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*आवै सुधर्म असुराधिप चमरिंद। (ध्रुपदं) ५. पंच पर्याप्ति करी पर्याप्त-भाव प्रतै असुरिंद।
पाम्य छत ऊर्ध्व सहज स्वभावे, अवधि करी जोविद ।।
६. जाव सुधर्म-कल्प अवलोकै, तिहां शक्र सुरेंद्र पहिछान।
मेघमाली सुर छै बस जेहन, तिण सूं नाम मघवान ।।
७. पाक नामैं बलवंत रिपु जे, निराकरतो तास ।
पाकशासन कहिये इण कारण, एहवो है शक प्रकास ।।
५. तए णं से चमरे अमुरिदे असुरराया पंचविहाए पज्ज
तीए पज्जत्तिभावं गए समाणे उड्ढे वीससाए ओहिणा
आभोएइ ६. जाव सोहम्मो कप्पो, पासइ य तत्थ
सक्क देविदं देव रायं मघवं 'मघवं' ति मघा-महामेघास्ते यस्य वशे सन्त्यसौ मघवानतस्तं।
(वृ०-५० १७४) ७. पाकसासणं। पाको नाम बलवान् रिपुस्तं यः शास्ति-निराकरोत्यसौ पाकशासनोऽतस्तं ।
(वृ०-प० १७४) सयक्कतुं शतं ऋतूना-प्रतिमानामभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कात्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्यासौ शतक्रतुरतस्तं । (वृ०-प० १७४)
८. पडिमा पंचम बूहो सौ वेला, कात्तिक भव
तिण कारण शतक्रतु नाम छै, एहवो शक
अपेक्षाय। महाराय ।।
११.
१२.
'वृत्ति विषै कह्य पंचमी, पडिमा जे सौ वार । कीधी छै तिह कारण, शतक्रतु नाम उदार ।। धर पडिमा दर्शन विषै, द्वितीय बार व्रत धार। सामायिक तीजी विष, देशावगासी सार ।। षट पोसा इक मास में, पडिमा तुर्य सुजोय । ए तो चिहं पडिमा सदा, हुवैज छै अवलोय ।। तिण सूं पडिमा ए चिहुं, सौ वेलांज करेह । एहवो नियम नथी तसं, न्याय विचारी लेह ।। वारू पडिमा पंचमी, करी वार सौ ताय। तिण सुं शतक्रतु नाम तसुं, इसो संभवै न्याय' ।।
(ज० स०) *मंत्री पंच सय इंद्र तणे मुर, सहस्र-चक्षु छै ताय । इंद्र तणे प्रयोजन वत, तिण सू सहस्राक्ष इम वृत्ति मांय ।।
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१४. सहस्सक्खं
इन्द्रस्य किल मन्त्रिणां पंच शतानि संति, तदीयानां चाक्ष्णामिन्द्रप्रयोजनव्यापृततयेन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात्तस्य सहस्राक्षत्वमिति । (वृ०-प०१७४)
अथवा सहस्र-चक्षु नो तेज छै, एहवो तेज सलीह। इंद्र तणीं चक्षु नो लहिये, एम कह्यो धर्मसीह ।। वज्र आयुध कर छै तिण कारण, वज्रपाणी कहिवाय । असुर नां पुर नै विदारै तिण सू, कह्यो पुरंदर ताय ।।
१६. वज्जपाणि पुरंदरं। 'पुरंदरं' ति असुरादिपुराणां दारणात् पुरन्दरस्तम् ।
(वृ०-प० १७४) १७. जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं
यावत् इंद्र दशू दिशि मांहै, तन आभरण नी जाण।
कांति करीनै उद्योत करतो, प्रभा तेज पहिछाण ।। __*लय-आव लवणांकुस सझ साझा
३४८ भगवती-जोड़
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