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________________ गीतक-छंद १४. फून संग नै तजवै करी, मुनि पवर त्यागी छै सही। रिषि लज्जु संयमवान् अथवा, रज्जु जेम अवक ही। १५. दर धर्म धन पामी करी, जग मांहि धन्य कहावही। वच खमैं जे क्षमता करी, पिण न तु असमत्थ-भाव ही ।। १४. चाई लज्जू 'चाइ' त्ति संगत्यागवान् 'लज्जु' त्ति संयमवान्, रज्जुरिव वा रज्जुः-अवक्रव्यवहारः। (वृ०-प० १२२) १५. धन्ने खंतिखमे धन्यो-धर्मधनलब्धेत्यर्थः, क्षान्त्या क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ क्षान्तिक्षमः। (वृ०-५० १२२) जितेंद्रिय इंद्रिय तणां, विकार तणु अभाव । नहीं विकार इंद्रिय तणु, ए उत्तम गुण साव ।। पूर्वे गुप्तेंद्रिय का, इंद्रिय - जन्य विकार। गोपन मात्र थको हुवे, ए अविकार विचार ।। १६. जिइंदिए 'जितेन्द्रियः' इन्द्रियविकाराभावात्। (वृ०-५० १२२) १७. यच्च प्राग्गुप्तेन्द्रिय इत्युक्तं तदिन्द्रियविकारगोपनमात्रे णापि स्यादिति विशेषः। (वृ०-प० १२२) गीतक-छंद १८. रव सोहिए तसं अर्थ त्रिण, शोभितो शोभावान ही। अतिचार मैं तजव करी, वा शोधितो गुणखान ही।। १६. फुन सर्व प्राणी विषै मैत्री, वर सखर समभाव ही। तसुं योग थी सौहृद करा, ए तृतिय अर्थ कहाव ही। २०. अनियाण-तेह निदान पुद्गल-सूख तणी वांछा नहीं। फुन अल्प उत्सुक ते उतावलपणां रहित मुनी सही।। २१. फुन चरण थी नहि बहिलेश्या-मनोवृत्ति मुनी तणी। सूध श्रमणभावे रक्त वा अति रक्त चरण रुचि घणी ।। १८, १६. सोहिए शोभितः शोभावान् शोधितो वा निराकृतातिचारत्वात् सौहृदं-मैत्री सर्वप्राणिषु तद्योगात्सौहृदो वा। (वृ०-५० १२२, १२३) २०. अनियाणे अप्पुस्सुए 'अणियाण' त्ति प्रार्थनारहितः 'अप्पुस्सुए' त्ति 'अल्पौत्सुक्यः' त्वरारहितः। (वृ०-५० १२३)) २१. अबहिल्लेसे सुसामण्णरए अविद्यमाना बहिः-संयमाद्बहिस्ताल्लेश्या-मनोवत्तिर्यस्यासावबहिर्लेश्यः, शोभने थमणत्वे रतोऽतिशयेन वा श्रामण्ये रतः। (वृ०-५० १२३) २२. दंते दान्तः क्रोधादिदमनात्, दृयन्तो वा रागद्वेषयोरन्तार्थ प्रवृत्तत्वात्। (वृ०-प० १२३) २३. इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरइ। (श० २।५५) २२. रव दंत ना बे अर्थ-क्रोधादिक दमन थी दंत ही। अथ राग-द्वप यान्त-करण-प्रवृत्त कहिये द्वचन्त हो। २३. सुध एह वर निग्रंथ प्रवचन, तेह प्रति आगल करी। विचरै भूनी गुण-सागरू, संवेग अति चित आदरी ।। २४. २५. दहा महावीर भगवन् श्रमण, कयंगला थी ताम। छत्रपलास उद्यान थी निकले निकली स्वाम ।। बाहिर जनपद देश में, विहार करी विचरंत। हिव खंधक अणगार ते, सीख सूत्र - सिद्धत ।। तथारूप जे वीर नां, स्थविर समीप सार । सामायिक नैं आदि दे, भणिया अंग इग्यार ।। २४-२६. तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० २०५६) तए णं से खदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, २६. श०२, उ०१, ढा०३७ २२७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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