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________________ २६. 'तुंगिया नै अधिकार, उभय अर्थ ए आखिया। तास न्याय सुविचार, चित्त लगाई सांभलो ।। दूजो अर्थ पिछाण, सम्यक्त्व व्रत सेंठापणो। प्रवर मूल गुण जाण, ए अवश्य गुण चाहिजै ।। ए गुण खंडित थाय, तो होय विराधक पांत में। शुद्ध हुआं सूं ताय, आराधक पद आखियो । जो पाखंडी नै जेह, जाब देवा समरथ नहीं। पर सहाय बिण तेह, तास चलायो नां चलै ।। तो पिण मूल गुण तास, तेहनों न गयो सर्वथा। सम्यक्त्व व्रत नी राश, अखंडपणे राखी तिणे ।। आपद पडियां आय, सुर सहाय वांछै नहीं। ए धुर अर्थ कहाय, उत्तर-गुण ते जाणवू ।। मुनि धुर पहर सझाय, द्वितिय पहर में ध्यान वर। तृतिय गोचरी जाय, चउथै पहर सझाय फुन ।। उत्तर-गुण ए च्यार, कह्या विचक्षण मुनि तण । जो न करै अणगार, तो संजम में भंग नहिं ।। तिम श्रावक रै एह, उत्तर गुण असहायता। सुर सहाय वछेह, तो सम्यक्त्व विषै न भंग तस ।। आनंदादिक सार, 'असहेज्ज' पाठ कह्यो तिहां। छह छंडी आगार, देवाभिओगे पाठ में।। अन्यतीर्थी नैं धार, तथा देव जे तेहनां । श्रद्धा-भ्रष्ट अणगार, आनंद का ए त्रिहुं भणी।। न करूं वंदन ताहि, नमस्कार पिण नां करूं। पहिला बोलू नांहि, असणादिक देवू नहीं।। अभिग्रह एह विशेष, छ छंडी आगार त्यां। राजा नै आदेश, तथा कुटंब आदेश थी। बलवंत तणे प्रयोग, देव तणे परवसपणे । कुटंब बड़ा नै जोग, अटवी विषेज कारण ।। ए षट् तणे प्रकार, अन्यतीर्थादिक विहं भणी। वंदे करि नमस्कार, असणादिक दै तेहनें ।। जाण सावज तास, पिण सम्यक्त्व व्रत नां गया। सुर आगार विमास, असहेज्जा पिण पाठ त्यां।। आपद उपजै आय, अथवा तेहनां भय थकी। वांछै देव - सहाय, जाण सावज तेहनें ।। तसं सम्यक्त्व किम जाय, सम्यक्त्व तो श्रद्धा अछ। हिये विचारो न्याय, श्रद्धा कारज जुआ ।। ३०. ३ ه mr ع ه ३ مي श०२, उ०५, ढा०४१ २५७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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