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________________ कृष्ण नील कापोत ने जाणो, अधिक संसारी जेम पिछाणो । णवरं प्रमत्त अप्रमत्त बे भेद, नहि करिवा न भणवा वेद || २६. 'संसारी ना किया भेद दोय, संजती नैं असंजती जोय । संजती ना दोय भेद कीधा, प्रभादी ने अप्रमादी सीवा ॥ ३०. तिम कृष्णादिक त्रिहुं ना भेद दोय, संजती नै असजती होय । संजती ना बे भेद न थुणवा, प्रमत्त अप्रमत्त भेद न भणवा ।। ३१. प्रमादी में कृष्णादिक पार्व अप्रमादी में ए विहं नावै। तिण से संजती ना वे भेद, नहि भगवा इस का वेद ।। सूं ३२. धुर भेद संजत वर्ज्यो नाहि, तिण सूं कृष्णादि साधु रे मांहि । संगत शुभ योग भी अणारंभ, अशुभ जोग आयी आरंभ।' [ज० स०] ३३. कोइ कहैं कृष्ण लेश्यावंत, तसुं किम शुभ जोग आवंत । तिण रो जाव सुणो चित ल्याय, तेजु पद्म शुक्ल रे न्याय ॥ ३४. ते पद्म पद्म शुक्ल आयारंभा ? के पर उभयारंभ अनारंभा ? तिण नैं औधिक पाठ भलायो, पिण सिद्ध न भणवा ताह्यो । ३५. 'तेजु पद्म शुक्ल ना वे भेद, संजती असती सुवेद । संजती ना कह्या बे प्रकार, प्रमादी नैं अप्रमादी सार ॥ ३६. अप्रमादी अणारंभा संभ प्रमत्त पिण सुभ जोगी नारंभ । असुन जोगी आत्मादि आरंभ नहि अगारंभ चित स्तंभ ॥ ३७. तेजु पद्म शुक्ल लेश्यावंत, असुभ जोगी कह्या भगवंत । अधिक पाठ भलायो ते न्याय पूर्वनी पर भेद ३८. तिम कृष्ण नील काउवंत, संजती शुभ ते आधी अणारंभी कहिये, वारू न्याय हिये कराय || २८. ३६. । शुभ लेसी अशुभ जोग अपेक्षाय आत्मादि आरंभा कहै ताय तो अशुभ नेसी शुभ जोग अपेक्षाय, अगारंभा कहिणा ससुंग्याय ॥ ४०. असुभ लेश्या द्रव्य कहै कोय, तो शुभ लेश्या पिग द्रव्य होय । शुभ लेश्या भणी भाव था, तो अशुभ लेश्या भावे क्यूं उथाप ? ४१. भावे तेज़ पद्म पद्म शुक्लवंत, ते वेला असुभजोग न हुंत । पिण जे भव आधी ते जीव लभ, अशुभ जोग आधी आरंभ ॥ ४२. तिम भावे कृष्ण नील काउवंत, ते वेला सुभ जोग न हुंत । पिण ते भव में आर्य शुभ जोग, ते वेला अनारंभ प्रयोग || ४३. विरुद्ध अर्थ वृत्ति' में पिछांणी, अशुभ भाव लेश्या मुनि में नांणी । टॉमटॉम को सूख मांह्यो, छठे गुणठाणो छ लेस्या पायो । ७० जोगी हूं। सलहिये || 1 १. सत्यादिकृष्णश्वस्नीयस्य कापतयस्य वीराण्डको यथा अधिकजीवदण्डकाव्य प्रमताप्रमत्तविशेषणवादिषु हि अप्रशस्त भावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यच्चोच्यते-- पुव्व पडिवण्णओ पुण अण्णयरीए उ लेस्साए त्ति तद्द्रव्य लेश्यां प्रतीत्येति मंतव्यं, ततस्तासु प्रमत्ताद्यभावः । ( वृ० प० २२, २३) भगवती-जोड़ Jain Education International ३४. उस पलेस, क्लेस जहा ओहिया जीवा, नवरं - सिद्धा न भाणियव्वा । ( ० १३८) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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