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१२६. इम ही आउ वणस्सइकाय, तेउ बाउ में तेज नाय। १२६. एवं आउक्काइया वि । तेउक्काइय-बाउक्काइयाणं सर्व स्थानक में अभंग होय, च्यार शरीर वाउ वृत्ति जोय ।। सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं। वणप्फइकाइया जहा
पुढविक्काइया ।
(श० २४८-२५०) वाउक्काइयाणं, कइ सरीरा पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि, तं जहा-ओरालिए, वेउबिए, तेयए, कम्मए।
(वृ०-५० ७५) १२७. पृथ्वी अप वनस्पति रै मांहि, दष्टि द्वारै ज्ञानद्वारै ताहि।
१२७. ननु पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादनभावेन कर्म ग्रंथै सास्वादन उक्त, बले ज्ञान कह्या बे तेह अयुक्त ।।
सम्यक्त्वं कर्मग्रन्थेष्वभ्युपगम्यते, तत एव च ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च।
(वृ०-५०७५) १२८. बे ते चोरिद्री नं प्रसंग, जे स्थान नरक नै असी भंग।
१२८. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जेहिं ठाणे!ह नेरइयाणं ते स्थान के विकलिंद्रिय तीन कहिये, भांगा असी सुचीन ।।
असीइभंगा तेहि ठाणेहि असीई चेव । वा०—एक समय अधिक जघन्य स्थिति ना धणी नेरइया जाव संख्यात समय वा०-तत्रैकादिसङ्खचातान्तसमयाधिकायां जघन्यस्थिती अधिक जघन्य स्थिति ना धणी नेरइया नै विषै जघन्य अवगाहना ना नेरइया नै तथा जघन्यायामवगाहनायां च तत्रैव च संख्येयान्तविष एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना नों धणी जाव संख्यात प्रदेश अधिक प्रदेशवृद्धायां मिश्रदृष्टौ च नारकाणामशीतिर्भङ्गका जघन्य अवगाहना नों धणी नेरइया नै विषै मिथदृष्टि नेरइया नै विषै अस्सी उक्ताः, विकलेन्द्रियाणामप्येतेषु स्थानेषु मिश्रदृष्टिभांगा कह्या। विकलेंद्रिय नै पिण ए स्थानक - विष मिश्रदृष्टि वरजी नै अस्सी
वर्जेष्वशीतिरेव, अल्पत्वात्तेषाम् एकैकस्यापि क्रोधाभंगाईज, अल्प ते भणी। एक-एक क्रोधादि उपयुक्त ना संभव थकी। मिश्रदृष्टि
धुपयुक्तस्य संभवात्, मिश्रदृष्टिस्तु विकलेन्द्रियेष्वेविकलेंद्रिय नै विष नथी।
केन्द्रियेषु च न संभवतीति न विकलेन्द्रियाणां तत्रावृद्ध तु पुनः इण सूत्र नै विष किणहि वाचना विशेष थकी इम कह्य । जे स्थानकै नारकी नै अस्सी भंगा ते स्थानक नै विष विकलेंद्रिय नै अभंगक इति ए
गीतिभङ्गकसम्भव इति। टीका में कह्य।
वृद्धस्त्विह सूत्र कुतोऽपि वाचनाविशेषात् यत्राशीतिस्तत्राप्यभंगकमिति व्याख्यातमिति ।
(वृ०-५०७५) १२६. णवरं दृष्टि द्वार ज्ञान द्वार, जिहां नारकी ने सत्तावीस प्रकार। १२६-१३१. नवरं-अब्भहिया सम्मत्ते। आभिणिबोहियविकलेंद्रिय नै तिहां अधिक विचार, असी भांगा कहिवा इम धार ।। नाणे, सुयनाणे य एएहि असीइभंगा। जेहि ठाणेहि
नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सब्वेसु अभंगयं । १३०. सास्वादन सम्यक्त्व सुअंग, मति श्रत ज्ञान विर्ष असी भंग।
(श० ११२५१) अल्प छै ते भणी ह किणवार, सत्ताइं विरह असी इम धार ।।
दृष्टिद्वारे ज्ञानद्वारे च नारकाणां सप्तविंशतिरुक्ता, जे स्थानक नेरइया नै सत्तावीस, दाख्या भंगा श्री जगदीश ।
विकलेन्द्रियाणां तु 'अब्भहिय' ति अभ्यधिकान्यशीते स्थानकै विकलिद्रिय माय, अभंगक-भंगा नहिं थाय ।। तिर्भङ्गकानां भवति, क्व इत्याह --सम्यक्त्वे, अल्पी
यसां हि विकलेन्द्रियाणां सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं भवति, अल्पत्वाच्चैतेषामेकत्वस्यापि सम्भवेनाशीतिभङ्गकानां भवति, एवमाभिनिबोधिके श्रुते चेति । तथा 'जेही' त्यादि, येषु स्थानकेषु नैरयिकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गकास्तेषु स्थानेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां भङ्गका
भावः । १३२. पंचेंद्रिय तिर्यंच पिछाण, जेम नरक तिम भणवा जाण। १३२, १३३. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा णवरं इतली फेर कहाय, जे जे बोल पावै तसं न्याय ।।
भाणियब्वा, नवरं-जेहि सत्तावीसं भंगा तेहि अभंगयं
कायव्वं । १३३. नरक में ज्यां सप्तबीस कथंग, तिहां पंचद्री तिथंच अभंग।
(श० १।२५२) नरक नै असी भंग जे स्थान, तिर्यच पंचेंद्री नै तिहां असी जान ।।
१४० भगवती-जोड़
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