________________
कृतः।
७५. अभिषेकश्चाभिषेकसभायां महद्धर्या सामानिकादिदेव
(वृ०-प० १४६) ७६. विभूषणा च वस्त्रालंकारकृताऽलंकारसभायां ।
__ (वृ०-५० १४६) ७७. व्यवसायश्च व्यवसायसभायां पुस्तकवाचनतः ।
(वृ०-५० १४६)
७८.
७४. नवो ऊपनों तेह स्थान नीं, विध नी खबर न कायो।
तास सामानिक परिषदा ना सुर, कार्य सर्व बतायो। ताम ऊठ द्रह स्नान करीन, सभा अभिषेकज आयो। मह ऋद्धि करि सामानिक प्रमुख, राज-अभिषेक करायो ।। अलंकार सभा में आवी नै, किया सर्व अलंकारो।
वस्त्रादि करी अधिक विभूषित, पेखत पामै प्यारो।। ७७. वलि व्यवसाय सभा में आवी, पुस्तक वांचे ताह्यो।
धम्मियं जे व्यवसाय कह्या छ, ते कुल-धर्म कहायो।। 'दशमें ठाणे धर्म कह्या दश, त्यां कूल-धर्म कहायो।
आर्य नव कह्या पन्नवण धुर पद, पिण धर्म नहीं सहु मांह्यो ।। ७६. कर्म आर्य वस्त्र ना व्यापारी, सूत कपास व्यापारी।
तास कार्य करिवा नै डाहा, ते कर्म-आर्य अधिकारी ।। शिल्प आर्य वस्त्र नै तूण, डाहा वस्त्र बणेवा। लेप, चित्र लिखवा नै डाहा, ए शिल्प आर्य में लेवा।। तिम धम्मियं व्यवसाय कह्या ते, कूल धर्म कहिवायो। ज्ञान दर्शण चारित्र आर्य ते, सूत्र चारित्र धर्म मांह्यो' ।।
(ज० स०) सिद्धायतन सिद्ध शाश्वती प्रतिमा प्रमुख अर्चन करने । सभा सुधर्मा आवै सुर-वंद, एहवी ऋद्धि चमर नै ।।
16
वृत्तिकार का एवमहिड्ढिए, इत्यादि वच करि ताह्यो। इहां न कह्यो पिण कहिवू एहन, पाठ सह सुखदायो।। अन्य वाचना विष बली ए, अर्थ थकी अधिकारो।
बहलपणे करि अवलोकित छ, वारू न्याय विचारो।। ८५. द्वितीय शतक नै अष्टमुद्देशे, पंच चालीसमी ढालो। भिक्खु भारीमाल ऋपराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो।।
द्वितीतशते अष्टमोद्देशकार्थः ।।२।८।।
८२. अर्चनिका च सिद्धायतने सिद्धप्रतिमादीनां, सुधर्मसभागमनं च सामानिकादिपरिवारोपेतस्य चमरस्य।
(वृ०-प० १४६) ८३. ऋद्धिमत्त्वं च ‘एवंमहिड् िढए' इत्यादिवचनर्वाच्यमस्येति।
(वृ०-५० १४६) ८४. एतद् वाचनान्तरेऽर्थतः प्रायोऽवलोक्यत एवेति ।
(वृ०-५० १४६)
ढाल : ४६
दूहा
चमरचचा नो क्षेत्र का, अष्ट मुद्देशा मांय । क्षेत्र तणा अधिकार थी, समयक्षेत्र हिव आय ।।
१. चमरचञ्चालक्षणं क्षेत्रमष्टमोद्देशक उक्तम्, अथ
क्षेत्राधिकारादेव नवमे समयक्षेत्रमुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्।
(वृ०-५० १४६)
समय-काल तेणे करी, उपलक्षित जे खेत। समयक्षेत्र कहिये तसुं, तास प्रश्न हिव एथ ।।
३०४ भगवती-जोड़
Jain Education Intemational
ton Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org