ) १४. सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? १५. गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए, णो गरुयलहुए, अगरुयलहुए। (श० ११३६२) वा०-- इह चेयं गुरुलघुव्यवस्था निच्छ्य सव्वगुरु सब्बलहुं वा न विज्जए दव्वं । ववहारओ उ जुज्जइ बायरखंधेसु नणेसु || १|| अगुरुलहू चउफासो अरुविदव्वा य होंति नायव्वा । सेसा उ अट्ठफासा गुरु लहुया निच्छयणयस्स ॥२॥ ( वृ० प० ६६) ! १६. सत्तमे भवाए कि गए? हुए?? गल? १७. गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए । लहुए, गरुयलहुए, णो अगस्य(०२३२२) १८. एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी । ( श० ११३९४ ) १६. ओवासंत राई सव्वाई जहा सत्तमे ओवासंतरे । (स० २०३९५) २०. जहा तणुवाए एवं For Private & Personal Use Only श० १, उ० ६, ढा० २६ १७३ www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy