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से नणं भंते ! तसं अर्थज, से कहितां अथ जाणी जी। अथ शब्द ते वाक्य तणां जे उपन्यासे पहिछाणी जी। उपमान अवधारण तर्के, प्रश्न हेतु में जोयो।
ननं शब्द एण अर्थे छै, इहां अवधारण होयो ।। ४. हे भदंत ! ए शब्द कह्य जे, गुरु आमन्त्रण काजो।
इह विध विनय करीनै पूछ, भाषा प्रश्न समाजो।।
२. से नूणं भंते !
सेशब्दोऽथशब्दार्थे स च बाक्योपन्यासे । (वृ०-५० १४२) ३. 'नूनम्' 'उपमानावधारणतर्कप्रश्नहेतुषु' इह अवधारणे ।
(वृ०-५० १४२) ४. 'भदन्त' इति गुर्वामन्त्रणे। (वृ०-५० १४२)
सोरठा ५. पूरव जे आख्यात, पद नुं अर्थ का तिको।
वाक्य अर्थ विख्यात, कहियै छै हिव आगलै ॥ ६. *अथ भदंत ! हूं इम मानूं छु, इम जाणूं छू जेहो।
एह अवश्य अवधारिणी भाषा, अवबोध-वीजभूत तेहो।।
६. मन्नामी ति ओहारिणी भासा?
'मन्ये' अवबुध्ये इति, एवमवधार्यते--अवगम्यतेऽनयेत्यवधारणी, अवबोधबीजभूतेत्यर्थः। (वृ०-५० १४२)
वा०-इहां शिष्य पूछ ए जीव अजीवादिक पदार्थ हूं इम मानूं छु । हूं इम जाणू छ । ए पदार्थ जाणवा नी भाषा अवबोध बीजभूत कहियै । अवबोध ते ज्ञान छ, तेहिज बीजभूत माटै अवबोध बीजभूत जाणवी। ७. सूत्र पन्नवणा न भाषा पद, एकादशमो आख्यो। ___ द्रव्य क्षेत्र काल भाव प्रमुख करि, ते इहां सह अभिलाख्यो।।
७. एवं भासापदं भाणियव्वं ।
(श०२।११५) एवममुना सूत्रक्रमेण भाषापदं प्रज्ञापनायामेकादशं भणितव्यमिह स्थाने, इह च भाषा द्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्यादिभिश्च भेदैरन्यैश्च बहुभिः पर्यायविचार्यते ।।
(वृ०-५० १४२) ८. भाषाविशुद्धेर्देवत्वं भवतीति देवोद्देशक: सप्तमः समारभ्यते।
(वृ०-प० १४२)
८. बीजा शतक नों छठो उदेशो, भाषा नो विस्तारो। ते भाषा-विशुद्धि थी देवपणो है,तिण सू सप्तम सुर अधिकारो।।
द्वितीयशते षष्ठोद्देशकार्थः ।।२।६।। ६. हे प्रभु ! देवा कितै प्रकारे? जिन कहै चउविध देवा।
भवनपति, वाणव्यंतर, जोतिषी, वैमानिक पिण लेवा।।
१०. किहां प्रभु ! भवनपति ना स्थानक, स्थान-पदे जे बीजै।
देव विस्तार सह इहां भणवो, णवरं भवण भणोज ।।
६. कति णं भंते ! देवा पण्णत्ता?
गोयमा! चउब्बिहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवइ
वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया। (श० २।११६) १०. कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता?
गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जहा ठाणपदे
देवाणं वत्तव्वया सा भाणियव्वा। ११. उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे एवं सव्वं भाणि
यव्वं, जाव सिद्धगंडिया समत्ता। १२. नवरं 'भवणा पण्णत्त' त्ति क्वचिद् दृश्यते, तस्य च फलं न सम्यगवगम्यते।
(वृ०-प० १४२)
११. ऊपज करि लोक तणो जे, असंख्यातमै भाग।
एवं सर्व भणोज यावत, सिद्धि-गंडिका साग ।। १२. वृत्तिकार कहै णवरं भणवा, ए पद दीसै त्यांही।
तेहना फल सम्यक् प्रकार, म्है नवि जाणिय ज्यांही।
*लय—साचू बोलोजी
श०२, उ०६, ७, ढा०४५ २६७
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