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________________ ३८. तद्भूताः समीहितार्थसम्पादनलब्धियुक्तत्वेन सकल गुणोपेतत्वेन वा तदुपमाः। (वृ०-५० १३६, १३७) ३८. तेह सरीखा स्वाम, वंछित अर्थ पमाडवा। लब्धि युक्त करि ताम, तथा सर्व गुण सहित जे ।। वाल-कु कहितां भूमि, त्रिक कहितां स्वर्ग, मृत्यु, पाताल लक्षण, एतलै स्वर्ग मृत्यु पाताल एत्रिहुं पृथ्वी नै विषे जे वस्तु हुइं ते इहां लाभ, तेह थी ते कुत्रिकापण। ए हाट देवाधिष्ठित छ ते माटै वंछित वस्तु मिले। ते सरीखा स्थविर वंछित अर्थ पमाडवानी लब्धियुक्त पण करी, अथवा सकल गुण सहित पण करी ते ओपमा। ३६. *घणां सूत्र ना जाण छै, वलि जसं बहु परिवार । पांच सौ संत संघात ही, परिवरचा परिकर सार ।। ४०. जिम अनुक्रमैं चालता थका, गमन करता ग्रामानुग्राम । सुखे सूखे विचरता थका, निज इच्छा करि ताम ।। जिहां तुंगिया नगरी अछ, जिहां पुष्पवती चैत्य । तिहां आवै आवी करी, साधु नां वृंद समेत्य ।। यथा जोग्य अवग्रह प्रतै, आज्ञा लेइनै जेह । संजम तप करि आतमा, भावंता विचरेह ।। ४३. तुंगिया नगरी में तदा, स्थान सिंघाड़ आकार। त्रिक त्रिण पंथ जिहां मिले, चउक्क मिले पंथ च्यार ।। ४२. ४४. चच्चर' पंथ घणा मिले, राजमार्ग जाव एक दिशि सामने, लोक घणा महापंथ । जावंत ।। ३६. बहुस्सुया बहुपरिवारा पंचहि अणगारसएहि सद्धि संप रिवुडा ४०. अहाणुपुब्वि चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुह सुहेणं विहरमाणा ४१. जेणेव तुंगिया नगरी जेणेव पुप्फवइए चेइए तेणेव उवाग च्छति, उवागच्छित्ता ४२. अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। (श० २०६५) ४३. तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क 'सिंघाडग' त्ति शृंगाटकफलाकारं स्थानं त्रिक-रथ्यात्रयमीलनस्थानं चतुष्कं रथ्याचतुष्कमीलनस्थानम् । (वृ०-प०१३७) ४४. चच्चर-च उम्मुह-महापह-पहेसु जाव एगदिसाभिमुहा निज्जायंति। (श० २।६६) चत्वरं-बहुतररथ्यामीलनस्थानं महापथो-राज मार्गः। (वृ०-प०१३७) ४५. तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्ठतुट्ठ जाव सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी४६. एवं खलु देवाणुप्पिया ! पासाबच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना ४७. जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। ४८. तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं थे राणं भगवं ताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, ४६. किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमसण-पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए जाव गहणयाए? ५०. तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! थेरे भगवते वदामो नम सामो जाव पज्जुवासामो। ४५. श्रावक सुण ए वारता, हरष संतोष सुपाय । जाव माहोमांहि तेड़ी करी, बोल एहवी वाय ।। इम निश्चै देवानुप्रिया ! पास - संतानिया जाण । स्थविर भगवंत पधारिया, जाति-संपन्न गुणखाण ।। ४७. जाव यथायोग्य आज्ञा ग्रही, संजम तप करि सोय । आत्मा नै भावता छता, विचरै छै अवलोय ।। ४८. महाफल हे देवानुप्रिया ! तथारूप स्थविर भगवंत । तास नाम गोत्र सांभल्यां, गुण सुण हरष धरंत ।। ४६. तो किस कहिवो साहमो जायन, वंदणा नै नमस्कार । प्रश्न पूछण सेवा तणो, जाव ग्रहिवा अर्थ सार ।। ते भणी हे देवानुप्रिया ! चालो स्थविरां पास । नमस्कार वंदणा करां, जाव सेवा करां तास ।। *लय-बाडी फली अति भली मन भमरा रे १. बहत से आदर्शों में चच्चर के बाद चउम्मूह पाठ नहीं है। अंगसूत्ताणि भाग २ श०२।१६ में यह पाठ है। पर जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में संभवतः यह पाठ नहीं था। टीका में भी इसकी कोई व्याख्या नहीं है। इसलिए इस पाठ की जोड़ प्राप्त नहीं है। श०२, उ०५, ढा०४२ २६७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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