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________________ ३२. तिण काले नैं तिण समय रे, राजग्रह नगर सुजान। तिहां श्री वीर समोसऱ्या रे, जाव परपद गई स्थान || ३३. बंधक मुनिवर नां तदा अन्य दिवस किग वार पुव्वरत्तावरत्तकाल समये, धर्म जागरणा करतां सार ॥ ३५. ३६. ३७ ३६. ४०. * धिन मुनिराज खंधक सार । ऋषिराज खंधक पाज भवदधि, लाज उभय उदार । ( ध्रुपदं ) ४१. वा० - पुब्वरत्तावररत्तकालसमयंसि इहां इण पाठ ऊपर टीकाकार नो विवेचन मननीय छ- रात्रि नो पूर्व भाग ते पूर्वरात्र कहिये । वलि अपररात्र ते अपकृष्ट रात्रि, रात्रि नु पश्चिम भाग । पूर्व रात्रि अनैं पश्चिम रात्रि ए बिहुं लक्षण जे काल रूप समय तेहने कहियँ पुव्वरत्तावरत्तकाल समय । एतलं मध्य रात्रि नैं विषेपूर्व रात्रि नुं छेहलुं भाग अन पश्चिम रात्रि नुं पहिलं भाग, ए बिहुं भाग रात्रि ना ते वेला अर्द्ध रात्रि हुई, ते अर्द्ध रात्रि नैं विषे।' अथवा पूर्व रात्रि अपररात्रि काल समय इहां रेफ रा लोप थकी पुव्वरत्तावरत काल समयंसि इम पाठ हुई । • रूप आत्मविदं मन विषेश विचार इम ए उदार तपे चालूं जोव-बले करी, जीव- शक्ति चितित प्राचित पेख उपनों ताम विशेख ॥ इण यावत् पामू किलामना, यावत् दृष्टंत | शब्द सहित हूं पालतो, शब्द सहित तिष्ठत ।। ते इम पिण छै तिहां लग, म्हारे उठाण कम्म बल जान । वीर्य नै फुन पुरस्कार, वलि पराक्रम मान ॥ एवं करी, हूं जावत नाड़ी दीसंत | निष्ठत ॥ सोरठा इतसे आज सगेह, उट्टागादि क्षीण थया नहि एह शक्ति कहि " मार्ट जिहां लगे महारं छं उटा कम्म वल वीर्य शक्ति * लय- कपि रे प्रिया संदेशो कहै २२६ भगवती-जोह Jain Education International धीर । वलि जिहां लग मांहरा, धर्माचारज धर्म तणां उपदेशदाता भगवंत श्री महावीर ॥ रागद्वेष जित्या जिणं, भविक शुभार्थी स्वाम पुरसवर-गंध-हस्ती विच अभिराम ॥ तथा सर्वथा । मावज रही । , भासा मात्रज एह । पुरस्कार पराक्रम जेह || ३२. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया। (श० २२६५) ३३. तए णं तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स (०२४६६) बा०] [पुवरतावर कालसमनि ति पूर्वरागाच रात्रः पूर्वो भागः अपररात्रश्च - अपकृष्टा रात्रिः पश्चिमतद्भाग इत्यर्थः, तल्लक्षणो यः कालसमय: कालात्मकः समयः स तथा तत्र, अथवा पूर्वरात्रापररात्रकालसमय इत्यत्र रेफलोपात् 'पुव्वरत्तावरत्तकालसम यंसि' त्ति स्याद् । ( वृ० प० १२०) ३४. इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - ३५. एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं जाव धमणिसंतए जाए। जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवजीवेण चिट्ठामि। २६. जालिम एवमेव समच्छामि ससद्दं चिट्ठामि । ३७. अति उद्याने कम्मे बने वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे । ३८. उत्थानादि न सर्वथा क्षीणमिति भावः । ( वृ० प० १२७ ) ३६. तं जावता मे अत्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकार-परक्कमे ४०. जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ४१. 'सुहत्थि' त्ति शुभार्थी भव्यान् प्रति सुहस्ती वा पुरुषवरगन्धहस्ती। (१००० १२७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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