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________________ वा० - मिश्रदृष्टि अल्प ते भणी किवारे लाभ, किवारै न लाभे । अने काल थकी पिण ते अल्प । ते भणी क्रोध ना भाव नैं विषै वर्ते ते एक पिण लाधे, भणी अस्सी भांगा । १०८. ए प्रभु ! रत्नप्रभाई जाव, ज्ञानी के अज्ञानी कहाव ? नियमा तीन ज्ञान नीं होय, तीन अज्ञान नीं भजना जोय ॥ १०६. ए जावत् मतिज्ञाने वर्तमान सत्तावीस भंगा पहिछान एवं तीनूं ज्ञान अज्ञान, विभंग सहित मति श्रुति ए जान ॥ aro - इहां विभंग सहीत मति श्रुति अज्ञान नैं विषै सत्तावीस भंगा जाणवा । अ असन्नी मरी प्रथम नरकं जाय, तिहां विभंग अज्ञान ऊपनां पहिली मति श्रुति अज्ञान नैं विषै अस्सी भंगा पामियै । अल्प ते भणी । अन तिवारै तेहनी जघन्य अवगाहना हुई । ते जघन्य अवगाहना आश्रय करि के अस्सी भंगा हुई । ११०. एजाय स्यूं मन यच जोगी काय, तीव्रंद्र जोग कहै जिनराय । तीनूई जोग विषं वत्तमान, सत्तावीस भंगा पहिछान || ११२. वा० - इहां निकेवल कार्मण काय जोग नैं विषै तो अस्सी भंगा संभवे । तो पिण तेहनी इहां विवक्षा नथी । अनैं वैक्रिय शरीर ने विषै रह्यो जे काय जोग तथा मन वचन सहीत जे काय जोग ते इहां ग्रहण कीधूं । तेहने विषै सत्तावीस भांगा जाणवा । १११. ए जाव सागारोव उत्त अणागार, जिन कहै विहुं उपयोग विचार | विहं उपयोग विषे वर्तमान सत्तावीस गंगा पहिचान || 1 ए प्रभानी आखी बात णाणत्तं लेश्या विषै विचार, महज सातुं नरकविख्यात जूजू इ लेस्या इह विध धार ॥ १. जो जीव सम्यक्त्व सहित नरक में उत्पन्न होते हैं, उनके प्रथम समय से ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। इसलिए वहां नियमतः तीन ज्ञान होते हैं जो मिध्यादृष्टि जीव नरक में उत्पन्न होते हैं वे यदि पिछले भव में संज्ञी होते हैं, तो उन्हें भी भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रथम समय में ही प्राप्त हो जाता है । पर जो पिछले भव में असंज्ञी होते हैं, उन्हें भवप्रत्यय ज्ञान अन्तर्मुहूर्त बाद में उपलब्ध होता है । अतः पहले दो अज्ञान होते हैं और बाद में तीन अज्ञान। इस प्रकार तीन अज्ञान की भजना हो गई । Jain Education International वा० - मिश्रदृष्टीनामल्पत्वात्तद्भावस्यापि च कालतोऽल्पत्वादेकोऽपि लभ्यते इत्यशीतिभंगाः । ( वृ०-१० ७२) १०८. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि। तिण्णि नाणाई नियमा । तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । ( ० १०२२४) १०६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव आभिनिवोहियनाणे माणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा। एवं तिण्णि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भाणियब्वाई । (० १४२२५, २३६) वा०-- यदि मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभंगात्पूर्वकालभाविनी विवक्ष्येते तदाऽशीतिभंगा लभ्यते, अल्पत्वापाकिन्तु पन्यायमानास्ते ततो जपन्यावगाहनायेवाश्रीतिर्भास्तेषामसेवा [इति (१०-१० ७३) ११०. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं मणजोगी ? वइजोगी ? कायजोगी ? तिण्णि वि । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव मणजोए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोबत्ता ? सत्तावीसं भंगा। एवं वइजोए । एवं कामवीए (श० १२३७-२४०) वा० - इह यद्यपि केवलकार्मणकाययोगेऽशीतिभंगाः संभवन्ति तथाऽपि तस्याविवक्षणात् सामान्यकाययोगाश्रयणाच्च सप्तविंशतिस्वतेति (१०-०७३ ) १११. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइया कि सागा रोवउत्ता ? अणागारोवउत्ता ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव सागारोवओगे वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा एवं अणागारोवउत्ते वि सत्तावीस भंगा। ( श० १।२४१ - २४३ ) नेवाओ, नातं सामु । ( ० १२४४) रत्नप्रभा पृथिवीप्रकरणवच्छेषपृथिवी प्रकरणान्यध्येयानि केवलं पास विशेषतासां भिन्नत्वाद्। ( वृ० प० ७२) 1 १२. For Private & Personal Use Only श० १, उ० ५ ढा० १६ १३७ www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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