SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२. 'द्रव्य नेगमादिक च्यार नय, विण भाव आवसग नै कहै । ए आवसग छै इम परूपै, कहण माने ए लहै ।। इम नाम स्थापन द्रव्य जिन नै, कहण मात्रे जिन कहै। ए नाम-जिन ए स्थापना-जिन, द्रव्य-जिन इह विध लहै ।। शब्दादि विण इक भाव माने, नाम स्थापन द्रव्य भणी। नवि गांनवै, इक भाव मान्यो, आवस्यक भावे गूणी ।। ए सात नय नोंए परमारथ, ओलखी दिल आणिय । गुण-हीण वांद्यां धर्म ए, किणहि नयै नवि जाणिय ।। पाप अष्टादश सेव्या, सावज्ज कार्य माणिय । अव्रत सेवायां धर्म नै पुन्य, किणहि नयै नवि जाणियै ।। असंजमजीवतव्य वांछ्या, आण बाहिर माणिय। श्रावक जिमायां धर्म नै पुन्य, किणहि नयै नवि जाणिये ।। जिम अजा नों गलो छेद्यां, किणहि नय में धर्म नहीं। तिमहिज सर्व सावज्ज कार्य, धर्म नहीं छै तिण मही' ।। (ज० स०) दूहा नियमतरेहि बारमों, नियम-अभिग्रह मांहि । अंतर देखी समज विण, शंका आंण ताहि ।। १००. १०१. यतनी अपमान देइ ने आहार, आपै तो लेव तिवार । एहवो अभिग्रह किणहि मुनिराय, कीधो मन हरष सवाय ।। तथा अधिक मान सत्कार, देइ आपै तो लेवू आहार । तो स्यं मान नों वांछवो होय ? ए शंका नों उत्तर जोय ।। *T विहं अभिग्रह नै विष, मुनि मान नै अपमान नों। इच्छुक नहीं, है रसिक केवल, निज नियम सुविधान नों। अणमिल्यै चित स्थिर राखवो, भाव ए मुनिवर तणां । ते भणी छै तप बिहूं नै, इत्यादि अभिग्रह घणां ।। बोल तेरै तणो अभिग्रह, वीर प्रभु पिण है कियो। परंपर ए बात प्रसिद्ध, जाण निमल करै हियो ।। १०४. १०५. दुहा पमाणत रेहि तेरमों, प्रमाण में पहिछाण। अंतर देखी समज विण, आणै भर्म अयाण ।। *लय-पूज मोटा भांजे टोटा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy