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________________ ७. *विनय, ज्ञान, दर्शन बलि, चरित्त-संपन्ना समाज। लज्जा-संपन्ना प्रसिद्ध ही, अथवा संजम लाज ।। फुनि मुनि लाघव-संपन्ना, द्रव्य थी अल्प उपद्धि। भाव थी तीन गारव तज्या, छोड़ी अहंकार नी बुद्धि ।। ओयंसी मन-वल युक्त है, तेयसी तनु-प्रभा जन्न । वच्चसी विशिष्ट प्रभाव ही, अथवा विशिष्ट वचन्न ।। ७. सणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लज्जा–प्रसिद्धा संयमो वा। (वृ०-प० १३६) ८. लाघवसंपन्ना लाघवं-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्यागः । (व०-प०१३६) ६. ओयंसी तेयंसी वच्चंसी 'ओजस्विनो' मानसावष्टम्भयूक्ता: 'तेजस्विनः' शरीरप्रभायुक्ता: 'वर्चस्विनः' विशिष्टप्रभावोपेताः 'वचस्विनो वा' विशिष्टवचनयुक्ताः । (वृ०-५० १३६) १०. जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा . 'जसंसी' ति ख्यातिमन्तः । (वृ०-५० १३६) ११. जिइंदिया जियपरीसहा ११. १०. जसंसी जशवंत प्रसिद्ध ही, जीता क्रोध जोता मान । जीता माया जीता लोभ नै, जीता निद्रा जान ।। जीता इंद्रिय नै मुनि, जीता परीसह जेह। क्रोधादि उदय आयां प्रतै, निर्फल करिव जीतेह ।। जीवण री आशा नहीं, मरण तणो भय नाय। जाव कुत्रिकापण जिसा, महामोटा मुनिराय ।। १२. जीवियास-मरण भयविप्पमुक्का जाव कुत्तियावणभूया १३, १४. इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'तवप्पहाणा गुणप्प हाणा' गुणाश्च संयमगुणाः, तपः संयमग्रहणं चेह तपःसंयमयोः प्रधानमोक्षांगताभिधानार्थ। (वृ०-प० १३६) १५ सोरठा १३. इहां जाव शब्द रै मांहि, तपसा करी प्रधान है। गुण संयम-गुण ताहि, तिण कर प्रधान ते स्थविर ।। १४. इहां तप सयम ग्रहण, ते बिहु प्रधान आखिया। शिव-अंग श्री जिन वयण, तस् फल अघ तोड़े रुकै।। करणे करी प्रधान, पिंडविशुद्धयादिक करी। चरण-प्रधान सुजाण, ते महाव्रतादिक करी॥ निग्रह-प्रधान जेह, दंड अन्याय करै जसु । अनाचार सेवेह, तास निषेधी दंड दिये ।। निश्चय करी प्रधान, अवश्यमेव करिवं जिको। करै मुनी गुणखान, तथा तत्त्व-निर्णय प्रवर ।। मार्दव करी प्रधान, तेह मान-निग्रह करी। आर्जव प्रधान जान, ए माया-निग्रह करी।। जितक्रोधादि पणेह, मार्दव आदि गणां तणो। प्रधानपणों जणेह, तो स्यू मार्दव आदि फुन ? २०. जितक्रोधादि विषह, क्रोधादी उपजै कदा। तथापि तेह प्रतेह, करै विफलता महामुनि ।। २१. मार्दव आदि सुजान, प्रधानपणां विष बली। उदय-अभाव पिछाण, तिण सं मार्दव आदि फन ।। वा०-अथवा जे भणी ए क्रोधादिक जीता छै, इण कारण थकीज क्षमादि प्रधान, इम हेतु-हेतुवान् भाव थकी विशेष छ। *लय-बाड़ी फली अति भली मन भमरा रे १५. करणप्पहाणा चरणप्पहाणा तत्र करणं-पिण्डविशुद्धधादि, चरणं-व्रतश्रमण धर्मादि। (वृ०-प० १३६) १६. निग्गहप्पहाणा निग्रहः-अन्यायकारिणां दण्डः। (वृ०-प०१३६) १७. निच्छयप्पहाणा निश्चयः-अवश्यंकरणाभ्युपगमस्तत्त्वनिर्णयो वा। (वृ०-प० १३६) १८. 'मद्दवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा' १६. ननु जितक्रोधादित्वान्माई वादिप्रधानत्वमवगम्यत एव तत्कि मार्दवेत्यादिना? (वृ०-प० १३६) २०, २१. उच्यते, तत्रोदयविफलतोक्ता मार्दवादिप्रधानत्वे तूदयाभाव एवेति। (वृ०-प० १३६) श० २, उ०५, ढा०४२ २६५ For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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