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________________ में अनादि अनंत च्या गति नो नाम का ते माटै भ्रमण नीं अपेक्षाय जाणवो । अन अतिचार शल्य सहित मरी कोयक देवता हुवै, ते अतिचार दोष-रूप शल्य थी देवता न हुवै और गुणा सूं देवता हुवै । तिम अग्नि जलादिक में पैंसी मरै ते पिण और शीलादिक गुण सूं देवता हुवै, पिण ते सावज्ज कार्य सूं देवता न हुवै । कोइ कहै अग्नि आदिक में पैसी मरं ते कष्ट थी देवता हुवै। तेह्नों उत्तरते तो आगला भव में अशुभ कर्म बांध्या ते उदै आया भोगवे छे, पिण ए जीव री हिंसा रूप सावज्ज कार्य ते निर्जरारी करणी नहीं । एहथी पुन्य पिण बंधे नहीं । इम सावज्ज कार्य नां कष्ट थी पुन्य बंधे तो नीलो घास काटतां कष्ट हुवै। संग्राम में मिनखां नै खड्गादिक थी भारतां हाथ ठंठ हुवै, कष्ट हुवै। मोटा अणाचार सेवतां, शीतकाल में प्रभाते स्नान करतां पिण कष्ट हुवै, तिण रैं लेख एह थी पिण पुन्य बंधे ते माटै ए सावज्ज करणी थी पुन्य बंधे नहीं । अनैं जे जीव - हिंसा रहित कार्य - शीतकाल में शीत खमैं, उष्णकाल में सूर्य नीं आतापना लेवें, भूख तृषादिकखमैं, निर्जरा अर्थ ते सकाम निर्जरा छ, तिण री केवली आज्ञा देवै, तेहथी पुन्य बंधे । अनै बिना मन भूख तृपा शीत तावड़ादि खम, बिना मन ब्रह्मचर्य पाल, ते निर्जरा रा परिणाम बिना तपस्यादिक करें, ते पिण अकाम निर्जरा आज्ञा मांहि है । तथा पूजा श्लाघा र अर्थ तपस्यादिक करें ते पिण अकाम निर्जरा छै। ए पूजा श्लाघा नी वंछा आज्ञा मांहि नथी, निर्जरा पिण नहीं हुवै ते वांछा थी, पुन्य पिण नहीं बंधे। अने जे तपस्या करें, भूख तृषा खमैं इण में जीव री घात नथी ते माटै ए तपस्या आज्ञा मांहि है। निर्जरा रो अर्थी थको न करें तिण सं अकाम निर्जरा है । एह थकी पिण पुन्य बंधे छै । पिण आज्ञा बारला कार्य थी पुन्य बंधे नथी । (ज० स० ) १६. २१. २२. वा०-- भृशं ते अतिहि बधाव इहां सूत्रे 'वड्ढती वड्ढती' वे वार कह्यो ते अति ही वृद्धि नै अर्थ २०. २३. ए मरणे मरतो तो संसार वृद्धि करे घणी २४. बती बढती ख्यात । तिण सूं द्विवच आत ।। बाल-मरण ए आखियो अतिहि बधारे संसार । ते माटे मुख्य जाणवा बाल-मरण ए बार || से किं तं ? अर्थ एहनू से कहितां अथ जाण । किं कहितां स्यूतं तिक पंडित मरण पिछाण ।। पंडित मरण द्विविध का पाओवगमन उदार दूजो भत्तपचखाण छे ए बिहुं अणसण सार ।। अथ पावोवगमन ते कवण छै ? तेहना दोय प्रकार । निहारिम करें ब्राम में अनिहारिमते उजार ।। नियमा अपनिकम्म किन कहनी सार त्याग च्याखंड आहार ना पाओवगमन मझार ॥ Jain Education International - १६. सेत्तं मरमाणे वड्ढइ-वड्ढइ । 'वड्ढइ वड्ढइ' त्ति संसारवर्द्धनेन भृशं वर्द्धते जीवः, इदं हि द्विर्वचनं भृशार्थे इति । ( वृ० प० १२० ) २०. सेत्तं बालमरणे । २१. से किं तं पंडियमरणे ? (म० २४४९) " २२. पंडिमरणे द्रविहे पण तं जहा प भत्तपच्चक्खाणे य । २३. से किं तं पाओवगमणे ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-नीहारिमेय अनीहारिमेय । २४. नियमा अप्पsिकम्मे । सेत्तं पाओवगमणे । इदं च चतुविधाहारपरिहारनिष्यन्नमेव भवति । For Private & Personal Use Only (१००० १२० ) ०२, उ० १, ढा० ३५ २१६ www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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