________________ श्री उत्तराध्ययन और दशाश्रुतस्कन्ध आदि सूत्रों की भाँति विपाकश्रुत का भी हिन्दी में अनुवाद किया जाए। आचार्य श्री को इस के लिए प्रार्थना की गई परन्तु स्थानांगादि के अनुवाद में संलग्न होने के कारण आपने अपनी विवशता प्रकट करते हुए इसके अनुवाद के लिए मुझे ही आज्ञा दे डाली। सामर्थ्य न होते हुए भी मैंने मस्तक नत किया और उन्हीं के चरणों का आश्रय लेकर स्वयं ही इस के अनुवाद में प्रवृत्त होने का निश्चय किया। तदनुसार इस शुभ कार्य को आरम्भ कर दिया। प्रस्तुत विवरण लिखने में मुझे कितनी सफलता मिली है इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि यह मेरा प्राथमिक प्रयास है, तथा मेरा ज्ञान भी स्वल्प है, अतः इस में सिद्धान्तगत त्रुटियों का होना भी संभव और भावगत विषमता भी असम्भव नहीं है। अन्त में इस ज्ञानसाध्य विशाल कार्य और अपनी स्वल्प मेधा का विचार करते हुए अपने सहृदय पाठकों से आचार्य श्री हेमचन्द्र जी की सूक्ति में विनम्र निवेदन करने के अतिरिक्त और कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हूँ क्वाहं पशोरिव पशुः, वीतरागस्तवः क्व च। उत्तत्तीर्घररण्यानि , पद्भ्यां पंगुरिवारम्यतः॥७॥ तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि। विशृंखलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते॥८॥ (वीतराग स्तोत्र) _____ अर्थात् कहां मैं पशुसदृश अज्ञानियों का भी अज्ञानी-महामूढ और कहां वीतराग प्रभु की स्तुति ? तात्पर्य यह है कि दोनों की परस्पर कोई तुलना नहीं है। मेरी तो उस पंगु जैसी दशा है जो कि अपने पांव से जंगलों को पार करना चाहता है। फिर भी श्रद्धामुग्ध-अत्यन्त श्रद्धालु होने के कारण मैं स्खलित होता हुआ भी उपालम्भ का पात्र नहीं हूँ, क्योंकि श्रद्धालु व्यक्ति की टूटी-फूटी वचनावली भी शोभा ही पाती है। नामकरण विपाकश्रुत्र की प्रस्तुत टीका का नाम "आत्मज्ञानविनोदनी" रक्खा गया है। अपनी दृष्टि में यह इस का अन्वर्थ नामकरण है / जो जीवात्मा सांसारिक विनोद में आसक्त न रह कर आध्यात्मिक विनोद की अनुकूलता में प्रयत्नशील रहते हैं तथा आत्मरमण को ही अपना सर्वोत्तम साध्य बना लेते हैं। उन के विनोद में यह कारण बने इस भावना से यह नाम रखा गया है। इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह भी है कि यह टीका मेरे परमपूज्य गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज के विनोद का भी कारण बने, इस विचार से यह नामकरण किया गया है। तात्पर्य यह है कि पूज्य आचार्य श्री आगमों के चिन्तन, मनन और अनुवाद में ही लगे प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [81