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१४. अथवा पिहाइ ते आंख ढांकै बलि, पिहाइ झियाइ बलि पाठ आख्यो। १४. पिहाइ झियाइ, पूर्वे क्रिया कहि तेहिज बे बार ही, अधिक आकुलपणों तास दाख्यो।। अथवा 'पिहाइ' त्ति अक्षिणी पिधत्ते--निमीलयति,
'पिहाइ झियाइ' त्ति पूर्वोक्तमेव क्रियाद्वयं व्यत्ययेन
करोति अनेन च तस्यातिव्याकुलतोक्ता।(वृ०-५०१७५) १५. ध्यावतो तिमज तत्काल पाछो वल्यो, भागो छै मुकुट-विस्तार रचना। १५. झियाइत्ता पिहाइत्ता तहेव संभग्गमउडविडवे सालंबहस्त नां आभरण हालता कर ग्रहै, अधोमुख गमन वसथीज लछना ।। हत्थाभरणे
'तहेब' ति यथा ध्यातवांस्तथैव तत्क्षण एवेत्यर्थः 'संभग्गम उडविडवे' त्ति संभग्नो मुकुटविटपः शेखरकविस्तारो यस्य स तथा 'सालंबहत्थाभरणे' त्ति सहआलम्बेन-प्रलम्बेन वर्तन्ते सालम्बानि तानि हस्ताभरणानि यस्याधोमुखगमनवशादसी सालम्बहस्ताभरणः।
(वृ०-प०१७५) १६. ऊर्ध्व पग मस्तक नीचो है जेहनों, कक्ष विष ज्यूं प्रसेद आवै। १६. उड्ढपाए अहोसिरे कक्खागयसेयं पिव विणिम्मुयमाणेओपम ए कही अधिक भय थी लही, सुर नैं पसेवो तो नांहि भावै।। विणिम्मुयमाणे
भयातिरेकात् कक्षागतं स्वेदमिव मुञ्चयन, देवानां किल स्वेदो न भवतीति संदर्शनार्थः पिवशब्दः।
(वृ०-५० १७५) १७. गति उत्कृष्ट वेग करि भाजतो, जाव तिरछा असंखेज्ज जाणो। १७. ताए उक्किटठाए जाव तिरियमसंखेज्जाणं दीव-सम
द्वीप-समृद्र नै मध्ये-मध्ये करी, अधिक उलांघतो त्रास आणी। हाणं मझमझेणं वीईवयमाणे-बीईबयमाणे १८. जिहां जंबूनामा द्वीप जिहां भरत छ, जाव अशोक तरु छै प्रधानं। १८. जेणेव जंबुदीवे दीवे जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव मुझ कनै आवियो अधिक भय पामतो, भय करी गर्गर वदत वानं ।। ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भीए
भयगग्गरसरे १६. हे भगवंत ! तुझ सरण मुझ नै अछ, एम वच बदत असुरेंद्र आपो। १६. भगवं सरणं इति वुयमाणे ममं दोण्ह वि पायाणं अंतरंसि
मुझ पग उभय अंतर बिचै शीघ्र थी,वेग करि छिप रह्य मन संतापो।। झत्ति वेगेणं समोवडिए। (श० ३।११४) २०. शक्र देवेंद्र सुरराज तिण अवसरै, चित विचार इम ताम करतो। २०. तए णं तस्स सक्कस्स देविदस्स देव रण्णो इमेयारूवे सक्त समर्थ अरु विषय नहीं चमर नी, आपणी नेश्राय आय अडतो।। अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु पभू चमरे
असुरिदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिदे असुरराया, नो खन्नु विसए चमरस्स असुरिदस्स असुर
रणो अपणो निस्साए २१. उडढं उप्पइत्ता ते ऊंचो आवी करी, जाव सौधर्म - कल्पेज आय। २१. उडढं उप्पडत्ता जाव सोहम्मो कप्पो,
तीन नेत्राय विण अन्य नेश्राय थी, चमर नी पोहच नहीं छै ताह्य। २२. अरिहंत, अरिहंत-चैत्य, अणगार नी, नेश्राय जाव सुधर्म आवै। २२. नण्णत्थ अरहते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा महादुख अरिहंत भगवंत अणगार नी,आसातन सोभ थी भ्रंस थावै ।।
साभाविअप्पाणो नीमाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो
कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहताणं भगवं
ताणं अणगाराणय अच्चासायणाए २३. इम कहा अवाषअजूज मुख दाखया, हा हा एखद वचन कहाया। २३. इति कट्ट ओहि पउंजइ, ममं ओहिणा आभोएइ,
अहो ! ए आश्चर्य-वचन शके कह्य, हं हणाणु छु इम कहिनै ध्यायो॥ आभोपत्ताहा! हा ! अहो ! तो अहमिति कट २४. ते उत्कृष्ट गति वेगवती करी, जाव दिव्य देवगति करि अथायो। २४. ताए उक्किटठाए जाव दिवाए देवगईए वज्जस्स बीहि वज्र नां मार्ग केड जाते थके, द्वीपोदधि असंख मध्य थइनै ताह्यो।
अणगच्छमाणे-अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेज्जाणं दीव
समुदाणं मज्झमज्झेणं २५. यावत वक्ष अशोक अछे जिहां, मुझ समीप इम शीघ्र आयो। २५. जाव जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव मुझ थकी वज्र चउ आंगुल अलग प्रति, संहरै शक सौधर्म-रायो। उवागच्छद, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज
पडिसाहरइ।
३५४ भगवती-जोड़
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