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________________ , अधपतिपणों करत जावत विचरं छं तिको एहवो छे ऋद्धिवंत, महति प्रमुख बोल पट ।। इती मक्ति है तास, वैक्रिय नी जावत कही। केवल कल्प विमास जंबूद्वीप प्रत भरे ॥ जावत् तिरछी जाण, संख्याता द्रोपोदधि । इत्यादिक पहिछाण, वृत्ति थकी ए वारता ॥ ४६. "हे भगवंत इह विध कही, दूजा गौतम अग्निभूती । नमस्कार वंदना करी प्रश्न करे विधिती ॥ जो प्रभु ! इंद्र जोतिषि तणों, एहवो महाऋद्धिवानो । जाव इति विकुर्वणा, करिया समर्थ जानो ।। हे प्रभु ! शक देवेंद्र ते केवो महाद्वियंतो । जाव केहवी विकुर्वणा, करिया समर्थ अत्यंतो || जिन कहे एक देवेंद्र ते महऋद्धिवान सुजानो। यावत् महानुभाग छै, बत्तीस लाख विमानो ॥ चोरासी लाख सामानिका, जाव चोगुणा आत्मरक्षो अन्य बहु सुर नों अधिपति, जावत् विचरं सुदक्षो । एहवो महाऋद्धिवान छै, जाव एहवी समर्थाइ । जेम चमर तिम एह छै, णवरं दो जंबू भराइ ॥ शक्र ४३. ४४. ४५. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. १. असंख्याता द्वीप समुद्र नै भरिया नी समर्था । न भरचा न भरै भरसी नहीं, ए विषय मात्र कहिवाइ ॥ अंक इकतीस नों देश ए. अड़तालीसमी डालो। भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' हरष विशालो ।। ढाल : ४६ दूहा जो प्रभु ! शक्र देवेंद्र ते, एहवो महाऋद्धिवान | जाव इति विकुर्वणा, करिया समर्थ जान ॥ इस निश्वं करि आपरो अंतेवासी प्रकृति-भद्र अणगार ते जाव विनीत सोय । सुजोय ॥ * लय --- राजा दशरथ दीपतो रे २२० भगवती-जोड़ Jain Education International ४३. आहेच्या विर एवं महिदीए ( वृ० प० १४८) ४४. एवतियं चणं पभू विउब्वित्तए जाव केवल कप्पं जंबूद्दी ( वृ० प० १५०) ४५. जाव तिरियं संखेज्जे दीवस मुद्दे इत्यादि । ( वृ० प० १५८) ४६. भंतेत्ति ! भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी ४७. जइ णं भंते! जोइसिंदे जोइसराया एमहिड्डीए जाव एवतियं च प विकुत्तिए ४८. सक्के णं भंते! देविदे देवराया केमहिड्ढीए ? जाव केवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए ? ४६. गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया महिड्डीए जाव महाणुभाने से गं बत्तीसार विमाणावास सहस्ताणं, ५०. चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं... च उन्हें चउरासीणं, आप रक्खसाहसी, असि न जाव विहर। ५१. एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं जदेव चमरस्म तव भागवद जद्दीने दी ५२. अवसेसं तं चैव । एस णं गोयमा ! सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसु वा विकुब्वति वा विकुव्विस्सति वा । ( श० ३।१६) १. जइ णं भंते ! सक्के देविदे देवराया एमहिड्डीए जाव एवति भू विकुचितए २. एवं देववाण अवासी तीस नाम अगा पगइभद्दए जाव विणीए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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