SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६. १७. १८. १६. २०. २१. जिम परिणमया ना कथा, दो आलावा भाव । तिम पर ने कहिया तथा भगवा दो आलाव' ।। हे भदंत ! जिम तुझ मते, स्व शिष्य ने कहिवाय । तिम पाखंडी ग्रहस्थ नैं तुझ मते कहिया ताय । जिस पाखंडी पस्थ ने तुझ मत कहिवाताव तिम तुझ मत स्व शिष्य ने कहिया हे जिनराय ! हंता जिस म्हारे मर्त स्व शिष्य ने कहिवाय । तिम पाखंडी प्रहस्थ ने मुझे मत कहिताय ॥ जिम पाखंडी पहस्थ नं, म्हारे मत कहिवाय तिम मुझे मत स्व शिष्य नै, कहिवूं ए वर न्याय || कक्षा-मोहनी कर्म नोवेदन भारूपो साम हिव तेनाइज बंध को पूछे गोतम 1 स्वाम || २२. हो जी प्रभु! कक्षा-मोहणी कर्म, जीवड़ला स्यूं बांधे ? म्हारा स्वाम | हां रे चला ! हंता बांधे छे जीव उत्तर जिनी सांधे थे। म्हारा शीट ।। २३. हो जी प्रभु ! कंक्षा मोहनी कर्म, किण-विध बांधे छे जीवा ? हां रे गोतम ! प्रमाद जोग निमित्त बंध नु ए कारण कहीया ॥ २४. हरे मुगणा! अर्थ कियो धर्मसीह, मिथ्यात्वी ए परमादी 1 हां रे सुगणा! अशुभ- जोगी पिण तेह, समदृष्टि कंख न बांधी ॥ २५. हो जी प्रभु ! किन सू प्रवर्त्ती प्रमाद ? अथवा किण सेती उपजै । हां रे चेला ! जोग थी प्रवत्तं प्रमाद, ते अशुभ जोग थी निपजै ॥ २६. हो जी प्रभु! कि जोग ? जिन कहै बीयं उप्पलं । हां रे बेला ! वीर्य अंतराय क्षय चाय, अथ क्षय उपशम- निष्पन्नं ॥ २७. हो जी प्रभु ! किण सूं प्रवत्त वीर्य, जिन भाखै तनु सूं देती । हां रे सुगणा! वृत्तिकार को एम. ते निर्माणो तन-मन सेती ॥ २८. हां रे सुगणा! वीर्य तणा युग भेद, सकरण अकरण सोइ । हां रे सुगणा! अकरण वीर्य संवेद, अशी अवस्था जोइ || २९. हो रे सुगणा! योगी ने होय, जे आत्म-शक्ति अभिरामं । हां रे सुगणा! ते अकरण- वीर्य जोय, ते इहां न ग्रहितुं तामं ॥ १. अंगसुत्ताणि भाग १ श० १११३७, १३८ के स्थान में जाव की पूर्ति की गई है। अन्य आदर्शों में 'दो आलावा भाणियव्वा' कहा है। इसलिए अंगसुत्ताणि के दो सूत्रों की स्वतंत्र जोड़ प्राप्त नहीं होती। * लय- हां जी साहिबा ! गोरी में मोत्यां जितरो भार Jain Education International भाणियव्वा जाव तहा में अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं । (श० १११३६-१३८ ) १७, १८. जहा ते भंते ! एत्थं गमणिज्जं, तहा ते इहंगमणिज्जं ? जहा ते इहं गमणिज्जं, तहा ते एत्थं गमणिज्जं ? १६, २०. हंता गोयमा ! जहा मे एत्थं गमणिज्जं जाव तहा मे एत्थं गमणिज्जं । (ore 20220) २१. कांक्षामोहनीय कर्मवेदनं सप्रसङ्गमुक्तम् अथ तस्यैववन्धमभिधातुमाह(२०-१०५६) २२. जीवा भंते! मोहविं कम्म बंधति ? हंता बंधति । ( ० २०१४०) २३. मंते ! जीवा कंखामीणिस्तं कम्म बंधति ? गोयमा ! पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च । (०२१४१) २५. से णं भंते! पमादे किपवहे ? गोमा ! जोग २६. से णं भंते! जोए किपवहे ? गोमा मरिहे। (०२१४२) (२० १०९४६) २६. यी नाम नीति रायकर्मक्षयोपशमुख जीव परिणामविशेष (२०-१०५०) २७. से पां मते ! वोरिए किन ? गोमा ! सर ( श ० १ | १४४) २८-३१. वीर्यं द्विधासकरणमकरणं च तत्रालेश्यस्य केवलिनः कनयोपस्यो केवलं ज्ञान दर्शन भोप जनस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतियो परिणामविशेषस्तदकरणं तदिह नाधिक्रिपते, यस्तु मनो For Private & Personal Use Only श० १, उ० ३, ढा० १२ १०७ www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy