________________
१३. जेहनै प्रभाव करी अम्है, निवेदन छतो विचारी जावत् विचरूं इहवारी। १३. जस्सम्हि पभावेणं अकिठे जाव विहरामि । तं खामेमि तिण सूखमाऊ हे देवानुप्रिया! जावत एम कहीनै आयो ईशाण उदारी।। णं देवाणुप्पिया जाव उत्तरपुरथिमं दिसीभागं
अवक्कमइ, १४. यावत् बत्तीस प्रकार नां, नाटक-विधि देखाडे, १४. जाव बत्तीसइंबद्ध नट्टविहिं उबदंसेइ, उवदंसेत्ता जामेब देखाडी नैं तिहवारै।
दिसि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए। (श० ३।१२६) जिण दिशि थी आयो हंतो, तिह दिशि स्व स्थाने,
पाछो गयो तिवारै ।। इम निश्चै करि गोयमा ! चमर असुर नों राजा, १५. एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिदेणं असुररणा सा दिव्य देव ऋद्धि भारी।
दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए। लाधी - पामी भली, जावत् सन्मुख थइ छै,
भोगविवा नैं इह वारी ।। स्थिति एक सागर तणी, महाविदेह सिझिस्यै, १६. ठिई सागरोवमं महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाब अंत यावत् दुख अंत करिस्य ।
काहिइ।
(श० ३।१३०) भव-प्रत्यय वेर कह्यो असुर नों, तेहनै विषैज हेतु,
अन्य कहिवा हिव उचरिस्यै ।। हे प्रभु ! असुर किण कारण, ऊंचो जायै यावत् १७. किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति स्वर्ग सुधमें भावै।
जाव सोहम्मो कप्पो? गोयमा! तेसि णं देवाणं अहुणोजिन कहै तत्काल नों ऊपनो, अथवा चवन अवसरै,
ववण्णाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झथिए तसं विचारणा इम आवै ।।
जाव समुप्पज्जइअहो ! आश्चर्य अर्थे, अम्है दिव्य देव ऋद्धि लाधी, १८. अहो ! णं अम्हेहि दिव्या देविड्ढी जाब अभिसमण्णापामी आश्चर्यकारी।
गए, जावत भोगविवा भणी, सन्मुख थइ उदारी,
एहवी ऋद्धि छै म्हारी॥ जेहवी म्है दिव्य ऋद्धि लही, तेहवी शक सुरेंद्रज,
१६. जारिसिया णं अम्हेहि दिव्वा देविड्ढी जाब अभिसमदिव्य देव ऋद्धि लाधी।
प्रणागए, तारिसिया णं सक्केणं देविदेणं देवरणा दिव्वा जेहवी शक्र दिव्य ऋद्धि लही, तेहवी म्हैं पिण लाधी,
देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए। जारिसिया ण सक्केणं
देविदेणं देव रण्णा जाव अभिसमण्णागए, तारिसिया णं एहवी मन मांहि साधी ।।
अम्हेहि वि जाव अभिसमण्णागए। ते माटै जाव अम्है, शक्र देव-राजा नै
२०. तं गच्छामो णं सक्कस्स देबिदस्स देवरण्णो अंतियं पाउसमीप प्रगट थाऊं।
भवामो पासामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरगणो दिव्वं देखू हूं ऋद्धि शक नीं, अम्है पायो ऋद्धि भारी,
देविडिढ जाव अभिसमण्णागयं, ए शक्र भणो देखाऊं ।।
२१. पासउ ताव अम्ह वि सक्के देविदे देवराया दिव्वं देविड्ढि जाणं हं ऋद्धि शक नीं, म्है पिण दिव्य ऋद्धि पामी,
जाव अभिसमग्णागयं । तं जाणामो ताव सक्कस्स देविते शक भणो जणाऊं।
दस्स देवरण्णो दिव्वं देविढि जाव अभिसमण्णागयं, इम निश्चै करि गोयमा ! असुर सुधर्मे जावै,
जाणउ ताव अम्ह वि सक्के देविदे देवराया दिवं
देविड्ढि जाव अभिसमण्णागयं । एवं खलु गोयमा सेवं भंते ! हुलसाऊं।।
असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो।
(श० ३३१३१) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति। (श० ३।१३२)
०३, उ०२,ढा०६२ ३६१
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org