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२२.
२२. लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा
लाघवं-क्रियासु दक्षत्वं । २३. मुत्तिप्पहाणा
(वृ०-प०१३६)
२४. विज्जाप्पहाणा
२५. मंतप्पहाणा
२७. वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा
२८. नयप्पहाणा नियमप्पहाणा
२६. सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा
लाधव करी प्रधान, दक्षपणूंज क्रिया विषै। क्षांति प्रधान जान, तेह क्रोध-निग्रह करी॥ गुप्ति' कर सुप्रधान, मनोगुप्ति आदिक करी। मुक्ति प्रधान जान, ते निर्लोभपण करी।। विद्या करी प्रधान, ते प्रज्ञप्ती आदि करि । देवी साधन जान, अक्षर अनुके. तिका ।। मंत्र करी प्रधान, हरिणगमेषी प्रमुख ही। अधिष्ठित सविधान, तेह तणा पिण जाण मुनि ।। अथवा विद्या सोय, साधना करी सहित जे। मंत्र जिको अवलोय, साधना करी रहित ते ।। वेद करी सुप्रधान, आगम चिहं वेदज्ञ वा। ब्रह्म प्रधान सुजान, ब्रह्म कुशल अनुष्ठान वा ।। फन नय करी प्रधान, नैगमादि वा नीतिवर । नियम प्रधान पिछाण, अभिग्रह कर उत्तम पवर ।। सत्य करी सुप्रधान, सम्यग् वादे कर पवर। शौच प्रधान सुजान, द्रव्य भाव भेदे करी ।। द्रव्य शौच गुण एह, वर निर्लोभपणे करी। वा निर्लेपपणेह, भाव शौच आचार शुद्ध ।। चारू वण्णा हीर, वर्ण-कीत्ति जेहनी भली। वा गौरादि शरीर, अथवा प्रज्ञा जसुं भली ।। शुद्धि हेतु भावेह, अथवा सुहृद मित्र छ । सर्व जीव नै जेह, सोही रव नों अर्थ ए॥ निर्मल भावे तेह, शोधी कहिय तेहन। अथवा सुहृद जेह, मित्र सर्व जीवां तणा ।। बलि नियाणा रहीत, वजित उत्सुक भाव फुन । संजम पवर वदीत, तेहथी बाहिर लेश नहिं ।। भला चारित्र में रक्त, प्रश्न अनै व्याकरण जसं। वच निर्दषण व्यक्त, तथा विरल छेटी नथी ।। जाव शब्द में जान, पाठ वृत्ति में आखिया। तेह थकी पहिछान, एह अर्थ दाख्या इहां ।। कुत्रिक - आपण भूत, स्वर्ग मृत्यु' पाताल भू । लोक विहूं नी सूत, वस्तू जसु हाटै लहै ।।
३१. चारुपण्णा
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३२. सोही
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३३. शुद्धिहेतुत्वेन शोधयः सुहृदो वा-मित्राणि जीवानामिति गम्यम्।
(वृ०-५० १३६) ३४. अणियाणा अप्पुस्सुया अबहिल्लेसा
३५. सुसामण्णरया अच्छिद्दपसिणवागरणा
३७. कुत्तियावणभूया
कुत्रिक-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्सम्भवं वस्त्वपि कुत्रिक तत्संपादक आपणो--हट्टः कुत्रिकापणः।
(वृ०-५० १३६)
१. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २।९५ में 'गुत्तिप्पहाणा' पाठ नहीं है। टीका में भी यह पद व्याख्यात नहीं है। जयाचार्य ने इस पाठ की जोड़ की है। संभव है उन्हें कोई ऐसा
आदर्श प्राप्त था, जिसमें उक्त पाठ रहा है। २. मर्त्य लोक
२६६ भगवती-जोड़
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