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________________ १७. आदर ईशाण देवेद्र नै देव, जावत् तिणनै सेवै । ईशाण देव देवेंद्र राजा नी, आज्ञा मानै चित आनी ।। १८. ए तुझ कार्य करिवू ए आणा, उपपात ते सेव सुजाणा। वचन अभियोग-पूर्वक आदेश, कार्य भलावै अशेष ।। १६. निर्देश पूछयां नों उत्तर देवो, आज्ञादिक ने विष रहेवो। ईशाण देवेंद्र इम ऋद्धि पामी, गोयम ने कहै स्वामी।। १७. ईसाणं देविदं देवरायं आढति जाब पज्जुवासंति, ईसा णस्स य देविदस्स देवरण्णो १८. आज्ञा-कर्त्तव्यमेवेदमित्याद्यादेशः उपपात:--सेवा वचनं—अभियोगपूर्वक आदेशः।। (वृ०-५० १६७, १६८) १६. निर्देश:-प्रश्निते कार्ये नियतार्थमुत्तरं। (वृ०-५० १६८) आणा-उववाय-वयण- निसे चिट्ठति । एवं खलु गोयमा ! ईसाणेणं देविदेणं देव रण्णा सा दिवा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए। (श० ३१५१) २०. ईसाणस्स भंते ! देविदस्स देवरणो केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! सातिरेगाई दो सागरोबमाई ठिई पण्णत्ता। (श०३३५२) २१. ईसाणे णं भंते ! देविदे देवराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहि गच्छिहिति? कहि उववज्जि हिति? २२. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति । (श० ३१५३) प्रभजी ! आप भव दुख-भंजना जी। (ध्रुपदं) २०. हे प्रभु ! ईशाण देव-राजा नी, होजी प्रभु ! केतली स्थिति कहानी ? उत्तर वीर दिये इम हेरी, सागर दोय जाझेरी॥ ईशाण देवेंद्र हे भगवान ! देवलोक थी जान। आउ-क्षय जावत् पहिछान, उपजसी किण स्थान ? २२. वीर कहै सुण गोयम ! वानी, खेत्र विदेह सुजानी। चारित लेइनें सीजेस्य, यावत् अंत करेस्यै ।। २३. अंक इकतीस न आख्यो ए देश, ढाल चोपनमीं कहेस । भिक्खु भारीमाल ऋषराय पसायो,सुख 'जय-जश'हरष सवायो।। ढाल : ५५ दूहा ईशाणेद्र नी वारता, कही हिवै पिण तेह । जाव उद्देशक अंत लग, सूत्र - समूह कहेह।। हे प्रभु ! शक्र-विमाण थी, ईषत् उच्च प्रमाणगुण करि कायक उन्नत ते, ईशाणेद्र विमाण? १. ईशानेन्द्रवक्तव्यताप्रस्तावात्तद्वक्तव्यतासंबद्धमेवोद्देशक - समाप्ति यावत् सूत्रवृन्दमाह- (वृ०-प० १६८) २. सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरणो विमाणेहितो ईसा णस्स देविंदस्स देवरण्णो विमाणा ईसि उच्चतरा चेव ईसि उन्नयतरा चेव ? उच्चत्वं प्रमाणत: उन्नतत्वं गुणतः, अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम् । (वृ०-५० १६६) ३. ईसाणस्स वा देविदस्स देवरणो विमाणेहितो सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो विमाणा ईसि णीयतरा चेव ईसि निण्णतरा चेव ? ४. हंता गोयमा ! सक्कस्स तं चेव सवं नेयव्यं । (श० ३।५४) से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ तथा ईशाण देवेंद्र नां, विमाण थी पहिछाण । ईषत् नीचो निम्नतर, शक देवेंद्र विमाण? ४. प्रभु कहै हंता गोयमा ! वलि शिष्य पूछै वाय । किण अर्थे आख्यो प्रभु ! दीजै मोय बताय ।। श०३, उ०१, ढा० ५४, ५५ ३३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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