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________________ जे तुम भाषी वारता, म्है धारी ओछाहि । एवमेय इत्यादि वा, एकार्थे वृत्ति मांहि ।। इम कहि जिन वदो करी, नमस्कार कर तंत। जइ ईशाणे निज उपधि, त्रिदंड आदि तजंत ।। ७. से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु। 'एवमेयं भंते !' इत्यादीनि पदानि यथायोगमेकार्थानि । (वृ०-प० १२१) ८. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभायं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तिदंडं च कंडियं च जाव धाउरत्ताओ य एगते एडेइ, ६. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता जाव नमंसित्ता एवं वयासी (श० २।५२) वीर समीप आय नै, प्रदक्षिणा त्रिण वार । नमस्कार वनणा करी, इम दोल्यो गुणधार ।। *प्रभु ! अरज करूं छू बीनती। (ध्रुपदं) १०. प्रभु ! आलित्तण अभिविधि करी, ए तो जल रह्या जीव-लोय । प्रभ ! पलितेणं अतिहि जलै, बलि आलित्त पलित्त जोय ।। ११. जरा अन मरणे करी, जीव लोक जलै जग ताहि। जिम दृष्टांत कोइ गाथापती, तिण रै अग्नि लागी घर मांहि ।। १२. घर में भंड वस्तु हुवै, अल्प न्हानी तिका छै सार। बस्तु बहुमोली ग्रही आत्मना, जावै एकांत स्थान तिवार ।। १३. ए मुझ वस्तु काढ्यै छतै, पच्छा पुरा हियाए होय । इहलोक माहै होवै हित भणी, पेच्चा पाठ कह्यो नहिं कोय ।। १४. सुहाए ते सुख अर्थे हुवै, खमाए क्षम समर्थ काज । सुख जथ हुव, खमाए क्षम समथ काज। निस्सेसाए कल्याण अर्थे हुवे, दालिद्र मुकायव साज।। १५. जिहां जावं त्यां आवणहारी हुसै, ते पिण इह भव आश्री जोय। विवक्षित काल थी पच्छा-पुरा इह भव में सर्वदा होय ।। १०. आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्त पलिते णं भंते ! लोए। 'आलित्तणं' ति अभिविधिना ज्वलितः 'लोए' त्ति जीव लोकः 'पलित्तणं' ति प्रकर्षेण ज्वलितः । ११, १२. जराए मरणेण य। से जहानामए केई गाहावई अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमइ। १३. एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा य हियाए। १४. सुहाए खमाए निस्सेयसाए। १५. आणुगामियत्ताए भविस्सइ । 'पच्छापुरा य' त्ति विवक्षितकालस्य पश्चात् पूर्व च सर्वदैवेत्यर्थः। (वृ०-५० १२२) १६. एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि आया एगे भंडे इ8 कते। १७. पिए मणुण्णे मणामे १६. इण दृष्टांते हे देवानुप्रिया ! मुझ आत्म तिको इक भंड। इठे ते इष्ट वल्लभ अछ, कते अभिलाष जोग्य अखंड ।। १७. सदा प्रेयविषयपणा थी बली, प्रिय छै मुझ आतम एह। मनोज्ञ मनगमती भली, मणामे अति गमती कहेह ।। १८. थेग्जे-स्थैर्य-धर्म योग थी, तथा उववाई नी वृत्ति माहि। अस्थिर आत्मा पिण मुढ़ जे स्थिर भाव जाणै छै ताहि ॥ १६. वेस्सासिए कहिता बलि, विश्वास प्रयोजन तास। बहुलपणे करी पर-तनु तिको, अविश्वास हेतु विमास ।। २०. संमए तत्कृत कार्य ना, संमतपणा थी एह। बहुवार बहुजन मान्य ह्व, तिण बहुमत कहिए तेह ।। १८. थेज्जे स्थैर्यधर्मयोगात् स्थैर्यः । (वृ०-५०१२२) १६. वेस्सासिए वैश्वासिको विश्वासप्रयोजनत्वात्। (व०प०१२२) २०. सम्मए बहुमए संमतस्तत्कृतकार्याणां संमतत्वात् 'बहमतः' बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशाद्वरिति वा मतो बहुमतः । (वृ०-प० १२२) *लय—मेरी तंबी देवोनी हो सेठजी श०२, उ०१, ढा०३६ २२३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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