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ढाल : ३७
दूहा कात्यायनगोत्री खंधक थयो तदा अणगार । पंच-समित मन-वच-तनु-समित गुप्ति निहु सार ।।
१. नए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते अणगारे जाते.---
इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चार-पासवण-खेल-सिंधाणजल्ल-पारिट्ठावणियासमिए मणसमिए वइसमिए काय
समिए मण गुते वइगुत्ते कायगुत्ते २. ईर्यायां---गमन समितः, सम्यक्प्रवृत्तत्वरूपं हि समितत्वम्।
(वृ०-५० १२२)
ईर्या-गमन विष मुनि, सम् सम्यक् प्रकार । इत कहितां जे प्रवत, ईर्या-समित उदार ।। भाषा-समित विचार नै, वदै वचन सुखदाय । बलि एपणा नै विषे, सम्यक् प्रवृत्ति ताय ।। आदान ग्रहण करी सहित, भंड मात्र ए मंत । उपकरणज-परिच्छद भणी, निवखेवणा मूकंत ।। तेह विर्ष शुध प्रवत, कहियै ए आदान । भंडमत्तनिक्षेपणा , समिति चतुर्थी जान ।।
४, ५. आदानेन --ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया-उपकरणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा-न्यासस्तस्यां समितो यः स
(वृ०-५० १२२)
तथा।
गीतक छंद बड़ि नीत नै लघ नीत फुन जे, खेल-वलखो मुख तणो। संघाण श्लेषम नाक नं, जल्ल-मैल ए तनू नो गिणो ।। उच्चार नै पासवण फुन जे, खेल नैं संघाण ही। जल्ल परिठवा में सुध प्रवृत्ति, समित तेह सुजाण ही ।।
६. 'खेल' त्ति कण्ठमुख श्लेष्मा सिंघानकं च-नासिकाएलेष्मा।
(वृ०-५० १२२)
८. मणसमिए' ति संगतमनः प्रवृत्तिकः । (वृ०-५० १२२)
६. मणगुत्ते' नि मनोनिरोधवान् ।
(वृ०-प० १२२)
शुद्ध मन जसु प्रवर्तं, ते मन-समित पिछान । निपाप वचनज वागरे, वचन-समित ते जान ।। निपाप काया प्रवत, काय-समित कहिवाय । अशुभज मन प्रति गोपव, मनोगुप्त सुखदाय ।। अशुभ वचन प्रति गोपवै, वचन-गुप्त विख्यात । अशुभ काय प्रति गोपवे, काय-गप्त अखियात ।। मनोगप्तत्वादिक तणों, निगमन वच हिव आय । गत्ते कहितां गुप्त है, विहं गुप्त इह माय ।। एहिज विशेषण अर्थ हिव, आगल कहिये जेह। गत्तिदिए-इंद्रिय तणी, विपय गोपवी तेह ।। गप्त बंभयारो वलि, गुप्तियुक्त ब्रह्म सार। तेह प्रतै मुनि आचरै, खंधक गुण-भंडार ।।
११. गुत्ते
मनोगुप्तत्वादीनां निगमनम्। १२. गुत्तिदिए
(वृ०-५० १२२)
१३. गुत्तबंभयारी गुप्तं -ब्रह्मागुप्तियुक्तं ब्रह्म चरति यः स तथा।
(वृ०-प० १२२)
२२६ भगवती-जोड़
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