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१८. इम खलु इक जीव इक समय, एक आउखा भणी पकरंत। १८. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेति, तं तेह इहभव वा परभव तणु, सेवं भंते ! जाब विचरंत ।। जहा-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा।
(श० १।४२१)
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाब विहरति । जय जय ज्ञान जिनेन्द्र नो। (ध्रुपदं)
(श० ११४२२) १६. अन्ययूथिक प्रस्ताव थी, अन्य तीर्थकर शिष्य संतान ।
तास विस्तार कहै हिवै, सांभलजो श्रोता धर कान ।। २०. तिण काल नै तिण समय, पाव जिन शिष्य नां सीस। २०. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे कालासवेसियकालासवेसी-पुत्र ते, इण नामें अणगार जगीस।। पुत्ते णामं अणगारे
'पासावच्चिज्जे' ति पापित्यानां-पार्श्वजिन
शिष्याणामयं पार्खापत्यीयः। (वृ०-५० १००) २१. जिहां वीर स्थविर श्रुत-वृद्ध हुँता, ते स्थविर भगवंत ने कहै इम आय। २१. जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता स्थविर सामायक न जाणता, समभाव रूप सूक्ष्म छै ताय ।।
थेरे भगवते एवं वयासी-थेरा सामाइयं न याणंति, 'थेरे' ति श्रीमन्महावीरजिनशिष्याः श्रुतवृद्धा: 'सामाइयं' ति समभावरूपं 'न याणंति' त्ति न जानन्ति, सूक्ष्मत्वात्तस्य।
(वृ०-प० १००) २२. स्थविर सामायक अर्थ न जाणता, अर्थ प्रयोजन कम निरोध। २२. थेरा सामाइयस्स अटुं न याणंति । थेरा पच्चक्खाणं न स्थविर पचखाण न जाणता, पचखाण अर्थ न जाणता सोध ।। याणंति, थेरा पच्चक्खाणस्स अटुं न याणंति ।
'सामाइयस्स अट्ठ' ति प्रयोजनं कर्मानुपादाननिर्जरणरूपं ।
(वृ०-प० १००) २३. स्थविर संयम नहीं जाणता, संजम पृथव्यादि रक्षण ताम । २३. थेरा संजमं न याणंति, थेरा संजमस्स अटुं न याणंति । स्थविर संयम अर्थ न जाणता, ए अर्थ अनाश्रवपणुं अमाम ।। 'संजम' ति पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणं, तदर्थं च---
अनाश्रवत्वं।
(वृ-प०१००) २४. स्थविर संवर नहीं जाणता, इंद्रिय नोइंद्रिय वस करण । २४. थेरा संवरं न याणंति, थेरा संवरस्स अट्ठन याणंति । स्थविर संवर अर्थ न जाणता, अर्थ अनाश्रवपणुं भव तरण ।। 'संवरं' ति इन्द्रि यनोइन्द्रियनिवर्तनं, तदर्थ तु-अनाथ
वत्वमेव ।
(वृ०-५० १००) २५. स्थविर विवेग न जाणता, विशिष्ट बोध विवेग कहाय। २५. थेरा विवेगं न याणंति, थेरा विवेगस्स अटुंण याणंति । स्थविर विवेक अर्थ न जाणता, तजवा योग्य त्यागादिक ताय ।। 'विवेगं' ति विशिष्टबोधं, तदर्थ च-त्याज्यत्यागादिकं ।
(वृ०-५० १००) २६. स्थविर बिउसग्ग नहीं जाणता, ध्यान करी काया बोसिराय। २६. थेरा विउस्सगं न याणंति, थेरा विउस्सन्गस्स अट्ठ न स्थविर विउसग्ग अर्थ न जाणता, निस्पृहपणुं निर्वछा ताय ।।।
याणंति।
(श०११४२३) 'विउस्सन्गं' ति व्युत्सर्ग कायादीनां, तदर्थ चानभिष्वङ्गताम्।
(वृ०-प० १००) २७. स्थविर भगवंत तिण अवसरै, कालासवेसी पूत्र ने कहै एम। २७. तए णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं हे आर्य! सामायक जाणां अम्हे, जाव जाणां विउसग्ग ना अर्थ जेम ।। वदासी-जाणामो णं अज्जो ! सामाइयं, जाणामो णं
अज्जो! सामाइयस्स अट्ठ जाव जाणामो णं अज्जो! विउस्सग्गस्स अट्ठ।
(श० ११४२४) २८. कालासवेसी-पुत्र मुनि तिको, स्थविर भगवंत प्रतै कहै वाय। २८. तते णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे ते थेरे भगवंते एवं जो आर्य! सामायक जाणो तुम्हे, जाब विउसग्ग अर्थ जाणो सुखदाय ।। वयासी-जइ णं अज्जो! तुब्भे जाणह सामाइयं, तुभे
जाणह सामाइयस्स अट्ठ जाव जइ णं अज्जो! तुब्भे जाणह विउस्सगं, तुब्भे जाणह विउस्सग्गस्स अट्ठ।
श०१, उ०६, ढा०२७ १७७
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