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________________ २८. नवा विकुर्वे छै तीनेइ, तीनइ नै देखै तेही। पिण ते इम जाण मन मांहो, एह विकुर्वण म्है करि नाही ।। २६. स्वाभाविक छै एहवं मान, दिशा-मुढ ज्यूं ते पिण जाने। इम दर्शण नैज विषै विपरीत, कोइक विभंग-अज्ञानी संगीत ।। २८. सेस दंसण-विवच्चासे भवति । यतोऽसौ वैक्रियाण्यपि तानि मन्यते स्वाभावीकानीति । (वृ०-५० १६३) सोरठा 'विभंग-नाणी कोय, दिशा-मूढ जिम ते इस्यूं। सगला नै नहि कोय, एहवं इहां जणाय छै ।। जोवो शिव ऋपिराज, सप्त द्वीपोदधि देखिया। मोगर विभंग समाज, देख्यो पंचम कल्प लग। असोच्चा अधिकार, जाण देखै विभंग कर। उत्कृष्टो अवधार, असंख्यात जोजन लगे।। जाण्या जीब अजीव, वले पाखंडी जाणिया। खयोपशम भाव अतीव, पाछै सम्यक्त्व पामियो।। जो जाण विपरीत, तो सम्यक्त्व ए किम लहै ? वारू न्याय वदीत, उत्तम चित आलोचियै ।। भली विचारण तास, करतां छतांज एहने। तत्-आवरणी जास, खयोपशम थी विभंग है। बलि अनुयोगज द्वार, ज्ञानावरणी - कर्म नां। क्षय-उपशम थी सार, चिउं ज्ञान अज्ञान रु पूर्व श्रुत ।। तिण कारण विपरीत, ते तो अन्य दीसै अछ। क्षयोपशम भाव प्रतीत, ते तो उज्जल जीव छै ।। अवधि-ज्ञान नों सार, वलि विभंग - अन्नाण नों। दर्शण अवधि उदार, ते विपरीत हवैज किम? मोह-कर्म उदय थी होय, उदय-भाव सावज तिको। पिण क्षयोपशम थी जोय, विपरीतज ह्र किण विधै ? दर्शन विप विचार, विप्रयास आख्यो इहां। पिण दर्शण अवधि उदार, क्षय-उपशम नहि विपर्यय ।। दर्शण विषैज ओर, उदय भाव छै तेहनें। विप्रयास जे घोर, ते विपरीतपणो अछै ।। सात कर्म बंधाय, निद्रा प्रचला लेवतां । अशुभ योग तिण मांय, मोह - उदय थी बंध तसुं ।। द्रव्य निद्रा में ताय, अशुभ स्वप्न मोह कर्म थी। तेहथी पाप बंधाय, पिण द्रव्य निद्रा थी नहीं ।। दर्शणावरणी - कम, निद्रा तास उदय थकी। देखो एहनों मर्म, पहथी कर्म बंधै नथी।। श०३, उ०६, ढा०६८ ३६१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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