________________ षष्ठः सर्गः व्याकरण परस्परेण अन्योन्यम् क्रिया-व्यतिहार में सर्वनाम को द्वित्व और पूर्व पद की विभक्तियों को सु विभक्ति अर्थात् प्रथमा। अध्युषिते अधि + - वस् + क्त: ( कर्मणि) अधि उपसर्ग लगने से वस् सकर्मक हो जाता है / आलिगितम् आ + /लिङ्ग + क्तः / भावे ) परिषस्वजाते परि + /स्वज् + लिट् द्विवचन उपसर्ग लगने से स को ष / __ अनुवाद-परस्पर एक ही स्थान में खड़े हुए भी अन्य ( कल्पित ) स्थानों की तरह एक दूसरे को देखते हुए वे दोनों ( नल-दमयन्ती) परस्पर काल्पनिक आलिंगनों के मध्य वास्तविक आलिंगन भी कर गये // 51 / / टिप्पणी-आलिङ्गित० इस समस्त पद का विग्रह करने में कुछ कठिनाईसी अयुभव होती है। यदि 'परस्परालीकालिङ्गनान्तस्तथ्यम्' होता, तो सुगमता थी। विद्याधर यहाँ काव्यलिङ्ग कह रहे हैं। हमारे विचार से पीछे श्लोक 48 की तरह सामान्यालंकार बनना चाहिये / 'अन्योन्यमन्य' में न और य वर्गों की एक से अधिक बार आवृत्ति से छेक नहीं बन सकता है, परन्तु हाँ, 'परस्परे' 'परस्परा' में अवश्य छेक है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्पर्श तमस्याधिगतापि भैमी मेने पुनर्धान्तिमदर्शनेन / नृपः स पश्यन्नपि तामुदीतस्तम्भो न धर्तुं सहसा शशाक // 52 // अन्वयः-भैमी तम् स्पर्शम् अधिगता अपि तस्य अदर्शनेन पुनः म्रान्तिम् मेने। स नृपः ताम् पश्यन् अपि उदीतस्तम्भः सन् ( ताम् ) सहसा धर्तुम् न शशाक। ____टीका-भैमी दमयन्ती तम् तथ्यात्मकम् नलस्य स्पर्शम् त्वगिन्द्रियगोचरताम् अधिगता प्राप्ता अपि तस्य नलस्य अदर्शनेन दृष्टिविषयातीतत्वेन पुन: किन्तु भ्रान्तिम् भ्रमम् मेने स्वीकृतवती / यदि स्पर्शः सत्यः स्यात् तहि नलेन दर्शनीयेन भवितव्यम् , न चासो दृश्यते, तस्मात् स्पर्शो भ्रमात्मक इति साऽतर्कयदिति भावः / स नृपः राजा नलः ताम् दमयन्तीम् पश्यन् विलोकयन् अपि उदीतः उद्भूत इति यावत् यः स्तम्भः सात्विकभावरूपा शारीरिकी जडता ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( व० वी० ) सन् ताम् सहसा झटिति धतुम् ग्रहीतुं न शशाक नाशक्नोत्, स्तम्भोदये शरीरस्य निष्क्रियत्वादिति भावः // 52 // व्याकरण-भ्रान्तिः / भ्रम् + क्तिन् ( भावे ) / मेने मन् + लिट् /