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२८. किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं,
२८. कीधो दुख कारण कर्म ते, ए आगामि काल अपेक्षायो।
करिवा माटै फर्यो छतो, दुख कारण कहिवायो॥ २६. दुख नों कारण कर्म ते, करै वर्तमान कालो।
गये काले कोधो अछ, ते दुख हेतु न्हालो।
२६. कज्जमाणकडं दुक्खं,
३०. कटु-कटु पाण-भूय-जीव-सत्ता वेदणं वेदेति-इति वत्तव्वं सिया।
(श० ११४४३) ३१, ३२. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं
खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च, संपराइयं च ।
३०. प्राण भूत जीव सत्व ते, शुभ अशुभ कर्म ताह्यो।
कीधा तिके भोगवै अछ, ए पंचमो प्रश्न कहायो॥ ३१. बलि अन्यतीथिक मत तणो, प्रश्न गोयम पूछता।
हे प्रभु ! इम अन्यतीर्थी, वयण भाखै परूपंता ।। ३२. एक जीव इक समय में, वे क्रिया नों बंध करै ताह्यो।
इरियावहि अकपाइ तणे, सकषाइ रै संपरायो।। वा०-इरियावहि क्रिया अकषाइ नै हुवै अनै सांपरायिकी सकषाइ नै हुदै । एहवी इरियावहि अनै संपराय नों एक जीव रै एक समैं बंध हुवै। एहवो अन्यतीर्थी
कहै छ। ३३. जे समय इरियावहि करै, ते समय बंधै संपरायो।
जे समय बांधे संपराय नैं, ते समय इरियावहि थायो।
३४. इरियावहि बंधवै करी, संपराय
बंधायो। संपराय बंधवै करी, बंध इरियावहि नुं थायो॥ ३५. इम इक जीव निश्चै करी, इक समय वे क्रिया बंधायो।
इरियावहि संपरायकी, हे प्रभु ! ए किम वायो?
३३. जं समयं इरियावहियं पकरेइ,
तं समयं संपराइयं पकरेइ। जं समयं संपराइयं पकरेइ,
तं समयं इरियावहियं पकरेइ ।। ३४. इरियावहियाए पकरणयाए संपराइयं पकरेइ । संपरा
इयाए पकरणयाए इरियावहियं पकरेइ । ३५. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति,
तं जहा-इरियावहियं च, संपराइयं च ।(श०११४४४)
से कहमेयं भंते ! एवं? ३६. गोयमा ! जणं ते अण्ण उत्थिया एवमाइक्खंति...एवं
खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, जाव इरियावहियं च, संपराइयं च।
जे ते एवमाहंसु । मिच्छा ते एवमासु । ३७. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि...एवं खलु एगे जीवे
एगेणं समएणं एक्कं किरियं पकरेइ, तं जहा—इरियावहियं वा, संपराइयं वा। (श० ११४४५)
३६. जिन भाखै-कहै अन्यतीर्थी, एक समय बे क्रिया बंधायो।
इरियावहि संपरायकी, ते झूठ-मिथ्या तसं वायो।
३७. हं पिण गोयम ! इम कह, एक
इरियावहि तथा संपरायकी, क्रिया
समय इक जीवो।
एक कहीवो।।
३८. परतीर्थी नी वारता, इक समय बंधै क्रिया दोयो।
ते स्वसमय करि कहिवो इहां, इक समय क्रिया इक होयो ।। ३६. अनंतर सूत्रे क्रिया कही, क्रियावंत ने ह उत्पादो।
हिव उत्पत्ति-विरह परूपणा, कहिये धर अहलादो॥ ४०. हे भदंत ! नरकगति विषै, कितो ऊपजवानों विरह दृष्टो।
जिन कहै समय इक जघन्य थी, वारै मुहूर्त उत्कृष्टो॥
३६. अनन्तरं क्रियोक्ता, क्रियावतां चोत्पादो भवतीत्युत्पादविरहप्ररूपणायाह
(वृ०-प० १०७) ४०. निरयगई णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं
पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहत्ता।
(श० ११४४६) श०१, उ०१०, ढा० २६ १८५
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