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________________ ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. 1 उत्कृष्ट तनु मोटो को धनुष पंच सय मान । भवधारणी अपेक्षया तमतमा महातनु जान ॥ उत्तर - वेक्रिय जघन्य थी, आंगुल भाग संख्यात । उत्कृष्ट सहस्र धनुष नौ सम शरीर किम बात ? ॥ शरीर विषम कहिये करी, रामनहि आहार उस्सास आहार उस्सास न सारिखो, सर्व नारकी नों तास ॥ शरीर प्रश्न दूजो पूछियो, उत्तर प्रथम शरीर | तनु अनु आहार उस्सास है, सुख समझावण हीर ॥ महाशरीरी नेरइया महादुखी धका धार तीव्र आहार अभिलाप हूं, वह पुद्गल से आहार ।। वह दुगत परिणमं, उसासपणे हे धार निःश्वासपर्णे मूकै सही, बहु पुद्गल तिणवार ॥ महाशरीरी प्राये लोक में, बहलो करै आहार | अल्पशरीरी अल्प लै, हस्ति शशकवत् धार ॥ बार बार ते बार-बार अल्पशरीरी अल्प परणमै अल्प द्रव्य ही, उस्ससंत कदाचित् ते आहार ले कदाचित् कदाचित् उस्सास लै, कदाचित् - Jain Education International आहार ले, परिणाम बेस्वाद | उस्सास ले, दुख तै निश्वास बाध ।। या अपुद्गल आहारत निश्वसंत || परणमंत । विश्वसंत ॥ वहा अपलोय | , जोय ॥ आहार । सार ॥ अपर्याप्त अल्प तनु छतों, लोम आहार करें नांय । आहार कदा इण कारणं, ए टीका में वाय || 'केइ की उत्पत्ति समय जे आहार लिये शरीर पर्याय बांध्यां बिना, ओज आहार शरीर पर्याय बांध्यां पर्छ, लोम आहार तेहने कहे विग्रह गति अणाहारो तेहती अपेक्षाय । कदाचित् आहार से कसे जाणवली न्याय उसास पर्याय बांध्यां विना, नहि लेवै कदाचित् उस्सास ले, एहवू दी प्रथम उद्देगा में कह्यो उसासादिक लिये निरंतर नेरिया, महाशरीर J उस्सास | - अंगप्रत्यंग लै सर्वज्ञ जाण ते तास || ताय । अपेक्षाय' || ( ज० स० ) ३२. उत्कृष्टं तु महत्त्वं पञ्चधनुः शतमानत्वम्, एतच्च भवधारणीयशरीरापेक्षया । (१०४१) ३३-३४. उत्तरापेक्षा तु जन्यमनसंख्याभाग मात्रत्वम्, इतरत्तु धनुःसहस्रमानत्वमिति एतेन च किं समशरीरा इत्यत्र प्रश्ने उत्तरमुक्तम् । शरीरविषमताभिधाने सत्याहारोच्छ्वासयो प्रतिपाचं भवतीति शरीरप्रश्नस्य द्वितीयस्थानोक्तस्यापि प्रथमं निर्वचनमुक्तम्। ( वृ० प० ४१ ) ३६, ३७. तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुतराए पोगले आहारेति पराए पो परिणामति, बहुतराए पोगले पोगले उस्ससंति, बहुतराए पोग्गले नीससंति । ३८. ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान् पुद्गलान् आहारपन्ति महाशरीरत्वादेव दृश्यते हि लोके बृहच्छरीरो वाशी स्वत्पशरीरश्वात्यभोजी हरितशशकवत् । (१०-१० ४१) २१-४१. अभिवणं आहारति अणि परिणामति, अभिक्खणं उस्ससंति, अभिक्खणं नीससंति । तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोगले आहारेंति, अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति, अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति, अप्पतराए पोग्गले नीससंति; आहच्च आहारेति, आहच्च परिणामेति, आहच्च उस्ससंति, आहच्च नीससंति । ४२. अवाप्तकालेपशरीराः सन्तो गोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति । ( वृ० प० ४१ ) For Private & Personal Use Only श० १, उ० २, हा० ७ ८५ www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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