________________
४२. मूले तिण्णि जोयणसहस्साई, दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयण___सए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, ४३. मज्झे एगं जोयणसहस्सं तिण्णि य इगयाले जोयणसए
किचि विसेसूणे परिक्खे वेणं, ४४. उरि दोष्णि य जोयणसहस्साई, दोण्णि य छलसीए
जोयणसए किंचि विसेमाहिए परिक्खेवणं,
४७. मूले वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले ।
४२. मूल विष तीन सहस्र योजन नी, दोय सौ नै बत्तीस ।
काइक ऊणी परिधि कहीजै, हिव मध्य परिधि जगीसं ।। ४३. मध्य विष इक सहस्र तीन सय, जोजन वलि इकताली।
कांइक विशेषज ऊणी परिधिज, वारू न्याय विशाली ।। ४४. ऊपर दोय सहस्र नैं वे सय, योजन फर छयासी।
किंचित् विशेष अधिक जिन आखी, परिधिपणे सुविमासी ।। ४५. वत्ति विषै भारूषो इण रोते, पुस्तकांतरे ताह्यो।
ए सगलो विस्तार कह्यो छै, किहांइ गोस्तुभ भलायो ।। ४६. गोस्तुभ लवण-समुद्र मध्य छ, पूर्व दिशि रै मांह्यो।
नाग - राजा नों आवास पर्वत, तेह प्रमाण कहिवायो।। ४७. णवरं जे प्रमाण ऊपरलो, ते इहां मध्य भणीज।
जाव मूल चोडो मध्य सांकडु, ऊपर विशाल गुणीजै ।। वा०--गोथूभस्स इत्यादि-तिहां गोस्तुभ लवण-समुद्र मध्ये पूर्व दिशि नै विर्ष नाग राजा नों आवास पर्वत, तेहनों आदि मध्य अंत नै विष विष्कंभ प्रमाण इमविष्कंभ ते गोस्तुभ पर्वत एक हजार बावीस जोजन आदि ने विषे चोड़ो, चार सौ चोबीस जोजन मध्य विषै चोडो, सात सौ तेबीस योजन ऊपर चोडो। ए गोस्तुभ पर्वत नो विष्कंभपणो कह्यो।
अन इहां ए तिगिच्छ-कूट उत्पात-पर्वत नों विशेष कहै छै-नवरं इत्यादि गोस्तुभ पर्वत नों ऊपरलो विक्खंभ परिमाण ते तिगिच्छ-कूट उत्पात-पर्वत ना मध्य नै विष विष्कंभ परिमाण कहिवो। जाव मूल नै विषे विस्तार, मध्य नै विष सांकड़ो, ऊपरे विशाल, तेह थकी विष्कंभ परिमाण इम पाम्यो। मूल नै विर्ष एक हजार बावीस जोजन विष्कंभ, मध्य नै विर्ष च्यार सौ चोबीस योजन विष्कभ, ऊपरे सात सौ तेवीस योजन विष्कंभ, ए तिगिच्छ-कूट उत्पात-पर्वत नुं विष्कंभपणुं कह्य ।
हि एहनी परिधि कहै छै—मूल नै विष तीन हजार दोय सौ बतीस योजन किंचित् विशेष ऊणी परिधि, मध्य नै विषे एक हजार तीन सौ इकतालीस जोजन किंचित् विशेष ऊणी परिधि, ऊपर दोय हजार दोय सौ छयालीस जोजन किंचित् विशेषाधिक परिधि, अन पुस्तकांतर नै विर्ष ए सर्व छ हीज।
वाल-तत्र गोस्तुभो लवणसमुद्र मध्ये पूर्वस्यां दिशि नागराजावासपर्वतस्तस्य चादिमध्यान्तेषु विष्कम्भप्रमाणमिदम्----
मूले दसबाबीसे जोयणसए विक्खंभेणं । मज्झे चत्तारि चउवीसे उरि सत्ततेवीसे ॥
४८. वर वज्र आकारे मध्य कृश छै, मोटा मुकंद संठाणो।
सर्व रत्नमय अच्छ निर्मल यावत्, प्रतिरूप पिछाणो ।। वा०-इहां जाव शब्द थकी इम जाणवू–सण्हे-श्लक्षण कोमल पुद्गल निर्वृत्तपणां थकी। लण्हे-मसृण घट्टे-घृष्ट नी पर घृष्ट, खरशाण कहितां तीक्ष्ण शाण करी घसी प्रतिमा नी पर। मट्ठे मठाऱ्या नी परै मठार्यो-सुकुमार सुहाली शाण करी घसी प्रतिमा नी परै। अथवा पूजणी करिक प्रमार्जन करै तेहनी परै शोधित, इण कारण थकी हीज नीरए-रज रहित । निम्मल-कठिन मल रहित। निप्पंक--आला मल रहित । निक्ककडच्छाए-निरावरण दीप्ति। सप्पभेभली प्रभा। समरिईए-किरण सहित। सउज्जोए--नजीक वस्तु नैं उद्योतक । पासादीए४।
'मूले तिण्णि जोयणसहस्साइं दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचि विसेमणे परिक्खेवणं, मज्झे एगं जोयणसहस्सं तिण्णि य इगुयाले जोयणसए किचिविसेसणे परिक्खेवेणं, उरि दोष्णि य जोयणसहस्साई दोण्णि य छलसीए जोयणसए किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं' पुस्त
कान्तरे त्वेतत्सकलमस्त्येवेति । (वृ०-प०१४४, १४५) ४८. वरवरविग्गहिए महामउंदसंठाणसंठिए सब्बरयणामए
अच्छे जाव पडिरू। बा०-- 'सण्हे' श्लक्ष्णः श्लक्ष्णपुद्गलनिवृत्तत्वात्, 'लण्हे' मसृण: 'घट्टे' घृष्ट इव घृष्ट: खरशानया प्रतिमेव 'मढे' मृष्ट इब मृष्टः सुकुमारशानया प्रतिमेव, प्रमार्जनिकयेव वा शोधितः अतः एव 'नीरए' नीरजा रजोरहित: निम्मले' कठिनमल रहितः 'निप्पके' आर्द्रमल रहितः निक्कंकडच्छाए' निराव रणदीप्तिः 'सप्पभे' सत्प्रभावः ‘समरिईए' सकिरण : 'सउज्जोए' प्रत्यासन्नवस्तूद्योतकः पासाईए ४। (वृ०-५० १४५)
३०० भगवती-जोड़
Jain Education Intemational
ducation Intermational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org