________________ श्रीहेमचन्द्र जी महाराज का भी आभारी हूँ। आप की ओर से इस अनुवाद में मुझे पूरी-पूरी सहायता मिलती रही है। आपने अपना बहुमूल्य समय मेरे इस अनुवाद के संशोधन में लगाया है और इस ग्रन्थ के संशोधक बन कर इसे अधिकाधिक स्पष्ट, उपयोगी एवं प्रामाणिक बनाने का महान् अनुग्रह किया है, जिस के लिए मैं आपश्री का हृदय से अत्यन्तात्यन्त आभारी हूं। तथा मेरे लघुगुरुभ्राता सेवाभावी श्रीरत्नमुनि जी का शास्त्रभंडार में से शास्त्र आदि का ढूण्ढ कर निकाल कर देने आदि का पद-पद पर सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता। मैं मुनि श्री का भी हृदय से कृतज्ञ हूँ। इस के अतिरिक्त जिन-जिन ग्रन्थों और टीकाओं का इस अनुवाद में उपयोग किया गया है उन के कर्ताओं का भी हृदय से आभार मानता हूँ। अन्त में आगमों के पण्डितों और पाठकों से मेरी प्रार्थना है कि गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः। हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सजनाः॥ इस नीति का अनुसरण करते हुए प्रस्तुत टीका में जो कोई भी दोष रह गया हो उसे सुधार लेने का अनुग्रह करें और मुझे उस की सूचना देने की कृपा करें। इस के अतिरिक्त निम्न पद्य को भी ध्यान में रखने का कष्ट करें नात्रातीव प्रकर्त्तव्यं, दोषदृष्टिपरं मनः। दोषे ह्यविद्यमानेऽपि, तच्चित्तानां प्रकाशते॥ -ज्ञानमुनि लुधियाना, जैन स्थानक, पौष शुक्ला 12, सं० 2010 1. जिन-जिन ग्रन्थों का श्रीविपाकसूत्र की व्याख्या एवं प्रस्तावना लिखने में सहयोग लिया गया है, उन के नाम प्रस्तुत परिशिष्ट नं०१ में दिये जा रहे हैं। प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [83