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________________ ए संसार मझार, काणी नावा सारिखो। कर्म-उदक करि भार, भ्रमण करै इम बूडियै ।। नाव छिद्र रूंधत, उदक उलिंची काढियै । नाव नहीं बूडत, शीघ्र आवै जल ऊपरै।। तिम मिथ्यात्वादि-छिद्र, सम्यक्त्व संवर आदि दे। संवर पंच अखुद्र, तेहथी आश्रव रूंधियै ।। पर्व संचित जेह, आवश्यकादिक तप करी। कर्म-उदक काढेह, मरणते सहु कर्म क्षय' ।। (जस) ८१. श्रमण तणां अधिकार ते, प्रमत्त - संजती न्हाल । वलि अप्रमत्त - मुनि तणों, कहियै छै हिव काल ।। ८२. अथ यदुक्तं श्रमणानां प्रमादप्रत्यया क्रिया भवतीति, तत्र प्रमादपरत्वं तद्विपक्षत्वात्तदितरत्वं संयतस्य कालतो निरूपयन्नाह-- (वृ०-५० १८५) ८३. पमत्तसंजयस्स णं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सब्बा वि य णं पमत्तद्धा कालओ केवच्चिर होइ? ८३. *प्रमत्त-संजती हे प्रभु ! प्रमत्त-संजम वर्तमानो। सहु पिण प्रमत्त अद्धा तिको, काल थकी केवच्चिरं जानो? ८४. वनि ८५. सोरठा वत्ति विष इम न्हाल, प्रमत्त अद्धा नों अरथ। प्रमत्त गुणस्थानक काल, काल थकी काल आथयी।। केवच्चिर वलि ख्यात, कितो काल जावत् हुई। ए प्रश्न अवदात, मंडितपुत्रे पूछियो।। वा०-इहां ए तर्क कीधी-केवच्चिर एणे कहिवे करी काल थकी नों अर्थ प्राप्त थयो । तो काल थकी कहिवा नों स्यूं प्रयोजन ? एहनों उत्तर-क्षेत्रतः ते क्षेत्र थकी एह भाव टालेवा नै अर्थ क्षेत्रतः केवच्चिरं क्षेत्र केतलो काल इसो पिण प्रश्न हुई, जिम अवधिज्ञान क्षेत्रतः केवच्चिर-क्षेत्र थकी केतलो काल हुई, तेतीस सागरोपम अनुत्तर विमान क्षेत्र नै विर्ष अवधिज्ञान हुई अनै काल थकी ६६ सागरोपम जाझेरो हुई ते माटै इहां काल थकी कहिन केवच्चिरं पाठ कह्यो। ८६. 'जिन भाखै मंडियपुत्र ! सांभले, एक जीव आश्री इम जोडो। जघन्यपणे इक समय ह, उत्कृष्ट देसूण पूब्व - कोडो।। ८४. 'प्रमत्ताद्धा' प्रमत्तगुणस्थानककालः 'कालतः प्रमत्ता द्धासमूहलक्षणं कालमाश्रित्य । (वृ०-प० १८५) ८५. 'कियच्चिर' कियन्तं कालं यावद् भवतीति प्रश्नः । (वृ०-५० १८५) वा०-नतु कालत इति वाच्यं, कियच्चिरमित्यनेनैव गतार्थत्वात्, नैव, क्षेत्रत इत्यस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्, भवति हि क्षेत्रतः कियच्चिरमित्यपि प्रश्नः, यथाऽवधिज्ञानं क्षेत्रतः किच्चिरं भवति? त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि, कालतस्तु सातिरेका षट्पष्टिरिति। (वृ०-५० १८५) ८६. मंडिअपुत्ता ! एगं जीवं पडुच्च जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। ८७. सोरठा प्रमत्त-संजम पाय, समयानंतर हीज मति । तेह थको कहिवाय, जघन समय इक इम वृत्तौ ।। जघन्य समय इक न्हाल, तास न्याय पूर्वे कह्यो। हिव उत्कृष्टज काल, देसूण पूरव कोड किम? ८७. 'एक्कं समयं' ति, कथम् ? उच्यते, प्रमत्तसंयमप्रतिपत्ति समयसमनन्तरमेव मरणात्। (वृ०-५० १८५) ८८. *लय-वाल्हा वारी रे अब लग श० ३, उ०३, ढा०६४ ३७१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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