________________
वीर प्रभु खंधक प्रति सीखवै। (ध्रुपदं) ३२. जब वीर प्रभ खंधक भणी, स्वयमेव प्रव्रज्या दिद्ध।
जाव धर्म कहै रूड़ी रीत सूं, प्रभु वचन बदै सुप्रसिद्ध ।। ३३. इम चालवू हे देवानुप्रिया ! युग मात्र भूमि दृष्टि थाप।
ते पिण जयणा सहित रुड़ी रीतसं, इम कहै जिनेश्वर आप ।। ३४. निक्खमण प्रवेशादि रहित स्थानके, पेखी पूजी रूड़ी रीत।
संजम, आत्म, प्रवचन बाधा नहिं हुवै, इम ऊभो रहिवू जयणां सहीत ।।
३२. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोतं
सयमेव पब्वावेइ जाव धम्ममाइक्खइ३३. एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं,
३५. पहिला चक्षु थकी मही देखने, कर नैं संडासै कर ताय।।
या सावधानपणे प्रमार्जन करी, इम वेसवू तुझ मुनिराय !
३६. इम जयणां सहीत बलि सूयवं, इम भोगवि तज स्वाद।
दोष धुम्र अंगारादि टालन, इम बोलवं मित मधुराद ।।।
३४. एवं चिठ्यिव्वं,
निष्क्रमणप्रवेशादिवजिते स्थाने संयमात्मप्रवचनबाधा
परिहारेणोर्ध्वस्थानेन स्थातव्यम्। (वृ०-५० १२२) ३५. एवं निसीइयवं, उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः ।
(वृ०-५० १२२) ३६. एवं तुट्टियब्वं, एवं भुंजियव्वं, एवं भासियव्वं,
‘एवं भुंजियव्वं' ति धूमांगारादिदोषवर्जनतः ‘एवं भासियवं' ति मधुरादिविशेषणोपपन्नतयेति।
(वृ०-प०१२२) ३७. एवं उट्ठाय-उट्ठाय पाहि भएहि जीवेहि सत्तेहि
संजमेणं संजमियब्वं, प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्ध्य-विबुद्ध्य प्राणादिषु विषये यः संयमो-रक्षा तेन संयंतव्यं--यतितव्यं ।
(वृ०-प० १२२) ३८, अस्सिं च णं अट्ठे णो किचि वि पमाइयव्वं ।
(श० २।५३)
३७. इम प्रमाद निद्रा छांडन, विबुध्य-विबुध्य जागी-जागी ताय।
प्राण भूत जीव सत्त्व नै विपै, संजम करि यत्न करिव सवाय ।।
35. एह अर्थ संजम तेह. विप, किचित् समय मात्र पिण ताय। प्रमाद न कर सर्वथा, इम भाषै श्री जिन राय ।।
धन्य-धन्य खंधक मोटो मुनि । (ध्रुपदं) ३६. खंधक कात्यायनगोत्री तदा, श्रमण भगवंत महावीर पाहि।
इम पूर्वोक्त धर्म उपदेश नै, सम्यक् पडिव आणी ओछाहि।।
४०. वीर आज्ञा करीनै चालतो, ऊभो रहै वेसै सूर्व आण ।
बलि भोजन आज्ञा सू करै, आज्ञा स् वोले निरवद वाण ॥ ४१. तिम प्रमाद रूप निद्रा तजी, विबुध्य-विबुध्य जागी-जागी ताय।
प्राण भूत जीव सत्त्व नै विष, संजम करि करै यत्न सवाय ।।
३६. तए णं से खदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ
महावीरस्स इमं एयारूवं धम्मियं उवएस सम्मं संपडि
वज्जइ४०. तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह
तुयट्टइ, तह भुंजइ, तह भासइ, ४१. तह उट्ठाय-उट्ठाय पाणेहि भूएहि जीवेहि सत्तेहि संजमेणं संजमेइ, अस्सिं च णं अट्ठे णो पमायइ।
(श० २।५४)
४२. ढाल भली छतीसमी, खंधक लीधो चरण स्खदाय ।
भिवख भारीमाल ऋपराय थी, सुख-संपति 'जय-जश' पाय॥
श०२, उ०१, ढा०३६ २२५
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org