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५६. कालासवेसी बहु वरस लगै, चारित्र पर्याय पाली जान।
जिण अर्थ नग्न भाव आदरयं, मंडपण दिख्या अरु अस्नान ।।
५६. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि
सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता जस्सछाए कीरइ
नन्गभावे मुंडभावे अण्हाणयं ५७. अदंतवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलह
सेज्जा कटुसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो ५८. परघरप्पवेसो लद्धावलद्धी उच्चावया गामकंटगा
५७. अदंत - धोवण छत्र नहि, पानही नहीं, फिरवो अलूयाण।
भूमि-फलग-काष्ठे शयन, केश-लोच ब्रह्मचर्य पिछाण ।। ५८. गोचरी पर घर जायवो, लाधै अणलाधै समभाव।
अनुकल प्रतिकुल सम चिते, इंद्रिय-कंटक सहै तज ताव ।। ५९. बावीस परिसह ने बली, उवसग्ग खमण धाऱ्या सिव काज।
ते अर्थ मोक्ष आराधने, चरम निःश्वास करी शिवराज ।। ६०. सिद्ध बुद्ध तत्व-ज्ञाता थइ, कर्म रहित ने शीतलीभाव।
सर्व दुःख नैं क्षय किया, ए कालासवेसीसूत प्रस्ताव ।। ६१. धुर शत देश नवमा तणों, सप्तवीसमी आखी ढाल ।
भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' सुख संपति सुविशाल ।।
५६. बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जति, तमट्ठ आरा
हेइ, आराहेत्ता चरमेहि उस्सास-नीसासेहि ६०. सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिब्बुडे सव्वदुक्खप्पहीणे।
(श० ११४३३)
ढाल : २८
दूहा कालासवेसीपुत्र शिव, पचखाणे करि पाय । हिव तेह विपरीत जे, अपचखाण कहिवाय ।।
१. कालास्यवैशिकपुत्रः प्रत्याख्यानक्रियया सिद्ध इति तद्विपर्ययभूताप्रत्याख्यानक्रियानिरूपणसूत्रम्
(वृ०-५० १०१) २. भंते ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदर नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी
हे भदंत ! इम आमंत्री, भगवंत गोतम स्वाम। वीर प्रते वंदन करी, इम बोले सिर नाम ।। *रूडा भजल रेजिनराज।(ध्रुपदं)। सेठ अनै दरिद्री नैं प्रभु ! रंक राय नै जाण । अपचखाण नी क्रिया बरोबर? हंता ए जिन वाण ।।
३. से नूर्ण भंते ! सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य
खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ? हता गोयमा ! सेट्ठियस्स जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ।
(श० ११४३४) 'तणुयस्स' त्ति दरिद्रस्य 'किवणस्स' त्ति रङ्कस्य 'खत्तियस्स' त्ति राज्ञः।
(वृ०-प०१०१) ४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ.—गोयमा ! अविरति पडुच्च।
(श० ११४३५) अप्रत्याख्यानक्रियायाः प्रस्तावादिदमाह
(वृ०-प० १०१)
किण अर्थ ? तव श्री जिन भाखै, अविरति आश्री जोय। क्रिया तणां अधिकार थकी, वलि प्रश्न क्रिया नों होय ।।
१.नंगे पांव। *लय--सीता आवै रे धर राग
१८० भगवती-जोड़
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