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२१. पोते अनिष्ट कार्य कीधो तो पिण, पछै मत-सम्मत
मानेह |
निज आत्म प्रति वोसिरावे नहीं, अणुमए नो अर्थ छै एह ॥
२२. भंड करंड सम वली, आभरण करंडिया समान । आदरवा जोग्य पणा थकी, मुझ आत्मा ए सुविधान ||
२३. 'माणं सीयं" रखे फर्शो शीत ने, णं शब्द अथवा मानं आत्म प्रतै फर्श, शीत नों
वाक्यालंकार ।
कष्ट अपार ||
२४. र उष्ण क्षुधा तिरखा बलि रखे चोर
सर्प
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दंस मसक वातिक पैतिक श्लेष्मिक सान्निपातिक २५. विविध रोग दीर्घकालिका जिका शीघ्रघाती रोग परिसह उपसर्ग हुवै हुबै रखें इम पाली आतम
फर्शत | होवंत ||
आतंक |
अवंक] ॥
२६. भावे लाय थकी मुझ आतमा, बारे कायँ छतै हित सुख खम मोक्ष कल्याण है, फल साथै आसी २७. तिण सूं वा छू देवानुप्रिया ! स्वयमेव प्रव्रज्या रजोहरणादि वेस देवं करी, मुंड स्वयमेव लोच करेह ॥
परलोग | प्रयोग || देह |
२८. सेहावियं पडिलेहणादिक क्रिया, स्वयमेव करावो ग्रहण | सुवार्थ स्वयमेव सीखावियै, इम बोलै खधक वयण ||
२६. स्वयमेव आचार सीखाविर्य श्रुत ज्ञानादि विषय अनुष्ठान | काले भणवी इत्यादि सीखो, गोचर-भिक्षा अटन रूप जान ||
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३०. तथा विनय रूप जे धर्म ने विनयफल ते कर्म क्षय होय । चरण पंच महाव्रत आदि दे, करण उत्तर गुण अवलोय ॥ ३१. जाया कहिल जात्रा संजम ती मात्रा ति अर्थ ले आहार | विनयादिक में विषे वर्तवो, सुणयो वा ते धर्मउदार ॥
१. 'माणं शीतं स्पृशतु' इस पाठ की टीकाकार ने दो प्रकार से व्याख्या की है। दूसरी प्रकार से व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है-मा एनं आत्मानं शीतं स्पृशतु । जयाचार्य ने दोनों व्याख्याओं के आधार पर जोड़ की रचना की है ।
२२४ भगवती जोड़
२१. अणुमए
'अनुमतः अनुविप्रियकरणस्य पश्चादपि मतोऽनु( वृ०० १२२)
मतः ।
२२. भंडकरंडगसमाणे
भाण्डकरण्डकम् - आभरणभाजन तत्समान आदेयत्वादिति । (१०० १२२)
२३. मा णं सीयं
माशब्दो निषेधार्थः णमिति वाक्यालङ्कारार्थः इह च स्पृशत्विति यथायोगं योजनीयम्, अथवा मा एनमात्मानमिति व्याख्येयं । ( वृ०० १२२) २४, २५. माणं उन्हं, मा णं खुहा, माणं पिवासा, माणं चोरा, माणं वाला, मा णं दंसा, माणं मसया, माणं वाइय-पत्तिय-सेंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगायंका पहोवा तु कि
रोगा:- कालसहा व्याधयः आतङ्कास्त एव सद्यो घा तिनः । ( वृ० प० १२२) २६. एस मे नित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नीसेसा आणुगामिता भविस
२७. तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सयमेव पव्वाविय, सयमेत्र मुंडावियं,
स्वयमेव भगवत्यर्थः वाजितं रोहरणादिवाने नात्मानमिति गम्यते मुि
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(१००० १२२)
२८. सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं, मेति सूत्रार्थग्राहणतः ।
२६. सयमेव आयार-गोयरं
प्रत्युपेक्षणाविनिक्षितं
( वृ० प० १२२)
तथाऽऽचारः श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि, गोचरो - भिक्षाटनम् । ३०. विषय वेणइय चरण करण
( वृ००० १२२)
विनयः प्रतीतो वैनयिकं तत्फलं कर्मक्षयादि, चरणं-व्रतादि, करणं-पिण्डविशुद्धयादि । ( वृ० प० १२२) ३१. जायामायावत्तियं धम्मसाइक्खियं । (श० २१५२) यात्रा - संयमयात्रा माथा तदर्थमेवाहारमात्रा, ततश्च विनयादीनां वृत्तिः - वर्त्तनं यत्रासौ विनयवनविकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तं धर्मम् ।
( वृ० प० १२२)
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