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________________ ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ४६. ५७. ८ काज । सहाज || समाचरणाय । शास्त्रकार ने फुन जिके, विघ्न विनासन विनयवंत शिष्य ने बलि प्रदर्शन मुख अथवा फुन जे शिष्ट- जन-समय मंगल वाच्य मनोहरू, प्रयोजने कारण सकल कल्याणनों, अधिकृत धेयभूत ने विघ्न न संभय ते उपशमनज अर्थ ही, द्रव्य ते तज मंगल भाव प्रति, उपादेय संवादि ॥ द्रव्य मंगल कीधै छतै, विघ्न मिटै वा नांय । भाव मंगल निश्च करी, विघ्न विनासक थाय ॥ कहवाय ॥ शास्त्र उदार । हविवार || द्रोबादि । मंगल रूपेह ॥ भाव मंगल फुन तप प्रमुख, भिन्न बहु विधपिण जेह । परमेष्ठी पंचक प्रते, नमस्कार उपादेय सुविशेष ए, परमेष्ठी लोकोत्तम सुख सरण फुल, चिहुं चि तसुं नमस्कार ओलख करें, सह अघ सर्व विघ्न उपशम तणों, हेतु 1 मंगलीक | का सीक || तणों विणास सुखरास ॥ यह कारण वी पंच पद सबंध में आदि । अंगीकार करिं अर्थ ऽभ्यंतरपणं ते मार्ट इहां पण धरे परमेष्ठिक नमस्कार करिखूं तसु, दिखाडिये , संवादि ॥ पंच । संच ॥ जे ते १. शास्त्रकार ने विघ्न हेतुओं का उपशमन करने के लिए शिष्यों की शास्त्र में प्रवृत्ति कराने के लिए और शिष्ट जन सम्मत पद्धति का निर्वाह करने के लिए मंगल, अभिधेय, प्रयोजन और सम्बन्ध को प्रस्तुत किया है। Jain Education International २. नमस्कार महामंत्र सब विघ्नों का उपशामक है। इसलिए सब शास्त्रों की आदि में इसका ग्रहण किया जाता है, इसीलिए यह सब शास्त्रों के अन्तर्निहित कहलाता है । भगवती-जोड़ ४८, ४६. शास्त्रकारास्तु विघ्नविनायकोपशमननिमित्तं विनेयजनप्रवर्त्तनाय च ( मङ्गलं ) शिष्टजनसमयसमा चरणाय वा मङ्गलाभिधेयप्रयोजनसम्बन्धानुदाहरन्ति । (२०-१०२) ५०, ५१. तत्र च सकलकल्याणकारणतयाऽधिकृतशास्त्रस्य श्रेयोभूतत्वेन विघ्नः संभवतीति तदुपशमनाय मङ्गलान्तरव्यपोहेन भावमङ्गलमुपादेयं । ( वृ०० २) ५२. रस्यानैकान्तिकत्वात्यन्तिकत्वाच्च भावमङ्गलस्तु तद्विपरीतवाऽभिलषितार्थसाधनसमर्थत्वेन पूज्यत्वात् । ( वृ० प० २ ) ५२. भावस्य तपःप्रभृतिभिन्नत्वेनानेकविध त्वेऽपि परमेष्ठिपञ्चकनमस्काररूपं विशेषेणोपादेयं । ५४. परमेष्ठिनां मङ्गलत्वलोकोत्तमत्वशरण्यत्वाभिधानात् आह च "चत्तारि मंगल" मित्यादि । (बु०प०२) ५५. तन्नमस्कारस्य च सर्वपापप्रणाशकत्वेन सर्वविघ्नोपशमहेतुत्वात् । (१००१०२) ५६. अत एवायं समस्ततस्वन्धानामादावुपादीयते, अतएव चायं तेषामभ्यन्तरतयाऽभिधीयते । ( वृ० प० २ ) ५७. अतः शास्त्रस्यादावेव परमेष्ठिपञ्चकनमस्कार मुपदर्श( वृ००१०२) यन्नाह । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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