Book Title: Jina Sutra Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001819/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग : २ जिव- सूत्र 2010_03 ओ शो महावीर क्या आए जीवन में हजारों-हजारों बहारें आ गईं Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की भाषा संघर्ष की है। महावीर के पास शरणागति जैसा कोई शब्द ही नहीं है। महावीर कहते हैं, अशरण-भावना। किसी की शरण मत जाना। अपनी ही शरण लौटना है। घर जाना है। किसी का सहारा मत पकड़ना। सहारे से तो दूसरा हो जाएगा। सहारे में तो दूसरा महत्वपूर्ण हो जाएगा। नहीं, दूसरे को तो त्यागना है, छोड़ना है, भूलना है। बस एक ही याद रह जाए, जो अपना स्वभाव है, जो अपना स्वरूप है-इसलिए कोई शरणागति नहीं। महावीर गुरु नहीं हैं। महावीर कल्याण मित्र हैं। वे कहते हैं, मैं कुछ कहता हूं, उसे समझ लो; मेरे सहारे लेने की जरूरत नहीं है। मेरी शरण आने से तुम मुक्त न हो जाओगे। मेरी शरण आने से तो नया बंधन निर्मित होगा, क्योंकि दो बने रहेंगे। भक्त और भगवान बना रहेगा। शिष्य और गुरु बना रहेगा। नहीं, दो को तो मिटाना है। इसलिए महावीर ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। कहा कि भक्त ही भगवान हो जाता है। महावीर कहते हैं, संघर्ष न हो तो सत्य आविर्भूत न होगा। जैसे सागर के मंथन से अमृत निकला, ऐसे जीवन के मंथन से सत्य निकलता है। सत्य कोई वस्तु थोड़े ही है कि कहीं रखी है, तुम गए और उठा ली, कि खरीद ली, कि पूजा की, प्रार्थना की और मांग ली! शेष अगले कवर-फ्लैप पर ___JainEducation International 2010_03 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 ओशो द्वारा भगवान महावीर के समण - सुत्तं पर दिए गए 62 प्रवचनों में से शेष 31 प्रवचनों का द्वितीय संकलन । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 T महावीर क्या आए जीवन में हजारों-हजारों बहारें आ गईं भागः २ जिन-सूत्र 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग संकलन - मा कृष्ण प्रिया, स्वामी कृष्ण वेदांत, मा प्रेम कल्पना संपादन - स्वामी चैतन्य कीर्ति, स्वामी आनंद सत्यार्थी संयोजन - स्वामी योग अमित साज-सज्जा - स्वामी प्रेम प्रभु डार्करूम - स्वामी आनंद अगम टाइपिंग – मा आनंद भगवती, स्वामी आनंद प्रभु, मा देव साम्या, मा कृष्ण लीला पेज मेकिंग – स्वामी प्रेम राजेंद्र फोटोटाइपसेटिंग - ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना मुद्रक - टाटा प्रेस लिमिटेड, बंबई प्रकाशक- रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना कापीराइट - ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन सर्वाधिकार सुरक्षित - इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व प्रकाशक की लिखित अनुमति अनिवार्य है। विशेष राजसंस्करण - जुलाई 1993 प्रतियां - 3000 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द प्रस्तुत पुस्तक में ओशो (भगवान रजनीश) के इकत्तीस प्रवचन हैं। यद्यपि ये प्रवचन 'समण-सुत्तं' की गाथाओं पर दिए |गए थे, तथापि उन्होंने उन गाथाओं की मात्र व्याख्या नहीं की, उनमें उनका गहन तथा सूक्ष्म मौलिक चिंतन मुखरित हुआ है। आचार्य से ओशो तक की रजनीश की यात्रा जितनी लंबी है, उतनी ही उतार-चढ़ावों से भरी हुई है। इस यात्रा में वे ऊंचे-ऊंचे पर्वतों पर चढ़े हैं, गहरी उपत्यकाओं में घूमे हैं, सघन | वनों में विचरे हैं और सागर की अतल गहराइयों में उन्होंने डुबकी लगाई है। लेकिन ये पर्वत, ये उपत्यकाएं और ये सागर भौतिक जगत के नहीं हैं, उस लोक के हैं, जहां महावीर, बुद्ध, ईसा, जरथुस्त्र प्रभृति ने विचरण किया था और उसके द्वारा जीवन के शाश्वत सत्यों को प्राप्त किया था। इन प्रवचनों को पढ़ते हुए पाठक अनुभव करता है कि ओशो उसे दृश्य जगत के आर-पार उस लोक में ले जाते हैं, जहां पहुंच कर मानव को पाने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता। वस्तुतः ओशो ने सामान्य जीवन नहीं जिया । वे घिसे-पिटे रास्ते पर नहीं चले। उन्होंने अपना रास्ता स्वयं बनाया और | निर्भीकतापूर्वक उस पर अग्रसर होते रहे। इस पुस्तक के प्रवचनों को पढ़ कर विस्मय होता है। कितना अध्ययन किया है ओशो ने धर्म, दर्शन, विज्ञान, इतिहास, साहित्य, संस्कृति, कला, आदि का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो उनसे अछूता बचा । वे विद्या- व्यसनी रहे, उनका विशाल पुस्तकालय इसका प्रमाण है। उसकी अनगिनत पुस्तकों 2010_03 में सभी पुस्तकें उनकी पढ़ी हुई हैं। वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत, गीता, बाइबिल, धम्मपद, ग्रंथसाहिब आदि सब कुछ उन्होंने आत्मसात कर लिया है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म-ग्रंथों में लिखे शब्द को यथावत स्वीकार नहीं किया। उस शब्द की भावना को अपने मौलिक चिंतन की कसौटी पर कसा और उसके गूढ़ अर्थ को प्रकट किया। उनकी दृष्टि एक वैज्ञानिक की दृष्टि है। वही दृष्टि इस पुस्तक में दिखाई देती है। ओशो सबसे बड़ी विजय आत्म-विजय मानते हैं। जिन वही है, जिसने अपने को जीत लिया है। अपने को जीतने के लिए मन को जीतना होता है, वासनाओं को जीतना होता है, इंद्रियों को जीतना होता है। इस परमोपलब्धि के लिए मार्ग-निर्देश करते हैं जिन सूत्र, जिन्हें भगवान महावीर ने सम्यक रूप में प्रस्तुत किया है। आत्मार्थियों के लिए ये सूत्र अभूतपूर्व हैं, अप्रतिम हैं, अनूठे हैं। अपने प्रवचनों में ओशो ने इन सूत्रों को बड़े ही सरल शब्दों और सुबोध शैली में जन-जन के लिए बोध-गम्य बना दिया है। गूढ़-से- गूढ़ तत्वों को इतना सुगम बना दिया है कि वे सहज ही गले उतर जाते हैं। बीच-बीच में वे कहीं मुल्ला नसरुद्दीन की कहानियों का सहारा लेते हैं, कहीं बुद्ध के जीवन की घटनाओं का, कहीं किसी अन्य संतों के प्रसंगों का। कहने का तात्पर्य यह कि उनका विषय-प्रतिपादन अत्यंत सजीव और जीवंत बन जाता है। भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन संकल्प और समर्पण, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन दो स्तंभों पर आधारित था। इस मार्ग पर चल कर जो सूत्र जैसे महावीर धर्म के जगत के आइंस्टीन हों और आइंस्टीन उनके हाथ लगे, वे गणित और विज्ञान के सूत्र जैसे थे। वे स्वयं विज्ञान के जगत का महावीर हो।" में परिपूर्ण थे। उनकी परिपूर्णता के लिए किसी बाह्य उपकरण की | | संपूर्ण पुस्तक के पठन-पाठन से ओशो के इस कथन की आवश्यकता नहीं थी। उनका अनुसरण करके 'कैवल्य' तक | सत्यता प्रमाणित होती है। पहंच जाना निश्चित था। ओशो ने भगवान महावीर-प्रणीत पुस्तक के सभी प्रवचन एक से एक बढ़ कर हैं। उनके पढ़ने शास्त्रों को आध्यात्मिक ज्यामिति' कहा, अंतर्यात्रा की ज्यॉमेट्री। में एक निराले ढंग का आनंद अनुभव होता है, साथ ही भगवान जो वैज्ञानिक नहीं, उसे ओशो ने कभी मान्यता प्रदान नहीं | महावीर के सूत्रों के मर्म को समझने में सहायता मिलती है। की। यही कारण है कि उनका योगदान सार्वजनीन तथा प्रवचन अलग-अलग हैं, किंतु उनमें एकसूत्रता भी है। वे सार्वकालिक है। स्वर्ण को कंचन बनाने के लिए तपाना अनिवार्य | जीवन की समग्रता पर प्रकाश डालते हैं और उस मंजिल तक ले होता है। तपाने से उसका मैल छंट जाता है। ओशो ने भी अपनी जाने में सहायक होते हैं, जहां आत्मार्थियों को पहुंचना अभीष्ट भट्टी में तपा कर जहां भी मैल-मिलावट थी, उसे दूर किया और होता है। भगवान महावीर के सूत्रों को उनके विशुद्ध रूप में प्रस्तुत किया। यह पुस्तक पाठकों को एक नई दृष्टि प्रदान करती है और भगवान महावीर के शब्दों का अर्थ जहां बाहरी आवरणों में ढंक गली-कचों से निकल कर जीवन के राज-मार्ग पर चलने को गया था, वहां उन्होंने आवरण को हटा कर उनमें अर्थ भरा और प्रेरित करती है। इस प्रकार उनके शब्दों को सार्थक किया। __उस दिन एक भाई पूछ रहे थे कि ओशो ने प्रवचन क्यों इस पुस्तक में भगवान महावीर के परम तेजस्वी व्यक्तित्व दिए? लिखा क्यों नहीं? और उनकी दर्धर्ष साधना के दर्शन होते हैं। उनके व्यक्तित्व और इसका ठीक-ठीक उत्तर तो ओशो ही दे सकते थे. लेकिन साधना के नए-नए आयाम और ऊंचाइयां हैं। आयामों को देखते मैंने उनसे कहा कि व्यक्ति लिखता मस्तिष्क से है, परंतु बोलता और ऊंचाइयों को चढ़ते हुए साधक एक विचित्र उन्मेष का हृदय से है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ओशो के अनुभव करता है। अपनी अनुपम मेधा से ओशो उस उन्मेष को इन प्रवचनों में उनके हृदय का स्पंदन सुनाई देता है। और भी स्पृहणीय बना देते हैं। ___ यह पुस्तक सब धर्मों, विश्वासों तथा मान्यताओं के भगवान महावीर की वैज्ञानिकता तथा उनकी अनिर्वचनीय अनुयायियों के लिए मंगलदायी है, कल्याणकारी है। ऊंचाइयों और गहराइयों के विषय में ओशो ने कहा है : “जब मैं अल्बर्ट आइंस्टीन का नाम लेता हूं महावीर के यशपाल जैन साथ, तो और भी कारण हैं। दोनों की चिंतन-धारा एक जैसी है। महावीर ने अध्यात्म में सापेक्षवाद ('रिलेटिविटी') को जन्म दिया, | यशपाल जी ने एक यशस्वी जीवन जिया है और उनकी और आइंस्टीन ने भौतिक विज्ञान में 'रिलेटिविटी' (सापेक्षवाद) | सुदीर्घ शब्द-साधना अनेक परवर्ती लेखकों का पाथेय बनी है। को जन्म दिया। दोनों का चिंतन-ढंग, दोनों की सोचने की | एक सुपथगा सरिता की तरह श्री यशपाल जैन की प्रतिभा । तर्क, एक जैसा है। अगर इस दनिया में दो सहज प्रवाहित हई है. वाणी के घाटों को तीर्थ करती हई। हिंदी आदमियों का मेल खाता हो बहुत निकट से तो महावीर और वांग्मय के एक युग विशेष को इनके अनवरत अथक परिश्रम आइंस्टीन का खाता है। महावीर का फिर से अध्ययन होना | ने सफलतापूर्वक रेखांकित किया है। चाहिए आइंस्टीन के आधार पर। तो महावीर में बड़े नए-नए संप्रति, श्री यशपाल जी सत्साहित्य की प्रमुख प्रकाशन तरंगों का, नए उद्भावों का जन्म होगा। जो हमें महावीर में | संस्था, 'सस्ता साहित्य मंडल' के मंत्री हैं और इनकी अनुभव दिखाई नहीं पड़ा था, वह आइंस्टीन के सहारे दिखाई पड़ सकता सिद्ध प्रतिभा का लाभ हिंदी के सुधी पाठकों को सतत प्राप्त हो है। महावीर और आइंस्टीन में जैसे धर्म और विज्ञान मिलते हैं. रहा है। 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम 101 121 139 1. सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक श्रवण 2. यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से 3. ज्ञान है परमयोग 4. किनारा भीतर है 5. जीवन ही है गुरु 6. करना है संसार, होना है धर्म 7. ध्यान का दीप जला लो 8. प्रेम है द्वार | 9. प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा 10. दुख की स्वीकृति ः महासुख की नींव 11. समता ही सामायिक 12. ज्ञान ही क्रांति 13. गुरु है मन का मीत 14. जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है 15. त्वरा से जीना ध्यान है 16. गुरु है द्वार 159 179 199 219 239 259 279 303 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 321 343 365 389 411 433 455 17. ध्यान है आत्मरमण 18. मुक्ति द्वंद्वातीत है 19. ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत 20. गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर | 21. छह पथिक और छह लेश्याएं 22. पिया का गांव 23. षट पर्दो की ओट में 24. आज लहरों में निमंत्रण 25. चौदह गुणस्थान 26. प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं 27. पंडितमरण सुमरण है 28. रसमयता और एकाग्रता 29. त्रिगुप्ति और मुक्ति 30. एक दीप से कोटि दीप हो 31. याद घर बुलाने लगी 479 503 523 543 565 587 609 629 ___ 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रवचन सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं। उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।।८१।। णाणाऽऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्चा। विहरइ विसुज्झमाणी, जावज्जीवं पि निवकंपो।।८२।। जह जह सुयभोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं। तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ।।८३।। सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।।८४ ।। ___ 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र हम महावीर के तीर्थ की चर्चा करें। ऐसे सत्पुरुषों साधु का अर्थ है, जो सुनकर न पहुंच सके, सुनना जिसे काफी न " को फिर-फिर सोचना जरूरी है। सोच-सोचकर पड़े जिसे कुछ और करना पड़े। साधुओं ने हालत उल्टी बना दी सोचना जरूरी है। बार-बार उनका स्वाद हमारे है। साधु कहते हैं कि साधु श्रावक से ऊपर है। ऊपर होता तो प्राणों में उतरे। हमें भी वैसी प्यास जगे। जिस प्यास ने उन्हें महावीर उसकी गणना पहले करते। तो उसे प्रथम रखते। मात्मा बनाया, वही प्यास हमें भी परमात्मा बनाये। क्योंकि महावीर कहते हैं, ऐसे हैं कुछ धन्यभागी, जो केवल सुनकर अंततः प्यास ही ले जाती है। | पहुंच जाते हैं। जिन्हें कुछ और करना नहीं पड़ता। करना तो उन्हें जब प्यास इतनी सघन होती है कि सारा प्राण प्यास में पड़ता है जो सुनकर समझ नहीं पाते। तो करनेवाला सुनने से रूपांतरित हो जाता है, तो परमात्मा दूर नहीं। परमात्मा पाने के दोयम है, नंबर दो है। लिए कुछ और चाहिए नहीं। ऐसी परम प्यास चाहिए कि उसमें इसे समझना। सब कुछ डूब जाए, तल्लीन हो जाए। बुद्ध कहते थे, ऐसे घोड़े हैं कि जिनको मारो तो ही चलते हैं। तो फिर महावीर की चर्चा करें। और महावीर की फिर चर्चा ऐसे भी घोडे हैं कि कोडे की फटकार देखकर चलते हैं. मारने की करने में यह बात सबसे पहले समझ लेनी जरूरी है कि महावीर जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे भी घोड़े हैं कि कोड़े की छाया देखकर ने श्रवण पर बड़ा जोर दिया है। महावीर कहते हैं, सोया है चलते हैं। फटकारने की भी जरूरत नहीं पड़ती। आदमी, तो कैसे जागेगा? कोई पुकारे उसे, कोई श्रावक को सुनना काफी है। उतना ही जगा देता है। तुमने हिलाये-डुलाये, कोई जगाये। कोई उसे खबर दे कि जागरण का किसी को पुकारा, कोई जग जाता है। पर किसी को हिलाना भी कोई लोक है। सोया आदमी अपने से कैसे जागेगा। सोया पड़ता है। किसी के मुंह पर पानी फेंकना पड़ता है। तब भी वह तो जागने का भी सपना देखने लगता है। सोया तो सपने में भी करवट लेकर सो जाता है। श्रावक है वह, जिसने सुनी पुकार सोचने लगता है, जाग गये! भेद कैसे करेगा सोया हुआ आदमी और जाग गया। साधु है वह, जो करवट लेकर सो गया। कि जो मैं देख रहा हूं वह स्वप्न है या सत्य? कोई जागा उसे | जिसको हिलाओ, शोरगुल मचाओ, आंखों पर पानी फेंको। जगाये। कोई जागा उसे हिलाये। इसलिए महावीर कहते हैं, श्रवण-सम्यक-श्रवण-सुधी व्यक्ति के लिए पर्याप्त है। सुनकर ही सत्य की यात्रा शुरू होती है। इशारा बहुत है बुद्धिमान को। महावीर ने कहा है, मेरे चार तीर्थ हैं। श्रावक का, श्राविका पहला सूत्र है आज काका; साधु का, साध्वी का। लेकिन पहले उन्होंने कहा, श्रावक सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं। का, श्राविका का। श्रावक का अर्थ है, जो सुनकर पहुंच जाए। | उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।। 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 जिन सूत्र भाग: 2 'सुनकर ही कल्याण का - आत्महित का मार्ग जाना जा सकता है।' सुनकर ही । 'सुनकर ही पाप का मार्ग भी जाना जा सकता है। अतः सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो श्रेयस हो उसका आचरण करे।' जाओ उनके पास, जो जाग गये हैं। बैठो उनके पास, जो जाग गये हैं। डूबो उनकी हवा में, जो जाग गये हैं। उनकी तरंगें तुम्हें जगायें। सत्संग का इतना ही अर्थ है। सुनो उन्हें, जिन्होंने पाया है । उनके शब्दों में भी शून्य होगा। उनकी आवाज में भी मंत्र होगा। उनके इशारे में भी तुम्हारे जीवन की नाव निर्मित हो जाएगी। सुनकर ही । और उपाय भी तो नहीं है। गुरजिएफ कहता था - इस सदी का एक बहुत बड़ा तीर्थंकर – कहता था, हमारी हालत ऐसे है जैसे रेगिस्तान में, | जंगल में, निर्जन में कुछ यात्री रात पड़ाव डालें। खतरा है। बीहड़ है। जंगली पशु हमला कर सकते हैं। डाकू-लुटेरे छिपे हों । अनजान जगह है। अपना कोई नहीं, पहचान नहीं। ऐसा ही तो संसार है। तो क्या करे यात्रीदल ? एक को जागता हुआ छोड़ देता है कि कम कम एक जागता रहे, बाकी सो जाएं। फिर पारी- पारी से और लोग जागते रहते हैं। जो जागा है, वह खुद के सोने के पहले किसी और को उठा देता है। कम से कम एक दीया तो जलता रहे अंधेरे में। कम से कम कोई एक तो जागकर देखता रहे। खतरा आये तो हमें सोया हुआ न पाये। सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि तुम जब सोये हो तब कोई तुम्हारे पास में बैठा हुआ, जागा हुआ है। तुम तो सोये हो, तो सपने में डूब जाओगे। तुम तो न मालूम कितने वासनाओं, कल्पनाओं के लोक में भटक जाओगे। तुम तो न मालूम कितने मन के खेलों में डूब जाओगे। लेकिन जो जागा है, वह यथार्थ को देखता रहेगा । उसे सुनो। जब जागा हुआ कुछ कहे, तो सुनो, समझो। जागे हुए के साथ तर्क का सवाल नहीं है, क्योंकि उसकी भाषा बड़ी और है। उससे तर्क करके तुम कुछ भी न पाओगे। उससे तर्क करके केवल तुम बंद रह जाओगे । जागे के साथ तर्क नहीं हो सकता। जागे के साथ तो केवल श्रवण हो सकता है। उससे विवाद नहीं हो सकता, केवल सुनना हो सकता है। वह जो कहे, उसे पीओ। वह जो कहे, तुम्हारे सोचने का सवाल उतना नहीं है जितना पीने का सवाल है । क्योंकि वह जो कह रहा है, उसे 2010_03 पीकर ही तुम समझ सकोगे कि सही है या गलत है। और तो कोई उपाय नहीं । लेकिन अगर ठीक से सुना गया, तो सत्य की महिमा है कि ठीक से सुननेवाले को सत्य तत्क्षण हृदय में चोट करने लगता है। कहा गया अगर असत्य है, तो ठीक से सुनते समय ही साफ हो जाता है कि असत्य है। तय नहीं करना पड़ता, विचार भी नहीं करना पड़ता । असत्य के कोई पैर ही नहीं हैं। पैर तो सत्य के हैं। असत्य तो तुम्हारे हृदय तक जा ही नहीं सकता । असत्य तो लंगड़ा है। असत्य तो बाहर ही गिर जाएगा। तुम अगर शांत बैठे सुनने को तैयार हो, तो घबड़ाओ मत कि कहीं ऐसा न हो कि असत्य भीतर प्रवेश कर जाए । असत्य तो तभी प्रवेश करता है जब तुम शांत, मौन श्रवण नहीं करते। तुम्हारी नींद के द्वार से ही असत्य प्रवेश करता है। तुम्हारी मूर्च्छा से ही प्रवेश करता है । अगर तुम सजग होकर सुनने बैठे हो, तो असत्य गिर जाएगा बाहर । तुम्हारी आंख का सामना न कर सकेगा असत्य। वह शांत सुननेवाले के प्राण पर्याप्त हैं असत्य को गिरा देने को । जो सत्य है, वही चला आयेगा चुंबक की तरह खिंचता हुआ। जो सत्य है वही तुम्हारे प्राणों में तीर की तरह प्रवेश कर जाएगा। जो असत्य है, बाहर रह जाएगा। तुम सत्य हो, तुम सत्य को ही खींच लोगे । लेकिन अगर तुमने ठीक से न सुना, अगर तुमने विचार किया, तुमने सोचा, तुमने कहा यह ठीक है या नहीं, मेरी अतीत मान्यताओं से मेल खाता, नहीं खाता, तो संभव है कि असत्य तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाए। असत्य बहुत तार्किक है। जीवंत तो जरा भी नहीं, लेकिन बड़ा तर्कयुक्त है। सत्य के पास कोई तर्क नहीं, कोई प्रमाण नहीं। सत्य अस्तित्ववान है, वही उसका प्रमाण है। इसलिए शास्त्र कहते हैं सत्य स्वयं प्रमाण है। असत्य स्वयं अप्रमाण है। सुन लो ठीक से। उस सुनने में ही चुनाव हो जाएगा। 'सोच्चा जाणइ कल्लाणं ।' सुनकर ही कल्याण का पता चल जाता है कि क्या है कल्याण | 'सोच्चा जाणइ पावगं ।' सुनकर ही पता चल जाता है कि पाप क्या है, गलत क्या है, अल् क्या है ? और महावीर की बड़ी खूबी है; वे कहते हैं मेरे पास कोई आदेश नहीं है। मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम ऐसा करो । महावीर कहते हैं, तुम सिर्फ सुन लो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘अतः सुनकर हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो कि यह मुर्दा है । आधा सत्य खतरनाक है । क्योंकि आधे सत्य में श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना।' थोड़ी-सी प्राणों की झलक है। श्वास अभी चलती है, मरीज अभी मरा नहीं । लगता है जिंदा है। अभी शरीर थोड़ा गरम है, ठंडा नहीं हो गया है। खून अभी बहता है । लगता है जिंदा है। आधा सत्य असत्य से बदतर है। इसलिए महावीर का सारा संघर्ष आधे सत्यों के खिलाफ है, असत्य के खिलाफ नहीं । उन्होंने कहा असत्य तो सुनकर ही समझ में आ जाता है असत्य है। लेकिन आधे सत्य बड़े भरमाते हैं । महावीर यह भी नहीं कहते कि पाप को छोड़ो। कहने की जरूरत नहीं। ठीक से सुननेवाले को पाप पकड़ता ही नहीं। महावीर यह भी नहीं कहते कि सत्य का अनुसरण करो । यह बात ही व्यर्थ होगी। जिसने ठीक से सुना है वह सत्य के अनुसरण में लग जाता है। अनुसंधान में लग जाता है। इसका यह अर्थ हुआ - सम्यक - श्रवण कुंजी है सत्य के द्वार की जिसके हाथ में सम्यक-श्रवण है, वह पहुंच जाएगा। उसे कोई रोक न सकेगा। । इसे हम थोड़े वैज्ञानिक अर्थों में समझें । आदमी के पास आंख है देखने को, कान हैं सुनने को । आंख से जब तुम देखते हो, तो एक ही दिशा में देख सकते हो । आंख बहु-आयामी नहीं है। 'मल्टी-डायमेंशनल' नहीं है। एक तरफ देखो, तो सब दिशाएं बंद हो जाती हैं। आंख एकांगी है। आंख एकांत है। इसलिए महावीर का जोर कान पर ज्यादा है, आंख की बजाय । कान बहु-आयामी है। आंख बंद करके सुनो, तो चारों तरफ की आवाजें सुनायी पड़ती हैं। आंख समग्र को नहीं ले पाती। कान समग्र को भीतर ले लेता है। यह पहली बात खयाल में लेने की ! आंख से जब भी तुम देखते हो, तो एक दिशा में, एक रेखा में। उतनी रेखा को छोड़कर शेष सब बंद हो जाता है। आंख है जैसे टार्च। एक दिशा में प्रकाश की धारा पड़ती है। लेकिन शेष सब अंधकार में हो जाता है। महावीर कहते हैं, यह एकांगी होगा; यह एकांत होगा । तुम एक पहलू को जान लोगे, लेकिन शेष पहलुओं से अनजान रह जाओगे। यह ऐसा ही होगा जैसे उन पांच अंधों की कथा है, जो हाथी को देखने गये थे। सबने हाथी के अंग छुए, लेकिन सभी का दर्शन–अंधे थे, सभी की प्रतीति एकांगी थी। जिसने पैर छुआ उसने सोचा कि हाथी खंभे की भांति है। जिसने कान छुए उसने सोचा कि हाथी पंखे की भांति है। अलग-अलग। वे सभी सत्य थे, लेकिन सभी अधूरे सत्य थे। और महावीर कहते हैं, अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर है । क्योंकि असत्य को तो पहचानने में कठिनाई नहीं, वह तो निष्प्राण है, वह तो लाश की तरह है । उसको तो तुम समझ ही जाओगे 2010_03 सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण महावीर ने एक नये जीवन-दर्शन को जन्म दिया। उसे कहा, स्यातवाद । उसे कहा, अनेकांतवाद । उसे कहा कि मैं सारे एकांगी सत्यों को इकट्ठा कर लेना चाहता हूं। ये पांचों अंधों ने जो कहा है हाथी के संबंध में, यह सभी सच है । और सत्य इन सभी का इकट्ठा जोड़ है, समन्वय है। कान की खूबी है कि कान आंख से ज्यादा समग्र है। जब तुम सुनते हो तो चारों दिशाओं से सुनते हो। कान ऐसे हैं जैसे दीया जले। सब तरफ प्रकाश पड़े। आंख ऐसे हैं जैसे टार्च। एक दिशा में । एकांगी। महावीर कहते हैं कि दर्शनशास्त्र एकांगी है। श्रवणशास्त्र बहु - अंगी है। इसलिए महावीर ने एक बड़ी क्रांतिकारी प्रज्ञा दी। उन्होंने कहा कि सुनो। अगर ध्यान में जाना है, तो सुनकर जल्दी जा सकोगे, बजाय देखकर। इसलिए समस्त ध्यानियों ने आंख बंद कर लेनी चाही है। समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं कहती हैं आंख बंद कर लो। यह भी थोड़ा समझने जैसा है कि परमात्मा ने आंख को ऐसा बनाया है कि चाहो तो खोल लो, चाहो तो बंद कर लो। कान को ऐसा नहीं बनाया। कान खुला है। बंद करने का उपाय नहीं । आंख तुम्हारे हाथ में है। कान अब भी परमात्मा के हाथ में है। तुम्हारे वश में नहीं कि तुम उसे खोलो, बंद करो। सदा खुला है। तुम्हारी गहरी से गहरी नींद में भी कान खुला है। आंख तो बंद है। जब तुम मूर्च्छा में खोये हो, तब भी कान खुला है। आंख तो बंद है। नींद में पड़े आदमी के पास जागा आदमी खड़ा रहे, तो देख न पायेगा। नींद में पड़ा आदमी देखेगा कैसे, आंख तो बंद है । लेकिन अगर वह आदमी उसका नाम ले, आवाज दे, तो सुन तो पायेगा । हम सोये हैं । श्रवण से रास्ता मिलेगा। आंख तो हमारी बंद ही है। और खुली भी हो तो ज्यादा से ज्यादा अधूरा सत्य देख Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सुत्र सकती है। पूरा सत्य आंख के वश में नहीं है। तुम्हारे हाथ में मैं ज्यादा देर तक गपशप में लगा रहा। रात बहुत बीत गयी। एक छोटा-सा कंकड़ दे दूं और तुमसे कहूं इसे पूरा एक-साथ | चौंककर उठा, उसने कहा बहुत देर हो गयी, अब घर जाऊं। देख लो, तो तुम न देख पाओगे। आंख इतनी कमजोर है! एक मित्र ने कहा, आज भाभी तो बहुत इत्र-पान करेंगी। मुल्ला ने हिस्सा देखेगी, दूसरा हिस्सा दबा रह जाएगा। एक छोटा-सा | कहा तूने मुझे समझा क्या है? अगर घर जाते ही पहला शब्द कंकड़ भी तुम पूरा नहीं देख सकते, तो पूरे परमात्मा को, पूरे पत्नी से प्रीतम न निकलवा लूं, तो मेरा नाम बदल देना। या तेरी सत्य को कैसे देख सकोगे? इसलिए जिन्होंने देखने पर जोर | जिंदगी भर गुलामी कर दूंगा। मित्र भलीभांति मुल्ला की पत्नी दिया है, उन्होंने अधूरे दर्शनशास्त्र जगत को दिये हैं। महावीर का को जानता है, उसने कहा कोई फिक्र नहीं, दो मील चलना दर्शनशास्त्र परिपूर्ण है, समग्र है। जोर बड़ा भिन्न है। सनो। पडेगा-इस अंधेरी रात में लेकिन मैं आता हं. शर्त रही। । सत्य को देखना नहीं, सत्य को सुनना है। सत्य कोई वस्तु थोड़े नसरुद्दीन घर गया। उसने जाकर द्वार पर दस्तक दी और जोर ही है कि तुम उसे देख लोगे। सत्य तो किसी व्यक्ति का अनुभव से बोला, 'प्रीतम आ गये हैं।' पत्नी चिल्लायी अंदर से, है। वह कहेगा तो तुम सुन लोगे। महावीर खड़े रहें तुम्हारे | 'प्रीतम जाएं भाड़ में।' उसने मित्र से कहा, 'देखा, कहलवा समक्ष, तुम कुछ भी न देख पाओगे। बहुतों ने महावीर को देखा लिया न! पहला शब्द प्रीतम निकलवा लिया न।' था और कुछ भी न देखा। गांव-गांव खदेड़े गये। पत्थर मारे अगर कोई धारणा है, अगर पहले से कोई पक्षपात है, तो तुम गये। गांव-गांव निकाले गये। महावीर को देखने में क्या कुछ का कुछ सुन लोगे। तुम सत्य को अपने हिसाब से ढाल अड़चन आती थी? | लोगे। तुम उसे असत्य कर लोगे। ऐसे ही तो लोग चूके महावीर इस महिमावान पुरुष को ऐसा तिरस्कार क्यों झेलना पड़ा? को, बुद्ध को, कृष्ण को, जरथुस्त्र को, जीसस को। कुछ का लोग अंधे हैं। दिखायी उन्हें पड़ता ही नहीं। सुन सकते हैं। कुछ सुन लिया। कहा था कुछ, सुन लिया कुछ। सुननेवाले के इसलिए सुनने की कला को सीख लेना धर्म के जगत में पहला पास अपना मन था, अपना मजबूत मन था, उसने मन के माध्यम कदम है। से सुना। मन को हटाकर सुनो, तो महावीर का श्रवण समझ में क्या है सुनने की कला? कैसे सुनोगे? जब सुनो, तो सोचना आयेगा। मन को किनारे रख दो, जहां तुम जूते उतार आये हो मत। क्योंकि तुमने अगर सोचा सुनते समय, तो तुम वह न सुन वहीं मन को उतार आना। एक बार जूते भी मंदिर में ले आओ तो पाओगे जो कहा गया। कुछ और सुन लोगे। सुनते समय इतना अपवित्र नहीं, मन को मंदिर में मत लाना। नहीं तो मंदिर में पूर्व-धारणाओं को लेकर मत चलना। नहीं तो पर्व-धारणाएं पर्दे | कभी आ ही न सकोगे। का काम करेंगी। रंग घोल देंगी जो कहा गया है उसमें। तुमने "सुनकर ही कल्याण का, आत्महित का मार्ग जाना जा सकता कभी खयाल किया, रात तुम अलार्म लगाकर सो गये हो, चार है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जा सकता है।' बजे उठना है ट्रेन पकड़ने। और जब अलार्म बजता है, तो तम श्रवण की कला आते ही तम दध और पानी को अलग-अलग एक सपना देखते हो कि मंदिर की घंटियां बज रही हैं। अलार्म करने में कुशल हो जाते हो। विवेक का जन्म होता है। तुम हंस खतम! तुमने एक सपना बना लिया। हो जाते हो। इसीलिए तो हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है। अब घड़ी एलार्म बजाती रहे, क्या करेगी घड़ी? तुमने एक | परमहंस का अर्थ है, गलत को और सही को वे तत्क्षण अलग तरकीब निकाल ली। तुमने कुछ और सुन लिया! सुबह तुम कर लेंगे। उनकी आंख, उनकी दृष्टि, उनकी भावदशा बड़ी हैरान होओगे कि हुआ क्या? अलार्म भरा था, अलार्म बजा भी, साफ है, निर्मल है। जो जैसा है उसे वे वैसा ही देख लेते हैं। जैसे मैं चूक क्यों गया? तुम्हारे पास अपनी एक धारणा थी, एक को तैसा देख लेते हैं। उसमें कुछ जोड़ते नहीं। फिर कोई भ्रांति सपना था। तो अगर तुमने सुना कोई पक्षपात के साथ, तो तुम खड़ी नहीं होती। कुछ का कुछ सुन लोगे। बतानेवाले वहीं पर बताते हैं मंजिल मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र के साथ __ हजार बार जहां से गुजर चुका हूं मैं 2010_03 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMANANMAMINAKAMANARAMANANAWARANANMEANINNAMAMANNARAAMANAMAMANRNNIMAMAMANNEL सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण । तुम भी गुजरे हो। मंदिर के आसपास ही परिक्रमा चल रही है। आंख आक्रामक है, कान ग्राहक है। और महावीर की अहिंसा क्योंकि परमात्मा सब जगह मौजूद है। कहीं भी जाओ, उसी के इतनी गहरी है कि वह आंख का उपयोग न करेंगे। क्योंकि आंख पास परिक्रमा चल रही है। कुछ भी देखो, तुमने उसी को देखा में आक्रमण है। जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो मेरी आंख तुम तक है। कुछ भी सुनो, तुमने उसी को सुना है। कोयल पुकारी हो, गयी। जब मैं तुम्हें सुनता हूं, तब मैंने तुम्हें अपने भीतर लिया। कि झरने की आवाज हो, कि जलप्रपात हो, कि हवाएं गुजरी हों जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो देखने में एक आक्रमण है। इसलिए वृक्षों से, वही गुजरा है। लेकिन, तुम उसे पहचान नहीं पाते। कोई आदमी तुम्हें घूरकर देखे, तो अच्छा नहीं लगता। कोई तुम्हें बतानेवाले वहीं पर बताते हैं मंजिल गौर से सुने, तो बहुत अच्छा लगता है, खयाल किया? गौर से हजार बार जहां से गुजर चुका हूं मैं सुननेवाले को तुम बड़ा प्यार करते हो। लोग तलाश में रहते हैं, मंजिल तो तुम्हारे भीतर है; गुजर चके, यह कहना भी ठीक | कोई मिल जाए सुननेवाला। नहीं। जहां तुम सदा से हो, मंजिल वहीं है। कसौटी तुम्हारे पास | पश्चिम में, जहां कि सुननेवाले कम होते चले गये हैं, नहीं। सोने का ढेर लगा है चारों तरफ, तुम्हारे पास सोने को मनोविश्लेषक है। वह 'प्रोफेशनल' सुननेवाला है। कसने का पत्थर नहीं। हीरे-जवाहरात बरस रहे हैं चारों तरफ, | व्यवसायी। उसे पैसे चुकाओ, वह घंटे भर बड़े गौर से सुनता तुम्हारे पास जौहरी की आंख नहीं। है। पता नहीं सुनता है कि नहीं सुनता, लेकिन जतलाता है कि और महावीर कहते हैं, श्रवण पहला सूत्र है। सुनो। ऐसा | सुनता है। कभी भी नहीं हुआ है पृथ्वी पर कि जागे पुरुष न रहे हों। ऐसा लोग बड़े प्रसन्न लौटते हैं मनोवैज्ञानिक के पास से। वह कुछ होता ही नहीं। उनकी शृंखला अनवरत है। अनुस्यूत हैं वे। भी नहीं करता। वह कहता है सिर्फ तुम बोलो, हम सुनेंगे। अस्तित्व में प्रतिपल कोई न कोई जागा हुआ पुरुष मौजूद है। सुननेवाला इतना भला लगता है, इतना ग्राहक! तुम्हें स्वीकार अगर तुम सुनने को तैयार हो, तो परमात्मा तुम्हें पुकार ही रहा करता है। लेकिन अगर कोई तुम्हें गौर से देखे, तो अड़चन आती है। कभी महावीर से, कभी कृष्ण से, कभी मुहम्मद से। वह है। मनस्विद कहते हैं तीन सेकेंड तक बर्दाश्त किया जा सकता तुम्हें हजार ढंगों से पुकारता है। वह हजार भाषाओं में पुकारता है। वह सीमा है। उसके आगे आदमी लुच्चा हो जाता है। लुच्चे है। वह हजार तरह से तम्हारे हाथ हिलाता है। लेकिन तम हो कि का मतलब, गौर से देखनेवाला। और कछ मतलब नहीं। जो तुम सुनते नहीं। मतलब आलोचक का होता है, वही लुच्चे का होता है। दोनों मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर एक ही शब्द से बने हैं—लोचन, आंख। लुच्चे का अर्थ है, जो रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर तुम्हें घूरकर देखे। आलोचक का भी यही अर्थ होता है कि जो अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा चीजों को घर-घूरकर देखे, कहां-कहां भूल है। दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा । लेकिन तुम गौर से सुननेवाले को बड़ा आदर देते हो। घूर के और मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर, रात ही देखनेवाले को बड़ा अनादर। हां, किसी से तुम्हारा प्रेम हो, तो तारी रही इंसान के इद्राक पर। सूरज चमकता ही रहा है, सदियों तुम क्षमा कर देते हो। वह तुम्हें गौर से देखे, चलेगा। लेकिन से, सदा से। सूरज इस अस्तित्व का अनिवार्य अंग है। लेकिन जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं, तो तीन सेकेंड से ज्यादा आंख आदमी अंधेरे में ही जीता है। आदमी अपने भीतर बंद है। ऐसा नहीं टिकनी चाहिए किसी पर। वहां से शिष्टाचार समाप्त हो समझो कि सूरज निकला हो और तुम घर के भीतर द्वार-दरवाजे जाता है। वहां से बात अशिष्ट हो जाती है। तो हम रास्ते पर बंद किये बैठे हो। फिर सूरज करे भी तो क्या? द्वार-दरवाजे आंखें बचाकर चलते हैं। देखते भी हैं, नहीं भी देखते हैं। दुबारा खोलो, थोड़े ग्रहणशील बनो। कान का यही अर्थ है। कान | लौटकर नहीं देखते। देखने का मन भी हो, तो भी आंखें प्रतीक है ग्रहणशीलता का। यहां-वहां कर लेते हैं। इसे भी समझ लेना। तुमने कभी खयाल किया, लोग एक-दूसरे की आंखों में आंखें 2010_03 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 - डालकर बात नहीं करते, क्योंकि वह बेहूदगी है। लोग तुम्हारे सामने वस्त्र गिरा देती है। वस्त्र खींचने नहीं पड़ते। इधर-उधर देखते हैं। बात एक-दूसरे से करते हैं, देखते प्रेयसी खुद ही उघड़ने को राजी होती है। आतुर होती है। सत्य कहीं-कहीं हैं। कोई आदमी ठीक तुम्हारी आंखों में देखकर बात स्वयं उघड़ने को आतुर है, लेकिन प्रेम से उघड़ेगा। आक्रमण से करे, तुम बेचैनी अनुभव करोगे, तुम्हें पसीना आने लगेगा। तुम नहीं। परमात्मा खुद बूंघट उठाने के लिए तैयार है, तैयार नहीं थोड़े घबड़ाओगे कि मामला क्या है? कोई जासूस है ? सरकारी बड़ा प्रतीक्षारत है, लेकिन जबर्दस्ती से न होगा। आंख में थोड़ी आदमी है? मामला क्या है, ऐसा गौर से क्यों देखता है? या जबर्दस्ती है। कान में कोई भी जबर्दस्ती नहीं। कान कहीं जा नहीं पागल है? प्रयोजन होगा कुछ। कुछ तलाश कर रहा है, कुछ सकता। ध्वनि कान तक तैरकर आती है। खोज रहा है। कान रिक्त है, आंख भरी हुई है। आंख में पर्त दर पर्त विचारों कान ग्राहक है। आंख सक्रिय है। कान निष्क्रिय-स्वीकार है। की हैं, पर्त दर पर्त बादलों की हैं। आंख में बड़े पर्दे हैं। कान कान ऐसे है जैसे कोई द्वार को खोलकर अतिथि की प्रतीक्षा करे। बिलकुल खाली है। कान के पास कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक सत्य निमंत्रित करना है। सत्य को बुलाना है। सत्य को कहना तंतु-जाल है। चोट होती है, कान सजग हो जाता है, स्वीकार है, द्वार खुले हैं, आओ। आंखें बिछा रखी हैं, आओ। मैं तैयार कर लेता है। हूं, आओ। तुम मुझे सोया हुआ न पाओगे, आओ। दरवाजे बंद महावीर कहते हैं, जो सुनेगा—ठीक से सुनेगा, न होंगे, तुम्हें दस्तक देने की भी तकलीफ न होगी, आओ। सम्यक-श्रवण, 'राइट लिसनिंग'; कृष्णमूर्ति जिसको कहते हैं आंख खोजने जाती है। कान प्रतीक्षा करता है। इसे ऐसा 'राइट लिसनिंग', ठीक से जो सुनेगा–सत्य अपने-आप समझो। आंख पुरुष है। कान स्त्री है। पुरुष सक्रिय है, असत्य से अलग हो जाता है। दूध दूध, पानी पानी हो जाता है। आक्रामक है। स्त्री ग्राहक है। पुरुष जन्म नहीं दे सकता बच्चे ठीक से सुनने से तुम परमहंस हो जाते हो। को, स्त्री देती है। उसके पास गर्भ है। वह अपने भीतर लेने को मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर राजी है। सत्य भी तुम्हारे गर्भ में प्रवेश पाये, तो ही जन्म हो रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर सकेगा। सत्य को तुम्हें जन्माना होगा। यह कहीं रखा नहीं है कि और आदमी के बोध पर अंधेरा छाया रहा, और सूरज था कि गये और उठा लिया और आ गये। या बाजार में बिकता है, चमकता ही रहा। खरीद लिया, या दाम चुका दिये। यह तो तुम्हें जन्म देना होगा। अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा और प्रसव की पीड़ा से गुजरना होगा। तुम्हें स्त्री-जैसा होना दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा होगा। समस्त धर्म के खोजियों ने इस बात पर बहत जोर दिया है। फिर कभी-कभी किसी महावीर के पास थोडी-सी झलक कि सत्य को पाना हो, तो स्त्रैण ग्राहकता चाहिए। स्वीकार का | मिलती है। भाव चाहिए। कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे-सहर देखा तो है श्रद्धा स्वीकार है, तर्क खोज है। विज्ञान खोजता है। धर्म | जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है प्रतीक्षा करता है। विज्ञान जाता है कोने-कांतर, उघाड़ता है, किसी महावीर के पास, किसी महावीर की वाणी को जबर्दस्ती भी करता है। विज्ञान एक तरह का बलात्कार है। | सुनकर-जिस तरफ कभी देखा ही न था...भूल ही गये थे, अगर प्रकति राजी नहीं है अपने पर्दे उठाने को, अगर प्रकति राजी | सोचा ही न था कि वह भी कोई आयाम है...उस तरफ देखा तो नहीं है चूंघट हटाने को, तो विज्ञान दुर्योधन-जैसा है। वह द्रौपदी | है। माना कि अभी यह सपना है। पहली दफे जब महावीर की को नग्न करने की चेष्टा करता है। उसमें बलात चेष्टा है। वाणी किसी के हृदय में उतरती है, नाचती, धूघर बजाती, संगीत आक्रमण है। की तरह मधुर, मधु की तरह मीठी, जब पोर-पोर हृदय में प्रवेश धर्म प्रतीक्षा है। धर्म भी उघाड़ लेता है संसार को। धर्म भी करती है, तो एक नये स्वप्न का प्रादुर्भाव होता है। सत्य के स्वप्न | सत्य को उघाड़ लेता है, लेकिन प्रेमी की तरह। तुम्हारी प्रेयसी का प्रादुर्भाव। पहली बार याद आनी शुरू होती है जिसको हम 2010_03 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2- ARAT953035MARRANEE -सत्य के द्वार की कुंजी: सम्यक-श्रवण भूले बैठे हैं और जो हमारा है। और जो हमारा स्वभाव है और फिर महावीर कहते हैं, 'उभयं पि जाणए सोच्चा।' दोनों देख जिसकी तरफ हमने पीठ कर ली है। और जिसकी तरफ हमने | लिये। क्या है सत्य, क्या असत्य। देख लिया क्या है आंख उठानी बंद कर दी है और जिस तरफ हमने पहुंचना ही | मंगलदायी, क्या अमंगलदायी। 'जं छेयं तं समायरे।' यह छोड़ दिया है। हम भल ही गये हैं कि घर भी लौटना है। बढ़ते ही उनकी बड़ी अनूठी बात है। वह जरा भी किसी पर अपने को चले जाते हैं संसार में। आरोपित नहीं करना चाहते। वह कहते हैं, फिर तुम्हारी अपनी लेकिन यह स्वप्न! इच्छा। फिर तुम्हें जो श्रेयस्कर लगे। वह यह नहीं कहते कि तुम कुछ नहीं तो कम से कम ख्बाबे-सहर देखा तो है सत्य का अनुसरण करना। यह तो बात ही गलत हो जाएगी। यह सुबह का सपना ही सही अभी, किसी की वाणी से पहली | सत्य को जानकर कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने अनुसरण न दफा तरंगें उठी हैं, और सुबह का भाव, सुबह का बोध जगा है। | किया हो? वह यह नहीं कहते कि असत्य का त्याग करना। जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है | ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि असत्य को जानकर और त्याग न हो लेकिन यह तभी संभव होगा, जब तुम्हारा हृदय शून्य और गया हो। कंकड़-पत्थर पहचान लिए कंकड़-पत्थर हैं फिर कौन शांत हो, मौन हो। तिजोड़ी में रखता है? हां, जब तक हीरों का भ्रम था तब तक मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक नदी के किनारे से गुजर रहा तिजोड़ी में संभाले बैठे थे। जिस दिन पहचान आ जाती है था। सांझ घिरने लगी। सूरज ढल चुका है। और एक आदमी कूड़ा-कर्कट, कूड़ा-कर्कट है, उसे घर के बाहर हम फेंक आते डूब रहा है; और वह आदमी चिल्लाया, सहायता करो, | हैं। त्याग थोड़े ही करना पड़ता है, उद्घोषणा थोड़े ही करनी सहायता करो, मैं डूब रहा हूं! मुल्ला किनारे पर खड़ा है, वह पड़ती है कि देखो, आज हम बड़ा त्याग कर रहे हैं, सारा बोला हद्द हो गयी; अरे, डूबने में किसी से क्या सहायता की कूड़ा-कर्कट कचरे-घर में डाल रहे हैं। जब कूड़ा-कर्कट हो जरूरत, डूब जाओ! इसमें सहायता की क्या जरूरत है! गया, तो त्याग कैसा! तुम कुछ का कुछ सुन ले सकते हो। इससे सावधान रहना। इसलिए ध्यान रखना, महावीर त्याग करने को नहीं कहते। लेकिन जब तक तुमने मन को बिलकुल हटाकर न रखा हो, तुम वह तो कहते हैं सिर्फ जागकर देख लो; जो ठीक है, वही तुम्हारा कुछ का कुछ सुनोगे ही। मार्ग हो जाएगा, जो गलत है, उस पर कभी कोई गया ही नहीं। इसलिए ध्यान श्रवण के लिए मार्ग बनाता है। ध्यान का अर्थ जानकर कभी कोई ने दीवाल से निकलने की कोशिश की है? है, मन की सफाई। ध्यान का अर्थ है, अ-मन की तरफ यात्रा। द्वार दिख गया, फिर लोग द्वार से निकलते हैं, कौन सिर तोड़ता है |-ध्यान का अर्थ है, थोड़ी घड़ियों को मन की धूल से चित्त के दर्पण दीवाल से! को बिलकुल साफ कर लेना। महावीर के पास लोग आते, तो फिर जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना।' फिर तुम्हें जो महावीर कहते-कुछ देर ध्यान, फिर सुनना। श्रेयस्कर लगे, इतने बलपूर्वक महावीर कहते हैं कि फिर जो इसलिए मैं इतना जोर देता हं ध्यान पर। तम मझे सीधा-सीधा श्रेयस्कर हो, क्योंकि वह जानते हैं कि सत्य श्रेयस्कर है। पहचान न सुन सकोगे। कई बुद्धिमान आ जाते हैं, वह कहते हैं ध्यान भर की कमी है। ज्ञान भर की कमी है। वगैरह से हमें कुछ मतलब नहीं, हमें तो आपको सुनने में मजा अक्सर लोग मेरे पास आते हैं, वह कहते हैं हमें पता है कि आता है। मर्जी आपकी! लेकिन यह मजा कहीं ले जानेवाला | ठीक क्या है, लेकिन क्या करें गलत हो जाता है। पता संदिग्ध नहीं। यह बुद्धि की खुजलाहट है। खुजलाने से थोड़ा अच्छा है। कहते हैं हमें मालूम है कि क्रोध बुरा है, लेकिन हो जाता है। लगता है, मीठा-मीठा लगता है। जल्दी ही लहूलुहान हो कहते हैं, बहुत बार कसम भी खायी, व्रत भी लिया, फिर भी हो जाएंगे। नहीं, इससे कछ सनने से सार न होगा। क्योंकि सच तो जाता है। तो इसका अर्थ इतना ही है कि अभी जाना नहीं कि यह है, सुन तुम पाओगे ही न बिना ध्यान के। ध्यान तुम्हें तैयार क्रोध बुरा है। अभी क्रोध की आग अनुभव नहीं बनी। अभी करेगा कि तुम सुन सको। क्रोध का जहर खुद के कंठ को जलाया नहीं। किसी और ने कहा 2010_03 www.jainelibrar org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 जिन सूत्र भाग: 2 होगा, सुना होगा, शास्त्र में पढ़ा होगा, लेकिन अभी तुम्हारे जीवन का अनुभव नहीं बना। शास्त्र से उधार लिया होगा। सभी शास्त्र कहते हैं क्रोध बुरा है। सुनते-सुनते तुम भी मानने लगे हो कि क्रोध बुरा है। लेकिन, तुम्हारे प्राणों ने अभी इसकी गवाही नहीं दी। और जब तक तुम गवाही न बनो, तब तक जीवन में कोई क्रांति नहीं होती। उधार ज्ञान से क्रांति नहीं होती। ज्ञान तुम्हारा होना चाहिए। दूसरे जाग गये इससे कुछ न होगा, जाग तुम्हारी होनी चाहिए। सुन लो उन्हें, उनकी पुकार से जागो, लेकिन जैसे ही आंख खुलेगी तत्क्षण तुम देख लोगे कि सपना सपना है, सत्य सत्य है। फिर कोई सपने को थोड़े ही चुनता है! 'जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिए।' महावीर ने कहा है, मैं कोई आदेश नहीं देता, मैं जो कहता हूं वह सिर्फ उपदेश है, आदेश नहीं। क्योंकि मैं कौन हूं, जो तुमसे कहूं ऐसा करो। ऐसा करना कहते ही हिंसा हो जाएगी। मैं तुम्हें दबाने लगा। मैं तुम्हें ढालने लगा। महावीर कहते हैं, तुम परम स्वातंत्र्य हो। तुम्हारी स्वतंत्रता से ही तुम्हारा अनुशासन निकले। और तुम्हारे अनुभव से ही तुम्हारा आचरण बने । तो ही सार्थक है। अन्यथा जन्मों-जन्मों तक धोखा चलता रहता है। जैसे ही समझ की जरा सी झलक आती है कोई दम में हयाते - नौ का फिर परचम उठाता हूं बईमां-ए-हमीयत जान की बाजी लगाता हूं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज से आखिर जैसे ही समझ आनी शुरू होती है, यात्रा बदली। मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना ही है इक दिन तेरी बमे-नाज़ से आखिर । एक दिन जाना ही है, तो रुकने का अर्थ क्या? मौत आनी ही है, तो जीवन को पकड़ने का सार क्या? जिस जीवन में मौत घटनी ही है, वह जीवन मौत की ही तैयारी है। जिस जीवन में मौत आती ही है, वह जीवन मरा हुआ है, वह वास्तविक जीवन नहीं। जो मुझसे छीन ही लिया जाना है, उसे रोकने की चेष्टा करने से सार क्या है? जो मुझसे छिन ही जाएगा, उस साम्राज्य को बनाने का पागलपन बस पागलपन ही है। मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना एक दिन तेरी बज्मे-नाज़ से आखिर । जैसे ही बोध जगना शुरू होता है, जीवन में क्रांति आनी शुरू होती है। है 2010_03 संन्यास बोध की छाया है। संन्यास समझ की प्रगाढ़ता है। संन्यास सम्यक - बोध, केवल सम्यक - बोध है। शुद्ध, सार बोध है। चेष्टा नहीं है। अगर तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम जबर्दस्ती करोगे। तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम खंड-खंड हो जाओगे। तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम दो टुकड़ों में टूट जाओगे। एक टुकड़ा जिस पर तुम जबर्दस्ती कर रहे हो और एक टुकड़ा जो जबर्दस्ती कर रहा है। तुम्हारे भीतर बड़ी आत्म-हिंसा शुरू हो जाएगी। दूसरा सूत्र - ' और फिर ज्ञान के आदेश द्वारा सम्यक दर्शन - मूलक तप, नियम, संयम में स्थित होकर कर्म-मल से विशुद्ध जीवनपर्यंत निष्कंप (स्थिर चित्त) होकर विहार करता है।' और जिसने जान लिया सत्य क्या है, उसके जीवन में एक नयी ही ऊर्जा का आविर्भाव होता है। निष्कंप हो जाता है चित्त । चित्त कंपता तभी तक है, जब तक हमें सत्य और असत्य का बोध नहीं। तब तक डावांडोल होता है, यह करूं या वह करूं? यहां जाऊं, या वहां जाऊं ? मंदिर कि वेश्यालय ? ऐसा डोलता है । धन कि ध्यान ? ऐसा डोलता है । शरीर कि आत्मा ? ऐसा डोलता है। जब तक तुम्हारे भीतर सत्य और असत्य की ठीक-ठीक प्रतीति नहीं है तब तक तुम्हें असत्य में सत्य की भ्रांति होती रहती है। सत्य में असत्य की भ्रांति होती रहती है। मन डावांडोल रहता है। इस डावांडोल चित्त के कारण ही तो बेचैनी है, अशांति है। महावीर कहते हैं णाणाऽऽणत्ती पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्चा । विहरइ विसुज्झमाणी, जावज्जीवं पि निवकंपो ।। जिसने सत्य की प्रतीति की, वह निष्कंप हो जाता है। जिसको कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है । ठहर जाती है उसकी प्रज्ञा । ऐसी ठहर जाती है, जैसे बंद घर में दिया जलता हो, जहां हवा का कोई झोंका न आता हो। निष्कंप हो जाती है वह लौ । ऐसी भीतर चेतना की लौ निष्कंप हो जाती है। कुछ चुनने को न रहा - चुनाव हो गया, सत्य को जानते ही चुनाव हो गया। को जानते ही निर्णय हो गया। जीवन की दिशा उपलब्ध हो गयी; अर्थ, अभिप्राय आ गया। अब कुछ चुनाव नहीं करना है। अब व्यक्ति सत्य की तरफ ऐसे ही बहने लगता है जैसे नदियां सागर की तरफ बह रही हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण हम साधारणतः नदी के विपरीत तैरने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि बिना जले तुम चेतोगे नहीं। उस आग को बुझाओ मत, हमारी कोशिश असंभव को संभव बनाने की है। हम स्वभाव के पानी मत फेंको-व्रत और नियम, कसमें, इनका पानी फेंककर प्रतिकूल चेष्टा में रत हैं। हम इस जीवन को, जो केवल अंगारों को बुझाओ मत—आग को जलने दो, आग को क्षणभंगुर है, शाश्वत बनाने की आयोजना कर रहे हैं। हम प्रज्वलित होने दो, आग को पूरी तरह जलने दो, ताकि तुम्हें दग्ध मिट्टी-पत्थर को हीरे-जवाहरातों की तरह छाती से लगाने की कर जाए, ताकि तुम्हें अनुभव हो जाए कि क्रोध कैसी अग्नि है! कोशिश कर रहे हैं। हम हड्डी-मांस-मज्जा की देह को अपना वही अनुभव तुम्हें क्रोध की तरफ जाने से रोक लेगा। फिर जीवन शाश्वत घर समझने की, समझाने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी में एक नियम आता है। वह नियम कसम से आया नियम नहीं चेष्टा है कि किसी तरह दो और दो चार न हों, पांच हो जाएं। हो | है। वह नियम बोध से आया नियम है। नहीं सकता। संसार में असफलता मिलती है, क्योंकि सांसारिक | 'और संयम में स्थित होकर विशुद्ध साधक जीवनपर्यंत मन की चेष्टा असंभव को पूरा करने की चेष्टा है। | निष्कंप, स्थिर-चित्त होकर विहार करता है।' जिस व्यक्ति को सत्य और असत्य दिखायी पड़ने शुरू हो महावीर और बुद्ध के कारण भारत के वे भूमिखंड जहां वे गये, शुद्ध निर्मल प्रतीति होनी शुरू हुई, उसके जीवन में तप, | जीए, 'विहार' कहलाने लगा। लेकिन विहार शब्द को नियम, संयम अपने-आप उतर आते हैं। इन्हें लाना नहीं पड़ता। | समझना। विहार का मतलब है-विहार बड़े सुख की, महासुख इन्हें खींच-खींचकर आयोजना नहीं करनी पड़ती। एक बात सूत्र की दशा है—जब चित्त बिलकुल स्थिर हो जाता है, जब कोई की तरह याद रखना, जिसे खींच-खींचकर लाना पड़ता हो, वह चीज डांवाडोल नहीं करती, कोई विकल्प मन में नहीं रह जाते आएगा नहीं। इस जगत में जबर्दस्ती कुछ घटता ही नहीं। सत्य | | और चित्त निर्विकल्प होता है; जब तुम्हारी दिशा सत्य की तरफ सहज है। इसलिए जब तक साधना सहज न हो, तब तक तुम सीधी और साफ हो जाती है, जब तुम रोज-रोज रास्ते नहीं व्यर्थ ही कष्ट अपने को दे रहे हो। बदलते, जब तुम्हारा प्रवाह संयत हो जाता है, तब तुम्हारे जीवन न मालूम कितने लोग अकारण खुद को पीड़ा देने में लगे रहते में एक महासुख का आविर्भाव होता है, वैसे महासुखी का हैं। कोई उपवास कर रहा है, कोई धूप में खड़ा है, कोई रात सोता | जहां-जहां विचरण होता है, वह भूमिखंड भी सुख से भर जाता नहीं, कोई दिन-रात खड़ा रहता है—वर्षों से खड़ा है, कोई कांटों है; वह भूमिखंड भी, हवा के कण भी, वृक्ष-पहाड़-पर्वत भी, पर लेटा है, ये सारे के सारे लोग रुग्ण लोग हैं। यह तप नहीं है। नदी-नाले भी उसकी आंतरिक-आभा को झलकाने लगते हैं। यह तो एक तरह की आत्महिंसा है। ये लोग 'मेसोचिस्ट' हैं। कथाएं हैं बड़ी प्यारी कि महावीर जहां से निकल जाते, इन्हें स्वयं को दुख देने में रस आ रहा है। कुछ लोग होते हैं, कुम्हलाये वृक्ष हरे हो जाते। महावीर जहां से निकल जाते, जिनको स्वयं के घाव में अंगलियां डालकर दख और पीड़ा पैदा असमय में वक्षों में फल लग जाते। ऐसा हआ होगा, ऐसा मैं | करने में रस आता है। ये बीमार-चित्त लोग हैं। ये तपस्वी नहीं | नहीं कहता हूं। ऐसा होना चाहिए, ऐसा जरूर कहता हूं। हैं। यह तप क्रोध से भरा है। यह तप हिंसा से डूबा हुआ है। ऐसे | जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, उन्होंने बड़े गहरे काव्य को तप से कोई कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हआ। तप से कोई सत्य अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने जीवन के सत्य को बड़ी गहरी भाषा को उपलब्ध होता ही नहीं; सत्य की उपलब्धि से तप उपलब्ध | दी है। मानता नहीं कि वृक्षों ने ऐसा किया होगा—आदमी नहीं होता है। करते, वृक्षों की तो बात क्या; आदमी नहीं खिलते, तो वृक्षों की तप, संयम, नियम तुम्हारी सहजता से आने चाहिए। तुम्हारे तो बात क्या है लेकिन ऐसा होना चाहिए। लेकिन अगर वृक्षों अनुभव से आने चाहिए। तो मैं तुमसे कहूंगा, अगर क्रोध हो तो में फूल न खिले हों तो जिन्होंने कहानी लिखी उनका कोई दोष कसम मत खाना कि क्रोध न करेंगे। अगर क्रोध होता हो, तो नहीं, वृक्षों की भूल रही होगी। वे चूक गये। इसमें कवि क्या क्रोध को ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना क्या है। क्रोध करे। कवि ने तो बात ठीक-ठीक कह दी, ऐसा होना चाहिए को बोधपूर्वक करना। क्रोध में उतरना। उस आग को जलाने दो, था। नहीं हुआ, वृक्ष नासमझ रहे होंगे। अगर असमय फूल न 13 2010_03 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 जिन सूत्र भाग: 2 खिले, तो चूक फूलों की है; उसमें महावीर क्या करें ? महावीर ने स्थिति तो पैदा कर दी थी । वृक्षों में थोड़ी भी समझ होती तो फूल खिलने चाहिए थे। वातावरण मौजूद था — और मौसम क्या चाहिए, महावीर मौजूद थे ! अब किसकी और प्रतीक्षा थी? और किस वसंत की अब अभीप्सा है ? वसंत मौजूद था इससे बड़ा वसंत कभी पृथ्वी पर आया है? खिले हों तो ठीक, न खिले हों, फूलों की गलती; महावीर का कोई कसूर नहीं है। । तुम से भी बहुत महावीर के पास से गुजरे होंगे, क्योंकि नया तो यहां कोई भी नहीं है। सभी बड़े पुराने यात्री हैं। जराजीर्ण! सदियों-सदियों चले हैं। तुममें से भी कुछ जरूर महावीर के पास गुजरे होंगे। नहीं महावीर, तो मुहम्मद के पास गुजरे होंगे। नहीं मुहम्मद, तो कृष्ण 'के पास गुजरे होंगे। ऐसा तो असंभव है इस विराऽऽऽट और अनंत की यात्रा में तुम्हें कभी कोई महावीर - जैसा पुरुष न मिला हो। अगर तुम्हारे फूल न खिले, तो कसूर तुम्हारा है। मौसम तो आया था, द्वार पर खड़ा था, वसंत ने तो दस्तक दी थी, तुम सोये पड़े रहे। तालमेल बैठ जाए, फूल खिल जाते हैं। मेरे पास कुछ लोग आते हैं, वे कहते हैं हमें भरोसा नहीं आता कि दूसरे लोग आपके पास आकर इतने आनंदित क्यों हैं! जिसका तालमेल बैठ जाता है, उसके फूल खिल जाते हैं। जिसका तालमेल नहीं बैठता, वह तर्क की उधेड़बुन में ही लगा रह जाता है। वह सोच-विचार में लगा रहता है, क्या ठीक, क्या गलत ? उसका तर्क वसंत से मेल नहीं खाने देता। ऋतु आ | जाती है, वृक्ष उदास ही खड़ा रहता है, वह सोचता ही रहता है यह वसंत है या नहीं? और आए वसंत को जाने में देर कितनी लगती है ! वसंत आ गया। वसंत आ गया ! इतनी देर चूके तर्क में, संदेह में कि जो था, नहीं हो जाता है। 'जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होकर अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है । ' । वेद कहते हैं— 'रसो वै सः । ' वह परमात्मा रसरूप है महावीर की भाषा में परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं, लेकिन रस से थोड़े ही बच सकोगे? परमात्मा छोड़ दो, रस को थोड़े ही छोड़ सकोगे? वेद कहते हैं परमात्मा रसरूप है, महावीर कहते हैं रसरूप हो जाना परमात्मरूप हो जाना है। यह सिर्फ भाषा का फर्क है। 2010_03 'जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से।' नारद भी अब और क्या करेंगे ! यह भाषा का ही थोड़ा-सा भेद है। महावीर कहते हैं, जैसे- जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से, ऐसे र की वर्षा होती है। स्थिरचित्त होते ही द्वार खुल जाता है। बाढ़ आ जाती है । कूल - किनारे तोड़कर बहती है चेतना की धारा । 'अतिशय रस के अतिरेक से।' अतिरेक हो जाता है। अतिशयोक्ति हो जाती है। तुम्हारा पात्र संभाल नहीं पाता। बहने लगता है । देना ही पड़ता है, बांटना ही पड़ता है। किसी को साझेदार बनाना ही पड़ता है। जब तक नहीं मिला तब तक अकेले रह जाओ, मिलते ही ढूंढ़ना पड़ेगा किसी को, किसी सुपात्र को जो लेने को तैयार हो । महावीर बारह वर्ष तक मौन खड़े रहे, जंगलों में, पर्वतों में, पहाड़ों में | जब अतिशय रस का अति हुआ, भागे आए । भाग गये थे जिस बस्ती से, उसी में वापिस लौट आए; ढूंढ़ने लगे लोगों को, पुकारने लगे, बांटने लगे। अब घटा था अब इसे रखना कैसे संभव है! जैसे एक घड़ी आती है, नौ महीने के बाद, मां का गर्भ परिपक्व हो जाता है। फिर तो बच्चा पैदा होगा। फिर तो उसे नहीं गर्भ में रखा जा सकता। अब तक संभाला, अब तो नहीं संभाला जा सकता। उसे बांटना होगा। शास्त्रों ने बहुत कुछ बात बहुत तरह से महावीर, बुद्ध और ऐसे पुरुषों का संसार का त्याग करके पहाड़ों और वनों में चले जाना, इसकी कथा कही है। लेकिन वह कथा अधूरी है। दूसरा हिस्सा, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, उन्होंने छोड़ ही दिया। दूसरा हिस्सा जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, वह है उनका वापिस लौट आना लोक-मानस के बीच। एक दिन जरूर वे जंगल चले गये थे। तब उनके पास कुछ भी न था । जब गये थे तब खाली थे। खाली थे, इसीलिए गये थे, ताकि भर सकें। इस भीड़-भाड़ में, इस उपद्रव में, इस विषाद में, इस कलह में शायद परमात्मा से मिलना न हो सके। तो गये थे एकांत में, गये थे मौन में, शांति में, ताकि चित्त थिर हो जाए, पात्रता निर्मित हो जाए। लेकिन भरते ही भागे वापिस । वह दूसरा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरे हिस्से में ही वह असली में महावीर हुए हैं। पहले हिस्से में वर्द्धमान की तरह गये थे। जब लौटे तो महावीर की तरह लौटे। जब बुद्ध गये थे तो गौतम सिद्धार्थ की तरह गये थे । जब आए तो बुद्ध की तरह Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य के द्वार की कुंजी: सम्यक-श्रवण आए। यह कोई और ही आया। यह कुछ नया ही आया। रूखे-सूखेपन को उन्होंने साधना समझ लिया है। उनसे तो नि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त अपूर्वश्रत संसारी भी कभी ज्यादा आनंदित दिखायी पड़ता है। यह तो का अवगाहन करता है...।' और जिसे कभी नहीं सुना उसे इलाज बीमारी से महंगा पड़ गया। यह तो औषधि रोग से भी सुनता है। सत्य ऐसा है जिसे कभी नहीं सुना, जिसे कभी नहीं भयंकर सिद्ध हुई। देखा। ऐसा अनजान, ऐसा अपरिचित, ऐसा अज्ञेय है। संसारी भी कभी हंसता मिलता है, तुमने जैन-मुनियों को हंसते 'उस अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है...।' जब चित्त थिर देखा? न हंस सकेंगे। हंसना उन्हें कठिन हो जाएगा। हंसना होता है, तो शांति भी बोलने लगती है। तो मौन भी मुखर हो | उन्हें सांसारिक मालूम पड़ेगा। तुमने उन्हें आह्लादित देखा? जाता है। जब भीतर सब शून्य होता है, तो बाहर से शून्य भी तुमने उन्हें देखा किसी गहन संगीत से भरे हुए? तुमने उन्हें तरंगित होकर भीतर प्रवेश करने लगता है। जब तुम ध्यान की | बांसुरी बजाते, वीणा बजाते देखा? तुमने उन्हें नाचते देखा? आखिरी अवस्था में आते हो, तो अस्तित्व तुमसे बोलता है। नहीं, असंभव है। कहीं कुछ भूल हो गयी। और भूल वहां हो परमात्मा तुमसे बोलता है। ध्यान की परम अवस्था में परमात्मा गयी–प्रथम चरण पर उन्होंने प्रतिज्ञा लेकर संन्यास लिया। की तरफ से, अस्तित्व की तरफ से तुम्हारी तरफ संदेश आने सत्य को जानकर नहीं, शास्त्र को मानकर संन्यास लिया। शुरू हो जाते हैं। अनुभव से नहीं, विश्वास से संन्यास लिया। व्रत, अनुशासन इसको खयाल में लेना। थोपा। अपने ऊपर बलात्कार किया। उसी में सूख गये, खराब प्रार्थना में भक्त भगवान को पातियां भेजता है। ध्यान में, हो गये। भगवान भक्त को। प्रार्थना में भक्त भगवान से बोलता है, जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होता है, कहता है कुछ; ध्यान में भगवान साधक से बोलता है, कहता है अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन कुछ। महावीर का मार्ग ध्यान का मार्ग है। वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है।' 'जह जह सुयभोगाहइ।' और जैसे-जैसे उस परम सुख में न, अब यहां एक बात खयाल ले लेने जैसी है। तुमने रागयुक्त डूबना होता है, जैसे-जैसे उस अतिशय रस में उतरना होता लोगों को तो प्रसन्न देखा। इससे तुम यह भूल मत कर लेना कि है...'अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं।' और जैसे-जैसे अपूर्वश्रुत वैराग्ययुक्त लोग तो कैसे प्रसन्न हो सकते हैं! वैराग्य की अपनी का अवगाहन होता है। जैसे-जैसे सुनायी पड़ता है शून्य का प्रसन्नता है। और राग की प्रसन्नता से बड़ी ऊंची और बड़ी स्वर, जिसको झेन फकीर कहते हैं 'साउंडलेस साउंड'- शून्य गहरी। राग की भी कोई प्रसन्नता हो सकती है! सिर्फ मन को का स्वर, एक हाथ की ताली, कोई बोलता नहीं है, कोई समझा लेना है। वैराग्य का भी आनंद है। तुमने क्या किया? बोलनेवाला नहीं है, अस्तित्व ही संदेश देता है। जब परमात्मा | राग से भरा हुआ आदमी थोड़ा प्रफुल्लित दिखायी पड़ता है, तो चारों तरफ से तरंगायित होने लगता है-अपूर्वश्रुत का तुमने उससे विपरीत वैराग्य की प्रतिमा बना ली। क्योंकि रागी अवगाहन–'वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से हंसता है, रागी गीत गाता है, तो वैरागी हंस नहीं सकता, गीत आह्लादित होता है। | नहीं गा सकता। तुम्हारा वैरागी राग का ही शीर्षासन है। उल्टा इसे लक्षण समझना साधु का। इसे लक्षण समझना संन्यासी खड़ा कर दिया वैरागी को। लेकिन वास्तविक वैराग्य परम राग का। अगर आह्लाद न हो, तो समझ लेना कि कहीं भूल हो गयी। है। वास्तविक वैराग्य का तो कैसे रागी मुकाबला करेंगे! उस अगर नाचता न मिले संन्यासी, तो समझ लेना कहीं भल हो नृत्य को तो कैसे रागी पहुंच सकते हैं। उस आह्लाद को तो, गयी। अब जाओ जैन-आश्रमों में, जैन-मंदिरों में, | कमल के उन फूलों को तो तभी कोई छू सकता है जब चित्त सब जैन-पूजागृहों में, जैन-मुनियों को देखो, इस सूत्र का कहीं भी भांति निर्मल हुआ हो। वैसी मुस्कुराहट तो केवल परम शांत तुम्हें कोई लक्षण मिलेगा? रूखे-सूखे, मरुस्थल-जैसे, जहां | चित्त से ही उठ सकती है। कभी कोई हरियाली नहीं। कहीं कुछ भूल-चूक हो गयी। हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर 15 2010_03 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 जिन सूत्र भाग: 2 मेरे लब पे लबे लालीने निगार आ ही गया तृष्णा स्वर्ग की अमृत-नदी से कृतज्ञ हो गयी, प्रिय के ओंठ मेरे ओंठों पर आ गये हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर मेरे लब पे लबे लालीने निगार आ ही गया वह तो ऐसा है जैसे परमात्मा ने आलिंगन किया। परम वैराग्य का आह्लाद तो ऐसे है जैसे परमात्मा के ओंठ तुम्हारे ओंठ पर आ गये। रागी तो असंभव चेष्टा में लगा है। रागी तो ऐसी चेष्टा में लगा है, जैसे कोई रेत से तेल निचोड़ रहा हो। रागी तो ऐसी चेष्टा में लगा है कि नीम के पौधों को सींच रहा हो और आम की आशा कर रहा हो । आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाहा बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी रागी तो आग को फुलवाड़ी बनाने में लगा है। अंगारों को फूल बनाने में लगा आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाह जल बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी कभी आग फुलवाड़ी बनी है? कभी अंगारे फूल बने ? साधारण आदमियों से लेकर सिकंदरों तक चेष्टा करते हैं और हार जाते हैं। पराजय संसार का निचोड़ है। इसीलिए तो हमने महावीर को जिन कहा। जिन अर्थात जिसने जीत लिया। जिन अर्थात जिसने पा लिया। जिन अर्थात जो वस्तुतः सफल हुआ। | सफल ही नहीं सुफल भी हुआ। जिसके जीवन में फल लगे। 'जैसे-जैसे अश्रुतपूर्व का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन... ।' और वैराग्य भी नितनूतन फूल खिलाता है। तुम यह मत सोचना कि वैराग्य एक बंधी-बंधायी रूढ़ि है। तुम यह मत सोचना कि विरागी बस उसी उसी ढांचे में बंधा हुआ रोज जीता है। वस्तुतः रागी जीता है ढांचे में, वैरागी तो प्रतिपल नये, और नये में प्रवेश करता है । विरागी का न तो कोई अतीत है - वह अतीत को नहीं ढोता - और न उसकी कोई अतीत को पुनरुक्त करने की आकांक्षा है। इसलिए कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता । वैरागी की सुबह हर रोज नयी है। वैरागी की सांझ हर सांझ नयी है। वैरागी का हर चांद नया है, हर सूरज नया है । वह धूल को संभालता ही नहीं, इसलिए प्रतिपल ताजा है, निर्मल है। कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम 2010_03 मुतरिबे - फर्दा हूं 'सागर' माजी के अजादारों में नहीं है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम - जो टूट चुके साज, अतीत जो बीत चुका, उसे तो मैं पाप समझता हूं। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है। जो जा चुका, जा चुका। है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम मुतरिबे - फर्दा हूं सागर- मैं भविष्य का गायक हूं। माजी के अजादारों में नहीं— मैं अतीत के लिए रोनेवालों में नहीं । विरागी, वीतरागी, स्वयं में थिर हुआ संन्यासी कोई धूल लेकर नहीं चलता। वह कोई संग्रह लेकर नहीं चलता। जो बीत गया, बीत गया। जो बीत रहा है, बीत रहा है। वह सदा नया है । सुबह की ओस की भांति ताजा । सदा स्वच्छ है । क्योंकि मन का संग्रह ही अस्वच्छ करता है, अपवित्र करता है, बासा करता है। तुमने कभी खयाल किया, जो तुम अनुभव कर चुके बार-बार, बासे हो जाते हैं। छोटे बच्चे को देखा, तितलियों के पीछे भागते ! तुम नहीं भाग सकोगे। क्योंकि तुम कहते हो तितलियां हैं, देख लीं बहुत | छोटे बच्चे को देखा, छोटी-छोटी चीजों से चमत्कृत होते हैं! छोटी-छोटी चीजें उसे आश्चर्य से भर हैं। घास का फूल, और छोटे बच्चे को ऐसा आंदोलित कर देता है, ऐसा रस-विभोर कर देता है कि वह खड़ा है और देख रहा है, आंखों पर उसे भरोसा नहीं आता कि ऐसा चमत्कार हो सकता है! छोटे बच्चे को देखा, सागर के किनारे कंकड़-पत्थर- सीपी बीन लेता है, ऐसे जैसे कि हीरे-जवाहरात हों, कोहिनूर हों ! क्या मामला है? इस छोटे बच्चे के पास ताजा मन है। इसके पास कुछ अतीत का संस्मरण नहीं है । इसलिए ये यह नहीं कह सकता कि यह पुराना है। इसके पास तौलने का कोई उपाय ही नहीं है कि कह सके पुराना है। वैराग्य नया जन्म है। फिर से छोटे बच्चे की भांति हो जाना है। जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। हिंदू कहते हैं द्विज होना होगा, दुबारा जन्म लेना होगा। एक जन्म तो मां-बाप से मिलता है। वह जन्म शरीर का है। एक जन्म तुम्हें स्वयं ही अपने को देना होगा । वह आत्मसृजन है। वही आत्मसाधना । तब फिर व्यक्ति सदा ताजा रहता है। रोज-रोज आह्लाद से भरा हुआ। ऐसी कथा है, रामकृष्ण को छोटी-छोटी चीजों में रस था । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A सत्य के द्वार की कंजी : सम्यक-श्रवण । | कभी-कभी उनके भक्त भी उनको रोकते थे कि परमहंसदेव, सोचते हैं कि श्रद्धा कोई हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई हो जाना है। अच्छा नहीं मालूम होता, लोग क्या कहेंगे? उनकी पत्नी भी श्रद्धा में इतने नूतन फूल लगते हैं कि वह जैन ढांचे में समा न उन्हें समझाती कि ऐसा आप न करें। ब्रह्मज्ञान की चर्चा चल रही सकेगी। न बौद्ध ढांचे में समा सकेगी। न हिंद, न मुसलमान के हो, बीच में उठकर वे चौके में पहुंच जाते-क्या बना है आज? ढांचे में समा सकेगी। श्रद्धा को कौन समा पाया? यह बड़ा अब यह बात जमती नहीं। दूसरों तक को संकोच होता। शिष्यों आकाश भी श्रद्धा के आकाश से छोटा है। श्रद्धा को कौन कब को लगता कि लोग क्या कहेंगे? फिर आकर ब्रह्म-चर्चा शुरू बांध पाया? कौन लकीरों में बांध पाया? श्रद्धा की कौन कब कर देते। लेकिन बड़ी सरलता की खबर मिलती है। जैसे परिभाषा कर पाया? उपनिषदों के वचन 'अन्नं ब्रह्म' पर टीका कर रहे हों-जीवन और महावीर को समझते समय यह खयाल रखना, और धर्मों से। ब्रह्म की चर्चा और अन्न की चर्चा में कुछ भेद नहीं। बीच में ने कहा है, परमात्मा पर श्रद्धा करो, श्रद्धा के बिना तुम परमात्मा उठकर पूछ आए तो हर्ज क्या! छोटे बच्चे-जैसी सरलता। पर न पहुंच सकोगे; महावीर ने कहा, परमात्मा की तो फिकिर छोटा बच्चा बार-बार पहुंच जाता है चौके के पास, पकड़ लेता है | छोड़ो-हो, न हो-श्रद्धा करो, क्योंकि श्रद्धा ही परमात्मा है। मां का आंचल, क्या बन रहा है? ओरी ने कहा है परमात्मा पर श्रद्धा करो, महावीर ने कहा श्रद्धा सरल-चित्त हो जाता है विरागी। ऐसा सरल कि रीति-नियम, पर श्रद्धा करो। नवनवसेवेगसद्धाओ। व्यवस्था, अनुशासन, सब व्यर्थ हो जाते हैं। आंतरिक सहजता | मेरी मस्ती में अब होश ही का तौर है साकी से जीता है। तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी न अहदे-माजी की यह रवायत मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी—अब मेरी मस्ती न आज और कल की यह हिकायत में भी होश का ही रंग-ढंग है। अब यह बेहोशी भी बेहोशी नहीं हयात है हर कदम पे 'सागर' है, अब इसमें होश का ही दीया जलता है। अब यह मस्ती कोई नयी हकीकत नया फसाना पागलपन नहीं है, यह मस्ती ही परम बुद्धिमत्ता, प्रज्ञा, प्रतिभा है। जीवन उसके लिए प्रतिपल नया है। नयी हकीकत नया | मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी फसाना। वीतरागी तो गायक है जीवन के नये स्वर का, संगीतज्ञ तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी है जीवन की वीणा का, नर्तक है जीवन के महानृत्य का। और और तेरे सागर में शराब नहीं, अंगूरी शराब नहीं। प्रतिपल उमंग है, और प्रतिपल नया है। कुछ और है साकी...। ,'तह तह पल्हाइ मुणी।' बड़ा प्यारा वचन है। महावीर कहते जब तुम्हारा ध्यान नयी-नयी सीढ़ियां और सोपान पार करता हैं--'जह जह सुयभोगाहइ'—जैसे-जैसे वह महासुख भरने है, तो तुम एक दिन पाते हो कि परमात्मा ने अपनी सुराही से लगता है, रस बरसता है, 'तह तह पल्हाइ मुणी'-और उंडेला कुछ तुममें। पल्लवित होता मुनि, आह्लादित होता; उमंग उठती है, उल्लास तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी उठता है, भीतर नृत्य-गान उठता है। जैसे आषाढ़ में जब बादल और यह शराब कुछ ऐसी है, यह मस्ती कुछ ऐसी है कि घिर जाते हैं और मोर नाचते हैं, ऐसे ही आंतरिक-जीवन में जब जगाती है, सुलाती नहीं। उठाती है, गिराती नहीं। संभालती है, प्रकाश के बादल चारों ओर घिरने लगते हैं-आषाढ़ के प्रथम डगमगाती नहीं। होश लाती है, बेहोशी काटती है। 'तह तह दिवस आते हैं तो मन का मोर नाचता है। जह जह | पल्हाइ मुणी'। और जैसे-जैसे यह अंगूरी शराब, यह अमृत सुयभोगाहइ, तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ। और भीतर उतरना शुरू होता है, मुनि पल्लवित होता, प्रफुल्लित प्रतिपल नये-नये पल्लव खिलते, नये-नये फूल, नयी-नयी | होता, आह्लादित होता। 'नवनवसेवेगसद्धाओ'। श्रद्धा। नितनूतन! _ 'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं...।' लोग समझते हैं श्रद्धा कोई बंधा-बंधाया ढांचा है। लोग बड़ा प्यारा सूत्र है...'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी 2010_03 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 खोती नहीं, वैसे ही ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता।' जहां धागे के साथ है-ससुत्ता-सूत्र के साथ है, 'न नस्सइ सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि। कयवरम्मि पडिआ वि', गिर भी जाए तो खोती नहीं। 'जीवो वि जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।। | तह ससुत्तो'–और जो जीव भी सूत्र के साथ जुड़ा है, 'न सुई गिर जाए बिना धागा पिरोयी, तो खोजना बड़ा मुश्किल हो नस्सइ गओ वि संसारे'-वह संसार में कभी नष्ट नहीं होता। जाता है। ऐसे ही हमारा जीवन धागा पिरोया नहीं अभी। ध्यान मौत आए, हजार बार आए, ससूत्र जीव को जीवन ही लाती है। का धागा अनुस्यूत नहीं किया अभी। अभी हमारा जीवन एक मृत्यु भी उसे मारती नहीं। ससत्र जीव को जहर भी अमत हो बिखरी राशि है। जैसे फूल किसी ने लगा दिये ढेर में। अभी | जाता है। इसमें शास्त्रयुक्तज्ञान का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। हमारा जीवन एक माला नहीं बना कि फूलों को कोई पिरो दे एक लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद करते हैं—'जैसे धागा धागे में। जब जीवन माला बनता है, तो ही जीवन में अर्थवत्ता | पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही शास्त्रज्ञानयुक्त आती है। ढेर की तरह हम क्षण-क्षण जीते हैं, लेकिन हमारे सारे जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।' अब उन्होंने कुछ अपने क्षणों को जोड़नेवाला कोई अनुस्यूत धागा नहीं है। हमने अनंत | हिसाब से डाल लिया! शास्त्रज्ञान की तरफ इशारा नहीं है, जन्म जीए हैं, लेकिन सब ढेर की तरह लगा है, उसके भीतर कोई अन्यथा महावीर खुद ही कह देते; मुनियों के लिए न छोड़ते। , शृंखला नहीं है। शृंखला न होने से हमारी सरिता सागर तक नहीं | ससूत्रता। एक क्रमबद्धता, एक शृंखला बने जीवन, ऐसा पहुंच पाती। बिखरा-बिखरा न हो। तुम अपने जीवन को देखो, एक पैर बायें तुम ही हो वह जिसकी खातिर जा रहा है, दूसरा पैर दायें जा रहा है। आधा मन मंदिर जा रहा है, निशिदिन घूम रही यह तकली आधा वेश्यालय में बैठा है। दुकान पर बैठे हैं, राम-राम जप रहे तुम ही यदि न मिले तो है सब हैं; जब राम-राम जप रहे हैं, दुकान भीतर चल रही है। ऐसे व्यर्थ कताई असली-नकली सूत्रहीन नहीं काम चलेगा। जीवन में एक दिशा हो, एक गंतव्य अब तो और न देर लगाओ, हो, एक खोज, एक अन्वेषण हो। और जीवन में एक शंखला चाहे किसी रूप में आओ, हो, अन्यथा शक्ति कम है, खोजना बहुत है; समय कम है, एक सूत भर की दूरी है खोजना बहुत है; ऐसे तुम भटकते रहे कभी बायें, कभी दायें; बस दामन में और कफन में कभी यहां, कभी वहां, तो सब खो जाएगा। ध्यान का सत्र, और जीवन महाजीवन बन जाता है। और मृत्यु यह अवसर खो मत देना। यह अवसर मश्किल से मिलता समाधि बन जाती है। ध्यान का सूत्र, और पदार्थ में परमात्मा है। महावीर ने बार-बार कहा है, मनुष्य होना मुश्किल से घटता झलकने लगता है। ध्यान का सूत्र, और जीवन का क्षुद्र से क्षुद्र है। इसे ऐसे मत गंवा देना। एक सूत्रबद्धता लाओ जीवन में। अंग भी विराट से विराट की आभा से परिप्लावित हो जाता है। एक दिशा-बोध। ध्यान से जीया गया जीवन ही जीवन है। शेष भटकाव है। शेष जैसे-जैसे दिशा आएगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे कठिनाइयों में ऐसी यात्रा है कि तुम्हें पता नहीं क्यों जा रहे, कहां जा रहे, भी आशीर्वाद बरसने लगे। दुख में भी सुख की झलक मिलने किसलिए जा रहे? कौन हो, यह भी पता नहीं। लगी। तूफान में भी सकून, शांति आने लगी। _ 'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही | लुत्फ आने लगा जफाओं में ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।' यहां स्मरण दिला दूं, वो कहीं मेहरबां न हो जाएं जैन-शास्त्रकार जब इस सूत्र का अनुवाद करते हैं, तो वह ससूत्र का अर्थ करते हैं—शास्त्रज्ञानयुक्त जीव, जो कि बिलकुल ही आज इतना ही। गलत है। मौलिक रूप से गलत है। महावीर के मूल वचन में कहीं भी शास्त्र का उल्लेख नहीं है। 'सूई जहा ससुत्ता'-सुई 2010_03 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Bolectionate _ For WWW. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रवचन यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार संन्यास लेकर साधना करना, संन्यास न लेकर साधना करनादोनों स्थितियों में आपके मार्ग का ही अनुसरण है। फिर संन्यास से विशेष फर्क क्या ? आपने कहा आंख आक्रामक होती है। लेकिन आपकी आंखों में तो प्रेम का सागर दिखता है, और जी करता है उन्हें निहारता ही रहूं। क्या आंख को कान - जैसा ग्राहक बनाया जा सकता है ? क्या स्वाद को भी परमात्म-अनुभूति का साधन बनाया जा सकता है ? भगवान का प्रवचन सुनते हुए उनकी आवाज से हृदय व कर्ण-तंतुओं पर एक अजीब तरह का कंपन। तब से साधारण ध्वनियों से भी अजीब कंपन व आनंद की लहर पैदा होना। क्या बुद्ध-पुरुषों के स्वर में विशेष कुछ ? साथ ही भगवान की उपस्थिति में एक आनंददायक गंध का मिलना। वही गंध कभी ध्यान में व आश्रम में अन्यत्र भी मिलना । क्या काल-विशेष की गंध - विशेष भी होती है ? 2010_03 आप कहते, संन्यास सत्य का बोध है। क्या संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र व माला अनिवार्य ? क्या कोई बिना दीक्षा लिये आपके बताए मार्ग पर नहीं चल सकता ? ww Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्नः हम संन्यास लेते हैं और साधना करते और भी हंसे। उन्होंने कहा तू पागल हो गयी है। दो पैसों में कहीं हैं, हम संन्यास नहीं लेते और साधना करते चर्च बना है? उसने कहा वह तो मुझे भी मालुम है। लेकिन मैं हैं—दोनों हालत में आपके मार्ग का अनुसरण अकेली नहीं हूं; परमात्मा भी मेरे साथ है। दो पैसे और थैरेसा तो करते हैं। कृपया बताएं कि संन्यास से जीवन में विशेष फर्क ना-कुछ है; लेकिन दो पैसे + परमात्मा बहुत कुछ है। और क्या क्या आता है? चाहिए! जिस जगह उसने खड़े होकर यह बात कही थी, आज दुनिया संन्यास लिये बिना फर्क को जानने का कोई उपाय नहीं। का सबसे सुंदर चर्च है। बना—किसी गहरे समर्पण से बना; संन्यास स्वाद है। संन्यास है स्वाद मेरे निकट आने का।। संपत्ति से नहीं बना। यह बात कि थैरेसा अकेली नहीं है। दो पैसे संन्यास साहस है समर्पण का। हैं थैरेसा के पास, लेकिन परमात्मा भी है। साधना तुम करते हो; लेकिन संन्यासी अकेला नहीं है, तुम तुम जब साधना कर रहे हो मेरी बात सुनकर, तो तुम चुनाव अकेले हो। तुम भी साधना करते हो, संन्यासी भी साधना करता कर रहे हो—जो तुम्हें लगता है ठीक-वह तुम करते हो; जो है। संन्यासी मेरे साथ है, तम मेरे साथ नहीं। | तुम्हें ठीक नहीं लगता वह तुम नहीं करते हो। तो तुम्हारा खयाल मैं तो दोनों के साथ हैं। लेकिन तम साधना करते हो अपने है कि तुम मेरी मानकर चल रहे हो, तम अपनी ही मानकर चल हिसाब से। सुनते हो मुझे, पर चुनते तुम्हीं हो। संन्यासी चुनता रहे हो। भी नहीं। वह एक बार मुझे चुन लेता है। उसने छोड़ दिया। संन्यासी का अर्थ है। उसने कहा, अब हम अपनी न मानेंगे, चुनाव। उसने कहा, बहुत हो गया! आपकी मानेंगे। अब हम चुनना छोड़ते हैं। अब हम राजी हैं मैं तो दोनों के साथ हूं, लेकिन संन्यासी मेरे साथ हो जाता है। जहां ले चलो। संन्यासी का अर्थ है : प्रेम का अंधापन। संन्यासी और इससे बड़ा क्रांतिकारी फर्क पड़ता है। पर वैसा फर्क जानोगे ने कहा कि अब तुम्हारी आंख काफी है, हमारी आंख की कोई तो ही जानोगे। जरूरत नहीं। पर यह तुम न जान सकोगे। जैसे कोई आदमी पूछे एक बड़ी प्रसिद्ध ईसाई महिला हुई-थैरेसा। गरीब भिखारिन कि प्रेमी और गैर-प्रेमी में फर्क क्या है? जिसने स्वाद लिया है थी। और एक दिन उसने अपने गांव में घोषणा की कि मैं जीसस | उसमें, और जिसने स्वाद नहीं लिया है, फर्क क्या है? स्वाद के के लिए एक बड़ा चर्च, एक बड़ा मंदिर बनाना चाहती हूं। लोग बिना जानने का कोई उपाय नहीं है। इसे खयाल में ले लेना। हंसे। लोगों ने पूछा, तेरे पास संपत्ति कितनी है! तो उसने दो पैसे मैं तो साथ हूं, लेकिन तुम जिस दिन मेरे साथ हो जाओगे उस निकालकर अपनी जेब से बताए कि मेरे पास दो पैसे हैं। लोग दिन जीवन में एक क्रांति घटनी शुरू होगी, जिसकी तुम अभी 2010_03 www.jainelibrarorg Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 कल्पना भी नहीं कर सकते। तब तुमने एक सहारा लिया। तब कुछ ऐसा है कि हजार बुद्धिमत्ताएं इस पर निछावर की जा सकती तुमने कोई हाथ पकड़े। तब तुम्हारे जीवन में एक भरोसा आया। हैं। साधना तो तुम भी कर रहे हो, लेकिन संन्यासी ने कुछ गहन मैं एक बड़े वैज्ञानिक की जीवन-कथा पढ़ता था। में प्रतिज्ञा जगायी है। वनस्पतिशास्त्री हुआ बड़ा। वह एक पहाड़ की कंदरा में बैठे हैं तेरे दर पेकछ करके उठेंगे खिलनेवाले फूलों का अध्ययन करना चाहता था, लेकिन उन या वस्ल ही हो जाएगा या मरके उठेंगे फूलों तक पहुंचने का कोई उपाय न था। वह बड़ी गहरी उसने जीवन को दांव पर लगाने की हिम्मत की है। संन्यासी खाई-खड्डु में थे। वैसे फूल कहीं और खिलते भी न थे। कोई जुआरी है। तुम होशियार हो। तुम दुकानदार हो। उपाय न देखकर उसने अपने छोटे बेटे को रस्सी में बांधा, कमर मुझे सुनकर तुमने जो पाया है, वह कुछ भी नहीं है-उसके से रस्सी बांधी और उसे उस खड्ड में लटकाया। और उससे कहा मुकाबले जो तुम मेरे पास आकर पाओगे। जो तुमने बुद्धि से कि तू कुछ फूल उखाड़ लाना। छोटा बेटा लटका। वह बड़ी सुनकर पाया है, वह तो भोजन की मेज से गिर गये टुकड़े हैं। खुशी से लटका। उसने तो खेल समझा। और जब बाप लटका भिखमंगा ही तुमने रहना तय किया है-बात और! संन्यासी रहा हो, तो बेटे को क्या फिकिर! वह तो बड़ा आनंदित हुआ। | मेरा अतिथि है। तुम बाहर-बाहर रहोगे। नहीं कि मैंने निमंत्रण, उसने तो नीचे जाकर फूल भी इकट्ठे कर लिये; लेकिन बाप के नहीं भेजा था; तुमने निमंत्रण स्वीकार न किया। तुमने हजार हाथ-पैर कंप रहे थे। भेजा तो है बेटे को, लेकिन यह खतरनाक | बहाने उठाए। तुमने कहा आते हैं, अभी और काम हैं। काम है। लौटेगा जिंदा? उसने ऊपर से चिल्लाकर पूछा, कोई __ जीसस ने एक कहानी कही है कि एक सम्राट की बेटी का तकलीफ तो नहीं है? कोई घबड़ाहट तो तुझे नहीं हो रही है? | विवाह था और उसने एक हजार देश के प्रतिष्ठिततम लोगों को उसने कहा घबड़ाहट कैसी! जब रस्सी मेरे बाप के हाथ में है, तो निमंत्रण भेजे। लेकिन किसी ने कहा कि अभी तो फसल कटने घबड़ाहट कैसी? का समय है और मैं न आ सकूँगा, क्षमा चाहता हूं। और किसी बाप घबड़ा रहा है, डर रहा है; क्योंकि यात्रा तो जोखिम की ने कहा कि अदालत में मुकदमा है और मैं क्षमा चाहता हूं। और | है। अब इस बेटे के भीतर जो भरोसा है, वह अगर न हो, तो किसी ने कुछ और, और किसी ने कछ और...। जब उसके खतरा हो सकता है। घबड़ाहट ही खतरा पैदा कर देती है। संदेशवाहक वापिस लौटे हैं तो उन्होंने कहा कि बहुत-से अब यह बड़े मजे की बात है, बड़ा दुष्ट-चक्र है—घबड़ाहट मेहमानों ने बहुत-से बहाने बताए, वे न आ सकेंगे। के कारण तुम संन्यास नहीं लेते। डर-संसार का, समाज का, तो सम्राट ने कहा, फिर तुम रास्तों पर जाओ और जो भी आने प्रतिष्ठा का। डर के कारण तुम अकेले-अकेले चलते हो। को राजी हो, उसे बुला लाओ। अब निमंत्रण की फिकिर छोड़ो, अकेले के कारण तुम और भी डर की स्थिति पैदा कर रहे हो। क्योंकि मेरा राजमहल खाली न रहे। मेरी बेटी का विवाह है। | और कछ जीवन की सूक्ष्मतम घटनाएं हैं, हृदय के कुछ राज राजमहल में भीड़ हो। जो भी राह पर मिले। अब तुम मेरे और रहस्य, जो भरोसे से ही खुलते हैं, श्रद्धा से खुलते हैं। निमंत्रण की फिकिर मत करना। जो आने को राजी हो, उसको तो तुम साधना कर रहे हो—वह बुद्धि से है। जिसने संन्यास बुला लाना। लिया, वह हृदय में उतरा; उसने बद्धि को एक तरफ रखा। आए मेहमान। भिखमंगे भी आए। गरीब भी आए। उसने कहा अब सुनेंगे हृदय की, अब गुनेंगे प्रेम की। निश्चित | अशिक्षित भी आए। जिनको निमंत्रण न भेजा गया था, वे भी ही प्रेम अंधा है; लेकिन प्रेम के अंधेपन में ऐसी आंखें हैं कि आए। और जीसस ने कहा है, यह कहानी घटी हो या न घटी हो, सदियों तक बुद्धिमानी में जीओ तो भी उन्हें तुम पा न सकोगे। क्योंकि सम्राटों के निमंत्रण में लोग कभी इनकार नहीं करते, प्रेमी पागल है। लेकिन परमात्मा के निमंत्रण के साथ रोज ही ऐसा होता है। इसलिए जिन्होंने संन्यास नहीं लिया है, वे सोचते हैं कि निमंत्रण तो मैंने तुम्हें भेज दिया है। तुम मेरी शिकायत न कर संन्यासी पागल है। ठीक ही सोचते हैं। लेकिन यह पागलपन | सकोगे। मैंने तो बुलावा दे दिया है। अब तुमने कोई बहाना 2010_03 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - S यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से निकाल लिया, तम्हारी मर्जी। यह महल तो खाली न रहेगा। हम पी भी गये, छलका भी गये मेहमान तो आएंगे। तुम न आए तो कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी तुम बुद्धिमानों की सभा जैसी सभा मत बना लेना अपनी। जगह कोई और होगा। उस अंजुमने-इर्फानी में | मझे सनकर तमने जो पाया, वह तो भोजन के टेबिल से गिर | -बड़े बद्धिमानों की सभा थी। गये टुकड़े हैं। उनसे ही तृप्ति मत मान लेना। मेरे पास आकर उस महफिले-कैफो-मस्ती में तुम जो पाओगे...। -मस्ती और आनंद और उल्लास के क्षण में बद्धिमानों की मेरे पास आने का और क्या उपाय है? कंधे से कंधा लगाकर बड़ी सभा थी। खड़े हो जाओ तो मेरे पास थोड़े ही आ जाओगे। हृदय से हृदय | सब जाम-बकफ बैठे ही रहे लगाकर खड़े हो जाओ, तो! संन्यासी ने वही किया है। उसने -बुद्धिमान थे, कैसे पीएं! तो अपने जाम सामने रखकर बैठे हिम्मत की है। उसने मेरे साथ होने के लिए जगहंसाई मोल ली ही रहे। गैर-बुद्धिमान जो थेहै। लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, पागल हुए! लोग कहेंगे, बुद्धि हम पी भी गये, छलका भी गये! खो दी! कुछ तो सोचो! सम्मोहित हो गये? किस जाल में पड़ पी लो और छलका लो! कब तब जाम लिये बैठे रह गये हो? तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और किसी की बातों में आ | किसकी राह देखते हो? कोई कहे? किसकी प्रतीक्षा कर रहे गया! पर उसने मेरे साथ रहना चुना है, संसार के साथ रहना नहीं हो? समय बीता जाता है। पल-पल, घड़ी-घड़ी मधुशाला के चुना। उस चुनाव में ही क्रांति घटती है। द्वार बंद होने का समय आया जाता है। फिर मत रोना। अभी छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना अपनी करोगे, फिर मत चीखना-चिल्लाना! क्योंकि बंद तेरे शादाब ओंठों की मगर कुछ और है साकी दरवाजों के सामने चीखने-चिल्लाने से फिर कुछ भी नहीं होता। तुम्हें अगर पैमाने से छलकती शराब से ही तृप्ति होती हो, । और में कहता हूं, ऐसा बहुत-से लोग कर रहे हैं। महावीर को तुम्हारी मर्जी। गये पच्चीस सौ साल हो गये, कितने लोग अभी भी उस दरवाजे छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना के सामने चीख रहे, चिल्ला रहे हैं! उन्हीं को जैन कहते हैं। बुद्ध खूब है वह शराब भी। को गये पच्चीस सौ साल हो गये, कितने लोग उस दरवाजे के तेरे शादाब ओंठों की मगर कुछ और है साकी सामने प्याले लिये खड़े हैं कि खोलो द्वार, हम प्यासे हैं; भरो लेकिन अगर ओंठों पर ओंठ रखकर ही पीना हो शराब को, तो हमारे प्याले! लेकिन मधुशाला जा चुकी! उन्हीं को तो बौद्ध संन्यास लिये बिना कोई उपाय नहीं है। और यह तो तुम पास कहते हैं। ऐसे ईसाई हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं। आओगे तो ही जानोगे। यह बात समझाने-समझने की नहीं। मैं तुम्हें आगाह किये देता। मेरे जाने के बाद तुम संन्यास यह बात कुछ करने की है। लोगे। लेकिन तब किसी मतलब का न होगा: फिर थोथा होगा। मेरे किये जो हो सकता है, वह मैं कर रहा हूं। लेकिन तुम भी महावीर के साथ संन्यासी होने में तो साहस था; महावीर के हाथ बढ़ाओ। मैंने तुम्हारे द्वार पर दस्तक दी है, कम से कम बाद जैन-मुनि होने में कोई साहस नहीं। जैन-मुनि प्रतिष्ठा है दरवाजा खोलो! अब। अब तो उसका आदर है। महावीर के साथ तो अनादर नहीं तो ऐसा न हो कि तुम समझदारी में बैठे ही रह जाओ। यह था। जैन-मुनि होना उस समय तो केवल कुछ थोड़े-से मधुशाला सदा न खुली रहेगी। कोई मधुशाला सदा नहीं खुली हिम्मतवर लोगों की बात थी। इसीलिए तो महावीर को महावीर रहती है। द्वार-दरवाजे बंद होने का समय आ जाएगा। कहा। उनके साथ जो खड़े हुए, उनके लिए भी हिम्मत की बात उस महफिले-कैफो-मस्ती में, थी। सब तरह से प्रतिष्ठा, पद, मान, सम्मान खोना पड़ा। उस अंजुमने-इर्फानी में जीसस के साथ जो चले, उनके लिए तो सूली मिली। अब तो सब जाम-बकफ बैठे ही रहे. जीसस के पीछे जो चलते हैं, वे सिंहासनों पर विराजमान हैं। 2010 03 www.jainelibrar org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 पीछे तो बड़ा आसान हो जाता है। सोचते हैं, आदमी भला होगा; भरोसे-योग्य मालूम होता है; मैं एक कहानी पढ़ रहा था। न्यूयार्क के बड़े चर्च में, सबसे बड़े धार्मिक है। दुकान पर भी बैठे हो अगर गीता लेकर तो ग्राहक चर्च में, जो कि दुनिया का सबसे ज्यादा संपत्तिशाली चर्च है, तुमसे ज्यादा मोल-भाव नहीं करेगा। प्रधान पुरोहित अपने प्रवचन की तैयारी कर रहा है कि उसके एक इसीलिए तो लोग चंदन-तिलक लगाकर बैठते हैं। राम-राम शागिर्द ने दौड़कर उससे कहा कि सुनो, क्या कर रहे हो? कौन बोलते रहते हैं दुकान पर! आया है, पीछे तो देखो! देखा तो खुद जीसस! वेदी के सामने | धार्मिक आदमी को दूसरों को लूटने में सुविधा हो जाती है, खड़े हैं। प्रधान पुरोहित भी घबड़ाया। ऐसा कभी हुआ न था। आसानी हो जाती है। लाभ ही लाभ है। मेरी किताब लेकर तम जीसस को गये दो हजार साल हो गये। यह कौन सज्जन आ गये बैठोगे तो हानि ही हानि है। किसी ने देख लिया कि अरे, तो तुम हैं! बिलकुल जीसस-जैसे मालूम पड़ते हैं! बड़ा मुश्किल है, भी उलझ गये! तो तुम पर भी भरोसा गया! कहें इनसे कुछ कि न कहें! शागिर्द ने पूछा कि क्या करूं, कुछ | संन्यास, अभी मेरे साथ संन्यास, दुस्साहस है! लेकिन आज्ञा? तो बड़े पुरोहित ने कहा एक काम कर, कि वह जो दान | धन्यभागी हैं वे जो दुस्साहस कर लेते हैं! क्योंकि जो खोने को की पेटी है, उस पर बैठ जा। यह आदमी पता नहीं किस तरह का राजी नहीं, वह पा न सकेगा। जो सब खोने को राजी है, वही सबहै, कौन है! लगता जीसस-जैसा है, लेकिन पेटी न ले भागे! पाने का मालिक होता है। जो मिटने को राजी है, परमात्मा उसी दान की पेटी पर बैठ जा और व्यस्त दिखने की कोशिश कर। को भर देता है, पूरा कर देता है। तुम खाली तो होओ, तुम जगह इसकी तरफ ध्यान मत दे। | तो बनाओ-प्रभु आएगा। अगर जीसस चर्च में आज आ जाएं तो परोहित को अपनी प्रतिष्ठा, सम्मान, धन बचाने की फिकर होगी कि यह आदमी दूसरा प्रश्न: कल आपने कहा कि आंख आक्रामक होती है। कहां भीतर आ गया! लेकिन आपकी आंखों में तो मुझे प्रेम का सागर दिखायी देता है कृष्ण की तुम बड़ी पूजा करते हो; लेकिन कभी सोचा कि | और जी करता है कि उन्हें निहारता ही रहूं। कृपया बताएं कि कृष्ण तुम्हारे द्वार पर आ जाएं मोर-मुकुट बांधे, बांसुरी बजाने क्या कान की तरह आंख को भी ग्राहक बनाया जा सकता है? लगें, तो तुम पुलिस में खबर करोगे! तुम घबड़ा जाओगे! मरे हुए पैगंबरों की पूजा बड़ी आसान है, क्योंकि उसमें कुछ | मेरी आंखों में तुम्हें प्रेम का सागर दिखायी पड़ सकता है। भी तो लगता नहीं। कुछ भी लगता नहीं। कुछ दांव नहीं। कुछ | क्योंकि मैं तुम्हें नहीं देख रहा हूं, तुम्हारे भीतर जो छिपा है उसे जोखिम नहीं। लाभ ही लाभ है। जीवित पैगंबर के साथ खड़े देख रहा हूं। मैं तुम्हें देख ही नहीं रहा हूं। मैं तुम्हारी संभावना को होने में हानि ही हानि है, लाभ कहां? | देख रहा हूं। मैं बीज को नहीं देख रहा हूं-मैं उन फूलों को देख मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, अगर हम संन्यास लें तो | रहा हूं जो कभी खिलेंगे, खिल सकते हैं। मैं तुम्हारे आर-पार लाभ क्या होगा? मैं उनसे कहता हूं, कहीं और! तुम कहीं और देख रहा हूं। लेकिन यह देखना तभी संभव है जब कोई स्वयं को लेना, यहां तो हानि होगी। यहां तो जो तुम्हारे पास है वह भी खो देख लिया हो; उसके पहले संभव नहीं है। स्वयं को जानने के जाएगा। यहां तो शून्यता मिलेगी, रिक्तता मिलेगी। यहां तो जो | बाद तो सभी चीजें अनाक्रामक हो जाती हैं। स्वयं को है वह खो जाएगा। तुम भी खो जाओगे। मिटना हो तो यहां | बाद तो हिंसा बच ही नहीं सकती। स्वयं को जाननेवाला तो सब आना। लाभ की बात, तो कहीं और! कहीं, जहां जीवन खो भांति हिंसा से शून्य हो जाता है। लेकिन यह तो स्वयं को जानने चुका है। कहीं, जहां केवल लकीरें रह गयी हैं। पिटी हुई लकीरें | के बाद घटेगा। अभी तो तुम्हें चुनाव करना होगा। अभी तो तुम्हें रह गयी हैं—मुर्दा लकीरें, मुर्दा शास्त्र। वहां कोई जोखिम नहीं | अपने व्यक्तित्व में वे बातें चुननी होंगी जो कम से कम आक्रामक है, लाभ ही लाभ है। हैं। और एक-एक कदम यात्रा करनी होगी, एक-एक सीढ़ी लोग तुम्हें गीता पढ़ते देख लें तो लाभ ही लाभ है। लोग चढ़नी होगी। आंखें भी अनाक्रामक हो जाती हैं। सारा व्यक्तित्व 26 2010_03 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही अनाक्रामक हो जाता है। जिस दिन परमात्मा ही दिखायी जिसकी पहचान अपने भीतर न थी, जिसकी प्रत्यभिज्ञा भीतर न पड़ने लगता है, आक्रमण करोगे किस पर ? हुई थी, उसे तुम बाहर पहचानते कैसे? बाहर पहचानने की सारी संभावना अंतर्तम में घटती है। पहले वहां । सबसे पहले वहां । हुस्न ही हुस्न है जिस सिम्त भी उठती है नजर कितना पुरकैफ ये मंजर, ये समां है साकी यहां तुम इतने बैठे हो, मुझे एक ही दिखायी पड़ रहा है। रूप होंगे अनेक | बहुत शैलियों में परमात्मा आया है। रंग-ढंग अलग हैं। आकृति अलग है। लेकिन है वही । जैसे सोने को किसी ने बहुत-बहुत आभूषणों में ढाला हो । जैसे कुम्हार ने एक ही मिट्टी से बहुत-बहुत ढंग के बर्तन बनाए हों। उस अरूप को | देखने की क्षमता लेकिन तभी आती है जब तुमने उसे अपने भीतर पालिया हो । हुस्न ही हुस्न है जिस सिम्त भी उठती है नजर — फिर तो जहां आंख उठती है, सौंदर्य ही सौंदर्य है ! इस अस्तित्व में असुंदर तो कुछ हो नहीं सकता। कहीं देखने में भूल हो गयी होगी। इस अस्तित्व में असुंदर के होने का उपाय नहीं है। अस्तित्व सौंदर्य से भरा है, सौंदर्य का सागर है। कितना पुरकैफ ये मंजर इसे स्मरण रखो । कितना आनंद से भरा हुआ है सब... ये समां है साकी । तुम वही देख सकते हो दूसरे में, जो तुमने स्वयं में पहले देख लिया हो। तुम दूसरे में वही देखते रहोगे जो तुम स्वयं में देखते हो। अगर तुम क्रोधी हो, तो दूसरे में तुम्हें क्रोध दिखायी पड़ता रहेगा। अगर तुम दुष्ट हो, तो दूसरे में तुम्हें दुष्टता दिखायी पड़ती रहेगी। अगर तुम हिंसक हो, तो सारा संसार तुम्हें हिंसक | मालूम पड़ता रहेगा। अगर तुम चोर हो, तो तुम हर एक से डरे रहोगे, क्योंकि तुम्हें हर जगह चोर ही दिखायी पड़ेगा । जगत | प्रतिबिंब है तुम्हारा, दर्पण है— तुम्हारी ही छवि बनती है। जैसे ही तुमने स्वयं को जाना — स्वयं की वास्तविकता में, उसकी परिपूर्णता में वैसे ही रूप खो जाते हैं, अरूप का सागर चारों तरफ फैल जाता है। फिर कुछ भी आक्रमण नहीं, क्योंकि आक्रमण करे कौन? करे किस पर ? कौन मारे ? किसे मारे ? फिर तो ऐसा है जैसे अपने ही दोनों हाथ। एक हाथ से दूसरे हाथ को मारने का अर्थ क्या है? तब दूसरा भी स्वयं है । तब तुम दूसरे में भी अपने को फैला हुआ पाते हो। तभी प्रेम घटता है, जब दूसरा मिट जाता है। लेकिन दूसरा तभी मिटेगा जब तुम मिट जाओ। इसलिए सारी यात्रा अपने घर से शुरू होती है। सारी पूजा, सारी प्रार्थना, सारी साधना अपने अंतर्तम से शुरू होती है। एक बार भीतर के सौंदर्य की झलक मिल गयी कि तुम जहां आंख खोलोगे वहीं, वहीं तुम उसे विराजमान पाओगे। तुम चकित होओगे, तुम चमत्कृत होओगे कि इतने दिन तक चूकते कैसे रहे ! इन्हीं रास्तों से गुजरे, यही वृक्ष थे, यही लोग थे, यही पशु-पक्षी थे, यही कोयल रोज गीत गाती रही, यही आंखें थीं, कल भी इनमें झांका था, लेकिन परमात्मा से चूकते क्यों रहे? 2010_03 यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से लेकिन, यह आनंद पहले भीतर स्वाद लेना पड़े। यह आनंद पहले भीतर उठे। यह भीतर से तुम्हारे प्राणों में जगे और तुम्हारी आंखों और कानों और तुम्हारे हाथों में छा जाए। फिर तुम जो छुओगे वही परमात्मा है। अभी तो तुम जो छुओगे वही मिट्टी जाता है। सोना छुओ, मिट्टी हो जाता है। क्योंकि अभी सिवाय वासना के कुछ भी भीतर नहीं है । वासना सोने को छुए, मिट्टी हो जाता है। प्रार्थना मिट्टी को छुए, सोना हो जाती है। तुम्हारे पास आंख चाहिए, दृष्टि चाहिए। तुम्हारे पास भीतर सघन प्रतीति चाहिए। निश्चित ही तब फिर कुछ आक्रमण नहीं रह जाता। इसीलिए तो कृष्ण गीता में अर्जुन को कह सके, कि तू फिकर मत कर ! तू सिर्फ एक उसको याद रख। तू सिर्फ उसक को अपने भीतर विराजमान देख। तू केवल उस एक को पहचान ले जिसका तू उपकरण मात्र है। जो तुझसे अभिव्यक्त हुआ है, बस तू उसको पहचान ले। उसकी शरणागति हो जा। फिर कोई चिंता नहीं। फिर तू युद्ध कर न कर, कुछ भेद नहीं पड़ता। न कोई कभी मारा गया न कभी कोई मारा जा सकता है। अगर कोई मुझसे पूछे, तो कृष्ण ने गीता में जो कहा है, वह महावीर का परिशिष्ट है। अगर महावीर प्रारंभ हैं, तो गीता अंत है। बड़ा मुश्किल होगा यह समझना; क्योंकि जैनों को तो गीता से बड़ा विरोध रहा है; क्योंकि उन्हें तो लगा यह आदमी कृष्ण, हिंसा की तरफ उत्तेजित कर रहा है लोगों को, हिंसा की तरफ भेज रहा है। जैनों को तो ऐसा लगा कि अर्जुन तो भाग जाना चाहता 27 . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 था, जैन-मुनि होना चाहता था, छोड़ देना चाहता था, यह सब कोई मरता कहां! हिंसा है-और कृष्ण ने इसको भरमाया, भटकाया! तो जैनों ने | अहिंसा पहले कदम पर सिखाती है: मत मारो। क्योंकि तुममें क्षमा नहीं किया कृष्ण को, सातवें नर्क में डाला है। और सब | मारने की बड़ी आकांक्षा है: दूसरे को विनष्ट करने की बड़ी पापी तो छूट जाएंगे; लेकिन कृष्ण अंततः जब यह सृष्टि पूरी | आकांक्षा है। अभी तुम्हें यह तो दिखायी पड़ना संभव न हो समाप्त होगी तब छूटेंगे। | सकेगा कि दूसरे में परमात्मा है। पहले मारने से रुको, ताकि बात तर्कपूर्ण है: क्योंकि और पापियों ने पाप किये हों, लेकिन परमात्मा दिखायी पड़ जाए। फिर दिखायी पड़ गया परमात्मा, पाप को दर्शन-शास्त्र तो नहीं बनाया। और पापियों ने हिंसा की फिर कृष्ण कहते हैं, अब क्या फिकिर! अब अगर परमात्मा की हो, लेकिन अपराध का भाव तो उनके भीतर था ही कि हम गलत मर्जी हो तो मारो! क्योंकि अब तुम जानते हो कि मारने से भी कर रहे हैं। कृष्ण ने तो गलत को सही है, ऐसा सिद्ध किया। | कोई मरता नहीं। यह अहिंसा का आखिरी कदम हुआ। गलत को दर्शन दिया। गलत को शास्त्र बनाया। तो साधारण | लेकिन, पहले स्वयं के भीतर प्रतीति सघन होनी चाहिए। पापियों को तो ठीक है कि आज नहीं कल उनका दंड पूरा हो | जिसने स्वयं को जाना उसने सबको जान लिया। जो उस एक को जाएगा। इस आदमी को कितना दंड दें? इसने तो अपराध का | जानने से चूक गया, वह सब जानने से चूक गया। भाव ही हटा दिया। अपराध का भाव हो तो आदमी रूपांतरित पछा है, 'कल आपने कहा आंख आक्रामक होती है....।' होता है। हिंसा हो गयी, दुखी होता है; पश्चात्ताप करता है; आंख क्या आक्रामक होगी? तुम आक्रामक हो, इसलिए व्रत-नियम लेता है। अपने कर्मों को धोने-पोंछने की, निर्जरा की आंख भी आक्रामक हो जाती है। यह तो पहला पाठ तुम्हें दिया चिंता करता है; शुभ कर्म करता है कि अशुभ हो गया है, अब कि आंख की बजाय तुम कान की तरफ झुको। इसको तुम इसको किसी तरह तराजू को बराबर करो, संतुलन करो; जीवन शाब्दिक अर्थों में मत लेना। इसका कुल इतना ही प्रतीक-अर्थ है में हिसाब की व्यवस्था बिठाता है: आज गलती हो गयी कलन | कि तुम सक्रियता से निष्क्रियता की तरफ झुको; करने की बजाय हो, इसका निर्णय लेता है। | न करने की तरफ झको: बाहर दौडने की बजाय भीतर उतरो: | कष्ण ने तो समझा दिया की गलती है ही नहीं. हो ही नहीं परुष न होकर स्त्री बनो. ग्राहक बनो. आक्रामक नहीं। तम सकती। 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे।' मारने से भी कहीं शरीर | इससे यह मतलब मत समझ लेना कि आंखें फोड़ लो, कि आंखें मरता है? न आग में जलाने से जलता, न शस्त्रों से छेदने से | बंद कर लो, कि अब तो कान से ही जीएंगे। छिदता। 'नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।' यह तो केवल प्रतीक था। कान के लिए जो मैंने समझाया, वह तो यह तो हिंसा के लिए है। इससे बड़ा और प्रबल समर्थन तो केवल प्रतीक था। अगर तुम्हारी समझ में आ जाए तो फिर क्या होगा? ऐसा जैनों ने समझा। चूक गये! क्योंकि वे महावीर तुम्हारी आंख भी कान-जैसी ही हो जाएगी; तुम्हारे हाथ भी को भी नहीं समझे, तो कृष्ण को कैसे समझेंगे? महावीर को कान-जैसे हो जाएंगे। यह तो इंद्रियां हैं। तुम्हारे हाथ में मैं समझा होता, तो कृष्ण महावीर का ही अंतिम चरण हैं; महावीर तलवार दे दूं; तलवार थोड़े ही कुछ करती है, तुम पर निर्भर है। ने जो कहा, उसकी ही निष्पत्ति हैं, उसका ही परम रूप हैं। तुम चाहो तो किसी स्त्री के साथ बलात्कार कर सकते हो इस महावीर ने कहा, मत मारो, क्योंकि दूसरे में भी तुम्हारे जैसी ही तलवार के कारण; और तुम चाहो तो कोई किसी स्त्री के साथ चेतना विराजमान है। यह पहला कदम हुआ शिक्षा काः मत बलात्कार करने जा रहा हो, तो तुम उस तलवार के कारण मारो, क्योंकि दूसरे में भी तुम्हारे जैसी ही चेतना विराजमान है। बलात्कार को रोक सकते हो। तलवार क्या करेगी! मैंने तुम्हें जब तुम इसमें निष्णात हो गये, तब दूसरा कदम उठता है, | माचिस दे दी; तुम चाहो तो दीया जला लो, अंधेरे में रोशनी हो आखिरी शिक्षा आती है, चरम शिक्षा आती है, कि अब अगर जाए। तुम्हारे रास्ते पर ही नहीं, दूसरों के रास्ते पर दीया जला तुम मारना चाहो, तो मारो, लेकिन तुम मारनेवाले मत बनना। दो; उनके रास्ते पर भी रोशनी हो जाए। और तुम चाहो तो घर में अगर परमात्मा की मर्जी हो तो तुम निमित्त हो जाओ। क्योंकि आग लगा दो किसी के। माचिस में थोड़े ही कछ है। माचिस ने 28 Jan Education International 2010_03 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोड़े ही कहा है कि किसी के घर में आग लगाओ, कि दीया इतने लोग, कोई उसके सामने से निकल जाता है; कोई गलत, जलाओ ! तुम पर निर्भर है। नियम तोड़ देता है; कोई उसको पीछे छोड़ देता है; कोई उसके आंख भी अनाक्रामक हो सकती है—तुम अगर अनाक्रामक आगे है, वह हार्न बजाए जा रहा है और वह हटता ही नहीं है! हो और कान भी आक्रामक हो सकता है। मेरे एक मित्र हैं। वे कहते हैं कि मैंने इसीलिए खुद कार चलानी छोड़ दी, क्योंकि उसमें गाली देना बिलकुल जरूरी है। उससे बचा ही नहीं जा सकता। मछली मारने का काम भी ऐसा ही है। घंटों बैठे हैं और मछली पकड़ में नहीं आती, क्या करो ! या कभी-कभी मछली फंस भी जाती है और तुम खींच ही रहे थे कि छूट गयी। कभी तो ऐसा हो जाता है, हाथ में भी आ गयी और छलांग लगा गयी। तो मछुए भी गाली देने लगते हैं। यह फोसदिक अपने मित्र के साथ मछली मारने गया । और उस मित्र ने लौटकर अपनी पत्नी से कहा कि आज एक बड़ी हैरानी की बात देखी। जब फोसदिक ने एक बड़ी मछली पकड़ी घंटों की मेहनत के बाद, तो वह बड़ा खुश था; लेकिन जैसे ही उसने हाथ में उठायी वह छलांग लगा गयी और नाव के बाहर कूद गयी। तो मित्र ने कहा, मैं सोचता था कि अब तो इसके मुंह से कुछ अपशब्द निकलेगा, कोई गाली ! लेकिन फोसदिक बिलकुल चुप रहा, कुछ भी नहीं बोला। मित्र ने अपनी पत्नी को कहा कि इतनी अपवित्र शांति मैंने कभी नहीं देखी। अपवित्र शांति ! धर्मगुरु है, गाली दे नहीं सकता, अपशब्द बोल नहीं सकता। लेकिन शांति भी अपवित्र हो सकती है। चुप रहने में भी तीर हो सकते हैं, कांटे हो सकते हैं, जहर हो सकता है। तुम सभी जानते हो । चुप रहकर भी तुम चोट पहुंचा सकते हो। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि बोलकर इतनी गहरी चोट पहुंचायी ही नहीं जा सकती, जितनी चुप रहकर पहुंचायी जा सकती है। मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उस पर बड़ी नाराज हो रही थी । और चिल्ला रही थी कि बहुत हो गया; अब मेरे बर्दाश्त के बाहर है। अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकती। मुल्ला ने कहा हद्द हो गयी! मैं कुछ बोला ही नहीं हूं। मैं सिर्फ चुप बैठा हूं! उसने कहा वह मुझे मालूम है। लेकिन तुम इस ढंग से चप बैठे हो कि अब बर्दाश्त के बाहर है ! चुप बैठना भी बर्दाश्त के बाहर हो सकता है। ढंग पर निर्भर है। तुम्हारी खामोशी में भी हिंसा हो सकती है। तुम इसलिए चुप | बैठ सकते हो कि तुम इतनी गहन हिंसा से भरे हो कि अब तुम कुछ कहना भी नहीं चाहते। लेकिन तुम्हारी चुप्पी में भी गाली हो सकती है। गाली के लिए बोलना ही थोड़े ही जरूरी है, बिना बोले गाली हो सकती है। तुम्हारे उठने-बैठने के ढंग में गाली हो सकती है। तुम जिस ढंग से दूसरे को सुनते हो, उसमें गाली हो सकती है। तुमने देखा कभी? कोई आदमी घर आया । तुम सुनना नहीं चाहते। तुम उसके सामने बैठकर ही जम्हाई लेते हो। तुम उससे कुछ कहते नहीं। कहते तो तुम हो, बड़ी कृपा हुई, आए। कितने दिनों से आंखें तरस गयी थीं। कहते तो तुम यही हो । कहते तो तुम हो, अतिथि तो देवता है ! और जम्हाई ले रहे हो। बार-बार घड़ी देख रहे हो । अब और क्या कहना है? कुछ सिर पर हथौड़ा मारोगे तभी उसकी समझ में आएगा? कोई बोल रहा है, तुम बार-बार घड़ी देख रहे हो। तुम क्या कह रहे हो ? शायद तुम्हें भी पता न हो। तुम बिना कहे कुछ कह । तुम्हारे बोलने में, तुम्हारे सुनने में, तुम्हारे उठने-बैठने में, न बोलने में, चुप रहने में सब तरफ से हिंसा हो सकती है। सुना है, अमरीका का एक बड़ा धार्मिक उपदेशक है, | डाक्टर फोसदिक । उसके संबंध में एक मित्र किसी को कह रहा था कि हम दोनों साथ-साथ मछली मारने गये। अब कुछ मामला ऐसा है...मछली मारनेवाले या कार चलानेवाले, कुछ काम ऐसे हैं कि वह गाली देना सीख ही जाते हैं। कार चलानेवाला गाली न दे, बड़ा मुश्किल! क्रोध आ ही जाता है। 2010_03 यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से तो जरूरी नहीं है कि तुम्हारा कान मैंने कह दिया कि अनाक्रामक है, तो हो । तुम पर निर्भर है। यह तो प्रतीक था। सुनने और देखने में भेद है। कान सुनता है, ग्रहण करता है। आंख जाती है, छूती है, खोजती है। बस इतना प्रतीक था। तुम कान-जैसे बनना । तुम्हारी आंख भी कान - जैसी बन जाए। वह भी ग्राहक हो । वह इस परम सौंदर्य को, जो चारों तरफ फैला है, इसे पीए । इसे उघाड़े न, बलात्कार न करे! व्यभिचार न करे, चोट न करे ! बस इतनी बात थी। यह हो सकता है। लेकिन यह होगा तुम्हारे रूपांतरण से। 29 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 तीसरा प्रश्न : 'रसो वै सः' के संदर्भ में बताएं कि क्या स्वाद बिस्तर बिछाओ, तो उसी को देखना। जागना भी उसी में; जब को भी परमात्म-अनुभूति का साधन बनाया जा सकता है? आंख खोलो, तो उसी को देखना। यही तो अर्थ था प्राचीन परंपराओं का कि लोग प्रभु का स्मरण करते सोते, राम-राम बनाए जाने का सवाल ही नहीं है। सभी अनुभव उसी के जपते हुए सोते। यह कोई जपने की बात नहीं है कि तुमने साधन हैं। स्वाद भी। राम-राम शब्द दोहरा दिया और सो गये। भाव दशा की। कि मैं तुम्हें अस्वाद नहीं सिखाता। मैं तुम्हें परम स्वाद सिखाता | राम का नाम ही जपते उठते। भाव दशा की! आंख खोलते तो हूं। आंख भी उसी को देखे। कान भी उसी को सुनें। हाथ उसी उसी को देखते; आंख बंद करते तो उसी को देखते। उसी में है को छुएं। रस उसी का ही तुम्हारी जिह्वा में उतरे, तुम्हारे कंठ के नींद, उसी में है जागृति। भोजन करते, तो भी उसी के पार जाए। तुम उसे ही खाओ और तुम उसे ही पीओ, और तुम नाम-स्मरण से करते; थोड़ा भोग पहले उसे लगा देते। पहले उसे ही बिछाओ और तुम उसे ही ओढ़ो। वही हो जाए तुम्हारा भोग, फिर भोजन; तो भोजन भी पवित्र हो गया। तो फिर भोजन सब कछ। तुम उसी में स्नान करो, तुम उसी में श्वास लो! तम | भी प्रार्थना हो गयी। उसी में चलो, उसी में बैठो; उसी में बोलो, उसी में सुनो! इसे तुम ऐसा समझो कि भूख लगे तुम्हें, तो भी जानना उसी को तुम्हारा सारा जीवन उसी से भर जाए। क्योंकि परमात्मा कोई भूख लगी तुम्हारे भीतर। सच भी यही है, वही भूखा होता है। खंड नहीं है कि तुम गये मंदिर, घंटा-भर परमात्मा को दे दिया वही जीता है। वही जन्मता है। वही विदा होता है। वही शरीर में और तेईस घंटे अपने लिए बचा लिये। यह तो धोखा है। ऐसे आया, वही शरीर से जाएगा। उसकी ही भूख, उसकी ही कहीं कुछ जीवन में क्रांति नहीं होती। यह तो तुमने हिसाब कर | प्यास। तो उठना-बैठना ही फिर पर्याप्त आराधना हो जाती है। लिया कि चलो एक घंटे परमात्मा को दे दें, दूसरी दुनिया भी आराधना ऐसी अनुस्यूत हो जाए जैसे श्वास। याद भी अलग से सम्हाल ली। यह दुनिया तो तेईस घंटे सम्हाल ही रहे हैं। कुछ न करनी पड़े, तो ही तुम परम मुक्ति के स्वाद को चख सकोगे। वह एक घंटा महंगा नहीं है। और उस एक घंटे भी तुम परमात्मा वह रसरूप है। इसलिए जहां भी रस मिले, उसी को समर्पण के मंदिर में हो कैसे सकते हो? जो आदमी तेईस घंटे परमात्मा कर देना। भोजन में रस आए, प्रसन्न होना कि प्रभु प्रसन्न हुआ, के विपरीत जी रहा हो, वह एक घंटे परमात्मा में जीएगा कैसे? उसे रस मिला। तम केवल साधन हो। तम्हारे माध्यम से उसने ऐसा समझो कि गंगा बस काशी में आकर पवित्र हो जाती आज फिर भोजन किया। तुम माध्यम हो। तुम्हारे माध्यम से हो—पहले अपवित्र, बाद में फिर अपवित्र-ऐसा कैसे होगा? आज उसने फिर बगीचे के फूलों की सुगंध ली। वही तो तुम्हारे गंगा तो सतत धारा है। अगर पहले पवित्र थी. तो ही काशी में भीतर चैतन्य होकर बैठा है। तुम तो मिट्टी के दीये हो; ज्योति तो पवित्र हो सकेगी। और काशी में पवित्र है, तो आगे भी पवित्र ही उसकी है। सब अनुभव उसके हैं। रहेगी। शृंखला है, सातत्य है, सिलसिला है। ऐसा जो व्यक्ति भाव में निमज्जित होने लगे और सब भांति तो ऐसा थोड़े ही है कि तुम मंदिर के द्वार पर आए, बाहर तो | अपने को परमात्मा में गूंथ ले-इसी को महावीर ने कहा, सुई पवित्र नहीं थे; भीतर गये, घंटा बजाया–पवित्र हो गये, प्रार्थना | गिर जाए, बिना धागा-पिरोयी, तो खो जाती है। धागा-पिरोयी कर ली! फिर बाहर आए, फिर चोगा बदल लिया, फिर पवित्र | सुई गिर भी जाए तो नहीं खोती। ऐसा निमज्जित हुआ व्यक्ति हो गए, फिर अपवित्र हो गये, फिर बैठ गये अपनी दुकान पर, | | अगर भटक भी जाए तो नहीं भटकता। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के फिर वही करने लगे जो कल तक करते थे। उस मंदिर में जाने ने भटकने का उपाय ही न रहा। यह भटकाव भी उसी का है। अगर तुम्हारे जीवन में कोई रूपांतरण न किया। ऐसे व्यक्ति की नाव मझधार में भी डूब जाए तो उसे चिंता नहीं नहीं. धर्म तो चौबीस घंटे की बात है। तब तो बडी कठिनाई होती। मझधार भी उसी की है। ऐसे व्यक्ति को कोई चिंता होती है। चौबीस घंटे अगर धर्म में जीना हो, तो तुम कहोगे बड़ा ही नहीं। सभी कुछ उसी का है! इस समर्पण-भाव से तुम्हें सब मुश्किल है! इसलिए मैं कहता हूं कि सोना भी उसी में। जब जगह उसी का रस आने लगेगा। 130 2010_03 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से ऋग्वेद में वचन है : 'केवलाघो भवति केवलादि।' अकेले शराब में भी सौंदर्य आ गया। मत खाना, बांटकर खाना। अकेले खाने में पाप है। खाने में पाप पाप भी पुण्य हो सकता है। पुण्य भी पाप हो सकता है। नहीं। अन्न तो ब्रह्म है। लेकिन अकेले खाने में पाप है। छीनकर जीवन बड़ा जटिल है। जीवन गणित जैसा नहीं है। अगर तुमने खाने में पाप है। चुराकर खाने में पाप है। बांटकर खाना। गणित की तरह पकड़ा तो तुम चूक जाओगे। तो कभी-कभी तुम साझेदार बनाकर खाना। फिर पाप खो गया। पुण्य भी कर सकते हो और वह पाप हो। और कभी-कभी तुम जितना तुम बांट सको, जो भी तुम्हारे पास है, उसे तुम | पाप भी कर सकते हो और पुण्य हो जाए। अहर्निश बांटो। गा सकते हो, तो गाओ-गीत बांटो। नाच | मैंने उनसे कहा, पुण्य हो गया। आप बुलाकर पीते हैं, अकेले सकते हो, तो नाचो-नाच बांटो। जो भी तुम्हारे पास है, उसे नहीं पी सकते, छिपकर नहीं पी सकते–बस, ठीक है। फैलते बांटो। बस पुण्य हो जाएगा। बांटने में पुण्य है। रोक लेने में हैं-शुभ है। आज यह शराब पीकर फैल रहे हैं, कल और बड़ी पाप है। | शराब पीकर भी फैलेंगे। फैलना तो जारी है। सागर की तरफ यह बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है। नदी ठहर जाए तो पाप है। नदी चल तो रहे हैं। ठहरकर डबरा बन जाए तो पाप है। बहती रहे, सागर की तरफ यह ऋग्वेद का सूत्र : 'केवलाघो भवति केवलादि'-वही उंडलती रहे, सागर में जाकर उतरती रहे-फिर पाप नहीं। पापमय है भोजन, जो अकेले कर लिया जाए, बांटा न जाए। जो तुम्हारे जीवन में बहाव रहे! भोजन करो, लेकिन...तुमने भी हो तुम्हारे पास–भोजन की ही बात नहीं है—जो भी रसपूर्ण खयाल किया, पशुओं को देखा, पशु जब भी भोजन करते हैं तो हो, जो भी आनंदपूर्ण हो, उसे छिपाकर मत बैठना। प्रकाश उठाकर भोजन अकेले में भाग जाते हैं। बांट नहीं सकते, | तुम्हारे भीतर जगे तो उसे ढांक मत लेना। भयभीत हैं। दूसरा दुश्मन है! आदमी अकेला प्राणी है संसार | जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को कि जब तुम्हारे भीतर में, जो दूसरे को निमंत्रण देकर भोजन करता है। बुला लाता है। परमात्मा का स्वर गूंजे, तो चढ़ जाना छप्पर पर, जितने जोर से मेरे एक प्रोफेसर थे। बहुत प्यारे आदमी थे! दुर्गुण एक चिल्ला सको, चिल्लाना; ताकि जो गहरी नींद में सोए हैं, वे भी था-शराबी थे। मैं उनके घर एक बार मेहमान हुआ। था सुन लें, वे भी वंचित न रह जाएं। उनका विद्यार्थी में, लेकिन उनका बड़ा सम्मान मेरे प्रति था। वे तो जो तुम्हारे पास हो, उसे बांटना, फैलाना! बड़े बेचैन हुए कि वे शराब कैसे पीएंगे; अब ये कुछ दिन मैं संस्कृत का शब्द 'ब्रह्म' बड़ा प्रीतिकर है! इसका अर्थ होता उनके घर रहूंगा। मैंने उन्हें कुछ बेचैन देखा। मैंने पूछा कि है जो फैलता ही चला जाता है; जो विस्तीर्ण ही होता चला मामला क्या है? आप कुछ बेचैन मालूम होते हैं। उन्होंने कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान ने ब्रह्म शब्द को बड़ा नया अर्थ दे कि तुमसे छुपाना क्या! मुझे शराब पीने की आदत है। तो मैंने | दिया है। आइंस्टीन के पहले तक ऐसा समझा जाता था कि कहा, आप पी सकते हैं। इसमें परेशान होने की क्या बात है? | संसार कितना ही बड़ा हो, फिर भी इसकी सीमा तो होगी ही। उन्होंने कहा कि परेशान होने की बात है कि मैं अकेला नहीं पी हम न पा सकते हों सीमा, हमारी सामर्थ्य न हो, हमारे साधन सकता। दो-चार-दस को बुलाता है, तब पी सकता हूं। वह सीमित हों, पर फिर भी कहीं इसकी सीमा तो होगी ही। यह बात हुल्लड़ मचेगी, तुम्हें अच्छा न लगेगा। खयाल में थी। और यह भी बात खयाल में थी कि यह संसार मैंने कहा, फिर शराब पाप न रही, फिर पुण्य हो गयी। मैं भी जैसा है, बस वैसा ही है। अब इसमें नया क्या हो सकता है! बैलूंगा और मजा लूंगा। पी तो नहीं सकता, क्योंकि मैंने कोई नया आएगा कहां से? संसार के बाहर तो कुछ और है नहीं। तो और शराब पी ली है और अब कोई शराब उसके ऊपर नहीं हो जो है, है। इसी में रूपांतरण होता रहता है, रूप बदलते रहते हैं। सकती। लेकिन बैलूंगा। यह तो पुण्य हो गया, यह तो प्रार्थना हो | नदी का जल सागर में गिर जाता है। सागर का जल बादलों में गयी कि आप लोगों को बुलाकर पीते हैं। यह तो मुझे अत्यंत उठ जाता है। बादलों का जल नदी में गिर जाता है। लेकिन जल खुशी की बात मालूम पड़ी कि आप अकेले नहीं पी सकते। तो तो घूमता रहता है-वही का वही है। 31 2010_03 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 जिन सूत्र भाग: 2 फिर आइंस्टीन की खोजों ने एक बड़ा अनूठा आयाम खोला। वह आयाम यह था कि संसार जैसा है वैसा ही नहीं है, विस्तीर्ण हो रहा है। 'एक्सपैंडिंग यूनिवर्स ।' फैलता जा रहा है ! बड़ी तीव्र गति से फैल रहा है! जैसे कोई छोटा बच्चा अपने गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जा रहा हो ! तब ब्रह्म शब्द के नये अर्थ उभरकर आए। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता : 'दि एक्सपैंडिंग वन ।' वह जो | फैलता ही जा रहा है । ब्रह्म का अर्थ है : विस्तीर्ण होता जा रहा है। जो ठहरा नहीं है। जो कहीं ठहरता नहीं। जो किसी सीमा को सीमा नहीं बनाता, हमेशा सीमा के ऊपर से बह जाता है। अगर तुम्हें परमात्मा को जानना हो, तो छोटे पैमाने पर ही सही, लेकिन तुम भी सीमा मत बनाना। फैलना, फैलते जाना! सुगंध हो तुम्हारे पास, बांटना हवाओं को ! प्रकाश हो, बांट देना रास्तों पर! बोध हो, दे देना दूसरों को ! जो कुछ भी तुम्हारे पास हो... ! । और ऐसा तो कौन है मनुष्य जिसके पास कुछ भी न हो ! ऐसा मनुष्य है ही नहीं कोई कि जिसके पास कुछ भी न हो परमात्मा तो सभी के भीतर है, इसलिए कुछ न कुछ तो होगा। खोजना। तुम अकारण नहीं हो सकते। तुम्हारे द्वारा उसने कोई गीत गाना ही चाहा है। तुम्हारे द्वारा उसने कोई नाच नाचना ही चाहा है। तुम्हारे द्वारा उसने कोई फूल खिलाना ही चाहा है। व्यर्थ तुम नहीं हो सकते। तुम्हारी कोई नियति है । तुम्हारे भीतर छिपा हुआ कोई राज है । खोलो, खोजो ! मेरे लिए धर्म उसी रहस्य को खोजने की कुंजी है। तुम तुम बनो! तुम्हारी नियति खुले, बिखरे, फैले। तुम्हारे जीवन में बाढ़ आए। इसी को तो महावीर ने कहा कि मुनि जैसे-जैसे उस अश्रुतपूर्व को सुनता, जानता; जैसे-जैसे अतिशय रस के अतिरेक से भरता, वैसे-वैसे प्रफुल्लित होता; वैसे-वैसे उत्साहित होता; वैसे-वैसे फूल खिलने लगते हैं, कमल खिलने लगते हैं, पंखुड़ियां खुलने लगती हैं, कलियां फूल बनतीं। फैलो ! कली भत रह जाना। वही दुर्भाग्य है। मेरे लिए अधार्मिक आदमी वही है, जो कली रह गया। धार्मिक वही है, जो फूल बन गया। फूलो! फैलो ! कोई सीमा मत बांधो। बाढ़ बनो। और तुम जितना फैलोगे, तुम पाओगे उतनी ज्यादा फैलने की क्षमता आने लगी। तुम जितना बांटोगे, 2010_03 उतना पाओगे मिलने लगा । और कुछ भी पाप नहीं है, रोक लेना पाप है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि रुपया जितना चले उतना समाज संपन्न होता है । इसीलिए तो रुपये को 'करेंसी' कहते हैं । 'करेंसी' का मतलब, जो चलता रहे, भ्रमण करता रहे। अब समझ लो कि दस आदमी हैं गांव में और दसों के पास दस रुपये हैं, वे दसों अपने रुपयों को रखकर बैठ गये हैं, तो गांव में केवल दस रुपये हैं। फिर दसों अपने रुपयों को चलाते हैं। एक-दूसरे से सामान खरीदते हैं। एक का रुपया दूसरे के पास जाता है, दूसरे का तीसरे के पास जाता है- — दस रुपये के सौ हो जाते हैं, हजार हो जाते हैं। क्योंकि रुपया आता है, जाता है। पकड़े रहो, तो एक ही रहता है। आता रहे, जाता रहे, तो अनेक हो जाते हैं। तुम गड़ाकर रख दो जमीन में, 'करेंसी' 'करेंसी' न रही, मर गयी । इसीलिए तो कंजूस आदमी से अभागा आदमी दुनिया में दूसरा नहीं है । 'करेंसी' मार डालता है। चलने नहीं देता । चलन को रोक देता है। नदी को बहने नहीं देता, डबरा बना लेता है । फिर डबरा सड़ता है । फिर डबरे में घास-पात गिरते हैं, बदबू आती है। कृपण आदमी में बदबू आती है। इसीलिए तो दानी की इतनी महिमा रही है। दान को धर्म का आधार कहा है; लोभ को पाप का । कारण, लोभ रोक लेता है; दान बांट देता है। दान से चीजें फैलती हैं। और जो बात बाहर की संपदा के संबंध में सही है, मैं तुमसे कहना चाहता हूं, भीतर की संपदा के संबंध में और भी ज्यादा सही है। जब बाहर की संपदा रोक लेने से मर जाती है— मरी - मरायी संपदा भी रोक लेने से मर जाती है— जब बाहर की संपदा चलाने से मरी-मरायी संपदा भी जीवित मालूम होने लगती है, तो भीतर की थोड़ी सोचो ! वहां का धन तो जीवंत धन है। उसे रोका गया ! उसे चलने दो। चलन में रहने दो। 'करेंसी' बनाओ। एक ही पाप है मेरी दृष्टि में। और वह पाप है, जो तुम्हें मिला है भीतर, उस पर तुम सांप की तरह कुंडली मारकर बैठ गये हो, तो पाप है। उसे बांटो ! परमात्मा बांटने के नियम को मानता है, फैलने के नियम को मानता है। तुम भी फैलो ! नहीं, स्वाद में कोई पाप नहीं; लेकिन स्वाद अकेले मत लेना। बांटना । भोजन में कोई पाप नहीं है । उसी की भूख है! लेकिन जो तुम्हारे पास हो उसे बांटकर खाना । इतना भर स्मरण रहे ि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से किसी भी चीज की मालकियत मत बनाना। आए हाथ में, चली | कभी-कभी तुम चौंककर पाओगे, कौन-कौन है? जाने देना। जैसी आयी, वैसी जाने देना, बहने देना। जहां तुम जब सुरति बंधेगी, जब मेरा तुम्हारा धागा मिलेगा, तो मालिक बने, वहीं पाप शुरू हुआ। जब तक तुम मालिक नहीं | अचानक 'मैं' और 'तू' की आवाजें बंद हो जाएंगी। सुनने के हो, केवल संपदा को यहां से वहां जाने देने के माध्यम हो, किसी गहन क्षण में कभी-कभी क्षणभर को 'तारी' लग उपकरण हो, निमित्त मात्र हो-वहां तक परमात्मा तुम्हारे भीतर जाएगी। वह क्षणभर की 'तारी' समाधि के अनुभव-जैसी है। खूब खिलेगा, खूब फैलेगा। तो एक ही सूत्र याद रखने जैसा है: क्षणभर का है—आएगा, जाएगा लेकिन स्वाद दे जाएगा। कृपण मत होना। बूंद एक गिर जाएगी अमृत की। फिर तुम तड़पोगे। फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम थे कल तक। तम किसी को समझा भी चौथा प्रश्न : पिछले दिन आपका प्रवचन सुनते हुए आपकी न सकोगे कि क्या हो गया है। बताने का भी कोई उपाय न आवाज से हृदय और कर्ण-तंतुओं पर एक अजीब तरह का | पाओगे। बेबूझ होगी घटना। लेकिन इतनी गहन होगी कि उसे कंपन हुआ और तब से साधारण ध्वनियां भी अजीब कंपन | तुम इनकार भी न कर सकोगे। और आनंद की लहर पैदा कर रही हैं। कृपया बताएं कि क्या | । इधर मैं बोल रहा हूं, तो तुम्हें कुछ समझाने को नहीं। इस बुद्धपुरुषों के स्वर में कुछ है, जो विशेष प्रभाव पैदा करता है? खयाल में पड़ना ही मत। यहां मैं बोल रहा हूं तुम्हें कुछ समझाने साथ ही आपकी उपस्थिति में एक विशेष आनंददायक गंध को नहीं। यहां मैं बोल रहा हूं कि बोलने के माध्यम से मेरा और मिलती है; और वह कभी आश्रम में और कभी ध्यान के समय तुम्हारा तालमेल किसी क्षण बैठ जाए। कब बैठ जाए, कोई भी मिलती है। इस संदर्भ में भी बताएं कि क्या काल या जानता नहीं। कब किसका बैठ जाए, कोई जानता नहीं। कब समय-विशेष की विशेष गंध भी होती है? | किसकी घड़ी आ जाए, कोई जानता नहीं। मगर सुनते-सुनते...इसीलिए तो रोज बोले चला जाता हूं। अगर सुनोगे यदि, तो कुछ निश्चित कंपेगा हृदय में। जगह दोगे मुझे कुछ समझाना होता, तो बात खतम हो जाती। यह बात खतम भीतर आने की थोड़ी; राह में न अड़कर खड़े हो जाओगे; | होनेवाली नहीं है, क्योंकि समझाने से इसका कोई संबंध नहीं है। द्वार-दरवाजा बंद न करोगे, खोलोगे; तो हवाएं आएंगी, सूरज यह बात चलती रहेगी। क्योंकि इसका प्रयोजन कुछ और ही है। की रोशनी आएगी, भीतर कछ होगा। अगर तमने मझे जगह दी, इसका प्रयोजन रासायनिक है, बौ तो जो मेरे भीतर हुआ है, उसके कंपन तुम तक पहुंचेंगे। 'अल्केमिकल' है। इसका प्रयोजन है कि सुनते-सुनते, , यही तो सत्संग का अर्थ है। यही तो सारा प्रयोजन है कि मैं सुनते-सुनते, कभी-कभी एक क्षण को तुम अपने को भूल यहां हूं और तुम यहां हो। यही तो प्रयोजन है कि किसी भांति मेरे जाओगे। सुनने में लवलीन हो जाओगे, तल्लीन हो जाओगे, हृदय और तुम्हारे हृदय की लयबद्धता बंध जाए। किसी भांति, | तन्मय हो जाओगे; एक क्षण को तुम भूल जाओगे, वह जो जिस लय से, जिस तरंग से मैं जी रहा हूं, उस तरंग का तुम्हें भी अहंकार तुम चौबीस घंटे पकड़े रखते हो, एक क्षण को तुम्हारे थोड़ा-सा स्वाद आ जाए, अनुभव आ जाए। | हाथ से छूट जाएगा। किसी पंक्ति के काव्य में डूबकर, क्षणभर उपाय क्या है? को तुम छुटकारा पा जाओगे अपनी सहज अहंकार की व्यवस्था थोड़ी दूर मेरे साथ चलो। थोड़ी दूर मेरे साथ धड़को। थोड़ी दूर से। उसी क्षण में मिलन हो जाएगा। उसी क्षण में तीर की तरह मैं मेरे साथ श्वास लो। जब तुम मुझे गौर से सुनोगे, तो तुम तुम्हारे हृदय में चुभ जाऊंगा। एक बूंद तुम पर बरस जाएगी। पाओगे, तुम वहां सुननेवाले नहीं रहे, मैं यहां बोलनेवाला नहीं मेघ तो दूर हैं, लेकिन एक बूंद बरस जाए, तो फिर चातक रहा, दोनों की सीमा-रेखाएं कहीं घुल-मिल गयीं। कभी-कभी | प्रतीक्षा कर सकता है जन्मों-जन्मों तक। फिर कोई अड़चन नहीं तुम पाओगे, तुम यहां बोलनेवाले होकर बैठ गये, मैं वहां | है। फिर चातक जानता है कि होता है सत्य होता है प्रेम होती सुननेवाला होकर बैठ गया। है प्रार्थना; होते हैं ऐसे क्षण जिनको परमात्मा के कहने के 133 2010_03 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं कि है परमात्मा! कि कहीं पैदा हुई, वह तरंग तुम्हारी है। इसलिए मेरे सुनने से तुम उसको ऐसी घड़ी आती है जीवन में, जब हजार-हजार सूरज प्रगट हो बांध मत लेना। वह तरंग तो तुम्हारी है। मेरा बोलना तो जाते हैं। हजार-हजार नीलकमल तुम्हारे प्राणों में खिल जाते हैं। निमित्त-मात्र था। मेरे बोलने की संगति में तुम अपने ही भीतर के बोलता हूं; इस बोलने का प्रयोजन ऐसे ही है जैसे कोई किसी छिपे हुए तल से परिचित हुए हो। लेकिन परिचित तुम संगीतज्ञ वीणा को बजाए। तो कुछ समझाने को नहीं बजाता। | अपने ही भीतर के तल से हुए हो। मेरे प्रकाश में जो तुमने देखा तुम मुझे एक वीणावादक की तरह याद रखना। यह बोलना मेरी है, वह तुम्हारा ही है; वह मेरा नहीं है। रोशनी मेरी होगी, लेकिन वीणा है। यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं, कह कम रहा हूं, गा ज्यादा जो खजाना तुमने खोज लिया है वह तुम्हारा ही है। रहा हूं। इसका प्रयोजन तुम्हारी समझ में आ जाए, तो बस काफी इसलिए तुम यह मत सोचना कि वह, यहां मुझे सुनना तुमने है। वह प्रयोजन इतना ही है, इस वाद्य को सुनते-सुनते...जैसे | बंद किया कि खो जाएगा। जो इस तरह हो कि मेरे सुनने से पैदा वीणा को सुनते-सुनते कभी-कभी ‘तारी' लग जाती है। डोलने | हो और बाहर जाते ही खो जाए, तो समझना कि तुमने सुना ही लगता है आदमी। कुछ भीतर कंपने लगता है। कोई पत्थर जैसी नहीं। वह बौद्धिक था। वह सिर की खुजलाहट थी। सुन चीज भीतर पिघलने लगती है, बहने लगती है। एक क्षण को लिया, अच्छा लगा, मनोरंजन हुआ, लेकिन तुम कहीं हिले. एक झरोखा खुलता, एक वातायन खुलता, आकाश दिखायी नहीं। तुम्हारी नींव का कोई पत्थर न सरका। तुम्हारे भीतर कोई पड़ जाता है। जैसे बिजली कौंध गयी। अंधेरा खो गया—एक नये का उदघाटन न हुआ, कोई नये का आविष्कार न हुआ। तो क्षण को सही-लेकिन फिर तुम जानते हो कि प्रकाश है, और थोड़ी-सी शब्दों की, सूचनाओं की, तथ्यों की संपदा बढ़ तुम यह भी जानते हो कि राह है। एक क्षण को दिखी थी बिजली जाएगी, उधारी थोड़ी और तुम्हारी बढ़ जाएगी। तुम और उधार की कौंध में, लेकिन दिख गयी। अब तुम्हें कोई यह नहीं कह हो गये, तुम्हारा नगद होना और भी ढंक गया। इससे कुछ लाभ सकता कि राह नहीं है, और तुम्हें कोई यह नहीं कह सकता कि न होगा। तुम ज्ञानी बन जाओगे, पंडित बन जाओगे, लेकिन प्रकाश सब कल्पना है, कि प्रकाश सब सपना है। अब तुम्हें इससे धर्म का जन्म न होगा। कोई भी झुठला न सकेगा। यह है प्रयोजन। अगर सच में तुमने सुना, ऐसी गहनता से सुना कि तुम्हारा पूरा तो ऐसा हो सकता है, सनते-सनते एक कंपन हो गया हो। हो | व्यक्तित्व जैसे कान हो गया_आंख भी कान. हाथ भी कान. जाए कंपन, तो एकदम खो भी न जाएगा, क्योंकि इतना गहरा हृदय भी कान-जैसे तुम सिर्फ एक द्वार हो गये, और तुमने मुझे घटता है! फिर तुम चले भी जाओगे उठकर यहां से, तो कंपन आने दिया—तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि कितना मुझे आने जारी रहेगा। और तब उन कंपती हुई नयी तरंगों के आधार से दोगे—अगर तुम मुझे पूरा आने दो तो तरंगें नहीं, अंधड़ उठ जब तम वक्षों को देखोगे, तो उनकी हरियाली और ही होगी! जाएंगे। अगर तुम मुझे पूरा आने दो तो तूफान उठ जाएंगे। अगर उन्हीं फूलों को जिन्हें कल भी देखा था, फिर देखोगे, तुम पाओगे | तुम मुझे पूरा आ जाने दो, हिम्मत करके तुम पूरे द्वार-दरवाजे उन फूलों की कोमलता और ही है! कोई दिव्य आभा उन्हें घेरे खोल दो और कहो कि आओ, राजी हूं-इसी को तो मैं संन्यास है। हरियाली के चारों तरफ कोई आभामंडल वृक्षों को घेरे है। कहता हूं, इसी को तो मैं दीक्षा कहता हूं तो तुम फिर दुबारा उन्हीं लोगों को देखोगे, अपनी पत्नी को घर जाकर देखोगे और वही न हो सकोगे। एक नये जीवन का प्रारंभ हुआ। फिर तो मुझे पाओगे, वह तुम्हारी पत्नी ही नहीं, उसमें परमात्मा भी है। अपने बोलने की भी जरूरत न होगी। अगर तुम राजी हो और खुले हो, पति को घर जाकर देखोगे, तो पति होना गौण हो जाएगा, उसका तो मेरी चुप्पी भी तुम्हें कंपाएगी। क्योंकि असली में मेरा सवाल परमात्मा होना प्रमुख हो जाएगा। अपने बेटे को देखोगे, तो बेटा | ही नहीं है। ही नहीं रह जाएगा। मेरी खामोशी-ए-दिल पर न जाओ इस नये अनुभव के आधार पर तुम्हारे जीवन की सारी संरचना कि इसमें रूह की आवाज भी है | में क्रांति होने लगेगी। क्योंकि जो तरंग तुम्हारे भीतर मुझे सुनकर बोलता हूं, या चुप हूं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। बोलूं तो 2010_03 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूह की आवाज है, न बोलूं तो रूह की आवाज है। तुम जब सुनने में तत्पर हो जाओगे, जब तुम सुनने में कुशल हो जाओगे, तो तुम मेरी चुप्पी को भी सुन सकोगे, मेरे मौन को भी सुन सकोगे F मेरी खामोशी-ए-दिल पर न जाओ कि इसमें रूह की आवाज भी है आज तुम शब्द न दो, न दो कभी मैं हूं तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखंडों के गरिष्ठपुंज चांपे इस निर्झर को रहो, रहो तुम्हारे रंध्र- रंध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूटकर - मैं बहूंगा तुम्हीं ने धमनी में बांधा है लहू का वेग यह मैं अनुक्षण जानता हूं गीत जहां सब कुछ है, तुम धृति - पारमिता जीवन के सहज छंद तुम्हें पहचानता हूं मांगो तुम चाहो जो ः मांगोगे, दूंगा तुम दोगे जो — मैं सहूंगा आज नहीं कल सही, कल नहीं युग-युग बाद ही : मेरा तो नहीं है यह चाहे वह मेरी असमर्थता से बंधा हो मेरा यह भाव - यंत्र ? एक मचिया है सूखी घास-फूस की उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो आज नहीं कल सही, चाहूं भी तो कब तक छाती में दबाए यह आग -- मैं रहूंगा ? आज तुम शब्द न दो, न दो 2010_03 यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से कल भी मैं कहूंगा। कवि के ये शब्द बड़े गहन हैं। परमात्मा जब उतरता है, छिपाना मुश्किल । परमात्मा जब उतरता है, तो उसे प्रगट होने देने से रोकना मुश्किल। परमात्मा जब उतरता है, तो प्रगट होगा ही । एक मचिया है, सूखी घास-फूस की मेरा यह भाव-यंत्र चाहे वह मेरी असमर्थता से बंधा हो मेरा तो नहीं है यह उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो आज नहीं कल सही, चाहूं भी तो कब तक छाती में दबाए यह आग — मैं रहूंगा आज तुम शब्द न न दो कल भी मैं कहूंगा। जिसके जीवन में परमात्मा उतरा है, उसे खोजना ही पड़ेगा संवाद का कोई उपाय। उसे शब्द खोजने ही पड़ेंगे, क्योंकि उसे बांटना पड़ेगा। उसे साझीदार बनाने ही होंगे। यहां मैं बोले चला जा रहा हूं, सिर्फ इसीलिए कि तुम साझीदार बनो । निमंत्रण है मेरा कि जो मुझे हुआ है, चाहो तो तुम्हें भी हो सकता है। आग यहां लगी है, एक चिनगारी भी तुम ले लो तो तुम्हारे भी सूर्य प्रज्वलित हो जाएं। दीया यहां जला है, तुम जरा मेरे पास आ जाओ, या मुझे पास आ जाने दो, तो तुम्हारा दीया भी जल जाए । जलते ही मेरा न रह जाएगा । जलते ही तुम पाओगे तुम्हारा ही था, सदा से तुम्हारा था। और पूछा है कि आपकी उपस्थिति में एक विशेष आनंददायक गंध मिलती है और कभी आश्रम में, कभी ध्यान के समय में भी मिलती है। वह गंध भी तुम्हारी ही है। कस्तूरी कुंडल बसै। इसमें मेरी चेष्टा इतनी ही है कि तुम्हें तुम्हारी तरफ उन्मुख कर दूं, कि तुम्हें धक्का दे दूं तुम्हारी तरफ। कहां भागे फिरते हो ? कहां ढूंढ़ते हो कस्तूरी? तुम्हारी ही नाभि में छिपी है। हां, कभी-कभी मुझे सुनते-सुनते तुम्हें गंध आ जाएगी। तुम सोचोगे, मेरी है। तुम्हारी है ! तुम शांत हो गये सुनते-सुनते, थिर हो गये 35 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 जिन सूत्र भाग: 2 सुनते-सुनते सुनते-सुनते तन्मयता जगी, उस तन्मयता में तुम्हारी ही गंध ने तुम्हें छू लिया और भर दिया । इसीलिए तो कभी ध्यान में भी उठेगी। अगर मेरी होती तो तुम्हारे ध्यान में कैसे उठती ! मेरा कुछ लेना-देना नहीं। मैं तो दर्पण हूं, तुम अपने को ही देख लो। दर्पण से ज्यादा नहीं। पर उतना ही प्रयोजन है। मैं यहां नहीं हूं। दर्पण कुछ होता थोड़े ही है, दर्पण तो एक खालीपन है। तुम हटे कि दर्पण खाली । तुम आए कि दर्पण भरा लगता है। सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजरता था। एक दर्पण पड़ा मिल गया । उठाकर देखा । कभी दर्पण इसके पहले उसने देखा न था । सोचा, अरे! तस्वीर तो मेरे पिताजी की मालूम पड़ती है। मगर जवानी की होगी। हद्द गयी! मैंने कभी सोचा भी न था कि मेरे पिताजी और तस्वीर उतरवाएंगे ! ऐसे रंगीन तबीयत के तो आदमी न थे! मगर मिल गयी तो अच्छा हुआ। झाड़-पोंछकर खीसे में रखकर घर चला आया । कहीं बच्चे, पत्नी फोड़-फाड़ न दें, खो-खवा न दें, ऊपर चढ़ गया, छप्पर में छिपाकर रख आया। लेकिन पत्नी से कभी कोई पति कुछ छिपा पाया है! पत्नी ने देखा, कुछ छिपा रहा है। रात जब मुल्ला सो गया तो वह उठी, दीया जलाया, छप्पर के पास गयी, निकाला, देखा; तो उसने कहा अरे ! तो इस औरत के पीछे दीवाना है ! आज पता चला ! दर्पण हूं मैं । तुम जो लेकर आओगे वही तुम्हें दिखायी पड़ जाएगा। दर्पण से ज्यादा नहीं। इसलिए किन्हीं - किन्हीं क्षणों में जब तुम अपनी ऊंचाई पर होओगे, तो तुम्हें अपनी ऊंचाई भी मुझमें दिखायी पड़ जाएगी। और किन्हीं - किन्हीं क्षणों में जब तुम अपनी नीचाई पर होओगे, तो तुम्हारी नीचाई भी मुझमें दिखायी पड़ जाएगी। तो जो जैसा आता है वैसा, वैसा ही मुझमें देखकर लौट जाता है। किन्हीं गहन क्षणों में जब तुम अपनी आखिरी ऊंचाई पर छलांग लेते हो, क्षणभर को उड़ते हो आकाश में, तब तुम्हें ऐसा लगेगा कि ये ऊंचाइयां मेरी तो नहीं हो सकतीं; तो तुम सोचोगे कि शायद किसी और की, किसी और ने दिखा दीं। लेकिन स्मरण रखना, तुम्हारी ही ऊंचाइयां हैं, तुम्हारी ही नीचाइयां हैं; मुझ पर मत थोपना। क्योंकि उस थोपने में भ्रांति हो जाती है। उस थोपने में बड़ी भूल हो जाती है। 2010_03 हां, मेरी निकटता में तुम्हें कुछ दिखायी पड़ सकता है। तो न तो इस दर्पण की पूजा करना। क्योंकि तुम सोचोगे, यह गंध इसी दर्पण से उठी; यह स्वाद इसी दर्पण से आया। इस दर्पण की पूजा में मत पड़ना। और न नाराज होकर इस दर्पण को तोड़-फोड़ देना। इन दोनों से बचना। आखिरी सवाल: आपने कहा कि संन्यास सत्य का बोध है। फिर क्या संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र और माला भी अनिवार्य हैं? और क्या कोई व्यक्ति बिना दीक्षा लिए आपके बताए मार्ग पर नहीं चल सकता है ? कृपाकर मार्गदर्शन करें। मार्गदर्शन के बिना भी चलो न ! मार्गदर्शन की क्या जरूरतहै? जब दीक्षा के बिना चल सकते हो... । दीक्षा और क्या है ? अत्यंत समीपता से लिया गया मार्गदर्शन है। बहुत पास से, बहुत करीब से, बहुत पास से सुना गया मार्गदर्शन है। श्रद्धा से सुना गया मार्गदर्शन है। दीक्षा और क्या है? मुझसे पूछते हो, मार्गदर्शन दें। तुम लेने को तैयार हो ? वही लेने की तैयारी तो संन्यास की घोषणा है कि मैं तैयार हूं, आप दें। मेरी झोली फैली है, आप भरें। फिर मैं अगर कंकड़-पत्थर से भी भर दूं, तो भी अगर तुमने श्रद्धा से स्वीकार किया हो तो वे कंकड़-पत्थर तुम्हारे लिए हीरे-मोती हो जाएंगे। लेकिन अगर तुमने अश्रद्धा से झोली फैलायी हो और हीरे-मोतियों से भी भर दूं, तो कंकड़-पत्थर हो जाएंगे। क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा बड़ी शक्ति है। तुम्हारी श्रद्धा बड़ा रूपांतर करनेवाली ऊर्जा है। सब कुछ तुम पर निर्भर है, अंततः तुम पर निर्भर है। अगर पात्र गलत हो, अगर पात्र दूषित हो, अगर पात्र गंदा हो, तो उसमें फिर शुद्ध जल न भरा जा सकेगा। मैं तो शुद्ध ढालूंगा, लेकिन वह तुम तक पहुंच न पाएगा। सब कुछ तुम पर निर्भर है। अगर मार्गदर्शन चाहिए, तो करीब आओ। संन्यास तो सिर्फ करीब आने की तुम्हारी तरफ से घोषणा है। गैरिक वस्त्र, माला तो केवल प्रतीक हैं। लेकिन तुम... और जीवन के अंगों में तुम प्रतीकों को सत्कारते हो या नहीं सत्कारते हो? तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया, तो तुम कुछ भेंट ले जाते हो कि नहीं ले जाते हो? फूल ले गये तुम, गुलाब का एक फूल ले गये - अपनी प्रेयसी को देने या प्रेमी को देने। वह प्रेयसी तुमसे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से पूछे, यह गुलाब के फूल में क्या धरा है? किसलिए ले आए में? क्योंकि प्रेम में स्तुति करने को तुम राजी नहीं। प्रेम में प्रार्थना गुलाब के फूल, क्या प्रेम काफी नहीं है? तो तुम भी चौंकोगे। करने को तुम राजी नहीं। तो फिर क्रोध में गाली भी छोड़ दो! तुम उसे आलिंगन करना चाहो; वह कहे दूर रहो, आलिंगन में नहीं, आदमी जहां है, वहां आदमी पृथ्वी और आकाश का क्या धरा है? क्या प्रेम बिना आलिंगन के नहीं हो सकता? तुम मिलन है; शरीर और आत्मा का मिलन है; स्थूल और सूक्ष्म का उसका हाथ हाथ में लेना चाहो और वह झिड़क दे और कहे, दूर | मिलन है। आदमी जहां है, वहां दो जगतों में एकसाथ खड़ा है। रहो ! इस हाथ में हाथ लेने से पसीना ही पैदा होगा, प्रेम कैसे पैदा | जड़ें जमीन में हैं, फूल आकाश में हैं। दोनों जुड़े हैं। होगा? प्रेम करो, यह फिजूल की बातें क्यों करते हो? तुम्हें पता ये गैरिक वस्त्र तो केवल प्रतीक हैं। लेकिन जिन्होंने भाव से है कैसे प्रेम करोगे फिर? फिर प्रेम का कोई उपाय न रह जाएगा। लिये हैं, उनके जीवन में क्रांति हो जाएगी। मैंने तो निश्चित भाव प्रेम जैसी अपूर्व घटना भी माध्यम चाहती है। नाव चाहती है, से दिये हैं। लेनेवाले पर निर्भर है। यह माला तो बस प्रतीक है। जिस पर सवार हो सके। प्रेम तो बड़ा सूक्ष्म है। कहीं स्थूल में इस माला में कुछ भी धरा नहीं। जड़ें देनी होंगी; नहीं तो प्रेम टिक न पाएगा। परसों एक मित्र पूछते थे—संन्यास उन्होंने लिया, भाववाले आकाश में खिले सुंदरतम फूल भी गहरी भूमि में गड़े होते हैं। व्यक्ति हैं। सरलचित्त हैं—पूछने लगे, इस माला का वैज्ञानिक वे अगर यह तय कर लें कि आकाश में ही रहेंगे, तो खो जाएंगे। | कारण क्या है? वैज्ञानिक कारण माला का हो ही कैसे सकता कमल जल के ऊपर उठा हुआ भी, सरोवर की कीचड़ में दबा है? वैज्ञानिक कारण-और माला का! कोई भी कारण होता है। अगर कमल कहे, क्या सार है कीचड़ में पड़े होने से? वैज्ञानिक नहीं हो सकता माला का-कारण धार्मिक है। कारण कीचड़ कीचड़ है, मैं कमल हूं। तो टूट जाएगा संबंध। कमल आत्मिक है, वैज्ञानिक नहीं है। तो मैंने उनसे कहा, वैज्ञानिक कुम्हलाएगा और मर जाएगा। पूछना हो तो 'लक्ष्मी' से पूछ लेना। वैज्ञानिक कारण? प्रेम का तुमने कभी खयाल किया, किसी ने प्रेम से तुम्हें एक रूमाल कहीं कोई वैज्ञानिक कारण होता? भेंट दे दिया; उस रूमाल का मूल्य फिर नहीं रह जाता, अमूल्य मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की के प्रेम में एक युवक पड़ गया। हो जाता है! ऐसे बाजार में चार आने में मिलता है। लेकिन वह आया, उसने मुल्ला को कहा कि आपकी लड़की से मुझे प्रेम तुमसे कोई कहे कि चार आने में दे दो, तो तुम कहोगे, पागल हो हो गया है, मुझे विवाह की आज्ञा दें। मुल्ला ने कहा, पहले सिद्ध गये हो? प्राण चले जाएं, इसे न दे सकूँगा। वह कहेगा, तुम करो, प्रेम का कारण क्या है? उस युवक ने कहा, कारण कुछ पागल या मैं पागल? चार आने में जितने चाहो बाजार में मिलते भी नहीं है, महानुभाव! प्रेम हो गया है। प्रेम में कहीं कारण हैं। दर्जन से लो तो और भी सस्ते मिलते हैं। क्या पागल हो रहे | होता? और जहां कारण हो, वहां प्रेम हो सकता है? कारण हो हो? लेकिन तुम कहते हो, मेरी प्रेयसी की याददाश्त है। या मेरे तो प्रेम हो ही नहीं सकता। कारण हो तो व्यवसाय होता है, धंधा मित्र की याददाश्त है। किसी ने बहुत भाव से दिया है। होता है, सौदा होता है। अकारण होता है प्रेम। छोटे-छोटे प्रतीक हैं। छोटे-छोटे प्रतीकों पर बसा बड़ा तुम्हारा मुझसे प्रेम हो गया है। मेरा तुमसे प्रेम हो गया है। अब आकाश है। प्रतीक को मत देखो, पीछे छिपे आकाश को देखो। कुछ प्रतीक देना जरूरी है। यह माला तो ऐसे समझो जैसे भांवर तुम गये, किसी के चरणों में सिर रखा। क्या सार है? श्रद्धा पड़ गयी। फंसे! यह तो एक तरह का विवाह हुआ। इसका कोई क्या बिना चरणों में सिर रखे नहीं हो सकती? ठीक! किसी पर | कारण नहीं है। यह प्रेम हो गया। इसका कोई बुद्धियुक्त हिसाब तुम्हें क्रोध आ जाता है, तुम क्या करते हो? उठाकर जूता उसके | नहीं है। यह कुछ हृदय की बात हो गयी। सिर पर मार देते हो। तुम क्या कर रहे हो? श्रद्धा के विपरीत। तुमने मेरे हाथ में हाथ डाल दिया; मैंने तुम्हारा हाथ अपने हाथ उसका सिर अपने चरणों में रख रहे हो। क्रोध बिना इसके नहीं में ले लिया। इसकी याददाश्त के लिए तम्हें यह माला दे दी कि हो सकता? क्रोध में जूता उठाने की क्या जरूरत है? जूते और अब तुम इसे याद रखना। अब तुम अकेले नहीं हो, मैं भी हूं। क्रोध का क्या लेना-देना? गाली देने की क्या जरूरत है क्रोध अब तुम जो करो, मुझे भी याद रखकर करना। अब तुम जो भी 2010_03 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 जिन सूत्र भाग: 2 बनो, मैं भी जुड़ा हूं। अगर शराबघर जाओ, जाना — लेकिन मुझको भी घसीटोगे। यह माला लटकी रहेगी। यह कहती रहेगी, अकेले नहीं जा रहे हो। यह तुम्हें रोकेगी । यह कई बार तुम्हारे पैर को आगे बढ़ने से रोक लेगी। यह कई बार तुम्हें उस जगह ले जाएगी जहां तुम कभी न गये थे, और उस जगह से रोक | देगी जहां तुम बहुत बार गये थे। क्रोधित होने को हो रहे होओगे कि यह माला दिखायी पड़ जाएगी। आग-बबूला होने को जा ही रहे थे, कि हाथ उठाकर मारने को ही थे कि यह गैरिक वस्त्र दिखायी पड़ जाएंगे, कोई भीतर लौट जाएगा। कहेगा, यह तुम क्या कर रहे हो ? | अब तुम ही नहीं हो, अब मैं भी तुम्हारे साथ प्रतिबद्ध हुआ । यह एक 'कमिटमेंट' है, एक प्रतिबद्धता है। यह मेरा भरोसा है तुम पर। यह मैं कहता हूं कि ठीक है, अब तुम नरक जाओगे तो मुझको भी जाना पड़ेगा। तुम्हारी मर्जी! प्रेम में घसिटन तो होती है। अगर तुम नर्क ही जाना चाहोगे तो ठीक है, मैं भी आऊंगा; लेकिन अब अकेला न छोडूंगा। ये सिर्फ प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है । इनकी कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं हो सकती — जरूरत भी नहीं है। इंकलाब का मुदा है, इंकिलाब नहीं ये आफताब का परतौ है, आफताब नहीं यह केवल शुभ समाचार है क्रांति का, यह क्रांति नहीं है। तुमने वस्त्र पहन लिये गैरिक तो कोई क्रांति हो गयी, ऐसा नहीं है— सिर्फ शुभ समाचार है। ये तो केवल झलक है। . आफताब नहीं। और, सूरज से जुड़ा है गैरिक रंग। यह सूरज का रंग है । यह सूरज की पहली किरण का रंग है। यह सूर्योदय की खबर है। यह एक शुभ समाचार है। यह तो शुरुआत है मेरे साथ जुड़ने की। इसे अंत मत समझ लेना । भड़कती जा रही है दम-ब-दम इक आग-सी दिल में ये कैसे जाम हैं साकी, ये कैसा दौर है साकी है यह तो तुम राजी हुए, तो शुरुआत हुई। बहुत पीने-पिलाने को । यह तो तुम निमंत्रण स्वीकार कर लिये । I भड़कती जा रही है दम-ब-दम इक आग-सी दिल में ये गैरिक वस्त्र तो उस भीतर दिल की आग के बाहर प्रतीक हैं। कैसे जाम हैं साकी, ये कैसा दौर है साकी वे यह तो सूचना है सारे जगत को । यह खबर है औरों को कि जान लें कि अब तुम वही नहीं हो जो कल तक थे। यह तो खबर है औरों को कि अब वे तुमसे अपेक्षा न करें - वैसी अपेक्षाएं जैसी उन्होंने कल तक की थीं। यह तो खबर है औरों को कि अब वे गाली दें, तुम उत्तर न दोगे। यह तो उनको खबर है कि तुम बदल गये, कि तुम मर गये और नये हो गये, कि तुम्हें सूली लग गयी और तुम्हारा नया पुनर्जन्म हुआ। बागवानों को बताओ, गुलो-नसरी से कहो इक खराबे - गुलो-नसरीने बहार आ ही गया जाओ! मालियों को बताओ! खबर कर दो बागवानों को ! बागवानों को बताओ, गुलो-नसरी से कहो और फूलों से कह दो। ये इंकिलाब का मुज्दा है इंकिलाब नहीं तुमने गैरिक वस्त्र पहन लिये, तो कोई सूरज उग गया, ऐसा बच्चों को हम पढ़ाते हैं, 'ग' गणेश का - पहले पढ़ाते थे, अब नहीं है। यह तो केवल प्रतिबिंब है। आफताब का परत है.. पढ़ाते हैं 'ग' गधे का । क्योंकि गणेश तो एक 'सेकुलर' राज्य में, धर्म-निरपेक्ष राज्य में ठीक नहीं है। गधा प्रतीक है। 'ग' गधे का। हालांकि 'ग' न गधे का है और न गणेश का । मगर बच्चे को पढ़ाने के लिए कुछ तस्वीर देनी पड़ती है—– 'ग' गधे का, 'ग' गणेश का, कुछ तो; क्योंकि बच्चा 'ग' नहीं जानता, गधे को जानता है। गधे के साथ 'ग' सीख लेता है । फिर गधा तो भूल जाता है 'ग' रह जाता है। फिर ऐसा थोड़े ही है कि जब भी तुम पढ़ोगे, तो कभी 'ग' आएगा तो फिर कहोगे 'ग' गधे तुम पढ़ ही न पाओगे । फिर तो गधे और गणेश सब का। 2010_03 इक खराबे - गुलो-नसरीने बहार आ ही गया जहां कोई आशा न थी वसंत आने की, वहां भी वसंत आ ही गया। यह तो सिर्फ वसंत के आने की खबर है। जिनके भीतर हिम्मत हो वसंत को झेलने की, इस आग में जलने की और निखरने की, शुद्ध सोना बनने की — मैं राजी हूं। प्रतीकों पर मत जाओ। यह तो बहाने हैं। इनसे धोखा मत खाओ। यह तो केवल शुरुआत है – अ, ब, स । जैसे छोटे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से walis गये। फिर तो 'ग' रह जाता है-शुद्ध। यह तो सिर्फ शुरुआत है-अ, ब, स। 'संन्यास' गैरिक वस्त्र का। 'संन्यास' माला का। लेकिन यह तो शुरुआत है। धीरे-धीरे जैसे तुम रगोगे-पगोगे, रस-भीगोगे, डूबोगे, संन्यास ही रह जाएगा; गैरिक वस्त्र और माला महत्वपूर्ण न रह जाएंगे। तुम कृतज्ञ रहोगे उनके लिए, क्योंकि उन्होंने यात्रा करवायी। पहला कदम उनसे उठा। तुम्हारा धन्यवाद उनके प्रति रहेगा। लेकिन तुम उनसे बंधे न रह जाओगे। ये बंधन तुम्हारी मुक्ति की तरफ पहले कदम हैं। आज इतना ही। 391 2010_03 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रवचन ज्ञान है परमयोग 2010_03 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेण तच्च विवुझेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।८५।। जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेए सुरज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।८६।। जे पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणन्नमविसेसं। अपदेससुत्तमझं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।८७।। जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीराद् तच्चदो भिन्नं। जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ।।८८।। एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्ख।। ८९।। - - का 2010_03 www.jametibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क यहूदी लोककथा है। बैठा, तो उसने कहा, अरे! किसकी कब्र है यह? और त यहां एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्न हो बैठा क्यों रो रहा है? उस बंजारे ने कहा, अब आप से क्या गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट | छिपाना, जो गधा आपने दिया था, उसी की कब्र है। जीते जी भी किया। बंजारा बड़ा प्रसन्न था गधे के साथ, अब उसे पैदलयात्रा उसने बड़ा साथ दिया, मरकर और भी ज्यादा साथ दे रहा है। न करनी पड़ती। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता। और सुनते ही फकीर खिलखिलाकर हंसने लगा। उस बंजारे ने पूछा, गधा बड़ा स्वामिभक्त था। आप हंसे क्यों? फकीर ने कहा, तझे पता है, जिस गांव में मैं लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पड़ा और मर | रहता हूं वहां भी एक पहुंचे हुए महात्मा की कब्र है। उसी से तो गया। दुख में उसने उसकी कब्र बनायी, और उस कब्र के पास मेरा काम चलता है। वह किस महात्मा की कब्र है, तुझे बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा। मालूम? उसने कहा मुझे कैसे मालूम, आप बतायें। उसने उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्मा की कहा, वह इसी गधे की मां की कब्र है। गयी। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा | धर्म के नाम पर अंधविश्वासों का बड़ा विस्तार है। धर्म के कुछ कहे, उसने कुछ रुपये कब्र पर चढ़ाये। बंजारे को हंसी भी नाम पर थोथे, व्यर्थ के क्रियाकांडों, यज्ञों, हवनों का बड़ा विस्तार आयी। लेकिन तब उस भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी है। फिर जो चल पड़ी बात, उसे हटाना मुश्किल हो जाता है। जो ठीक मालूम न पड़ा। और फिर उसे यह भी समझ में आया कि बात लोगों के मन में बैठ गयी, उसे मिटाना मुश्किल हो जाता यह तो बड़ा उपयोगी व्यवसाय हो गया। है। और इसे बिना मिटाये वास्तविक धर्म का कोई जन्म नहीं हो फिर वह उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो | सकता। अंधविश्वास न हटे, तो धर्म का दीया जलेगा ही नहीं। गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान अंधविश्वास उसे जलने ही न देगा। आत्मा की मृत्यु हो गयी; और गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए महावीर के सामने यह बड़े से बड़ा सवाल था। दो विकल्प फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत थे। दोनों खतरनाक थे। सभी बुद्धिमान व्यक्तियों के सामने यही धनी हो गया। सवाल है। और दो ही विकल्प हैं। एक विकल्प है नास्तिकता फिर एक दिन जिस सफी साध ने उसे यह गधा भेंट किया था का. जो अंधविश्वास को इनकार कर देता है। और अंधविश्वास वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी के साथ-साथ धर्म को भी इनकार कर देता है। क्योंकि लोगों ने कहा, एक महान आत्मा की कब्र है यहां, दर्शन किये नास्तिकता देखती है इस धर्म के ही कारण तो अंधविश्वास खड़े बिना मत चले जाना। वह गया। देखा वहां उसने इस बंजारे को होते हैं। तो वह कड़े-कर्कट को तो फेंक ही देती है, साथ में उस 2010_03 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भाग : 2 सोने को भी फेंक देती है। क्योंकि इसी सोने की वजह से तो | साथ ही धर्म से भी बच जाते हैं। कूड़ा-कर्कट इकट्ठा होता है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी; फिर दूसरा सामान्य विकल्प है तथाकथित धार्मिक आदमी वैसा नास्तिक का तर्क है। का। वह धर्म को तो पकड़ता है, लेकिन धर्म के साथ इतना नास्तिक बहुत थे भारत में जब महावीर पैदा हुए। चार्वाक की कूड़ा-कर्कट ले आता है कि उस कूड़े-कर्कट के कारण धर्म के बड़ी गहन परंपरा थी। चार्वाक शब्द ही आता है चारुवाक से। हीरे को खोजना ही मुश्किल हो जाता है। इसका अर्थ होता है, जो वचन सभी को प्रीतिकर लगते हैं। चारु महावीर जब जन्मे, दोनों विकल्प थे। एक तरफ आस्तिक वाक। जो धारणा सभी को प्रीतिकर लगती है। ईश्वर नहीं है, | था। धर्म का जाल था और उस धर्म में फंसे हुए लोग थे, जो बहुत गहरे में सभी को प्रीतिकर लगता है। क्योंकि ईश्वर नहीं है केवल पुरोहित-पंडित के हाथ में फंस गये थे। परमात्मा तक तो तम अनुभव करते हो कि तम स्वतंत्र हो। फिर तम्हारे ऊपर पहंचने का कोई उनके पास उपाय न था। पंडित ही बीच में उन्हें कोई भी नहीं है। ईश्वर नहीं है, तो फिर न कुछ पाप है, न पुण्य लूटे ले रहा था। और दूसरी तरफ नास्तिक थे, जिन्होंने पंडित को है। फिर जो मर्जी हो करो। चार्वाकों का दूसरा नाम है इनकार किया, साथ ही परमात्मा को भी फेंक दिया था। लोकायत। लोकायत का अर्थ भी होता है, जो लोक को प्रिय है। महावीर के सामने सवाल था धर्म बच जाए और अंधविश्वास. जो अधिकतम लोगों को प्रिय है। हट जाए। तो उन्होंने एक ऐसे धर्म को जन्म दिया, जिसमें तो चाहे तुम्हें ऊपर से अधिकतम लोग धार्मिक मालूम पड़ते नास्तिकता भी है और आस्तिकता भी। यह उनका अदभुत हों, लेकिन भीतर से जांचने जाओगे तो अधिकतम को तुम समन्वय था। इसलिए उन्होंने कहा, ईश्वर तो नहीं है। क्योंकि नास्तिक पाओगे। भला मंदिर-मस्जिद में मिलें वे तुम्हें, ईश्वर के साथ अंधविश्वास आने शुरू हो जाते हैं। ईश्वर किसी पूजा-प्रार्थना करते मिलें, लेकिन अंतर्तम में वे नास्तिक हैं। वे की पकड़ में आता नहीं। न समझ में आता। ईश्वर इतने दूर का | जानते हैं कि ईश्वर इत्यादि है नहीं। क्योंकि ईश्वर के होने का तारा है कि हमारी आंखें उसे देख भी नहीं पातीं। तो स्वभावतः अर्थ होता है, एक महान उत्तरदायित्व। फिर एक-एक कदम | इतने दूर की चीज को समझने के लिए बीच में दलाल खड़े करने कर रखना होगा। फिर पाप और पुण्य का विचार करना | होते हैं। यात्रा इतनी लंबी है कि बीच के पड़ाव बनाने पड़ते हैं। होगा। फिर तुम जो कर रहे हो, उसका निर्णय होने को है। वे ही पड़ाव मंदिर और मस्जिद, गुरुद्वारा बन जाते हैं। वे ही रत्ती-रत्ती का हिसाब चुकाना होगा। ईश्वर की मौजूदगी घबड़ाती | पड़ाव पंडित-पुरोहित बन जाते हैं। है। कोई भी तो नहीं चाहता कि सिर पर कोई और हो। ईश्वर के तो पुरोहित कहने लगता है, तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, लेकिन हटते ही मनुष्य अपना खुद मुख्तार हो जाता है। सब कुछ अपने मेरा सीधा संबंध है। पुरोहित कहने लगता है, तुम फिकिर मत हाथ में आ जाता है। करो, तुम्हारे लिए मैं प्रार्थना कर दूंगा। तुम चिंता छोड़ो। यह चार्वाकों ने कहा है-ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत। अगर ऋण तुमसे न हो सकेगा। तुम बड़े असहाय, बड़े कमजोर, बड़े लेकर भी घी पीना पड़े, कोई फिकिर नहीं। ले लो ऋण। सीमित हो। तो एक व्यवसाय खड़ा होता है मनुष्य और परमात्मा देना-लेना किसको है! बचता कौन है! लौटकर आता कौन है! के बीच में। परमात्मा तो नहीं मिलता, परमात्मा के नाम पर मरने के बाद कोई हिसाब नहीं है। न कर्म का, न पाप का, न धोखाधड़ी हाथ में आती है। पुण्य का; न शुभ का, न अशुभ का। कर लो जो करना है। एक | तो महावीर ने परमात्मा को तो इनकार कर दिया। इसलिए नहीं ही खयाल रखो, भोग लो, छीन-झपट से सही, चोरी-चपाटी से कि परमात्मा नहीं है। बल्कि इसलिए कि परमात्मा के कारण ही सही, लेकिन एक ही मल्य है नास्तिक के सामने किसी भी आस्तिक आस्तिक नहीं हो पा रहा है। महावीर परम आस्तिक थे तरह भोग लो। चूस लो जीवन में जो मिला है। फिर आना नहीं | इसलिए परमात्मा को इनकार कर दिया। क्योंकि देखा, यह होगा। बचोगे भी नहीं। मिट्टी, मिट्टी में गिरेगी और मिट औषधि तो बीमारी से भी महंगी पड़ रही है। इस औषधि को लाते जायेगी। तो नास्तिक अंधविश्वास से तो बच जाते हैं, लेकिन ही चिकित्सक बीच में खड़ा हो जाता है। बीच में दुकानदार खड़ा 46 2010_03 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान है परमयोग A हो जाता है। परमात्मा को इनकार कर दिया। लेकिन परमात्मा अपने-आप मुक्त होने लगोगे। तुम्हें जरा-सी भी याद आ जाए को इस तरह इनकार नहीं किया जैसा चार्वाक, लोकायत और कि तुम कौन हो, जैसे किसी भिखमंगे को याद आ जाए कि अरे! नास्तिक करते हैं। | मैं कहां भटक रहा हूं, मैं तो राजपुत्र हूं! जैसे किसी भिखमंगे को परमात्मा को बाहर तो इनकार कर दिया और भीतर स्थापित | याद आ जाए भूला-बिसरा धन, कि जहां बैठकर भीख मांग रहा कर दिया। कहा, मनुष्य के भीतर है परमात्मा। जो भीतर है, है, वहीं उसकी तिजोड़ी गड़ी है। याद आते ही-अभी तिजोड़ी उसके लिए पंडित और पुरोहित की जरूरत नहीं। वह इतने पास खोदी भी नहीं है लेकिन याद आते ही भिखमंगा भिखमंगा है, जगह कहां कि तुम अपने बीच और परमात्मा के बीच में नहीं रहा, उसके हाथ का भिक्षापात्र गिर जाएगा। पुरोहित को खड़ा कर लो। इतनी भी जगह नहीं। इतना भी स्थान मैंने सुना है, एक सम्राट अपने बेटे से नाराज हो गया तो उसे नहीं। तुम ही परमात्मा हो। इसलिए कहीं दूर का संदेश नहीं है, | निकाल दिया, राज्य के बाहर। राजा का बेटा था, कुछ और संदेशवाहक की जरूरत नहीं है। कहीं चिट्ठी-पाती लिखनी नहीं | करना जानता भी न था। मजदूरी कर न सकता था। कभी सीखी है, इसलिए डाकिये की कोई जरूरत नहीं है। आंख बंद करो, नहीं कोई बात। कोई कला-कौशल न आता था। तो जब कभी जागो, वह मौजूद है। | राजा हट जाए राज्य से, तो भिखारी होने के सिवाय कोई उपाय इसलिए महावीर ने आत्मा को परमात्मा के पद पर उठाया। नहीं रह जाता। तो यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं कि महावीर और यह बड़ी अनूठी दृष्टि थी। इस तरह नास्तिक के पास जो खूबी बुद्ध दोनों राजपुत्र थे और दोनों ने जब राज्य छोड़ा, तो दोनों भीख की बात थी—अंधविश्वास नहीं—वह भी महावीर ने पूरी कर मांगने लगे। यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं। राजपुत्र और कुछ ली और आस्तिक के पास जो खूबी की बात थी—धर्मभाव, जानता नहीं। या तो वह सम्राट हो सकता है, और या भिखारी हो श्रद्धा—वह भी पूरी कर ली। ऐसा अदभुत समन्वय न इसके सकता है। एक अति से दूसरी अति पर ही जा सकता है। बीच पहले कभी हुआ था, न इसके बाद हुआ। में कोई जगह नहीं। वह राजपत्र भीख मांगने लगा किसी दर की कुफ्रो-इलहास से नफरत है मुझे राजधानी में। और मज़हब से भी बेज़ार हूं मैं वर्षों बीत गये। भूल ही गया यह बात धीरे-धीरे। रोज-रोज नास्तिकता और अधर्म से भी नफरत है, और मजहब से भी भीख मांगो तो कहां, कैसे याद रहे कि तुम सम्राट के बेटे हो! बेजार हूं मैं। और धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह भी मन को कितनी दूर तक इसे याद रखोगे! रोज-रोज भीख मांगना, भीख बहुत पीड़ा देता है। का मिलना मुश्किल है। कपड़े उसके जराजीर्ण हो गये, पैर कुफ्रो-इलहास से नफरत है मुझे लहूलुहान हो गये, शरीर काला हो गया, अपना ही चेहरा दर्पण और मज़हब से भी बेज़ार हूं मैं में देखे तो पहचान न आये, भूल ही गया, फुर्सत कहां रही? हरो-गिल्मां का यहां जिक्र नहीं याद करने की सुविधा कहां रही? भीख मांगने से समय कहां कि नौए-इंसा का परस्तार हूं मैं याद करे, बैठे सोचे कि राजमहल...और फिर वह याद और यहां स्वर्ग के सुखों की कोई बात नहीं, मैं तो सिर्फ आदमी पीड़ादायी भी हो गयी। और उस याद से तो घाव को ही छेड़ना का उपासक हूं। महावीर ने आदमी को, ‘अत्ता' को, आत्मा को है। सार भी क्या है? उससे कुछ सुख तो मिलता नहीं, दुख ही सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रखा। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी, | मिलता है। कांटे चुभाने से बार-बार प्रयोजन क्या है! तो किसी ने कभी न दी थी। धीरे-धीरे हम उन बातों को भूल जाते हैं, जिनसे दुख मिलता है। इस बात को खयाल में लेकर चलें तो आज के सूत्र साफ हो | वह भूल गया। सकेंगे। क्योंकि आज के सूत्र मनुष्य की स्तुति में कहे गये सूत्र | उसका पिता बूढ़ा हुआ। एक ही बेटा था। पछताने लगा हैं। आज के सूत्र मनुष्य की महिमा के गीत हैं। इस महिमा की | बाप। अब मौत करीब आती है, अब कौन मालिक होगा इस तुम्हें जरा-सी भी झलक मिलनी शुरू हो जाए तो तुम क्षुद्र से | साम्राज्य का ? बुरा-भला जैसा था, उसने अपने वजीर भेजे कि 2010_03 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: E उसे खोज लाओ। जिस दिन वजीर उस गांव में पहुंचे जहां वह बाजार में सिर के पीछे तकिया लगाये, दोनों हाथों से संभाले भिखमंगा भीख मांग रहा था, एक छोटे-से होटल के सामने जहां चला जा रहा है। धीरे-धीरे लोग इकट्ठे हो गये। भीड़ जमा हो जआरी ताश खेल रहे थे वह भीख मांग रहा था गयी। फिर किसी ने कहा कि मुल्ला, माजरा क्या है? यह कर ठीकरे में। क्या रहे हो? इस तरह किसी को चलते नहीं देखा-तकिया राजमहल से आया रथ रुका। वजीर नीचे उतरा। सूरज की सिर से लगाये, दोनों हाथों से पकड़े, कर क्या रहे हो? मुल्ला ने किरणों में चमकता हुआ स्वर्ण-रथ! यह वर्षों का भिखमंगापन कहा, करूं क्या, भाई! डाक्टर ने कहा हृदय का दौरा पड़ा है, जैसे एक क्षण में खो गया। वजीर उतरा और उसके पैरों पर गिर तकिये से सिर मत उठाना। तो तकिये से सिर तो उठा ही नहीं गया, और कहा कि आप चलें, पिता ने याद किया है। अभी उस सकता हूं। भिक्षापात्र में जो कुछ थोड़े-से पैसे पड़े थे-एक-एक पैसे को जिन्होंने शास्त्र से सूचनाएं ली हैं, उनकी सूचनाएं ऐसी ही हैं। मांग रहा था, उसने भिक्षापात्र उसी समय नीचे गिरा दिया। वे तकिया बांध लेंगे सिर से, लेकिन करेंगे तो वही जो कर सकते उसकी आवाज बदल गयी। उसने कहा कि जाओ, मेरे लिए हैं। करेंगे तो वही जो उनके अनुभव में सही मालूम पड़ रहा है। ठीक वस्त्रों का इंतजाम करो। जाओ, मेरे लिए ठीक स्नानगृह दूसरे के अनुभव से हम ज्यादा से ज्यादा धोखा खा सकते, धोखा, का इंतजाम करो। अभी मांगता था भीख, तो आवाज में बड़ी दे सकते, लेकिन दूसरे का अनुभव हमारा जीवंत सत्य नहीं दयनीयता थी। उस आवाज और इस आवाज में कोई हिसाब ही बनता है। न था लगाना। कोई पहचान ही न सकता यह उसी भिखारी की तो महावीर शास्त्रज्ञान को ज्ञान नहीं कहते। जिससे तत्व का आवाज है। और जब वह बैठ गया रथ पर, तो उसकी आंखों की बोध होता है, जिससे सत्य की प्रतीति होती है। किससे होती है चमक...एक क्षण में सारा भिखमंगापन खो गया। | सत्य की प्रतीति? सत्य कहीं लिखा थोड़े ही है। तुम्हारे होने का तो तुम्हें याद भी आ जाए तुम्हारी महिमा, तुम्हारे स्वरूप की नाम सत्य है। तुम्हारे अस्तित्व का नाम सत्य है। सत्य कहीं थोड़ी-सी झलक भी, स्वप्न ही सही-अंधेरी से अंधेरी रात में बाहर पड़ा थोड़े ही है कि उसे खोजना है, उघाड़ना है। तुम लिये भी तुम्हें सुबह का स्वप्न भी आ जाए तो रात टूटने लगी। फिर रहे हो। अपने प्राणों में लिये फिर रहे हो। और जब तक इसलिए महावीर ने ये सूत्र कहे हैं तुम्हारी आंखें बाहर भटकती रहेंगी, तुम वंचित रहोगे। आंख को 'जिससे तत्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है, तथा घर लौटाना है। आंख बंद करनी है, भीतर उतरना है सीढ़ी दर आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान कहा है।' सीढ़ी, एक-एक सोपान। तुम्हारे ही गहन में, तुम्हारी ही गहराई जेण तच्चं विवुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। में सत्य पड़ा है। डुबकी लगानी है। यह हीरा कहीं खोजने नहीं जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।। जाना है, यह तो तुम्हारे ही अंतर्तम-सागर में पड़ा है। उस डुबकी जिससे आत्मा विशद्ध हो, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे लगाने का नाम ही है चित्त का निरोध। सत्य का बोध हो, उसे ही जिन्होंने जाना उन्होंने ज्ञान कहा है। चित्त का अर्थ है, जो बाहर ले जाए। चित्त का अर्थ है, शास्त्र से मिल जाए जो ज्ञान, काम का नहीं। आत्मा में डुबकी बहिर्गमन। चित्त का अर्थ है ऐसे विचार, जो बाहर की तरफ लगाकर मिले, तो ही काम का है। शास्त्र से मिला ज्ञान तो बड़ा | तरंगायित करें। बैठे हैं, सोचने लगे धन का-मिल जाए खूब ऊपर-ऊपर है। उससे तुम बदलते नहीं, बदलते हुए मालूम भी धन...विचार शुरू हो गये। बैठे हैं, सोचने लगे हो जाएं किसी नहीं पड़ते। उससे तुम्हें बदलने का धोखा भर पैदा हो जाता बड़े पद पर...यात्रा शुरू हो गयी। कितनी बार नहीं तुमने अपने है—एक प्रवंचना। जिस सत्य की प्रतीति तम्हें नहीं हुई. उस मन में सोचा कि राष्ट्रपति हो गये। कितनी बार नहीं तमने अपने सत्य को तुम अगर पूरा भी करते रहो, तो भी तुम्हारी आत्मा से मन में सोचा कि कुबेर हो गये। कितनी बार तुमने अपने मन में उसका कोई तालमेल नहीं होता। | ऐसी योजनाएं नहीं बनायीं! फिर चौंककर खुद हंसे हो अपने मन मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को लोगों ने देखा बीच में कि यह भी क्या कर रहा हूं। क्या सार है? लेकिन फिर भी 2010_03 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त बार-बार इन्हीं योजनाओं में घूमता है। चित्त का अर्थ है, वस्तुओं से चेतना का संबंध । और जब तक चित्त है तब तक संबंध बनते चले जाते हैं। तुम राह पर चल रहे हो, पास से एक कार गुजर गयी, तुम्हारे ही पीछे महावीर भी चल रहे हैं, वह कार उनके पास से भी गुजरी। लेकिन तुम्हारा चित्त पैदा कर जाएगी कार, महावीर में कुछ पैदा न होगा। कार दोनों के पास से गुजरी। तुम्हारे पास से गुजरी इतना ही नहीं, गुजरते ही चित्त पैदा हुआ, तुम जुड़े, तुम कार से लगे। कार तो चली गयी, तुम्हारा चित्त पीछा करने लगा। तुमने सोचा, ऐसी कार मेरी हो! कैसे खरीद लूं ? क्या उपाय करूं? महावीर के पास से भी वही कार गुजरी, चित्त पैदा नहीं हुआ। कार गुजर गयी, महावीर गुजर गये, दोनों के बीच कोई संबंध न बना । चित्त का अर्थ है, वस्तुओं से संबंध बन जाना। तुम प्रतिपल वस्तुओं से संबंध बना रहे हो। तुम बहुचित्तवान हो । महावीर पहले मनीषी हैं, जिन्होंने इस शब्द का उपयोग किया, 'बहुचित्तवान।' फिर यह शब्द खो गया। उसके पहले भी कभी न था। उसके पहले भी किसी ने ऐसा न कहा था कि आदमी में बहुत चित्त हैं। उसके पहले ऐसी ही धारणा थी कि आदमी में एक चित्त है। महावीर ने कहा, एक से काम न चलेगा, आदमी भीड़ है । | आदमी के मन में जितनी वस्तुओं से संबंध बनाने का राग है, | उतने ही चित्त हैं। कार से संबंध बना, एक चित्त पैदा हुआ। मकान से संबंध बना, दूसरा चित्त पैदा हुआ। धन से संबंध बना, तीसरा चित्त पैदा हुआ। अनंत चित्त हम पैदा कर रहे हैं। चित्त प्रतिपल उठ रहे हैं, तरंगों की भांति, जैसे सागर में लहरें उठ रही हैं। जैसे सागर में लहरें | उठती हैं हवा के थपेड़ों से, ऐसे ही वस्तुओं से उठती हुई तरंगें हमारे मन में चित्त को पैदा कर जाती हैं। महावीर ने कहा, मनुष्य बहुचित्तवान है । फिर ढाई हजार साल तक इस शब्द का किसी ने कुछ चिंतन नहीं किया। अभी पश्चिम में मनोवैज्ञानिक फिर इस शब्द को खोज लिये हैं । उनको महावीर | का कुछ भी पता नहीं है। महावीर बहुत ही अपरिचित हैं पश्चिम को । पश्चिम ने थोड़े शब्द पतंजलि के सुने हैं। बुद्ध के काफी शब्द सुने हैं। उपनिषद और वेद भी पहुंच गये हैं । लेकिन महावीर पश्चिम के सामने बिलकुल अपरिचित हैं। महावीर का 2010_03 ज्ञान है परमयोग तो उन्हें पता ही नहीं है कि उनके पहले भी एक मनीषी ने इस शब्द का उपयोग किया है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक एक शब्द का उपयोग करते हैं जो ठीक महावीर के बहुचित्तवान का रूपांतर है। वे कहते हैं, मनुष्य 'पोलिसाइकिक' है । बहुचित्तवान । जिन्होंने भी मन को बहुत गहरे में खोजा है, उन्हें यह सत्य मिल ही जाएगा कि तुम हजारों चित्त पैदा कर रहे हो । चित्त यानी तरंगें । तरंगें ही तरंगें । उन तरंगों के कारण तुम बाहर भागे जा हो। उन तरंगों के कारण तुम घर नहीं लौट पाते। रात तुमने कभी देखा, अगर बहुत चित्त उठ रहे हों, बहुत तरंगें उठ रही हों, तो नींद तक संभव नहीं होती। अगर तुमने लाटरी का टिकिट खरीदा है, तो उस रात नींद नहीं आती । चित्त में तरंगें उठने लगीं। अभी लाटरी मिली नहीं है। मैंने सुना है, एक अदालत में मुकदमा था। दो आदमियों ने एक-दूसरे का सिर खोल दिया था। और मजिस्ट्रेट ने पूछा कि हुआ क्या? किस बात से तुम लड़े? और तुम दोनों पुराने दोस्त हो ! उन्होंने कहा, वह भी ठीक है। हम दोनों पुराने दोस्त हैं, लेकिन बात ही ऐसी आ गयी। कुछ शरमाने लगे दोनों बात बताने में। मजिस्ट्रेट ने कहा, तुम कहो, शरमाओ मत। तो उस पहले आदमी ने कहा कि जरा मामला ऐसा है, शरमाने जैसा ही है, अब हो गया ! मैंने इससे कहा कि मैं एक खेत खरीद रहा हूं। और यह बोला कि खरीद तो मैं भी रहा हूं, एक भैंस । मैंने कहा, देख, भैंस मत खरीद, अपनी दोस्ती टिकेगी नहीं। कहीं खेत में घुस जाए, कुछ से कुछ हो जाए। अगर खरीदता ही है तो सोच-समझकर खरीदना। तो यह क्या बोला! यह बोला कि जाओ भी भई, भैंस तो भैंस है। अब उसके पीछे कोई चौबीस घंटे थोड़े ही लगा रहूंगा। कभी तुम्हारे खेत में घुस भी गयी तो घुस भी सकती है। तो मैंने इससे कहा कि मत खरीद भैंस, खेत तो मैंने खरीदने का पक्का ही कर लिया है। तो इसने मुझसे कहा, तू ही मत खरीद खेत, भैंस का तो मैंने बयाना भी दे दिया है। बस बात बढ़ गयी । तो मैंने कहा अगर खरीदना ही है तो खरीद ले, लेकिन ध्यान रख, मेरे खेत में न घुसे, और मैंने ऐसा रेत पर खेत खींचकर बताया कि यह रहा मेरा खेत। इसमें कभी तेरी भैंस न घुसे, इसका खयाल रखना। इसने क्या किया, इसने एक लकड़ी से ऐसा इशारा करके रेत में निशान बना दिया और कहा, यह घुस 49 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 गयी भैंस, कर ले क्या करता है। उसी में, उसी में सिरफुटौअल हो, और या भविष्य है, जो अभी हुआ ही नहीं। कहीं भी नहीं है, हो गयी। बस तुम ही योजना बना रहे हो। इन दो पाटन के बीच, इन दो के अभी किसी ने खेत खरीदा नहीं है! अभी भैंस खरीदी नहीं दबाव के बीच चित्त पैदा होता है। गयी है। इस अवस्था का नाम चित्त है। तुम जरा खयाल करना, चित्त-निरोध का अर्थ है, इन दोनों पाटों को हटा देना। अतीत कितना चित्त तुम्हारे भीतर है! जो जा चुका, उसको तुम संगृहीत को जाने दो; जो गया, गया। और जो आया नहीं, नहीं आया। किये बैठे हो, अब वह कहीं भी नहीं है। और जो नहीं हुआ, तुम बस वर्तमान में रह जाओ। वर्तमान में चित्त नहीं होता। इस उसकी योजना बना रहे हो। वह भी अभी कहीं नहीं है। इन दो के क्षण कहां है चित्त? जरा-सी तरंग उठी भविष्य की, आया। बीच तुम दबे हो, तुम्हारी आत्मा दबी है—पिस रही है। दो जरा-सी याद आयी अतीत की, आया। तो स्मृति में और पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।। | कल्पना में है चित्त। ठीक वर्तमान के क्षण में चित्त नहीं है। ठीक एक तुम्हारा अतीत है, जो जा चुका। किसी ने कभी गाली दी वर्तमान के क्षण में चित्त का निरोध है। महावीर कहते हैं, जहां थी बीस साल पहले, वह अभी भी ताजी है तुम्हारे भीतर। शायद चित्त-निरोध होता है, वहीं आत्मा विशुद्ध होती है। जब चित्त वह आदमी भी जा चुका हो। वह गाली तो निश्चित ही जा चुकी | नहीं रहा, तो आत्मा में कोई अशुद्धि न रही। चित्त आत्मा का है। शायद वह आदमी क्षमा भी मांग चुका हो। मैल है। चित्त आत्मा की अशुद्धि है। मल्ला नसरुद्दीन और उसके मित्र में कछ झंझट हो गयी थी। 'जेण तच्च विवज्झेज्ज'—जिसने तत्व को जाना। या जो वर्षों बीत गये उस बात को, लेकिन जब भी मिलना होता है तो तत्व को जानना चाहता है। 'जेण चित्तं णिरुज्झदि'-उसे चित्त मुल्ला उसे याद दिलाता है कि खयाल रखना! आखिर एक दिन का निरोध करना पड़ा। उसे चित्त को त्याग देना पड़ा। सत्य को उसने कहा कि देखो मुल्ला, कितनी बार तुमसे क्षमा मांग चुका, चाहते हो, तो चित्त को दांव पर लगा दो। शास्त्र पढ़ने से यह न और कितनी बार तुम क्षमा कर चुके, और कितनी बार तुम मुझसे होगा। शास्त्र पढ़ने से तो उल्टा चित्त और बढ़ेगा। शास्त्र भी कह चुके कि ठीक है, भुला दी बात, क्षमा कर दी, फिर तुम याद तुम्हारे भीतर तरंगें लेने लगेगा। संसार तो तरंगें लेगा ही, शास्त्र क्यों दिलाते हो? मुल्ला ने कहा, मैंने भला दी, वह ठीक है, भी तरंगें लेने लगेगा। 'जेण अत्ता विसज्झेज्ज' और जिसने लेकिन तुम मत भूल जाना, इसीलिए याद दिलाता हूं। आत्मा की विशुद्धि जान ली चित्त के निरोध से, "तं णाणं लेकिन जब दूसरे को याद दिलानी पड़े, तो खुद भी याद रखनी जिणसासणे'- इसी को जिनों ने ज्ञान कहा है। ही पड़ती है। भूलोगे कैसे? अतीत है, उसे हम सम्हाले हैं। यह ज्ञान की बड़ी अदभुत व्याख्या हुई। इस ज्ञान का, जिसे अब कहीं भी नहीं है, सिर्फ स्मृति में पड़े रह गये दाग, सिर्फ तुम ज्ञान कहते हो, उससे कुछ संबंध न रहा। जो विद्यापीठ में स्मृति पर खिंची रह गयी कुछ रेखाएं। अस्तित्व में उन रेखाओं | मिल जाता है, वह ज्ञान नहीं। जो आत्मपीठ में मिलता है वही की अब कोई भी जगह नहीं है। अस्तित्व अतीत का कोई हिसाब ज्ञान। जो बाहर मिल जाता है, सूचना मात्र है। जो भीतर जगता ही नहीं रखता। अस्तित्व का कोई इतिहास नहीं है। अस्तित्व है, वही ज्ञान है। जो दूसरे से मिल जाता है, उधार है, उच्छिष्ट सदा ताजा और नया है। वह अतीत को ढोता ही नहीं। कल जो | है। जो तुम्हारी आत्मा में ही निखरता है, वही ज्ञान है। बीत गया, उसका उसे कुछ पता ही नहीं। महावीर ने सब भांति भीतर जाने का, अंतर्यात्रा का निर्देश पूछो फूलों से, पूछो वृक्षों से, पूछो बादलों से, पूछो छोटे-छोटे किया है। और जब तक यह न हो, तब तक तुम अंधविश्वास के बच्चों से, जो अभी अस्तित्व के बहुत करीब हैं। अभी नाराज था बाहर न हो सकोगे। बच्चा और कहता था कभी तुमसे बोलेंगे न, और क्षणभर बाद इक न इक दर पर जबीने-शौक घिसती ही रही तुम्हारी गोदी में बैठा है। भूल ही गया! याद ही न रही! बच्चा | आदमीयत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही अभी निर्मल है। अभी चित्त बहुत सघन नहीं। तो या तो तुम्हारे तुमने बहुत दरवाजे खोजे। चित्त में अतीत है, जा चुका, नहीं कहीं है अब, बस तुम्हीं ढो रहे इक न इक दर पर जबीने-शौक घिसती ही रही। 2010_03 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREMIER ज्ञान है परमयोग कहा है।' और तुम अपना माथा न मालूम कितने दरवाजों पर घिस चुके कह रहा हूं, वह तुमने सुना। इसको ही तुम सब कुछ मत समझ हो। तुमने अपने प्रेम को न मालूम कितने चित्तों में उलझाया है। लेना। इससे इशारे लेना जरूर, इससे उत्साह लेना जरूर, इससे कभी मंदिर, कभी मस्जिद, कब अपने घर आओगे? प्रेरणा लेना जरूर, इससे प्यास लेना जरूर, लेकिन इसी को सब इक न इक दर पर जबीने-शौक घिसती ही रही कछ मत समझ लेना। ये इशारे ऐसे ही हैं जैसे मील के पत्थरों पर आदमीयत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही निशान बना होता है तीर का-और आगे।। आदमी पिसता ही रहेगा, तुम पिसने की ही तैयारी कर रहे हो। मील के पत्थर को छाती से लगाकर मत बैठ जाना। मील का अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे पत्थर तो यात्रा पर बढ़ाने को है, सूचना मात्र है। मंजिल नहीं है। जिहल के तारीक साये हाथ फैलाते रहे कितना ही प्यारा मील का पत्थर मिल जाए, तो भी उसे सीने से -और तथाकथित ब्रह्मज्ञानी बातों से लोगों के हृदय को | लगाकर मत बैठ जाना, उससे मिली गर्मी काम न आयेगी। गरमाते रहे। उससे मिली गर्मी धोखा हो जायेगी। अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे 'जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है, –लेकिन वह गर्मी ज्यादा देर टिकने वाली नहीं। वह तुम्हारे | और जिससे मैत्री-भाव बढ़ता है, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान ईंधन से नहीं आती। अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेए सु रज्जदि। बातें तो बहुत चलती रहीं ब्रह्मज्ञान की। वेदों की कोई कमी जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।। है? शास्त्रों की कोई कमी है? कितने लोग वेद को दोहराते रहे एक-एक शब्द बहुत ध्यानपूर्वक भीतर लेना। तोतों की भांति! और थोड़ी-बहुत गर्मी भी आ जाती है दोहराने 'जिससे जीव राग-विमुख होता है...।' से, लेकिन टिकती नहीं। जब तक तुम्हारे भीतर की आग न ज्ञान की कसौटी दे रहे हैं महावीर। इसको कसते रहना। अगर जले, जब तक तुम्हारी आत्मा प्रज्वलित न हो, तब तक यह उधार तुमने बहुत जान लिया और वह जाना हुआ तुम्हें राग से विमुख गर्मी काम आने वाली नहीं। नहीं करता, तो महावीर कहते हैं, वह जाना हुआ थोथा है, धोखा अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे है, उधार है, बासा है। उसे छोड़ दो। इससे तो जानना बेहतर कि जिहल के तारीक साये हाथ फैलाते रहे तुम नहीं जानते हो। कम से कम सचाई तो होगी। कसौटी क्या है और अंधेरा बढ़ता ही गया, अज्ञान बढ़ता ही गया। वेद भी | ज्ञान की ? जिससे राग-विमुखता पैदा हो। बढ़ते गये, शास्त्र भी बढ़ते गये और अज्ञान भी बढ़ता गया। राग को समझें। चमत्कार है! आदमी ने जितना जाना, उतना आदमी अज्ञानी हो राग का अर्थ होता है, किसी भी वस्तु, किसी भी व्यक्ति के गया। चमत्कार है! आज से ज्यादा गहन अज्ञान कभी भी न साथ ममत्व का भाव बांधना; कहना मेरा। मेरा मकान, तो राग था। और आज से ज्यादा ज्ञान कब रहा? रोज नया ज्ञान पैदा हो हो गया। मकान में रहने में कुछ अड़चन नहीं है, 'मेरे' में मत रहा है, रोज नये शास्त्र रचे जा रहे, रोज नयी सूचनायें अवतरित रहना। मकान में खूब रहना, कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन मकान हो रही हैं, लेकिन आदमी का अंधेरा मिटता नहीं। जरूर कहीं को मकान रहने देना, तुम तुम रहना, दोनों के बीच में 'मेरे' का भूल हो रही है। सेतु मत बनाना। जिसे हम ज्ञान समझते हैं वह ज्ञान नहीं है। सूचना मात्र है। चित्त का अर्थ है, जो तुम्हारा नहीं है उसे अपना बनाने की अगर सूचना की तरह ही उसे लो, तो खतरा नहीं है। ज्ञान की अभीप्सा, आकांक्षा। और राग का अर्थ है, जो तुम्हें मिल गया तरह लिया, तो खतरा हो जाएगा। मैं तुमसे बोल रहा हूं, जो मैं है, उसे अपना मान लेने की स्थिति। कहा, मेरा मकान, मेरी तुमसे कह रहा हूं वह मेरे लिए ज्ञान है। कहते ही तुम्हारे लिए पत्नी, मेरा पति, मेरा भाई, मेरी बहन। जहां मेरा आया, मम सूचना हो गया। जो मैं कह रहा हूं, वह मैंने जाना, लेकिन जो मैं जहां आया, ममत्व आया, वहीं राग निर्मित हुआ। 151 2010_03 www.jainelibra y.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 है। राग बंधन है। जो जानते हैं वे तो यह भी न कहेंगे कि मेरा है। जैसे-जैसे मेरे का भाव गिरेगा वैसे ही वैसे तुम्हें मैं का शरीर। वे तो कहेंगे, शरीर पृथ्वी का है। जल, वायु, आकाश अनुभव होगा कि मैं कौन हूं। तुम्हें अभी इसका कुछ भी पता का है, मेरा क्या? मैं नहीं था, तब भी था। मैं जब नहीं रहूंगा, नहीं। तुम्हें बिलकुल पता है कि मेरे कौन हैं। मैं कौन हूं, इसका तब भी होगा। मेरा क्या है? कोई भी पता नहीं। वक्त की समी-ए-मुसलसल कारगर होती गयी तुमसे अगर कोई पूछे आप कौन हैं, तो तुम बताते हो मैं फला जिंदगी लहज़ा-ब-लहज़ा मुख्तसर होती गयी का बेटा हूं। यह भी कोई बात हुई! वह पूछता है, आप कौन हैं, सांस के पर्दो में बजता ही रहा साजे-हयात | आप पिता की बता रहे हैं। वह पूछता है, आप कौन हैं, आप मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गयी कहते हैं, मैं डाक्टर हूं! डाक्टरी आपका धंधा होगी, आप यह शरीर बना रहेगा, यह श्वास भी चलती रहेगी, तुम जीवन | डाक्टर नहीं हो सकते। वह पूछता है, आप कौन हैं, आप कहते के भ्रम से भी भरे रहोगे और मौत रोज करीब आयी चली जाती हैं, मैं ब्राह्मण हूं, हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं। यह आपकी पैदाइश का संयोग होगा, आप नहीं। कुछ अपनी कहो! सांस के पर्यों में बजता ही रहा साजे-हयात मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि हमें तो कुछ पता ही नहीं। जिंदगी का संगीत बजता ही रहा सांसों में। और मौत? हम तो जब भी 'मैं' की कोई परिभाषा करते हैं, तो मेरे से मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गयी करते हैं। मेरे का हमें पता है। मैं का हमें कोई पता नहीं। और तुम्हारी श्वास भी तुम्हारी नहीं। तुम्हारी देह भी तुम्हारी नहीं। जिसे मैं का ही पता नहीं, उसके मेरे का क्या भरोसा! जिसे जैसे-जैसे गहरे जाओगे, वैसे-वैसे पाओगे मेरा कुछ भी नहीं, | अपना ही पता नहीं, उसे और क्या पता होगा! यह अपना ही मेरे अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं। मन भी मेरा नहीं है। वह भी पता नहीं जो कि प्राथमिक होना चाहिए, तो बाकी तो सब द्वितीय बाहर की तरंगों से आता है। देह भी मेरी नहीं, वह भी बाहर से है। पहली ही बुनियाद भ्रांत हो गयी, तो सारा भवन भ्रांत हो बनती है और बाहर ही खो जाएगी। आखिर में बच रहता है जाता है। महावीर कहते हैं, मेरे को छोड़ते-छोड़ते जब मैं ही साक्षीभाव, बस वही मेरा है। बचता है-शद्ध मैं—उसको ही महावीर ने आत्मा कहा है। राग में बहोगे, तो शरीर मेरा है; शरीर से जो जुड़े हैं, जिनसे शुद्धतम मैं। जहां मेरे की कोई रेखा भी नहीं रही। मेरे की कोई रक्त का संबंध है, वे मेरे हैं; जिनसे प्रेम का, वासना का संबंध कालिख न रही। कोई बादल न रहा आकाश में। नीला, खाली, है, वे मेरे हैं; जिनसे काम-धंधे का संबंध है, वे भी मेरे हैं-मेरा कोरा, आकाश! सूरज तब बड़ा प्रगट होकर, प्रखर होकर स्पष्ट नौकर, मेरा मालिक; जिनसे किसी और तरह के संबंध हैं—मेरा | होता है। डाक्टर, मेरा इंजीनियर; जैसे-जैसे तुम इस 'मेरे' को बढ़ाते और जिससे श्रेय में अनुरक्त होता है।' चले जाते हो, यह बड़ा होता चला जाता है। यह सारा संसार जेण सेए सु रज्जदि। तुम्हें 'मेरा' मालूम पड़ सकता है। जितना तुम्हारा ‘मेरे' का | दुनिया में दो हैं यात्राएं-प्रेय और श्रेय। साधारणतः जो फैलाव होगा, उतने ही गहन अंधकार में तुम उतरते जाओगे। अज्ञान में डूबा है, वह प्रेय में अनुरक्त होता है। वह कहता है, दीया उतना ही अंधेरे में खो जाएगा। ऐसा समझो, बादल है जो प्रिय है, वही मैं करूंगा। जिसको ज्ञान की पहली किरण 'मेरे' का; सूरज है 'साक्षीभाव' का। जितना मेरा और मेरे के उतरने लगी, वह कहता है, जो श्रेय है वही करूंगा।क्या फर्क बादल तुम्हारे चारों तरफ होंगे, सूरज उतना ही ओट में हो | है? प्रेय तो होता है मन का विषय और श्रेय है चैतन्य का जाएगा। हटाओ बादलों को। ज्ञान की कसौटी महावीर कहते हैं | विषय। जो ठीक है, वही करूंगा। जो सत्य है, वही करूंगा। यही है-'जेण रागा विरज्जेज्ज।' जिससे राग गिरने लगे। जो शुभ है, वही करूंगा। श्रेयस ही मेरा जीवन होगा। यही जिससे मेरे की भ्रांति टूटने लगे। साधुता का लक्षण है। अब यह बड़ा विरोधाभासी वक्तव्य है, लेकिन परम मूल्य का | साधु का अर्थ नहीं कि भाग जाओ घर से। साधु का अर्थ है, 52 2010_03 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwww व ज्ञान हे परमयोग श्रेय को साधो। प्रेय से श्रेय को ऊपर रखो। सधे, वही ज्ञान है। 'जेण मित्ती पभावेज्ज।' और जिससे मैत्री कल एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा, ध्यान करने बढ़े, प्रेम बढ़े, वही ज्ञान है। निश्चित ही पंडित का ज्ञान प्रेम को आया हूं। लेकिन ध्यान मुझे प्रीतिकर नहीं मालूम पड़ता। होता बढ़ाता नहीं। मुल्ला-मौलवी का ज्ञान प्रेम को बढ़ाता नहीं। ही नहीं मन करने का। अच्छा नहीं लगता करना। तो अब घटाता है। हिंदू मुसलमान से घृणा करता है, मुसलमान हिंदु से सवाल है, अगर मन को सुनना है तो फिर ध्यान न हो सकेगा। घृणा करता है। जैन हिंदुओं से, हिंदू जैनों से। यह ज्ञान नहीं हो मन कहता है यह क्या कर रहे हो? इतनी देर ताश के पत्ते ही | सकता। यह शास्त्र होगा। शास्त्र लड़वाता है। ज्ञान जुड़वाता खेल लेते, तो थोड़ा रस आता। इतनी देर सिनेमा में ही बैठ गये है। ज्ञान है परम योग। शास्त्र में संघर्ष है। तुम्हारी मान्यताएं, होते, तो थोड़ा रस आता। इतनी देर मित्रों से गपशप ही कर ली तुम्हारे विश्वास, तुम्हें दूसरों से खंड-खंड कर देते हैं। होती। यह भी क्या! क्या कर रहे हो यहां, समय क्यों खो रहे | तुमने कभी देखा, तुम किसी आदमी के पास बैठे हो। हो? जीवन भागा जा रहा है। भोग लो। मन हमेशा प्रेय की बिलकुल सटकर बैठे हो, और तुमने पूछा, आपका धर्म? और तरफ उत्सुक करता है। वह कहता है, जो प्रीतिकर है, वह करो। उसने कहा, मुसलमान। तुम जरा सरक गये। अभी तुम लेकिन मन के लिए जो प्रीतिकर है, वही नर्क सिद्ध होता है | बिलकुल पास बैठे थे। तुम जैन हो, या हिंदू हो, तुम जरा सरक आत्मा के लिए। और मन के लिए जो प्रीतिकर है, वही आत्मा गये। और अगर उसने कहा कि हिंदू हूं, जैन हूं, तो तुम और जरा के लिए जहर सिद्ध होता है। प्रेय को मान-मानकर ही तो हम | पास आ गये। आदमी वही है। अभी तुम पास बैठे ही थे, भटके हैं इतने जन्मों तक। | लेकिन अगर उसने कहा मुसलमान, अगर कहा हिंदू, अगर कहा तो महावीर कहते हैं ज्ञान की किरण आयी, इसका प्रमाण होगा ईसाई, बस एक दीवाल खड़ी हो गयी। सत्य की दीवाल! कि श्रेय ऊपर आने लगा। अब तुम यह नहीं कहते कि मन क्या बस तुम अलग हो गये। तुमने पक्का कर लिया कि यह कहता है वह करेंगे। अब तुम कहते हो, जो करना चाहिए वही आदमी गलत है। ईसाई कैसे ठीक हो सकता है, मुसलमान कैसे करेंगे। प्रारंभ में तो बड़ा संघर्ष होगा। मन की पुरानी आदतें हैं। ठीक हो सकता है। मैं जैन हूं, बस जैन ही ठीक है। जल्दी पीछा न छोड़ेगा। मन के पुराने संस्कार हैं, वह बार-बार तुम्हारा विश्वास तो तुम्हें तोड़ रहा है दूसरे से। यह विश्वास तम्हें परानी ही धारणाओं में खींच लेगा। लेकिन संघर्ष करना| फिर ज्ञान नहीं हो सकता। यह तुम्हारी धारणा जोड़ नहीं रही। होगा। मन से ऊपर उठना होगा। और धन्यभागी हैं वे जो मन से और महावीर कहते हैं ज्ञान की यह कसौटी है कि वह जोड़ेगा। थोड़ा ऊपर उठ जाते हैं। क्योंकि मन के ऊपर उठते ही जीवन का | उससे प्रभाव बढ़ेगा प्रेम का। उससे मैत्री सघन होगी। उससे तुम परम धन है। मन के ऊपर उठते ही सौभाग्य है। मन के ऊपर | बेशर्त मैत्री में उतर जाओगे। तुम्हारी कोई शर्त न रहेगी कि तुम उठते ही परम आशीष की वर्षा हो जाती है। मन के साथ कौन हो। यहां हिंदू हैं मेरे पास संन्यासी, मुसलमान हैं मेरे पास | अभिशाप है। मन के शुरुआत में तो सभी चीजें प्रीतिकर मालूम संन्यासी, ईसाई हैं, यहूदी हैं, पारसी हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्ख होती हैं, अंत में सभी कड़वी हो जाती हैं। हैं; दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं है जिस धर्म से मेरे पास महावीर ने कहा है, जो प्रारंभ में मीठा हो, जरूरी नहीं कि अंत | संन्यासी न हों। शायद ऐसा कहीं भी आज घट नहीं रहा है। यह में भी मीठा हो। और जो प्रारंभ में कड़वा हो, जरूरी नहीं कि अंत अभूतपूर्व है। लेकिन यह घटना चाहिए सभी जगह। क्योंकि में भी कड़वा हो। बहुत-सी औषधियां कड़वी होती हैं लेकिन | | ज्ञान की किरण उतरे और इतना भी न कर पाये, कि अंधविश्वासों स्वास्थ्य लाती हैं। और बहुत-सी मिठाइयां मीठी होती हैं और की और विश्वासों की दीवाल न गिरा पाये, तो ऐसे ज्ञान का क्या सिर्फ रुग्ण करती हैं। इसलिए चुनाव श्रेय का करना। विवेक से | करोगे? दो कौड़ी का है। दीया पैदा हो जाए और अंधेरा न हटे, करना, बोध से करना। मन की मानकर मत करना। मन | तो ऐसे दीये को क्या करोगे? वह बुझा है। उसे फेंको। उसे उलझाता है। | व्यर्थ मत ढोओ। 'जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेए सु रज्जदि।' जिससे श्रेय 'मैत्रीभाव बढ़े, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान कहा है।' 153 2010_03 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः 'जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष तथा आदि, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, विदा होना पड़ा है। यहां बहुत मध्य, और अंतहीन देखता है, निर्विकल्प देखता है, वही समग्र | राग की जड़ें मत फैलाओ। यहां ऐसे रहो जैसे कोई अतिथिशाला जिन-शासन को देखता है।' | में ठहरता है। विश्रामगृह में रुकता है। यहां बहत मोह के संबंध जिसने आत्मा को देख लिया, उसने महावीर के पूरे शास्त्र को | | मत बनाओ। अन्यथा जाना कठिन हो जाएगा। और अगर न जा देख लिया। यह बात थोड़ी सुनो। सके, तो वापस-वापस फेंक दिये जाओगे। मोह के बंधन ही 'जे पस्सदि अप्पाणं।' जिसने अपने को देख लिया। तुम्हें खींच लाएंगे। जे पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणन्नमविसेसं। मैंने सुना है...पढ़ता था मैं एक ईसाई फकीर का जीवन। वह अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं।। पहाड़ों में किसी गुफा की तलाश कर रहा था, एकांत-साधना के उसने सारा जिन-शास्त्र देख लिया, जिसने स्वयं को देख लिए। एक गुफा के पास पहुंचा तो देखकर चकित हो गया। लिया। ऐसी सीधी-साफ, ऐसी दो-टूक बात किसने कही है! वहां उसने एक फकीर को देखा, जिसने अपने को गुफा के भीतर हैं। तुम जैन-शास्त्रों में बैठकर सिर मत | लोहे की जंजीरों से बांध रखा था। उसने पूछा, मैंने बहुत तरह के पचाते रहना। उतरो अपने में। महावीर कहते हैं, एक ही शास्त्र साधक देखे, तुम यह क्या किये हो? यह तुमने खुद जंजीरें है पढ़ने योग्य, वह स्वयं की चेतना है। एक ही जगत है प्रवेश बांधीं, कि कोई तुम्हें बांध गया। उसने कहा, मैंने ही बांधी हैं। योग्य, एक ही मंदिर है जाने योग्य, वह स्वयं की आत्मा है। किसलिए बांधीं? तो उसने कहा, इस डर से कि कहीं किसी 'जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, देह-कर्मातीत जानता है।' देह कमजोर क्षण में संसार में वापस न लौट जाऊं। ये जंजीरें मुझे और कर्म, इन दो के जो अपने को पार देख लेता है, वही आत्मा जाने नहीं देतीं। ठोंक दी हैं दीवाल से. इनके खोलने का कोई को जानता है। 'अनन्या' और जो जानता है कि बस मेरा शद्ध उपाय नहीं। होना ही, शुद्धतम साक्षीमात्र ही स्वरूप है, स्वभाव है। 'आदि, मगर यह भी कोई संसार से मुक्ति हई? अगर लोहे की जंजीरों मध्य, अंतहीन।' न तो मेरा कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है. न | के कारण किसी गुफा में पड़े रहे, तो यह कोई संसार से मक्ति कोई मध्य है। मैं शाश्वत हूं। 'अविशेष।' ऐसी बात को जो हुई? यह नये तरह का बंधन हुआ। यह मोक्ष न हुआ। बोध से बिलकुल जीवन का सामान्य स्वभाव अनुभव करता है, कोई | मुक्ति होती है। बोध का अर्थ है, जहां से जाना है, वहां से जा ही विशेष बात नहीं है यह, यह स्वाभाविक है, यह आत्मा का चुके। जहां से जाना है, वहां घर क्या बसाना। जहां से जाना ही गुणधर्म है, ऐसा जो देख लेता है, 'निर्विकल्प देखता है।' होगा, वहां जड़ें क्या फैलाना। थोड़ी देर का विश्राम है, ठीक है उसकी आंखों में फिर विकल्प के बादल नहीं होते। विचार के कर लेंगे। लेकिन जाने के वक्त लौटकर न देखेंगे। बादल नहीं होते। 'वही समग्ररूप से जिन-शासन को देखता अभी फिर दर्द टपकेगा मेरी आवाज से आखिर है।' हम तो उलझे हैं बहुत छोटी बातों में। हमने तो बड़े अभी हंस रहे हो, अभी रोओगे। तो जब रोना ही है, तो हंसी में छोटे-छोटे पड़ाव बना लिये, उन्हीं को हम मंजिल समझ रहे हैं।। बहुत अर्थ नहीं रह गया। मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर अभी फिर आग उठेगी शिकस्ता साज से आखिर अभी फिर दर्द टपकेगा मेरी आवाज से आखिर अभी मेरा साज टूट जाएगा, अभी वीणा टूटी पड़ी होगी, अभी अभी फिर आग उठेगी शिकस्ता साज से आखिर चिता जलेगी। मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज़ से आखिर जहां से जाना है, वहां बहुत मत पकड़ो। यह तेरी महफिल बड़ी प्यारी है, लेकिन जाना है। जाना मुझे जाना है इक दिन तेरी बज़्मे-नाज से आखिर पड़ेगा। तो यहां ऐसे रहना जैसे कमल रहता है जल में। रहना, यह महफिल सदा नहीं चलेगी। सपने जैसी है। यहां से उठना | लेकिन जल को छूने मत देना। जल में ही रहना और जल से ही होगा। यहां से सभी को उठना पड़ा है। एक न एक दिन, अलिप्त रहना। 541 2010_03 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ webmasumaase ज्ञान है परमयोग _ 'जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्वतः भिन्न तथा कुछ फर्क नहीं पड़ता ज्ञायक-स्वरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। पश्चिम में एक बहुत बड़ा नास्तिक हुआ-वोल्तेयर। उसने जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं। जिंदगीभर ईश्वर, आत्मा, धर्म, इनका खंडन किया। फिर वह जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ।। बीमार पड़ा, हृदय का दौरा पड़ा। तब वह घबड़ा गया। तब 'आत्मा को इस शरीर से तत्वतः भिन्न और ज्ञायक-स्वरूप एकदम उसने अपनी पत्नी को कहा. अपने मित्रों को कहा कि जानता है।' जल्दी ही किसी धर्मगुरु का बुलाओ। पर उन्होंने कहा, धर्मगुरु! यह गहनतम सूत्र है ध्यान का। जिसे भी हम देखने में समर्थ हो क्या तुम भूल गये अपने सिद्धांत? उसने कहा छोड़ो सिद्धांत, जाते हैं, वह हम से भिन्न है। तुम अपने शरीर को देखने में समर्थ इधर मैं मर रहा हूं, तुम्हें सिद्धांत की पड़ी है। अभी तक तो जिंदा हो, शरीर तुमसे भिन्न है। तुम अपने विचार को देखने में समर्थ | था, तो कभी मैंने सोचा न था। लेकिन कौन जाने, यह धर्मगुरु हो, विचार तुमसे भिन्न है। तुम सिर्फ अपने साक्षीभाव को देखने | ठीक ही हों! मरते वक्त मुझे आगे का इंतजाम कर लेने दो। में समर्थ नहीं हो, इसलिए साक्षीभाव से तुम अभिन्न हो। उससे धर्मगुरु बुलाया गया। संयोग की बात वह ठीक हो गया। तुम अलग नहीं हो सकते। काटते-काटते, हटाते-हटाते जो जब वह फिर स्वस्थ हो गया, तो उसने फिर अपने पुराने राग भिन्न है उसे जानते-जानते आदमी उस अंतिम पड़ाव पर पहुंचता शुरू कर दिये। फिर नास्तिकता! फिर ईश्वर, फिर आत्मा का है, जहां केवल वही शेष रह जाता है। जिसको अपने से अलग खंडन! मित्रों ने कहा यह तुम क्या कर रहे हो? उसने कहा वह नहीं किया जा सकता, वह तुम्हारा शुद्ध ज्ञायक-स्वरूप है। उस सिर्फ मौत के भय के कारण, वह कोई असली बात न थी। वह शुद्ध में ही जीने का नाम धर्म है। और उस शुद्ध में ही ठहर जाने | तो सिर्फ भावावेश था। फिर वह अपनी बुद्धि में प्रवेश कर का नाम मोक्ष है। उस शुद्ध को जिन्होंने जान लिया, वे ही मुक्त | गया-बहुत बड़ा बुद्धिमान आदमी था। बहुत तर्कशील हैं। और महावीर कहते हैं, जिसने उस ज्ञायक-स्वरूप को जान आदमी था। तो उसने उसके लिए भी तर्क खोज लिया कि वह तो लिया, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। उसने सब जान लिये भय के कारण जरा कंप गया था। उसको तुम कुछ गौर मत दो। करान, बाइबिल, वेद, गीता। फिर कहीं कछ और जानने की लेकिन फिर दस-पंद्रह साल बाद वह दौरा पड़ा। तब वह फिर जरूरत न रही। घबड़ाया। उसने कहा, बुलाओ धर्मगुरु को। लेकिन मित्रों ने इसे थोड़ा समझो। | कहा, अब तुम्हारे भय के कारण हम धोखे में न पड़ेंगे। कहते हैं सभी रहस्यवादियों ने महावीर, कष्ण, बद्ध, सभी | मित्र घेरा बांधकर खड़े हो गये। उन्होंने कहा, न तो हम धर्मगरु रहस्यवादियों ने-एक बात पर जोर दिया है कि शास्त्र को को भीतर आने देंगे, न तुमको बाहर जाने देंगे। अब धोखा न जानकर तुम स्वयं को न जान सकोगे, लेकिन अगर स्वयं को चलेगा। रोने लगा वोल्तेयर। छाती पीटने लगा कि यह तुम क्या जान लो तो सभी शास्त्रों को जान सकोगे। शास्त्र की तरफ से जो कर रहे हो, मैं मरा जा रहा है। इधर मौत खड़ी है, तुम्हें सिद्धांतों स्वयं को जानने चला, उसने प्रारंभ से ही गलत यात्रा शुरू कर की पड़ी है। छोड़ो मैंने क्या कहा था। मैं क्या कहता हूं उसे दी। वह शब्दों में भटक जाएगा, शब्दों के बड़े जंगल हैं। शब्दों सुनो। लेकिन मित्रों ने कहा कि अब नहीं। फिर वह ठीक नहीं का बड़ा बीहड़ जंगल है। उससे लौटना मुश्किल हो जाएगा। हुआ, मर गया। लेकिन उसकी अवस्था को हम थोड़ा सोचें। सिद्धांतों की बड़ी भीड़ है। तुम उसमें भटक जाओगे। बड़ा बुद्धि कहीं भी ले जाती नहीं। जब सब ठीक चल रहा है, तब तर्कजाल है। उससे छूटना मुश्किल हो जाएगा। फिर, शास्त्र से तो शायद तुम्हें परमात्मा की याद भी नहीं आती। तब धर्म की तुम जो भी जानोगे, वह बुद्धि से जानोगे। अनुभव से नहीं, हृदय तुम्हें याद भी नहीं आती। मंदिर के पास से तुम ऐसे गुजर जाते हो से नहीं। बुद्धि तुम्हारी भरती जाएगी, और हृदय खाली का जैसे मंदिर है ही नहीं। जब चीजें गड़बड़ हो जाती हैं, हाथ-पैर खाली रह जाएगा। तुम्हारे जीवन का संतुलन डांवांडोल हो डांवांडोल होने लगते हैं, मौत करीब आने लगती है, तब तुम्हें जाएगा। फिर तुम चाहे आस्तिक बन जाओ, चाहे नास्तिक, | धर्म की याद आती है। 2010_03 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 MEROLA लेकिन यह याद बड़ी मूल्यवान नहीं है। अगर तुम फिर ठीक सकता, जैन नहीं हो सकता। धार्मिक होना काफी है। काफी से हो गये, तो फिर तुम उसी अकड़ से चलने लगोगे। ज्यादा है। यह विशेषण बिलकुल व्यर्थ है। बुद्धि से आदमी नास्तिक हो, तो किसी मतलब का नहीं। 'अतः हे भव्य '....अंतिम सूत्र... 'तू इस ज्ञान में सदा लीन बुद्धि से अगर आस्तिक हो, तो किसी मतलब का नहीं। क्योंकि रह, इसी में सदा संतुष्ट रह, इसी में तृप्त हो, इसी से तुझे उत्तम बुद्धि तो सिर्फ यंत्र है, तुम्हारी आत्मा नहीं। जब तक आत्मा न सुख प्राप्त होगा।' डूब जाए, तन्मय न हो जाए; जब तक आत्मा का पोर-पोर न | ‘एदम्हि रदो णिच्चं। हे भव्य, तू इस ज्ञान में डूब।' भीग जाए, तब तक कछ सार नहीं। बद्धि में सिद्धांतों का होना 'संतट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। इसी में संतुष्ट हो।' ऐसे ही है, जैसे किसी को भूख लगी हो, वह पाकशास्त्र पढ़ रहा | ‘एदेण होहि तित्तो। इसी में तृप्त हो।' है। खूब सुंदर भोजन, स्वादिष्ट भोजनों का वर्णन है। कैसे | 'होहिदि तुह उत्तम सोक्खं। और उत्तम सुख तुझे निश्चित बनाना. यह भी लिखा है। एक से एक व्यंजन, सब ब्यौरे से मिलेगा। त उत्तम सख हो जाएगा।' लिखे हैं। भूख लगी आदमी को, वह पाकशास्त्र पढ़ रहा है। तू महासुख स्वयं हो जाएगा। इससे क्या भूख मिटेगी? इससे शायद भूख थोड़ी बढ़ जाए, यह जिसे हम संसार समझ रहे हैं और जहां हम सुख खोज रहे हैं, हो सकता है, लेकिन मिट तो नहीं सकती। और जिसने वहां मिलता किसी को कभी सुख? वहां सिर्फ आभास है, पाकशास्त्र को ही भोजन समझ लिया, उस अभागे आदमी को मगमरीचिका है, खिलौने हैं। वही व्यक्ति प्रौढ़ है, जिसे यह हम क्या कहें, वह पागल है। वेद तो पाकशास्त्र है। दिखायी पड़ गया कि संसार में सिर्फ खिलौने हैं। छोटा बच्चा ॥ के रसायन में पगना होगा, रंगना होगा। भोजन खेल रहा है। गड़ा-गड़ी का विवाह रचाता है। और उसी तरह पकाना होगा अपनी ही आत्मा में। उस गहनतम प्रयोगशाला में उत्तेजित होता है जैसे कि तुम असली विवाह में उत्तेजित होते हो। उतरना होगा। महावीर कहते हैं, तुमने अगर स्वयं को जाना, तो उसको तो तुम कहते हो बच्चा है, खिलवाड़ में लगा है। लेकिन तुम गवाही हो जाओगे सभी शास्त्रों के। तुम कह सकोगे कि हां, | तुम जो विवाह रचाते हो, वह खिलवाड़ से कहीं ज्यादा है? वह वे सभी ठीक हैं। और यह भी खयाल रख लेना, जिस व्यक्ति ने भी खिलवाड़ है। थोड़े बड़े पैमाने पर है। छोटे बच्चे बारात स्वयं को जाना, वह कहेगा सभी ठीक हैं। वह यह न कहेगा, निकालते हैं अपने गुड्डे की, तुम राम की बारात निकालते हो। करान ठीक है, बाइबिल गलत है। वह यह न कहेगा, वेद सही हैं | रामलीला करते हो। उसमें सम्मिलित होते हो। लेकिन सब खेल और बुद्ध गलत हैं। उसको तो दिखायी पड़ गया अनुभव। अब है। खेल से कब जागोगे? शब्दों के भेद होंगे, रूप-रेखा अलग होगी, रंग-ढंग अलग मताए-सोजो-साजे-जिंदगी पैमाना-ओ-बरबत होंगे, लेकिन भीतर का प्राण तो उसे समझ में आ गया। उसे मैं खुद को इन खिलौनों से भी अब बहला नहीं सकता मूलसूत्र तो पकड़ में आ गया। अब सभी ठीक हैं। इसलिए | कब वह वक्त आएगा, जब तुम कहोगे—जीवन के महावीर ने एक सिद्धांत को जन्म दिया, जिसको अनेकांतवाद सुख-दुख, शराब और संगीत...। कहते हैं। मताए-सोजो-साजे-जिंदगी पैमाना-ओ-बरबत अनेकांतवाद का अर्थ होता है, सभी दृष्टियां ठीक हैं। कोई मैं खुद को इन खिलौनों से भी अब बहला नहीं सकता दृष्टि गलत नहीं। महावीर ने दर्शन का बड़ा अनूठा अर्थ किया कब वह वक्त आएगा जब तुम कहोगे कि अब इन खिलौनों से है। दर्शन का अर्थ है, ऐसी दृष्टि जहां सभी दृष्टियां ठीक हैं। | भी बहलाने का वक्त जा चुका। अब मैं इन खिलौनों से भी दर्शन का अर्थ है, सभी दृष्टियों को ठीक मानकर सभी दृष्टियों अपने को बहला नहीं सकता। उसी दिन तुम प्रौढ़ बनोगे। उसी के ऊपर उठ जाना। कोई दृष्टि में बंधा न रह जाए व्यक्ति। तो | दिन तुम्हारे भीतर बोध का जन्म हुआ। उसी दिन वस्तुतः तुम धर्म का अर्थ तो हुआ, जब व्यक्ति किसी धर्म में बंधा न रह जन्मे। उसके पहले तक तो एक सपना था। जाए। धार्मिक व्यक्ति हिंदू नहीं हो सकता, मुसलमान नहीं हो रुखसत ऐ हमसफरो! सहरे-निगार आ ही गया 56 | 2010_03 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान है परमयोग - MAHARIHARomania खुल्द भी जिस पे हो कुर्बा वो दियार आ ही गया शराब है, नशा है। बोध नहीं, जागरण नहीं। डूबो, अपने में। महावीर कहते हैं, जो इन खिलौनों से जग गया, बात हो गयी। देखना ही है जो इंसान में भगवान तुम्हें इधर खिलौनों से छूटे कि वहां सत्य हाथ में आया नहीं। इधर आदमी को ही आदमी की नज़र से देखो सपना टूटा कि वहां आंख खुली नहीं। आंख का खुलना और चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो सपने का टूटना युगपत है। एकसाथ है। ऐसा थोड़े ही है कि तैरनेवाले को तट से न, लहर से देखो पहले अज्ञान मिटेगा, फिर ज्ञान होगा। अज्ञान मिटा कि ज्ञान डूबना पड़े। यह जो डूब गये, उनकी बातें हैं। जो खो गये परम हुआ, ज्ञान हुआ कि अज्ञान मिटा। एक साथ! एक पल में! सागर में, उनके वचन हैं।। रुखसत ऐ हमसफरो! अलविदा। कहने लगता है वैसा व्यक्ति | चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो अपने साथियों से कि अब विदाई आ गयी, अब तुम चलो जिस ऐसे किनारे बैठकर मत देखते रहना। तुम्हें पता न चलेगा रास्ते पर तुम चल रहे हो, लेकिन मैं तो विदा हुआ उनका आनंद। दौड़नेवाले का आनंद बैठनेवाले को कैसे पता रुखसत ऐ हमसफरो! सहरे-निगार आ ही गया चलेगा! कभी तुम दौड़े हो सुबह के सूरज में, सुबह की ताजी मेरी मंजिल आ गयी। हवाओं में, जब मलय-बहार सब तरफ घेर लेती है, सुबह की खुल्द भी जिस पे हो कुर्बा वो दियार आ ही गया नयी सुगंध? तुम दौड़े हो हवाओं में, तुमने किया है संघर्ष? और स्वर्ग भी जिस पर कुर्बान हो जाएं, वह खुशी का नगर, नहीं तो तुम्हें पता नहीं चलेगा, वह जो पुलक, वह जो ताजगी उस वह अंतःपुर आ गया। क्षण घेर लेती है दौड़नेवाले को। तुम बैठे किनारे से देखते रहोगे, हमने इस देश में आत्मा को एक और नाम दिया है। वह नाम दौड़नेवाला भी दिखायी पड़ता है, हवा के झपेड़े भी दिखायी है पुरुष। पुरुष उसी धातु से बनता है, जिससे पुर। पुरुष का पड़ते हैं क्योंकि उसके वस्त्र उड़े जा रहे हैं, उसके बाल उड़े जा रहे अर्थ होता है, भीतर के नगर में रहनेवाला। हैं, और यह भी दिखायी पड़ता है कि बड़ा ताजा और बड़ा प्रसन्न रुखसत ऐ हमसफरो। सहरे-निगार आ ही गया है, लेकिन भीतर उसके जो घट रहा है, वह तो तुम कैसे जानोगे, खुल्द भी जिस पे हो कुर्बा वो दियार आ ही गया कैसे देखोगे? इधर खिलौने हाथ से छूटे नहीं, इधर तुम खाली हुए संसार के चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो उपद्रव से, वहां तुम भरे नहीं परमात्मा की परम शांति से। तैरनेवाले को तट से न, लहर से देखो। 'हे भव्य, तू इस ज्ञान में सदा लीन रह।' तैरनेवाले का कुछ मजा है। वह तैरनेवाला ही जानता है। वह - किस ज्ञान में? शास्त्र के नहीं, शब्द के नहीं। स्वयं के, ध्यान तुम्हें बताना भी चाहे तो नहीं बता सकता। 'गूंगे केरी सरकरा।' के, अपने अनुभव के अंतर-संगीत में डूब। उसने स्वाद तो लिया है, लेकिन कैसे कहे? कहने को कुछ 'इसी में सदा संतुष्ट रह। इसी में तृप्त हो। इसी से तुझे उत्तम | उपाय नहीं है। गूंगा ज्यादा से ज्यादा तुम्हारा हाथ पकड़कर खींच सुख प्राप्त होगा।' सकता है कि आओ, तुम भी रस ले लो, तुम भी चखो इस स्वाद महावीर कहते हैं, उत्तम सख। जो सख कभी न छिने, वह को। तैरनेवाले से तम पछो कि क्या है मजा? यह पानी के उत्तम। जो आए तो आए, फिर जाए न, वह उत्तम। जो आए तो थपेड़ों में उलझना तेरा, यह पानी के साथ नाच, यह नृत्य लहरों सदा के लिए आ जाए, जो आए तो शाश्वत आ जाए, जो मिले में, क्या है मजा? तो वह कहेगा, आओ, खींचेगा तुम्हारा हाथ। तो फिर जिससे बिछड़ना न हो, वह उत्तम। जिस सुख में वही महावीर कर रहे हैं। वही सदा सत्पुरुषों ने किया है। खींचते बिछड़ना हो, वह केवल दुख का ही एक चेहरा है। जिस हंसी में हैं तुम्हारा हाथ कि आओ। तुम कहते हो, पहले समझाओ। तुम आंसू छिपे हों, वह रोने का ही एक ढंग है। जहां से हट जाना कहते हो, पहले हमें पक्का भरोसा आ जाए कि कुछ सार है, तो पड़े, वहां रहना केवल हटने की तैयारी है। जिस योग में वियोग उतरेंगे। यहीं अड़चन है। संभव हो, वह योग ही नहीं। वह केवल योग का धोखा है। वह | मैंने सना है, मुल्ला नसरुद्दीन तैरना सीखने नदी पर गया था। 57 2010_03 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 पैर फिसल गया, काई जमी थी घाट पर, गिर पड़ा। भागा वहां | वसंत को जिसने देख लिया, फिर एक-एक कली और से। जो सिखाने उसे ले गया था उसने कहा, कहां जा रहे हो? एक-एक फूल को थोड़े ही गिनता फिरता है। आ गया वसंत। नसरुद्दीन ने कहा, हो गया। अब जब तक तैरना सीख न लूं, वसंत को पूरा जिसने देख लिया, सब फूल समा गये उसमें। नदी के पास भी न फटकूँगा। यह तो खतरनाक मामला है, अभी ध्यान रहे, खंडों का जोड़ नहीं है पूर्ण। खंडों के जोड़ से बहुत पैर फिसल गया, अगर पानी में चले गये होते तो गये। अब ज्यादा है पूर्ण। वसंत सभी फूलों और कलियों का जोड़ नहीं है, आनेवाला नहीं हूं। अब तैरकर, सीखकर ही आऊंगा। लेकिन वसंत कलियों और फूलों के जोड़ से ज्यादा है। वसंत बहुत उस आदमी ने कहा, तुम तैरना सीखोगे कहां? कोई गद्दे-तकियों विराट है। कलियों और फूलों में तो थोड़ी-थोड़ी झलक पड़ी है, पर तो आदमी तैरना सीखता नहीं। कितने ही हाथ-पैर तड़फाओ थोड़ी प्रतिछवि आयी है। कलियों और फूलों में तो थोड़ा-सा गद्दे-तकियों पर, उससे तैरना न आएगा। सुविधापूर्ण है वैसा | प्रतिबिंब बना है, थोड़ी लहर गूंजी है। तैरना, खतरा बिलकुल नहीं है-अपने गद्दे-तकियों पर चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख हाथ-पैर फेंक रहे हैं, कौंन क्या करेगा? डूबने का कोई डर नहीं यानी पहचान खिलाड़ी को बस बिसात न देख है। लेकिन डूबने का जहां डर न हो, वहां तैरना आता ही नहीं। महावीर हैं, बुद्ध हैं, बड़ी उनकी बिसात है। शतरंज के मोहरे जितनी बड़ी जोखम, उतनी ही बड़ी आत्मा का जन्म होता है। बिछाकर बैठे हैं। तुम मोहरों को ही मत देखते रहना, खिलाड़ी वह डूबने से ही तैरने की कला आती है। डूबने की संभावना से को देख। उनके शब्द तो मोहरे हैं शतरंज के। उनके सिद्धांत भी ही तैरने का सत्य पकड़ में आता है। मोहरे हैं। उसी में मत उलझ जाना। अन्यथा तुम ऊपर-ऊपर रह जाओगे। दौड़नेवाले को किनारे यानी पहचान खिलाड़ी को बस बिसात न देख से बैठकर देख लोगे, तैरनेवाले को किनारे से बैठकर देख लोगे। मेरी डोली की गरीबी पे ओ हंसनेवाले। महावीर को ऐसे ही तो देखा तुमने। ऐसे ही तो तुम मुझ को भी मेरी दुल्हन को देख, लौटती बारात न देख देख रहे हो। बहुत कम लोग हैं जिन्होंने महावीर की दुल्हन देखी। लौटती चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख... बारात देखी। तो जैन-शास्त्रों में बड़ा उल्लेख है कि महावीर ने चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख कितना त्याग किया-कितने घोड़े, कितने हाथी, कितने हीरे, यानी पहचान खिलाड़ी को बस बिसात न देख कितने जवाहरात! बड़ी लंबी संख्याएं हैं। बड़े शून्यों पर शून्य मेरी डोली की गरीबी पे ओ हंसनेवाले! रखे हैं। त्याग तो दिखा उन्हें, इसलिए बड़ा वर्णन किया है। मेरी दुल्हन को देख, लौटती बारात न देख लेकिन यह लौटती बारात है। इसको तो महावीर छोड़कर चले लेकिन दुल्हन बड़ी भीतर है। डोली ही दिखायी पड़ती है, गये। इसमें तो उन्हें कुछ भी न दिखा। बारात दिखायी पड़ती है। दुल्हन तो डोली में छिपी है। डोली जिसको महावीर ने छोड़ दिया, उसको जैनियों ने बड़े विस्तार कभी बहुत सजी-संवरी हो, अमीर की हो, तो भी जरूरी नहीं कि से लिखा है। इनको जरूर कुछ दिखता होगा, अन्यथा कौन दुल्हन भीतर हो ही। डोली गरीब की भी हो, रंग-रोगन सब उड़ कागज खराब करता है। यह लौटती बारात है। यह देख रहे हैं गया हो, तो भी दुल्हन हो सकती है। कि कौन-कौन आए थे। प्रधानमंत्री थे बारात में, राष्ट्रपति थे, चमन को देख तो फिर फल-पात को न देख गर्वनर थे, यह लौटती बारात देख रहे हैं, यह दूल्हे को भूल ही तुमने अगर मेरे शब्द-शब्द चुने, तो तुमने फूल-पात चुना। तो गये हैं! दुल्हन की तो बात ही दूर, दुल्हन तो दूर छिपी है चूंघट तुमने चमन को न देखा। तो यह बहार जो आयी थी तुम्हारे पास, | में, डोली में। महावीर के त्याग को तो देखा, महावीर के भोग को ऐसे ही गुजर गयी। तुमने खंड-खंड चुने, तुमने समग्र को न देखा? महावीर की दुल्हन देखी? महावीर ने जो छोड़ा, वह तो देखा। तुमने गिन लिया! महावीर ने जो पाया, उसको गिना? वह तो चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख! बिलकुल चूक गया। 58 2010_03 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान है परमयोग तो महावीर की बड़ी अधूरी तस्वीर लोगों के हाथ में है और अधूरी ही नहीं, गलत तस्वीर हाथ में है। लोग कहते हैं, महावीर महात्यागी। मैं तमसे कहता हं, इतने बड़े महाभोगी कभी-कभी होते हैं। उन्होंने परमसत्य को भोगा। परमसत्ता को भोगा। जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं। जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं।। एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तम सोक्ख।। किसने उनके उत्तम सुख को देखा? किसने देखा उनके स्वर्ग को? लेकिन वह देखा भी नहीं जा सकता बाहर से। बाहर से तो लौटती बारात दिखायी पड़ती है। शतरंज के मोहरे दिखायी पड़ते हैं। खिलाड़ी तो भीतर छिपा है। दल्हन तो डोली में है। चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो तैरनेवाले को तट सेन, लहर से देखो। आज इतना ही। 59 2010_03 R Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education int 1 0_0 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रवचन किनारा भीतर है For Private Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार SARAN प्रश्नकर्ता के खयाल में, भगवान का एक ही बात अनेक-अनेक ढंगों से कहना, __ पर सुनते समय उसे लगना जैसे पहली बार सुनता हो। और इतना आनंद मिलना कि वापिस घर लौटने का मन न होना। प्रश्नकर्ता की विह्वलता-क्या करे, क्या करे वह कि भगवान को सुनता ही रहे! घर से चले थे, अनेकों प्रश्न से घिरे थे। कल के प्रवचन से अचानक सारे प्रश्न गायब! ऐसा क्यों और कैसे हुआ? भगवान का प्रवचन सुनते समय आंखों का बंद होने लगना, कानों का बहरा होने लगना और चेष्टा से भी स्थिति का न संभलना। इधर जी की चाह कि जब परमात्मा समक्ष है तो उसे निहारता रहे, वचनामृत-रसपान करता रहे। कैसे होशपूर्वक सुनना हो-भक्त की पुकार... मैं क्या प्रश्न करूं और आप क्या उत्तर दें! प्रश्न भी आप, उत्तर भी आप। प्रेम में प्रश्न हो, उत्तर हो, या चुप्पी? कई बार भगवान का रंगीन दिखायी पड़ना-यद्यपि एक खालीपन की भांति -और प्रश्नकर्ता का आनंद से भर उठना यह सब क्या? 2010_03 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्न: आप एक ही बात कहते हैं अनेक-अनेक ढंगों से। पर जब आपको सुनता हूं तो उस समय यही लगता है कि पहली बार सुन रहा हूं। और इतना आनंद मिलता है कि वापिस घर लौटकर जाने का जी नहीं करता। क्या करूं, मैं क्या करूं कि आपको सुनता ही रहूं ! एक बात है कहने को । क्योंकि एक ही सत्य है जानने को । सच पूछो तो एक बात भी कहने को नहीं है । जानने को है कुछ, कहने को नहीं । जागने को है कुछ, सुनने को नहीं । कुछ है, जो कहा नहीं जा सकता। उसी को कहना है। ढंग | बदल जाते हैं। और अच्छा है कि तुम्हें याद रहे कि मैं एक ही | बात कह रहा हूं । ढंगों में बहुत मत उलझ जाना । बहुत लोग उलझ गये हैं । कोई हिंदू में, कोई मुसलमान में, कोई जैन में, वे सब ढंग हैं। कहने के भेद हैं। अभिव्यंजनाएं हैं अलग-अलग। अभिव्यक्तियां हैं अलग-अलग। जो कहा गया है, वह एक है। और जो कहा गया है, वह कुछ ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता है। इसीलिए बहुत ढंगों से कहना पड़ता है कि शायद एक ढंग चूक जाए, तो दूसरे ढंग से पकड़ में आ जाए। दूसरा चूके, तो तीसरे से पकड़ आ जाए। इसलिए मैं रोज नये-नये इशारे करता हूं। अंगुलियां अलग-अलग हों भला । जिस तरफ इशारा है, वह निश्चित ही एक है। अगर तुम कल चूक गये, तो आज मत चूक जाना। यह निरंतर एक ही तरफ सतत इशारा ऐसे ही है जैसे जलधार गिरती है पहाड़ 2010_03 से सख्त चट्टानों पर । जल तो बहुत कोमल है, चट्टान बड़ी सख्त है पर धार गिरती ही रहती है, गिरती ही रहती है, गिरती ही रहती है, एक दिन चट्टान टूट जाती है, रेत होकर बह जाती है। कोमल जीत जाता है सख्त पर । निर्बल जीत जाता बलशाली पर। पहाड़ से गिरते हुए झरने को देखकर तुम्हें कभी याद आया या नहीं - निर्बल के बल राम । नहीं आया, तो फिर तुमने पहाड़ से गिरता झरना नहीं देखा। झरना जीत जाता है, जिसका कोई भी बल नहीं। चट्टान हार जाती है, जिसका सब बल है। आदमी का मन तो है चट्टान की भांति । बड़ा सख्त । सदियों पुराना | बड़ा प्राचीन । सनातन । सदा से चला आया । और चैतन्य की धार है जल, जलधार की भांति । अभी-अभी । अभी-अभी फूटी। अभी बूंद-बूंद टपकी। लेकिन जीत जाएगी चैतन्य की धार । तो रोज-रोज तुमसे एक ही बात कहता हूं, वही जलधार है, वही जलधार है। पहले दिन न टूटेगी चट्टान, दूसरे दिन टूटेगी। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, चट्टान को टूटना ही पड़ेगा। चट्टान पुरानी है, पर निष्प्राण है। जलधार नयी है, पर सप्राण है । ढंग बदल लेता हूं, शब्द बदल लेता हूं। और इसीलिए मैंने सभी शास्त्रों के शब्द ले लिये हैं। क्योंकि जब मुझे यह दिखायी पड़ गया कि एक ही है, तो सभी शास्त्र मेरे हो गये । अब मुझे कोई फर्क नहीं है महावीर और मुहम्मद में, कृष्ण में और क्राइस्ट में | ढंग का फर्क है। दोनों ढंग प्यारे हैं। जिस ढंग से तुम्हें समझ में आ जाए वही ढंग प्यारा है। ढंग पर मत जाना। वह जो ढंग के भीतर छिपा है, उस पर ही ध्यान 65 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 रखना। और वह एक तुम्हें सुनायी पड़ने लगे तो फिर सुनने की पड़ी है कि शायद बात वही है, लेकिन शायद! अभी यह प्रगाढ़ भी जरूरत न रह जाएगी। वह एक तुम्हें दिखायी पड़ने लगे, तो | होकर तुम्हारा जीवंत अनुभव नहीं बना है। फिर दिखाने का कोई प्रयोजन न रह जाएगा। आंखवालों को तो | इसलिए जब भी तुम मुझे सुनोगे, लगेगा नया। नया कुछ भी कोई राह नहीं दिखाता। अंधों को दिखानी पड़ती है। स्वस्थ को | नहीं है। सत्य नया कैसे हो सकता है! सत्य न नया है, न पुराना तो कोई औषधि नहीं पिलाता, रोगी को पिलानी पड़ती है। है। सत्य तो बस है। नये-पुराने का कोई संबंध सत्य पर नहीं जागो! उस एक को जिसे मैं दिखाने की कोशिश कर रहा हूं, | लगता, क्योंकि सत्य समय के बाहर है। नये और पुराने तो देखने की कोशिश करो! तो जो मैं कह रहा हूं उसका बहुत मूल्य | समय के भीतर होते हैं। सत्य कुछ ऐसा थोड़े ही है कि कल था नहीं है। एक बार समझ में आ जाए, अंगुली व्यर्थ हो जाती है, और कल नहीं होगा। या आज हुआ है। सत्य तो बस है। फिर तो चांद पर नजर टिक जाती है। शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं, | आज-कल सत्य के भीतर हो रहे हैं। सत्य आज-कल के भीतर सत्य पर आंखें बंध जाती हैं। उसी दिन से फिर सुनने-सुनाने की नहीं हो रहा है। जिस क्षण तुम्हें यह बात प्रगाढ़ होने लगेगी, कोई बात न रही, पढ़ने पढ़ाने की कोई बात न रही। टूटेगी तुम्हारी चट्टान और जलधार को जगह मिलेगी, फिर तुम्हें कबीर ने कहा है याद भी न आयेगी क्या पुराना और क्या नया! फिर तो जो है, 'लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात।' वस्तुतः वही तुम्हें घेर लेगा। वही तुम्हारे बाहर है, वही तुम्हारे पर बिना इशारों के आंख तम्हारी उस तरफ जाएगी न। तो | भीतर है। खयाल रखना, कहीं मेरी अभिव्यंजना ही बाधा न बन जाए। और जिस दिन यह घटना घट जाएगी, उसी दिन फिर कहीं भी कहीं ऐसा न हो कि तुम सुनने में ही रस लेने लगो। कहीं ऐसा न | जाओ, मुझसे दूर न जा सकोगे। घर लौटो, तो भी मुझमें ही हो कि सुनने का संगीत ही तुम्हें पकड़ ले। कहीं ऐसा न हो कि लौटोगे। यहां आओ, तो मेरे पास आओगे। न आओ, तो मेरे सुनना ही तुम्हारी बेहोशी हो जाए। कहीं यह मनोरंजन न बन पास आओगे। फिर एक संबंध बनेगा, जो समय और स्थान के जाए। जागरण बने तो ठीक, मनोरंजन बने तो चूक गये। तो तुम | बाहर है। फिर एक सेतु जुड़ जाएगा, जो देहातीत है। लेकिन मेरे पास भी आये और दूर ही रह गये। मेरे शब्दों को मत | जब तक नहीं सुना है, तब तक बार-बार आना होगा। आने की पकड़ना। उनका उपयोग कर लेना। और उपयोग होते ही उन्हें | तकलीफ उठानी होगी। अगर न उठानी हो तकलीफ तो जल्दी ऐसे ही फेंक देना जैसे खाली चली हुई कारतूस को फेंक देते हैं। | करो, चट्टान को टूटने दो। सुनो! सुनो ही मत, गुनो! हाथ ही फिर उसे रखने का कोई अर्थ नहीं। चली कारतूस को कौन ढोता | मत देखो मेरा, उस तरफ देखो जिस तरफ हाथ इशारा कर रहा है? और जो ढोयेगा, वह किसी दिन मुसीबत में पड़ेगा। वह | है। उस अदृश्य को पकड़ने की कोशिश करो। फिर तुम जहां भी काम नहीं आयेगी। जिस दिन तुम्हें जरा-सी झलक मिली, उसी | होओगे, जैसे भी होओगे, कोई भेद मेरे और तुम्हारे बीच संबंध दिन शब्द चली हुई कारतूस हो गये। का न पड़ेगा। फिर मैं शरीर में रहं, तुम शरीर में रहो, या न रहो, पूछा है, “एक ही बात आप कहते हैं अनेक-अनेक ढंगों से।। यह जोड़ कुछ ऐसा है कि टूटता नहीं। पर जब भी आपको सुनता हूं तो उस समय यही लगता है कि अभी तो लौटने में तकलीफ होगी। क्योंकि लौटकर जब तुम पहली बार सुन रहा हूं।' जाते हो, अकेले जाते हो, मुझे अपने साथ नहीं ले जाते। मैं ऐसा इसलिए लगता है कि जो मैं तुम्हें दिखा रहा हूं, वह तुम्हें | चलने को राजी हूं। तुम अपने घर में मेरे लिए जगह ही नहीं अब तक दिखायी नहीं पड़ा। जिस दिन दिखायी पड़ जाएगा, | बनाते। सुन लोगे मुझे, समझ लोगे मुझे, तो मैं साथ ही आ रहा उस दिन फिर ऐसा न लगेगा। फिर मेरे शब्द कितने ही नये हों, | हूं। मुझसे दूरी गयी, दुई गयी। फिर तुम मुझसे भरे हुए लौटोगे। महावीर के बहाने कहं कि मुहम्मद के बहाने कह, तम जल्दी ही जब तक ऐसा नहीं, तब तक तो बड़ी तकलीफ होगी। पहचान लोगे कि बात वही है। अभी तुम्हें दिखायी नहीं पड़ा है। अभी बज्मे-तरब से क्या उठू मैं तुमने सुना है बहुत बार, ऐसी तुम्हारे अंतस-चेतन में झांई भी | अभी तो आंख भी परनम नहीं है 2010_03 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किनारा भीतर है अभी इस खुशी की महफिल से तो मत उठाओ मुझे, अभी तो है। वह काम तो पूरा करना होगा। भगोड़ापन मैं नहीं सिखाता आंख भी गीली नहीं हुई। हूं। भगोड़े मेरे लिए संन्यासी नहीं हैं। भगोड़े में कुछ कमी है। अभी बज्मे-तरब से क्या उठू मैं भगोड़ा संसार में परमात्मा को न देख पाया, अंधा है। भगोड़ा अभी तो आंख भी पुरनम नहीं है वहां से भाग गया, जहां जीवन-रूपांतरण होता, जहां क्रांति घट तो तुम्हें लगेगा जैसे बे-समय, असमय तुम्हें उठा दिया गया सकती थी, जहां चुनौती थी। है। ऐसा लगेगा जैसे अभी जाना न था और जाना पड़ा। और नहीं, मैं तो तुम्हें वापिस भेजूंगा। तुम्हारी आंख गीली हुई हो या | अगर ऐसे तुम गये, तो घर और भी उदास हो जाएगा। जितना | न हुई हो, तुम्हें जाना तो होगा। जब जा पहले था, उससे भी ज्यादा। मैं तुम्हारे घर को उदास नहीं करना जाओ। आंख गीली क्या, हृदय को गीला करके जाओ। और चाहता। मैं तुम्हारे घर को मंदिर बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं तुम्हारे हाथ में है। अगर तुम प्यासे लौटते हो, तो कोई और कि तुम जब घर जाओ, तो तुम्हारे घर का अभिनवरूप प्रगट हो। जिम्मेवार नहीं है। तुम मुझे दोष न दे सकोगे। नदी बह ही रही मैं तुम्हें घर से, संसार से, गृहस्थी से तोड़ नहीं लेना चाहता। | थी, तुम झुके नहीं। तुमने अंजुलि न बनायी। तुमने नदी से पानी वही मेरे संन्यास का अभिनवपन है कि मैं तुम्हें संसार से तोड़ न भरा। तुम शायद प्रतीक्षा करते थे कि नदी अब तुम्हारे कंठ तक नहीं लेना चाहता। मैं तुम्हें संसार से इस भांति जोड़ देना चाहता | भी आये। नदी तुम्हारे पास से बह रही थी, लेकिन झुकने की हूं कि संसार का जोड़ ही परमात्मा से जोड़ बन जाए। संसार | तुमने हिम्मत न दिखायी। केवल हिम्मतवर झुक सकते हैं। तुम्हारे और परमात्मा के बीच बाधा न रहे, साधक हो जाए। समर्पण केवल वे ही कर सकते हैं, जिनके पास महासंकल्प है। गर तुम मुझे ले जा सको-थोड़ा-सा ही सही, थोड़ा-सा | जो बड़े बलशाली हैं, वे ही केवल झुकने की हिम्मत दिखा पाते वातावरण मेरा, थोड़ी-सी रोशनी मेरी, थोड़ी-सी श्वासें हैं। कमजोर तो डरा रहता है कि झुकने से कहीं कमजोरी का पता मेरी तो घर तम जाओगे, वही घर नहीं जिसे तम छोड़कर आये न चल जाए। अड़ा रहता है, अकड़ा रहता है। थे। पत्नी-बच्चे तब तुम्हें पत्नी-बच्चे ही न रह जाएंगे, उनमें भी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जितना भीतर आदमी हीनभाव से तुम परमात्मा की झलक देख पाओगे। देख ली जिसने परमात्मा भरा होता है उतना ही अकड़कर खड़ा रहता है कि किसी को पता की जरा-सी झलक, फिर वह सभी जगह उसे देख पाता है। | न चल जाए। झुका, पैरों में झुका, समर्पण किया, कहीं ऐसा न पत्थर में देख पाता है, तो पत्नी में न देख पायेगा। पत्थर मैं देख हो कि लोग कहने लगें, अरे, कहां गया तुम्हारा बल! तो पाता है, तो पति में न देख पायेगा। अब कैसे मजे की घटना है | हीनग्रंथि से भरा हुआ आदमी हमेशा अपने को श्रेष्ठ मानने की कि लोग जीवंत व्यक्तियों को छोड़कर भागते हैं और पत्थरों में | अकड़ रखता है। यह कमजोर का लक्षण है। बलशाली तो झक भगवान को देखते हैं। तुम्हें यहां न दिखा, तुम्हें पत्थर में कैसे | जाता है। क्योंकि झुकने से भी उसका बल मिटता नहीं। झुकने दिखायी पड़ेगा! और जिसको पत्थर में दिख सकता है, वह से बल बढ़ता है। क्योंकि झुकने से वह और भी ताजा हो जाता भागेगा क्यों? क्योंकि उसे सब जगह दिखायी पड़ेगा। है, नया हो जाता है, छोटे बच्चे की भांति हो जाता है। देखा दृष्टि अगर वस्तुतः जन्मी हो, तो तुम मुझे छोड़कर जाओगे ही तुमने, तूफान आता है, आंधी आती है, बड़े वृक्ष गिर जाते हैं, नहीं। मैं तुम्हारा आकाश हो जाऊंगा। मैं तुम्हें घेरे हुए चलूंगा। छोटे-छोटे घास के पौधे झुक जाते हैं। तूफान चला जाता है, और तभी तुम मुझसे जुड़े। तभी तुम मेरे संन्यासी हुए। अन्यथा घास के पौधे फिर खड़े हो जाते हैं। तूफान वृक्षों को गिरा देता है, संबंध बुद्धि का रहेगा। और तब बार-बार अड़चन होगी। घास को नहीं उखाड़ पाता। घास के पास कुछ बल है, जिसका जब-जब तुम्हें जाना पड़ेगा-और जाना तो पड़ेगा ही। वृक्षों को पता नहीं। झुकने का बल है। तूफान घास के पौधों को जिम्मेवारियां हैं। जाना तो पड़ेगा ही, दायित्व हैं। जाना तो पड़ेगा सिर्फ ताजा कर जाता है, हल्का कर जाता है, धूल-धवांस झाड़ ही, तुमने बहुत से भरोसे दिये हैं, आश्वासन दिये हैं। जाना तो जाता है। फिर वापिस खड़े हैं! बड़े वृक्ष गिर गये तो फिर लौट | पड़ेगा ही, क्योंकि परमात्मा ने तुम्हें कुछ करने के लिए काम दिया नहीं सकते, खड़े नहीं हो सकते। 167 2010_03 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 बडे वक्ष गिरते क्यों हैं? तफान तो नहीं गिराता। क्योंकि बार-बार लौट-लौटकर मझे सनना पड़ेगा। यह तो बंधन हो तुफान गिराता होता तो छोटे तो कभी के बह गये होते। नहीं, बड़े जाएगा। यह बंधन मैं नहीं चाहता कि तम बनाओ। मैं चाहता हूं वृक्ष तूफान के खिलाफ अकड़कर खड़े रहते हैं, इसलिए गिर तुम परिपूर्ण मुक्त हो जाओ। पर एक ही उपाय है। जैसा, जो जाते हैं। छोटे वृक्ष तूफान के साथ हो लेते हैं, हवा पूरब जाती है। मुझे हुआ, वही तुम्हें हो जाए-हो सकता है। अगर एक बीज तो पूरब झुक जाते हैं, हवा पश्चिम जाती है तो पश्चिम झुक जाते फूटकर वृक्ष बन गया, सभी बीज बन सकते हैं। जरा ठीक से हैं। छोटे वृक्ष कहते हैं, हम तुम्हारे साथ हैं। बड़े वृक्ष कहते हैं, भूमि खोजनी है। और हिम्मत खोजनी है भूमि में बिखर जाने की, हम तुम्हारे विरोध में हैं। उसी विरोध में गिर जाते हैं। ताकि अंकुरण संभव हो जाए। तुम अगर मेरे साथ हो, तो मैं तुम्हें ताजा कर जाऊंगा। तुम परमात्मा को छिपाये बैठे हो, दबाये बैठे हो। खोलो उसे, अगर पूरी तरह मेरे साथ हो, तो मेरी आंधी तुम पर से गुजर फैलने दो उसे। यहां कोई ऐसा है ही नहीं जो परमात्मा को लिये जाएगी, तुम्हें और हरा कर जाएगी, और नया कर जाएगी। और पैदा न हुआ हो। परमात्मा हमारा प्रथम रूप है, और अंतिम भी। तुम जहां भी जाओगे, मैं तुम्हारे हृदय में धड़कने लगूंगा। लेकिन परमात्मा हमारा बीज है, और हमारा फूल भी। अगर तुम मेरे साथ नहीं हो, अकड़े खड़े हो-अकड़ बहुत तरह की होती हैं, किसी ने शास्त्र पढ़ लिया तो अकड़ा खड़ा है। वह दूसरा प्रश्न : घर से चला था तब मन में अनेकों प्रश्न चक्कर कहता है, यह सब हमें मालूम है; किसी ने थोड़े उपवास कर काट रहे थे। अब तक आपके तीन प्रवचन सुन चुका हूं। और लिये तो अकड़ा खड़ा है। वह कहता है, हम कोई साधारणजन कल डोली की दुल्हन की बात सुनकर अचानक सारे प्रश्न ब हो गये। और अब प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों और कैसे दिया तो अकड़ा खड़ा है-इस अकड़ को अपने भीतर देखो। हुआ? कृपया समझायें। अगर यह अकड़ भीतर रही, तो तुम गीले न हो पाओगे। तो तुम सखे के सखे लौट जाओगे। हो सकता है, डर है कि तम और भी थोड़ी देर ठहरो, यह भी गायब हो जाएगा। प्रश्न उठ आते हैं टूटकर लौट जाओ। तो तुम मेरे पास आकर नये तो न हो पाओ, जल्दी में। ठहरनेवाले के अपने-आप गायब हो जाते हैं। प्रश्नों और जराजीर्ण हो जाओ। के कोई उत्तर थोड़े ही हैं। किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। तो जब मेरे पास हो, झुको। भरो अंजुलि, पीओ। कोई तुम्हें तुम्हारी समझ बढ़ जाती है, प्रश्न गायब हो जाते हैं। समझ का रोक नहीं रहा है। तुम्हीं न रोको, तो कोई और बाधा नहीं है। विकास है, प्रश्नों के उत्तर नहीं। पूछा है कि मैं क्या करूं कि आपको सुनता ही रहूं! एक ही इसे थोड़ा खयाल में लेना। उपाय है. मेरे जैसे हो जाओ। और तो कोई उपाय नहीं है। छोटा बच्चा है। खिलौनों से खेलता है। फिर बडा हो गया। क्योंकि अंततः तो तुम स्वयं को ही सुनोगे। अंततः तो स्वयं को | जब छोटा था, खिलौने छीनते तो झंझट पैदा होती। बिना ही सुनना है। अंततः तो तुम्हारे प्राणों में तुम्हारी ही वीणा का नाद | खिलौनों के सो भी न सकता था। बिना खिलौनों के भोजन भी न गूंजेगा। तुम मेरी वीणा को सुनकर अपनी वीणा को पहचान कर सकता था। खिलौने ही सब कुछ थे—संगी-साथी, सारा लो। तुम मेरी वीणा के तारों को डोलते, कंपते देखकर अपनी | संसार। फिर एक दिन अचानक उन खिलौनों को कोने में वीणा के तारों को भी तरंगित होने दो। तुम मेरे पास वस्तुतः | छोड़कर बच्चा भूल ही जाता है। याद ही नहीं रहती। क्या हो सजग होकर अपनी सोयी हुई संपदा को खोज लो, जगा लो, तो गया? बच्चा बड़ा हो गया। खिलौनों से खेलने का समय जा तुम मुझे सुनते रहोगे। क्योंकि फिर तुम जो बोलोगे, वह ठीक चुका। बुद्धि प्रौढ़ हो गयी थोड़ी। थोड़ी समझ ऊपर उठ गयी। वही होगा जो मैं बोल रहा हूं। तुम जो करोगे, वह ठीक वही होगा जिस समझ से प्रश्न उठते हैं, अगर उसी समझ में तुम रुके रहे, जो मैं कर रहा हूं। और दूसरा कोई उपाय नहीं है। | तो कोई हल नहीं। उस समझ के थोड़े ऊपर उठे कि प्रश्न गये। अगर तुमने मुझे दूर रखा, अलग रखा, भेद रखा, तो तुम्हें वस्तुतः सत्संग का यही अर्थ है कि तुम्हारी समझ तुम्हारे प्रश्नों से 2010_03 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर चली जाए। प्रश्न नीचे रह जाएं, बस गये। तुम्हारी समझ जब प्रश्नों से नीचे होती है, तो प्रश्न होते हैं। तुम्हारी समझ जब प्रश्नों से ऊपर उठ जाती है, पंख खोल देती है आकाश में, प्रश्न जमीन पर पड़े रह जाते हैं। फिर कोई चिंता नहीं रह जाती। इसे खयाल रखो। असली सवाल प्रश्नों का नहीं है, असली सवाल तुम्हारी चित्त दशा का है। एक खास चित्त दशा में खास तरह के प्रश्न उठते हैं। उसी चित्त दशा को बनाये रखे अगर तुम प्रश्नों को हल करना चाहो, हल नहीं हो सकते। अकसर लोग | यही कर रहे हैं। यह असंभव है । चित्त का तो कुछ रूपांतरण नहीं करते। चित्त तो वही का वही रहता है। प्रश्न पूछते हैं, एक उत्तर मिलता है। तुम्हारा चित्त वही का वही, उस उत्तर में से दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं। फिर दस उत्तर ले आओ, हजार प्रश्न खड़े हो जाएंगे। एक स्कूल में ऐसा हुआ। एक छोटा बच्चा भाग - भागकर सिनेमा पहुंच जाता था । शिक्षक परेशान था । कुछ भी पूछो वह किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा हो जाता था। एक दिन उसने यह सोचकर कि चलो कुछ ऐसा पूछें जिसका यह उत्तर दे सके, तो अंग्रेजी के शब्द पूछे कि इनका अर्थ क्या है? वह खड़ा रह गया हक्का-बक्का ! वह उनके भी उत्तर न दे सका। शिक्षक ने उसकी सहायता के लिए उसके पड़ोसी विद्यार्थी से पूछा - 'ड्रीम' का क्या अर्थ है? उसने कहा, स्वप्न ! दूसरे से पूछा - 'गर्ल' का क्या अर्थ है ? उसने कहा, लड़की। अब तो बात साफ थी । उसने इस लड़के से पूछा - 'ड्रीमगर्ल' का क्या अर्थ है? उस लड़के ने कहा, 'हेमामालिनी ।' एक तल है । उस तल में से बाहर निकलना बड़ा मुश्किल होता है। सारे उत्तर, सारे प्रश्न आखिर तुम्हारी ही बुद्धि के हिस्से बन जाएंगे। उनसे तुम पार न जा सकोगे। इसलिए वास्तविक सहायता उत्तर देने से नहीं होती, वास्तविक सहायता तुम्हारी बुद्धि को नये आयाम, नये स्तर, नये सोपान देने से होती है। जैसे ही तुम एक बुद्धि स्तर से थोड़े ऊपर गये, तो अचानक तुम पाते हो बात खतम हो गयी। प्रश्न सार्थक ही मालूम नहीं पड़ता, उत्तर की कौन तलाश करता है ! प्रश्न ही गिर जाता है। सत्पुरुषों के पास प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते, प्रश्न गिर जाते हैं। समस्याओं का समाधान नहीं होता, समस्याएं विसर्जित हो जाती हैं। 2010_03 किनारा भीतर है। थोड़ा रुको। जिन्होंने पूछा है, सरल हृदय व्यक्ति होंगे। जिन्होंने पूछा है, निष्ठावान व्यक्ति होंगे। तीन दिन ही उन्होंने मुझे सुना है । और कल डोली की दुल्हन की बात सुनकर उनके सारे प्रश्न गायब हो गये। बड़े सरल हृदय होंगे। उन्हें अपने पंखों का पता नहीं होगा। उड़ सकते हैं आकाश में। जैसे ही जरा-सी ऊंचाई आयी, प्रश्न गये । इस नये प्रश्न को भी मत पूछो। प्रश्न नासमझों के लिए छोड़ दो। समझदार को पूछने को कुछ भी नहीं है। समझदार को तो समझने को है, पूछने को कुछ भी नहीं है। थोड़ा जागो । दुल्हन की बात सुनकर जैसे उनके भीतर एक नया द्वार खुल गया। खुलना ही चाहिए, अगर मेरी बात ठीक से सुन रहे हो। ये बातें सिर्फ बातें नहीं हैं। ये बातें बहुत कुछ लेकर तुम्हारे पास आ रही हैं। ये बातें बहुत ही गहन संदेश लेकर तुम्हारे पास आ रही हैं। ये बातें प्रतीक हैं। इन प्रतीकों को अगर तुमने अपने हृदय में उतरने दिया, तो न मालूम कितने बंधनों को खोल जाएंगी, न मालूम कितनी गांठों को सुलझा जाएंगी। सरल हो चित्त, सुनने की निर्दोषता हो, बंधे हुए पूर्वाग्रह न हों, तो प्रश्न बच नहीं सकते मेरे पास । बच सकते हैं केवल दो तरह के लोगों के। एक तो उनके जो सुनते ही नहीं। जो बैठे हैं जड़, पत्थर की भांति । या उनके, जो मानकर ही बैठे हैं कि उन्हें पता है, इसलिए सुनने की कोई जरूरत नहीं । तो या तो सुस्त, अंधेरे में सोये हुए लोगों के प्रश्न नहीं मिटते, या उन लोगों के जिनको पांडित्य का पागलपन सवार गया है। जिनको खयाल है उन्हें पता है। प्रश्न दो तरह से उठते हैं। एक तो प्रश्न उठता है जिज्ञासा से। और एक प्रश्न उठता है जानकारी से। जिज्ञासु का प्रश्न तो अगर वह रुका रहे थोड़ी देर तो अपने-आप गिर जाएगा। लेकिन जानकारी से जो प्रश्न उठता है, वह गिरनेवाला नहीं है। वह जानकारी गिरेगी तभी गिरेगा। तुमने खयाल किया ? कुछ प्रश्न तो तुम्हारे जीवन से आते हैं। वे तो सच्चे प्रश्न हैं । कुछ प्रश्न तुम्हारे शास्त्रीय बोध से आते हैं। वे बिलकुल झूठे प्रश्न हैं। जब तक तुम्हारा शास्त्र न गिरेगा तब तक वे प्रश्न न गिर पायेंगे। पर जिन मित्र ने यह पूछा है, उनको मैं कहूंगा, उन्हें पूछने की कोई जरूरत नहीं। धीरज रखें। वे उन लोगों में से नहीं हैं, जो अपने को बचाने आये हों। उन लोगों में से हैं, जो मिटाने आये हैं। 69 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 जिगर और दिल को बचाना भी है है तुम्हारी आत्मा-उसका तुम्हें पता नहीं है। जो तुम्हारे पास नज़र आप ही से मिलाना भी है नहीं है, तुम्हें खयाल है कि है। और जो तुम्हारे पास है, तुम्हें मुहब्बत का हर भेद पाना भी है खयाल ही नहीं है कि है। बस इतना ही रूपांतरण है। इतनी ही मगर अपना दामन बचाना भी है क्रांति है कि तुम्हें दिख जाए कि क्या मेरे पास नहीं है, और क्या उन लोगों में से वे नहीं हैं। उनका दामन मेरे हाथ में आ गया। | मेरे पास है। जरा-सी क्रांति है। और वे छुड़ाने वालों में से नहीं हैं। उनको मैं कहूंगा, धीरज रखें। लेकिन उस जरा-सी क्रांति से सारा जीवन रूपांतरित हो जाता जैसे और प्रश्न गिर गये, यह प्रश्न भी गिर जाएगा। जैसे-जैसे है। धागे को सुई में डालना कोई बहुत बड़ी क्रांति थोड़े ही है, तुम अपने भीतर ऊपर उठने लगोगे, जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर जो | लेकिन महावीर कहते हैं, धागा चला जाए र होना है होने लगेगा, वैसे-वैसे तुम्हारे प्रश्न खोते चले जाएंगे। भी सुई खोती नहीं। जैसे ही तुम्हें यह समझ में आना शुरू हो एक चित्त की दशा है, जिसे निष्प्रश्न कहें, वही ध्यान की दशा गया-क्या तुम्हारे पास नहीं है, वैसे ही तुम्हें दूसरी तरफ से यह है। नहीं कि ध्यानी के सब प्रश्न हल हो जाते हैं, बल्कि ध्यानी के भी स्पष्ट होने लगेगा, क्या तुम्हारे पास है। भिखमंगापन खोना सब प्रश्न गिर जाते हैं। हल करने की आकांक्षा नहीं रह जाती। है। और तुम्हारे सम्राट होने की याद तुम्हें दिलानी है। दुल्हन कीप्रश्न व्यर्थ हो जाते हैं। बात सुनकर तुम्हें अपने भीतर के सम्राट की थोड़ी-सी झलक आ चीज एक है जो अभी खो के अभी खोनी है गयी है। बात एक है जो अभी हो के अभी होनी है शरीर डोला है। आत्मा दुल्हन है। संसार डोला है। परमात्मा जिंदगी नींद है वह जागकर आने वाली दुल्हन है। और तुम नाहक बराती बने हो, तुम दूल्हा बन सकते जो अभी सो के अभी सोयी अभी सोनी है हो। तुम नाहक ही बरात में धक्के-मुक्के खा रहे हो। चीज एक है जो अभी खो के अभी खोनी है कब तक दूसरों की बरात में सम्मिलित होते रहोगे? कभी अहंकार है नहीं तुम्हारे पास, मगर लगता है—है। महावीर की बरात में सम्मिलित हुए, कभी बुद्ध की बरात में चीज एक है जो अभी खो के अभी खोनी है सम्मिलित हुए, कभी कृष्ण की बरात में सम्मिलित हुए, तुम्हें खोयी हुई ही है। अहंकार है नहीं किसी के पास, सिर्फ भ्रांति | समझ नहीं आयी? चढ़ो अब घोड़े पर बैठो! बहुत दिन हो गये है। जैसे तुमने जेब में घर से पैसे डाले थे और रास्ते में कट गये, अब, बराती, बराती, बराती, अब दूल्हा बनो! तुम्हारी दुल्हन लेकिन बाजार में तुम उसी अकड़ से चले जा रहे हो जैसे पैसे जेब | तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। में हों। उसी गर्मी से! जेब कट गयी है। लेकिन तुम्हारी अकड़ चीज एक है जो अभी खो के अभी खोनी है अभी जिंदा है। क्योंकि तुम्हें खयाल है कि जेब में पैसे हैं। वह तो बात एक है जो अभी होकर अभी होनी है तुम जब हाथ डालोगे जेब में तब पाओगे। बस...उत्तर नहीं दूंगा, इन मित्र को उत्तर नहीं दूंगा। इनसे उत्तर चीज एक है जो अभी खो के अभी खोनी है से ज्यादा आशा है। यह तो सुनें, पीयें, यहां पास मेरी हवा को खो चुके हो—वस्तुतः खो चुके हो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, छुएं, डूबें, मिट जाएंगे सब प्रश्न। यह प्रश्न भी मिट जाएगा। कभी थी ही नहीं। जेब कटी ही हुई है। प्रथम से ही कटी है। यह भी कोई प्रश्न है कि प्रश्न क्यों गिर गये! जब प्रश्न ही गिर मगर तुमने जेब में हाथ नहीं डाला है। मैं तुमसे कहता हूं, तुमसे गये, जब सांप ही चला गया, तो यह केंचुली भी चली जाएगी। मैं वही छीन लेना चाहता हूं जो तुम्हारे पास नहीं है। और तुम्हें मैं वही देना चाहता हूं जो तुम्हारे पास है। तीसरा प्रश्न: आपका प्रवचन सुनते-सुनते आंखें बंद होने चीज एक है जो अभी खो के अभी खोनी है लगती हैं, कान बहरे होने लगते हैं और चेष्टा करने पर भी बात एक है जो अभी हो के अभी होनी है स्थिति नहीं सम्हलती। जी चाहता है कि जब परमात्मा सामने और एक बात ऐसी है जो हो ही चुकी है, जो सदा से हुई हुई | है, तो उन्हें निहारता रहूं और उनके अमृतवचन का रसपान 170 2010_03 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - किनारा भीतर है करता रहूं। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कृपया बतायें कि मैं पीओ। डरो मत। यह होश की बात बुद्धिमानी की बात है। तुम होशपूर्वक आपको किस प्रकार सुनूं? घबड़ा रहे हो कि यह क्या हो रहा है? आंख बंद हो रही है ? कान बहरे हो रहे? तुम घबड़ा रहे हो कि यह क्या हो रहा है? होशपूर्वक का प्रश्न ही कहां है! बेहोशी से सुनो। होश की तुम पागल तो नहीं हो रहे। पागल हुए बिना कोई कभी परमात्मा बात ही क्यों लाते हो! मस्त होकर सुनो। सम्हालने की जरूरत | तक पहुंचा? पागल होने की हिम्मत चाहिए ही। कहां है? शराबी की तरह डगमगाते हुए सुनो। जिसने पूछा है, | दिल धड़क उठता है खुद अपनी ही आहट पर उसे होश की बात काम में नहीं आएगी। उसे तो बेहोशी की ही | अब कदम मंज़िले-जाना से बहुत दूर नहीं बात काम आएगी। वही तो घट रहा है-अपने-आप। तुम लाख छुपाते हो मगर छुप के भी मस्तूर नहीं नाहक बुद्धि से एक बिबूचन पैदा कर रहे हो। तुम अजब चीज हो, नज़दीक नहीं दूर नहीं सुनते-सुनते आंख बंद होने लगती है, इसका अर्थ साफ है कि परमात्मा कुछ दूर थोड़े ही है। और ऐसा भी मत मान लेना कि सुनायी पड़ रहा है और आंखें बंद हो रही हैं, क्योंकि जो मैं कह नज़दीक है। न नज़दीक है, न दूर है। क्योंकि परमात्मा तुममें है। रहा हूं, वह भीतर ही देखा जा सकता है। अगर तुम मुझे देखना नज़दीक होने में भी तो थोड़ी दूरी रह जाती है। नज़दीक से चाहते हो तो आंख बंद करके ही देख पाओगे। आंख खुली नज़दीक होने में भी तो फासला रहेगा। परमात्मा तुम हो। तुम्हारा रखी, तो डोला दिखायी पड़ेगा, दुल्हन दिखायी नहीं पड़ेगी। सुन होना परमात्मा है। रहे हो, इसीलिए आंख बंद हो रही है। अब तुम कहीं चेष्टा आंख बंद होती है, तो इसका अर्थ हुआ कि भीतर की यात्रा करके आंख मत खोलना। जबर्दस्ती आंख खोलना चाहो तो। शुरू हुई। पर्दे उठते हैं। संसार को देखना हो, तो आंख खोलकर खोल सकते हो, लेकिन तुम चूक जाओगे। अमृत हाथ में | देखना पड़ता है। स्वयं को देखना हो, तो आंख बंद करके देखना आते-आते वंचित हो जाओगे। सुन रहे हो, इसीलिए कान बहरे | पड़ता है। वास्तविक दर्शन तो आंख बंद करके ही उपलब्ध होते होने लगते हैं। क्योंकि जो मैं तुम्हें कह रहा हूं, वह शब्द ही नहीं | हैं। महावीर की प्रतिमाएं देखीं? अगर महावीर की ठीक प्रतिमा मा शून्य भी है। कान बहरे होने लगते हैं, देखनी हो तो श्वेतांबर मंदिर में मत देखना, वहां कुछ भूल हो उसका अर्थ है कि कान कह रहे हैं, शब्द को रहने दो बाहर, सिर्फ | गयी है। दिगंबर मंदिर में देखना। वहां महावीर की आंख बंद शून्य को जाने दो। कान बड़ी होशियारी से, बड़ी सावधानी से है। श्वेतांबर मंदिर में महावीर की आंख खुली है। वहां कुछ काम कर रहे हैं। आंख भी बड़ी होशियारी, सावधानी से काम भूल हो गयी है। हो सकता है जिसने महावीर की आंख खोल कर रही है। अब तुम अपनी बुद्धि को बीच में मत लाओ। बंद रखी है श्वेतांबर मंदिर में, वह तुम जैसा आदमी रहा हो। मुझे होने दो आंख, बंद होने दो कान। यही तो मेरा इशारा है कि भीतर सुनकर तुम्हारी आंख बंद हो रही है, तुम खोलने की कोशिश कर जाओ। तुम कहीं मुझे पकड़कर मत बैठ जाना। कहीं तुम यह रहे हो। लेकिन महावीर के सत्य को समझना हो तो आंख बंद ही मत सोचना कि यह तो आंख बंद होने लगी, कान बंद होने लगे, होनी चाहिए। क्योंकि महावीर जिस परमात्मा की तरफ जा रहे यह तो सहारा बाहर से छूटने लगा। नहीं, यही तो तुम किनारे के हैं, वह भीतर है। करीब आ रहे हो। भीतर जा रहे हो, वहीं किनारा है। आंख बंद हो जाती है तो बाहर की तरफ सारी यात्रा समाप्त और होश से क्या सुनोगे? ये बातें कुछ होश से सुनने की थोड़े | हुई। सारी ऊर्जा भीतर लौटी। गंगा चली गंगोत्री की तरफ। ही हैं। ये बातें तो मदमस्त होकर सुनने की हैं। ये तो मतवाला मूलस्रोत की तरफ यात्रा हुई। खुली आंख—हो सकता है होकर सुनने की हैं श्वेतांबरों को महावीर की आंख बड़ी प्यारी लगी हो, प्यारी रही मुझे पीने दे, पीने दे कि तेरे जामे-लाली में होगी वह आंख-श्वेतांबरों की बात भी मेरी समझ में आती है। अभी कुछ और है, कुछ और है, कुछ और है साकी वह आंख इतनी प्यारी रही होगी कि उन्होंने चाहा होगा कि देखते अभी तो पीओ। अभी तो प्याली में कुछ भी न बचे, ऐसा ही रहें। बंद आंख में तो तुम क्या देखोगे? तो उन्होंने महावीर 2010_03 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 की आंख को खुला रखा है। वह आंख देखने योग्य रही होगी, मस्ती से। ध्यानी के लिए प्रेम भी घटता है तो होश से घटता है। यह सच है! वह आंख बड़ी प्यारी थी, यह सच है! उस आंख इसको खयाल रखना। और अपने लिए साफ-साफ कर लेना की उपासना और पूजा का भाव उठा होगा, यह सच है! लेकिन कि तुम्हारे लिए क्या उचित है। अगर तुम्हारे हृदय में प्रेम के भाव यह आदमी की कमजोरी है। महावीर की आंख तो बंद ही रही सहजता से उठते हैं, तो तुम फिकिर छोड़ो होश की। तुम तो होगी जब उन्होंने स्वयं को जाना है। और जब स्वयं को जाना | मांगोतभी तो वे महावीर हुए। उसके पहले तो वह महावीर नहीं। ऐ मुतरबे-बेबाक कोई और भी नग्मा बंद होगी तुम्हारी आंख भी। कान भी बंद हो जाएंगे। इंद्रियां गाओ कुछ और भी गीत कि मैं और डूब जाऊं। सुनाओ कुछ सब बंद हो जाएंगी। क्योंकि इंद्रियों का अर्थ ही होता है, ऊर्जा के और कि मैं और डूब जाऊं। बाहर जाने के द्वार। जब सारी इंद्रियां बंद हो जाती हैं, सारी ऊर्जा ऐ साकी-ए-फैयाज... भीतर लौटती है। महावीर ने इसको प्रतिक्रमण कहा है, ऊर्जा का ऐ दानशील साकी!...शराब और जियादा। ढालो! भीतर लौटना। जब आंख खोलकर तुम देखते हो, तो प्रेम के मार्ग पर, भक्ति के मार्ग पर नृत्य है, गान है, डूबना है। आक्रमण। जब आंख बंद करके भीतर जाते हो, तो प्रतिक्रमण। तन्मयता है, तल्लीनता है। ध्यान के मार्ग पर सजगता है आक्रमण का अर्थ है, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण का अर्थ है, | जागरूकता है। अपना मागे ठीक-ठीक चुन लेना, अ अपने घर लौट आना। जैसे सांझ पक्षी लौटने लगे अपने घोंसलों मत कि एक मार्ग पर चले तो दूसरे से तुम वंचित रह जाओगे। को, ऐसा जब तुम्हारे प्राण लौटने लगे भीतर के अंतर्तम में, तब अंत में दोनों मिल जाते हैं। पहाड़ के शिखर पर सभी मार्ग मिल आंख, कान सब बंद हो जाएंगे। | जाते हैं। जो ध्यान से चलता है, अतंतः प्रेम को भी उपलब्ध हो तो मुझे सुनते अगर आंख बंद हो रही हो तो हो जाने देना। तुम जाता है। जो प्रेम से चलता है, वह अतंतः ध्यान को भी उपलब्ध बीच में बुद्धिमानी मत लगाना। तुम अपना गणित बीच में मत | हो जाता है। लेकिन दोनों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं। लाना। बाधा मत डालना। कान बंद होते हों, हो जाने देना। इशारा तम्हारी बद्धि नहीं समझ पा रही है, तम्हारे आंख और कान | चौथा प्रश्न: मैं क्या प्रश्न करूं और आप क्या जवाब दें। समझ गये। तुम्हारे अस्तित्व ने बात पकड़ ली। तुम इसमें बाधा प्रश्न भी आप हैं और उत्तर भी। प्रेम में प्रश्न हो, या उत्तर हो, और व्यवधान खड़ा मत करना। या चुप्पी? नहीं, होश की बात ही मत उठाओ। बेहोशी ही ठीक है। प्रश्न है 'आनंद विजय' का। बेहोशी ही ठीक होगी। और शराब पूछे बिना रहा न गया! मांगो, होश मत मांगो। और मस्ती मांगो, समझदारी मत मांगो। पूछने की पूछ ऐसी ही है। एक तरह की खुजलाहट है। खाज ऐ मुतरबे-बेबाक कोई और भी नग्मा हुई है कभी? बस वैसी खुजलाहट है। नहीं भी खुजलाना ऐ साकी-ए-फैयाज शराब और जियादा चाहते, फिर भी अनजाने हाथ उठ जाते हैं, खुजलाहट शुरू हो हे मुक्तकंठ गायक! एक गीत और। और हे दानशील | जाती है। मधुबाला! थोड़ी शराब और। अब जिसने प्रश्न पूछा है, उसने प्रश्न की पहली पंक्ति में यही ऐ मुतरबे-बेबाक कोई और भी नग्मा सोचकर पूछा है कि नहीं पूछना है। ऐ साकी-ए-फैयाज शराब और जियादा | 'मैं क्या प्रश्न करूं. और आप क्या जवाब दें।' अभी दुनिया में दो मार्ग हैं, दो द्वार हैं। एक है ध्यान का मार्ग। एक है बुद्धिमानी कायम है। 'प्रश्न भी आप हैं और उत्तर भी।' फिर प्रेम का मार्ग। ध्यान के मार्ग पर होश अनिवार्य चरण है। प्रेम के | चूक हो गयी। खुजला ली खाज। 'प्रेम में प्रश्न हो या उत्तर हो मार्ग पर बेहोशी अनिवार्य चरण है। 'आनंद विजय' के लिए या चुप्पी?' प्रश्न आखिर उठ ही आया! मार्ग प्रेम का है। प्रेम से ही ध्यान घटेगा। बेहोशी से, डूबने से, हम जैसे हैं, उससे भिन्न हम थोड़ी-बहुत देर चेष्टा कर सकते 721 2010_03 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं— क्षण- दो क्षण — फिर जल्दी ही चूक हो जाती है। मैं सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मुल्ला की बड़ी प्रशंसा कर रही है। ऐसे दिन सौभाग्य के कम ही आते हैं कि पत्नी और पति की प्रशंसा करे! लेकिन मुल्ला बहुत डरा हुआ था, क्योंकि ऐसे सौभाग्य का मतलब होता है, कुछ न कुछ उपद्रव ! कुछ खर्चा करवा दे! या जरूर कुछ मतलब होगा पीछे। आखिर मतलब साफ हो गया। पत्नी ने कहा, अब बहुत हो गया, अब तुम खोजो, लड़की के लिए लड़का खोजना ही पड़ेगा। अब इस साल खाली नहीं जाना चाहिए। मुल्ला ने कहा कि क्या करूं, खोजता हूं, लेकिन गधों के अतिरिक्त कोई मिलता ही नहीं! तो पत्नी के से सच्ची बात निकल गयी। उसने कहा, अगर ऐसे ही मेरे पिता भी सोचते रहते तो मैं अनब्याही ही रह जाती ! | ज्यादा देर नहीं चला सकते। जल्दी ही असलियत बाहर आ जाती है। पूछना तो चाहते ही थे । बुद्धिमानी थोड़ी देर सम्हाली । दो लाइन चली। तीसरी लाइन में लंगड़ा गयी। पूछ ही बैठे। इसे थोड़ा समझना । मन की इस बात को समझना । कैसा लंगड़ाता हुआ मन है ! अगर सच में ही पूछने को न था तो यह प्रश्न लिखने की कोई जरूरत ही न थी । और अगर पूछने को कुछ था, तो यह बुद्धिमानी दिखाने की कोई जरूरत नहीं। ऐसा द्वंद्व क्यों पालते हो? ऐसे दोहरे क्यों होते हो? ऐसे दोहरे में खतरा है। ऐसे में तुम टूट-टूट जाओगे, खंड-खंड हो जाओगे। रहोगे कुछ, दिखाओगे कुछ। बोलोगे कुछ, भीतर होगा कुछ । यही तो मनुष्य का बड़े से बड़ा विषाद है। पूछना हो तो पूछो। न पूछना हो तो मत पूछो। यह बीच में दोनों के डांवांडोल होना खतरनाक है। लेकिन, जब पूछा है, प्रेम में प्रश्न हो, उत्तर हो या चुप्पी ? प्रेम में न तो प्रश्न है, न उत्तर है, न चुप्पी है। प्रेम चुप भी नहीं है और बोलता भी नहीं। प्रेम बड़ा विरोधाभास है। प्रेम बोलता भी नहीं, क्योंकि जो बोलना है वह बोलने में आता नहीं। और प्रेम चुप भी नहीं है, क्योंकि बोलने को बहुत कुछ है, जो बोलने में आता नहीं। तो प्रेम लबालब भरा है। बह जाना चाहता है। कूल - किनारे तोड़ देना चाहता है। दो प्रेमियों को पास-पास बैठे देखा? नहीं बोलते, इसलिए नहीं कि बोलने को कुछ नहीं है। नहीं बोलते इसलिए कि बोलने को इतना कुछ है, कैसे बोलें? और बोलने को कुछ ऐसा है कि 2010_03 बोलते से ही गंदा हो जाता है। शब्द उसे कुरूप कर देते हैं। उसे मौन में ही संवादित किया जा सकता है। उसे चुप रहकर ही कहा जा सकता है। लेकिन चुप्पी मुखर है। मौन भाषा है। शब्द तो शोर है तमाशा है भाव के सिंधु में बताशा है मर्म की बात ओंठ से न कहो मौन ही भावना की भाषा है किनारा भीतर है। लेकिन भाषा ही है मौन भी। मौन भी बोलता है। बड़ी प्रगाढ़ता से बोलता है। तुमने अगर कभी मौन को सुना नहीं, तो तुमने कुछ भी नहीं सुना। तुम जीवन के संगीत से अपरिचित ही रह गये । तुमने रात के सन्नाटे को सुना है? कैसा बोलता हुआ होता है ! वृक्षों में हवा भी नहीं होती, हवा के झोंके भी नहीं होते, एक पत्ता भी नहीं हिलता... अभी इस क्षण कोई हवा का झोंका नहीं है, पत्ता भी नहीं हिल रहा है, लेकिन वृक्ष मौन हैं, चुप हैं ? फूल खिले हैं, बोल रहे हैं। शब्द नहीं हैं, शोर नहीं है, अभिव्यक्ति तो है ही । चीन में कहावत है कि जब संगीतज्ञ संपूर्ण रूप से कुशल हो जाता है, तो वीणा तोड़ देता है। क्योंकि फिर वीणा के कारण संगीत में बाधा पड़ने लगती है । फिर तो वीणा के स्वर भी शोरगुल मालूम होने लगते हैं । कहावत है कि जब तीरंदाज अपनी तीरंदाजी में संपूर्ण कुशल हो जाता है, तो धनुषबाण तोड़ देता है। क्योंकि फिर उससे निशाना नहीं लगता, निशाने में बाधा पड़ने लगती है। जीवन के चरम शिखर विरोधाभास के शिखर हैं। शब्द तो शोर है, तमाशा है भाव के सिंधु में बताशा है मर्म की बात ओंठ से न कहो मौन ही भावना की भाषा है रोओ, आंसू कह देंगे। नाचो, भावभंगिमा कह देगी। गुनगुनाओ... कल सांझ ऐसा हुआ। वाणी, एक संन्यासिनी, जर्मनी से आयी है। उससे मैंने पूछा, कुछ कहने को है? और मुझे लगा बहुत कुछ कहने को है उसके पास, हृदय भरा है। उतने दूर से आयी है। दो-चार दिन के लिए ही आ पायी है। ज्यादा देर रुक भी न सकेगी। दो-चार महीने में भागी चली आती है । दो-चार दिन के लिए समय मिलता, कभी एक दिन के लिए 73 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग : 2 भी समय मिलता-तो जर्मनी से पूना आना एक दिन के लिए! हे परमात्मा, यह भी कैसी सफलता है प्रेम की! लेकिन उतने दिन के लिए भी आती है। एक बार तो सिर्फ पांच खुद गुम हुए तो क्या, उसे पाये हुए तो हैं घंटे ही रुकी। तो कहने को आती है। कुछ निवेदन करने को है। खुद तो खो जाता है प्रेमी, उसे पा लेता है। शब्द तो खो जाते पूछा, कुछ कहना है? कहा, नहीं, कुछ भी नहीं कहना है। | हैं, मन तो खो जाता है, अहंकार तो खो जाता है। लेकिन उसके चेहरे पर, उसकी आंखों में, उसके हृदय में बहुत भाव के सिंधु में बताशा है कुछ भरा है। तो मैंने उससे कहा कि खैर न कह तू, चुप रह। शब्द तो शोर है तमाशा है उसने आंख बंद कर लीं, और वह ऐसे शब्दहीन-शब्द उच्चार | मर्म की बात ओंठ से न कहो करने लगी जैसे छोटा बच्चा दो-चार महीने का मौन ही भावना की भाषा है सिसक-सिसककर रोने लगे, और भाषा तो जानता नहीं दो-चार ज्ञान तो बस बुद्धि का खिलवाड़ है महीने का बच्चा, तो कुछ भी अनर्गल, अर्थहीन बोलने लगे। ध्यान जब तक ढोंग का दरबार है ऐसा छोटे बच्चे की तरह वह सिसकने लगी, रोने लगी। मंदिरों से व्यर्थ ही मारो न सिर टूटे-फूटे शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं है, वह उसके बाहर आने | आदमी का धर्म केवल प्यार है लगे। उस घड़ी वह छोटी बच्ची हो गयी। उस घड़ी उसने अपने जो प्यार को समझ ले, सब समझ लिया। पूछा है, प्रेम में प्रश्न हृदय को ऐसा उंडेल दिया जैसा भाषा में कभी भी नहीं उंडेला जा हो, उत्तर हो, या चुप्पी? प्रेम में प्रेम ही हो, बस इतना काफी है। सकता। क्योंकि भाषा तो बड़ी बुद्धिमानी की है! न उतर, न प्रश्न, न चुप्पी। प्रेम में बस प्रेम हो, इतना काफी है। भाव के सिंधु में बताशा है खामोशी सीखो। शब्द तो शोर है तमाशा है खामोश ऐ दिल भरी महफिल में चिल्लाना नहीं अच्छा उसकी भाषा बताशे की तरह घुल गयी भाव के सिंधु में। कुछ अदब पहला करीना है मुहब्बत के करीनों में उबलने लगा। कुछ गुनगुनाहट फूटने लगी। उसे भी पता नहीं, | प्रेम को चिल्लाकर मत कहो। क्योंकि चिल्लाने में प्रेम नष्ट हो क्या हो रहा है। उसके भी बस के बाहर है। उसके भी नियंत्रण | जाता है। प्रेम बड़ा कोमल तंतु है। चुप्पी तक में नष्ट हो जाता है, के बाहर है। जैसे कुछ बहुत शुद्ध भाषा-जैसा आदमी पहली बोलने की तो बात छोड़ो! प्रेम एक विरोधाभास है। दफा बोला होगा पृथ्वी पर। या छोटे बच्चे बोलते हैं पहली 'पैराडाक्स।' वहां बोलना और न बोलना दोनों का मिलन होता दफा-कुछ भी-अबाऽ बाऽऽ बाऽऽ बाऽऽ बाऽऽ बाऽ...इस है। वहां सीमित की और असीम की मुलाकात होती है। वहां तरह के शब्द बोलने लगी। सब टूटे हुए। संसार और परमात्मा एक-दूसरे को छूते हैं। वहां मैं और तू लेकिन उसने कह दिया जो कहना था। मैंने सुन लिया जो घुलते हैं और पिघलते हैं। नहीं, प्रेम के पास कोई प्रश्न नहीं है। सुनना था। भाव से जुड़ गयी। एक सेतु उसने बना लिया। और प्रेम के पास कोई उत्तर भी नहीं है। प्रेम काफी है। अल्लारी कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क इसे ऐसा समझने की कोशिश करो। खुद गुम हुए तो क्या उसे पाये हुए तो हैं । जब तुम प्रसन्न होते हो, तब तुम कभी नहीं पूछते कि प्रसन्न मैं उस क्षण वह खो गयी। लेकिन उस खोने में ही प्रगट हुई। | क्यों हूं। लेकिन जब तुम दुखी होते हो तब तुम जरूर पूछते हो प्रेमी अपने को खो देता है, परमात्मा को पा लेता है। | कि दुखी मैं क्यों हूं? जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुम जाते हो अल्लारी कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क चिकित्सक के द्वार पर कि बताओ मैं स्वस्थ क्यों हूं? लेकिन यह भी कैसी सफलता है, आवारा इश्क की। प्रेम तो सदा जब तम बीमार होते हो तो जरूर जाते हो। जाना ही पड़ता है आवारा है। प्रेम का कोई घर थोड़े ही है। क्योंकि सारा अस्तित्व पूछने कि मैं बीमार क्यों हूं? बीमारी का तो कारण खोजना पड़ता उसका घर है। प्रेम तो बंजारा है।। है। स्वास्थ्य का कारण किसी ने कभी खोजा? कोई बता पाया अल्लारी कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क कि आदमी स्वस्थ क्यों होता है? अभी तक तो कोई नहीं बता 174 2010_03 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पाया है-न आयुर्वेद, न एलोपैथी, न यूनानी, कोई नहीं बता पाया कि आदमी स्वस्थ क्यों होता है? स्वस्थ तो आदमी होता है । हां, जो स्वस्थ नहीं वहां कोई कारण होगा। झरना तो बहता है। नहीं बहता, तो कोई पत्थर पड़ा होगा। बीज तो फूटता है। वृक्ष बनता है। न फूट पाये, न वृक्ष बन पाये, तो कोई अड़चन होगी - जमीन पथरीली होगी, कि पानी न मिला होगा। बच्चा तो बड़ा होता है, बढ़ता है, जवान होता है। न बढ़ पाये, तो कुछ गड़बड़ है। । आनंद स्वाभाविक है। आनंद के लिए कोई प्रश्न नहीं है। दुख अस्वाभाविक है। दुख का अर्थ ही है, जो नहीं होना चाहिए था सुख का अर्थ है, जो होना ही चाहिए। सुख का अर्थ है, जिसे हम बिना कारण स्वीकार करते हैं। और दुख का अर्थ है, जिसे हम कारण के सहित भी स्वीकार नहीं कर पाते। कोई कारण भी बता दे तो क्या सार है! तुम गये डाक्टर के पास, उसने कहा कि कैंसर हो गया है। कारण भी बता दे कि इसलिए कैंसर हो गया है, तो भी क्या सार है! कारण को भी क्या करोगे ? सुख तो अकारण भी स्वीकार होता है। दुख कारण सहित भी | स्वीकार नहीं होता। फिर कारण की खोज हमें करनी पड़ती है दुख के लिए, क्योंकि कारण का पता न चले तो दुख को मिटाएं कैसे ? जिसे मिटाना हो, उसका कारण खोजना पड़ता है। जिसे मिटाना ही न हो, उसके कारण की खोज की कोई जरूरत ही नहीं है । उसे हम जीते हैं। प्रेम परम स्वास्थ्य है। प्रेम परमात्मा की झलक है तुम्हारे दर्पण में। कोई पूछता नहीं कि प्रेम क्यों है? प्रेम बस होता है । | स्वीकार है। सहज स्वीकार है। न कोई उत्तर है, न कोई प्रश्न है । न कुछ बोलना है, न कुछ बोला जा सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रेम कोई रिक्तता है। प्रेम बड़ा भराव है। परम भराव है। पात्र पूरा भर जाता है। पात्र खाली हो तो आवाज होती है। अधूरा भरा हो, तो आवाज होगी। पात्र पूरा भर जाए, तो आवाज खो जाती है। ऐसे ही जब कोई प्रेम से भर जाता है— कोई प्राण का पात्र - सब खो जाता है। प्रेम हो, इसकी ही चिंता करो। तुम ऐसे भर जाओ कि कहने को कुछ न रहे। पूछने को कुछ न रहे। तुम ऐसे शांत हो जाओ कि कोई प्रश्नचिह्न तुम्हारे भीतर न बचे। क्योंकि प्रश्नचिह्न एक तरह की बीमारी है। कांटे की तरह चुभता है प्रश्न । जिसके हृदय 2010_03 किनारा भीतर है। पर प्रश्नचिह्नों की कतार लगी है, 'क्यू' लगा है, वह आदमी नर्क में जीता है। उसका जीवन एक दुख-स्वप्न है। प्रश्नों को हटाते जाओ, गिराते जाओ। और बहुत से लोग तो व्यर्थ के प्रश्न इकट्ठे किये हुए हैं... संसार को किसने बनाया ? क्या लेना-देना है ! इसलिए महावीर ने नहीं पूछा यह प्रश्न कि संसार को किसने बनाया। उन्होंने कहा, सदा से है, यह बनाने की बकवास बंद करो। क्योंकि तुम पूछो, किसने बनाया, इससे कुछ हल न होगा। बता दें कि 'अ' ने बनाया, तो तुम पूछोगे 'अ' को किसने बनाया? तो 'ब' ने बनाया। तुम पूछोगे, 'ब' को किसने बनाया? यह कुछ हल न होगा। तो महावीर कहते हैं, अनादि है, अनंत है। किसी ने नहीं बनाया, इस झंझट में पड़ो मत। उनका कुल मतलब इतना है कि झंझट में पड़ो मत। है। इससे राजी हो जाओ। इसके रहस्य को जानो, इसके रहस्य को जीओ। इसको प्रश्न मत बनाओ । इसको जीओ। इसमें डुबो, इसमें उतरो । जीवन एक समस्या न हो, एक रहस्य हो। एक प्रश्न न बने, प्रार्थना बने। जीवन को कोई एक दर्शनशास्त्र नहीं बनाना है, जीवन को प्रेम का मंदिर बनाना है । इसलिए महावीर ने कहा मत पूछो यह । आत्मा कहां से आयी ? महावीर कहते हैं, सदा से है। तुम व्यर्थ के प्रश्न मत पूछो। सारे सत्पुरुषों ने व्यर्थ के प्रश्नों को काटना चाहा है। अगर उन्होंने उत्तर भी दिये हैं, तो इसीलिए दिये हैं ताकि तुम व्यर्थ के प्रश्नों से छूटो | अगर वे चुप रहे, तो इसीलिए चुप रहे कि तुम व्यर्थ के प्रश्नों से छूटो । बुद्ध तो उत्तर ही न देते थे, कोई पूछता था प्रश्न तो चुप रह जाते थे । वे कहते कि तुम भी चुप हो जाओ। ऐसे चुप होकर मैंने पाया, चुप होकर तुम भी पा लोगे। मन जब बिलकुल शांत होता है, कोई प्रश्न नहीं 'उठाता, तो सब द्वार खुल जाते हैं। प्रश्न ही तालों की तरह लगे हैं तुम्हारे जीवन के द्वारों पर ! पांचवां प्रश्नः आपको सुनते-सुनते कई बार आप रंगीन दिखायी पड़ने लगते हैं, और फिर भी एक खालीपन की भांति । आपकी कुर्सी के पीछे की दीवाल भी रंगीन दिखायी पड़ती है, 75 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 जिन सूत्र भाग: 2 और एक अजीब आनंद से भर जाता हूं। यह सब क्या है ? ने जीवन में कुछ भी हम सहजता से स्वीकार नहीं करते । बड़ा चित्रकार हुआ पिकासो । एक चित्र बना रहा था। किसी पूछा, यह क्या है? पिकासो ने अपने सिर से हाथ मार लिया। और कहा कि कोई नहीं पूछता जाकर फूलों से और कोई नहीं पूछता पक्षियों से, मेरे पीछे क्यों पड़े हो ? कोई नहीं पूछता इंद्रधनुषों से कि क्या है ? क्यों ? पिकासो की बात में अर्थ है। पिकासो यह कह रहा है, यह मेरे आनंद का उद्भव है। क्या है, क्यों है, मुझे कुछ पता नहीं । । पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक कवि हुआ, कूलरिज कूलरिज से किसी ने पूछा- एक प्रोफेसर ने― कि तुम्हारी कविता को मैं पढ़ाता हूं यूनिवर्सिटी में, अर्थ मेरी पकड़ में नहीं आते, अर्थ क्या है? कूलरिज ने कहा तुम जरा देर से आये । जब मैंने इसे लिखा था, तो दो आदमियों को पता थे इसके अर्थ । अब केवल एक को पता है। तो उसने कहा कि निश्चित वह एक तुम हो। तुमने ही यह कविता लिखी, तुम तो मुझे बता दो । कूलरिज ने कहा, वह एक मैं नहीं हूं। जब मैंने लिखी तो मुझे और परमात्मा को पता था। अब केवल परमात्मा को पता है । अब मुझे भी पता नहीं। मैं खुद ही सोचता हूं कि इसका अर्थ क्या है ? कई बार खुद ही मैं चकित हो जाता हूं। तुम भले आ गये। कई दफा मैं सोचता था जाकर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों से पूछ आऊं, वे तो अर्थ लोगों को समझाते हैं। अगर तुम्हें मुझे सुनते-सुनते मेरे चारों तरफ एक आभा का अनुभव हो, तो क्या जरूरी है कि प्रश्न बनाओ ही ? तो क्या जरूरी है कि तुम उसका उत्तर खोजो ही ? क्या इतना काफी नहीं है कि तुम उस आभा को पीओ और उसमें डूबो और तल्लीन हो जाओ ? अगर तुम्हें मेरे आसपास रंगों का एक इंद्रधनुष दिखायी पड़े, तो क्यों जल्दी से उसे तुम प्रश्न बना लेते हो ? प्रश्न का अर्थ है, संदेह । निष्प्रश्न का अर्थ है, श्रद्धा । अगर तुम्हारे मन में श्रद्धा हो, तो तुम जो देखोगे उसे तुम स्वीकार कर लोगे कि ठीक है, ऐसा है, इंद्रधनुष बना । और तुम आह्लादित होओगे। और तुम्हारे आह्लाद की कोई सीमा न होगी। और तुम प्रफुल्लित होओगे । और तुम किसी दूर की दूसरी दुनिया में उड़ने लगोगे । एक नये आकाश में तुम्हारे पंख खुल 2010_03 जायेंगे। लेकिन तत्क्षण प्रश्न खड़ा हो जाता है। प्रश्न यह है कि पता नहीं यह मामला क्या है ? कुछ धोखा है, कुछ जादू है, या मेरा मन सम्मोहित हो गया, या मेरी कल्पना है, या मैं कोई सपना देख रहा हूं ? लेकिन तुमने कभी खयाल किया कि जब तुम यह प्रश्न बनाओगे, वह इंद्रधनुष तुम्हारे लिए रुका न रहेगा। जब तुम प्रश्न बना रहे हो, इंद्रधनुष खो जाएगा। वह जो घड़ीभर के लिए झरोखा खुला था और अतींद्रिय दर्शन की संभावना बनी थी, वह तुम चूक गये। तुम सोच-विचार में खड़े रह गये । प्रश्नों से थोड़ा अपने को बचाओ। फुर्सत के समय कर लेना, जब कुछ भी न घट रहा हो जीवन में तब खूब प्रश्न कर लेना । जब कुछ घटता हो, तब प्रश्न को बीच में मत लाओ। क्योंकि उसके कारण दीवाल खड़ी हो जाती है। वही दीवाल तुम्हारीआंख पर पर्दा बन जाएगी। जो है, है । जो जैसा है, वैसा है। तथ्यों के आगे-पीछे मत जाओ, तथ्यों में प्रवेश करो। ये रूपहली छांव, ये आकाश पर तारों का जाल जैसे सूफी का तसव्वुर, जैसे आशिक का खयाल आह लेकिन कौन जाने, कौन समझे जी का हाल ऐ गमे - दिल क्या करूं, ऐ वहशते - दिल क्या करूं ये रूपहली छांव, ये आकाश पर तारों का जाल । जैसे सूफी का तसव्वुर... जैसे कोई सूफी ध्यान की मस्ती में डूबा हो।... . जैसे आशिक का खयाल । जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी की भावना में डूबा हो। ऐसा ही है। ये रूपहली छांव, ये आकाश पर तारों का जाल । यह सब रहस्यमय है । यह सब परम रहस्य है। तुम प्रश्न मत उठाओ। तुम धीरे-धीरे रहस्य को चखो। स्वाद लो। तुम्हें हैरानी होगी। अगर मैं यहां बैठा-बैठा क्षणभर को तुम्हारे लिए खो जाता हूं और एक रंगों का जाल यहां प्रगट होता है, तो तुम प्रश्न मत उठाओ, यह मौका प्रश्न का नहीं है। यह मौका तो इन रंगों में उतर जाने का है। पूछ लेना पीछे, कल । कह दो मन को कि बाद में सोच लेंगे। अभी तो स्वाद ले लें। और उसी स्वाद में उत्तर मिलेगा। कल पूछने की जरूरत न रह जाएगी। और एक बार अगर तुम्हें उन रंगों में उतरने का पाठ पकड़ जाए, तुम एक सीढ़ी भी इस गहराई में उतर जाओ, तो जरूर नहीं है कि फिर तुम मेरे पास ही उन रंगों को देखो। अगर तुम किसी वृक्ष को भी इतनी ही शांति और प्रेम से देखोगे, जैसा तुमने Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WANABARAMANANDMewala S _ किनारा भीतर है N ARIA मुझे देखा, तो उस वृक्ष के पास भी ऐसे ही रंगों का सागर लहराने | जान तुझ पर निसार करता हूं लगेगा। लहरा रहा है। तुम्हारे पास आंख नहीं। अस्तित्व पर | मैं नहीं जानता हुआ क्या है कोई घूघट नहीं, सिर्फ तुम अंधे हो। तुम्हें एक छोटे-से फूल के | जानने की जरूरत भी नहीं है। जो हो रहा है, उसे होने दो। पास भी ऐसे ही आभाओं के आयाम खुलते हुए नजर आएंगे। जान-जानकर कौन कब सत्य को जान पाया। जाननेवाले बहुत एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए कि शांत, प्रेम से भरकर पीछे पिछड़ गये। जाननेवाले किताबों में खो गये। जाननेवाले किसी की तरफ देखना सत्य को देखने के लिए अनिवार्य है, तब प्रश्नों में डूब गये और मर गये। नहीं, जान-जानकर कोई भी तुम वह देख पाओगे, जैसा है। अभी तुमने बहुत कम देखा है। नहीं जान पाया। खोओ अपने को, मिटाओ, मिटो, पिघलो। अभी तुमने ऐसे देखा है जैसे बहुत से पर्दे डाल दिये गये हों, और सत्संग का यही अर्थ है। पर्दो के पीछे दीया छिपा हो, ऐसी फूट-फूटकर छोटी-सी किरणें | जैसे सुबह सूरज की मौजूदगी में बर्फ पिघलने लगती है, ऐसे तुम्हारे पास आ पाती हों। एक-एक पर्दा हटता जाता है, किरणों किसी की मौजूदगी में तुम पिघलने लगो-सत्संग। यहां मैं का जाल बढ़ता जाता है। मौजूद हूं, अगर तुम जरा भी करीब आने को तैयार हो, तो तुम जब तुम्हें मेरी तरफ देखते-देखते कभी अचानक एक आभा | पिघलोगे। उस पिघलने से ही नयी-नयी घटनाएं घटेंगी। का विस्फोट मालूम होता हो, रंगीन तरंगें चारों तरफ फैल जाती नये-नये ऊर्मियां, नये आवेश उठेंगे। रंग नये, गंध नयी, स्वाद हों, तो इसका अर्थ इतना हुआ कि उस क्षण में तुम्हारी आंख पर नये। तुम पाओगे जैसे तुम फैलने लगे, बड़े होने लगे, विस्तीर्ण पर्दा बहत कम है। अभी तम प्रश्न उठाकर नये पर्दे मत बनाओ। होने लगे। अभी तुम प्रश्नों को कह दो, हटो जी! फुर्सत के समय जब कुछ | जिन लोगों ने रासायनिक-द्रव्यों पर बड़ी खोज की भी न हो रहा होगा, तब तुमसे सिर माथा-पच्ची कर लेंगे। अभी | है-एल.एस.डी., मारिजुआना, और दूसरे द्रव्यों पर-उन तो जाने दो। अभी तो बुलावा आया। अभी तो इस इंद्रधनुष में सबका यह कहना है कि उन द्रव्यों के प्रभाव में भी मनुष्य की प्रवेश कर जाने दो। अभी तो डूबने दो। अभी तो डुबकी लेने आंख पर से पर्दे हट जाते हैं। अल्डुअस हक्सले अमरीका का दो। व्यर्थ के क्षणों में प्रश्न कर लेंगे। अभी सार्थक क्षण को बहुत बड़ा मनीषी, विचारक हुआ। उसने जब पहली दफा प्रश्नों में मत खोओ। क्योंकि तुम्हारे प्रश्न के खड़े होते ही तुम एल.एस.डी. लिया, तो वह चकित हो गया। उसके सामने एक पाओगे, रंग खोने लगे। प्रश्न ने फिर संदेह खड़ा कर दिया। साधारण-सी कुर्सी रखी थी। साधारण-सी कुर्सी। लेकिन प्रश्न का मतलब ही संदेह होता है। प्रश्न उठता ही संदेह से है। जैसे-जैसे उस पर एल.एस.डी. का प्रभाव गहन होने लगा कुर्सी - प्रश्न श्रद्धा से नहीं उठता। श्रद्धा तो चुपचाप स्वीकार कर से रंग फूटने लगे। अदभुत रंग! अनजाने, अपरिचित रंग! ऐसे लेगी। श्रद्धा तो इतनी विराट है कि कुछ भी घटे तो भी श्रद्धा | रंग, जो कभी नहीं देखे थे। और साधारण नहीं, जिनके भीतर से चौंकती नहीं। अनहोना घटे, तो भी स्वीकार कर लेती है। श्रद्धा | बड़ी आभा फूट रही- लूमिनस।' ज्योतिर्मय। साधारण रंग की कोई सीमा नहीं। संदेह बड़ा छोटा है, बड़ा क्षुद्र है, बड़ा नहीं, रंगों के भीतर से आभा की किरणें फूटती हुई। ओछा है। जरा यहां-वहां कुछ घटा, जो संदेह की सीमा के बाहर वह बहुत हैरान हुआ। उसने आंखें मीड़ीं, अपने को झकझोरा, है कि संदेह बेचैन हो जाता है। परेशान हो जाता है। नहीं, ये ठंडे पानी के छींटे मारे, मगर कुछ भी नहीं, कुर्सी रंगीन होती मौके नहीं हैं संदेह को उठाने के। और अगर तुमने इन मौकों पर चली जाती है। कुर्सी साधारण। उसने आसपास देखा, हर चीज न उठाया, तो तुम्हारा स्वाद ही उत्तर बनेगा। रंगीन है। किताबें, टेबल, द्वार-दरवाजे। उसकी पत्नी चलती जान तुझ पर निसार करता हूं हुई भीतर आयी, उसने संस्मरणों में लिखा है, उसके पैरों की मैं नहीं जानता हुआ क्या है आवाज...ऐसा संगीत मैंने कभी सुना नहीं। पत्नी को देखा, ऐसी श्रद्धा की अवस्था है। जब इंद्रधनुष मेरे पास उठे, जान | ऐसा विभामय रूप कभी देखा नहीं। अब खुद की पत्नी में रूप निछावर करो। देखना बहुत कठिन है! दूसरे की पत्नी में बहुत सरल है। खुद 2010_03 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 की पत्नी में रूप देखना बहुत कठिन है। पहले दिन हो सकता है वह थोड़ा-सा चौंककर देखे, दूसरे दिन मुल्ला नसरुद्दीन मिलिट्री में भर्ती किया जा रहा था। और कम देखेगा, तीसरे दिन और कम। महीने भर के बाद तुम जबर्दस्ती। वह बचने के उपाय कर रहा था। सब परीक्षाएं हो खोल दो आंख, अंख खुली रहेगी, वह कुछ भी न देखेगा। गयीं। लेकिन सब तरह से स्वस्थ आदमी था, बचे भी कैसे? | अभ्यास हो गया। आखिर उसने कहा कि मेरी आंखें खराब हैं। तो डाक्टर ने पूछा, दुनिया में आदमी के ऊपर नशे का प्रभाव इसीलिए रहा है कि तुम्हारे पास कोई प्रमाण है तुम्हारी आंखें खराब होने का? उसने नशे से कुछ न कुछ रहस्य की झलक मिलती है। नशे का प्रभाव खीसे से एक तस्वीर निकाली, कहा, यह देखो मेरी पत्नी की अकारण नहीं है। तस्वीर है, इससे साफ जाहिर है कि मेरी आंखें खराब हैं। इस और समस्त दुनिया के धर्मगुरुओं ने नशे से बचने का आग्रह स्त्री से कौन शादी करेगा! किया है, वह भी बात ठीक है। क्योंकि नशा धोखा देता है। ___ अल्डुअस हक्सले को अपनी पत्नी में विभामय रूप दिखायी सत्य मिलता नहीं, सत्य की झूठी झलक दे देत पड़ा। नशे के उतर जाने के बाद सब खो गया। अल्डुअस यहां अगर मुझे सुनते-सुनते मेरे पास बैठे-बैठे प्रार्थना और हक्सले तो इतना प्रभावित हुआ एल.एस.डी. से कि उसने ध्यानपूर्ण हृदय से कभी तुम्हारी आंखों का पर्दा सरक जाए, तो . अपनी पूरी जिंदगी फिर यही कोशिश की कि वेद में जिस उस समय प्रश्न खड़े मत करना। उस क्षण तो पर्दे को पूरा ही गिर 'सोमरस' की चर्चा है, वह एल.एस.डी. ही है। उसने तो फिर जाने देना। छलांग लेकर उतर जाना। तुम भी बन जाना एक यह भी सिद्ध करने की कोशिश की कि अब भविष्य में महावीर, हिस्से उस इंद्रधनुष के। तुम भी उस विभा में खो जाना। शायद बुद्ध, कबीर, मीरा, क्राइस्ट, इनको जो हुआ, उसके लिए इतने | लौटकर तुम फिर कभी वही न हो सको, जो तुम थे। शायद तुम तीस-तीस साल, बीस-बीस साल साधना करने की कोई जरूरत नये होकर ही लौटो। शायद फिर तुम्हें अपने आसपास भी वैसे नहीं। यह तो बैलगाड़ी जैसे रास्ते थे-बड़े लंबे। अब तो जेट | ही रंगों का फैलाव, वैसे ही रंगों की बाढ़ अनुभव होने लगे। का युग है। एल.एस.डी. भविष्य की साधना है। | परमात्मा जीवन के समस्त रंगों को देख लेने का नाम है। वह इतना प्रभावित हो गया था कि जिंदगी इतनी रंगीन, इतनी | जीवन के समस्त रूप को देख लेने का नाम है। जीवन का जो प्रज्वल, इतनी संगीतपूर्ण, इतनी विभामयी! तो जरूर | परम आह्लादमय चमत्कारिक रूप है, उसको पूरा का पूरा जी लेने एल.एस.डी. कुछ कर रहा है। एल.एस.डी. कुछ भी नहीं | का नाम है। परमात्मा कोई गंभीर, उदास चेहरों की खोज नहीं; करता। और एल.एस.डी. से कुछ होनेवाला भी नहीं है। नाचते, गाते लोगों की खोज है। एल.एस.डी. तो एक झटके से तुम्हारी आंखों के पर्दे को गिरा देता है। लेकिन फिर पर्दा आ जाएगा। क्योंकि पर्दे के होने का आज इतना ही। कारण नहीं मिटता एल.एस.डी. से। यह तो ऐसे ही है जैसे किसी ने जबर्दस्ती किसी सोते आदमी की आंखें उघाड़ दीं। खोल दी खींचकर पलकें। एक क्षण को आंखें खुल गयीं, उसने कुछ देखा, कि फिर आंखें बंद हो गयीं। सोया आदमी सोया आदमी है। और अगर एल.एस.डी. बार-बार लिया तो रोज-रोज रंग कम होते जाएंगे। जैसे औषधि का असर खो जाता है, ऐसे ही नशे का असर खो जाएगा। फिर ज्यादा मात्रा चाहिए। उसी मात्रा में अर्थ न होगा। एक दिन ऐसा आयेगा, एल.एस.डी. से कुछ भी न होगा। अगर किसी आदमी की आंख तुमने रोज आधी रात में जबर्दस्ती खोली, तो 2010_03 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 पांचवां प्रवचन जीवन ही है गुरु Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ABSE सुवहुं पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ।।१०।। थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।।९१।। णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं।।९२।। दि जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं। तं चारित्तं भणियं, अवियप्पं कम्मरहिएहिं।।९३।। HABAR MDM अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि णियमेण। अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे दोसे।।९४ ।। जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण। तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णियआदं।।९५।। HT 2010_03 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्र क्योंकि उसका मूल्य तो लाभ का था। ईमानदारी से मिलता था 1 'चारित्रहीन पुरुष का विपुल शास्त्र-अध्ययन भी | तो ईमानदारी ठीक थी, बेईमानी से मिलता है तो बेईमानी ठीक व्यर्थ ही है. जैसे कि अंधे के आगे लाखों-करोडों है। ऐसे आदमी के बेईमान होने में जरा-भी अडचन न । दीपक जलाना व्यर्थ है।' ऐसे आदमी की ईमानदारी उपकरण है, साधन है, साध्य नहीं। सुवहुं पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स। ऐसे आदमी के चरित्र का कोई भरोसा नहीं। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ।। अगर एक आदमी इसलिए शुभ कार्य करता है कि इससे स्वर्ग महावीर ने चरित्र और चारित्र में बड़ा भेद किया है। एक चरित्र मिलेगा, तो ऐसे आदमी के चरित्र का कोई भरोसा नहीं। क्योंकि है, जो हम ऊपर से आरोपित करते हैं। एक चरित्र है, जो भीतर कल अगर इसे पता चल जाए कि बेईमान भी रिश्वत देकर और से आविर्भूत होता है। एक चरित्र है, जिसका हम अभ्यास करते स्वर्ग पहुंच रहे हैं, कल इसे पता चल जाए कि ईमानदार नर्क में हैं। और एक चरित्र है, जो सहज खिलता है। सहज खिलनेवाले पड़े हैं और सड़ रहे हैं, तो यह ईमानदारी छोड़ देगा। यह बेईमानी को ही उन्होंने चारित्र कहा है। वही धार्मिक है। जो आरोपित है, पर उतर जाएगा। स्वाभाविक है। क्योंकि साध्य तो ईमानदारी | अभ्यासजन्य है. चेष्टा से बांधा गया है. वह चरित्र नैतिक है। नहीं थी। , महावीर की भाषा में, वास्तविक चरित्र को उन्होंने | मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा था, निश्चय-चरित्र कहा है। अवास्तविक चरित्र को व्यवहार-चरित्र दुकान पर। सभी बातें समझा रहा था धीरे-धीरे, बेटा बड़ा हो कहा है। एक तो चेहरा है दूसरों को दिखाने के लिए। और एक गया, दुकान संभाले। एक दिन उसने कहा कि सुन, देख, यहां स्वयं का मौलिक चेहरा है। एक तो व्यवहार है। सच बोलते हो, व्यवसाय की नैतिकता का प्रश्न है। यह जो आदमी अभी-अभी ईमानदारी से जीते हो, लेकिन वह भी व्यवहार है। सारी दुनिया गया, दस रुपये का नोट इसे देना था, लेकिन भूल से यह के दुकानदार कहते हैं, 'आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पालिसी।' दस-दस के दो नोट दे गया है, एक-दूसरे में जुड़े थे। अब यह ईमानदारी श्रेष्ठतम नीति है। लेकिन पालिसी' होशियारी है सवाल उठता है व्यावसायिक नीति का कि मैं अपने साझीदार को उसमें। नीति, धर्म नहीं। ईमानदार इसलिए होना उचित है कि यह दस रुपये का दूसरा नोट बताऊं कि न बताऊं? वह यह नहीं ईमानदारी में लाभ है। ईमानदारी स्वयं बहुमूल्य नहीं है, लाभ के | कह रहा है कि नीति का सवाल उठता है कि मैं इस आदमी को कारण बहुमूल्य है। बुलाऊं जो बीस रुपये दे गया है। यह तो बात खतम हुई। इससे अगर ईमानदारी लाभ के कारण बहुमूल्य है, और किसी दिन | तो कुछ लेना-देना नहीं। अब मैं अपने पार्टनर' को बताऊं या बेईमानी से लाभ मिलता हो, तो ऐसा आदमी बेईमानी करेगा। न बताऊ? 2010_03 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 SERI व्यवसायी की बुद्धि तो नीति में से भी व्यवसाय ही खोजेगी। दूर पड़ गया, उसकी भूख-प्यास की भी याद नहीं आती। और जो इस ग्राहक को बुलाने को, देने को राजी नहीं है, वह महावीर ने ऐसे उपवास किये थे। तुम भी उपवास कर लेते साझीदार को भी बताने को राजी नहीं हो सकता। हो। लेकिन तुम्हारे उपवास में भोजन का इतना चिंतन चलता है नैतिक व्यक्ति बेशर्त नैतिक नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति बेशर्त कि करीब-करीब भोजन पर ही ध्यान अटक जाता है। भोजन नैतिक होता है। उसकी कोई शर्त नहीं है। नीति कोई साधन नहीं करते हए तम भोजन के संबंध में इस भांति कभी नहीं सोचते. है, जिससे कहीं पहुंचना है। नीति ही उसका साध्य है। जैसा उपवास करके सोचते हो। भोजन कर लिया दो बार, तो शुभाचरण उसका आनंद है। भूल गये। लेकिन जिस दिन उपवास थोप लिया अपने ऊपर, इसे खयाल में लेना, क्योंकि यह सारे सूत्र इसी संबंध में हैं। चौबीस घंटे भोजन की ही याद आती-जाती है। यह तो उपवास कोई व्यक्ति नर्क के डर से नैतिक आचरण कर रहा है। कोई | न हुआ। यह तो उपवास के प्रतिकूल हो गया, विपरीत हो गया। व्यक्ति चौराहे पर खड़े पुलिसवाले के डर से नैतिक आचरण कर एक ब्रह्मचर्य है, जो कामवासना की व्यर्थता के बोध से जन्मता रहा है। कोई व्यक्ति अदालत के भय से नैतिक आचरण कर रहा है। उसे बांध-बांधकर लाना नहीं पड़ता। तुम्हारी समझ ही, है। भय से नीति का कैसे जन्म होगा! भय से थोथे आचरण का तुम्हारे जीवन का अनुभव ही तुम्हें उस जगह ले आता है कि ऊर्जा, जन्म हो सकता है। भय के कारण तुम ऊपर-ऊपर अपने को | का तुम व्यर्थ उपयोग बंद कर देते हो। बंद करने की चेष्टा नहीं संभालकर रख सकते हो। लेकिन भीतर की अग्नि का क्या करते, बंद हो जाता है। तुम्हारी समझ ने तुम्हें शरीर की व्यर्थता होगा? और इसलिए अकसर तुम पाओगे, जिनको हम समझा दी। तुम्हारी समझ ने तुम्हें शरीर के क्षणभंगुर-रस का साधारणतः नैतिक पुरुष कहते हैं, वे सभी पाखंडी होंगे। बोध करा दिया। तुम्हारी समझ ने, जागरूकता ने, तुम्हारे पाखंड का इतना ही अर्थ है, ऊपर नैतिक होंगे, भीतर अनीति अनभव ने तम्हारे भीतर एक नयी दिशा खोज ली। उसी दिशा में के सागर में लहरें उठ रही होंगी। जो उन्होंने बाहर से रोक लिया | ऊर्जा बहने लगी। ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन हुआ। तुम ऊर्ध्वरेतस है अपने को, न करने से, वही उनके भीतर चित्त में घाव की तरह बने। तब तो एक ब्रह्मचर्य है, जिसमें फूल-जैसी सरलता होगी, गहरा होता जाएगा। जिससे उन्होंने अपने को किसी तरह वंचित | सहजता होगी, कोमलता होगी। कर दिया है, वह उनके मन में बार-बार सपने उठायेगा। और एक ब्रह्मचर्य है, जो तुमने वासना की अदम्य पुकार से आकर्षित करेगा। अगर उपवास घटा हो, तो तुम्हें भोजन की घबड़ाकर, वासना के अदम्य प्रभाव से घबड़ाकर अपने ऊपर द न आयेगी। कभी-कभी घटता है उपवास। कभी तम आरोपित कर लिया। जबर्दस्ती थोप लिया। प्राण तो भागे जाते संगीत सुनने में ऐसे लीन हो गये कि याद ही न रही शरीर की। थे वासना की तरफ, तुमने लगाम खींच ली। लेकिन इससे तुम संगीत से ऐसे भर गये कि भीतर जगह ही न रही भोजन की। शांति को उपलब्ध न होओगे। इससे तुम्हारा चित्त और भी संगीत में ऐसे डूब गये कि शरीर और शरीर की भूख का विस्मरण | कामक हो जाएगा। इससे तुम्हारे चित्त में कामवासना ही हो गया। तो उपवास सहज घटित हुआ। ध्यान में डूब गये और | कामवासना भर जाएगी। इससे तुम मवाद ही मवाद से भर शरीर भूल गया, तो उपवास सहज घटित हुआ। लेकिन अगर जाओगे। इससे तुम्हारा उठना, बैठना, सोना, जागना, ध्यान, तुमने चेष्टा से उपवास किया–पर्युषण आया, व्रत के दिन पूजा, प्रार्थना, सभी पर कामवासना की छाप पड़ जाएगी। यह आये, तुमने उपवास किया तो तुम दिन-रात भोजन के संबंध तो रोग हो गया। स्वास्थ्य न हुआ। में ही विचार करोगे। यह उपवास अंतर्तम से नहीं आया। यह महावीर जिस ब्रह्मचर्य की बात करते हैं, वह जीवन के अनुभव उपवास नहीं है, अनशन है। उपवास शब्द का ही अर्थ होता है, से आये। जीवन के कडुवे-मीठे अनुभव तुम्हें कहीं पहुंचा दें; आत्मा के निकट आ जाना, आत्मा के पास आ जाना। आत्मा के हाथ जल जाए, फिर कौन डालता है आग में हाथ! वास में आ जाना। पास...और पास...और पास...। आत्मा मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर छोटा बच्चा आग की तरफ जा के इतने पास हो गये कि शरीर बहुत दूर पड़ गया, हजारों मील | रहा हो, तो बजाय उसे जबर्दस्ती रोकने के, उसे आग के पास 84 | JainEducation International 2010_03 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Marauwarenewmomemagwwwomemamawesomeownewww जावन ही है गरु धीरे-धीरे ले जाओ। उसे अनुभव होने दो कि जैसे-जैसे आग के चाहेगा, हो सकेगा। लेकिन एक बात खयाल रखना कि जब मंत्र पास जाता है, वैसे-वैसे शरीर झुलसता है। और इसमें भी कोई को पढ़े तो बंदर की याद न आये। उस आदमी ने कहा, फिकिर हर्ज नहीं है अगर वह एक बार जलती हुई आग में अंगुली भी छोड़ो, बंदर की कभी याद आयी ही नहीं जिंदगी में, अब क्यों डाल ले और थोड़ा जल जाए और फफोला उठ आये, कोई हर्ज आयेगी। लेकिन बस वहीं झंझट हो गयी! नहीं। लेकिन यह जीवनभर के लिए सिखावन हो जाएगी। तुम | वह मंदिर से नीचे भी नहीं उतर पाया कि बंदर ही बंदर! उसने तो आकर्षण बढ़ेगा। जहां-जहां हम मन | बहत झिडका। उसने बार-बार मंत्र को याद करने की कोशिश को जाने से रोकते हैं, मन वहीं-वहीं उतावला होता है जाने को। की, लेकिन जैसे ही मंत्र आये कि उसके पहले बंदर मौजूद हो मन का नियम समझो। नियंत्रण निमंत्रण बन जाता है। निषेध जाए। रातभर उसने चेष्टा की कि पांच बार तो बिना बंदर के एक पुकार बन जाती है। रोको जाने से कहीं मन को और सब तरफ दफा कह लूं, लेकिन न कह पाया। आधी पागल हालत में सुबह भूलकर मन वहीं-वहीं जाने लगता है। कभी देखा है, दांत टूट आया। उसने उस गुरु को कहा कि तुम भी हद्द के आदमी हो! जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। रोको उसे। फिर तुम भूले एक तो वर्षों की सेवा के बाद मंत्र दिया, यह बंदर क्यों साथ दे कि फिर जीभ वहीं गयी। कहां चौबीस घंटे याद रखोगे! तुम दिया! अगर बंदर ही शर्त थी, तो चुप रहते। मुझे बंदर कभी याद जानते हो दांत टूट गया, अब वहां कुछ जीभ को ले जाने जैसा भी आते ही न थे, जिंदगी बीत गयी। और आज रात, मंत्र को पांच नहीं है। लेकिन खाली जगह में जीभ जाती है। तुम रोकते हो तो | बार कहना तो मुश्किल, एक बार कहना मुश्किल है। गुरु ने और-और जाती है। कहा, मैं भी क्या कर सकता हूं! शर्त वही है। वह पूरी हो तो ही मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक बहुत गहरा नियम है-विपरीत मंत्र सार्थक होता है। परिणाम का नियम। तुम जो नहीं करना चाहते, वही होता है। तुम पक्का मान लो, वह मंत्र कभी सार्थक हुआ न होगा। नये सिक्खड़ को देखा है साइकिल सीखते हुए? साठ फीट चौड़े | जितनी चेष्टा होगी, उतना ही बंदर प्रगाढ़ होता जाएगा। रास्ते पर, रास्ते के किनारे लगे मील के पत्थर से उसकी साइकिल मन का एक नियम है। तुम जिस चीज को दबाओगे, उभरेगी। जाकर टकरा जाती है। साठ फीट चौड़ा रास्ता था, कोई रास्ते पर दबाने से कभी कोई मुक्त नहीं होता। मुक्ति दमन से नहीं आती। न था। सुनसान पड़ा था। लेकिन इसको हुआ क्या? यह लाल मुक्ति बोध से आती है। समझ से आती है। और एक बार समझ मील के पत्थर की तरफ क्यों आकर्षित हो गया? जैसे ही नया आ जाए, तो जीवनभर के लिए एक दीया जल जाता है भीतर। सिक्खड़ पत्थर देखता है, वह घबड़ाता है। वह घबड़ाता है कि मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की एक रात अपनी पत्नी से कुछ कहीं इस पत्थर से टकरा न जाऊं! साठ फीट चौड़ा रास्ता भूल | कहा-सुनी हो गयी। पत्नी बहुत चिल्लाने लगी, चीखने लगी। जाता है। इस पत्थर से टकरा न जाऊं, नजर पत्थर पर अटक | मुल्ला थरथर कांपने लगा। आखिर पत्नी ने कहा, कायर कहीं जाती है। और जैसे वह पत्थर से बचने लगता है, वैसे रास्ता तो | के, क्यों थरथर कांप रहे हो? तुम आदमी हो कि चूहे! मुल्ला ने बिलकुल ही भूल जाता है, पत्थर और वह, बस दो ही रह जाते कहा, देवी! आदमी ही होना चाहिए, क्योंकि अगर मैं चूहा हैं। फिर एक अदम्य आकर्षण घबड़ाहट में पैदा हुआ। उसे होता, तो तू थरथर कांपती। इस उपद्रव और झगड़े में पत्थर की तरफ खींचने लगता है। कोई पत्थर खींच रहा है, ऐसा मोहल्ले-पड़ोस के लोग भी आ गये। संयोग की बात एक चोर नहीं। खुद के ही निषेध से खिंचा जा रहा है। घर में घुसा था। वह पकड़ा गया। बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि एक युवा एक साधु के पीछे पड़ा था। अदालत में मुकदमा चला। उस चोर से मजिस्ट्रेट ने पूछा, उसके पैर दबाता, सेवा करता, कहता कि कुछ चमत्कारी शक्ति तुम्हें कुछ कहना है? उसने कहा सिर्फ इतना ही कहना है हुजूर, दे दो। साधु उससे घबड़ा गया था, उसने कहा, अच्छा भई! यह कि मैं कभी शादी न करूंगा। और इतनी मेरी प्रार्थना है, और मंत्र है। छोटा-सा मंत्र है, इसे पांच बार पढ़ना है। बस पांच बार कोई भी सजा दे दो, शादी करने भर की आज्ञा मत देना। बस, पढ़ने से तुझे सिद्धि उपलब्ध हो जाएगी। तू जो भी करेगा, करना | बहुत देख लिया। रात जो मुझे दर्शन हुआ है! मैं भी आदमी हूं, 85 2010_03 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 जिन सूत्र भाग: 2 चूहा नहीं हूं। और जो इस गरीब मुल्ला पर गुजरते देखा है, वह जाओ। उस अंधे ने कहा, तुम पागल हुए हो! मुझे क्या फर्क अब अपने पर गुजरते नहीं देखना चाहता। पड़ता है, कंदील हाथ में हो, या न हो ! अंधेरा अंधेरा है। मैं अंधा हूं, क्या तुम भूल गये ? कंदील क्या करेगी ! लेकिन उस मित्र ने तर्क किया कि माना कि तुम अंधे हो और कंदील तुम्हारे लिए कुछ न कर सकेगी, लेकिन इतना तो करेगी कि दूसरा कोई तुमसे न टकरा सकेगा। रोशनी हाथ में रहेगी, तो दूसरा तुमसे न टकरा सकेगा। यह तर्क अंधे को भी जंचा, वह कंदील लेकर गया। कोई दस-पांच कदम ही गया था कि कोई उससे आ टकराया। उसने कहा, क्या मामला है? क्या तुम भी अंधे हो ? हाथ में कंदील है मेरे, दिखायी नहीं पड़ती ? उस दूसरे आदमी ने कहा कि महानुभाव, आपकी कंदील बुझी हुई है। पता कैसे चले कि कंदील बुझ गयी। अंधे को कंदील का जलना ही पता नहीं चलता, तो बुझना कैसे पता चलेगा? और कहते हैं, उसे अंधे ने लौटकर अपने मित्र को कहा कि मैं वर्षों से चल रहा हूं, कभी मुझसे कोई भी न टकराया था। क्योंकि मैं खुद ही संभलकर चलता हूं, लकड़ी चोट करके चलता हूं, खबर करके चलता हूं कि भई, मैं अंधा हूं। तुम्हारी कंदील ने मुझे आश्वासन दे दिया कि आज तो कोई खबर रखने की जरूरत नहीं । आज तो लापरवाह चल सकता हूं। कंदील तो हाथ में है, कोई टकरायेगा नहीं। यह पहली दफे मेरी जिंदगी में कोई मुझसे टकराया है, तुम्हारी कंदील के कारण टकराया है। कंदील ने भरोसा दे दिया, आत्मविश्वास दे दिया। अन्यथा अंधा अपने अंधेपन के हिसाब से व्यवस्था करके चलता है। लकड़ी टटोलकर, आवाज करके । आज उसने अपनी सहज सावधानी को भी छोड़ दिया। जीवन को खुली आंख से देखते चलें। जो चारों तरफ गुजर रहा है, वही शास्त्र है। जो सब पर गुजर रहा है, वही शास्त्र है। तुम पर गुजर रहा है, उसे भी गौर से देखो। कोई भी जीवन का अनुभव बिना सार निचोड़े मत जाने दो। तो ही धीरे-धीरे परिपक्वता आती है। तो ही धीरे-धीरे ऐसी घड़ी आती है, जहां तुम्हारे भीतर से चरित्र का आविर्भाव होता है। लेकिन उस चरित्र की न तो कोई मांग होती, न कोई आकांक्षा होती, न उस चरित्र का कोई लक्ष्य होता । वह चरित्र स्वयं में सुंदर । स्वांतः सुखाय भीतर ही भीतर उसका रस है। । वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि मैं चरित्रवान हूं, इसलिए मुझे सम्मान मिले। वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता – यह भी शिकायत नहीं करता कि दूसरे चरित्रहीन सम्मानित हो रहे हैं, यह क्या अन्याय हो रहा है ! वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि चरित्रहीन सफल हो रहे हैं और चरित्रवान असफल हो रहे हैं, हे प्रभु, यह कैसा अन्याय है ! नहीं, उसकी कोई शिकायत नहीं। वह जानता है कि चरित्रहीन कितना ही सफल हो जाए, उसकी सब सफलता अंततः जोड़ में असफलता बन जाती है । वह जानता है कि चरित्रवान सफल हो कि असफल, उसके आनंद में कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी विफलता भी सफलता है। सफलता तो सफलता है ही। वह सड़क पर भिखारी की तरह भी खड़ा हो, तो उसके भीतर सम्राट का भाव होता है । चरित्रहीन, सम्राट की तरह सिंहासन पर भी बैठा हो, तो भी अपराधी के भाव से भरा होता है। असली निर्णय भीतर है। चरित्र का एक सहज सुख है। एक शीतलता है। लेकिन, उस चरित्र का जो अपने से आता है। महावीर कहते हैं, 'चरित्रविहीन पुरुष का विपुल शास्त्र - अध्ययन भी व्यर्थ ही है; जैसे कि अंधे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है । ' अगर तुम्हें पता हो कि तुम अज्ञानी हो, तो तुम टटोलकर चलोगे, आवाज करके चलोगे, लकड़ी बजाकर चलोगे; अकड़कर न चलोगे। लेकिन, अगर तुम्हारा अज्ञान शास्त्र - अध्ययन में ढंक गया, तो तुम्हें लगता है, तुम्हारे हाथ में कंदील आ गयी। तुम अकड़कर चलोगे। अज्ञानी के पास जब अंधे के सामने एक दीपक जलाओ, कि करोड़ दीपक उधार ज्ञान हो जाता है, तो ज्ञान तो नहीं आता, सिर्फ अकड़ आती जलाओ, कोई अंतर नहीं पड़ता । है। ज्ञान तो नहीं जलता, सिर्फ अहंकार प्रगाढ़ होता है। सुना है मैंने, एक अंधा अपने मित्र के घर से विदा हो रहा था। तो मित्र ने कहा, रात में अंधेरा ज्यादा है, अमावस की रात है। रास्ते पर कोई दुर्घटना हो जाए, तुम यह हाथ में कंदील लिये | 2010_03 इस अहंकार से चरित्र तो कैसे पैदा होगा! अहंकार तो सबसे बड़ी बाधा है चरित्र में। क्योंकि चरित्र की अगर कोई बुनियाद है, तो निर - अहंकारिता है। अपने को बदलने को वही तैयार होता Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन ही है गुरु है, जो अपने दोष देखने को तैयार है। अहंकार तो अपने दोष | से स्वयं के अध्ययन से यात्रा शुरू होगी। देखने को तैयार ही नहीं होता। इसलिए बदलने का तो कोई 'चारित्र्यसंपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है।' सवाल ही नहीं है। __ थोड़ा भी जानो, लेकिन जानो। अपने अनुभव से जानो। थोड़ा । अज्ञानी व्यक्ति, जिसके ऊपर पांडित्य का कोई बोझ नहीं है, भी जानो, लेकिन तम्हारे ही जीवन का निचोड़ हो। रत्तीभर काफी अपने अज्ञान को देखता है और सदा तत्पर होता है बदलने को। है, लेकिन तुमने प्राणों को डालकर उसे सीखा हो। उधार न हो। अज्ञानी सीखने को राजी होता है, पंडित सीखने को राजी नहीं ऊपर-ऊपर न हो। सुना-सुनाया न हो। तुम्हारे भीतर प्राणों ने होता। उसे तो पहले से ही खयाल है कि मैं जानता हूं। गुनगुनाया हो। तुमने अपनी आंख से जाना हो। तुमने अपने इसीलिए सदियां बीत गयीं, शास्त्र बढ़ते चले गये; आदमी का हाथ से छुआ हो। तो अल्पतम ज्ञान भी बहुत है। ज्ञान भी खूब बढ़ा; मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे भी खूब बने, लेकिन | '...और चरित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान-बहुत कुछ सुना चरित्र के मंदिर का जन्म न हुआ। हुआ, बहुत स्मृति से इकट्ठा किया हुआ, वैसा ज्ञान-भी मस्जिदों में मौलवी खुत्बे सुनाते ही रहे निष्फल है।' मंदिरों में बिरहमन अशलोक गाते ही रहे हम जानते बहुत हैं बिना जाने। गुरजिएफ के पास जब पहली आदमी मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फी ही रहा दफा आस्पेंस्की आया-उसका प्रमख शिष्य-तो गुरजिएफ ने दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा। कहा, तू एक काम कर। एक कागज पर दो खंड कर ले। एक चलते रहे। मौलवी कुरान समझाते रहे। मंदिरों में उपदेश देते तरफ लिख, जो तू जानता है। और एक तरफ लिख, जो तू नहीं रहे ब्राह्मण। जानता है। और ईमानदारी बरत। क्योंकि अगर मेरे पास कुछ मस्जिदों में मौलवी खुत्बे सुनाते ही रहे सीखना है, तो ईमानदारी से शुरुआत करनी होगी। फिर मेरा मंदिरों में बिरहमन अशलोक गाते ही रहे कुछ खोता नहीं, अगर तू बेईमान भी रहे। जो तू लिख देगा कि तू आदमी मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फी ही रहा जानता है, उस संबंध में मैं फिर कभी तुझसे बात न करूंगा। बात लेकिन आदमी सदा देवताओं के सामने हाथ जोड़े भिखारी ही | खतम हो गयी, तू जानता है। और जो तू लिख देगा कि नहीं बना रहा। वह देवताओं की कृपा का आकांक्षी ही रहा। आदमी | जानता है, उस संबंध में मैं तेरी पूरी सहायता करूंगा जानने के कभी अपने पैर पर खड़ा न हो पाया। आदमी कभी स्वावलंबी न लिए। अब तू सोच ले। यह कागज ले, भीतर के कमरे में जाकर | बन पाया। आदमी देवताओं के सामने भिखमंगा बना रहा. | लिख ले। आदमी खुद देवता न बन पाया। आस्पेंस्की प्रसिद्ध आदमी था। बड़ा गणितज्ञ था। जब दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा गुरजिएफ के पास आया तो गुरजिएफ को तो कोई भी नहीं जानता और आदमी की जो बुनियादी बीमारी है, वह उपचार से वंचित था, आस्पेंस्की का नाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का नाम था। उसने रही। आदमी का अहंकार उसकी बनियादी बीमारी है। एक बड़ी अदभुत किताब 'टर्सियम आर्गनम' लिखी थी। ऐसी दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा किताबें सदियों में एकाध बार लिखी जाती हैं। कहते हैं, दुनिया वह जो मूल पीड़ा है, अकड़ की, वह अपनी जगह खड़ी रही। में केवल तीन किताबें हैं उस मूल्य की, पूरे मनुष्य जाति के खड़ी ही न रही, बल्कि बहुत बढ़ गयी। मंदिरों, मस्जिदों ने इतिहास में। पहली किताब अरिस्टाटल ने लिखी थी। उसका सहारा दिया। आदमी गहन अहंकार से भर गया। इस अहंकार नाम है-'आर्गनम।' पहला सिद्धांत। दूसरी किताब बेकन ने के कारण सीखना ही असंभव। इस अहंकार के कारण झकना लिखी, उसका नाम है—'नोवम आर्गनम।' नया सिद्धांत। असंभव। इस अहंकार के कारण विनम्र होना असंभव। और तीसरी किताब आस्पेंस्की ने लिखी। उसका नाम 'चरित्रहीन पुरुष का विपुल शास्त्र-अध्ययन व्यर्थ है।' है-'टर्सियम आर्गनम।' तीसरा सिद्धांत। कहते हैं, इन तीन महावीर कह रहे हैं, शब्दों से नहीं, अध्ययन से नहीं, स्वाध्याय किताबों का कोई मुकाबला नहीं है। 87 2010_03 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 और आस्पेंस्की ने जब ऐसी बहुमूल्य किताब लिखी थी, तो कहते हो, बड़े हो जाओ, तब तुम्हें दिखायी पड़ेगा। तुम्हें दिखायी स्वभावतः अकड़ थी। अकड़ तो उसकी किताब के पहले पन्ने से पड़ा बड़े होकर? क्यों झूठ बोल रहे हो! कम से कम ईश्वर के ही पता चलती है। पहले पन्ने पर ही वह लिखता है कि अरस्तू ने | संबंध में तो झूठ मत बोलो। क्या तुम बच्चे को दे रहे हो? तम पहला सिद्धांत लिखा, बेकन ने दूसरा लिखा, मैं तीसरा लिखता | सोचते हो, ईश्वर दे रहे हो। तुम एक बड़े से बड़ा झूठ दे रहे हो। हूं, लेकिन तीसरा पहले से भी पहले मौजूद था। यह मेरा तीसरा इसमें ईश्वर तो मिलेगा ही नहीं तुम भी खो जाओगे। सिद्धांत पहले से भी पहले है! और किताब तो मूल्यवान है, सभी बच्चे बड़े होकर अपने मां-बाप का तिरस्कार करने लगते इसमें कोई भी शक नहीं है। हैं। क्योंकि एक न एक दिन यह पता चल जाता है कि धोखा गुरजिएफ को कोई भी नहीं जानता था। गुरजिएफ को लोगों ने दिया गया। छोटे बच्चे तो बड़ी श्रद्धा से भरे होते हैं। तुम जो भी जाना आस्पेंस्की के कारण। क्योंकि आस्पेंस्की उसका शिष्य हो | कहते हो, मान लेते हैं। अश्रद्धा जानते ही नहीं अभी। लेकिन | गया। तो जरूर इस फकीर में कुछ होगा। और गुरजिएफ ने कब तक ऐसा रहेगा! जल्दी ही सोच-विचार उठेगा, संदेह कहा, तू लिख ले। क्योंकि मैंने तेरी किताब देखी है। तू बड़े जगेंगे, प्रश्न उठेगे और तब वे देखेंगे, कि तुम भी उसी नाव में खतरे में है। तुझे पता नहीं है और तुझे खयाल है कि तुझे पता है। सवार हो जिस पर वे सवार हैं। न तुम्हें परमात्मा का पता है, ने यह साफ हो जाए पहले ही दिन, फिर बात चल पड़ेगी। तुम्हें आत्मा का पता है, तुम बकवास कर रहे हो। जिस दिन यह आस्पेंस्की आदमी निश्चित ईमानदार रहा होगा। सब दांव पर दिखायी पड़ता है, उसी दिन श्रद्धा गिर जाती है। और जिस बच्चे लगा दिया उसने। घंटेभर वह बैठा रहा उस कमरे में। सर्द रात की श्रद्धा मां-बाप से गिर जाती हो, उसकी श्रद्धा स थी, पसीना-पसीना हो गया। हाथ में लिए कलम, कागज | जाती है। सामने रखे, चेष्टा करता है, लेकिन कुछ भी याद नहीं आता जो जो इतने करीब थे, जो इतने अपने थे, वे भी धोखा दे गये। वे जानता हो, जो वस्ततः जानता हो, जिसको स्वयं जाना हो। | भी झठ बोलते रहे। वे भी दावे करते रहे, जिनका उन्हें कछ भी जिसका साक्षात्कार हुआ हो। न ईश्वर को जानता है, न आत्मा पता न था! तो अब दूसरों का क्या भरोसा? अगर इस संसार में को जानता है। कुछ भी तो नहीं जानता। अभी ध्यान भी तो नहीं तुम्हें इतने अश्रद्धालु दिखायी पड़ते हैं, उसका बुनियादी कारण जाना। अभी प्रेम भी तो नहीं जाना। परमात्मा तो बहुत दूर है, | यही है, बच्चों की श्रद्धा के साथ खिलवाड़ किया गया है। उतना अभी प्रेम भी नहीं जाना। रोता है, पसीने से तरबतर है। ही कहना, जितना तुम जानते हो। कुछ हर्ज नहीं है कह देने में कि घंटेभर बाद वापिस आता है। गुरजिएफ के चरणों में गिर मुझे पता नहीं है, खोज रहा हूं, मिल जाएगा तो तुम्हें बता दूंगा। पड़ता है। खाली कागज हाथ में दे देता है। कहता है, मैं कछ भी अगर तम्हें मिल जाए, तो मझे खबर करना। मझे पता नहीं है। नहीं जानता। मैं शिष्य होने को तैयार हूं। और वह आखिरी क्षण यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। है, उसके बाद उसने कभी गुरजिएफ के सामने किसी भी बात को यह झूठी अकड़ कि मुझे पता है, सबसे महंगा सौदा है। इसके जानने का दावा नहीं किया। | कारण ही चरित्र का जन्म नहीं हो पाता। क्योंकि झूठ से तो चरित्र गुरजिएफ ने खूब भरा उसे। खूब उंडेला उसमें। इतना खाली का जन्म नहीं हो सकता। पात्र मिल जाए, तो गुरु भी नाच उठता है। और इतना खाली हूं, अब यह थोड़ा सोचना। ऐसा मानने को तैयार हो जाए; खाली तो सभी हैं। मानने में | इसे तुम धर्म की शिक्षा कहते हो। सारे धर्म यह चेष्टा करते अड़चन है। खाली हैं तो और ढक्कन को बंद किये बैठे हैं, कि हैं-ईसाई, हिंदू, जैन, मुसलमान-सब यह चेष्टा करते हैं कि कोई ढक्कन न खोल ले, कोई भीतर देख न ले! धर्म की शिक्षा रहे। क्या शिक्षा तुम दोगे? शिक्षक को पता है ? तुमने कभी विचार किया कि क्या तुम जानते हो? तुमने कभी शिक्षक को भी पता नहीं है। ऐसे तुम झूठ को पैर लगा रहे हो। ईमानदारी से उत्तर दिये? तुम्हारा छोटा बच्चा तुमसे पूछता है, ऐसे तुम झूठ को चलायमान कर रहे हो। सब धर्म शिक्षा ईश्वर है? तुम कहते हो हां है। वह कहता है, दिखाओ। तो तुम खतरनाक है। क्योंकि ज्ञान से भर देगी। और चरित्र से सदा के 88 2010_03 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ECE जीवन ही है ग लिए वंचित कर जाएगी। हूं, तब प्रार्थना सुगम होती है। इसलिए दुख की प्रार्थना करता हूं, वास्तविक धर्म की शिक्षा तो एक ही हो सकती है कि तुम्हें क्योंकि दुख की छाया में ही मैं प्रार्थना कर पाता हूं। अभी मैं जीवन से निचोड़ने की कला सिखायी जाए। तुम्हें कहा जाए कि इतना योग्य नहीं कि सुख में प्रार्थना कर सकूँ। सुख में भूल जाता जीवन के अनुभवों से सीखना। अगर क्रोध करते हो, तो खूब हूं। दुख में याद बनी रहती है। तो थोड़ा दुख देते रहता। ऐसा न जागकर क्रोध करना। ताकि क्रोध में क्या होता है, यह तुम्हें पता हो कि सुख ज्यादा दे दो, और मैं तुम्हें ही भूल जाऊं। क्योंकि चल जाए। फिर तुम्हारी मर्जी! फिर जो श्रेयस्कर हो, करना। तुम्हें ही भूल गया, तो सुख का क्या करूंगा? तुम याद रहे, अगर तुम्हें लगे, क्रोध ही उचित है, वही तुम्हारा आनंद है, तो थोड़ा दुख भी रहा तो ठीक है। तुम्हारी याद के साथ दुख झेलना वही करना। लेकिन ऐसा तो कभी हुआ नहीं कि क्रोध में किसी ने बेहतर। तुम्हारी याद के बिना सुख में उतरना खतरनाक। आनंद पाया हो। कामवासना में तुम्हारा आनंद है, तो ठीक है, स्वर्ग भी नर्क हो जाता है, अगर परमात्मा का स्मरण न रहे। उसी तरफ जाना। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं कि किसी ने नर्क भी स्वर्ग हो सकता है, अगर उसकी याद बनी रहे। वस्तुतः आनंद पाया हो। आनंद तो मनुष्य के भीतर है—न क्रोध में है, न तो उसी की याद में स्वर्ग है। स्मरण में, बोध में, ध्यान में। काम में है, न लोभ में है। चरित्र रुक गया है, अवरुद्ध हो गया है। झूठे ज्ञान के कचरे ने, रत्न तो लाख मिले, एक हृदय-धन न मिला कंकड़-पत्थरों ने झरने को अवरुद्ध कर दिया है। तो पहली बात दर्द हर वक्त मिला, चैन किसी क्षण न मिला जो धार्मिक व्यक्ति को करने की है, वह यह है-तथाकथित खोजते-खोजते ढल धूप गयी जीवन की ज्ञान को हटा दो। इस कूड़े-कर्कट को अलग करो। इसको दूसरी बार मगर लौटकर बचपन न मिला अलग करते ही तुम बड़े निर्भार हो जाओगे। बोझ उतर जाएगा। और धर्म का अर्थ है, दूसरी बार बचपन का मिल जाना। द्विज | न हिंदू रहोगे, न मुसलमान, न जैन, न ईसाई। क्योंकि यह सब हो जाना। धर्म ऐसे रत्न की तलाश है जो तुम्हारे भीतर छिपा पड़ा | तो उधार ज्ञान के कारण तुम बने हो। तब तुम सिर्फ शुद्ध है, जो तुम्हारी अंदर की पर्तों में दबा पड़ा है। | खालिस आदमी रह जाओगे। शुद्ध, सहज आदमी। और यह धर्म किसी से मिल नहीं सकता। यह धर्म किसी के हाथ से तुम्हारी आंखें निर्मल बच्चे की भांति हो जाएंगी। क्योंकि ज्ञान ने हस्तांतरित नहीं हो सकता। यह धर्म तो तुम्हें अपने भीतर ही तुम्हें बूढ़ा किया है। अगर ज्ञान तुम हटा दो, तो दूसरा बचपन उतरकर ही खोजना होगा। | आने लगा। जीवन के हर अनुभव को सीढ़ी बनाना। और जीवन के किसी रत्न तो लाख मिले, एक हृदय-धन न मिला अनुभव से घबड़ाना मत। यहां कुछ भी बुरा नहीं है। अगर सीख मिलेगा भी कैसे! हृदय-धन तो भीतर है। बाहर जो भी मिल लो, तो सभी शुभ है। और न सीखो, तो सभी अशुभ है। यहां जाएगा, वह और कुछ भी हो, हृदय-धन तो नहीं हो सकता। कांटे भी शिक्षा के लिए हैं। यहां अपमान में भी राज है। यहां और जो हृदय-धन नहीं है, वह धन कैसा! वह आज नहीं कल दुख और दर्द में भी प्रार्थना के बीज ही छिपे हैं। छिनेगा। सूफी फकीर हसन परमात्मा से प्रार्थना किया करता था कि हे दर्द हर वक्त मिला, चैन किसी क्षण न मिला परमात्मा! और कुछ भी करना, लेकिन थोड़ा दर्द बनाये रखना, चैन तो भीतर मिलता है। चैन तो उसे मिलता है, जो अपनी ही थोड़ा दुख देते रहना। एक दिन किसी ने सुन लिया। यह कैसी छाया में आ गया। जो अपने भीतर इतना उतर गया कि संसार प्रार्थना कर रहा है! पूछा कि हसन, प्रार्थनाएं हमने बहुत सुनी, की तरंगें वहां तक पहुंच नहीं पातीं। चैन तो बस उसे मिलता है। लोग करते हैं प्रार्थना सुख की, सुख के लिए, यह कैसी प्रार्थना! | दर्द हर वक्त मिला, चैन किसी क्षण न मिला तुम्हारा दिमाग ठीक है? या मैंने गलत सुना? मुझे लगा कि तुम खोजते-खोजते ढल धूप गयी जीवन की कह रहे हो, हे परमात्मा! रोज मुझे थोड़ा दुख जरूर देते रहना। दूसरी बार मगर लौट के बचपन न मिला हसन ने कहा, गलत नहीं सुना। लेकिन दुख में जब मैं होता | और जब तक दूसरी बार बचपन न मिले, समझना कि जीवन 89 2010_03 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 व्यर्थ गया। दूसरी बार बचपन मिल जाए, कि जीवन सार्थक करने से आता है। हुआ। उस दूसरे बचपन को ही तो संतत्व कहते हैं। पहला | यह ज्ञान चरित्र का ही निचोड़ है, सार है। जैसे हजारों फूलों बचपन मूल्यवान है, लेकिन खोयेगा। क्योंकि पहला बचपन को निचोड़कर इत्र बनता है, ऐसे हजारों अनुभवों को निचोड़कर अबोध है। उसे खोना ही पड़ेगा। उसे बचाने का कोई उपाय नहीं | ज्ञान बनता है। एक बार क्रोध किया, दो बार क्रोध किया, हजार है। वह खोने को ही है। बच्चा सरल है, साधु है, लेकिन उसकी बार क्रोध किया, लाख बार क्रोध किया, इन सारे क्रोधों से तुमने साधुता इतनी सरल है कि संघर्ष में टिक न सकेगी। उसकी जब अनुभव को निचोड़ा, और पाया कि सब व्यर्थ था, कुछ भी साधुता इतनी स्वाभाविक है कि जीवन के उपद्रव में दब जाएगी। करने-जैसा न था, नाहक ही परेशान हुए। उसकी साधता जानेवाली है। कोई उपाय नहीं बचाने का। खयाल रखना, इसमें जल्दी नहीं की जा सकती। सब चीजें एक और बचपन आता है, जब तुम अपने हाथ से बचपन लाते समय पर पकती हैं। और फूल अपने-आप खिलते हैं, उन्हें हो। हटा देते हो सब कूड़ा-कर्कट जानकारी का। फिर अनजान जबर्दस्ती नहीं खोलना होता, प्रतीक्षा जरूरी है। हो जाते हो, जैसे छोटा बच्चा। तुम्हारी आंखें विचारों से भरी नहीं अगर तुमने सुन लिया कि क्रोध बुरा है और पहले से ही मान हैं। निर्मल हो जाती हैं। तुम्हारी खोपड़ी में कोई बोझ नहीं। तुम लिया कि क्रोध बुरा है, और फिर तुम सोचने लगे कि अब फिर से आंख खोलकर जगत को देखते हो, जैसा तुमने पहली अनुभव से निचोड़ लें, तुम न निचोड़ पाओगे। क्योंकि तुम्हारी बार आंख खोलकर गर्भ के बाद देखा था। जन्मे थे और आंख धारणा तो पहले से ही तैयार है। खोली थी। उतनी ही निष्कपटता से फिर से तुम जगत को देखते कोई धारणा नहीं चाहिए। क्रोध को निर्धारणा से देखो। जैसे हो। इसी को तो हम संतत्व कहते हैं। कहो केवल ज्ञान।' तुम्हें किसी ने कभी कुछ नहीं कहा क्रोध के संबंध में अच्छा यह दसरा बचपन बड़ा बहुमूल्य है। यह कभी खोयेगा नहीं। है, बुरा है; पाप है, पुण्य है। कामवासना को निर्धारणा से क्योंकि इसे तुमने अर्जित किया है। पहला बचपन मिला था, देखो। जैसे कोई तुम्हें सिखानेवाला नहीं आया। तुम पृथ्वी पर दूसरा तुमने कमाया है। जो कमाया है, वह कभी खोयेगा नहीं। पहली दफा आये हो, और तुम्हें किसी ने कोई शिक्षा नहीं दी; तुम जो मिला था, वह वापिस लिया जा सकता है। पहला बचपन कामवासना को ऐसी खुली नजर से देखो, तो जल्दी ही निचोड़ मुफ्त था। दूसरा बचपन अर्जित है। पहला बचपन अबोध था। | आ जाएगा हाथ में। वही-वही हम दोहराये चले जाते हैं। दूसरा बचपन बड़ा बोधपूर्ण है, बुद्धत्वपूर्ण है। पहला बचपन लेकिन, अड़चन क्या है? अड़चन यह है, कि अनुभव के पहले कठिनाइयों को नहीं जानता था। कठिनाइयों में गया, भटक हमारी धारणा निर्मित हो जाती है। गया। दूसरा बचपन सारी कठिनाइयों को पार करके आया है, अभी बच्चे को पता भी नहीं है कि झूठ बोलना क्या है, और जानकर आया है। देख लिये जीवन के सब अनुभव। फांक ली हम उसे सिखाने लगते हैं-सच बोलना, झूठ मत बोलना। धूल सभी रास्तों की। और सभी घाटों का पानी पी लिया। सब हमारी बात सुनकर ही उसे पहली दफा पता चलता है कि झूठ भी पाप-पुण्य पहचान लिये। बुरे-भले अनुभव, मीठे-कडुवे | कुछ है। अनुभव, सबसे गुजरकर आया है। जीवन की परीक्षा पर मैंने सुना है, गांव में एक नया मौलवी आया। वह उत्सुक था कसकर उतरा है। कसौटी से गुजरा है। यह जो दूसरा बचपन है, जानने को कि उसके प्रवचन गांव के लोगों को कैसे लग रहे हैं। इसे फिर कोई छीन नहीं सकता। यह फिर तुम्हारी निधि है। यही उसने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा-वह रोज-रोज सुनने आता है, है हृदय-धन। सामने ही बैठता है--पूछा उससे कि कैसा लग रहा है मेरा 'चरित्र-संपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है।' बोलना तुम्हें, जो मैं समझा रहा हूँ? नसरुद्दीन ने कहा कि यह अल्पतम ज्ञान आता ही चरित्र से है। जीवन को जीने से धन्यभाग कि आप आये। आप जब तक न आये थे, हमें पता ही आता है। जीवन के साथ जूझने से आता है। जीवन की चुनौती न था कि पाप क्या है। स्वीकार करने से आता है। जीवन जो अड्गे देता है, उनको पार धर्मगुरु से पता चलता है कि पाप क्या है। यह पाप सिर्फ शब्द 2010_03 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन ही है गुरु है, कोरा शब्द है। धर्मगुरु से पता चलता है, पुण्य क्या है। यह दी, और कमजोर बनाया। बल न दिया, और नपुंसकता दी। पुण्य भी कोरा शब्द है। जीवन ही तुम्हारा गुरु है। और जीवन से नहीं, अगर तुम्हारे अनुभव से कुछ आया है, अगर तुमने देखा ही सीखे बिना कोई और दूसरा उपाय नहीं। कोई सस्ता उपाय है गौरीशंकर के शिखर को, सूरज की किरणों में जगमगाते, फिर नहीं। कोई करीब का मार्ग नहीं। जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष से ही | सारी दुनिया कहे कि नहीं है, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा। तुम गुजरे बिना कोई कभी पहुंचता नहीं। कहोगे तम्हारी मर्जी, मानो न मानो, मैंने देखा है। मैंने खद जाना परमात्मा जीवन की यात्रा का अंतिम पड़ाव है। सस्ते में किसी | है। ने कभी परमात्मा पाया नहीं। जिसने पाने की कोशिश की, महावीर कहते हैं, थोड़ा-सा ज्ञान हो, लेकिन अपने जानने से नकली सिक्के हाथ लगे। झूठे सिक्के हाथ लगे। जिसने सस्ते आया हो, तो चरित्रविहीन के बहुत सुने हुए, इकट्ठे किये हुए ज्ञान में पाने की कोशिश की, उसे परमात्मा के नाम पर केवल सिद्धांत से बेहतर है। चरित्रहीन का ज्ञान बड़ा धोखा है। उधार है। हाथ लगे, सत्य हाथ न लगा। | मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को उसके धर्मगुरु ने बहुत 'चरित्रसंपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है। क्योंकि उसका समझाया और कहा कि तू शराब छोड़ दे। एक दिन उसने कसम अल्पतम ज्ञान उसके ही जीवन का निचोड़ है। सारा संसार भी | भी ले ली। फिर जब लौटने लगा सांझ अपने घर की तरफ और कहे कि तुम गलत हो, तो भी उसे अंतर नहीं पड़ता। शराबघर आया, तो हाथ-पैर कंपने लगे उसके। खींचने लगा विवेकानंद ने रामकृष्ण को पूछा, ईश्वर है? आपके पास कोई | शराबघर उसे। इतनी प्रगाढ़ता से, जैसा पहले भी कभी न खींचा प्रमाण है? रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मैं प्रमाण हूं। मेरे था। क्योंकि पहले तो सिर्फ शराबघर था, आज भीतर एक पास कोई प्रमाण नहीं, मेरा अनुभव प्रमाण है। सारी दुनिया कहे कसम भी ले ली थी, वह भी दूसरे के कहने से ले ली थी। मन कि नहीं है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने जाना है। बड़ा आतुर होने लगा। मन हजार बहाने खोजने लगा। कि छोड़ो तुम्हें तो कोई जरा-सा संदिग्ध कर दे, तो तुम डांवाडोल हो भी, कौन देख रहा है! किसको पता है स्वर्ग-नर्क का! और क्या जाते हो, नास्तिक से लोग बात करने में डरते हैं। क्योंकि कहीं जरूरत किसी की बातों में पड़ने की! किस प्रभाव में आकर वह तुम्हारे संदेह को जगा न दे। कहीं श्रद्धा को डगमगा न दे। तुमने हां भर दी? लेकिन, गांव के लोग हैं, देख लेंगे, धर्मगुरु ऐसी श्रद्धा दो कौड़ी की है, जिसे कोई डगमगा दे। यह उधार है। | तक खबर पहुंच जाएगी। फिर प्रतिष्ठा भी दांव पर है। फिर उसे यह श्रद्धा उधार है, इसलिए डरती है कि बाहर से आयी श्रद्धा है, यह भी लगने लगा कि यह भी बड़ी मेरी कमजोरी है कि मैं बाहर से संदेह भी आ सकता है और उसे तोड़ सकता है। इतनी-सी बात पर विजय नहीं पा सकता! तो अहंकार ने बल शास्त्रों में लिखा है-हिंदू-शास्त्रों में लिखा है, जैन-मंदिर में पकड़ा। किसी तरह उसने पचास कदम अपने को घसीट लिया मत जाना चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर भी मर जाने घर की तरफ। पचास कदम के बाद, उसने जोर से अपनी पीठ की नौबत क्यों न आ जाए। पागल हाथी पीछे लगा हो, और | थपथपायी, उसने कहा कि नसरुद्दीन, गजब कर दिया! अब जैन-मंदिर आ जाए, तो उसमें शरण मत लेना, पागल हाथी के आ, तुझे दिल खोलकर पिलाता हूं। इस खुशी में कि तू शराबघर पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर है। ऐसा ही जैन-शास्त्रों में के सामने से निकल आया, पचास कदम। वाह रे तेरा संकल्प! भी लिखा है कि हिंदू मंदिर में शरण मत लेना। जैन हो कि हिंदू, चल, अब इस खुशी में तुझे पिलाता हूं। और उसने खूब मुसलमान हो कि ईसाई, पागलपन एक-जैसा है। पिलायी। दुगुनी पिलायी। क्यों, इतनी क्या घबड़ाहट है? __ अगर हमने उधार लिया है चरित्र, तो ऐसा ही होगा। हम कोई कहीं जैन-सिद्धांत कान में न पड़ जाएं—मंदिर में कहीं कोई न कोई बहाना खोज लेंगे। कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। प्रवचन चलता हो। हिंद-शास्त्र कान में न पड़ जाएं-कहीं इसी से पाखंड पैदा होता है। तुम्हारा संदेह जग न जाए, कहीं श्रद्धा डगमगा न जाए। इन एक चेहरा हम ऊपर बना लेते हैं, एक चेहरा हमारा भीतर होता घबड़ाये हुए लोगों ने लोगों को जगाया नहीं, सुलाया। हिम्मत न है। जो भीतर का चेहरा है, वही परमात्मा के सामने है। जो बाहर 2010_03 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 का चेहरा है, वह संसार के सामने भला हो। तुम दूसरों को धोखा चुपचाप निकल जाते हैं। तुमने खयाल किया, तुम सोचते हो कि दे लेना, तुम अस्तित्व को धोखा न दे पाओगे। अस्तित्व के यह दरवाजा है, इससे निकलूं? यह दीवाल है, इससे न सामने तो नग्न ही खड़ा होना होगा। निकलूं? इतने विचार की भी कहां जरूरत पड़ती है? जिसके थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। पास आंख है, निर्विचार में दरवाजे से निकल जाता है। जो चरित्रसंपन्न है, थोड़ा-सा भी जानता है तो पर्याप्त है। एक निश्चयनय के अनुसार, आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए कण भी अपना, तो बहुत। अपना होना चाहिए। प्रामाणिक रूप तन्मय होना...।' से अपना होना चाहिए। 'आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए तन्मय होना।' न कुछ जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।। और पाने को है, न कहीं जाने को है। आत्मा ही गंतव्य है। और बहत सना हआ. बहत पढा हआ-बहश्रत-किस आत्मा ही साधन, आत्मा ही साध्य। आत्मा ही यात्री. आत्मा ही काम का जो अपने चरित्र से निचड़कर हाथ में न आया हो। मंजिल, आत्मा ही यात्रापथ है। स्वयं के स्वभाव में डब जाना ही 'निश्चयनय के अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए सब कुछ है, धर्म है। तन्मय होना ही सम्यक-चारित्र्य है।' णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो। यह सूत्र बहुमूल्य है। यह सूत्र इन सारे सूत्रों में कोहिनूर है। सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं।। आत्मा में आत्मा का आत्मा के लिए ही तन्मय होना चरित्र है। ...और ऐसे चरित्रशील योगी को ही निर्वाण की उपलब्धि यह महावीर की परिभाषा है। अपने में पूरी तरह डूब जाना चरित्र होती है।' है। उस डुबकी को लगाकर जो बाहर आता है, वह बाहर भी तो सार की बात सिर्फ एक है, सूत्र की बात सिर्फ एक है कि ताजा होता है लेकिन वह ताजगी गौण है, असली बात तो बाहर न जाओ, भीतर आओ। बाहर दौड़ती ऊर्जा के भीतर डुबकी लगाना है। जो भीतर डुबकी लगाकर आता है, द्वार-दरवाजे बंद कर दो, ताकि ऊर्जा भीतर गिरने लगे। ताकि उसके बाहर के जीवन में भी सब रूपांतरित हो जाता है। वह वही तम अपने में डब सको। बाहर तो जाओ ही न. बाहर के विचारों नहीं हो सकता जो कल तक था। और यह रूपांतरण चेष्टित नहीं में भी मत जाओ। क्योंकि वे भी बाहर ही होता। यह रूपांतरण आरोपित नहीं होता। यह रूपांतरण | निर्विचार के क्षण में, जब कोई विचार नहीं, कोई क्रिया अभ्यासजन्य नहीं होता। यह रूपांतरण सहज होता है, बोध से नहीं-निर्विचार, निष्क्रिय-जब तुम थिर बैठे हो, न तो कोई होता है। | क्रिया कर रहे हो और न कोई विचार कर रहे हो, सिर्फ होश मात्र जैसे अंधे को आंख मिल गयी। तो अब दरवाजे से निकल शेष है, उस होश में जो घटता है, वही चारित्र्य है। जाता है। अब दीवाल से नहीं टकराता। ऐसा थोड़े ही है कि तो चरित्र का कोई संबंध नहीं है कि किसी से झूठ बोलो, कि रोकता है अपने को दीवाल से न टकराऊं। रोकने की भी कोई सच बोलो; कि ईमानदारी रखो, कि बेईमानी करो। खयाल जरूरत नहीं, आंख मिल गयी। या अंधेरे में दीया जल गया। करो, जो चरित्र ईमानदारी, बेईमानी, झूठ, सच, इन पर निर्भर है, अभी तुम टटोल-टटोलकर जा रहे थे। दीया जलते ही टटोलना वह चरित्र तो सामाजिक है, आत्मिक नहीं। अगर तुम जंगल में बंद कर देते हो। बंद करने के लिए कोई कसम थोड़े ही खानी चले जाओ, तो फिर तुम कैसे सच बोलोगे? किससे बोलोगे? पड़ती है कि अब कभी भी टटोलूंगा नहीं। अब कसम खाता हूं अगर तुम जंगल में चले जाओ, तो तुम कैसे ईमानदार बनोगे? कि टटोलने का त्याग करता हूं। कुछ कसम नहीं खानी पड़ती! | बोलो। बेईमानी ही करने का उपाय नहीं, तो ईमानदार कैसे दीये के जलते ही टटोलना समाप्त हो गया। अंधेरा गया, | बनोगे। तो यह तो इसका अर्थ यह हुआ कि चरित्रवान केवल टटोलेगा कोई किसलिए। समाज में ही चरित्रवान हो सकता है। समाज के बाहर होते ही आंख मिल गयी, तो हम यह भी नहीं सोचते कि दरवाजा कहां चरित्रशून्य हो जाएगा। चरित्रहीन भी नहीं कह सकते हम है। आंख मिलते ही दरवाजा दिखायी पड़ने लगता है। हम उसको, क्योंकि चरित्रहीन होने के लिए भी समाज जरूरी है। 492 2010_03 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन ही है गुरु - चरित्रवान के लिए भी समाज जरूरी, चरित्रहीन के लिए भी | है। तरकीब क्या है, मशीन काम कैसे करती है? मशीन का समाज जरूरी; जो समाज को छोड़कर गया, वह चरित्रशून्य हो काम बड़ा सीधा-सरल है। जब तुम सच बोलते हो, तब तुम जाएगा। लेकिन महावीर चरित्र की दूसरी ही व्याख्या करते हैं। एकस्वर होते हो। किसी ने पूछा, कितना बजा है घड़ी में? तुमने महावीर की व्याख्या के हिसाब से हिमालय की गुफा में बैठा कहा, नौ बजे हैं। तो तुम्हारे भीतर एकस्वरता होती है। कहीं कोई हुआ योगी भी चरित्रवान होगा, अगर वह अपनी आत्मा में रम खंड नहीं होता। कहीं कोई विपरीतता नहीं होती। तुम्हारा हृदय रहा है। अगर आत्मा से इधर-उधर हट गया है, स्वप्न जग गये, एक धुन में रहता है, एक लय में रहता है। विचार उठ गये, तो चरित्रहीन हो गया। - फिर किसी ने तुमसे पूछा, तुमने चोरी की? तो तुम जानते तो चरित्रहीनता और चरित्रवान का संबंध महावीर आंतरिकता से हो कि तुमने चोरी की है, इसलिए हृदय में तो तुम कहते हो, की, बना रहे हैं। क्योंकि जो चरित्र समाज से बंधा हो, उसको क्या | और बाहर कहते हो, नहीं की। द्वंद्व पैदा हुआ। तो हृदय की चरित्र कहना! जो बाहर पर निर्भर है, उस पर अपनी क्या धड़कन चूक जाती है। एक धड़कन भी चूक जाती है हृदय की, मालकियत! महावीर कहते हैं, अपने पूरे मालिक हो जाना है। वह नीचे मशीन पकड़ लेती है। बस उसका काम इतना ही है कि इसलिए चरित्र की उन्होंने एक बड़ी अनूठी व्याख्या की। तुम वह पकड़ ले कि तुम्हारा हृदय लयबद्ध चलता रहा, कि उसकी अकेले भी चरित्रवान हो सकते हो। तुम अपने कमरे में बैठे हो, लय छूटी-टूटी। जैसे ही लय छूटी-टूटी, घंटी बजती है। कोई भी नहीं है, तो भी तुम चरित्रवान हो सकते हो, चरित्रहीन हो | तत्क्षण तुम पकड़े गये। तुम झूठ बोल ही नहीं सकते, बिना लय सकते हो। चरित्रवान, अगर तुम शांत हो, निर्मल हो; कोई तरंग को तोड़े। क्योंकि तुम्हें तो पता है सत्य का कि चोरी तुमने की है। नहीं उठती, मन की झील पर कोई लहर नहीं है; सब मौन, । इसको तुम कैसे झुठलाओगे? निस्तब्ध, तो तुम चरित्रवान हो। तुम दूसरों से कह दो मैंने नहीं की है चोरी, और तुम कितने ही इसलिए महावीर ने ध्यान को एक नया शब्द दिया ः जोर से कहो कि मैंने चोरी नहीं की है, तुम्हारा हृदय तो कहे ही सामायिक। यह शब्द बड़ा प्यारा है। ध्यान से भी ज्यादा प्यारा चला जाएगा भीतर कि की है, की है। जितना हृदय कहेगा की है। महावीर ने आत्मा को कहा है, समय। वह उनका आत्मा का है, उतने ही जोर से तुम कहोगे नहीं की है। तुम्हारे ऊपर का जोर नाम है। और समय में डूब जाना, सामायिक। वह ध्यान का इतना ही बतायेगा कि भीतर तुमने की है। और हृदय में खंड हो उनका नाम है। शुद्ध समय में डूब जाना, सामायिक। 'अप्पा | जाएंगे। हृदय दो आवाजों से भर जाएगा। उन्हीं दो आवाजों को अप्पमि अप्पणे सुरदो।' आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए | यंत्र पकड़ लेता है। हृदय की धड़कन की लयबद्धता टूट जाती वन्मय हो जाना। बस तुम ही बचो। कुछ और न बचे। शुद्धतम | है। तुम्हारा तार डगमगा जाता है। तुम, तुम ही बचो। कोई विजातीय तत्व न रह जाए। तुम्हारा | झूठ तुम शांत रहकर नहीं बोल सकते। अशांत हो जाओगे। स्वभाव ही स्वभाव शेष रहे। बस वहीं से चारित्र्य शुरू होता है। झूठ बोलते ही बेचैनी पैदा होगी। चैन से झूठ नहीं बोल सकते। फिर ऐसा व्यक्ति बाहर तो चरित्रवान होता ही है, क्योंकि | और जो आदमी निरंतर झूठ बोल रहा है, उसकी बेचैनी का तो जिसने स्वयं का आनंद ले लिया, वह अब ऐसा कुछ भी न कर | | तुम हिसाब लगाओ! उसको कितनी याद रखनी पड़ती है, सकेगा जिससे स्वयं से दूरी बढ़े। जब भी तुम झुठ बोलते हो, | किससे क्या बोला, किससे क्या नहीं बोला। आज क्या बोला, स्वयं से दूरी बढ़ जाती है। कल क्या बोला। हजार झूठों का हिसाब रखना पड़ता है। झूठ इसे समझो। बोलनेवाले के पास अच्छी स्मृति होनी चाहिए। अगर स्मृति अभी तो पश्चिम में उन्होंने अदालतों में यंत्र लगा रखे हैं। ठीक न हो, तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है। 'लाई-डिटेक्टर्स।' झठ को पकडनेवाले यंत्र। आदमी अब एक बहत बडा वैज्ञानिक जीवन झूठ भी नहीं बोल सकता। मशीन पर आदमी को खड़ाकर देते भुलक्कड़ था। किसी ने उससे पूछा कि तुमने विवाह क्यों न हैं, और जैसे ही वह झूठ बोलता है, मशीन घंटी बजाने लगती | किया? उसने कहा मैं एक लड़की के प्रेम में था। और मैंने उससे 93 2010_03 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 विवाह का निवेदन भी किया था और उसने स्वीकार भी कर बेटे को सुख दे रहा है। बेटा कहता है, बाप को सुख दे रहा है। लिया था। तो मित्र ने पूछा कि फिर क्या हुआ? फिर हुआ क्यों पति कहता है,पत्नी को सुख दे रहा है। पत्नी कहती है, पति के नहीं विवाह? उसने कहा, गड़बड़ हो गयी। तीसरे दिन मैंने | सुख के लिए चेष्टा कर रही है। सब एक-दूसरे को सुख देने की दोबारा उससे निवेदन कर दी। स्वीकार भी कर लिया था, चेष्टा में लगे हैं लेकिन जीवन में सिवाय दुख के कुछ भी नहीं है। निवेदन भी कर दिया था और तीसरे दिन मैंने उससे दुबारा | मामला क्या है? जहां इतने लोग सुख दे रहे हैं, सुख ही सुख निवेदन कर दिया, मैं भूल ही गया। उसी से वह नाराज हो गयी। भर जाना था। सुख कहीं दिखायी नहीं पड़ता। स्मृति अच्छी चाहिए। झूठ जितना बोलता है आदमी, उतनी ही | महावीर कहते हैं, सुख कोई दे नहीं सकता। सुख आंतरिक अच्छी स्मृति चाहिए। दशा है। इसलिए वह कहते हैं, एक ऐसी घड़ी आती है जब और सत्य बोलनेवाले को स्मृति की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य | भीतर की गहराइयों का पता चलता है, तो आदमी दुख देने की तो बोलनेवाला तो वही बोलता है, जो है। सीधा-साफ होता है। बात दूर, दूसरे को सुख देने की चेष्टा भी नहीं करता। हां, कोई | सत्य बोलनेवाले के भीतर खंड-खंड, टुकड़े-टुकड़े नहीं होते। लेले सुख, उसकी मर्जी। कोई लेले दुख, उसकी मर्जी। कोई विभाजन नहीं होता। अखंड होता है। __ आत्मस्थित हुआ व्यक्ति अपने स्वभाव में जीता है। फिर. तो जिसने एक दंफा भीतर डुबकी लगायी, उस अखंड का | तुम्हारी मर्जी। महावीर से बहुत लोगों ने दुख भी ले लिया। आनंद ले लिया, वह झूठ न बोल सकेगा। क्योंकि जब भी वह महावीर ने दिया नहीं। किसी को इसीलिए दुख हो गया कि वह झूठ बोलेगा, तभी पायेगा कि बहुत दूर फेंक दिया गया भीतर की नग्न खड़े थे। कोई इसीलिए दुखी हो गया। तुम्हारा क्या शांति से। बेचैनी आ गयी। बेईमानी न कर पायेगा। क्योंकि जब लेना-देना था? महावीर नग्न खड़े थे, तुम्हें क्या अड़चन थी? भी बेईमानी करेगा, तभी पायेगा कि अपने से बहुत फासला हो तुम्हें तकलीफ थी, आंख बंद करके गुजर जाते। यह तुम्हारा गया। किसी को चोट न पहुंचा पायेगा। क्योंकि जब भी किसी प्रश्न था। महावीर को इससे क्या लेना-देना था? लेकिन कोई को चोट पहंचायेगा, तभी पायेगा अपने घर का रास्ता भूल गया। इसी से दुखी हो गया। किसी स्वर्ग के लिए नहीं बोलता है सच। और न किसी पुण्य कोई दुखी हो जाता है, कोई सुखी हो जाता है, यह उसकी के लिए बोलता है। न किसी भय से, न किसी प्रलोभन से। मर्जी। यह उसकी समस्या है। महावीर कहते हैं, जो अपने में लेकिन जो भीतर आनंद घटा है, उस आनंद के कारण अब गलत डूबा वह अपने में डूबकर रह जाता है। तब वह न तो सुख देता होना मुश्किल हो जाता है। | है, न दुख देता है। न वह पाप करता है, न वह पुण्य करता है। "जिसे जानकर योगी पाप और पुण्य दोनों का परिहार कर देता अगर ठीक से समझो, तो वह कुछ करता ही नहीं। वह सिर्फ है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र्य कहा गया है।' होता है। वह शुद्ध अस्तित्व होता है। करने की बात ही महावीर कहते हैं कि न केवल परमयोग की अवस्था में पाप का धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। परिहार हो जाता है, पुण्य का भी परिहार हो जाता है। बुरा तो 'जिसे जानकर योगी पाप-पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, करता ही नहीं वैसा व्यक्ति, अच्छा भी नहीं करता। उसे ही निर्विकल्प चारित्र्य कहा है।' यह चरित्र की आखिरी यह जरा गहन बात है। यह जरा ऊंची बात है। पहले तल पर कोटि हुई। इससे ऊपर फिर चरित्र नहीं जा सकता। पाप से तो तो बुराई छूटती है। दूसरे को चोट देना बंद हो जाती है। दूसरे को | छूटे, पुण्य से भी छूटे। पाप ऐसे है, महावीर ने कहा, जैसे लोहे कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। किसी तरह का पाप नहीं करता। की जंजीरें, और पुण्य ऐसे है जैसे सोने की जंजीरें! पाप दुख लेकिन धीरे-धीरे जब और भी भीतर रमता है, तो उसे यह समझ लाता है। पुण्य सुख लाता है। लेकिन सुख में ही तो छिपा हुआ में भी आना शुरू होता है कि कोई किसी को सुख नहीं दे सकता। दुख आ जाता है। पाप अपमानित करवा देता है। पुण्य किसने कब किसको सुख दिया! हम सभी एक-दूसरे को सुख सम्मानित करवा देता है। लेकिन सम्मान में ही तो अहंकार आ | देने की कोशिश करते हैं, दे पाते हैं केवल दुख। बाप कहता है, जाता है। इसलिए दोनों से ही छूट जाना है। 194 2010_03 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन ही है गुरु जंजीर कितनी ही सोने की बनी हो, हीरे-जवाहरात जड़ी हो, तो कि संन्यास मत लो, बुढ़ापे में लेना। तुम बूढ़े हो गये हो, तुम भी जंजीर है। और कारागृह कितना ही सजा हो, तो भी कारागृह | कहते हो कि जिम्मेवारियां हैं। है। दोनों से मुक्त हो जाना है। न अच्छा, न बुरा। इन दोनों के आदमी सुन-सुनकर जिन बातों को ठीक मान लेता है, उन्हें जो पार हो गया, वही शुद्ध स्वभाव को उपलब्ध होता है। इसको | कभी हृदय से थोड़े ही ठीक मानता है। ठीक मान लेता है, महावीर निर्वाण कहते हैं। इसको निर्विकल्प चारित्र्य कहा है। | क्योंकि कौन जद्दोजहद करे, कौन तर्क करे, कौन विवाद करे! इसे हम दूसरों से बातें सुनकर नहीं पा सकते। दूसरों से सुनेंगे तो | ठीक है संन्यास, मगर अभी नहीं। जो ठीक है, तो अभी। और हमारे मन में और ही तरह की बात उठती है। जो ठीक नहीं है, तो कभी नहीं। ऐसा साफ होना चाहिये व्यक्ति मेरे पास एक वृद्ध सज्जन आये। उनके युवा बेटे ने संन्यास ले को। अगर कोई चीज सत्य है, तो फिर एक क्षण भी उसे टालना लिया है। वे बहुत नाराज थे। उनकी उम्र होगी कोई पचहत्तर उचित नहीं। कौन जाने वह क्षण आये, न आये। कल आये, न कहने लगे, आपने यह क्या किया? मेरे युवा बेटे को आये। बुढ़ापे के पहले ही आदमी मर जा सकता है। या बुढ़ापे में संन्यास दे दिया। यह तो बढ़ापे की बात है। यह तो आखिरी इतना अपंग हो जाए कि फिर कुछ भी न कर पाये-बैठ भी न बात है संन्यास। सके, उठ भी न सके, खाट से लग जाए। संन्यास आखिरी बात है! उसे टाले जाना है अंतिम क्षण के | तो जो सत्य है, तो अभी। अगर सत्य नहीं है, तो साफ समझो लिए। जब हाथ-पैर में कोई शक्ति न होगी, और श्वासें | कि कभी नहीं। बुढ़ापे में भी क्यों? चार दिन बुढ़ापे के बचे हैं, लड़खड़ा जाएंगी, तब संन्यास लेंगे? जब पैर उठते न बनेंगे। उनको भी ठीक से भोग लेना। उनका भी कुछ उपयोग कर जब तक पैर उठते थे तब तक वेश्यागृह गये और जब पैर न लेना-थोड़ा धन और इकट्ठा कर लेना। उठेंगे, तब दूसरों के कंधों पर सवार होकर मंदिर जाएंगे। ऊर्जा | लेकिन आदमी बड़ा होशियार है। वह तर्क से कुछ बातों को पर ही तो सवार होना होता है। जब तक ऊर्जा रहती है, तब तक | ठीक मान लेता है। क्योंकि कौन विवाद करे! या पंरपरा से ठीक आदमी संसार की बातों में पड़ा रहता है। कहते हैं धर्म की बात | मान लेता है। सभी ठीक मानते हैं, इसलिए ठीक होंगी। ठीक है, वह बूढ़े सज्जन कहने लगे धर्म की बात बिलकल ठीक | एक बहुत बड़े मनस्विद मायर्स ने अपने संस्मरणों में लिखा है, मैं यह नहीं कहता कि संन्यास गलत है, लेकिन समय अभी है...मायर्स खोज कर रहा था कि लोगों की क्या धारणा है, मरने नहीं है। | के बाद क्या होता है, इस संबंध में। तो वह जो भी मिलता उससे मैंने कहा ठीक है, आपके बेटे को मैं समझा-बुझाकर वापिस ही पूछता कि तुम्हारी मरने के बाद क्या स्थिति होगी, इस संबंध संसार में भेज दूंगा; आपका क्या इरादा है? यह वे सोचकर न में क्या धारणा है? एक महिला से उसने पूछा, उसकी जवान आये थे। वे तो बेटे को छुड़ाने आये थे। लेकिन मैंने कहा, बेटा बेटी अभी-अभी मर गयी थी, तो उसने पूछा कि तुम्हारी बेटी मर छूटे तो एक ही शर्त पर छूट सकता है। कि आपकी तो उम्र गयी, तुम्हारा क्या खयाल है, तुम्हारी बेटी का क्या हुआ होगा? पचहत्तर साल हो गयी, आप कब बूढ़े होंगे अब? उन्होंने कहा, तो उस महिला ने बड़े क्रोध से देखा और कहा, क्या हुआ वह तो ठीक है, लेकिन अभी बहत जिम्मेवारियां हैं। होगा? वह स्वर्ग के सुख भोग रही है। लेकिन मैं आपसे प्रार्थना बेटे को भी ऐसी ही जिम्मेवारियां होंगी पचहत्तर साल के हो | करती हूं कि इस तरह की दुखदायी बातें मुझसे न करें। अब इसे जाने पर। जिम्मेवारियां कम नहीं होतीं, बढ़ती जाती हैं। क्योंकि थोड़ा सोचो, मायर्स ने लिखा है कि एक तरफ वह कहती है, जिंदगी रोज और नयी-नयी जिम्मेवारियों को इकट्ठा करती चली स्वर्ग के सुख भोग रही है, और दूसरी तरफ कहती है कि आप जाती है। इस तरह की दुखदायी बातें न करें। तो फिर मैंने कहा, बेटे को ले लेने दो, कम से कम वह इतना | एक ही वचन में दो विरोधाभास! अगर वस्तुतः लड़की स्वर्ग तो कहता है कि मेरे ऊपर कोई जिम्मेवारियां नहीं हैं। न अभी के सुख भोग रही है, तो दुखदायी बात नहीं है। और अगर उसने शादी की है, न अभी घर बसाया है। अभी तुम कहते हो दुखदायी बात है, तो स्वर्ग के सुख की बात केवल कल्पना है। 195 2010_03 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 जिन सूत्र भाग: 2 केवल सुनी-सुनायी है। एक दो और सागरे - सरशार फिर तो होना ही है मुझे होशियार छेड़ना ही है साजे-जीस्त मुझे आग बरसायेंगे लबे-गुफ्तार कुछ तबियत तो हम रवां कर लें आज की रात और बाकी है फिर कहां ये हसीं सुहानी रात ये फरागत ये कैफ के लम्हात कुछ तो आसूदगी - ए - जौके-निहां कुछ तो तस्कीने - शोरिसे-जज़्बात आज की रात जाविदां कर लें आज की रात और आज की रात लोग कहते हैं कि आज नहीं कल जिंदगी तो हाथ से चली जाएगी। ऐसा कहते भी हैं, और फिर भी कहते हैंएक 'दो और सागरे-सरशार एक दो और भरे प्याले ले आओ। फिर तो होना ही है मुझे होशियार फिर तो जागना है। फिर तो ध्यान करना है । फिर तो समाधि कभी भी न आयेगा । अगर मैं कहूं प्रार्थना कर लो, तो तुम कहते को उपलब्ध होना है। हो, फुर्सत कहां! क्रोध करने को फुर्सत मिल जाती है। रोष करने को फुर्सत मिल जाती है। लोभ करने को फुर्सत मिल जाती है। और जब तुम क्रोध करते हो तब तुम कभी नहीं कहते कि कल कर लेंगे। तुम आज करते हो । एक दो और सागरे - सरशार । ले आओ, एक-दो लबालब प्याले और । फिर तो होना ही है मुझे होशियार अगर होशियार ही होना है, तो एक-दो प्याले और क्यों ? | क्योंकि अगर होशियार ही होना है तो दो प्याले और होशियारी को खराब करेंगे। ध्यान को नष्ट करेंगे। लेकिन लोग कहते हैं, होना ही है होशियार — मजबूरी है। होश तो आयेगा ही, थोड़ा और पी लें। छेड़ना ही है साजे-जस्त मुझे आग बरसायेंगे लबे-गुफ्तार कुछ तबियत तो हम रवां कर लें —फिर जीवन का संगीत छिड़नेवाला है; उसके पहले, उसके पहले हम थोड़ी बेहोशी का भी मजा ले लें, थोड़ी मस्ती पैदा कर लें । कुछ तबियत तो हम रवां कर लें आज की रात और बाकी है - और यह रात तो जाएगी। थोड़ा और भोग लें। फिर कहां ये हसीं सुहानी रात ये फगत ये कैफ के लम्हात 2010_03. - फिर यह मादक क्षण कहां मिलेंगे ! कुछ तो आसूदगी-ए-जौके निहां - कुछ तो तृप्त कर लें छिपी हुई वासनाओं को, दबी हुई वासनाओं को । कुछ तो तस्कीने - शोरिसे जज्बात - कुछ तो अशांत मनोभावनाओं की शांति कर लें, तृप्ति खोज लें। कुछ तो उन्हें संतोष दे लें। आज की रात जाविदां कर लें और आज की रात को सुख से ऐसा भर लें कि अमर हो जाए। आज की रात और आज की रात । ऐसे ही आदमी सोचता चलता है। धर्म को टालता कल पर। धर्म को करता आज की रात । धर्म को करता स्थगित, अधर्म को कभी स्थगित नहीं करता। अगर तुमसे मैं कहूं ध्यान करो, तुम कहते हो, करेंगे, जरूर करेंगे, समय आने पर। यह समय जिएफ ने लिखा है कि उसका पिता मर रहा था। उसने अपने बेटे को अपने पास बुलाया - गुरजिएफ को । वह नौ साल का था और उससे कहा, मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है। लेकिन एक बात मेरे बाप ने मुझे दी थी, उसने मुझे बड़ा दिया, वही मैं तुझे दे जाता हूं। खयाल रखना, तेरी उम्र अभी ज्यादा भी नहीं है, लेकिन याद रखना, कभी तेरे काम पड़ जाएगी। और उसने कहा एक बात, अगर कभी क्रोध का मौका आ जाए, तो जिसने तुझे गाली दी हो, अपमान किया हो, उससे कहना चौबीस घंटे बाद आकर जवाब दूंगा। चौबीस घंटे बाद ! और गुरजिएफ ने लिखा है कि जिंदगी में फिर क्रोध का मौका ही न आया। क्योंकि जब भी किसी ने क्रोध किया, मरते हुए बाप की बात याद रही। मैंने कहा, चौबीस घंटे बाद । चौबीस घंटे Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन ही है गरु बाद किसी ने कभी क्रोध किया है? चौबीस मिनट बाद मुश्किल जैसे ही भीतर की क्रांति घटती है, भीतर दीया जलता है, तुम है; चौबीस पल बाद मुश्किल है! क्रोध तो उसी वक्त होता है। अचानक हैरान हो जाते हो कि बाहर सब बदल गया। सब वही उसी वक्त जलती है आग। यह तो ऐसा हुआ कि चौबीस घंटे है, और फिर भी वही नहीं है। बाद, तुम इतना सोचोगे-विचारोगे चौबीस घंटे कि तुम्हें साफ ही । रक्से-तरब किधर गया, नग्मा-तराज़ क्या हुए हो जाएगा कि या तो उस आदमी ने जो बात कही थी वह ठीक ही गम्जा-ओ-नाज क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या हुआ थी, या उस आदमी ने जो बात कही थी वह बिलकुल गैर-ठीक रक्से-तरब किधर गया-वे सुख के जो नृत्य बाहर चल रहे थी। अगर गैर-ठीक थी, तो क्रोध क्या करना! अगर ठीक थी, | थे, कहां गये? तो क्रोध क्या करना! चौबीस घंटे का फासला अगर हो जाए, तो नग्मा-तराज क्या हुए वे जो गायक बड़े मधुर मालूम होते क्रोध संभव नहीं। थे, उनका क्या हुआ! लेकिन वैसा फासला हम ध्यान के लिए करते हैं, क्रोध के लिए गम्जा-ओ-नाज क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या हुआ। नहीं। इसलिए ध्यान कभी संभव नहीं हो पाता। लोग टाले चले कटाक्ष, हाव-भाव, सब खो गये। जाते हैं। उन सब में अर्थ था, क्योंकि भीतर तुम सोये थे। ऐसा समझो, 'आभ्यंतर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती है। तुम्हारी नींद संसार से जोड़े हुए है। नींद है सेतु तुममें और संसार आभ्यंतर-दोष से ही मनुष्य बाह्य-दोष करता है।' | में। जागरण सेतु है तुममें और परमात्मा में। या तुममें और स्मरण रखना इस सूत्र कोः अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि तुम्हारी स्वयं की सत्ता में। होदि णियमेण। नियम से हो जाती है बाहर की शुद्धि, अगर अगर सोये हुए हो, तो संसार चलता रहेगा। संसार सोये हुए भीतर शुद्धि हो जाए। अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे आदमी का सपना है। अगर जागे हो, संसार समाप्त हुआ। नहीं दोसे। और भीतर के दोष ही बाहर आते हैं। कि वृक्ष खो जाएंगे। नहीं कि मकान खो जाएंगे। नहीं कि तुम्हारी इसलिए बाहर के दोषों को बदलने की चिंता मत करो। भीतर पत्नी और बच्चे खो जाएंगे। लेकिन कुछ खो जाएगा। मकान जड़ें खोजो। बाहर की बदलाहट तो ऐसे है जैसे कोई पत्ते काटता होगा, तुम्हारा न होगा। पत्नी होगी, तुम्हारी न होगी। 'मेरा' रहे वृक्ष के और जड़ों को पानी देता रहे। तो पत्ते नये आते रहेंगे। 'तेरा' खो जाएगा। लोभ खो जाएगा। कोई अगर गाली देगा, पत्ते काटने से वृक्ष नहीं मरते। पत्ते काटने से वृक्ष और सघन हो तो गाली तो बाहर से आयेगी अब भी, लेकिन तुम अचानक जाते हैं। पत्ते काटने से एक पत्ते की जगह तीन पत्ते आ जाते हैं। पाओगे कि समस्या उसी आदमी की है। अगर वक्ष को मिटाना ही हो, तो जड काटो। जड भीतर छिपी। मैंने सना है, एक झेन फकीर रास्ते से गजर रहा था और एक है। अंधेरे में दबी है। और ऐसा ही मनुष्य के जीवन में है। ऊपर आदमी उसे लकड़ी मारकर भागा। उसके संगी-साथी ने कहा, क्रोध आता है, लोभ आता है, काम आता है, तुम इनके साथ कुछ करो, तुम खड़े हो! वह फकीर बोला, मैं क्या करूं? लड़ने में लग जाते हो। ये पत्ते हैं। जड़, जड़ कहां है? जड़, समस्या उसकी है, मेरी नहीं। उसके भीतर जरूर कुछ आग जल महावीर कहते हैं, बेहोशी है। जड़ मूर्छा है। जड़ नींद है। जड़ रही होगी। उस आग के प्रभाव में ही वह क्रोध से भर गया है। काटो। होश से भरो। जागो। अगर मैं उसे आज न मिलता-अच्छा हुआ मैं मिल अगर जागरण आ जाए तो क्रोध, माया, लोभ, मोह ऐसे ही खो गया नहीं तो वह किसी और पर उबल पड़ता। वह तो अच्छा जाते हैं जैसे जड़ें काट देने पर पत्ते खो जाते हैं अपने-आप। पत्तों हुआ कि मुझ पर उबला, किसी और पर उबलता तो दूसरा भी को तुम्हें तोड़ना भी न पड़ेगा, खुद ही कुम्हला जाएंगे, खुद ही | उस पर टूट पड़ता। वह मुश्किल में पड़ जाता। वैसे ही मुश्किल समाप्त हो जाएंगे। में है! इतना क्रोध उसके भीतर जल रहा है, अब और उसे दंड 'आभ्यंतर-शद्धि होने पर बाह्य-शद्धि भी नियमतः होती है। देने की जरूरत है क्या? दंड उसने काफी पा ही लिया। लेकिन आभ्यंतर-दोष से ही मनुष्य बाह्य-दोष करता है।' | समस्या उसकी है, समस्या मेरी नहीं है। 97 ___ 2010_03 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 कोई तुम्हें गाली देता है, समस्या गाली देनेवाले की है। तुम्हारा | कहीं से गिरोगे। क्या है! तुम इस सारी दुनिया को कैसे बदलोगे? यह दुनिया | ध्यानी व्यक्ति धीरे-धीरे अपने हृदय की सुनकर चलता है। कुछ ऐसी है! वह अपने भीतर से अपना राग नहीं छूटने देता। वह भीतर के बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि शिव और पार्वती एक पूर्णिमा की रात | धागे को पकड़े रखता है। कौन क्या कहता है, कौन क्या करता | विहार पर निकले। स्वभावतः शिव नंदी पर बैठे हैं. पार्वती है, यह बिलकल गौण है। इसका कोई भी मल्य नहीं है। साथ-साथ चल रही हैं। राह से दो आदमी आये और उन्होंने | 'आभ्यंतर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि नियमतः होती है।' कहा, यह देखो, मुस्तंड खुद तो चढ़ा बैठा है बैल पर और स्त्री | वह अपने भीतर को निखारता है, जगाता है, शुद्ध करता है। को नीचे चला रहा है। यह कैसा शिष्टाचार! तो शिव ने कहा, वह अपने भीतर मंदिर बनाता है। वह अपने भीतर की प्रतिमा को देख, मैं नीचे आ जाता हूं, तू ऊपर बैठ जा। वे नीचे चलने लगे, | साफ करता है। बस वहां जब शुद्धि हो जाती है, उसके बाहर भी पार्वती नंदी पर बैठ गयीं। फिर कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा, | शुद्धि की झलक आने लगती है। वहां जब धूप-दीप जलने देखो, यह औरत पति को नीचे चलवा रही है, खुद चढ़कर बैठी | लगते हैं, बाहर भी रोशनी और गंध आने लगती है। मगर, है। यह कैसा पति, और यह कैसी पत्नी, और यह कैसा प्रेम! तो उसका सारा उपक्रम और सारा काम भीतर है। शिव ने कहा, अब क्या करें? चलो हम दोनों ही बैठ जाएं। तो धर्म का कोई संबंध बाहर से नहीं। धर्म का सारा संबंध भीतर वे दोनों ही नंदी पर सवार हो गये। कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा से है। धर्म तुम्हारे और तुम्हारे ही बीच की बात है। धर्म का कुछ इन मूों को देखो, नंदी को मार डालेंगे। दोनों के दोनों चढ़े हैं। लेना-देना किसी और से नहीं है। धर्म नितांत वैयक्तिक है। यह कोई ढंग हुआ! आखिर पशुओं पर भी कुछ दया होनी 'अप्पा अप्पणे सुरदो।' आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए चाहिए। तो शिव ने कहा, अब तो एक ही उपाय है। वे दोनों | तन्मय हो जाना। उतर गये और उन्होंने कहा, अब नंदी को हम अपने कंधों पर उठा | 'इसीलिए कहा गया है कि जैसे शुभ चरित्र के द्वारा अशुभ लें। नंदी को बांधकर डंडों में कंधों पर रखकर चले। बड़ा | प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है, वैसे ही शुद्ध उपयोग के द्वारा मुश्किल था! | शुभ प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है। अतएव इसी क्रम से योगी फिर कुछ लोग मिल गये। और उन्होंने कहा, ये पागल देखो! आत्मा का ध्यान करे।' रहे थे जब ये लोग मिले। उन्होंने कहा. ये महावीर कहते हैं. पहले शभ चरित्र पैदा होता है। जैसे तम पागल देखो. अच्छा भला नंदी, उस पर बैठकर यात्रा कर सकते भीतर प्रवेश करते हो, शांत होते हो, तम्हारे चरित्र में एक शभता थे, तो उसको कंधे पर लादकर चले रहे हैं। तो शिव और पार्वती आती है, शुभ चरित्र पैदा होता है। शुभ चरित्र से अशुभ चरित्र दोनों खड़े हो गये, और उन्होंने कहा अब हम क्या करें? अब तो | अपने-आप कट जाता है। जैसे प्रकाश से अंधेरा कट जाता है। कछ करने को बचा नहीं। जो-जो कहा लोगों ने, हमने किया। | शुभ चरित्र के द्वारा अशुभ का निरोध हो जाता है। और फिर, शुभ तो वे वहीं खड़े थे, नंदी भी घबड़ा गया लटका-लटका। उसने के भी ऊपर शुद्ध चरित्र है। क्योंकि शुभ में भी अशुभ से थोड़ा जोर से लातें फड़फड़ायीं, वह पुल के नीचे! नदी में गिर गया। जोड़ है। संबंध तो अशुभ से बना ही है, उसी के विपरीत है शुभ। कहानी का अर्थ है, लोग क्या कहते हैं, इस पर बहुत ध्यान देने एक आदमी लोभी है, वह दान करता है। तो लोभ अशुभ है, की जरूरत नहीं। लोग तो कुछ न कुछ कहेंगे। लोग बिना कहे दान शुभ है। लेकिन दान जुड़ा है लोभ से ही। न लोभ किया नहीं रह सकते। असली सवाल अपने भीतर है। लोग जो कहते होता, तो दान कैसे करता। पहले धन इकट्ठा किया, फिर दान हैं, वह उनकी दृष्टि है। लोग जो कहते हैं, वह उनकी समस्या कर रहा है। तो यह जो शुभ है, यह अशुभ का ही संगी-साथी है। उसे तुम अपनी समस्या मत बनाना। और तुम लोगों का | है। अच्छा है, लेकिन है तो अशुभ का ही संगी-साथी। एक अनुकरण करके मत चलने लगना। अन्यथा तुम कहीं के न रह | आदमी ने क्रोध किया, फिर आकर पश्चात्ताप किया। क्षमा जाओगे। अन्यथा तुम्हारी वही गति होगी जो नंदी की हुई। तुम मांगी। क्रोध किया, वह अशुभ था; क्षमा मांगी, वह शुभ हुआ; 198 2010_03 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECT जीवन ही है गुरु लेकिन क्षमा भी तो क्रोध करने के कारण ही हुई। तो क्षमा भी अपने से न मिल सकेगी। कहीं इससे तुम्हारे मन में हताशा न क्रोध से ही जुड़ी है। क्षमा भी क्रोध का ही अनुसंग है। इसलिए पैदा हो जाए। क्योंकि कभी-कभी ऐसा होता है, अगर बहुत शुद्ध तो नहीं है। अशुद्धि उसके लिए जरूरी है। शुभ कर्म | उत्तुंग शिखर हो, तुम देखकर ही डर जाओ, और तुम सोचो, हम अशुभ कर्म से जुड़े हैं। कैसे जा सकेंगे? चले गये होंगे महावीर, कोई बद्ध, कोई तो पहले तो शभ के द्वारा अशभ को काटे। दान से लोभ को कृष्ण। अद्वितीय पुरुष हैं, अवतारी पुरुष हैं। हम साधारणजन। काटे। क्षमा से क्रोध को काटे। प्रेम से कामवासना को काटे। लेकिन ध्यान रखना, वे भी तुम्हारे जैसे ही साधारणजन थे। क्रूरता को करुणा से काटे। लेकिन ये सब हैं शुभ। और अशुभ इसीलिए महावीर ने अवतार की धारणा को इनकार कर दिया। के साथ इनका संबंध है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक महावीर ने कहा अवतार की धारणा में खतरा है। अवतार का उजला पहलू है, एक अंधेरा पहलू है। लेकिन दोनों जुड़े हैं। मतलब होता है, कोई विशिष्ट व्यक्ति; ईश्वर है, वह ईश्वर की महावीर कहते हैं, परम स्थिति तो तब पैदा होगी, जब शुद्ध | तरह उतरा है। तो ठीक है, अगर उसने इतनी ऊंचाई पा ली तो आत्मा पैदा होगी। न जहां शुभ है, और न अशुभ है। न जहां | कौन से गुण-गौरव की बात है। ऐसी ऊंचाई को लेकर ही उतरा काम है, न जहां क्रोध है; न जहां ब्रह्मचर्य है, न जहां करुणा है। था। साधारणजन, महावीर ने कहा- नहीं है कोई अवतार। क्योंकि ब्रह्मचर्य भी जुड़ा तो कामवासना से ही है। उलटा सही। कोई भी नहीं है। कामवासना नीचे की तरफ जा रही है, ब्रह्मचर्य ऊपर की तरफ जा तीर्थकर की धारणा अवतार से बिलकल उल्टी है। तीर्थकर का रहा है, लेकिन ऊर्जा तो वही है। बात तो वही है। | अर्थ है, नीचे से जो ऊपर चढ़ा है। अवतार का अर्थ है, ऊपर से परम अवस्था में न तो कामवासना है, न ब्रह्मचर्य है। परम जो नीचे अवतरित हुआ है। हिंदुओं की धारणा अवतार की है। अवस्था में न तो क्रोध है, न करुणा है। परम अवस्था में न तो कृष्ण हैं, राम हैं, वे अवतारी पुरुष हैं। महावीर अवतारी पुरुष हिंसा है, न अहिंसा है। इसको महावीर शुद्ध अवस्था कहते हैं। नहीं हैं। वे तीर्थंकर हैं। वे क्रमशः नीचे से ऊपर गये हैं। वे तुम जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमिव तहेव सुद्धण। | जहां खड़े हो वहीं खड़े थे, वहीं से ऊपर गये हैं। इसलिए तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णिय आद।। महावीर के साथ यात्रा ज्यादा सुगम है। क्योंकि महावीर तुम जैसे जैसे शुभ के द्वारा अशुभ का निरोध हो जाता है, वैसे ही शुद्ध हैं। अगर तुम अशुद्ध हो, तो वे भी अशुद्ध थे। अगर तुम मनुष्य के द्वारा शुभ का भी निरोध हो जाता है। और जब शुभ और | हो कमजोर, सीमाओं में बंधे, तो वे भी मनुष्य थे। और अगर वे अशुभ दोनों का निरोध हो जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वही | कर सके, तो बड़ी आशा पैदा होती है, तुम भी कर सकते हो। निर्वाण है। यह आत्यंतिक कल्पना है। इससे ऊपर मनुष्य का | और जो पाप तुम्हें ऊपर बहुत ज्यादा बोझिल मालूम पड़ते हैं, वे स्वप्न कभी नहीं गया। इससे ऊपर जाने का कोई उपाय भी कछ भी नहीं हैं सिर्फ नींद में देखे गये सपने हैं। नहीं। यह आखिरी उत्तुंग ऊंचाई है। यह गौरीशंकर है चैतन्य उड़ने के लिए ही जो है बनी वह गंध सदा उड़ती ही है, का। इससे ज्यादा पवित्रता की और कोई कल्पना न कभी की चढ़ने के लिए ही जो है बनी वह धूप सदा चढ़ती ही है गयी, न की जा सकती है। यहां शुभ भी अशुभ है। यहां पाप अफसोस न कर सलवट है पड़ी गर तेरे उजले कुर्ते में, भी...पाप तो पाप है ही, यहां पुण्य भी पाप जैसा है। यहां संसार कपड़ा तो है कपड़ा ही आखिर कपड़ों में शिकन पड़ती ही है पूरे द्वंद्व के साथ पीछे छूट गया। यह निर्द्वद्व, अद्वैत चित्त की | यह सारी शिकन कपड़े पर है। शरीर पर है, मन पर है-यह अवस्था है। | सारी शिकन कपड़े पर है। महावीर कहते हैं, योगी ऐसे ही क्रम से, क्रम से ध्यान की इस अफसोस न कर सलवट है पड़ी गर तेरे उजले कुर्ते में, परम अवस्था को उपलब्ध हो, यही समाधि है. यही निर्वाण है। । कपड़ा तो है कपड़ा ही आखिर कपड़े में शिकन पड़ती ही है इस परम उदात्त कल्पना से तुम भयभीत और चिंतित मत हो लेकिन भीतर तुम्हारे अंतर्तम में जो जी रहा है, वहां कोई शिकन जाना। कहीं ऐसा न हो जाए कि यह इतनी ऊंचाई, तुम सोचो कभी नहीं पहुंचती। तुम्हारे अंतर्तम में एक बिंदु है, एक केंद्र है, 99 2010_03 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 जिन सूत्र भाग: 2 जिसको महावीर आत्मा कहते हैं। उस आत्मा तक कोई पाप कभी नहीं पहुंचता। वहां तुम अभी भी गौरीशंकर पर ही विहार कर रहे हो। वहां तुम अभी भी परमात्मा में ही बसे हो। बाहर की परिधि गंदली हो गयी है; लंबी यात्रा है जन्मों-जन्मों की, कपड़े धूल से भर गये हैं । कपड़े उतार डालो। अपने को पहचानो, तुम कपड़े नहीं हो। तुम देह नहीं, मन नहीं। तुम साक्षी हो; चैतन्य हो। तुम परम बोध की अवस्था हो । वहां तुम वैसे ही शुद्ध हो जैसे महावीर, जैसे बुद्ध, जैसे कृष्ण। वहां परमात्मा विराजमान है। I इसलिए इस ऊंचाई की बात से हताश मत हो जाना। यह ऊंचाई की बात तो केवल तथ्य की सूचना है। इस ऊंचाई की बात से तो तुम उत्साह से भरना कि अहो! ऐसी संभावना मेरे भीतर भी है। जो महावीर के लिए हो सका, वह सब के लिए हो सकता है। महावीर ने मनुष्य को बड़ा आश्वासन दिया है। दो कारणों से। एक, महावीर ने घोषणा की कि मनुष्य के ऊपर और कोई भी नहीं। कोई परमात्मा नहीं। मनुष्य ही अपनी शुद्ध अवस्था में परमात्मा हो जाता है। महावीर ने कहा, आत्मा के तीन रूप हैं। बहिअत्मा- - जब चेतना बाहर जा रही है। अंतरात्मा - जब चेतना भीतर आ रही है। और परमात्मा – जब चेतना कहीं भी नहीं जा रही; न बाहर, न भीतर । बहिर्भ्रात्मा — जब चेतना पाप कर रही है। अंतरात्मा – जब चेतना पुण्य कर रही है । |परमात्मा -- जब चेतना न पाप कर रही है, न पुण्य कर रही है। बहित्मा - जब अशुभ से संबंध जुड़ा। अंतरात्मा - जब शुभ से संबंध जुड़ा। परमात्मा— जब सब संबंध छूट गये । असंग का महुआ । निर्विकल्प का जन्म हुआ। वही निर्वाण है। उसे पाये बिना चैन मत पाना । उसे पाये बिना रुकना मत। आज कितना ही कठिन मालूम पड़े, लेकिन तुम्हारा जन्मसिद्ध | अधिकार है। उसे पाया जा सकता है। उसे पाया गया है। और जो एक मनुष्य के जीवन में घटा, वह सभी मनुष्यों के जीवन में घट सकता है। वह सभी की नियति है। लेकिन तुम्हारे ऊपर है। तुम अगर दावा करो, तो ही पा सकोगे। तुम अगर भिखारी की तरह बैठे रहो, तो खो दोगे । दूसरी बात । पहले तो महावीर ने कहा आदमी के ऊपर कोई भी नहीं, परमात्मा भी नहीं। इसलिए मनुष्य को उन्होंने 2010_03 आत्यंतिक गरिमा दी। और दूसरी बात उन्होंने कहा, किसी से मांगने को यहां कुछ भी नहीं । परमात्मा ही नहीं है, मांगोगे किससे ? मुफ्त यहां कुछ भी न मिलेगा । श्रम करना होगा । इसलिए महावीर की संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलायी । श्रम करना होगा। पूजा से न मिलेगा, श्रम से मिलेगा। भिखारी की तरह मांगकर न मिलेगा, अर्जित करना होगा। यह पहाड़ चढ़ने से ही चढ़ा जा सकेगा। यह किसी दूसरे के कंधों पर यात्रा होनेवाली नहीं है। लोग तीर्थयात्रा को जाते हैं, डोली में बैठ जाते हैं। यह ऐसा तीर्थ नहीं है जहां डोली में बैठकर यात्रा हो सकेगी। अपने ही पैरों से चलना होगा । इसलिए महावीर ने कहा, जब ऊर्जा जगती हो, जब जीवन में प्रफुल्लता हो, शक्ति हो, तब कल पर मत टालना। यह मत कहना कि कल बुढ़ापे में। महावीर पहले मनुष्य हैं, जिन्होंने पृथ्वी पर धर्म को युवा के साथ जोड़ा और कहा, यौवन और धर्म का गहन मेल है। क्योंकि ऊर्जा चाहिए यात्रा के लिए, संघर्ष के लिए, तपश्चर्या के लिए, संयम के लिए, विवेक के लिए, . बोध के लिए- ऊर्जा चाहिए। ऊर्जा के अश्व पर ही सवार होकर तो हम पहुंच सकेंगे। इसलिए कल पर मत टालना । महावीर ने मनुष्य को परम स्वतंत्रता भी दी और परम दायित्व भी । परम स्वतंत्रता, कि कोई परमात्मा ऊपर नहीं है। और परम दायित्व, कि तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे हाथ में है । भी परिणाम होगा, तुम ही जिम्मेवार होओगे। कोई और जिम्मेवार नहीं है। महावीर की इस स्वाधीनता को, और महावीर के इस दायित्व को जिसने समझ लिया, वही जिन है। जैन-घर में पैदा होने से कोई जिन नहीं होता । जिन तो एक भावदशा है। परम उत्तरदायित्व और परम स्वातंत्र्य की इकट्ठी भावदशा का नाम जिनत्व है। तो जहां भी कोई इस अवस्था को उपलब्ध हो जाएगा, उसका संग-साथ महावीर से जुड़ गया। जैन-घर में पैदा होने के कारण ही मत सोचना कि तुम जैन हो गये। इतना सस्ता काम नहीं है। श्रम । श्रम से अर्जित । मिल सकता है हृदय - धन । हृदय-धन तुम्हारे पास है ही । सिर्फ भीतर आंख खोलनी है। इतना ही Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inter For www.jan Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवां प्रवचन करना है संसार, होना है धर्म Owani Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार भगवान श्री के पास आते ही बुद्धि हृदय में व शब्द मौन में रूपांतरित । और सुनते समय हृदय का आंसू बनकर बहना ! घर लौटने पर यह अवस्था बनी रहेगी, संदेह । कैसे स्थिर हो यह अवस्था ? आपके पास संन्यास लेने आया हूं। कल घर से पत्र मिला है कि मेरे गैरिक वस्त्र पहनते ही मेरे माता- -पिता आत्महत्या कर लेंगे। वे कम शिक्षित हैं, उन्हें समझाना भी कठिन है। क्या करूं, कृपया बताएं । मा योग लक्ष्मी के वक्तव्य पर एक मित्र की बेचैनी ! सभी प्रश्न गिर गये । उत्तर की भूख, प्यास, चाह नहीं। आगे क्या ? सुख प्राप्ति, महासुख-प्राप्ति की एक झलक के बाद आगे क्या ? 2010_03 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्नः यहां आते ही बुद्धि हृदय में और शब्द मौन में रूपांतरित हो गये। आपको सुनते समय मेरा हृदय कभी-कभी आंसू बनकर बहने लगता है। संदेह है कि यहां से घर लौटने पर भी यह अवस्था बनी रहेगी अथवा नहीं। कृपापूर्वक समझाएं कि किस तरह यह अवस्था स्थिर हो ? पहली बात, आंसुओं से ज्यादा पवित्र मनुष्य के पास और कुछ भी नहीं है। आंसुओं से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है। आंसुओं का केवल एक रूप ही लोगों ने जाना है। वह रूप है— दुख - रूप आंसुओं का एक और रूप है - आंनद रूप। उसे बहुत कम लोग जान पाये। बहुत कम लोग जान पाते हैं। । तुम • किसी को तुम रोते देखते हो, तो सोचते हो दुखी होगा। किसी को रोते देखते हो, तो सोचते हो कुछ पीड़ा होगी। कुछ चुभन होगी, जलन होगी । जरूरी नहीं। आंसू तो तभी बहते हैं जब कोई भी भावदशा इतनी ज्यादा हो जाती है कि तुम संभाल नहीं पाते। कोई भी भावदशा । दुख बहुत हो जाए तो आंसुओं से बहता है। सुख बहुत हो जाए तो भी आंसुओं से बहता है। पीड़ा बहुत हो, तो आंसुओं से बहकर हल्का हो जाता है मन आनंद बहुत हो, तो आंसुओं से बह जाता है। तो पहली तो बात, आंसुओं के साथ दुख का अनिवार्य संबंध मत जोड़ना । गहरे में हमारे मन में यह बात बनी ही है कि आंसू दुख के कारण आते हैं। तो हम आंसुओं को छिपाते भी हैं। आंसू आते हों तो रोकते भी हैं। आंसू आ न जाएं, इसका हम 2010_03 बहुत उपाय करते हैं । इस उपाय को छोड़ो। यही उपाय घर जाकर रोकने का कारण बन जाएगा। यहां मेरे पास हो, यहां एक और तरह की हवा है। यहां सब स्वीकार है। यहां तुम रोओगे, तो कोई तुम्हें दुखी न मानेगा। तुम रोओगे, तो शायद दूसरे तुम से ईर्ष्या करें। सोचें कि तुम धन्यभागी हो कि रो पाते हो, पीड़ित हों अपने मन में कि हम नहीं रो पाते। तुम्हारे आंसू यहां संपदा की तरह स्वीकार किये जाएंगे। घर लौटकर नहीं। दूसरी ही हवा होगी। दूसरा संयोग होगा आंसुओं के साथ । तो अगर चाहते हो कि यह परम आंसू सदा बहते रहें, तो भीतर कुछ स्मरण करने का है। और वह स्मरण यह है कि आंसुओं का दुख से कुछ लेना-देना नहीं है। अन्यथा तुम खुद ही रोक लोगे, कोई और नहीं रोकेगा। कौन रोकता है! कोई किसी को रोक नहीं सकता ! लेकिन तुम्हीं रोक लोगे। तुम्हीं सकुचा जाओगे। तुम्हीं सोचोगे, कोई क्या कहेगा ! घर में बच्चे होंगे तुम्हारे, पत्नी होगी, पिता-मां होंगे, क्या कहेंगे ! दुकान पर बैठे रोने लगोगे, ग्राहक क्या कहेंगे! दफ्तर में बैठे रोने लगोगे, दफ्तर के लोग क्या कहेंगे ! रास्ते पर रोने लगोगे, राह चलते लोग क्या कहेंगे ! तो हम आंसुओं के साथ दुख जुड़ा है। क्योंकि हमने एक ही तरह के आंसू अब तक जाने हैं, वे दुख के आंसू हैं। कोई मरा, रोये । कोई जीवन में विषाद आया, तो हम रोये । हम कभी आनंद से रोये नहीं। हम कभी उत्फुल्लता से रोये नहीं। हमारे आंसू कभी नृत्य नहीं बने। इसलिए एक गलत संयोग आंसुओं से जुड़ गया है। अब तो ऐसे भी लोग हैं पृथ्वी पर, जो दुख में भी 105 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 न रोयेंगे-दुख में रोनेवाले लोग भी विदा हो रहे हैं। आनंद में ही है तो आनंद में रोना। और जो आदमी आनंद में रोना सीख रोनेवाले लोग तो बहुत समय पहले विदा हो गये। अब तो दुख लेता है, उसके जीवन में दुख के आंसू विदा हो जाते हैं। तुमने में रोनेवाले लोग भी विदा हो रहे हैं। अब तो उस आदमी को हम आंसुओं को राह दे दी। अब दुख में रोने की कोई जरूरत ही न कहते हैं बलशाली, जो दुख में भी रोता नहीं। रही। अब तो आंसू उस ऊंचाई पर उड़ने लगे, अब जमीन पर पत्नी मर गयी है और वह नहीं रोता। हम कहते हैं, यह है सरकने की कोई जरूरत न रही। जिसको पंख लग गये, वह विवेकशील। हम कहते हैं, यह है संयमी। नियंत्रण इसे कहते जमीन पर थोड़े ही घसिटता है। दूसरे हैं कि तुम्हारी जमीन पर हैं! यह है आदमी बुद्धिमान। अब तो हम कहते हैं कि जो रोये, घसीटने की क्षमता भी छीन लेना चाहते हैं। मैं हूं कि तुम्हें वह नामर्द! अब तो हम रोनेवाले को कहते हैं, क्या स्त्रियों की आकाश में उड़ने की क्षमता देना चाहता हूं। तरह रो रहे हो! मर्द बनो! हिम्मत जुटाओ! रोने से क्या होगा! तुम आनंद में रोओ। आंसुओं से आनंद को जोड़ो। यह तो ऐसा तो होता ही है। आदमी मरता ही है। रोओ मत, आंसू मत कीमिया है जीवन की। तब दुख भी आनंदरूप हो जाएगा। तब गमाओ। अब तो लोग दुख में भी रोना बंद कर रहे हैं। पीड़ा भी प्रेमरूप हो जाएगी। तब उदासी में भी तुम पाओगे, जिस दिन लोग दख में भी रोना बंद कर देंगे, उस दिन आदमी उसका ही सरगम बजता है। विषाद में भी उसी की गुनगुनाहट पाषाण हो जाएगा। पत्थर हो जाएगा। उस दिन आदमी के भीतर तुम्हारे हृदय में गूंजेगी। मृत्यु के क्षण में भी तुम पाओगे, जीवन फिर कोई भी रोमांच न उठेगा। फिर आदमी के भीतर कोई लहर शाश्वत है। मृत्यु के क्षण में भी तुम जीवन के आह्लाद से ही न आयेगी। फिर कोई गीत न जन्मेगा। फिर आदमी बिलकुल नाचोगे। लेकिन एक बार आंसुओं को आनंद की कला सीख पत्थर होगा। ऐसे बहुत लोग हैं जो पत्थर हो गये हैं। वे दुख में लेने दो। एक बार आंसुओं को आनंद से जुड़ जाने दो। भी नहीं रो सकते। जानता हूं, भय उठता होगा मन में कि यहां तो आंसू इतना श्रेष्ठतम आदमी तो आनंद में भी रोता है। निकृष्टतम आदमी हलका कर जाते हैं, इतना हृदय भर जाता है, घर जाकर क्या दुख में भी नहीं रोता। दुख में भी जो न रोये वह बिलकुल पत्थर होगा? तुम तो तुम ही रहोगे। मैं तुम्हें रुला रहा हूं, ऐसा मत हो गया। सुख में भी जो रोये, वह बह गया, बिलकुल तरल हो | सोचना। तुम ही रो रहे हो। क्योंकि यहां और भी हैं, जो नहीं रो गया। और एक बार तुम सुख का रोना सीख लो, एक बार तुम्हें रहे। अगर मैं रुला रहा होता, तो और भी रोते। अगर मेरे हाथ में | रोने का आनंद अनभव में आ जाए. रोने की पवित्रता, रोने की होता रुलाना, तो और भी रोते। तुम रो रहे हो, तो तुम ही रो रहे प्रार्थना की तुम्हें झलक मिल जाए, तो तुम्हारे हाथ में एक महान हो, मैं नहीं रुला रहा। मेरे बहाने तुम थोड़ा अपने को दमन से, कुंजी आ गयी। | नियंत्रण से ढीला कर लिये हो। मैं सिर्फ बहाना हूं, निमित्त हूं। । फिर तुम जहां भी मौका होगा—कभी किसी खिले फूल को अगर यह तुम्हारी समझ में आ जाए कि तुम ही रो रहे हो, मैं देखकर भी आंखें आंसुओं से भर जाएंगी। इतना अपूर्व सौंदर्य है। सिर्फ निमित्त हूं, तब तुम्हें हर जगह निमित्त मिल जाएंगे। फूल इस जगत में। कभी आकाश के तारों को देखकर भी आंखें को देखकर रो लेना। बच्चे को नाचते, खशी से भरा हआ डबडबा आएंगी। इतना रहस्यपूर्ण है यह जगत! तब तुम देखकर रो लेना। पक्षी का गीत सुनकर रो लेना। झरने की पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक सिहरन जन्मी। एक नये तरह का आवाज सुनकर रो लेना। वृक्षों के हरे पत्ते, आकाश में घिरे मेघ आवेग, एक नया आवेश, एक नयी प्रफुल्लता। और रो लेना। कितना है चारों तरफ रहस्य! किसी को भी मैं भी कहता है कि दुख में रोने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि | निमित्त बना लेना। मैं कहता हूं, रोने को तो सुख बनाया जा सकता है। मेरे कहने में, | एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए कि रोने की क्षमता तुम्हारी औरों के कहने में फर्क है। वे कहते हैं, दुख में भी मत रोना, | है, तो फिर कोई भी निमित्त काम कर देगा। ऐसे ही समझो कि क्योंकि रोने से कमजोरी प्रगट होती है। मैं तमसे कहता है, रोने आये, अपना कोट टांगना है, तो खंटी पर टांगते हैं: कोई भी को तो आनंद बनाया जा सकता है। दुख में मत रोना, जब रोना खूटी काम दे देगी। खूटी नहीं मिलेगी तो तीली पर टांग देंगे, 106 2010_03 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना है संसार, होना है धर्म MARATHI खीली पर टांग देंगे। वह भी नहीं मिलेगी तो दरवाजे के कोने पर जितना घर दुखी था, उससे ज्यादा दुखी घर में पहुंच जाओगे। टांग देंगे। उससे भी ज्यादा विषाद में उतर जाओगे। क्योंकि यह अनुभव कोट तुम्हारा है, तुम मुझ पर टांग रहे हो। अगर कोट मेरा हो, तुम्हें और भी दुखी करेगा। तो निश्चित तुम जब घर जाओगे तो कोट यहीं रह जाएगा। नहीं, वैसा देखना ही गलत है। जो घटता है, तुम्हारे भीतर आंसुओं के संबंध में ही नहीं, जीवन के समस्त अनुभवों के घटता है। निमित्त बाहर हो सकते हैं। जो घटता है, तुममें घटता संबंध में यह याद रखना कि जो घटता है, तुम्हारे अंतर्तम में है। तुम उसके मालिक हो। इसलिए तुम अगर ले जाना चाहो, घटता है। बाहर हो सकता है निमित्त मिल गया हो। जब तुम्हें तो दुनिया में कोई रोकनेवाला नहीं। हां, लेकिन डर भी मेरी तारों में सौंदर्य दिखायी पड़ता है, तब भी सौंदर्य तुम्हारे भीतर ही समझ में आता है। डर भी तुम्हारे भीतर है। तुम जानते हो कि घर घटता है। तारे तो केवल निमित्त हैं। उन्हीं तारों के नीचे दूसरे भी इस सरलता से तुम रो न सकोगे। तो जा रहे हैं अंधे, जिनको कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता। तुम | एक मित्र ने कहा, यहां तो हम नाचते हैं, बड़ा आनंद आ रहा अगर उन्हें दिखाओ भी, तो वे तुम्हारी तरफ चकित होकर देखेंगे है, घर कैसे नाचेंगे? कौन रोकता है? थोड़ी प्रतिष्ठा दांव पर कि हो क्या गया है तुम्हें ! तारे हैं, इतना आश्चर्य में होने की क्या लगानी होगी, और तो कुछ दांव पर नहीं लगाना है। कौन रोकता बात है! है? कौन किसको रोक सकता है? हां, लेकिन घर नाचोगे, तो एक मंदिर की घंटियां बज रही थीं। एक संगीतज्ञ बैठा था पत्नी समझेगी कि दिमाग खराब हुआ। बच्चे भी छिप-छिपकर मंदिर के बाहर, एक वृक्ष के तले। घंटियों का मधुर कलरव उसे देखेंगे कि पिताजी को क्या हो गया। पास-पड़ोस के लोग भी आंदोलित करने लगा। उसने अपने पास बैठे मित्र से कहा, पूछने लगेंगे कि कुछ गड़बड़ हो गयी। प्रतिष्ठा दांव पर लगेगी। सुनते हो, कैसा अपूर्व कलरव है। उस आदमी ने कहा, इस अब तुम्हारे ऊपर है, प्रतिष्ठा चुन लेना, या नाच चुन लेना। मंदिर के पुजारी के घंटनाद के कारण कुछ भी तो सुनायी नहीं अगर प्रतिष्ठा में ज्यादा रस होगा, प्रतिष्ठा चुन लोगे, नाच में पड़ता! ये घंटियां इतने जोर से बज रही हैं कि तुम क्या कह रहे | ज्यादा रस होगा, नाच चुन लोगे। हो, यह भी सुनायी नहीं पड़ता। जरा घंटियां बंद हो जाने दो, इस जगत में हर चीज कीमत पर मिलती है। जहां तुम्हें लगता फिर कहना। है कि कीमत नहीं चुका रहे, वहां भी कीमत चुकानी पड़ती है। वह संगीतज्ञ कह रहा है, सुनते हो घंटियों का कलरव नाद! जेब से न भी देनी पड़ती हो, चाहे ऊपर से दिखायी भी न पड़ती ऐसे अपूर्व स्वर, ऐसे पवित्र स्वर सुने हैं कभी! शायद संगीतज्ञ हो, लेकिन हर जगह कीमत चुकानी पड़ती है। अगर नाच बहुत धीरे-धीरे फुसफुसाया होगा कि कहीं घंटियों के नाद में कोई चाहिए, तो प्रतिष्ठा छोड़नी पड़ती है। अगर प्रतिष्ठा चाहिए, तो व्याघात न पड़ जाए। लेकिन मित्र कह रहा है कि जरा घंटियों की | नाच छोड़ना पड़ता है। बकवास बंद हो जाने दो, फिर कहना। मुझे कुछ सुनायी नहीं अगर तुम चाहते हो कि आंसू तुम्हारे जीवन में बहते ही रहें पड़ता। ये घंटियां कुछ सुनने दें तब न! झरने की तरह, और आंसुओं का अर्ध्य परमात्मा के चरणों पर मेरे पास तुम हो। तो मैं सिर्फ निमित्त हूं। मेरे निमित्त तुम्हारे चढ़ता ही रहे; अगर तुम चाहते हो आंसू ही तुम्हारे फूल होंगे प्रभु भीतर का दृश्य तुम्हें दिख जाए, बस काम हो गया। जो दिखे उसे के चरणों में, तो फिर तुम्हें कोई न रोक सकेगा। लेकिन दांव पर अपने भीतर ही जानना। तो तुम घर ले जा सकोगे। अगर तुमने लगाना होगा। मीरा ने कहा है, 'लोक-लाज खोयी।' नाची समझा मेरे कारण दिखा है, तो तुम मुझसे बंध जाओगे। फिर तुम होगी, तो लोक-लाज तो खोयी होगी! अब तो मीरा बड़ी घर न ले जा सकोगे। फिर घर तो तुम बहुत उदास जाओगे। और | प्रतिष्ठित है। अब तो मीरा का भजन गाओ, तो कोई लोक-लाज घर तो तुम वंचित अनुभव करोगे कि वे आंसू अब नहीं बहते, जो | न खोनी पड़ेगी। मीरा ने खोयी थी। अब तो मीरा का भजन भी हलका कर जाते थे। वह रहस्य अब नहीं उठता भीतर। वैसा प्रतिष्ठित हो गया। कभी तुम्हारे आंसू भी प्रतिष्ठित हो जाएंगे। संगीत अब नहीं छूता। तो तुम तो घर जाकर, आने के पहले लेकिन अभी, अभी तो प्रतिष्ठा खोनी पड़ेगी। 107 2010_03 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसत्र भाग:23 INHAR THER मीरा के पति ने अगर उसके लिए जहर भेजा था, तो वह | क्योंकि यहां आंसू आने से प्रतिष्ठा मिल सकती है। यहां तो इसीलिए भेजा था। कुछ मीरा से विरोध न था, विरोध था मीरा | जिसको नाच न भी आता हो, वह भी नाच सकता है। जिसके के कारण उसकी तक प्रतिष्ठा धूल में मिली जाती थी। शाही घर | भीतर उमंग न भी उठती हो, वह भी दिखला सकता है कि बड़ी की महिला, सड़कों पर नाचने लगी आवारा, तो राणा के मन को उमंग उठ रही है। क्योंकि यहां तो उमंग उठने से प्रतिष्ठा मिलती चोट पहुंचती होगी। लोग आकर कहते होंगे कि तुम्हारी पत्नी है। यहां तो पागलपन और प्रतिष्ठा में विरोध नहीं है। यहां तो राह पर नाच रही है, भीड़ लगाकर लोग खड़े होकर देखते हैं, पागलपन प्रतिष्ठा का कारण बन सकता है। वस्त्र तक उतर जाते हैं, हाथ से गिर जाता है साड़ी का पल्ला, घर जाकर हालत उलटी होगी। पागलपन और प्रतिष्ठा, दोनों ऐसा तो कभी न हआ था। चूंघट के जो कभी बाहर न निकली के बीच चुनाव करना होगा। इतना ही मैं तुमसे कह सकता हूं कि थी, सड़कों पर नचा रहे हो! कुछ करो! प्रतिष्ठा दांव पर लगी| अगर तुम्हें रस आया हो आंसुओं में, तो फिर फिक्र मत करना। होगी। मीरा को मार डालना चाहा होगा। हट ही जाए यह ! यह दो-चार दिन की बात है। लोग दो-चार दिन हंस लेते हैं। हंस कलंक मालूम पड़ा होगा। लेकिन मीरा नाचती रही। जहर भी पी लेने, देना। तुम भी उनकी हंसी में सम्मिलित हो जाना। तुम भी गयी और नाचती रही। अपने पर हंस लेना। दो-चार दिन लोग कहते हैं पागल, फिर जहर दिया या नहीं दिया, यह बात बड़ी नहीं। लेकिन बात कौन बैठा रहता है तुम्हारे लिए। सोचने की लोगों को फुर्सत कहां | इतनी खयाल रखना, जहर पी गयी और नाचती रही। जहर है! किसको समय रखा है! कौन चिंता करता है! फिर लोग स्वीकार कर लिया, नाच को त्यागना स्वीकार न किया। तो घर | स्वीकार कर लेते हैं कि हो गये पागल, बात खतम हो गयी। जाकर अगर रोना चाहोगे, तो कई तरह का जहर पीना पड़ेगा। दो-चार दिन में सब व्यवस्था बैठ जाती है। पत्नी भी मान लेती उतनी हिम्मत हो, तो जहां तुम हो वहां तुम्हारा नाच, वहां तुम्हारे है कि अब ठीक है, तम्हारे साथ ही जीना है। बच्चे भी मान लेते आंसू, वहां तुम्हारे गीत कौन छीन सकता है! लेकिन लोग छीन हैं कि ठीक है। दो-चार दिन की ही हिम्मत, जीवनभर के लिए लेते हैं, क्योंकि हम लोगों से कुछ चाहते हैं- इज्जत, प्रतिष्ठा। स्वतंत्रता का मार्ग खोल देती है। लेकिन हर स्थान पर कीमत तो स्वभावतः इज्जत और प्रतिष्ठा वे अपने ही मापदंड से देते हैं। चुकानी ही पड़ेगी। अगर तुम उनका मापदंड पूरा करो, तो इज्जत और प्रतिष्ठा देते पूर्ण होकर रुदन भी युग-गान बनता है, हैं। इसी आधार पर तो उन सबने तम्हारी गर्दन को जकड़ लिया मधुरतम गान बनता है। है। हाथों में जंजीरें डाल दी हैं। जब हृदय का एक आंसू प्रतिष्ठा चाहते हो, तो सौदा साफ है। तुम्हें समाज के अनुसार सब समर्पण-भाव लेकर चलना होगा। लोग जैसा कहते हैं वैसा ही मानना होगा। इस नैन-सीपी में उतर कर बदले में वे तुम्हें आदर देंगे। अगर तुमने उनके नियम तोड़े, | अर्चना का अर्ध्य बनता, स्वभावतः तुम्हें अनादर मिलेगा। एक क्षण पाषाण भी भगवान बनता है वही है जहर-अनादर का, अप्रतिष्ठा का, अपमान का। उसे पूर्ण होकर रुदन भी युग-गान बनता है, तुम पीने को राजी हो, तो तुम्हारी आंखें सदा ही मेघों की भांति मधुरतम गान बनता है। बरसती रहेंगी। और तुम्हारे आंसू कहीं भी गिरें, परमात्मा के तुम्हारी आंख से जिस क्षण आंसू बहे, अगर समर्पण का हो, चरणों में पहुंच जाएंगे। गीत का हो, अर्चना का हो, प्रभु के चरणों में चढ़ाने के लिए हो, भय तुम्हें उठ रहा है, तुम्हारे ही भीतर। यहां तो एक वातावरण | तो उस आंसू के क्षण में ही, अगर तुम पत्थर की प्रतिमा के सामने है। यहां तो और भी पागल हैं, तुम अकेले थोड़े ही। यहां तो भी बैठे हो-एक क्षण पाषाण भी भगवान बनता है। तो उस तुमसे बड़े पागल हैं। यहां तो हालत ऐसी उलटी है कि जिसको न आंसू के बीच, उतर आने से आंख में, सामने रखा हुआ पाषाण | भी आंसू आते हों, वह भी लाने की कोशिश कर सकता है। भी भगवान बनता है। तुम्हारे आंसू में बड़ा बल है। अगर तुमने 108 2010_03 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना हे संसार होना है धर्म बिना रोये पाषाण की मूर्ति को देखा, तो पाषाण की मूर्ति ही इसी तरह के धोखेबाज, आत्म-प्रवंचक हैं। एक ही बदलाहट रहेगी। तब तुमने तर्क से देखा, बुद्धि से देखा, विचार से देखा। संभव है और वह तुम्हारी बदलाहट है। और तुम्हारे अतिरिक्त रो कर देखा, आंख को गीली करके देखा, तब तुमने हृदय से वहां कोई भी मालिक नहीं है। तुम्ही मालिक हो। इसी को देखा; आर्द्रता से देखा, भावना से देखा। उस आंसू-भरी आंख महावीर कहते हैं व्यक्ति की परम स्वतंत्रता और परम दायित्व। को पत्थर भी पत्थर नहीं मालूम होता। उसमें प्राणों की प्रतिष्ठा शुभ हैं, तुम्हारे आंसू। संभालना। आंखों ने गीला होना जाना हो जाती है। है, अब सूखे मरुस्थल मत बनाना आंखों में। अब मरूद्यान उठा आंसू से रहित आंख पथरीली है। आंसू से रहित आंख पाषाण है, जगा है, तो संभालना। है। पाषाण से पाषाण ही दिख सकता है। आंख में जब आंस चांद निकला तो अंधेरा भी मस्कराने लगा होते हैं, तभी आंख जीवंत होती है। जब गीली होती है, तभी हंसा जो फूल तो कांटों पे नशा छाने लगा रसभरी होती है। जब गीली होती है, तभी आंख में काव्य होता वह प्यार का ही था जादू तो यह मिट्टी का सितार है, कविता होती है। जब गीली होती है, तभी आंख के तारों पर न कोई शब्द हुआ और गुनगुनाने लगा कोई संगीत छिड़ता है। उस गीली आंख से संसार को देखो, अगर आंसू उतरे हैं-कांटों पे नशा छाने लगा। अगर इस संसार न दिखायी पड़ेगा। पाषाण भगवान बनता है। संसार | नशे में तुम्हें आनंद आ रहा हो, रस निमग्नता आ रही हो, तुम भगवान बनता है। तुम्हारी आंख की ही बात है। सारी बात | डूब रहे हो, तो इस रस को बचाना, और चाहे कुछ भी छोड़ना आंख की है। आंसू-भरी आंख, आत्मा-भरी आंख है। लेकिन पड़े। क्योंकि अंततः यही रस तुम्हें परमात्मा से जोड़ेगा। इस रस ये आंस आनंद के हों, अहोभाव के हों। ये शिकायत में न गिरें, | के बिना और कोई सेतु नहीं है मनुष्य और परमात्मा के बीच। धन्यवाद के हों; आभार के हों। उसकी अनुकंपा के लिए, गहन यही रस, यही आंसू सेतु बनेंगे। यही आंसू धागा बनेंगे। तुम्हारी कृतज्ञता के हों। सुई धागा पिरोयी हो जाएगी। हृदयपूर्वक रोना। सब और बात तम्हारे ही हाथ में है। इसे जितनी बार दहराया जाए लोक-लाज छोडकर रोना। सब भय, शंकाएं छोडकर रोना। उतना ही कम है। इस संबंध में अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। जब रोओ तो बस आंख ही हो जाना। और आंख से आंसू ही इस संबंध में पुनरुक्ति नहीं हो सकती, कि तुम अपने मालिक नहीं बहें, तुम्हीं बहना। हो। तुम जैसे हो अभी, ऐसा होना तुमने चुना है। फिर दुखी होना चांद निकला तो अंधेरा भी मुस्कुराने लगा व्यर्थ है। तुमने दुख को ही चुना है। तुमने गलत को ही चुना है। और एक बार तुम्हारे भीतर चांद निकल आए, एक बार तुम्हारे -अगर तुम्हारी संवेदना मर गयी है, अगर तुम्हारी भावना मर गयी भीतर अहोभाव की पहली झलक, प्रतीति आ जाए। है, अगर तुम्हारी खोपड़ी में सिर्फ कुछ क्षुद्र विचार ही रह गये हैं। चांद निकला तो अंधेरा भी मुस्कराने लगा और जीवन कहीं भी किसी और तरंग से आंदोलित नहीं होता है, तब तुम पाओगे कि दुख भी सुख में रूपांतरित हो जाता है, तो ऐसा होना ही तुमने चुना है। किसी को दोष मत देना। अंधेरा प्रकाश बन जाता है। मृत्यु जीवन बन जाती है। शत्रु मित्र मेरे पास अगर तुम आ गये हो, तो इतनी-सी बात भी सीख लो हो जाते हैं। तो बहुत है कि जैसे तुम हो, यह तुम्हारा निर्णय है। अन्यथा होना हंसा जो फूल तो कांटों पे नशा छाने लगा है, बस तुम्हारे निर्णय को ही बदलने की बात है। कुछ और नहीं और एक बार तुम्हारे भीतर का फूल हंसने लगे, तो तुम्हारे बदलना। यह मत सोचना कि सारी दुनिया को बदलेंगे। जो भीतर के कांटों तक पर नशा छाने लगेगा। लोग दुनिया को बदलने निकलते हैं, वे वे ही लोग हैं जो स्वयं को यह बड़ी गहरी कीमिया की बात है। जो व्यक्ति आंसुओं से बदलने से बचना चाहते हैं। चालबाजी है। खद बदलने में भर जाता है-आह्लाद के, आनंद के, उसके भीतर जो घबड़ाते हैं। खुद को बदलने में कठिनाई मालूम होती है, तो कल्प-कांटे थे, वे भी नरम होने लगते हैं। उसका क्रोध नरम हो दुनिया को बदलने के सपने देखते हैं। राजनेता हैं, समाजनेता हैं, जाएगा। रोनेवाला आदमी क्रोध करने में धीरे-धीरे असमर्थ हो 109 ___ 2010_03 www.jainelibrarorg Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ New जिन सत्र भाग: 2 NER जाएगा। कांटों पर नशा छाने लगा। उसकी घृणा समाप्त होने फिर वीणा बजने लगेगी। लगेगी। जिसने रोना जान लिया, वह किसी को घृणा न कर हजारों लोग सारी दुनिया के कोने-कोने से आ रहे हैं। उनकी सकेगा। जिसने रोना जान लिया, उसके संदेह गिरने लगेंगे। तकलीफ तुम समझते हो! तुम तो पास हो बहुत-कोई बड़ौदा उसकी गीली आंखें उसे श्रद्धा की तरफ ले जाने लगेंगी। | में है, कोई बंबई में है, कोई बहुत दूर हुआ दिल्ली में है लेकिन कांटों पे नशा छाने लगा। दूर, बड़ी दूर से लोग आ रहे हैं, उनके साथ क्या घट रहा है? दो एक सूत्र भी तुम्हारे हाथ में आ जाए जीवन को बदलने का, तो | | महीने, तीन महीने रहने के बाद उन्हें वापस लौट जाना पड़ता है, सारा जीवन रूपांतरित होने लगता है। लेकिन वे वापस कभी नहीं लौटते। संबंध बन गया, फिर वे जहां हंसा जो फूल तो कांटों पे नशा छाने लगा होते हैं वहीं से जरा आंख बंद करने, स्वयं को थिर करने, शांत वह प्यार का ही था जादू तो यह मिट्टी का सितार | करने की बात है कि जैसे रेडियो पर तुम कोई भी स्टेशन पकड़ न कोई शब्द हुआ और गुनगुनाने लगा लेते हो-जरा-सा सुई को घुमाने की बात है, ठीक जगह लाने मेरे पास तुम हो, इस घड़ी को प्रेम की घड़ी अगर बनाया, की बात है; सुई ठीक जगह आ जाती, तत्क्षण दूरी समाप्त हो अगर मेरे प्यार को अपने भीतर प्रविष्ट होने दिया, और अगर जाती है। तो लंदन हो, कि टोकियो हो, कि वाशिंगटन हो, कोई अपने प्यार को मेरी तरफ बहने दिया, तो सितार छिड़ जाएगा, तो फर्क नहीं पड़ता। ऐसे ही हृदय का भी वाद्य है। अगर तुमने राग बजने लगेगा। शब्द भी न होगा-न कोई शब्द हुआ और ठीक मेरे पास बैठकर इतना भी पहला पाठ सीख लिया कि कैसे गुनगुनाने लगा-और हृदय गुनगुनाने लगेगा। मौन संगीत, तुम्हारे हृदय की सुई मेरी तरफ उन्मुख हो जाए, तुम कैसे मेरी नीरव संगीत, शून्य संगीत बजने लगेगा। पर हो रहा है सब तरफ उन्मुख हो जाओ, बस फिर तुम जहां भी आंख बंद कर तुम्हारे भीतर। लोगे, थोड़ा अपने को सम्हालकर शांत कर लोगे, थोड़ी तरंगें मेरे पास आकर अपने भीतर की थोड़ी-सी झलक ले लो, फिर मन की बैठ जाने दोगे, थोड़ी मेरी याद करोगे, अचानक पाओगे, उसे सम्हाले हुए घर जाना। फिर उसे सम्हाले हुए अपनी दुनिया दूरी गयी। दूरी समाप्त हुई। तुम ऐसे ही मुझे पा लोगे जैसे तुम में वापस लौटना और तुम पाओगे वहां भी थोड़ा भी सम्हालने से मुझे यहां पाये हुए हो। लेकिन सारी बात तुम पर निर्भर है। सम्हला रहता है। स्वभावतः यहां से ज्यादा वहां सम्हालना | मालिक तुम हो। होगा। लेकिन बात सम्हालने की ही है। यह मत सोचना कि मैं कुछ कर रहा हूं। तुम कुछ होने दे रहे हो। और तुम अगर होने दुसरा प्रश्न: आपके पास संन्यास लेने के लिए आया हं, दोगे, तो तुम जहां हो वहीं होता रहेगा। फिर प्रेम का संबंध कोई लेकिन कल ही घर से पत्र आया है कि अगर मैं गैरिक-वस्त्र स्थान का संबंध नहीं। तुम मेरे से दस फीट दूर बैठे हो, कि हजार पहनूंगा तो मेरे माता-पिता रस्सी ले लेंगे। मेरे माता-पिता फीट, कि हजार मील, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रेम कोई । ग्रामीण हैं और हिंदी भी नहीं जानते, उन्हें समझाना कठिन है। फासला जानता नहीं। और घृणा निकटता नहीं जानती। जिस कृपया बतायें कि मैं क्या करूं? आदमी को तुमसे घृणा है, वह तुम्हारे पास भी बैठा रहे, शरीर से शरीर भी लगा हो, तो भी कहां पास! और जिससे तुम्हें प्रेम है, माता-पिता गांधीवादी मालूम होते हैं, रस्सी ले लेंगे, फांसी वह सात समंदर पार हो, तो भी कहां दूर! प्रेम दूरी नहीं जानता, लगा लेंगे! घृणा निकटता नहीं जानती। निश्चित ही गांधीवादी लोगों से बड़ी झंझट है। हिंसक कहता __ तो अगर तुमने मेरे और तुम्हारे बीच प्रेम की धारा को जरा है, तुम्हें मार डालेंगे। गांधीवादी कहता है, हम मर जाएंगे। मगर बहने दिया, तो फिर तुम कहीं भी रहो, आंख बंद करते ही तुम दोनों की आकांक्षा एक ही है कि तुम्हें हम स्वतंत्र न होने देंगे, मेरी मौजूदगी में हो जाओगे। आंख बंद करते ही आंखें फिर जैसा हम चाहेंगे वैसा करवा कर रहेंगे। तो जो कहता है, हम | पुरनम होने लगेंगी। फिर गीली होने लगेंगी। आंख बंद करते ही तुम्हें मार डालेंगे, उससे तो बचने का उपाय भी है। लेकिन जो 2010_03 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहता है, हम मर जाएंगे, उससे कैसे बचें! बड़ी कठिनाई है । हैं हम किसी को तो ले ही जाएंगे। बिना... खाली हाथ नहीं जा लेकिन कुछ बातें खयाल में लेनी चाहिए। सकते। कोई और जाने को राजी हो तो चलो हम किसी और को ले जाएंगे। इतना मैं उन्हें समझा-बुझा सकता हूं। पिता ने कहा कि मेरा मरना तो मुश्किल है, और भी बेटे हैं। उनकी भी मुझे फिक्र करनी है, कोई यह ही तो एक बेटा नहीं है। मां ने कहा कि मैं मर जाऊंगी तो मेरे पति का क्या होगा ? बुढ़ापे में मैं ही तो इनकी सेवा कर रही हूं। ऐसा एक-एक इनकार करता चला गया। पत्नी जो खूब छाती पीट-पीटकर रो रही थी और कहती थी मैं मर जाऊंगी, जब यह सवाल उठा, तो उसने कहा अब छोड़ो भी, यह तो मर ही गये, हमको छोड़ो। अब यह तो मर गये, हम किसी तरह चला लेंगे। तो फकीर ने कहा, बेटा! अब उठ, अब क्या कर रहा है? अब पड़ा पड़ा क्या सोच रहा है? वह आदमी उठा और उसने कहा कि ठीक, अब यह तो मर ही गये उसने कहा, और ये लोग तो चला ही लेंगे, मैं आया। आपके पीछे आता हूं। किसी ने कभी रस्सी ली नहीं। इससे कुछ घबड़ाने की जरूरत नहीं है। इससे कुछ परेशान होने की जरूरत नहीं है। और इस तरह की धमकियों से दब जाना बहुत खतरनाक है। इस तरह की धमकियों से एक बार दब गये कि सदा के लिए दब गये। तो अगर तुम गांधीवादी हो – तुम भी, क्योंकि उन्हीं मां-बाप के बेटे हो – तो रास्ता यह है कि तुम कह दो, हम भी रस्सी ले लेंगे अगर गेरुवा न पहनने दिया। और क्या करोगे! होने दो रस्साकसी! अब और तो मैं सलाह क्या दे सकता हूं! लिख दो पत्र कि फौरन तार से सूचना भेजें संन्यास लेने की आज्ञा, नहीं तो रस्सी ले लूंगा । पहली बात, तुम पृथ्वी पर पहली दफे नहीं हो। और तुम्हारे माता-पिता पहले माता-पिता नहीं हैं। अब तक किसी माता-पिता ने पूरे मनुष्य जाति के इतिहास में, किसी के संन्यास लेने पर रस्सी नहीं ली। कहते सभी थे। कहा सभी ने। बुद्ध के पिता ने भी । मगर रस्सी किसी ने नहीं ली। कोई मां-बाप आज तक मरा नहीं इस कारण कि बेटे ने संन्यास ले लिया। थोड़ा सोचो तो, बेटे के मरने पर नहीं मरते मां-बाप, संन्यास लेने पर मर जाएंगे! गांधीवादी धमकी है, घबराने की | कोई जरूरत नहीं । दो कौड़ी की है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है। कोई कभी किसके लिए मरता है ! एक युवक एक सूफी फकीर के पास जाता था। रस में डूबने लगा। मस्ती भरने लगी। भाव उठने लगा कि हो जाए वह भी फकीर । पर उसने कहा, मैं हो नहीं सकता हूं, मेरी पत्नी मर | जाएगी ! मेरे बेटों का क्या होगा? मेरे मां-बाप वृद्ध हैं, वे जी न सकेंगे, एक दिन । कई लोगों की हत्या मेरे सिर पड़ जाएगी, आप क्या कहते हैं। उस फकीर ने कहा, एक काम करो । आठ-दस दिन यह मैं तुम्हें श्वास की साधना देता हूं, उसे कर लो। उसने कहा, इससे क्या होगा? उसने कहा कि फिर दसवें दिन तुम सुबह ही सांस साधकर पड़ जाना। मर गये। फिर मैं आऊंगा, फिर सारा दृश्य अपन समझ लेंगे कि तुम्हारे मरने से कौन-कौन मरता है। उसने - कहा, यह बात तो ठीक है ! दसवें दिन...दस दिन उसने अभ्यास किया सांस को साधने का, फिर दसवें दिन सांस को रोककर पड़ रहा। रात से ही उसने | कह दिया था कि हृदय में बड़ी धड़कन हो रही है, घबड़ाहट हो रही है, ऐसा-वैसा, तो घर के लोग तैयार ही थे, कि मरता है, क्या होता है ! सुबह वह मर ही गया। छाती पीटना, | रोना-चिल्लाना शुरू हो गया। वह फकीर आया । बंधा हुआ सब षड्यंत्र था। उस फकीर ने आकर कहा, क्यों रोते-चिल्लाते हो? उन्होंने कहा, यह बेटा मर गया, आप तो महापुरुष हैं, चमत्कार करें। आप तो कुछ भी कर सकते हैं। आपके आशीष से क्या नहीं हो सकता! उसने कहा मैं करूंगा, लेकिन इसकी जगह मरने को कौन तैयार है? क्योंकि यमदूत खड़े हैं, वे कहते 2010_03 करना है संसार, होना है धर्म अगर तुम संन्यास लेना ही चाहते हो, तो फिर तुम्हें कोई नहीं रोक सकता । तुम न लेना चाहते होओ, तो यह तरकीब काफी है तुम्हें रोकने को। लेकिन ध्यान रखना, मां-बाप ने नहीं रोका तुम्हें, तुम खुद रुके। यह भी तुम खयाल रखना। अगर रुकते हो, तो तुम खुद रुके। तुम बेईमान हो, यह तो मां-बाप का बहाना ले लिया। यह तो तुमने एक तरकीब खोज ली कि क्या करें, मां-बाप मरने को तैयार हैं। इसलिए रुक रहे हैं। लेकिन कल मां-बाप मरेंगे ही। मरने से कौन कब बचा है ! जो होना ही है, वह होगा ही। और अगर तुम्हारे संन्यास से ही मरते हों तो कम से कम एक तो उनके खाते में बात लिखी रहेगी कि धार्मिक 111 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 व्यक्ति हैं, संन्यास के कारण मरे। मत छोड़ना। ऐसा कभी हुआ नहीं है। होता नहीं है। मौत की धमकियां | इतने लोगों ने संन्यास लिया है, सभी के साथ कुछ न कुछ ऐसे देनेवाले मौत का भी उपयोग करते हैं जीवन के उपयोग के लिए ही सवाल उठते हैं। लेकिन कमजोरी सदा भीतर होती है। ही। जो तम्हारे संन्यास से घबड़ा रहे हैं, वे अपनी मौत से न कल एक मित्र पछते थे कि अब आप गेरुवे पर ही ज्यादा जोर घबड़ायेंगे। थोड़ा सोचो तो! तुम कर क्या रहे हो? सिर्फ | दे रहे हैं, पहले आप साधु...सफेद वस्त्रों में भी संन्यास दे देते गैरिक-वस्त्र पहन रहे हो। घर में रहोगे, घर का काम करोगे, थे। तो मैंने उनको कहा, मेरे गांव में, जहां मैं पैदा हुआ-पता ज्यादा बेहतर करोगे। शायद मां-बाप की सेवा नहीं, दूसरे गांवों में भी ऐसा होता होगा-जहां मैं पैदा हुआ, भी पहले से ज्यादा बेहतर करोगे। दो-चार-आठ दिन में वे वहां जब मैं छोटा था, तो बच्चों में एक पारिभाषिक शब्द था। समझ जाएंगे कि संन्यास ने तुम्हें बिगाड़ा नहीं, बनाया। और छोटे बच्चे भी और छोटे बच्चे, हमसे भी ज्यादा मेरा संन्यास वैसा तो संन्यास नहीं है कि तुम घर छोड़कर भाग छोटे-खेलने में सम्मिलित होना चाहते थे, और मां-बाप कहते जाओ; मां-बाप बूढ़े हैं उन्हें छोड़कर भाग जाओ, पत्नी को हैं कि जाओ, अपने छोटे भाई को भी ले जाओ, और छोटी बहन छोड़कर भाग जाओ; बच्चों को छोड़कर भाग जाओ, मैं कोई को भी ले जाओ, इनको भी खेलने दो। और वे सब खेल खराबभगोड़ापन तो तुम्हें सिखा नहीं रहा हूं। कर देते हैं, क्योंकि वे छोटी उम्र के-न दौड़ सकते हैं, न भाग उन्हें शायद नासमझी होगी। उनको शायद अंदाज भी न सकते हैं। तो मेरे गांव में उनके लिए एक पारिभाषिक शब्द था, होगा। संन्यास का मतलब वे समझते होंगे पुराना संन्यास। तो | उन्हें हम खेल में सम्मिलित कर लेते थे, उनको कहते हैं—'दूध तुम जब घर पहंचोगे, समझा लेना। और मैं मानता हूं गैर की दोहनिया।' बस इतना, खेलनेवाले समझ लेते हैं कि यह पढ़े-लिखे आदमियों को समझा लेना सदा आसान है। क्योंकि इसको दौड़ने दो, भागने दो, मगर यह कोई खेल का हिस्सा नहीं ज्यादा हार्दिक होते हैं। इसीलिए तो उन्होंने धमकी दी बेचारों ने। है। 'दूध की दोहनिया।' अभी दूध-पीता है। खेलने दो, कूदने नहीं तो तर्क देते कि संन्यास में कोई लाभ नहीं है, और सब दो, वह प्रसन्न होता है बहुत। वह समझता है लोग उसके पीछे नखते। सीधी बात कह दी कि मर जाएंगे। भावुक दौड़ रहे हैं-कोई-कोई थोड़ा दौड़ भी देता है-लेकिन न लोग होंगे। सीधे-साधे लोग होंगे। सरल लोग होंगे। डर गये उसको कोई पकड़ता है, न उसको कोई परेशान करता है। वह होंगे कि बेटा कहीं छूट न जाए। लेकिन जब तुम घर लौट ऐसे ही उछल-कूद करता रहता है। दूध की दोहनिया है। जाओगे गैरिक-वस्त्रों में, उनके चरण छुओगे और उनकी सेवा में तो मैंने उनसे कहा कि सफेद वस्त्रों में संन्यास देता था, वह रत हो जाओगे-जैसे तुम कभी भी न थे-क्योंकि मैं कहता है, सब 'दुध की दोहनिया' हैं। संन्यास भी लेना चाहते हैं, हिम्मत जो संन्यास तुम्हें अपनों से तोड़ दे वह संन्यास नहीं है। संन्यास भी नहीं है गैरिक-वस्त्रों की. तो चलो। खेलने दो. दौडने दो। तो वही है जो तुम्हें दूसरों से भी जोड़ दे, अपनों से तो जोड़े ही! कभी तो समझ बढ़ेगी, तब गैरिक में आ जाएंगे। चलो लेना तो संन्यास है योग, जोड़। तोड़नेवाली बात ही गलत है। चाहते हैं, आधे-आधे हैं। अब उनको मैं धीरे-धीरे कह रहा हूं तो दो-चार दिन में उनको भी समझ में आ जाएगा। गैर कि अब बहुत हो गया, 'दूध की दोहनिया' सदा थोड़े ही बने पढ़े-लिखे हैं, जल्दी समझ आ जाएगा। पढ़े-लिखे होते, तो रहोगे! अब बढ़ो, अब थोड़ी उम्र पाओ। तो माला, चलो आधा महीनों लग जाते। क्योंकि तर्क उठाते, विवाद करते, विचार सही। माला से थोड़े राजी हो गये, फिर धीरे-धीरे गैरिक वस्त्रों करते। सीधे-साधे ग्रामीण लोग हैं, जल्दी समझ में आ जाएगा। से भी राजी हो जाएंगे। तुम पर निर्भर करेगा। तुम्हारे व्यवहार पर निर्भर करेगा। संन्यस्त मुल्ला नसरुद्दीन को एक रेलवे क्रासिंग पर नौकरी मिल गयी। होकर अगर तुम और भी प्यारे हो गये-जैसे तुम कभी भी न पहले ही दिन आधा दरवाजा तो उसने खोल दिया क्रासिंग का थे-तो फिर कोई अड़चन नहीं। वे क्यों मरना चाहेंगे! फिर तो और आधा बंद रखा। एक कारवाला आदमी रुका, उसने कहा तुम संन्यास छोड़ोगे तो वे कहेंगे, रस्सी ले लेंगे, अब संन्यास कि जिंदगी हो गयी मुझे यहां से गुजरते, मगर या तो दरवाजा बंद 2010_03 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANTAR नाह ससार, हाना है धर्म होता है, या खुला होता है; यह आधा क्या मामला है! नसरुद्दीन खतरनाक थी। लाखों लोग अपने घरों को छोड़कर चले गये। ने कहा, मुझे पूरा भरोसा नहीं है कि ट्रेन आयेगी; इसलिए आधा | इसके कारण धर्म को जितना नुकसान पहुंचा, और किसी बात से खोल रखा है। नहीं पहुंचा। धर्म शब्द ही घबड़ानेवाला हो गया। धर्म में कोई जिनको पूरा भरोसा नहीं है अपने पर, उनको मैंने कहा चलो, उत्सुक हुआ, तो घर के लोग चिंतित हुए कि अब कुछ उपद्रव सफेद वस्त्रों में रहो, 'दूध की दोहनिया!' आधा तो खोला, | होगा। लाखों लोगों ने घर छोड़ दिया। उनके देखेंगे। आधा आगे देख लेंगे। लेकिन कमजोरियां भीतर हैं। | गुजरी, उनके पत्नी-बच्चे भूखे मरे, उनके बाप, मां, बुढ़ापे में अब लोग छोटी-छोटी अजीब-अजीब कमजोरियां लाते हैं। यह | कैसे जीये, किसी ने कोई इतिहास न लिखा! लिखा जाना तो ठीक है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें अच्छा बहाना दिया कि रस्सी | चाहिए। गहन दुख उससे पैदा हुआ होगा। लेकिन सदियों से ले लेंगे। एक सज्जन आये, वे कहने लगे कि और तो सब ठीक | ऐसा चला है। उसके कारण एक भय समा गया। लोग है, गैरिक-वस्त्र भी ले सकते हैं, लेकिन सर्दी में क्या होगा! | भीतर-भीतर डरने लगे। तो ऊपर-ऊपर पूजा भी करते हैं कोट वगैरह सब महंगे बनाकर रखे हैं, उनका क्या होगा! तुम | संन्यासी की, भीतर-भीतर डरते हैं। दूसरे का बेटा संन्यासी हो | सोच ही नहीं सकते आदमी कैसे बहाने खोजता है। तो सर्दी में तो | जाए, तो लोग सम्मान करने आते हैं। खुद का होने लगे, तो पहन सकते हैं ऊनी वस्त्र दूसरे रंगों के? जैसे कुछ वस्त्रों के | रस्सी लेते हैं। यह कैसी दुविधा है! महावीर भी किसी के बेटे थे पहनने से कुछ होना-जाना है! तुम बात ही चूक गये, तुम इशारा | और बुद्ध भी किसी के बेटे थे। जो पिता तुम्हारे संन्यास लेने से ही न समझे। यह तो बात समर्पण की थी। सर्दी और गर्मी का | डर रहा है, वह पिता भी बुद्ध के चरणों में सिर झुका आयेगा और यहां कोई उपाय न था। समर्पण यानी बारहमासी। इसमें कोई | कभी न सोचेगा कि बुद्ध के पिता पर क्या गुजरी! यही गुजरी। एक ऋतु में यह पहन लेंगे, दूसरी ऋतु में वैसा पहन लेंगे। इससे बहुत भयंकर गुजरी।। लोग संन्यास ले जाते हैं, माला मैं उनके गले में डालता नहीं | मैं तो संन्यास को ऐसा रूप दे रहा हं कि उससे किसी को पीडा कि वे जल्दी से उसे अंदर छिपा लेते हैं। वह है ही इसीलिए कि | न हो। क्योंकि जिस संन्यास से पीड़ा हो वह भी क्या लेने योग्य लोग तुम्हें पागल समझें। कि लोग हंसें, कि लोग मौका दें कि है! जिससे कहीं दुख पैदा हो, उससे तुम्हें सुख पैदा न हो अच्छा, तो तुम भी गये! उसे तुम जल्दी से अंदर छिपा रहे हो! सकेगा। जिसके कारण तुम दूसरों को दुख दो, उसके कारण तुम्हें तो माला रही, न रही, बराबर हो गया। छोटी-छोटी बातें लोग सुख पैदा कैसे हो सकता है? खोजते हैं। लेकिन उन सब बातों के पीछे उनका खुद का ही भय तो मैं तो कहूंगाः तुम संन्यस्त बनो, घर जाओ, जैसी तुमने है। छिपा हुआ है। अपने भय को पहचान लो, फिर तुम्हें कोई सेवा कभी न की थी वैसी मां-बाप की सेवा करो, क्योंकि फिर रोकनेवाला नहीं है। संन्यासी का दायित्व भी तुम्हारे ऊपर है। दो-चार दिन वे नाराज और किसी के कारण रुकना भी मत। अगर रुकते हो, तो होंगे, चीखेंगे-चिल्लायेंगे, लेकिन तुम अपने व्यवहार से सिद्ध अपने भय के कारण रुकना, अन्यथा तुम दूसरे पर नाराज रहोगे। कर दो कि वे बिलकुल गलत चीख-चिल्ला रहे हैं। बस, तुम समझोगे कि पिता ने, मां ने रोक दिया। यह गलत बात तुम्हारा व्यवहार ही पर्याप्त प्रमाण होगा। और यह मत सोचो कि होगी। यह उनका भाव, उन्होंने प्रगट कर दिया कि वे रस्सी ले वे पढ़े-लिखे नहीं हैं, हिंदी भी नहीं समझते हैं। न समझें, प्रेम तो लेंगे, अगर उनको लेनी होगी तो ले लेंगे। अब जो इतनी-सी समझेंगे! इतना गैर पढ़ा-लिखा कौन है, जो प्रेम न समझे ? ढाई बात पर रस्सी लेते हैं, वे ज्यादा दिन बिना रस्सी लिए रह भी नहीं आखर प्रेम के काफी हैं। तुम उनके पैर दबाओगे, यह तो ते। कोई और बहाने लेंगे। तम उन्हें अच्छी रस्सी का समझेंगे। और वे कछ भी कहें, तम शांति से सनोगे, यह तो इंतजाम कर देना, और क्या करोगे! समझेंगे! और एक बात भर तुम्हारे व्यवहार से जाहिर हो जानी लेकिन कोई कभी रस्सी लेता नहीं। दो दिन बाद सब ठीक हो | चाहिए कि तुमने जो संन्यास लिया है, वह संसार-विरोधी नहीं जाता है। घबड़ा गये होंगे, पुरानी धारणा है। और पुरानी धारणा | है। घर-विरोधी नहीं है। हम घर को मंदिर के खिलाफ नहीं लड़ा 2010_03 www.jainelibrar.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 जिन सूत्र भाग: 2 रहे हैं। हमारी चेष्टा है कि घर मंदिर हो जाए । तो कितनी देर लगेगी उनको समझाने में? जल्दी ही वे समझ जाएंगे। और अगर तुम्हारे व्यवहार ने उन्हें प्रमाण दिया, तो दुबारा जब तुम आओगे, वे भी संन्यास लेने आ जाएंगे। रस्सी मैं उनको दूंगा । उनको क्यों...। माला यानी रस्सी ! फांसी है। तो उनको समझाना कि अगर रस्सी ही लेनी है, तो माला । जब मरने की ही तैयारी हो गयी, तो फिर संन्यास में ही मर जाओ। संन्यास की मृत्यु महाजीवन का द्वार है। मगर ध्यान रखना, अपने हृदय पर। तुम अगर स्वयं भयभीत हो और मां-बाप का सिर्फ बहाना खोज रहे हो, तो फिर अभी संन्यास मत लेना। फिर अभी आओ, ध्यान करो, जाओ। धीरे-धीरे रस को गहन होने दो। सदा अपने ही हृदय के ठीक से निरीक्षण और निदान के बाद कुछ करना। दूसरे के कारण आंदोलित और परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं है। रजकण को बिना चूमे कंचन है मिला किसको ? रजकण को बिना चूमे कंचन है मिला किसको ? कांटों में बिना घूमे मधुवन है मिला किसको ? तू देख के कुछ मुश्किल क्यों हार गया हिम्मत, देहरी को बिना लांघे आंगन है मिला किसको ? तो थोड़ी कठिनाइयां स्वाभाविक हैं। वे चुनौतियां हैं। वे न होतीं, बुरा होता। वे हैं, तो अच्छा है। उन्हीं चुनौतियों से पार होकर तो जीवन उठता है। राह पर जो पत्थर पड़े हैं, वे ही तो सीढ़ियां बन जाते हैं। पत्थरों से घबड़ाओ मत, सीढ़ियां बनाओ। अच्छा है कि मां-बाप ने एक चुनौती दी। अब इस चुनौती को समझो। इस चुनौती के योग्य अपने को बनाओ। इस चुनौती को स्वीकार करो। एक मौका मिला। एक संघर्ष हुआ । इस संघर्ष से कैसे ऊपर जाओ, इसका मार्ग खोजो। इसका कैसे अतिक्रमण हो, इसकी विधि खोजो। इससे घबड़ाकर बैठ मत जाओ। इससे घबड़ाकर डर मत जाओ । अन्यथा तुम सदा के लिए मुर्दा रह जाओगे। जीवन चुनौतियों को स्वीकार करने से आगे बढ़ता है। धन्यभागी हैं वे जिन्हें बहुत चुनौतियां मिलीं। क्योंकि उन्हीं के जीवन में निखार आया। रजकण को बिना चूमे कंचन है मिला किसको ? कांटों में बिना घूमे मधुवन है मिला किसको ? 2010_03 तू देख के कुछ मुश्किल क्यों हार गया हिम्मत, देहरी को बिना लांघे आंगन है मिला किसको ? तीसरा प्रश्न : मा योग लक्ष्मी ने कहा है कि भगवान श्री ने कुछ पुतलियां, कठपुतलियां बनायी हैं खेल के लिए। तो क्या हम लोग भगवान के हाथ की कठपुतली भर हैं? हो तो नहीं हो जाओ तो तुम्हारा बड़ा सौभाग्य! कठपुतली होना कुछ आसान बात नहीं । कठपुतली होना इस संसार में सबसे कठिन बात है। वही तो कृष्ण का पूरा उपदेश है अर्जुन को, कठपुतली हो जा। अगर गीता को एक शब्द में रखना हो, तो इतना ही कहा जा सकता है— कठपुतली हो जा। तू सिर्फ निमित्त मात्र हो जा । उपकरण मात्र। करने दे उसे जो कर रहा है। खींचने दे उसे धागे, तू नाच | उसकी मर्जी जैसा नचाये! आंगन टेढ़ा हो, तो ठीक। ठीक हो, तो ठीक, न ठीक हो तो ठीक। जैसी उसकी मर्जी । तू बीच में बाधा मत डाल । शरणागति का और अर्थ क्या है ? समर्पण का और अर्थ क्या है? समर्पण का इतना ही अर्थ है अब मैं अपनी मर्जी छोड़ता । लक्ष्मी ने ठीक ही कहा है। लेकिन होना आसान नहीं है। आमतौर से लोग सोचते हैं, कठपुतली होने में क्या रखा है, बिलकुल आसान बात है। सबसे कठिन बात अहंकार का समर्पण है! अपने को हटाकर रख देना ! अपने हृदय के मंदिर में किसी और को विराजमान कर लेना! अपने अतिरिक्त ! सिंहासन से स्वयं उतर जाना और किसी और को बैठ जाने देना सिंहासन पर ! बहुत कठिन इसीलिए तो प्रेम कठिन है। क्योंकि प्रेम में हम किसी को अपने सिंहासन पर विराजमान करते हैं । फिर प्रार्थना तो और भी कठिन है। क्योंकि प्रेम में तो हम आधा-अधूरा विराजमान करते हैं, प्रार्थना में पूरा विराजमान करते हैं । प्रार्थना में हम पूरे मिट जाते हैं। कठपुतली हो जाओ, फिर कुछ करने को नहीं बचता । आखिरी करना कर लिया। कठिन से कठिन बात जीत ली। छू लिया गौरीशंकर का शिखर । ऐसे हो जाओ जैसे नहीं हो। जहां जाये प्रभु, चलो। अपनी मर्जी अलग हटा लो। जैसे कोई नदी में बहता हो। देखा है, जिंदा आदमी कभी - कभी डूब जाता है, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meer करना है संसार होना है धर्म र मुर्दा कभी नहीं डूबता। मुर्दे को कभी डूबते देखा, मुर्दा कुछ क, ख, ग का शिक्षण है। जानता है, जो जिंदा को पता नहीं। कोई तरकीब। वह तरकीब गुरजिएफ का एक शिष्य था—बेनेट। उसने संस्मरण लिखा यह है कि मुर्दा 'नहीं' है। जिंदा डूब जाता है, मुर्दा ऊपर आ है कि गुरजिएफ ने मुझे कहा कि जाकर दरवाजे के पास बगीचे में जाता है जल पर। क्योंकि मुर्दा अब है ही नहीं, डूबे कौन? एक गड्ढा खोद। और जब तक मैं न रोकू, रुकना मत। खोदते ही डुबाओगे कैसे? जो है ही नहीं, उसे डुबाओगे कैसे? जाना। दुपहर हो गयी। बेनेट खोदता रहा, खोदता रहा पसीने से वास्तविक धर्म का जन्म, जब तुम मुर्दे की भांति हो जाते हो। लथपथ। सांझ हो गयी। गुरजिएफ का कोई पता नहीं। सोचने तुम कह देते हो परमात्मा को, अब मैं अपनी तरफ से नहीं लगा भूल गया, या किसी काम में उलझ गया, अब मैं बंद करूं चलता। डुबाये तू, तो हम डूबने को राजी। उबारे तू, तो हम कि नहीं, अब तो हाथ-पैर लड़खड़ाने लगे। अब तो कुदाली उठे उबरने को राजी। जो तू करवाये, उस पर हमारी कोई टिप्पणी ही न। और तब गुरजिएफ आया। सूरज ढल रहा था और उसने नहीं, कोई टीका नहीं; कोई शिकायत नहीं। हम तेरे हाथ की कहा कि ठीक है, अब इस गड्ढे को पूर दे। स्वभावतः मन में कठपुतली हैं। जब तक नचाये, नाचेंगे; जब नाच बंद कर देगा, सवाल उठेगा, यह क्या मूढ़तापूर्ण बात हुई! दिनभर गड्ढा तो रुक जाएंगे। खुदवाया, टूट गया शरीर पूरा, टूट-टूट भर गयी शरीर में और खशी जिसने खोजी वह धन लेके लौटा अब कहते हो, पूर दे। हंसी जिसने खोजी चमन लेके लौटा लेकिन बेनेट ने गड्ढे को पूरना शुरू कर दिया। बड़ा मगर प्यार को खोजने जो चला वह थका-मांदा है। मिट्टी उठा-उठाकर भरना, जब सूरज बिलकुल न तन लेके लौटा, न मन लेके लौटा ढलता था, तब वह गड्ढे को पूर कर निपट पाया; गुरजिएफ लौटा ही नहीं। डूब ही गया। सब खोकर लौटा। अपने को आया और उसने कहा कि ऐसा कर, वह सामने जो वृक्ष है, भी खोकर लौटा। समर्पण प्रेम की आखिरी ऊंचाई है। वह प्रेम उसको काटना है पूरे चांद की रात है, काटने में लग जा। दिनभर का सार-निचोड है। समर्पण का अर्थ है, मैं नहीं, त। का थका हुआ, अब वृक्ष काटना है! न भोजन मिला, न विश्राम वह न लेन-देन, हानि-लाभ नहीं है मिला! और बेनेट वृक्ष को काटने चला। वह वृक्ष पर चढ़ा काट भिन्न है अभिन्न, गुणा-भाग नहीं है रहा है, एक ऐसा क्षण आया कि हाथ से उसकी कुल्हाड़ी गिर क्या दिया है, क्या लिया है, यह तनिक न सोच गयी। इतना सुस्त हो गया है। और ऐसे एक वृक्ष की शाखा का प्यार सिर्फ प्यार है, हिसाब नहीं है सहारा लेकर नींद लग गयी। बस में ही न रहा। • लेकिन जिस मित्र ने पूछा है, उसे थोड़ी अड़चन हुई होगी। | गुरजिएफ आया, उसने नीचे से खड़े होकर बेनेट को सोये हुए कठपुतली! कठपुतली तो हम निंदा के स्वर में उपयोग करते हैं। | देखा, खुद चढ़ा, हिलाया, बेनेट ने आंख खोली और बेनेट ने जब हम किसी आदमी की निंदा करते हैं, तो कहते हैं, बस अपने संस्मरणों में लिखा है, ऐसी शुद्ध आंख मैंने कभी जानी ही कठपुतली है वह। किसी के हाथों की कठपुतली। उसका कोई | न थी कि मेरे पास हो सकती है। ऐसी निर्मल आंख! आंख अपना निजत्व थोड़े ही है। उसका कोई अपना बल थोड़े ही है। खुलते ही सारा जगत और मालूम पड़ा। जैसे मैं बिलकुल कठपुतली शब्द का तो हम उपयोग करते हैं, जब हम किसी को | नया-नया आया हूं, अभी-अभी अवतरित हुआ हूं। जैसे अभी अत्यंत दीन, दुर्बल, नपुंसक कहना चाहते हैं। बलशाली को | मेरा जन्म हुआ। इतनी ताजगी, और ऐसा निर्धार चित्त! थोड़े ही हम कठपुतली कहते हैं। फिर 'निर्बल के बल राम' का | पूछा बाद में उसने गुरजिएफ से कि ऐसा कैसे हुआ, तो उसने क्या अर्थ है? निर्बल के बल राम! इसका तो अर्थ इतना ही कहा, अगर तु एक बार भी इनकार करता, या तर्क उठाता, तो हआ कि जो निर्बल होने को राजी है, बस परमात्मा उसी का है। यह घड़ी न आती। जानता था, यह बिलकुल स्वाभाविक था, जो अपने को मिटाने को राजी है, वहीं तो जगह खाली होती है, | दिनभर गड्ढा खोदने के बाद फिर मिट्टी भरने के लिए कहना परमात्मा का प्रवेश होता है। गुरु के पास उसी परम समर्पण के बिलकुल व्यर्थ बात है, कठोर बात है, सारहीन है। कोई भी 115 2010_03 www.jainelibrarorg Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 SECRE SUNAMIRIKARAN पूछेगा, इसका मतलब क्या है? गड्डा किसलिए खुदवाया? | मत पूछो आगे क्या होता है! आगे की चिंता भी क्या! जो इस गुरजिएफ ने कहा इतना अगर तू पूछ लेता, तो यह घड़ी न | घड़ी हो रहा है, उसे भोगो। जो इस घड़ी मिल रहा है, उसे आती। फिर तूने गड्डा भी भर दिया। फिर तू बिलकुल पीओ। जो इस घड़ी तुम्हारे पास खड़ा है, उसे मत चूको। जो थका-मांदा था, फिर भी तूने इनकार न किया, मैंने कहा लकड़ी | नदी सामने बह रही है, झुको, डूबो, आगे क्या होता है। आगे काट, तो तूने यह न कहा, यह अब न हो सकेगा, कल सुबह | का खयाल आते ही, जो मौजूद है, उससे आंख बंद हो जाती है। करूंगा। यह तेरा जो सहज समर्पण था, यह तुझे उस जगह ले और चिंतन, चिंता, विचार, कल्पना, स्वप्न, चल पड़े तुम फिर। गया; जहां तक तेरी सामर्थ्य थी तूने किया, और जहां तेरी फिर चले दूर सत्य से। फिर छूटे वर्तमान से। फिर टूटे सत्ता से। समार्थ्य समाप्त हो गयी, वहीं तेरा अहंकार भी समाप्त हो गया। सत्ता से टूटने का उपाय है, आगे का विचार। वहीं तुझे गहरी तंद्रा आ गयी। ऐसी तंद्रा समाधि की पहली अगर थोड़ा-सा सुख मिल रहा है, उसे भोगो। तुम इस क्षण झलक है। ऐसी तंद्रा में पहली दफा आदमी को पता चलता है कि अगर सुखी रहे, तो अगला क्षण इससे ज्यादा सुखी होगा, यह समाधि जब पूरी होगी तो कैसी होगी। एक बूंद टपकती है अमृत निश्चित है। क्योंकि तुम सुखी होने की कला को थोड़ा और की, सागर का फिर हम अनुमान लगा सकते हैं। ज्यादा सीख चुके होओगे। अगर इस क्षण तुम आनंदित हो, तोतो मैं तुमसे कहता हूं: हो तो नहीं कठपुतली, हो जाओ तो अगला क्षण ज्यादा आनंदित होगा, यह निश्चित है। क्योंकि धन्यभागी हो! जिसने पूछा है, उसने तो बेचैनी से पूछा है। उसने अगला क्षण आयेगा कहां से? तुम्हारे भीतर से ही जन्मेगा। तो पूछा है, इसका क्या मतलब? क्या हम कठपुतली हैं? हो तुम्हारे आनंद में ही सराबोर जन्मेगा। अगला क्षण भी तुमसे ही सको, तो तुम्हारे जीवन में ऐसा द्वार खुल सकता है, जिसे तुम निकलेगा। अगर यह फूल गुलाब के पौधे पर सुंदर है, तो अहंकार के कारण कभी भी न खोल पाओगे। अहंकार के हटते अगला फूल और भी सुंदर होगा। पौधा तब तक और भी ही खुलता है। अहंकार ताले की तरह पड़ा है। अहंकार गिरा कि अनुभवी हो गया। और जी लिया थोड़ी देर। जीवन को और ताला गिरा। द्वार खुलता है। तुमने जितना अपने को जाना है, समझ गया। जीवन को और थोड़ा परिचित हो गया। उससे तुम बहुत बड़े हो। उससे तुम बहुत ज्यादा हो। तुम्हें तुम्हारा अगला क्षण तुमसे निकलेगा। तुम अगर अभी दुखी अपना कुछ भी पता नहीं है कि तुम कौन हो। जिस छोटे से टुकड़े हो, अगला क्षण और भी ज्यादा दुखी होगा। तुम अगर अभी को तुमने समझ रखा है यह मैं हूं, वह तो कुछ भी नहीं है। वह तो परेशान हो, अगले क्षण में परेशानी और बढ़ जायेगी, क्योंकि एक लहर है। सागर का तो तुम्हें स्मरण ही नहीं रहा है। जब तुम एक क्षण की परेशानी तुम और जोड़ लोगे। तुम्हारी परेशानी का इस लहर की पकड़ से छूट जाओगे, तो सागर में उतरोगे। संग्रह बड़ा होता जाएगा। इस क्षण की चिंता करो, बस उतना समर्पण है सागर में उतरने का सूत्र। काफी है। इस क्षण के पार मत जाओ। क्षण में जीओ। क्षण को जीओ। क्षण से दूसरा क्षण अपने-आप निकलता है, तुम्हें आखिरी प्रश्न ः सभी प्रश्न गिर गये। उत्तर की भूख नहीं, । उसकी चिंता, उसका विचार, उसका आयोजन करने की कोई प्यास नहीं, चाह नहीं। तो फिर आगे क्या करें? सुख-प्राप्ति, | जरूरत नहीं है। और अगर तुमने आयोजन किया, तो तुम यहां महासुख-प्राप्ति की एक झलक मिल जाए तो आगे क्या होता चूक जाओगे। चूक से निकलेगा अगला क्षण, महाचूक होगी | फिर। अगले क्षण तुम फिर और अगले क्षण के लिए सोचोगे, | तुम ठहरोगे कहां? तुम घर कहां बनाओगे? आज तुम कल के आगे के खयाल से मन पैदा होता है। आगे के विचार से मन लिए सोचोगे, कल जब आयेगा तो आज की भांति आयेगा, फिर पैदा होता है। वर्तमान में जीने से मन समाप्त हो जाता है। आगे तम कल के लिए सोचोगे। कल कभी आया? का विचार उठते ही मन फिर निर्मित होने लगता है। फिर चित्त जिसे तुम आज कह रहे हो, यह भी तो कल कल था। इसके तना। फिर चित्त की यात्रा शुरू हुई। लिए तुम कल सोच रहे थे, आज यह आ गया है, अब तुम फिर 116 Jair Education International 2010_03 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना है संसार, होना है धर्म आगे के लिए सोच रहे हो। यह तो दृष्टि की बड़ी गहरी भ्रांति है। हो। तब तुम चाहते हो कोई तुम्हें लूटे। तब तुम लुटने को तरसते इससे जो सामने होता है, वह तो दिखता ही नहीं और जो नहीं हो। तब तुम चाहते हो कोई आये और साझीदार हो जाए। इतना होता है, उसका हम विचार करते रहते हैं। | तुम्हें मिल रहा है कि अकेले तुम क्या करोगे? तुम उसे किसी को पूछा है, सुख-प्राप्ति, महासुख-प्राप्ति की एक झलक मिल | बांटना चाहते हो। आनंदित क्षण में आदमी फैलता है-पात्र जाए तो आगे क्या होता है? स्वभावतः एक झलक के बाद बड़ा होता है। दुख के क्षण में सिकुड़ता है। दूसरी झलक! बड़ी झलक!! मगर तुम कृपा करो, उसका तो अगर यह क्षण तुमने आनंद में न जीया, तो अगले क्षण तुम विचार मत करो, अन्यथा यही झलक चूक जाएगी। तुम महा और भी सिकुड़ जाओगे। आनंद का अभ्यास जारी रखो। झलक का हिसाब करते रहोगे, तुम महा झलक का सपना देखते आनंद को भोगते रहो, ताकि तुम और आनंद को पाने के योग्य रहोगे, और यहां बही जाती जिंदगी, हाथ से निकला जाता | होते रहो। आनंद को जितना भोगोगे, उतना ही तुम पाओगे और समय। यह झलक चूकी, तो आगे की झलक भी उपलब्ध | ज्यादा आनंद पास आने लगा। होनेवाली नहीं। इस झलक को पी लो, आत्मसात कर लो, पचा | नृत्यकार नाचता रहता है, तो और बड़े नृत्य की संभावना जाओ। फिर और बड़ी झलक होगी। जनमती रहती है। गीतकार गुनगुनाता रहता है, तो और गीत पैदा तुम जितने योग्य होते जाते हो, उतना ही परमात्मा तुम्हें देता | होते रहते हैं। जीवन तो जीने से बढ़ता है। बैठे-बैठे खोपड़ी में चला जाता है। तुम्हारी योग्यता से ज्यादा तुम्हें कभी नहीं दिया मत खोये रहो। आओ, फैलो। बड़ा जीवन है। बड़ा अवसर जा सकता। तुम्हारी योग्यता से ज्यादा दे दिया जाए, तो तुम झेल | है। यहां एक-एक क्षण को बहुमूल्य बनाया जा सकता है। न सकोगे। तुम्हारे पात्र से ज्यादा सागर तुममें कैसे ढाला जा | एक-एक क्षण हीरा हो सकता है। सकता है! तुम्हारे पात्र की सीमा ही तुम्हारी प्राप्ति की सीमा | लेकिन अधिक लोग सोये हैं। भविष्य की योजना कर रहे हैं। रहेगी। चाहे वर्षा कितनी ही हो, तुम्हारा कटोरा जितना है, उससे | सोच रहे हैं, कल क्या होगा? कल को भूलो, आज काफी है। ज्यादा उसमें कभी न भर सकेगा। कटोरे को बड़ा होने दो। और | आज पर्याप्त है। इतना मैं तुमसे जरूर कहता हूं, यह आश्वासन उसके बड़े होने का एक ही ढंग है, इस क्षण को ऐसे गहन-भाव | देता हूं कि अगर तुमने कल को भूला तो कल आयेगा, आज से से जीओ, इस क्षण को ऐसे प्रीति-भाव से जीओ, इस क्षण को | भी सुंदर फूल लायेगा। आज से भी सुंदर गीत लायेगा। क्योंकि ऐसे नाचते-उत्सव से जीओ कि उस उत्सव में तुम फैल जाओ, | आज तुम्हारे हृदय का पात्र बड़ा हो, तो इसी पात्र में तो कल की तुम्हारा पात्र बड़ा हो जाए। | वर्षा भरेगी। खयाल किया तुमने, दुख में आदमी सिकुड़ता है। सुख में | 'सभी प्रश्न गिर गये। उत्तर की भूख नहीं, प्यास नहीं, चाह आदमी फैलता है। दुख में आदमी छोटा हो जाता है। आनंद में | नहीं। तो फिर आगे क्या करें?' करने की भी कोई जरूरत है? आदमी फूल जाता है। तुमने खयाल किया, जब तुम दुखी होते, होना काफी नहीं! यह करने का पागलपन क्यों है? । तो तुम चाहते हो न कोई मिले, न कोई बात करे, तुम | इन दो शब्दों को ठीक से समझ लो—करना और होना। द्वार-दरवाजे बंद करके बिस्तर में पड़ जाना चाहते हो। जब तुम क्या करें? क्या होना काफी नहीं है! कमरे में तुम बैठे हो, बहुत दुखी होते हो, तो तुम सोचते हो, अब तो मर ही जाएं। मर | उसी अखबार को फिर पढ़ने लगते हो जिसको सुबह से तीन दफे ही जाएं का मतलब, अब तो कब्र में छिप जाएं। पढ़ चुके। क्योंकि करें क्या? रेडियो खोल लेते हो, वही खबरें लेकिन जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम द्वार-दरवाजे | जो अखबार में पढ़ चुके रेडियो से सुनने लगते हो। करें क्या? खोलकर बाहर आते हो सूरज की किरणों में, हवाओं के संसार | कुछ न कुछ करने में तुम अपने को व्यस्त रखते हो। क्या थोड़ी में। जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम किसी मित्र के पास जाते देर के लिए होना' उचित नहीं है? कुछ न करो। अखबार को | हो. किसी प्रियजन के पास बैठते हो, कोई गीत गुनगुनाते हो, | हटा दो, रेडियो बंद कर दो, शांत बैठ जाओ, कुछ देर को बस हो | कोई वीणा बजाते हो। जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम बंटते रहो। यही तो ध्यान है। 117 2010_03 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 होना ध्यान है। करना मन है। | के गुरिये सरकाते रहेंगे। कुछ करने को तो रहेगा! मन तुम्हें बैठने नहीं देता। मन कहता है, क्या कर रहे तुमने कभी खयाल नहीं किया कि माला का गुरिया कोई बैठे-बैठे? कुछ करो, उठो। होटल ही चलो। सिनेमा देख | आदमी सरकाता है, तुम सोचते हो बड़ा धार्मिक आदमी है। आओ। कोई, खोज लो कोई शिकार, उसकी खोपड़ी खाओ। तुम्हारी धारणा है। अन्यथा बड़ा मूढ़तापूर्ण कृत्य कर रहा है। कुछ करो। खाली बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? समय गंवा रहे | माला के गुरिये सरका रहा है! लेकिन उससे एक तरह की राहत हो। तो महावीर ने बारह साल खाली-खाली जंगल में खडे | मिलती है, वह जो करने का पागलपन है, व्यस्त रहता है। कछ समय गंवाया! कुछ भी किया नहीं। बारह साल में कोई भी एक तो कर रहे हैं! चलो माला की गिनती ही कर रहे हैं! ऐसी बात नहीं कि जिसको कोई अखबार छापने लायक समझे। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को नींद नहीं आती थी। उसके न कोई ‘इलेक्शन' लड़े, कोई चुनाव लड़े। बोले ही नहीं। खड़े डाक्टर ने कहा तुम ऐसा करो, भेड़ों की गिनती करो। ऐसा कई ही रहे। चुपचाप रहे। कृत्य जैसा कुछ भी बारह साल में नहीं डाक्टर लोगों को समझाते हैं-कुछ भी गिनती करने में लग घटा। महावीर के बारह साल ऐसे रिक्त हैं जैसे कि किसी और जाओ, माला फेरने जैसा काम है, कुछ भी गिनती करो; एक से के जीवन में खोजने मुश्किल हैं। उसी रिक्तता में महावीर की | सौ तक जाओ, फिर सौ से उल्टे लौटो–निन्यानबे, अट्ठानबे, महिमा है। बारह साल कुछ भी न किया। बैठे तो बैठे, खड़े तो सतानबे...ऐसा कुछ भी करते रहो। थोड़ी देर में थक मरोगे, खड़े; लेटे तो लेटे। ऐसे हो गये, जैसे व्यस्तता का जो रोग ऊब जाओगे कि यह भी क्या करना! इसी ऊब में नींद आ आदमी पर सवार होता है, वह बिलकुल समाप्त हो गया। जाएगी। ऊब में नींद बड़ी आसानी से आती है। नींद के लिए थोड़ा सोचो इस बात को, थोड़ा इसका ध्यान करो, थोड़ा ऊब बड़ी उपयोगी है। इसको भीतर रसने दो, उतरने दो, बैठने दो-बैठे हैं तो बैठे हैं; मुल्ला ने कहा, यह ठीक! उसने गिनती की। एक बज गया न कुछ करने को है, न कुछ सोचने को है। तब तुम हो। उस होने रात का, दो बज गया, तीन बज गया, लाखों करोड़ों पर पहुंच के क्षण में ही आत्मा से परिचय होता है। आत्मा यानी होना। गयी संख्या और चली जा रही है संख्या. और वह इतना उत्तेजित शुद्ध होना। मात्र होना। और तभी गहन शांति की वर्षा होती है | हो गया कि नींद कहां! फिर उसने सोचा, यह तो पूरी रात ऐसे ही और परम आनंद के वाद्य बजते हैं। अमृत के बादल बरसते हैं। बीत जाएगी, और इतनी करोड़ों भेड़ें अब इनका करना क्या? तो होने में। करना संसार है, होना धर्म है। करना बाहर है, होना | उसने सबका ऊन काटना शुरू कर दिया। अब ऊन के ढेर पर | भीतर। जैसे ही तुमने कुछ किया कि गये बाहर। ढेर लग गये। उसने कहा, अब करो क्या? कंबल बनवा मैं लोगों से कहता हूं, ध्यान कोई क्रिया नहीं है, ध्यान है डाले। फिर कोई पांच बजे के करीब जोर से चिल्लायाः अक्रिया। उनसे मैं कहता हूं, बस बैठ जाओ, कुछ न करो। वे बचाओ, बचाओ! तो पत्नी घबड़ाकर उठी, उसने कहा हुआ कहते हैं, कुछ तो बता दें, आलंबन तो चाहिए। कुछ क्या? उसने कहा, मर जाएंगे; इतने कंबल खरीदेगा कौन? । आधार-राम-राम जपें? माला फेरें? जिन लोगों ने माला व्यस्त आदमी विचारों में ही व्यस्त हो जाता है। स्वभावतः फेरना और राम नाम जपना निकाला है, उन लोगों ने कारण से ही उसकी घबड़ाहट, इतने कंबल इकट्ठे हो गये होंगे! होते ही जा | निकाला है। ये वे लोग हैं, जो बिना किये नहीं रह सकते। दुकान रहे, होते ही जा रहे, एक राशि आकाश छूने लगी होगी, तो न करेंगे, तो माला जपेंगे। अखबार न पढ़ेंगे, तो गीता पढ़ेंगे। | घबड़ाया कि मर गये, दिवाला निकल जाएगा। बिकेंगे कहां? लेकिन पढ़ेंगे! थोड़ी देर को खाली न छूटेंगे कि कुछ भी न हो; खरीदेगा कौन? इतने तो आदमी भी नहीं हैं। माला जो फेर रहा मिट जाए सारा कृत्य का संसार, खो जाए दूर, सिर्फ होना रह | है, वह भी व्यस्त हो रहा है। राम-राम, राम-राम जप रहा है, जाए। श्वास चले, हृदय धड़के, बोध रहे, बस काफी है। वे वह भी व्यस्त हो रहा है। | पूछते हैं, कुछ आलंबन दे दो। आलंबन का मतलब है, कुछ ध्यान का अर्थ है, करने से होने पर रूपांतरण। करने को करने के लिए, कुछ तो दे दो, माला ही सही! उसको ही, माला छोड़ना और होने में डूबना। 'पूछते हो आगे क्या करें?' 118 2010_03 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना है संसार, होना है धर्म । जरूरत नहीं कुछ करने की। प्रश्न सब गिर गये! पक्का भरोसा है! उत्तर की कोई भूख नहीं, चाह नहीं, पक्का भरोसा है! अगर कुछ बचे हों तो पूछ लेना, अन्यथा पीछे सतायेंगे वे। अन्यथा उठ-उठकर खड़े होंगे। जल्दी मत करो। खोज लो ठीक से। अगर सच में ही खतम हो गये, तो शुभ घड़ी आ गयी। सौभाग्य की घड़ी आ गयी। संबोधि का क्षण करीब आने लगा। अब करने की फिकर छोड़ो, अब तो जितनी देर होने में बीत जाए उतना ही शुभ है। अब तो जब मौका मिले, तब बैठे रहो। ठीक है, जब जरूरत हो, दुकान चलानी है, बच्चे पालने हैं, उतना कर दो। लेकिन वह भी ऐसे करो कि भीतर तो न करना ही बना रहे। वह भी ऐसे करो जैसे जल में कमलवत। कर लिया, चल पड़े। कर आये, हो गया। मगर इसको बोझ मत बनाओ, चिंता मत बनाओ। जब मौका मिले, जहां मौका मिले—कार में बैठे हो, बस में बैठे हो, ट्रेन में बैठे हो-खाली रहो। भीतर कुछ भी न करो। इस मंदिर को अब खाली होने दो। जन्मों-जन्मों तक भरा रखा, भरने से सिर्फ कूड़ा-कर्कट इकट्ठा हुआ। अब सिर्फ खाली रखो, उस खालीपन में ही शुद्धता है। उस खालीपन को ही महावीर ने शुद्धि कहा है। न शुभ से भरो, न अशुभ से भरो, अब तो सब हटा दो। खाली करो। शुद्ध आकाश रह जाए। निर्मल आकाश रह जाए भीतर, जिसमें कृत्य की कोई रेखा भी न हो। कोरा कागज रह जाए। यही ध्यान है। _और इसी ध्यान से रोज-रोज अमृत घना होगा। इसी ध्यान से मेज-रोज समाधि सघन होगी। इसी ध्यान से रोज-रोज परमात्मा पास, और पास आता चला जाएगा। एक दिन तुम अचानक पाओगे, तुम तो नहीं रहे, परमात्मा ही शेष रहा। आज इतना ही। 1191 2010_03 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_038 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J सातवां प्रवचन ध्यान का दीप जला लो! 2010 03 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANS सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारूद-सुरूवहि-मंदरिदु-मणी। खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू।।९६।। 4R बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए। संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम ! मा पमायए।।९७।। ण ह जिणे अज्ज दिस्सई, बहमए दिस्सई मग्गदेसिए। संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए।।९८।। भावो हि पढमलिंगं, ण दव्वलिंगं च जाण परम त्थं। भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा बिंति।।९९।। APER भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स।।१००।। MARRIA देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पमि रओ, स भावलिंगी हवे साहू।।१०१।। AMA c . 5 . 3 CON। 2010_03 www.jaineelibrary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के सूत्र अत्यंत मौलिक और क्रांतिकारी हैं। बड़ा अकेला विचरता है। सिंह किसी संगठन का हिस्सा नहीं होता। ना साहस चाहिए ऐसे सत्रों को अभिव्यक्ति देने के सिंह किसी संप्रदाय में नहीं बंधता। सिंह मुक्त विचरता है। न लिए। महावीर ही ऐसे सूत्र दे सकते हैं। कोई शास्त्र, न कोई संप्रदाय, न कोई परंपरा, तब कहीं पहला सूत्र है: 'सिंह-सा पराक्रमी, हाथी-सा स्वाभिमानी, सिंह-जैसा चित्त पैदा होता है। अपने ही पैरों पर, अपने ही बल, वृषभ-सा भद्र, मृग-सा सरल, पशु-सा निरीह, वायु-सा और अकेला। नितांत अकेला। महावीर बारह वर्षों तक सिंह की निसंग, सूर्य-सा तेजस्वी, सागर-सा गंभीर, मेरु-सा निश्चल, | तरह विचरे। अकेले। न किसी से बोलते, न किसी को चंद्रमा-सा शीतल, मणि-सा कांतिवान, पृथ्वी-सा सहिष्णु, संगी-साथी बनाते, न किसी के संगी-साथी होते। वनों में, सर्प-सा अनियत-आश्रयी तथा आकाश-सा निरालंब साधु ही | पहाड़ों में, महावीर की वह मौन गर्जना सिंहनाद थी। परमपद मोक्ष की यात्रा पर है।' "सिंह की तरह पराक्रमी...।' सब कुछ लगा देना होगा। एक-एक प्रतीक को ठीक से समझ लेना जरूरी है। दांव पर अगर कुछ भी लगाने से बचा लिया, तो चूक जाओगे। 'सिंह-सा पराक्रमी...।' थोड़ा-सा सोचा कि बचा लें, थोड़ा अधूरा दांव पर लगाया, तो महावीर का मार्ग आत्यंतिक संकल्प का मार्ग है। महावीर का चक जाओगे। महावीर के मार्ग पर तो जुआरी का काम है, मार्ग समर्पण का नहीं, संकल्प का है। महावीर के मार्ग पर कोई दुकानदार का नहीं। और दुर्भाग्य कि सब दुकानदार महावीर के सहारा नहीं खोजना है। सब सहारे छोड़ देने हैं। बेसहारा हो मार्ग पर हैं। महावीर का धर्म ही दुकानदार का हो गया। महावीर जाना है। सहारे में भय है। बेसहारा हो जाने में अभय है। का माननेवाला दुकानदारी के सिवाय और कुछ करता ही नहीं। महावीर का मार्ग भक्ति के ठीक विपरीत है। दोनों मार्ग से यह भी अकारण नहीं घटता। लोग पहुंच जाते हैं। दोनों मार्ग सही हैं। लेकिन महावीर के मार्ग | इसके पीछे भी बड़े मनोवैज्ञानिक कारण हैं। विपरीत का को ठीक से समझना हो, तो भक्ति के विपरीत रखकर ही समझ आकर्षण। दुकानदार सदा ही जुआरी से प्रभावित होता है। जो पाओगे। महावीर के मार्ग पर न भगवान की कोई जगह है, न हिम्मत वह नहीं कर सकता, जुआरी कर लेता है। तो भला खुद भक्ति की कोई जगह है। न पूजा की, न अर्चना की, न प्रार्थना | जुआरी न बने, लेकिन जुआरी के प्रति मन में प्रशंसा होती है। की। शरणागति का कोई स्थान नहीं है। महावीर ने कहा है, कमजोर हमेशा बहादुर से प्रभावित होता है। खुद बहादुर नहीं है, अशरण हो जाओ। कोई शरण मत गहो। इसीलिए प्रभावित होता है। जो अपने में नहीं है, वह दूसरे में 'सिंह-सा पराक्रमी...।' सिंह अकेला विचरता है। सिंहों के दिखायी पड़ता है। तो कमजोर हमेशा बहादुर की पूजा करता है। नहीं लेहड़े, साधु चलें न जमात। सिंह की भीड़ नहीं होती। | विपरीत का बड़ा आकर्षण है। स्वभावतः निर्धन आदमी धनी की 125 2010_03 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAEENINEERNA । जिन सूत्र भाग : 2 A Mahen तरफ आंखें उठाकर देखता है। और झोपड़ेवालों के मन में और गुस्सा आता है, तो पत्नी को पीट देता है। पत्नी को गुस्सा आता सपनों में महलों के चित्र उभरते हैं। बुद्धिहीन बुद्धिमान की पूजा है, तो खुद को पीट लेती है। यह तो देखा? यही तो पूरा का पूरा करता है। कुरूप सुंदर की पूजा करता है। पुरुष स्त्री में आकर्षित | सार-सूत्र है गांधीवाद का। खुद को ही मार लेती है। पुरुष को होता है, स्त्री पुरुष में आकर्षित होती है। यह सब विपरीत का गुस्सा आता है तो किसी की हत्या कर देता है। स्त्री को गुस्सा आकर्षण है। जो मैं नहीं हूं, वह आकर्षक लगता है। जो मैं हूं, आता है तो आत्महत्या करने का विचार करने लगती है। अपने उसमें कोई आकर्षण नहीं रह जाता। | को ही नष्ट कर देने का खयाल आता है कमजोर को। दूसरे को महावीर तो सिंह की तरह पराक्रमी थे। लेकिन कमजोर, नष्ट करना तो कठिन। अपने को नष्ट कर लेना आसान है। काहिल, भय से भरे भीरु लोग पीछे हो लिये। उन्होंने महावीर के और अपने को नष्ट करना इस ढंग से किया जा सकता है कि मार्ग को भ्रष्ट कर दिया। महावीर का मार्ग ही वैश्यों, वणिकों का उसमें भी साहस मालूम पड़े। हो गया। वह मूलतः क्षत्रिय का मार्ग है। महावीर की अहिंसा तो सिंह के पराक्रम से पैदा हुई है। अहिंसक होने के लिए क्षत्रिय होना बुनियादी शर्त है। जो अभी क्षत्रिय-पुत्र थे, राजकुमार थे। और कुछ सीखा ही न था, एक ही हिंसक ही नहीं हुआ, वह अहिंसक कैसे हो सकेगा? जिसने कुशलता थी। तो जब उन्होंने त्यागी हिंसा, तो कुछ भी छिपाने अभी तलवार नहीं उठायी, तलवार रखेगा कैसे? रख तो वही को नहीं त्याग था। हिंसा गिर गयी। जानकर गिर गयी। व्यर्थ हो सकोगे, जो उठाया हो। जिसने किसी के ऊपर आक्रमण ही नहीं | गयी, इसलिए गिर गयी। हिंसा को ठीक से पहचाना और किया, वह आक्रमण का त्याग कैसे करेगा? तो देखो जैनों के सिवाय जहर के कुछ भी न पाया। चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय-पुत्र हैं। और सब जैन वणिक हैं। महावीर की अहिंसा में हिंसा का अभाव है। गांधी की अहिंसा उनके चौबीस ही तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, तो संयोग नहीं हो सकता। में हिंसा का छिपाव है। ऊपर से देखने पर दोनों एक से मालूम एकाध क्षत्रिय होता, संयोग मान लेते। चौबीस-के-चौबीस पड़ते हैं। लेकिन दोनों में बड़े मौलिक भेद हैं। क्षत्रिय हैं, तो अहिंसक होने के लिए क्षत्रिय होना जैसे बुनियादी । 'सिंह-सा पराक्रमी...।' अब सिंह तो हिंसक है, खयाल शर्त है। हम वही त्याग सकते हैं, जो हमारे पास हो। भिखमंगा किया? सिंह तो क्षत्रिय है। लेकिन पराक्रम सीखना हो तो सिंह अगर कहे कि मैंने त्याग दिया सब, तो क्या अर्थ है ? था क्या, से ही सीखना पड़े। अगर पराक्रम सीखना हो, तो क्षत्रिय से ही जो त्याग दिया? त्याग के पहले होना चाहिए। सीखना पड़े। और महावीर कहते हैं, अहिंसा तो और भी बड़ा क्षत्रिय घरों में पैदा हुए महावीर, ऋषभ, नेमि। हिंसा में उनका पराक्रम है। हिंसा से भी बड़ा पराक्रम है अहिंसा। तुम अहिंसा पोषण हुआ। हिंसा की कला ही सीखी। हिंसा के अतिरिक्त को अपनी कायरता को छिपाने के लिए आड़ मत बना लेना।। और कुछ जानते नहीं थे। उसी हिंसा के प्रगाढ़ अनुभव से अकसर लोग अहिंसक होते हैं और उनका भीतरी तर्क यह अहिंसा का जन्म हुआ। हिंसा की आग में जले और पाया कि होता है कि न हम किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा। वस्तुतः हिंसा करने योग्य नहीं। हिंसा में रहकर पाया कि हिंसा त्याज्य इरादा तो यह होता है, कोई हमें न मारे। तो वे कहते हैं, हम तो है। और तब एक अहिंसा का जन्म हुआ। अहिंसक हैं। हम किसी को मारने में भरोसा नहीं करते। वे यह इसलिए मैं कहता हूं गांधी और महावीर की अहिंसा में फर्क कह रहे हैं कि हम पर कृपा करना, मारना मत। हम तुम्हें नहीं है। गांधी की अहिंसा बनिये की अहिंसा है। महावीर की अहिंसा मारते, तुम हमें मत मारना। हम तुम्हें जीने देते हैं, तुम हमें जीने क्षत्रिय की अहिंसा है। और वहीं बुनियादी भेद है। महावीर की दो। यह तो हिंसा से भी नीचे हुई बात अहिंसा कमजोरी से पैदा नहीं हुई, गांधी की अहिंसा कमजोरी से | कूटनीति हुई, राजनीति हुई। पैदा हुई। कोई और उपाय न था गांधी को। अहिंसक होने में गांधी की अहिंसा राजनीति है। महावीर की अहिंसा धर्म का कमजोरी छिपा लेने की सुविधा मिल गई। गांधी की अहिंसा ज्वलंततम रूप है। महावीर यह नहीं कहते कि मुझे मत मारो। स्त्रैण है। स्त्रियां सदा से ही यही करती रही हैं। अगर पुरुष को महावीर कहते हैं, मुझे मारना हो, तुम्हारी मौज। तुम्हारी 126 2010_03 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ha.. ध्यान का दीप जला लो। नासमझी। लेकिन मैंने यह अनुभव किया है कि मारने में कुछ | कहते हैं, लाओत्सू अपने एक मित्र के साथ एक पहाड़ से गुजर सार नहीं. इसलिए मैं नहीं मारता है। यह दस्साहस है। अपने रहा था। सबह हई, सरज ऊगा, पक्षियों के गीत गूंजने को असुरक्षा में छोड़ देने से बड़ा और कोई दुस्साहस नहीं। लगे-बड़ी सुहावनी सुबह थी, बड़ी प्यारी सुबह थी। मित्र ने 'हाथी-सा स्वाभिमानी...।' हाथी में एक स्वाभिमान है। | कहा, बड़ी सुंदर सुबह है। लाओत्सू ने कहा, इनकार कौन कर इसीलिए तो हाथी सम्राटों के लिए प्रतीक बन गया। हाथी की रहा है? मित्र ने कहा, बड़ी सुहावनी सुबह है। लाओत्सू ने बड़े सवारी श्रेष्ठतम सवारी बन गयी। लेकिन एक खयाल रखना, चौंककर देखा और कहा, इनकार कौन कर रहा है? कहने की हाथी में स्वाभिमान है, अहंकार नहीं। अपने बल पर भरोसा है, जरूरत कहां है ? लेकिन अपने बल की कोई घोषणा नहीं। वहीं हाथी सिंह से भिन्न | जो है, है। उसकी घोषणा की जरूरत नहीं। जो नहीं है, उसकी है। सिंह में अहंकार है। | घोषणा करनी पड़ती है। शायद मित्र को संदेह रहा होगा! है या बड़ी पुरानी प्रसिद्ध कथा है ईसप की कि एक सिंह जंगल में नहीं? उसी संदेह में पूछा है। शायद लाओत्सू भी हां भर दे, तो गया। उसने पूछा एक सियार से कि जंगल का राजा कौन? | भरोसा आ जाए। हम दूसरों से पूछते फिरते हैं-मैं सुंदर हूं? मैं सियार ने कहा, आप हैं महानुभाव! आपके अतिरिक्त और कौन बुद्धिमान हूं? मैं त्यागी हूं? दूसरों से पूछते हो! तुम्हें खुद ही राजा है? आप महाराजा हैं, सम्राट हैं। लोमड़ी से पूछा। भरोसा नहीं। और हम दूसरों को समझाते हैं कि मैं त्यागी हूं। खरगोश से पूछा। चीते से पूछा। सबने कहा, आप ही सम्राट जब दूसरे को भरोसा आ जाता है, तो हमें भरोसा आता है। हैं; कैसी बात पूछते हैं? मुल्ला नसरुद्दीन एक मकान बेचना चाहता था। एक एजेंट को फिर हाथी के पास आया। हाथी से पूछा कि इस जंगल का बुलाया। नदी के किनारे एकांत में बना उसका मकान है। सम्राट कौन है? हाथी ने अपनी सूंड में सिंह को फंसाया और कभी-कभी गर्मी के दिनों में वहां रुकता था। कहा, इसे बेच देना कोई पचास फीट दूर फेंक दिया। सिंह नीचे गिरा, झाड़-झूड़कर है। एजेंट ने विज्ञापन दिया पत्रों में। दूसरे दिन सुबह जब मुल्ला धल फिर वापिस आया और कहा कि अगर तुम्हें उत्तर मालूम | ने विज्ञापन पढ़ा, तो बड़ा चकित हो गया। सुंदर नदी का वर्णन नहीं, तो नाराज होने की क्या बात है! था। उस दृश्य का जो मकान को घेरे हुए है। मकान की ऐसी लेकिन हाथी की कोई घोषणा नहीं है। सिंह की घोषणा है। महिमा का बखान था कि उसने कहा अरे, इसी मकान की तो मैं हाथी चपचाप है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग अपने जीवनभर से तलाश कर रहा है। उसने फोन किया एजेंट को कि अहंकार की घोषणा करते हैं, उनमें हीनभाव होता है। बेचना नहीं है। भूलकर नहीं बेचना है-एजेंट ने पूछा, इतनी 'इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स' होती है। इसीलिए घोषणा करते जल्दी आप बदल गये? कल...कल ही तो आपने बेचने के हैं। जो व्यक्ति वस्तुतः अपने से तृप्त है, वह अपने अहंकार की लिए कहा था। बदलाहट का कारण क्या है? मुल्ला ने कहा, घोषणा नहीं करता, घोषणा का प्रयोजन क्या है ? किसके सामने तुमने जो विज्ञापन दिया है, उसने मुझे भरोसा दिला दिया। इसी सिद्ध करना है? सिद्ध तो तभी करना होता है जब भीतर लगता | मकान की तो मैं जिंदगीभर से खोज कर रहा हूं। मुझे अब तक है कि हूं नहीं। तो प्रमाण जुटाने पड़ते हैं। सिद्ध करना पड़ता है। पता ही न था। जब तुम्हें भीतर पता ही है तो तुम घोषणा नहीं करते। जिसका जब तक हम दूसरे से भरोसा न पा लें, तब तक हमें भरोसा तुम्हें पता है, अनुभव है, उसकी तुम घोषणा नहीं करते। नहीं आता। और ऐसा भरोसा दो कौड़ी का है, जो दूसरे के कोई पुरुष अगर बीच बाजार में खड़ा होकर चिल्लाने लगे कि कारण मिलता है, हाथी को देखा? सिंह को देखा? सिंह में एक मैं पुरुष हूं और प्रमाण दे सकता हूं, तो लोगों को संदेह हो अकड़ है। प्रगट अकड़ है। चलता है तो, उठता है तो, बैठता है जाएगा। इसके पुरुष होने में शंका है। पुरुष हो तो हो। घोषणा तो, घोषणा है। हाथी में कोई घोषणा नहीं है। इसीलिए तो कहते की कोई जरूरत नहीं है। किसे कहने जाना है? किसको हैं, हाथी चलता जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं। वह इनकार भी समझाना है! कौन पूछ रहा है! नहीं करता, कि तुम क्यों भौंक रहे हो? वह नाराज भी नहीं 127 2010_03 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 होता। वह जानता है, कुत्ते हैं, भौंकेंगे। चुपचाप अपनी मंथरगति | जिसका अभ्यास नहीं किया गया। स्वाभाविक। तुम अभ्यास से चलता है। महावीर कहते हैं, हाथी-सा स्वाभिमान। । कर सकते हो। __ 'वृषभ-सा भद्र....।' बैल से ज्यादा भद्र कोई प्राणी नहीं। हम सबने बहत-सी बातों के अभ्यास किये हैं। आस्कर वाइल्ड ने कहीं लिखा है कि अगर बैलों को पता चल | राह पर कोई मिल जाता है तो मुस्कुराते हो, चाहे भीतर आंसू जाए कि उनकी शक्ति कितनी है, तो वे मनुष्य-जाति को घुमड़ रहे हों, चाहे भीतर दुख के बादल घिरे हों। चाहे भीतर उखाड़कर फेंक दें। लेकिन बैलों के बल पर ही मनुष्य-जाति | प्राणों को कौंधनेवाली पीड़ा चौंक रही हो। चाहे रो-रोआं रोना फलती-फूलती रही है। इसीलिए तो हिंदू गाय की पूजा करते हैं। चाहता हो, लेकिन राह पर कोई मिल गया है, तो तुम मुस्कुराते उसी से खेती है, उसी से दूध है, उसी से ईंधन है, उसी से खाद | हो। अभ्यास कर लिया। ओंठों का अभ्यास। मुस्कुराहट आती है। और वृषभ गाड़ियां खींचता, बोझ ढोता, कोल्हू चलाता। नहीं हृदय से। आयेगी कैसे? लेकिन ओंठों को फैला लेने का | मनुष्य-जाति का पूरा का पूरा अब तक का इतिहास, सौ वर्ष अभ्यास तुमने कर लिया है-वह कोई कठिन नहीं है। ओंठों पहले तक जब तक कि मशीनों का ईजाद न हुआ था और बैल | को फैला लेने से भ्रांति पैदा होती है कि मुस्कुराये। यह कैसी की जगह यंत्रों ने न ली थी, मनुष्य ने जो भी सभ्यता खड़ी की थी, मुस्कुराहट! जिसकी जड़ें हृदय तक न गयी हों, वह मुस्कुराहट वह बैलों के कंधों पर है। अगर बैल को हटा लो, आदमी की | झूठी है। आरोपित है। सरल मुस्कुराहट तो छोटे बच्चे में सारी सभ्यता गिर जाती है। आज भी मनुष्य-जाति का बड़ा मिलेगी। जिसने अभी दांव-पेंच नहीं सीखे। हिस्सा बैलों के सहारे ही जी रहा है। इसलिए महावीर कह रहे हैं कि दांव-पेंच भूलो तो सरल 'वृषभ-सा भद्र...।' बैल की भद्रता बड़ी अदभुत है। उसने | होओगे। और तुम्हारा जो साधु है, वह तुमसे भी ज्यादा दांव-पेंच कोई बगावत नहीं की कभी। उसने कोई क्रांति नहीं की। वह में है। उसको सरल कहना असंभव है। और सरल ही साधु है। चुपचाप सेवा करता रहा है। उसका व्यवहार बड़ा सज्जनोचित | सीधा, छोटे बच्चे-जैसा। स्वभाव से जो जी रहा है, वही साधु है। महावीर कहते हैं, वृषभ-सा भद्र। है। अगर तुम अभ्यास करो, तो उपवास का अभ्यास हो सकता 'मृग-सा सरल...।' मृग की आंखों में कभी झांकना। वैसी | है। तुम अभ्यास करो, तो रात जागते रह सकते हो। तुम सरल आंखें फिर और कहीं नहीं हैं। ऐसा भरोसा, ऐसी श्रद्धा | अभ्यास करो, तो धूप में खड़े रह सकते हो, कांटों पर सो सकते जैसी मृग की आंखों में है, फिर और कहीं नहीं है। इसीलिए तो | हो। लेकिन इसमें सरलता नहीं होगी। इस सब के पीछे अभ्यास किसी अति सरल क्वांरी स्त्री की आंखों को हम मृगनयनी, | होगा। तुम साधु नहीं बन रहे, तुम किसी सर्कस के योग्य बन रहे मृगनयन, कहते हैं। जिसने कभी कुछ पाप नहीं जाना है। पाप हो। साधु का लक्षण महावीर कहते हैं, मृग-सा सरल, सहज। की रेखा जिसकी आंख पर नहीं है। मृग जैसी कोरी, क्वांरी | इसी को कबीर ने कहा है-'साधो, सहज समाधि भली।' आंखें। भरोसा ही भरोसा। एक तो समाधि है, जो चेष्टा कर-कर के लायी जाती है। और महावीर कहते हैं, मृग-सा सरल। खयाल रखना, महावीर के एक समाधि है जो सब चेष्टा छोड़ देने से आती है। हो रहो छोटे प्रतीक सोचने जैसे हैं। पशुओं से प्रतीक ले रहे हैं महावीर। | बच्चे की भांति। जो भीतर हो, वही बाहर हो। चाहे कुछ भी आदमी सरल भी होता है तो उसकी सरलता में जटिलता होती | कीमत चुकानी पड़े। चाहे कोई भी मूल्य मांगा जाए, लेकिन जो है। सरलता में भी पाखंड होता है। सरलता में भी दिखावा होता| भीतर हो, वही बाहर हो। भीतर और बाहर में भेद न हो. द्वंद्व न है, प्रदर्शन होता है। सरलता में भी दांव-पेंच होते हैं। तुम | हो। बाहर भीतर की छाती पर न चढ़े। बाहर भीतर की ही खबर जिसको साधु कहते हो, उसको महावीर साध नहीं कहेंगे।। हो। बाहर भीतर का ही स्वर गूंजे। बाहर भीतर की ही तरंगें | क्योंकि वह मग-सा सरल नहीं है। उसकी सरलता बडी चेष्टित | आयें। जो भीतर है. वही बाहर हो। तब तो कोई सरल होता है।। है, बड़ी अभ्यासजन्य है। साधी गयी है। महावीर कहते हैं, लेकिन वैसी सरलता तथाकथित साधुओं में नहीं पायी जाती। अनसाधी सरलता। मृग-सी सरलता का अर्थ है-अनसाधी। इधर मेरे अनुभव ये हैं—पश्चिम से लोग आते हैं, वे पूरब के 128 2010_03 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगों से ज्यादा सरल हैं। होना नहीं चाहिए था ऐसा। क्योंकि पूरब के लोगों को खयाल है, हम धार्मिक हैं। लेकिन पूरब का आदमी बड़ा जटिल है। पश्चिम से आदमी आता है तो वह सरल है। उसकी सरलता, पशुओं जैसी सरल है। तुम्हारा साधु कहेगा, यह तो पशु - व्यवहार है। महावीर से पूछो, उसकी | सरलता बच्चों-जैसी है। तुम पश्चिम के आदमी को सुविधा से लूट सकते हो। पूरब के आदमी को लूटना इतना आसान नहीं | इसके पहले कि तुम उसकी जेब काटो, उसका हाथ तुम्हारी जेब में पहुंच जाएगा। पूरब का आदमी जो प्रश्न भी पूछता है, वे भी जटिल हैं। सरल नहीं हैं। उसके प्रश्नों में भी दांव-पेंच है, शास्त्र है, परंपरा है। सीधे हृदय के प्रश्न नहीं हैं। पश्चिम से आदमी आता है, सीधे प्रश्न पूछता है – और पश्चिम भौतिकवादी है। और पूरब अध्यात्मवादी है— लेकिन इस अध्यात्मवाद ने सरल नहीं बनाया, इसने और जटिल बना | दिया । जटिलता बड़े रूप ले लेती है। और ऐसे सूक्ष्म रूप ले लेती है कि तुम्हें पता भी न चले। फिर ऐसा भी मेरा अनुभव है कि जब साधु मुझसे मिलने आते हैं, तो उनसे मैं सामान्य गृहस्थ को ज्यादा सरल पाता हूं। साधु तो बड़ा जटिल मालूम होता है। कभी-कभी साधु मुझसे मिलने आते हैं। तो पहले उनके श्रावक आते हैं, वे कहते हैं महाराज जी को बिठाइयेगा कहां ? तुमको क्या फिकिर ! आने दो उनको, मेरे | और उनके बीच में निपटारा कर लेंगे। कहां बिठाना, कहां नहीं | बिठाना! लेकिन वे कहते हैं कि नहीं, महाराज जी ने ही पुछवाया है; बैठेंगे कहां वह ? अगर जैन मुनि को हाथ जोड़कर नमस्कार भी करो, तो वह नमस्कार का उत्तर नहीं देता। क्योंकि वह हाथ जोड़ नहीं सकता किसी को । यह तो खूब साधुता हुई। यह तो खूब सरलता हुई ! यह तो बड़ी जटिलता हो गयी । श्रावक को कैसे वह हाथ जोड़े ? असंभव । एक महासम्मेलन हुआ, कोई तीन सौ साधु सारे देश से निमंत्रित थे। आयोजकों ने बड़ी मंच बनायी थी कि तीन सौ साधु साथ बैठ सकें। पर यह हो न सका। एक-एक को बैठकर ही प्रवचन देना पड़ा। क्योंकि कोई दूसरे के साथ बैठने को राजी न था। शंकराचार्य अपने सिंहासन पर ही बैठना चाहते थे । जब | शंकराचार्य सिंहासन पर बैठें, तो दूसरे लोग हैं, वे भी नीचे नहीं 2010_03 ध्यान का दीप जला लो! बैठ सकते, उनको भी सिंहासन चाहिए। यह भी हो सकता है कि सबको साथ बिठा दो, लेकिन तब शंकराचार्य बैठने को राजी नहीं । क्योंकि उनको ऊपर ही होना चाहिए। वह किसी के नीचे बैठना तो दूर, किसी के साथ बैठने को भी राजी नहीं। जो ये लोग, जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं ! ये लोग, कहते हैं कि हम आत्मा हैं, मन नहीं! ये नीचे नहीं बैठ सकते। ये साथ नहीं बैठ सकते। बड़ी जटिलता है ! महावीर के शब्द याद रखना - 'मृग-सा सरल।' 'पशु-सा निरीह...।' पशु में एक निरीहता है। एक हेल्पलेसनेस । असहाय अवस्था है पशु की । साधु ऐसा ही असहाय होगा इस विराट संसार के उपद्रव में। अपने किए कुछ होता नहीं मालूम पड़ता । जो करते हैं वही गलत हो जाता है। जीवन में इतनी इतनी सूक्ष्म उलझाव की गलियां हैं कि भटक भटक जाते हैं। 'पशु-सा निरीह... ।' महावीर ने पशु को बड़ा सम्मान दे दिया । ये सारे प्रतीक पशुओं से ले लिये। मैं भी तुमसे कहता हूं कि पशुओं से बहुत कुछ सीखने को है । और जो मनुष्य पशु जैसा सरल न हो सके, वह छोड़ दे खयाल परमात्मा - जैसे सरल होने का । पशु-जैसी सरलता परमात्मा - जैसे सरल होने का पहला चरण है। पशु जैसी सरलता, निरीहता, असहाय अवस्था बड़ी बहुमूल्य है । सभ्यता बड़ी खतरनाक है । सभ्यता ने मनुष्य को मारा। सभ्यता महारोग है। इससे तो पशु बेहतर। आमतौर से तो हम पशुओं का उपयोग तभी करते हैं, जब हमें आदमी की निंदा करनी होती है। महावीर उपयोग कर रहे हैं प्रशंसा के लिए। थोड़ा फर्क समझना। अगर किसी आदमी की हमें निंदा करनी होती है, तो हम कहते हैं, क्या पशु-जैसा व्यवहार कर रहे हो, आदमी बनो! महावीर कह रहे हैं, क्या आदमी - जैसा व्यवहार कर रहे हो, पशु बनो। इसलिए मैं कहता हूं, ये सूत्र बड़े क्रांतिकारी हैं। और महावीर ठीक हैं, सौ प्रतिशत ठीक हैं । आदमी पशु से भी गया- बीता है। आदमी जैसा पशुता से भरा है, ऐसी पशुता से भरा कोई भी पशु नहीं है। सिंह भी शिकार करता है, हिंसा करता है, लेकिन भोजन के लिए। खिलवाड़ के लिए नहीं । मैंने सुना है, एक कहानी है कि एक सिंह और एक खरगोश 129 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 जिन सूत्र भाग: 2 1 एक होटल में गये। खरगोश ने बैरा को आवाज दी और कहा कि नाश्ता ले आओ। बैरा ने पूछा कि और आपके साथी, यह क्या लेंगे? खरगोश ने कहा उनकी छोड़ो, अगर वह भूखे होते तो तुम सोचते हो मैं यहां बैठता ! नाश्ता उन्होंने कर लिया होता; मगर वे भरे - पेट हैं सिंह भरा - पेट हो तो हमला नहीं करता। आदमी भरे पेट हमला करता है। लोग जंगल में शिकार करने जाते हैं, उनसे पूछो, किसलिए? आखेट ! खेल !! क्रीड़ा !!! मारने का खेल ! सिंह की बात तो समझ में आ जाती है कि भूखा है, इसलिए हमला करता है। तुम भरे पेट, किसलिए हमला करने जाते हो? तुम कहते हो, खेलने का मजा ले रहे हैं। कभी खयाल किया, अगर शिकारी पर शेर हमला कर दे तो हम खेल नहीं कहते। और शिकारी बंदूकें लेकर सिंहों को छेदता रहे, तो हम खेल कहते हैं। और पतन की कोई सीमा होगी ! शिकारी अपने घर में सिंहों के सिर लटका कर रखता है दिखाने को कि कितने सिंह उसने मार डाले हैं। खेल में ! राजा-महाराजाओं के महलों में कभी-कभी मुझे जाने को मौका मिला -- कभी कोई राजा-महाराजा निमंत्रित कर लिया, तो वे दिखाते हैं ले जाकर कि उनके पिता ने कितने सिंह मारे। मैं चकित होता हूं, सिंह तुम्हारे पिता को मार डालता तो कुछ बहुत आश्चर्य की बात न थी, लेकिन तुम्हारे पिता ने इतने सिंह किसलिए मारे ? दिखावे के लिए। और मारे ऐसे साधनों से, जो | सिंह के पास नहीं हैं । यह कोई खेल हुआ ! बंदूक सिंह के हाथ | में नहीं है, तलवार सिंह के हाथ में नहीं है; अगर मारना ही था, बहादुरी ही सिद्ध करनी थी, तो नंगे हाथ सिंह से लड़े होते । कम से कम उतनी सुविधा सिंह को भी तो दो ! खेल का इतना तो नियम मानो, अगर यह खेल ही है- चलो खेल ही सही । तो एक आदमी नंगा खड़ा है, हाथ में लकड़ी भी नहीं, बचाव का कोई उपाय भी नहीं है, और तुम बंदूक लिए खड़े हो । और खेल खेल रहे हो! उसको भी तो इतनी ही सुविधा दो। फिर खेल हो कम से कम खेल में दोनों के साथ पक्षपात तो नहीं होना चाहिए किसी के साथ। दोनों समतुल हों। और फिर बहादुरी बता रहे हो ? बंदूकें लेकर, वृक्षों पर मचानें बांधकर, हजारों आदमियों का जत्था लेकर एक गरीब सिंह को घेर लिया और मार डाला। एक महाराजा मुझे अपने महल में ले गये। मैंने उनसे कहा, ! 2010_03 तुम्हारे बाप पागल थे? क्या हुआ था ? वह कहने लगे, पागल नहीं, बड़े शिकारी थे। मैंने कहा, मुझे तो लगता है पागल थे। इन गरीब सिंहों ने बिगाड़ा क्या था उनका ? और उन्होंने किया क्या मारकर ? यह प्रदर्शन लगा रखा है ! और जो मारा जिस ढंग से, वह ढंग बिलकुल गैर-जायज है । जाते, लड़ लेते, हाथ से खुली लड़ाई हो जाती, फिर एकाध सिंह को मार लाते, तो सोचते भी कि कोई बात हुई। कि लेकिन, आदमी अन्याय करता है। और सोचता है अपने को आदमी ! पशुओं के जगत में कोई अन्याय नहीं। अगर भूख लगती है, तो सिंह हमला करता है, क्योंकि वही प्रकृति ने उसे भोजन का उपाय दिया। लेकिन भूख न हो, तो हमला नहीं करता । तुम आदमी की जब निंदा करना चाहते हो, तो उससे कहते हो, पशु मत बनो। महावीर कह रहे हैं, पहले पशु बनो! परमात्मा बनना तो बहुत दूर है। तुम आदमी बन गये हो । आदमी यानी झूठ। आदमी यानी पाखंड। सभ्यता यानी ऊपर से थोपा गया जबर्दस्ती का आरोपण । भीतर आग जल रही है, ऊपर फूल चिपकाये हुए हैं। भीतर जहर फैल रहा है, ऊपर अमृत की चर्चा हो रही है। भीतर कुछ है, बाहर कुछ। पशु कम से कम वही तो है— जो भीतर है, वही बाहर है। सिंह को तुम कितना ही छेदो, सिंह ही पाओगे। हर पर्त पर सिंह पाओगे । परिधि से लेकर केंद्र तक सिंह ही मिलेगा । आदमी को छेदो, हजार-हजार चीजें पाओगे । आदमी तुम कहीं न पाओगे। प पर कुछ मिलेगा, थोड़े भीतर जाओ, कुछ और मिलेगा, और भीतर जाओ कुछ और मिलेगा । इसीलिए तो लोग अपने भीतर नहीं जाते। क्योंकि भीतर जाकर घबड़ाहट होती है कि यह मैं क्या हूं? लोग अपना दर्शन नहीं करना चाहते। लोग बातें करते हैं आत्मा की, आत्म-दर्शन की, कोई करना नहीं चाहता । क्योंकि अपना दर्शन करने का अर्थ होगा, यह सब जो विक्षिप्तता की अनेक-अनेक पर्तें हैं, यह सब उघड़ेंगी, इन्हें जानना पड़ेगा। इनसे गुजरकर ही तुम कहीं उस तक पहुंच पाओगे, जो तुम्हारा असली स्वरूप है। महावीर कहते हैं, 'पशु-सा निरीह ।' 'वायु- सा निसंग...।' हवा बहती रहती है। लेकिन निसंग | किसी से संग-साथ नहीं बांधती । फूलों के पास से गुजर जाती है, तो भी वहां ठिठककर रह नहीं जाती कि इतना सौरभ है, अब यहीं रुक जाएं। अब यहीं घर बना लें ! शीतल Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का दीप जला लो। नदियों से गुजरती है, वहां रुक नहीं जाती। सुंदर उपत्यकाओं में, प्रतीक शब्द है। लेकिन रुक नहीं जाती। असंग-भाव से बहती रहती है। अकेली | लेकिन इसे वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि कहीं कोई एक ही रहती है, कोई संगी-साथी नहीं बनाती। बिंदु तो होना ही चाहिए अस्तित्व में अभी तक उसका कोई महावीर कहते हैं, निसंग-भाव साधु का आत्यंतिक लक्षण है। पता नहीं चला, कहां है। अभी तक हमें पूरे अस्तित्व का ही पता उसमें सब के प्रति मैत्री है, लेकिन मित्र वह किसी को भी बनाता | नहीं चला, तो केंद्र का कैसे पता चलेगा! बड़ा विराट है नहीं। इसको खयाल लेना। अस्तित्व। अभी तो हम परिधि को भी नहीं छू पाये हैं, तो केंद्र को मैत्री-भाव को महावीर ने बहत महिमा दी है। लेकिन कहा. कैसे छ पायेंगे। लेकिन वैज्ञानिक इसको एक 'हाइपोथीसिस'. मित्र मत बनाना। मित्र बनाने में अर्थ हआ, रुक गये, नदी ठहर | | एक परिकल्पना की भांति स्वीकार करते हैं कि जरूर कोई एक गयी, डबरा बन गयी। मैत्री रखना। सब के प्रति प्रेम-भाव कील तो होनी ही चाहिए, जिस पर सारा अस्तित्व घूम रहा है। रखना। लेकिन प्रेम को कहीं ठहराकर डबरा मत बनाना। हवा | चांद-तारे घूम रहे हैं, सूरज घूम रहा है, पृथ्वी घूम रही है, की तरह मुक्त रहना। कहीं बंधना मत। हवा को कौन बांध | ग्रह-नक्षत्र घूम रहे हैं। यह इतना विराट चक्र घूम रहा है, तो कहीं पाया? हवा कहां रुकती? यात्रा, अनंत यात्रा, और कोई कील तो होनी ही चाहिए। अन्यथा बिना कील के तो चाक अकेली...। घूम नहीं सकता था। उस कील को जैन-शास्त्रों ने मेरु कहा है। 'सूर्य-सा तेजस्वी....।' यह सिर्फ प्रतीक ही नहीं हैं। 'मेरु-सा निश्चल...।' और साधु वही है, जिसने अपने महावीर जैसे व्यक्ति जब किन्हीं शब्दों का उपयोग करते हैं, तो यूं भीतर की कील को पा लिया। शरीर चलता है, साधु नहीं ही नहीं करते। गहरे कारणों से करते हैं। जैसे ही व्यक्ति सरल चलता। शरीर भोजन करता है, साधु नहीं करता। शरीर बोलता होता है, निसंग होता है, भद्र होता है, निरीह होता है, अकेला | है, साधु अबोला है। शरीर जवान होता, बूढ़ा होता; साधु न होता है, वैसे ही उसके भीतर एक अगाध ज्योति जलने लगती जवान होता, न बूढ़ा होता। शरीर जन्मता है, मरता है; साधु का है। क्योंकि कपट में बुझ जाती है ज्योति। कपट का धुआं तुम्हारी न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। ऐसी प्रत्येक क्रिया के बीच, ज्योति को घेर लेता है। पाखंड में बुझ जाती है ज्योति। सरलता प्रत्येक गति के बीच, प्रत्येक भंवर के बीच, जिसने अपने भीतर में धुआं बिखर जाता है, अलग हो जाता है, ज्योति जलने लगती | के मेरु को पकड़ा हुआ है, वही साधु है। चलो राह पर, मगर है। सूर्य-सा तेजस्वी हो जाता है व्यक्ति। रक्ताभ! एक आभा | एक बात ध्यान में रखकर चलना कि तुम न कभी चले हो, न चल उसे घेर लेती है। | सकते हो। चलता है चाक, तुम ठहरे हुए हो। कूटस्थ। सदा से • 'सागर-सा गंभीर...।' विराट! जिसकी कोई सीमा नहीं, ठहरे हुए हो। कभी हिले नहीं। तुम ही हिल जाओ, तो फिर कोई कूल-किनारा नहीं। जिसकी थाह पानी मुश्किल। ऐसा शरीर चल न सकेगा। फिर तो डगमगा कर वहीं गिर जाएगा। गहरा, गंभीर। | विचार चलते हैं। विचार का वर्तल घमता रहता है-बवंडर 'मेरु-सा निश्चल...।' मेरु जैन-पुराणों का प्रतीक है। मेरु की भांति। तुमने कभी धूल के बवंडर देखे? गर्मी के दिनों में है वह पर्वत, जो विश्व का केंद्र है। और जिसके केंद्र पर सारी | जब उठते हैं—बड़ा बवंडर उठता है, बड़े धूल के बादल उठते चीजें घूमती हैं। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर। मेरु | हैं-आकाश तक उठ जाते हैं, छप्पर उड़ जाते मकानों के, कील है सारे अस्तित्व की। और जैसा गाड़ी का चाक घूमता है, टीन-टप्पर उड़ जाते हैं, कभी-कभी तो छोटे बच्चे तक उड़ गये लेकिन कील थिर रहती है। चाक घम ही इसीलिए सकता है कि हैं; लेकिन जब तूफान चला जाए, आंधी विदा हो जाए, धूल का कील थिर रहती है। अगर कील भी घूम जाए, गाड़ी गिर जाए। बवंडर शांत हो जाए, तब तुम जरा जाकर देखना उस भूमि पर कील को नहीं घूमना चाहिए, तो ही चाक घूम सकता है। यह जहां बवंडर उठा था। तुम बड़े चकित होओगे, बीच में एक केंद्र सारा संसार घूम रहा है, क्योंकि केंद्र में कोई चीज है जो थिर है। है; उसका निशान छूट जाता है। चारों तरफ बवंडर के निशान शाश्वत-रूप से थिर है। जैन-पुराण उसे मेरु कहते हैं। वह तो छूट जाते हैं, लेकिन बीच में एक बिलकुल शुद्ध जगह है, जहां 1131 2010_03 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कोई बवंडर न था। बवंडर की भी कील होती है। बिना कील के के प्रकाश जैसा ताप नहीं। सूरज में प्रकाश तो है, बहुत है, बवंडर भी नहीं हो सकता। लेकिन ताप भी है। जलाता भी है। सूरज के ज्यादा पास न जा मनुष्य एक बवंडर है धूल का, मिट्टी का, लेकिन भीतर आत्मा | सकोगे। झुलसा देगा। चंद्रमा में ताप नहीं है, सिर्फ प्रकाश है। की कील है। | चंद्रमा के प्रकाश में जैसे अमृत है। मनुष्य-जाति सदा से चंद्रमा महावीर कहते हैं, 'मेरु-सा निश्चल।' चलते समय याद के पास जाने को आतुर रही है। छोटे बच्चे पैदा होते से ही चांद रखना उसकी, जो कभी नहीं चला। भोजन करते वक्त याद की तरफ हाथ बढ़ाने लगते हैं। 'चंदामामा' को पकड़ने की रखना उसकी, जो कभी भोजन नहीं करता। भूख में याद रखना चेष्टा शुरू हो जाती है। आदमी सदियों से चांद पर जाने की उसकी. जिसको कभी भख नहीं लगती। दख आये, याद रखना सोचता रहा, अब तो पहंच भी गया। लेकिन यह असली चांद उसकी जिस पर कभी दुख नहीं पहुंचता न दुख, न सुख; न नहीं है। यह खोज किसी और चांद की है। तुम पहुंच गये बाहर प्रीति, न अप्रीति; न सफलता, न असफलता। सभी द्वंद्व चके | के चांद पर, पहंचना था भीतर के चांद पर। पर हैं। कील बाहर है। महावीर कहते हैं, 'चंद्रमा-सा शीतल।' साधु प्रकाशोज्ज्वल उस अतिक्रमण करनेवाली कील को पकड़ना। साधु की सारी होता है, लेकिन उसका प्रकाश शीतल है। दग्ध नहीं करता चेष्टा यही है। ध्यान में, समाधि में यही तो चेष्टा है कि किसी जलाता नहीं। मलहम की भांति है घावों पर। भरता है घाव को। तरह अपनी कील को पकड़ ले। प्राणों को तृप्त करता है। सूरज से तो तुम ऊब सकते हो कभी, कबीर का बड़ा प्रसिद्ध वचन है- 'दो पाटन के बीच में चांद से कभी नहीं ऊब सकते। चांद आदमी को आंदोलित ही साबित बचा न कोय।' करता रहा है सदा-सदा। उसकी शीतलता बड़ी आकर्षक रही कबीर ने एक चक्की चलते देखी। कोई चक्की चला रही है | है। चांद की रात प्रेम की रात है। चांद की रात काव्य की रात है। औरत सुबह-सुबह, कबीर लौटते होंगे सुबह कहीं भ्रमण के | चांद से सागर ही आंदोलित नहीं होता, मनुष्य के हृदय में भी बाद, देखा सब पिसा जा रहा है। लौटकर घर उन्होंने यह पद | बड़ी तरंगें उठती हैं, बड़े ज्वार आते हैं। । | रचा। उनका बेटा कमाल बैठा सुन रहा था। उसने कहा कि चांद-सा शीतल हो साधु। उसमें प्रकाश तो हो, देदीप्यमान रुको, ठीक कहते हो कि पाट के बीच कोई भी साबित नहीं बचा, हो, लेकिन प्रकाश किसी को झुलसाये न। उसके पास जाकर लेकिन बीच में एक कील है, कभी उसका खयाल किया? तुम्हारे घावों पर मलहम-पट्टी हो, चोट न लगे। तुम बड़े हैरान उसके सहारे जो गेहूं के दाने लग जाते हैं, वे नहीं पिसते। होओगे, जिनको साधारणतः तुम साधु कहते हो, वे सदा तुम्हारी चक्की चलायी तुमने कभी? अब चक्की खो गयी है, इसलिए निंदा कर रहे हैं। चोट करना ही उनका धंधा है। तुम्हारा अपमान शायद तुम्हें खयाल भी न हो, लेकिन बीच की कील के सहारे जो करना ही उनका व्यवसाय है। तुम्हें गाली देना ही उनके प्रवचन दाने लग जाते हैं, वे फिर पिस नहीं पाते। उनको फिर दुबारा हैं। तुम्हें चोर, पापी बताना ही उनका कुल उपदेश है। लेकिन डालना पड़ता है। जिसने कील का सहारा लिया, वह बच गया। इन घावों से तुम कोई जीवन-पथ पर थोड़े ही आ जाओगे। इनसे संसार दो पाटों की तरह पीस रहा है। लेकिन इसमें मेरु की एक ही परिणाम होता है कि तुम आत्मनिंदा से भर जाते हो। तुम कील भी है। शरीर और मन के दो पाट तुम्हें पीस रहे हैं, पर अपने ही प्रति विरोध से भर जाते हो। तुम्हारे भीतर 'गिल्ट', इसके बीच में आत्मा की कील भी है। उसे पकड़ो। उसे गहो। अपराध भाव पैदा होता है। उसका साथ लो। उसके सहारे हो जाओ। फिर तुम्हें कोई भी और जिस आदमी के जीवन में अपराध-भाव पैदा हो गया, पीस न पायेगा। जन्म आये, जन्म; मौत आये, मौत; दुख, वह आदमी नर्क में जीने लगता है। क्योंकि वह जो करता है, सुख, जो आये, आये; तुम अछूते, पार, दूर बने रहोगे। तुम्हें वही गलत मालूम होता है। पत्नी को प्रेम करो, तो पाप। बेटे को कुछ भी छु न पायेगा। | प्रेम करो, तो पाप। सुंदर मकान बनाओ, तो पाप। एक बगिया 'चंद्रमा-सा शीतल...।' चंद्रमा में प्रकाश है, लेकिन सूरज बनाओ, तो पाप। अच्छे कपड़े पहनकर निकल जाओ, तो 132 2010_03 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का दीप जला लो! पाप। भोजन में स्वाद लो, तो पाप। तो आदमी को जीने दोगे, साफ-साफ दिखायी पड़े; साधु के पास जाकर तुम्हें अपने कि नहीं जीने दोगे। हर चीज पाप! यह चंद्रमा की शीतलता न भविष्य का सपना मिले, आश्वासन मिले, बल मिले, हिम्मत हुई। यह तो बड़ी जलानेवाली आग हो गयी। मिले, आशा बंधे कि हो सकता है, मुझमें भी हो सकता है। साधुओं के पास जाकर-जिन्हें तुम साधु कहते हो तुम कितना ही बुरा हूं तो भी, हो सकता है। कितने ही दूर चला गया प्रसन्नचित्त नहीं लौट पाओगे। तुम अप्रसन्नचित्त, खिन्नमना हूं, तो भी वापस लौटने का उपाय है। साधु के पास जाकर पापी होकर लौटोगे। जैसे तुम्हारे रोग ही खूब-खूब बढ़ा-बढ़ाकर को अपने संतत्व का खयाल आये। अभी तो जिनको तुम साधु दिखा देना उनका काम है। कहते हो, उनके पास अगर संत भी जाए, तो उसको भी अपने मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक धर्म के नाम पर लोगों ने पाप का खयाल! बड़ा अत्याचार किया है, अनाचार किया है। लोगों को अपराधी 'चंद्रमा-सा शीतल: मणि-सा कांतिवान...।' कांतिवान। बना दिया है। तुम जो करो उसी में भूल है। जब सभी करने में कांति बड़ी मनमोहक आह्लादकारी वर्षा का नाम है। साधु के भूल है, तो स्वभावतः तुममें एक निंदा पैदा होती है कि यह क्या पास तुम्हारे ऊपर कुछ बरसने लगता है। बहुत जीवन हुआ! तो में गहित हूँ, कुत्सित हूँ, नारकीय हूँ! तुम्हारे आहिस्ता-आहिस्ता। पदचाप भी नहीं होती। कहीं कोई आवाज जीवन में उदासी छा जाती है। भी नहीं होती। साधु के प्राण तुम्हें घेरने लगते हैं। साधु की आभा महावीर कहते हैं, 'चंद्रमा-सा शीतल।' तुम्हारे पास घाव हैं, तुम्हें भी घेरने लगती है। तुम्हारी आंखें ठगी रह जाती हैं। तुम माना; तुम बीमार हो, माना; लेकिन बीमार की निंदा थोड़े ही एकटक साधु से बंधे रह जाते हो। जैसे किसी मणि को देखकर करनी है। चिकित्सक के पास जाओ तो बीमार का इलाज करना तुम सम्मोहित हो जाओ; फिर कहीं और देखने का मन न हो; है, निंदा थोड़ी करनी है। जो चिकित्सक निंदा करने लगे, तुम मणि की तरफ ही आंखें लगी रहें; उसी तरफ दर्शन की सारी टी. बी. की बीमारी लेकर गये, वह टी. बी. को गालियां देने धारा मुड़ जाए। लगे और तुमको गालियां देने लगे कि तुमने टी. बी. पैदा क्यों | 'पृथ्वी-सा सहिष्णु...।' कुछ भी घटे, साधु की सहिष्णुता की, छोड़ो इसको, त्याग करो इसका! छोड़ना तो तुम भी चाहते नहीं टूटती। कुछ भी हो जाए, साधु डगमगाता नहीं। तुम उसे हो, लेकिन छोड़ो कैसे? यही तो पता नहीं है। तुमने जानकर सुख में, दुख में समान पाओगे। तुम उसे सफलता, विफलता में थोड़े ही पकड़ा है। अनजाने पकड़ा है। अब किसी को बुखार समान पाओगे, सम्मान-अपमान में समान पाओगे। चढ़ा है और तुम कहो कि छोड़ो बुखार! बुखारवाला क्या | _ 'सर्प-सा अनियत-आश्रयी...।' सर्प अपना घर नहीं कहेगा? वह कहेगा, महानुभाव, छोड़ना तो मैं भी चाहता हूं, बनाता। अनियत-आश्रयी। जहां मिल गयी जगह, वहीं सो लेकिन बुखार छोड़े तब न! कोई मैं बुखार में थोड़े ही रहना लेता है। जहां मिल गयी जगह, वहीं विश्राम कर लेता है। चाहता हूं; लेकिन मुझे पता नहीं कि मैं क्या करूं, कुछ सहायता | अपना घर नहीं बनाता। यह बड़ी बारीक बात है। इससे केवल करें, औषधि लायें। इतना ही प्रयोजन नहीं है कि कोई घर में न रहे, इससे प्रयोजन यह साधु औषधि है। उसके पास जाकर शीतलता मिले, उसके है कि कोई सुरक्षा के घर न बनाये, कोई बैंक बैलेंस पर बहुत | पास जाकर आश्वासन मिले, अपराध का भाव नहीं। उसके ज्यादा भरोसा न करे। वह सब छिन जाएगा। कोई मिट्टी के घरों पास जाकर भरोसा मिले, हताशा नहीं। उसके पास जाकर में बहुत ज्यादा अपने प्राण न डाले, क्योंकि वे सब मिट जाएंगे। तुम्हारे जीवन का सूर्योदय हो; तुम्हें लगे कि माना कि बहुत | मुक्त रहे। घरों में हो, तो भी घरों का न हो। दुकानों पर हो, तो गलतियां हैं, कोई फिकिर नहीं, गलतियों से बड़ा मेरे भीतर छिपा | भी दुकानों का न हो। बाजार में खड़ा रहे, तो भी बाजार के बाहर हुआ खजाना है। गलतियां मैंने की हैं, कोई हर्जा नहीं, भूल-चूक रहे। याद बनी ही रहे कि यह जगह घर बनाने की नहीं। घर तो सबसे होती है, लेकिन मेरे भीतर छिपा हुआ परमात्मा है। साधु परमात्मा है। यहां तो हम परदेस में हैं। यहां तो यात्रा है। यहां तो के पास जाकर तुम्हारा भविष्य प्रगाढ़ हो, प्रखर हो, उज्ज्वल हो, | अगर कभी थक जाते हैं, तो रुकना है, पड़ाव पर; लेकिन पड़ाव 133 2010_03 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: मंजिल नहीं है। बड़ी पुरजोर आंधी है बड़ी काफिर बलाएं हैं 'आकाश-सा निरावलंब...।' और कोई सहारा न खोजे। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं इतना निरावलंब हो जैसा आकाश है। कोई आधार नहीं आकाश अफक पर जिंदगी के लश्करे-जुल्मत का डेरा है का, कोई बुनियाद नहीं, कोई खंभे नहीं, जिन पर सधा हो। बस हवादिस के कयामतखेज तूफानों ने घेरा है है। आकाश-जैसा हो जाए। जहां तक देख सकता हं अंधेरा ही अंधेरा है महावीर दिगंबर रहे, नग्न रहे। वह आकाश-जैसी चर्या थी। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूँ दिगंबर का अर्थ होता है, आकाश को ही जिसने अपना वस्त्र तलातमखेज दरिया आग के मैदान हाइल हैं बना लिया। दिगंबर का मतलब सिर्फ नग्न नहीं होता। नग्नता गरजती आंधियां बिखरे हुए तफान तो बड़ी आसान है। कोई भी कपड़े छोड़ दे तो नग्न हो सकता | तबाही के फरिश्ते जब्र के शैतान हाइल हैं है। लेकिन जो आकाश को अपना वस्त्र बना ले, वह है मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं दिगंबर। वह नग्न तो होगा, लेकिन नग्नता में सिर्फ नग्नता नहीं संकल्प और दिशा का बोध हो तो अंधेरा तुम्हें तोड़ेगा नहीं। है, कुछ और बड़ी घटना घटी है। पूरा आकाश ही उसने अपना अंधेरा ही तुम्हें मौका देगा अपने स्वयं के प्रकाश को खोजने का। घर बना लिया, अपने वस्त्र बना लिया। अब अलग से वस्त्रों तो जवानी तुम्हें मिटायेगी नहीं, जवानी ही तुम्हारा संन्यास की कोई जरूरत नहीं रही। अब उसने अपने को प्रगट कर बनेगी। तो ऊर्जा तुम्हें भटकायेगी नहीं, ऊर्जा पर ही चढ़कर तुम दिया। जैसा है वैसा प्रगट कर दिया। नग्न, तो नग्न। परमऊर्जा के परमपद तक पहुंचोगे। जिस व्यक्ति को दिशा का ऐसा साधु परमपद मोक्ष की यात्रा पर है। बोध है, गंतव्य का थोड़ा खयाल है, जिसने अपनी सुई में धागा सीह गय-वसह-मिय-पसु, मारूद-सुरूवहि-मंदरिदुं-मणी। पिरोया है, फिर अंधेरा कितना ही हो, वह अपनी मंजिल की खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू।। तरफ बढ़ता ही जाता है। और कितनी ही बाधाएं हों, और कितने परमपद की यात्रा पर ऐसा व्यक्ति चल पाता है। बड़ी ही पत्थर राह पर पड़े हों, वह उनकी सीढ़ियां बना लेता है। वह कठिनाइयां हैं रास्ते में। और उन कठिनाइयों को जीतने के लिए हर स्थिति को चनौती समझता है। और हर हार को नया शिक्षण तुम्हें बड़े गुण निर्मित करने होंगे। समझता है। हर हार को जीत के लिए उपाय बना लेता है। और जवानी की अंधेरी रात है जुल्मतं का तूफां है बढ़ता ही जाता है। मेरी राहों से नूरे-माहो-अंजुम तक कुरेजा है। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं। खुदा सोया है ऐ हरमन महशर बदामा है यह जो महावीर ने गुण कहे, यह राह पर तुम्हें साथ देंगे। इन मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं एक-एक गुण को खूब ध्यानपूर्वक सोचना, विचारना, मनन चांद-तारे खो गये हैं: परमात्मा का पता नहीं-कहां सो गया करना, आत्मसात करना। है; शैतान जागा हुआ है, राह पर बड़ा गहरा अंधेरा है- 'प्रबुद्ध और उपशांत होकर संयतभाव से ग्राम और नगर में खुदा सोया है ऐ हरमन महशर बदामा है विचरण कर शांति को बढ़ा। शांति का मार्ग बढ़ा। हे गौतम, मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।' गमो-हिर्मा युरुश है मसाइब की घटाएं हैं गौतम महावीर के प्रमुख शिष्य हैं। जैसे कृष्ण ने अर्जुन को जुनूं की फितनाखेजी हुस्न की खूनी अदाएं हैं संबोधित करके गीता कही है, ऐसे महावीर के सारे वचन गौतम बड़ी पुरजोर आंधी है बड़ी काफिर बलाएं हैं को संबोधित करके हैं। गौतम के बहाने सभी के लिए कहे हैं। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता है बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए। बड़े आकर्षण हैं जगत के। जवानी का पागलपन है, हुस्न की संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए।। बड़ी खींच है, सौंदर्य का बुलावा है। 'प्रबुद्ध और उपशांत होकर...।' दो बातें ध्यान में रखनी 134 2010_03 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी हैं। प्रबुद्धता और उपशांति । अगर तुम सिर्फ शांत हो जाओ और प्रबुद्ध न होओ, तो नींद में खो जाओगे। नींद में हम सभी शांत हो जाते हैं। लेकिन नींद कोई मंजिल नहीं है। अगर तुम प्रबुद्ध हो जाओ, बहुत जागे हुए हो जाओ, और शांत न हो सको, तो तुम पागल हो जाओगे। क्योंकि विश्राम तुम्हें मिल न सकेगा। जो आदमी सात दिन न सो पाये, वह विक्षिप्त होने लगेगा। कहते हैं, तीन सप्ताह जो आदमी न सोये, वह | सुनिश्चित रूप से पागल हो जाएगा। विश्राम भी चाहिए। तो महावीर का सूत्र है : 'प्रबुद्ध और उपशांत'; एक साथ । शांत भी बनो और जागे हुए भी बनो। यह दोनों साथ-साथ बढ़ें, अलग-अलग नहीं। अगर तुम प्रबुद्ध न हुए तो नींद में खो जाओगे। नींद अच्छी है, सुखद है, लेकिन सुख ही थोड़े गंतव्य है। परम आनंद न मिलेगा, मोक्ष न मिलेगा। मोक्ष तो जागे हुए के लिए है। लेकिन अगर तुम सिर्फ जागने ही लगो, और अनिद्रा को तुम समझ लो कि साधना है, और शांत होना खो जाए, तो तनाव से भर जाओगे। तनाव तुम्हें तोड़ देगा। दोनों का साथ-साथ जोड़ चाहिए। अनुपात दोनों का बराबर चाहिए। आधा-आधा। और सम्यक रूप से साधना में जानेवाले व्यक्ति को निरंतर याद रखनी चाहिए कि इन दो में से किसी की भी मात्रा ज्यादा न हो पाये। अमृत भी बे-मात्रा हो, तो जहर हो जाता है। और जहर भी मात्रा में लिया जाए तो औषधि बन जाता है । तो एक तरफ शांति को बढ़ाओ और एक तरफ जागरण को । 'हे गौतम, शांति का मार्ग बढ़ा! हे गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर !' एक क्षण भी बेहोशी में मत गंवा । जागो फिर एक बार । प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें अरुण पंख तरुण-किरण खड़ी खोल रही द्वार जागो फिर एक बार । आंखें अलियों-सी किस मधु की गलियों में फंसी, बंद कर पांखें पी रहीं मध मौन, अथवा सोयीं कमल कोरकों में? बंद हो रहा गुंजार - 2010_03 ध्यान का दीप जला लो! जागो ! जागो फिर एक बार । प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें जागो ! जागो फिर एक बार । महावीर के सभी वचन अंततः अप्रमाद पर पूरे होते हैं। वे कहते हैं— जागो, फिर एक बार ! ' और इसके बाद का सूत्र तो बहुत सोचने जैसा है । सोचना । 'भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते... भविष्य में लोग कहेंगे, महावीर खो गये । 'भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते, और जो मार्गदर्शक हैं वे भी एकमत नहीं हैं। किंतु आज तुझे गौतम, न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।' महावीर कहते हैं, सदियों तक फिर लोग पूछेंगे, कहां पायें जिन जैसा शास्ता ? महावीर - जैसा सदगुरु ? और अभी, मैं मौजूद हूं, महावीर कहते हैं गौतम से, तेरे सामने हूं गौतम, और अभी तू सो रहा है। फिर सदियों तक लोग रोयेंगे और पछतायेंगे । और तू सामने मौजूद है। मार्ग तेरी आंखों के सामने बिछा है। तू किस लिए बैठा है ? उठ ! 'भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते ... ।' हुजि अज्ज दिस्स, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । और महावीर कहते हैं कि और जो मार्गदर्शक होंगे, वे आपस में एकमत न होंगे। महावीर अपने ही मार्ग पर पड़ जानेवाली शाखाओं, विशाखाओं की बात कर रहे हैं । कह रहे हैं, अभी बिलकुल एक है। पगडंडियां अलग-अलग टूटी नहीं। अभी मार्ग राजपथ - जैसा है : तू चल! भविष्य में लोग पूछेंगे, जिन कहां हैं? कहां उनके दर्शन हों, जो मार्ग दिखायें? और जो मार्ग दिखानेवाले लोग होंगे रास्ते पर कोई 'तेरापंथी' होगा, कोई 'दिगंबर' होगा, कोई 'श्वेतांबर' होगा। पंथों में और छोटे पंथ होंगे और हजार मत होंगे। और बड़ा संघर्ष होगा। और अभी मार्ग सुस्पष्ट है, गौतम ! तू क्यों बैठा है ? उठ ! जागो फिर एक बार ! प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें। महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, कितने तारों ने तुम्हें जगाया है! प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें । 'न्यायपूर्ण मार्ग तुझे उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद 135 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग मत कर।' महावीर कहते हैं, भाव ही असली बात है। क्रिया तो उसकी फिर एक दिन तो लोग कहेंगे छाया है। जो भाव में घट जाता है, वह क्रिया में आयेगा ही। छुप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर उलटा जरूरी नहीं है कि सच हो। जो क्रिया में घटता है वह भाव अब तो बस आवाज ही आवाज है में आये, यह जरूरी नहीं है। लेकिन जो भाव में आ गया, वह एक दिन तो वीणा टूट जाएगी। इस जगत में कुछ भी सदा क्रिया में तो आयेगा ही, यह अनिवार्य है। इसलिए भाव मुख्य रहने को नहीं है। महावीर खो जाएंगे। बुद्ध खो जाएंगे। है, प्रथम है, आधारभूत है। लोग भाव की कम चिंता करते हैं, छप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर द्रव्य की ज्यादा चिंता करते हैं। समझोअब तो बस आवाज ही आवाज है दान भाव में हो, तो चीजें तो तुम दे सकोगे लोगों को; लेकिन फिर आवाज गूंजती रहती है सदियों तक। लोग ऐसे बेसुध पड़े भाव में देने की क्षमता आ जाए, बांटने का सुख आ जाए, रस हैं कि जब संगीत बजता होता है, तब वे बैठे रहते हैं। जब वीणा आ जाए बांटने में, तो चीजें तो गौण हैं, तुम दे दोगे। कोई खो जाती, सिर्फ प्रतिध्वनि रह जाती; जब शास्ता खो जाते और प्रयोजन नहीं है दूसरी बात का। वह आ ही जाएगी। लेकिन यह शास्त्र मात्र रह जाते, तब बड़ी माथापच्ची लोग करते हैं, बड़ा हो सकता है कि तुम चीजें तो बांटते रहो और देने का भाव विवाद करते हैं। बड़ा चिंतन-मनन करते हैं। बिलकुल न हो। तो चीजों के बांटने को ही तुम सब कुछ मत सारी महफिल जिसपे झूम उठी 'मजाज़' समझ लेना। वह गौण है। दोयम है। वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है। जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल जब वीणा टूटती है, तब सोये हुए लोग चौंककर उठते हैं। जिसमें न दिल हो शरीक उस लय में कुछ भी नहीं मज़ाज़ की ये पंक्तियां बड़ी प्यारी हैं तुम गीत तो गा सकते हो, लेकिन अगर दिल ही शरीक न हो, सारी महफिल जिसपे झूम उठी 'मज़ाज़' तो उस लय में कुछ भी नहीं। वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल वह तो वीणा के टूटने की आवाज है, पागलो! जिस पर सारी और जिसमें गहराई न हो चिंतन की, मनन की, ध्यान की, उस महफिल झूम उठी। जब महावीर मरते हैं, तब तुम जगते हो। काव्य का कोई भी मूल्य नहीं। तुम काव्य तो रच सकते हो। वह जब महावीर जाते हैं, तब तम चिल्लाते हो। और ऐसा सभी तकबंदी होगी: लेकिन जब तक प्राण न डालोगे, उसमें प्राण न महावीरों के साथ हुआ। ऐसा ही आज भी होता है। आदमी में | होंगे। काव्य शब्दों से नहीं बनता, न मात्राओं से, न छंद के कोई बहुत फर्क नहीं पड़े। कपड़े बदल गये। मकानों के बनाने | नियमों से, काव्य बनता है प्राणों को उंडेलने से। इसीलिए तो के ढंग बदल गये। रास्तों पर बैलगाड़ियों की जगह कारें हैं। | कभी-कभी जिन्होंने प्राण उंडेल दिये, और काव्य के जिन्हें किसी आकाश में पक्षियों की जगह हवाई जहाज हैं। आदमी के पैर नियम का कोई पता न था, वे भी शाश्वत हो गये। जमीन को नहीं छूते, चांद-तारों पर चलने लगे, पर आदमी में | कबीर, कुछ भी जानते नहीं काव्य के नियम। लेकिन शाश्वत कोई फर्क नहीं पड़ा। वही होता रहेगा। | रहेगी उनकी वाणी। हृदय ही उंडेल दिया। मूल ही उंडेल दिया, यही मैं तुमसे भी कहता हूं : भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन तो गौण की क्या फिकिर? मात्राएं पूरी थीं या न थीं; छंद के दिखायी नहीं देते; और जो मार्गदर्शक हैं, वे भी एकमत नहीं हैं; नियम पूरे हुए या न हुए, प्राण ही डाल दिये। भाव ही प्रथम है। किंतु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी भाव को ही जिन ने, महावीर ने गुण-दोषों का कारण कहा है। प्रमाद न कर। _ 'भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया 'वास्तव में भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है। द्रव्य लिंग जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है, उसका बाह्य त्याग परमार्थ नहीं है। क्योंकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोषों का निष्फल है।' कारण कहते हैं।' अगर बाहर का त्याग किया भी जाए तो भी यही ध्यान रखकर 136 2010_03 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाए कि वह भीतर के त्याग के लिए निमित्त बने । भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स ।। निमित्त बन जाए, बस । एक बहाना बने। लेकिन असली बात भीतर की रहे। तो लोग बाहर से तो छोड़ देते हैं, भीतर से छोड़ते नहीं । छोड़ने तक को पकड़ लेते हैं । त्याग तक की अकड़ आ जाती है कि मैंने लाखों छोड़े। 'जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है, तथा जो अपनी आत्मा में लीन है, वही साधु भाव-लिंगी है। ' द्रव्य - लिंगी, भाव-लिंगी, ऐसे साधुओं के दो रूप महावीर ने किये। द्रव्य - लिंगी वही है, जिसने धन छोड़ा; लेकिन पकड़ना न छोड़ा। भाव-लिंगी वही है, जिसने धन भी छोड़ा, लेकिन धन | छोड़ा क्योंकि पकड़ना ही छोड़ दिया। पकड़ ही छोड़ दी । नहीं तो मन बड़ा चालाक है। एक चीज छोड़ता है, दूसरी पकड़ लेता है, पकड़ कायम रहती है। धन छोड़ो, धर्म पकड़ लो। घर छोड़ो, संन्यास पकड़ । गृहस्थी छोड़ो, मंदिर पकड़ लो । । एक चीज छोड़ी, दूसरी पकड़ी, मुट्ठी तो बंधी ही रही कंकड़-पत्थर छोड़े एक रंग के, दूसरे रंग के पकड़ लिया। धन छोड़ा, तो ज्ञान पकड़ लिया। महावीर कहते हैं, पकड़ छोड़ो। मुट्ठी खुली रखो। सत्य कुछ आकाश जैसा है। मुट्ठी बांधो, बाहर हो जाता है। मुट्ठी खोलो, भीतर आ जाता है। खुली मुट्ठी पर पूरा आकाश रखा है। बंद मुट्ठी खाली है। कुछ भी नहीं । - कहावत तो है, लोग कहते हैं- बंद मुट्ठी लाख की। बंद मुट्ठी खाक की, लाख की छोड़ो ! खाक भी नहीं है। मगर बंद मुट्ठी लाख की लोग कारण से कहते हैं । वे यह कहते हैं, बंद रहे तो लोगों को भ्रम रहता है कि कुछ होगा । इसीलिए तो समझदार | लोग बंद मुट्ठी रखे हुए हैं। खुद भी डरते हैं खोलने से, कहीं खुद को भी पता न चल जाए कि कुछ भी नहीं है। बंद रहती है, तो खुद को भी भरोसा रहता है कि है, बहुत कुछ है। जब तक नहीं देखा तब तक तो है ही ! इसीलिए लोग आंख खोलकर नहीं देखते, नहीं तो सपने टूट जाएं! सपनों का संसार टूट जाए ! देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम रओ, स भावलिंगी हवे साहू ।। भाव - लिंगी ही साधु है । द्रव्य - लिंगी साधु नहीं है; 2010_03 ध्यान का दीप जला लो ! साधु-जैसा दिखायी पड़ता है। और द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग में फर्क क्या है? इतना ही फर्क है, भाव-लिंगी ने अंतर को बदला, जागकर; द्रव्य-लिंगी ने बाहर को बदला, सोये-सोये । इक दीया जला कि जल उठी सुबह इक दीया बुझा कि रात हो गयी एक शह लगी कि ढह गया किला एक शह लगी कि मात हो गयी इक हवा चली कि खिल उठा चमन इक हवा चली कि सब उजड़ गया एक पग उठा कि राह मिल गयी एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया फर्क बड़ा थोड़ा-सा है। एक पग का ! इक दीया जला कि जल उठी सुबह अगर जागरण जग गया, तो सुबह हो गयी। बस एक दीया जल जाए जागरण का; महावीर की भाषा में अप्रमाद का, होश का, विवेक का; एक दीया जल जाए, बस । तुम्हारे भीतर चैतन्य आ जाए बस, तुम उठते-बैठते जागे हुए उठने-बैठने लगो, तो सब बदल जाएगा। और वह एक दीया बुझ जाए, तो फिर तुम लाख उपाय करो, घर छोड़ हिमालय चले जाओ, वस्त्र छोड़ नग्न हो जाओ, धन छोड़ भिखमंगे होकर सड़क पर खड़े हो जाओ, कुछ भी फर्क न होगा। तुम तुम ही रहोगे । एक ही क्रांति है जीवन में, वह है भीतर की अंतर्ज्योति के जग जाने की क्रांति । और सब क्रांति के धोखे हैं। इक दीया जला कि जल उठी सुबह इक दीया बुझा कि रात हो गयी बस एक ही दीये का फर्क है तुममें और महावीर में। इसलिए घबड़ाना मत। बस एक दीये का फर्क है अंधेरे कमरे में और प्रकाशोज्ज्वल कमरे में। रात और सुबह में बस एक दीये का फर्क है। एक शह लगी कि ढह गया किला एक शह लगी कि मात हो गयी इक हवा चली कि खिल उठा चमन इक हवा चली कि सब उजड़ गया एक पग उठा कि राह मिल गयी एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया 137 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 जिन सूत्र भाग: 2 उस एक दीये को जलाओ ! उस एक दीये पर सारी शक्ति लगा दो ! उस एक दीये पर सारा जीवन लगा दो ! वह एक दीया जल गया, तो सब मिल गया । वह एक दीया न जला, तो तुम सारे संसार के साम्राज्य को पा लो, तुम भिखमंगे और खाली हाथ ही बिदा होओगे। तुम रिक्त मरोगे । अगर भरकर जाना हो, खिलकर जाना हो, फूलकर जाना हो, तो उस एक दीये को जला लो। उसे मैं ध्यान का दीया कहता हूं, महावीर उसे अप्रमाद का दीया कहते हैं। बात एक ही है। बुद्ध उसे सम्यक स्मृति कहते हैं। पतंजलि उसे समाधि कहते हैं । कृष्णमूर्ति उसे 'अवेयरनेस' कहते हैं। होश कहो, सावधानी कहो। कबीर उसे सुरति कहते हैं, स्मृति कहते हैं। जो कहना हो कहो - नाम तुम रख लो - इतना ही ध्यान रहे, दीये में ज्योति हो, फिर नाम कोई भी हो ! इक दीया जला कि जल उठी सुबह इक दीया बुझा कि रात हो गयी। 2010_03 आज इतना ही । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education ornat For www. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रवचन प्रेम है द्वार For Private Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार महावीर ने आत्मा को समय क्यों कहा? समय और आत्मा में क्या संबंध है? पत्नी मूर्तिपूजक। पति का ध्यान के लिए आग्रह तथा मूर्तिपूजा को व्यर्थ बताना। उदाहरण में पत्नी द्वारा मीरा जैसी मूर्तिपूजक का प्रमाण। __पति का निरुत्तर होना। यथार्थता पर प्रकाश डालने के लिए भगवान से निवेदन। किसी का सहारा पकड़ने, किसी के प्रेम के साये में बैठने का खयाल; लेकिन वैसा न होने पर भी संतोष ही कि कम से कम अपना दुख और किसी की उपेक्षा तो साथ है। ऐसा क्यों? Ang 2010_03 P Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न : महावीर ने आत्मा को समय क्यों कहा? कृपाकर बतायें कि समय और आत्मा में क्या संबंध है? प है समय का । मनुष्य को बहुत बोध है समय का । तुम कहीं हो स्थान में, और कहीं हो समय में। इन दोनों रेखाओं का जहां कटने का बिंदु है, वहीं तुम्हारा अस्तित्व है। तो हम पदार्थ को कह सकते हैं स्पेस । क्योंकि वह सिर्फ क्षेत्र घेरता है। और चेतना को कह सकते हैं समय । चेतना और पदार्थ से मिलकर जगत बना। वस्तुएं हैं, उन्हें अपने होने का कोई पता नहीं । और जैसे ही हमें अपने होने का पता चलता है, वैसे ही समय का भी पता चलता है । हमारा होना अंतर्तम में समय की घटना है। अलबर्ट आइंस्टीन ने अस्तित्व के संघटक तत्व दो माने हैं। टाइम और स्पेस। समय और क्षेत्र । और फिर बाद में जैसे-जैसे आइंस्टीन की खोज गहरी होती गयी, उसे यह भी प्रतीत होने लगा कि इन दो तत्वों को दो कहना ठीक नहीं है। इसलिए फिर | उसने दोनों के लिए एक ही शब्द चुन लिया स्पेसियोटाइम । समय-क्षेत्र। | क्षेत्र बाहर है, समय भीतर है। जीवन को अगर हम ठीक से समझें, तो हमें होने के लिए दो चीजें चाहिए। कोई जगह चाहिए होने के लिए। हम कुछ जगह घेरेंगे। तुम यहां बैठे हो, तो तुमने थोड़ी जगह घेरी । वही है क्षेत्र, आकाश, स्पेस। लेकिन उतना काफी नहीं है। अगर उतना ही हो, तो तुम वस्तु हो जाओगे। फिर तुममें और टेबल और कुर्सी में कोई फर्क न रहेगा। टेबल और कुर्सी ने भी जगह घेरी है। जैसी तुमने जगह घेरी । तुम जिस फर्श पर बैठे हो, उसने भी जगह घेरी है। जैसी तुमने जगह घेरी है। फिर तुममें और पत्थर में फर्क क्या है ? कुछ और भी भीतर घेरा है, वही समय है। पत्थर के लिए कोई समय नहीं है, कुर्सी के लिए कोई समय नहीं है। मनुष्य के लिए समय है। पशु-पक्षियों के लिए थोड़ा-सा बोध है समय का, बहुत ज्यादा बोध नहीं है। वृक्षों को और भी कम बोध 2010_03 तो एक तो हम इस तरह समझ सकते हैं आधुनिक भौतिकी आधार पर कि आइंस्टीन ने जिस भांति अंतर-आकाश को समय कहा, वैसे ही महावीर ने भी आत्मा को समय कहा है। और जब मैं अलबर्ट आइंस्टीन का नाम लेता हूं महावीर के साथ, तो और भी कारण है। दोनों की चिंतनधारा एक जैसी है। महावीर ने अध्यात्म में सापेक्षवाद, रिलेटीविटी को जन्म दिया और आइंस्टीन ने भौतिक विज्ञान में रिलेटीविटी को, सापेक्षवाद को जन्म दिया। दोनों का चिंतन-ढंग, दोनों के सोचने की पद्धति, दोनों का तर्क एक जैसा है। अगर इस दुनिया में दो आदमियों मेल खाता हो बहुत निकट से, तो महावीर और आइंस्टीन का खाता है। महावीर का फिर से अध्ययन होना चाहिए, आइंस्टीन के आधार पर। तो महावीर में बड़े-बड़े नये तरंगों का, नये उद्भावों का जन्म होगा। जो हमें महावीर में नहीं दिखायी पड़ा था, वह आइंस्टीन के सहारे दिखायी पड़ सकता है। महावीर और आइंस्टीन में जैसे धर्म और विज्ञान मिलते हैं। जैसे महावीर 143 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 धर्म के जगत के आइंस्टीन हैं, और आइंस्टीन विज्ञान के जगत विपरीत के चक्के से छूटना हो जाता है। का महावीर है। एक। और इसीलिए महावीर ने ध्यान को सामायिक कहा। दूसरी बात, समय शब्द टाइम शब्द से ज्यादा बहुमूल्य है। सामायिक है समय तक पहुंचने का उपाय। सामायिक है टाइम का तो सिर्फ इतना ही अर्थ होता है, जितना काल का होता सम्यकत्व तक पहुंचने की विधि। धीरे-धीरे डूबो और शांत है। टाइम का ठीक अनवाद करना हो तो समय नहीं करना बनो। जैसे-जैसे शांत बनोगे, जैसे-जैसे तरंगें कम होंगी. चाहिए, काल। काल का अर्थ होता है, जो बीत रहा है। काल वैसे-वैसे भीतर का स्वाद आना शुरू होगा। का अर्थ होता है, जो जा रहा है। समय का अर्थ होता है, जो थिर | महावीर ने बहुत सोचकर ही समय नाम दिया आत्मा को। है। समता से बना है, सम्यकत्व से बना है समय। संतुलन से उसका वैज्ञानिक अर्थ भी है, उसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। बना है। संबोधि से बना है। जो मूल धातु संबोधि में है, वैज्ञानिक अर्थ तो मैंने कहा, जो आइंस्टीन का अर्थ है, वही सम्यकत्व में है, समता में है, समाधि में है, वही मूल धातु समय महावीर का है। और आध्यात्मिक अर्थ मैंने कहा, जो कृष्ण का म' का ठीक-ठीक अनुवाद समय नहीं है। अर्थ है-योग को सम्यकत्व कहने का, समत्व कहने और समय का ठीक अनुवाद 'टाइम' नहीं है। का-वही महावीर का अर्थ है। समय बड़ा बहुमूल्य शब्द है। काल तो केवल इसकी एक भाव-भंगिमा है। काल से ज्यादा छिपा है समय में। अगर समय दूसरा प्रश्न : मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे को जानना हो, तो सम्यकत्व को उपलब्ध होना पड़ेगा। इतने | ध्यान करने को कहता हूं और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है। शांत हो जाना पड़ेगा कि जहां कोई विचार की तरंग न रह जाए। पत्नी उत्तर देती है कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी। मेरे पास तब तुम्हें पहली दफे पता चलेगा, तुम किस धातु से बने हो। तब इसका जवाब नहीं है। कृपया बतायें कि यह बात कहां तक तुम्हें पता चलेगा तुम कौन हो। समता की आखिरी घड़ी में ही ठीक है, और यह कि पत्नी को कैसे समझाऊं? तुम्हें अपने समय का बोध होगा। इसलिए महावीर ने आत्मा को समय कहा। समता की अनुभूति। मनुष्य को सदा एक पागलपन सवार रहता है। जो मैं मानता कृष्ण ने कहा है, समत्व योग है। समत्व को ही योग कहा है। हूं, वह दूसरा भी माने। जो मैं मानता हूं, वही ठीक है। जो दूसरा इतने सम हो जाओ तुम कि द्वंद्व के जगत के पार हो जाओ। मानता है, वह गलत है। यह अहंकार की ही घोषणा है। साधारणतः हम बंटे हैं। साधारणतः हमारा चुनाव है। कोई स्त्री महावीर ने कहा है, दूसरा भी ठीक है। है, कोई पुरुष है। आत्मा न स्त्री है, न पुरुष। इसलिए समय है। मैं ही ठीक हूं, ऐसी धारणा निर्बुद्धिपूर्ण है। फिर अगर तुम्हारी आत्मा का जो अनुभव है, वहां न तो तुम स्त्री रह जाओगे, न | पत्नी को मूर्तिपूजा में आनंद मिल रहा है, तो तुम बाधा पुरुष। दोनों द्वंद्व गये। तुम दोनों द्वैत के पार हुए-अद्वैत हुए। डालनेवाले कौन? तुम्हें प्रयोजन क्या? सिर्फ पति होने के जिस क्षण तुम्हें पता चलेगा तुम्हारे वास्तविक स्वरूप का, उस | कारण? तुम्हें अड़चन मालूम हो रही है कि पत्नी पर पूरा कब्जा क्षण न तुम स्त्री होओगे, न पुरुष। उस क्षण तुम न जवान नहीं है। मैं ध्यान करता हूं, पत्नी मूर्तिपूजा करती है! तुम्हें ध्यान | होओगे, न वृद्ध। उस समय तुम न गोरे होओगे, न काले। उस में रस आ रहा है, ध्यान करो। पत्नी को मूर्तिपूजा में रस आ रहा क्षण तुम न स्वस्थ होओगे, न अस्वस्थ। सब द्वंद्व गया, समता है, मूर्तिपूजा करने दो।। आयी। उस क्षण न तुम सुखी होओगे, न दुखी। उस क्षण न रात रस असली बात है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव होगी, न दिन। उस क्षण न जन्म होगा, न मृत्यु। उस क्षण गये | रस है। कैसे रस मिलता है, यह बात गौण है। आम खाने हैं या सारे द्वंद्व। उस क्षण बस निर्द्वद्व-भाव शेष रहा। इसलिए महावीर गुठलियां गिननी हैं? ने आत्मा को समय कहा। समता, सम्यकत्व। लेकिन लोग गठलियों का ढेर लगाये बैठे हैं। उसी को वे ऐसा गहरा सम्यकत्व कि जहां अतिक्रमण हो जाता है। दर्शनशास्त्र कहते हैं। आम खाना तो भूल ही गये। तुम्हारी पत्नी 144 Jair Education International 2010_03 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है द्वार तुमसे बेहतर है। कम से कम यह तो नहीं कहती कि तुम ध्यान सामान्य जीवन में भी आत्मा प्रविष्ट होती है और देह धरकर छोड़ो। तुमसे ज्यादा समतावान है। पत्नियां अकसर ऐसी होती | बाहर आती है। जब प्रविष्ट होती है आत्मा स्त्री के गर्भ में, तब नहीं, तुम सौभाग्यशाली हो। पत्नियां इतनी आसानी से कब्जा | अरूप होती है। निराकार होती है। स्त्री उसे रूप देती है। नहीं छोडतीं। मेरे पास जो मामले आते हैं. दस मामलों में नौ | आकार देती है. रेखाएं देती है। देह देती है। पत्नियों के होते हैं कि वे पतियों पर जबर्दस्ती करती हैं। एक पति | तो स्त्री के अस्तित्व में ही देह देने का ढंग छिपा हुआ है। अगर का होता है कि वह पत्नी पर जबर्दस्ती करता है। | वह ध्यान भी करेगी, तो उसके गर्भ में भगवान रूप ले लेंगे। वह इस दृष्टि को छोड़ो। स्वतंत्रता प्रेम का अनिवार्य लक्षण है। | उसके देखने का ढंग है। पुरुष को समझ में नहीं आता कि क्या अगर तुम पत्नी को प्रेम करते हो, चाहते हो, उसका शुभ चाहते | पत्थर की मूर्ति के सामने बैठकर पूजा कर रही हो! पत्थर की मूर्ति हो, मंगल चाहते हो, तो उसे स्वतंत्रता दो। हालांकि तुम्हारा मन | तुम्हें है। जिसकी आंखें प्रेम से गीली हैं, उसके लिए पत्थर की यही कहेगा, मंगल चाहते हैं इसीलिए तो ध्यान करवा रहे हैं। | मूर्ति मुस्कुराती है, गाती है, गुनगुनाती है। बातचीत चलती है। तम्हारा मन कहेगा. मंगल चाहते हैं इसीलिए तो मर्तिपजा से | ऐसा ही नहीं कि स्त्री ही बोलती है, परमात्मा भी उससे उसी ढंग छुटकारा दिला रहे हैं, नहीं तो कौन फिजूल मेहनत करता! उसके | | से बोलता है। सच तो यह है कि अगर स्त्री ठीक प्रार्थना में हो तो ही हित में! लेकिन उसका हित वही निर्णय कर सकेगी, तुम न | कम ही बोलती है। रूठ-रूठ जाती है, परमात्मा मनाता है। निर्णय कर सकोगे। तुम उसे न समझ पाओगे। जरूरत भी तुम्हें समझने की नहीं बड़ा कठिन है दूसरे के स्थान पर खड़े होकर दूसरे की स्थिति है। तुम्हारा मार्ग ध्यान है। पुरुष का मार्ग ध्यान है। तुम अगर को देखना। वह सबसे बड़ी कला है। तुम स्त्री होकर देखो। तब प्रार्थना भी करोगे, तो भी तुम्हारा आकर्षण ध्यान की तरफ लगा तुम्हें समझ में आयेगा कि ध्यान और मूर्तिपूजा का फर्क क्या है? रहेगा। तुम प्रार्थना भी ध्यान के लिए ही करोगे। तुम मूर्तिपूजा-पूजा का भाव ही स्त्रैण-ध्यान है। वह स्त्री का ढंग है किसी तरह विचार से छुटकारा हो जाए, किसी तरह यह सब ध्यान करने का। स्त्री ध्यान भी करे, तो वह प्रार्थना से भिन्न नहीं तरंगें समाप्त हों—निस्तरंग हो जाऊं! स्त्री कहती है, कैसे यह हो सकता। प्रेम उसका स्वभाव है। पुरुष के लिए प्रेम और सब तरंगें रसपूर्ण हो जाएं। निस्तरंग होने की कोई आकांक्षा नहीं बहुत-सी चीजों में एक घटना है। स्त्री के लिए प्रेम उसका है। तुम्हारी आकांक्षाएं अलग हैं। होनी ही चाहिए। पुरुष और सब-कुछ है। पुरुष चौबीस घंटे में कुछ क्षण प्रेमपूर्ण होता है, स्त्री बड़े विपरीत हैं। इसीलिए तो उनमें आकर्षण है। विपरीत में लेकिन प्रेम सब कुछ नहीं है। और भी बहुत कुछ है पुरुष को आकर्षण होता है, खिंचाव होता है। इसीलिए तो पुरुष स्त्री पर करने को। स्त्री के लिए प्रेम सब-कुछ है, उसका सर्वस्व है। आसक्त है, स्त्री पुरुष पर आसक्त है। अगर बिलकुल एक जैसे ध्यान की बात तो स्त्री को जमेगी ही नहीं। वह ध्यान भी करेगी | होते तो आकर्षण टूट जाता। विपरीत खींचता है। लेकिन इस तो नाम ही ध्यान रहेगा, होगी प्रार्थना। ध्यान में भी आंसू बहेंगे। विपरीतता को समझना चाहिए। ध्यान में भी रस उमगेगा। ध्यान में भी मूर्ति प्रविष्ट हो जाएगी। स्त्री तोड़ने की कोशिश करती है पति को कि वह भी उसी के ध्यान में भी परमात्मा रूप धर लेगा। स्त्री के पास रूप देने की | ढंग से चले, पति तोड़ने की कोशिश करता है स्त्री को कि वह भी कला है। उसके ढंग से चले। यहीं भ्रांति हो जाती है, यहीं गलती हो जाती इसलिए तो गर्भ है उसके पास। है। यहीं महावीर को समझना बड़ा उपयोगी है। महावीर ने जो निराकार आत्मा उतरती है और स्त्री के गर्भ में रूप ले लेती है। दृष्टि दी है, वह है स्यातवाद। वे कहते हैं, दूसरा भी ठीक होगा। मूर्ति का जन्म हो जाता है। पुरुष के पास वैसी क्षमता नहीं है। होना चाहिए। नहीं तो दूसरा टिका क्यों रहेगा उस पर? मूर्ति वह निराकार को आकार बनाने में कुशल नहीं है। वह निराकार इतने दिन से मिटायी जाती रही है, फिर भी बनी है। कितनी को आकार देने में समर्थ नहीं है। स्त्री की बड़ी सामर्थ्य है। मूर्तियां तोड़ी गयीं, फिर-फिर बन जाती हैं। जब तक स्त्री है, उसके पास कुछ है, जिससे निराकार आकार बन जाता है। मूर्ति टूट नहीं सकती। कोई उपाय नहीं। स्त्री को ही तोड़ डालो, 145 2010_03 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Homwwcommonloonlowa adeomammeenieswwwwwwwwwwwwwwwwwwein जिन सूत्र भाग : 2 BARBARIMARHI तो बात अलग। उस दिन मूर्ति टूट जाएगी। लेकिन स्त्री को वहां तुम देखोगे, अरे! प्रार्थना भी वहीं ले आयी, पूजा भी वहीं तोड़कर तुम भी न बचोगे। ले आयी, ध्यान भी वहीं ले आया। सभी मार्ग वहीं ले आते हैं। पुरुष के धर्म मूर्ति-विरोधी हैं। स्त्री का धर्म रूप का, रंग का, अंतर यात्रा-पथों का है, मंजिल का नहीं है। रस का, उत्साह का, उत्सव का। पुरुष का धर्म त्याग का, दूसरे को समझने की, दूसरे की स्थिति को समझने की करुणा तपश्चर्या का, संकल्प का, संघर्ष का। स्त्री का धर्म समर्पण का, दिखानी चाहिए। तर्क बड़ा कठोर है। प्रेम बड़ा करुणापूर्ण है। शरणागति का। स्त्री ने चाहा नहीं निराकार को कभी, स्त्री को तो अगर तुम अपनी पत्नी को चाहते हो, तो तुम यही चाहोगे कि वह समझ में भी नहीं आता कि निराकार को चाह कर करोगे क्या? सुख को पाये, आनंद को पाये, महासुख की यात्रा पर जाए। प्रभु जिससे छाती न लग सको, जिसे भर-आंख देख न सको, उसे मिलें। फिर जिस ढंग से उसने चाहा हो, वैसे मिलें। और जिसके हाथ में हाथ न दे सको, जिसे सुन न सको, जिससे बोल परमात्मा उसी ढंग से मिल जाता है, जिस ढंग से तुम उसे खोजते न सको, ऐसे निराकार के होने में और न होने में क्या फर्क है? हो। वह तुम्हारे ढंग से तुम्हारे पास आ जाता है। हजार रूप हैं निर्गुण को क्या करोगे? खाओगे, पीओगे, ओढ़ोगे, उसके। अरूप भी वही है। संकल्प से भी मिल जाता है। बिछाओगे-क्या करोगे? | समर्पण से भी मिल जाता है। सत्य बेशर्त है। उसकी कोई शर्व नहीं, स्त्री की तो प्रार्थना है कि तुम स ग होकर आना। तुम नहीं कि एस आआग, नहीं कि ऐसे आओगे, तो ही मिलंगा। आओ, बस आओ। रूप धरकर आना, ताकि तुम्हें देख तो सकें। आंखें जन्मों-जन्मों किस रास्ते से आते हो, पूरब कि पश्चिम, कि उत्तर कि दक्षिण, की प्यासी हैं। तुम बोलना, ताकि तुम्हारा संगीतपूर्ण स्वर मेरे नहीं कोई भेद पड़ता। नाचते आते, गीत गाते आते, कि मौन सोये प्राणों को जगा सके। तुम आना, मुझे सहलाना; तुम आते, नहीं फर्क पड़ता। आना, मेरे साथ नाचना।। मीरा वहीं पहुंच गयी, जहां महावीर पहुंचे। और अगर चुनना तुम स्त्री को बाधा मत दो। बाधा देना अधार्मिक है। अगर उसे ही हो, तो मीरा का मार्ग ज्यादा रसपूर्ण है। वहां बहुत फूल खिले रस मिल रहा है, ठीक। अगर तुम्हारी समझ में नहीं पड़ता, तो | हैं। महावीर का मार्ग तो मरुस्थल जैसा है। सूखा। मरुस्थल का तुम्हें समझने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें जिसमें रस मिल रहा है, भी सौंदर्य है। मरुस्थल की भी विराटता है। मरुस्थल का भी ठीक! रस ही असली बात है। रस है मापदंड। रस न मिल रहा | विस्तार है। सन्नाटा है। मरुस्थल की शांति है। लेकिन फूलों से हो, तो सोचने की जरूरत है। और मुझे लगता है, तुम्हारी स्त्री | लदे वृक्षों के नीचे से गुजरने का भी अपना सौंदर्य और अपना को तुमसे ज्यादा रस मिल रहा है। तुम्हें पूरा रस नहीं मिल रहा। आनंद है। मीरा नाचती हुई पहुंची। महावीर ठहरकर पहुंचे, तुम्हारा ध्यान ठीक नहीं उतर रहा। क्योंकि जब खुद का ध्यान मीरा नाचकर पहुंची। महावीर रुककर पहुंचे, मीरा दौड़कर ठीक उतरता है, कौन फिकिर करता है? तुम्हें अड़चन है। तुम पहुंची। लेकिन जो घटा वह बिलकुल एक है। सिद्ध करना चाहते हो कि मेरा ध्यान बडा तम्हें जो उचित लगता हो, चलो। न तो दसरे को मौका दो कि बहुमूल्य है। तुम तर्क और प्रमाण, विवाद खड़ा करना चाहते तुम्हारे मार्ग पर बाधा दे और न तुम ऐसी कुछ कोशिश करो कि हो। इस तरह दूसरे को तुम राजी करके अपनी आंखों के सामने किसी के मार्ग पर बाधा पड़े। तुम्हें कैसे पता चला कि मूर्तिपूजा यह भाव बनाना चाहते हो कि नहीं, तुम्हारी बात ठीक होनी ही ठीक नहीं है? तुमने मूर्तिपूजा की? अगर की होती, तो पता चाहिए। देखो पत्नी ने भी मान लिया। चलता। की ही नहीं, तर्कजाल बिठाये बैठे हो। मूर्तिपूजा का लेकिन यह मनवाना खतरनाक है। उसे चलने दो उसकी राह तर्कजाल से कुछ लेना-देना नहीं है। मूर्तिपूजा तो रस का अनुबंध पर। दूसरे की सहमति आवश्यक कहां है? तुम अपने ध्यान में है। प्रेम का अनुबंध है। स्त्री तो सपनों में जीती है। मगर उसकी डूबो, उसे अपनी प्रार्थना में डूबने दो। डूब-डूबकर तुम एक दिन शक्ति इतनी है कि सपनों को साकार कर लेती है। जाने दो, उसे पाओगे कि तुम एक-ही गहराई में पहुंच गये हो। वहां तुम्हारा विदा दो खुशी के साथ कि तू अपने मार्ग पर जा। मिलन होगा, वहां तुम अपनी पत्नी को फिर नये रूप में पाओगे। 'मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे ध्यान करने को 146 2010_03 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREFER RIER Mosities कहता हूं।' बंद करो ऐसा कहना! तुम कौन हो? पति होने से न सभी सागरों की गहराई ही छुई है। और तुम सभी घाटों से तम उसकी आत्मा के मालिक नहीं हो। यह जो सात फेरे पड़े उतरे नहीं, और तुमने सभी नावों से यात्रा नहीं की है। तुम इतना होंगे, इनसे एक सांसारिक रिश्ता बन गया है, लेकिन उसकी ही कह सकते हो कि मेरी नाव ने पहुंचा दिया। दूसरी नावें आत्मा को तुमने खरीद नहीं लिया। मुक्त करो उसे। उसे जाने दो पहुंचाती हैं, नहीं पहुंचाती हैं, मैं कैसे कहूं? जो चले हों उन नावों अपने मार्ग पर। उसे चुनने दो अपनी विधि, अपना विधान। से, पूछो उनसे। उसके हृदय को बहने दो। महावीर कहते हैं खुद, कि मैं एक तीर्थ बनाता हूं। तीर्थ का 'और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है।' भूलकर ऐसी बात मत | अर्थ होता है, घाट। नदी बड़ी है। बड़ी गंगा है। गंगोत्री से कहना। किसी को उसके रास्ते से व्यर्थ ही भटकाना मत। अगर | सागर तक फैली है। हजारों-लाखों घाट हैं। महावीर कहते हैं, व्यर्थ होगी, तो एक दिन उसे समझ में आयेगी बात, तब वह | मैं एक घाट बनाता हूं। एक तीर्थ बनाता हूं। इसीलिए तीर्थंकर रूपांतरित होगी। कोई किसी दूसरे के समझाये कहीं समझा है? | शब्द। वह यह नहीं कहते कि दूसरे घाट गलत हैं। वह कहते हैं, अपने अनुभव से ही लोग जागते हैं। अगर सार्थक होगी, तो | इतना ही में कहता हूँ कि मेरे घाट से में पहुंच जाएगी। अगर व्यर्थ होगी, तो आज नहीं कल, भटककर | सकते हो। अगर मेरा घाट तुम्हें आकर्षित करता हो, अगर मेरे लौट आयेगी। जब तुमसे पूछे कि समझाओ मुझे ध्यान, क्योंकि घाट में तुम्हें कोई लुभावना निमंत्रण मिलता हो, आ जाओ, मेरी मूर्तिपूजा तो मेरी व्यर्थ हुई, तब निवेदन कर देना। लेकिन तब | नाव तैयार है। महावीर तो एक माझी हैं। नाव लिए तैयार खड़े तक प्रतीक्षा करना, धैर्य रखना। जिस दिन पूछे तुमसे, जिस दिन | हैं, जिनको उतरना हो इस घाट से, इससे उतर जाएं। लेकिन तुम्हारा आनंद उसे छुए और उसे लगे कि तुम तो कुछ पा लिये | महावीर कहते हैं, नदी बड़ी है, घाट और भी हैं। और औरों से और मैं कुछ चूक गयी हूं, उस दिन समझा देना। | भी लोग उतरे ही होंगे, अन्यथा घाट टूट गये होते, बंद हो गये गरु बनने की चेष्टा मत करो। जिस दिन कोई शिष्य बनकर | होते. समाप्त हो गये होते। अगर कोई कभी न उतरा होता. अगर आ जाए, उस दिन अपना सत्य निवेदन कर देना। तब भी तुम | उन घाटों से चलकर लोग डूबते ही रहे होते और दूसरा किनारा यह मत कहना कि मूर्तिपूजा गलत है। तब तुम इतना ही कहना | मिलता ही न होता, तो घाट समाप्त हो गये होते। कि ध्यान सही है। इनमें फर्क है। क्योंकि तुम इतना ही कह इतने धर्म हैं जगत में, क्योंकि सभी धर्मों में सत्य का कोई अंश सकते हो कि मैंने ध्यान किया और पाया कि सही है। मूर्तिपूजा है। सभी किसी न किसी तरह किसी न किसी को पहुंचाते रहे, मैंने कभी की नहीं, तो मैं कौन ? मैं कैसे कहूं, गलत या सही? अन्यथा उनके होने का अर्थ खो जाए। असत्य जी नहीं सकता। कुछ भी कह सकता नहीं। ध्यान मेंने किया है और पाया है कि थोड़ी-बहुत देर शोरगुल मचा सकता है, मर जाएगा। सत्य ही सही है। अगर तेरी मूर्तिपूजा का रास्ता तुझे न पहुंचाता हो, तो जीता है। सत्य ही जीतता है। सत्यमेव जयते। यह मेरे ध्यान के सूत्र हैं, यह निवेदन है। लगे तुझे ठीक, चल मूर्तिपूजा व्यर्थ है, ऐसा तो कहना ही मत। इससे तुम्हारा क्रोध पड़। न लगे ठीक, तेरी मर्जी। फिर भी थोपना मत। सत्य थोपे | तो मालूम पड़ता है, प्रेम नहीं मालूम पड़ता। इससे तुम्हारी हिंसा नहीं जाते। तो मालूम पड़ती है, तुम्हारी करुणा नहीं मालूम पड़ती। इससे सत्याग्रह शब्द बिलकुल गलत है। सत्य का कोई आग्रह होता | ऐसा तो लगता है कि तुम पत्नी को दबाने को उत्सुक हो, अपने ही नहीं। सत्य का सिर्फ निवेदन होता है। सत्य की तो आग्रह के | पीछे चलाने को उत्सुक हो, छाया बनाने को उत्सुक हो, उसको साथ अगर तुमने गांठ बांध दी, तो आग्रह जीत जाएगा, सत्य मर तुम आत्मा की स्वतंत्रता देने को तैयार नहीं। और प्रेम, कैसा जाएगा। सत्य की फांसी लग जाती है सत्याग्रह में। आग्रह ? प्रेम, जो इतनी भी स्वतंत्रता न दे! पूजा, प्रार्थना, ध्यान तो बड़ी महावीर ने कहा है, निराग्रह। जो निराग्रह-भाव को उपलब्ध आत्यंतिक बातें हैं। इससे पति-पत्नी का कुछ लेना-देना नहीं। होता है, वही सत्य को उपलब्ध होता है। सब आग्रह छोडो। दनिया जब अच्छी होगी. तो स्वतंत्रता और गहन होगी-पत्नी। जगत बड़ा है, विराट है। तुमने सब रास्ते नहीं नाप लिये हैं और हो सकता है मस्जिद जाए, पति हो सकता है मंदिर जाए। बेटे हो 2010_03 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 सकता है कहीं भी न जाएं, ध्यान करें और कोई किसी को बाधा न | जाता है। दे। जिसको जहां ठीक लगे। किसी को करान से रस मिल जाता | परमात्मा कहीं कोई बैठा थोडे ही है? तम अपना जीवन-दान है, रसधार बहती है, बहे। रसधार ही असली बात है। कोई | देकर उसे सृजन करते हो। परमात्मा मनुष्य का सृजन है। वह गीता में डूब जाता है, डूबे। डूबना ही असली बात है। कोई | तुम्हारी सृष्टि है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम गये और मिल गया। महावीर के साथ चल पड़ता है; कोई मीरा के साथ नाचता है, | कि कहीं किसी पहाड़ की कंदरा में छिपा बैठा है, कि आसमान में नाचे, चले। एक ही बात ध्यान में रहे, रूपांतरण हो रहा? तुम चांद-तारों पर बैठा है, कि तुम्हें खोजना है जरा। खोजना नहीं है. रससिक्त हो रहे? तुम्हारे प्राण मधु से भर रहे? तुम्हारे प्राण निर्मित करना है। परमात्मा तो नृत्य-जैसा है। इसलिए मुझे मधुमय हो रहे? तुम डूब रहे? तुम नाच रहे? तुम शांत, प्रीतिकर लगता है हिंदुओं का यह खयाल कि उन्होंने शिव को आनंदित हो रहे? बस। और ऐसा भी जब हो, तब भी दूसरे पर नटराज कहा। थोपना मत। | परमात्मा नर्तक जैसा है। अगर तुम्हें नृत्य खोजना हो, तो तुम एक बात स्मरण रखना, स्वतंत्रता थोपी नहीं जा सकती। तो जंगल में खोजोगे? नृत्य खोजना हो तो नाचना सीखो। नृत्य मोक्ष तो कैसे थोपा जा सकता है! अगर कोई व्यक्ति अपनी ही कहीं रखा हुआ थोड़े ही मिलेगा। किसी तिजोरी में बंद थोड़े ही मर्जी से नर्क भी जाए, तो भी प्रसन्न होगा। और अगर जबर्दस्ती | है। नृत्य तो तुम नाचोगे तो होगा। और जब तक तुम नाचते स्वर्ग में भी धका दिया जाए, तो भी अप्रसन्न होगा। जबर्दस्ती में रहोगे, तब तक रहेगा। नाच बंद हुआ कि नृत्य बंद हुआ। नृत्य अप्रसन्नता है। नर्क भी अपनी ही मर्जी से चुना हो, तो स्वतंत्रता गया। तुम ऐसा नहीं कह सकते कि आज नाच लिये, यह देखो है। स्वर्ग भी जबर्दस्ती मिल जाए कि पुलिसवाले हथकड़ी हमारी मुट्ठी में नाच रखा है। नाचोगे, बस उतनी ही देर रहता है। डालकर तुम्हें स्वर्ग ले जाएं, तब तो तुम्हें स्वर्ग भी नर्क हो जितनी देर नाचे, नृत्य। जितनी देर नहीं नाचे, नाच खो गया। जाएगा। स्वर्ग वहीं है जहां स्वतंत्रता है। जहां परतंत्रता है, वहीं परमात्मा नृत्य जैसा है। नटराज! तुम जब ध्यान में हो, तब नर्क है। किसी के लिए नर्क खड़ा मत करना। पत्नी तुम पर | होता है। जब तुम ध्यान के बाहर हो गये, खो गया। जब तुम निर्भर है, आर्थिक रूप से निर्भर है। पत्नी तो ऐसे है जैसे वृक्ष पर प्रार्थना में होते हो, तब होता है। जब तुम प्रार्थना के बाहर हो छायी हुई लता हो, वृक्ष पर निर्भर है। वृक्ष हट जाए तो लता | गये, खो गया। इसीलिए तो मैं कहता हूं, प्रार्थना हो या ध्यान, जमीन पर गिर जाए। उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत है। इस सहारे तुम्हारी सहज चर्या बने। चौबीस घंटे तुम्हारा वातावरण बने। तो को शोषण मत बनाना। इस सहारे के आधार पर उसको चूसने ही परमात्मा को तुम पा सकोगे, नहीं तो न पा सकोगे। मत लगना, उसकी आत्मा को नष्ट मत करने लगना। ___ प्रतिपल उसे जन्म देना पड़ता है, तो ही परमात्मा तुम्हारे हाथ में 'पत्नी उत्तर देती है कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी।' होता है। परमात्मा सृजनात्मकता है। तुम सृजन करो, तो मिलता ठीक ही उत्तर देती है। और बेचारी कहे भी क्या? तुम ज्यादा | है। औरों ने कहा है, परमात्मा स्रष्टा है, मैं तुमसे कहता है कि तर्क-कुशल होओगे, तुम ज्यादा सिद्धांत की बकवास कर सकते तुम स्रष्टा हो। और तुम परमात्मा को जन्म दोगे, तो होगा। होओगे, वह इतना ही निवेदन कर सकती है कि मुझे कुछ और तो परमात्मा प्रथम नहीं है; तुम्हारे जीवन की श्रेष्ठतम ऊंचाई और पता नहीं, लेकिन क्या तुम कहते हो कि मीरा को परमात्मा नहीं गहराई में है; परमात्मा अंतिम है। परमात्मा कारण नहीं है जगत मिला? और अगर मीरा को मूर्तिपूजा से मिल गया, तो मुझे क्यों | का, जगत की नियति है। जहां पहुंचना चाहिए सभी को। जैसा न मिलेगा? वह एक छोटा-सा निवेदन कर रही है कि बख्शो | होना चाहिए सभी को। वह फूल है, आखिरी खिला हुआ फूल। मुझे, छोड़ो मुझे! निश्चित ही मीरा को भी परमात्मा मिला। उससे ऊपर फिर कुछ भी नहीं। मूर्तिपूजा से ही मिला। मूर्तिपूजा और न पूजा का थोड़े ही सवाल तो अगर कोई प्रार्थना से खुल रहा है, खिल रहा है, सुगंधित हो है, जहां तुम अपने हृदय को उंडेल देते हो, वहीं से मिल जाता रहा है, खुश होओ। ठीक कहती है पत्नी, कि मीरा भी तो है। तुम पत्थर पर उंडेल दो हृदय को, वही पत्थर परमात्मा हो | मूर्तिपूजा करती थी। मीरा के पति को भी ऐसी ही अड़चन थी, 148 2010_03 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसी तुमको है। पुरुष को प्रार्थना जमती नहीं। पुरुष को थोड़ी करते हो? तुम मुझे बुढ़ापे में भी प्रेम करोगे? तुम मुझे सदा ही गड़बड़ मालूम होती है, वह तर्क उसकी पकड़ में नहीं आता। आ| प्रेम करते रहोगे? मुल्ला अपना अखबार पढ़ रहा है। भन्ना रहा नहीं सकता। उसको दो और दो चार होते हैं, यह तो समझ में है भीतर कि वह पढ़ने नहीं दे रही। वह कहता है कि हां देवी, आता है, गणित उसके लिए सीधी भाषा है, काव्य उसको समझ | सदा-सदा प्रेम करूंगा। तमसे ज्यादा संदर कोई स्त्री नहीं है। में नहीं आता। इसलिए स्त्री और पुरुष एक दूसरे को समझ नहीं तुम परम सुंदरी हो। और तुम सदा सुंदर रहोगी। मैं सोच ही नहीं पाते। तुम अभी तक अपनी पत्नी को समझ पाये? इतने वर्ष सकता कि कभी तुम बूढ़ी हो सकती हो। और फिर बोला कि साथ रह लिये। कह सकते हो हिम्मत से कि समझ गये? अब बकवास बंद करो, मुझे अपना अखबार पढ़ने दो। मुश्किल है। न पत्नी तुम्हें समझ पाती है। | मगर वह जो भीतर का भाव है, वह तो चेहरा कहे दे रहा है। जब पति और पत्नी बात करते हैं, तो तुम समझो कि बात होती | तुम क्या कहते हो, यह स्त्री नहीं सुनती; तुम क्या हो, इसे सुनती एक कुछ कहता है, दूसरा कुछ सुनता है। एक-दूसरे | है। इसलिए तुम सब उपाय करते हो, फिर भी तुम पाते हो कि के तर्क समानांतर चलते हैं, कहीं मिलते नहीं। क्योंकि दोनों के कुछ बात पहंची नहीं। देखने के ढंग बड़े भिन्न हैं। पत्नी तार्किक है ही नहीं। वह | ___ जब तक तुम ठीक-ठीक सच्चे न होओ, जब तक तुम जो कहो एक-एक सीढ़ी कदम-कदम रखकर तर्क को नहीं फैलाती, और तुम जो हो उसमें कोई भेद ही न हो, तब तक तुम स्त्री के सीधी छलांग लेती है। एक बात से दूसरी बात पर उछल जाती साथ कोई संवाद नहीं कर सकते। असंभव है। है। पति चौकन्ना खड़ा रह जाता है कि अभी यह तो कोई बात ही स्त्री द्वंद्व को कम जानती है। ज्यादा भोली-भाली है। न थी! लेकिन पत्नी के चलने के ढंग बड़े अदृश्य हैं। अचेतन सीधी-साफ है। पुरुष ज्यादा कुशल हो गया है। और उसकी हैं। तुम क्या कहते हो, यह वह कम सुनती है; तुम क्या कहना कुशलता चल जाती है बाजार में, क्योंकि वहां दूसरे भी पुरुष हैं। चाहते हो, यह वह पहले सुन लेती है। तुम शब्दों से क्या कह रहे तो वहां तर्क एक ही है। इसलिए बड़े से बड़ा योद्धा भी पत्नी के हो, इसकी वह बहुत फिकर नहीं करती, तुम्हारी आंखें क्या कह सामने कंपने लगता है। बड़े से बड़ा संघर्षशील व्यक्ति भी, जो रही हैं, तुम्हारे हाथ क्या कह रहे, तुम्हारे पैर क्या कह रहे, उसे बाहर विजय-पताका फहरा आता है, घर आते ही डरने लगता है वह पहले सुन लेती है। वह तुम्हारे शब्दों के धोखे में नहीं आती। कि चले घर ! क्या हो जाता है? एक स्त्री को तुम नहीं हरा पाते! मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा था। देखकर वह | स्त्री कुछ और ढंग से बनी है। उसकी कीमिया अलग है। एकदम घबड़ा गया! जूरी बारह स्त्रियां बैठी हैं। उसने कहा, मैं | तुम्हारी पत्नी ठीक ही कहती है कि मीरा भी तो पहुंच गयी। अपना अपराध इसी वक्त स्वीकार करता हूं। मजिस्ट्रेट ने कहा, | अगर एक पहुंच गया उस मार्ग से, तो हम भी पहुंच जाएंगे। तुम अभी तो अदालत शुरू भी नहीं हुई। उसने कहा, अब कोई | उस पर कृपा करो! तुम उसे कहो कि तू चल, अपनी राह से जरूरत ही नहीं। एक स्त्री को धोखा नहीं दे पाता, बारह! यह चल। अगर तुम ध्यान पर वस्तुतः चल रहे हो, तो तुम उसे संभव नहीं है। जो सजा हो आप मुझे दे दें, इस झंझट में मैं पड़ने | प्रार्थना पर चलने दोगे। तुम्हारा ध्यान कम से कम इतना बल तो को ही राजी नहीं। | तुम्हें देगा। तुम्हारा ध्यान कम से कम इतनी समझ तो तुम्हें देगा, स्त्री के देखने, पकड़ने के ढंग परोक्ष हैं। इसलिए तुम इतनी प्रज्ञा तो तुम्हें देगा। भी होते हो कि मैंने इतनी अच्छी बात कही. पछा है. मेरे पास इसका जवाब नहीं है। मेरे पास भी नहीं है। फिर भी पत्नी को प्रसन्नता न हुई? तुमने कही तो अच्छी बात, | इसका जवाब ही नहीं है, करोगे क्या? इसमें तुम्हारा कोई कसूर लेकिन बात के पीछे-पीछे तुम कुछ और भी कह रहे थे। बात के | नहीं है। मीरा पहुंची है, अब जवाब हो भी कहां से? तो तुम किनारे-किनारे कोई और बात भी दबी-दबी चल रही थी। | ऐसी जगह जवाब खोजने में लगे हो, जहां जवाब नहीं है। तुम्हारी आंखें, तुम्हारा चेहरा उसे प्रगट कर रहे थे। - महावीर भी पहुंचे हैं, मीरा भी पहुंची है। कृष्ण भी पहुंचे, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है कि तुम मुझे प्रेम क्राइस्ट भी पहुंचे। मुहम्मद भी पहुंचे, बुद्ध भी पहुंचे। 149 2010_03 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ swww जिन सूत्र भाग: 2 R ellinal अलग-अलग रास्तों से पहुंचे। सभी पहुंच जाते हैं। चलते भर और सब बन जाऊंगा, पति कभी नहीं बनूंगा। रहो, चलना भर न रुके। भटको तो भी पहुंच जाओगे, लेकिन एक गहन संघर्ष है। इसे समझने की कोशिश करो। पुरुष रुको भर मत, चलते रहो। आज भटकोगे, कल भटकोगे, कब पाशविक-दृष्टि से स्त्री से ज्यादा बलशाली है। उसके पास तक भटकोगे? आखिर भटकन भी पहचान में आने लगेगी। ज्यादा ‘मस्कुलर' शक्ति है। शरीर से थोड़ा बड़ा भी है, रोज-रोज भटकोगे, समझ में आने लगेगा। गलत समझ में आ | शक्तिशाली भी है। स्त्री को सब तरह से दबा लेता है। तो फिर जाए, तो ठीक की तरफ पैर पड़ने लगते हैं। असार समझ में आ स्त्री भी उसे दबाने के सूक्ष्म रास्ते निकालती है। यह बिलकुल जाए, तो सार की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। और तो कोई स्वाभाविक है। कमजोर की भी तरकीबें होती हैं सताने की। रास्ता भी नहीं है। अनुभव ही रास्ता है। उसकी फिर सूक्ष्म तरकीबें होती हैं। तुम उसे मार सकते हो, पीट 'और यह समझाएं कि मैं पत्नी को कैसे समझाऊं?' सकते हो, ठीक। लेकिन वह कुछ ऐसे छोटे-छोटे उपद्रव कर समझाओ ही नहीं। तुम समझो। लौटकर घर पत्नी से क्षमा सकती है, जिनकी इकट्ठी मात्रा तुम्हें पागल कर दे। छोटे-छोटे मांग लेना कि अब तक जो कहा-सुना, कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है दिखायी पड़ते हैं, सीधे तुमसे संबंध भी नहीं, तुम तर्क भी नहीं इत्यादि, वह मेरी भूल थी। तू अपनी राह पर जा। शायद तुम्हारा कर सकते। यह क्षमा मांग लेना ही रास्ता बनेगा कि वह भी तुम्हें समझ सके जैसे जिस दिन तुम्हारी पत्नी से झंझट हो गयी हो और तुम | और तम भी उसे समझ सको। जरूरी नहीं है कि तम्हारी पत्नी उसको अकड बताये, परेशान किये. उस दिन घर में बर्तन. को प्रार्थना में आनंद मिल ही रहा हो। जरूरी नहीं है कि मूर्तिपूजा प्याली ज्यादा टूटेंगे। क्या करोगे? तुम यह तो कह ही नहीं में उसे रस आ ही रहा हो। लेकिन पति की बात तोड़ने में भी रस सकते कि यह मेरे कारण टूट रहे हैं। वह सीधा तुम पर हमला आता है। गुलामी तोड़ने में सभी को रस आता है। जबर्दस्ती कर ही नहीं रही। वह तुम्हें नहीं मार रही है, प्यालियों को मार रही तोड़ने में सभी को रस आता है। हो सकता है मूर्तिपूजा इसीलिए है। बर्तन जोर से बजेंगे। लेकिन अगर दिनभर यह चलता रहा चल रही हो कि तुम विरोध में हो। है, तो तम्हारे मस्तिष्क पर धीरे-धीरे चोट पड रही है। तम जानते कभी-कभी कोई पति मेरे पास आ जाता है, वह कहता है मैं तो हो कि बर्तन किसके सिर पर टूट रहे हैं। क्यों टूट रहे हैं। दरवाजे संन्यास ले रहा है, अब मेरी पत्नी! मैंने कहा, अब जरा मुश्किल जोर से लगेंगे। घर में एक तफान-सा मालुम पड़ेगा। सीधे वह है। पहले पत्नी आ जाए और संन्यास ले ले, तो संभावना है कि तुम पर हमला भी नहीं करेगी। उसका हमला बड़ा सूक्ष्म होगा, पति को आज नहीं कल ले आयेगी। लेकिन पति पहले आ जाए बड़ा अहिंसक होगा, लेकिन वह तुम्हें तोड़ लेगी। किसी को एक तो बहुत मुश्किल हो जाती है। फिर तो पत्नी आती ही नहीं। फिर चांटा मार देना उतना नहीं तोड़ता, जितना दिनभर उसको सताये तो वह इस तरफ कान ही नहीं देती। पति और पत्नी के बीच ऐसी चले जाओ। तो स्त्रियां उस कला में पारंगत हो गयी हैं। क्योंकि दुश्मनी कि सारी दुनिया से पत्नी हारने को तैयार है, लेकिन पति पुरुष ने उनको ऊपर से तो दबा लिया, लेकिन अब वे क्या करें? से कभी नहीं। यह तो परमात्मा हैं, इनसे हारना ! कभी नहीं। सीधा उत्तर देने का उनके पास कोई उपाय नहीं। तो उन्होंने परोक्ष पश्चिम में बड़ा विचारक हुआ, हेनरी थारो। किसी ने उससे उत्तर देने शुरू कर दिये। वे बूंद-बूंद सताती हैं। लेकिन बूंद-बूंद पूछा कि तुमने विवाह क्यों न किया? उसने कहा कि एक होटल की इकट्ठी मात्रा बड़ी हो जाती है, गागर भर जाती है। और फिर से भोजन करके निकल रहा था, धक्कम-धुक्का थी, भीड़-भाड़ | वे छोटी-छोटी चीज में प्रतिरोध करती हैं। थी। एक स्त्री के पैर पर मेरा जरा पैर पड़ गया, वह एकदम रोज...मैं अनेकों घरों में ठहरता था—यात्रा के दिनों में...तो आगबबूला होकर चिल्लायी कि शैतान कहीं के! हरामजादे !! बैठे हैं, मैं पति के साथ बैठा हूं कार में, वह हार्न बजा रहे हैं, तो मैं एकदम घबड़ा गया कि अब यह फजीहत होगी। उसने पत्नी कहती है, आते हैं। मगर आ ही नहीं रही। अब उसे पता है लौटकर मुझे देखा, अरे! उसने कहा कि क्षमा करना ! मैं समझी कि ठीक वक्त पर कहीं जाना है। लेकिन यह मौका है, जब वह कि मेरे पति हो। तो उसी दिन मैंने तय कर लिया, कभी नहीं। दिखा देगी कि मालिक कौन है। यह मौका वह नहीं छोड़ 1500 2010_03 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकती। वह अभी सज ही रही है। अभी वह साड़ी ही चुन रही आ भी जाए सुख देने, तो भी तुम द्वार बंद कर लोगे। तुम है। पति भन्नाये जा रहे हैं। लेकिन अब करोगे भी क्या? अब | कहोगे, दुख से अब पुराना नाता बन गया। अब छोड़े नहीं इस वक्त झगडा-झांसा खडा करना और देर करवा देगा। इस बनता। अब संग-साथ छोड़ना संभव नहीं है। इसी तरह मनष्य वक्त शांति से पी जाना ही ठीक है। यह परोक्ष आक्रमण है। के भीतर दुखवाद पैदा होता है। तो अगर हो सकता है, तुम्हारी पत्नी को प्रार्थना-पूजा से कोई जो लोग दुखवादी हैं, वे प्रथम सभी सुखवादी थे। सुख की रस भी न आ रहा हो, लेकिन चूंकि तुम जिद्द किये जा रहे हो कि खोज में गये थे, लेकिन सुख तक पहुंच न पाये। न पहुंचने से ध्यान करो, तो एक बात तो पक्की है कि वह ध्यान न करेगी। यह सिद्ध नहीं होता कि सुख नहीं है। इससे इतना ही सिद्ध होता और ध्यान न करने के लिए ही हो सकता है पूजा-प्रार्थना में है कि तुम्हारे पहुंचने में कहीं भूल-चूक रही। तुमने कुछ गलत उलझी हो। तुम हटा लो अपना विरोध। तुम उससे जाकर क्षमा दिशा में खोजा। तुमने ठीक से नहीं खोजा। या पूरी त्वरा और मांग लेना कि अब तक जो कहा-सुना, सब भूल थी, गलत था, | शक्ति से नहीं खोजा। तुमने पूरा अपने को दांव पर नहीं मुझे माफ कर दे; अब मेरा कोई आग्रह नहीं कि तू ध्यान कर, | लगाया। इतना ही सिद्ध होता है। सुख तो है। लेकिन सुख अब तो तू जो कर, वही ठीक है। प्रार्थना कर, पूजा कर, मीरा भी मिलता है बड़ी गहन खोज से। लेकिन रास्ते में धीरे-धीरे कष्ट पहुंची, तू भी पहुंच सकती है। तब तुमने उसे छुट्टी दे दी। अब और कष्ट और कष्ट झेलते-झेलते तुम्हारा कष्ट के साथ वह सोचेगी कि वस्तुतः उसे मिल रहा है रस, या सिर्फ तुम्हारा संग-साथ बन गया। तुम्हारी दोस्ती कष्ट से हो गयी। अब तो विरोध करने का रस था? अब पुराने रस का तो कोई कारण न तम्हें ऐसा डर लगेगा कि कहीं कष्ट छट न जाए। नहीं तो अकेले रहा। अगर विरोध का ही रस था, तो वह तो खतम हो गया। हो जाएंगे। इस तरह दुखवाद पैदा होता है। विरोध ही खतम हो गया। तो रस मिल रहा होगा, तो ठीक। न स्त्रियों में यह दुखवाद पुरुष से ज्यादा जल्दी पैदा हो जाता है। मिल रहा होगा, तो वह ध्यान की तरफ अपने-आप आ जाएगी। फिर दुख में एक रस-रुग्ण रस! उसे तुम बहुत मूल्य मत लेकिन तुम लाने की चेष्टा छोड़ दो। कोई किसी को जबर्दस्ती देना। फिर वह दुख के गीत गाने लगती हैं। परमात्मा की तरफ कभी नहीं ला पाया है। विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास तीसरा प्रश्नः सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात... सहारा पकडूं, किसी के प्रेम के साये में बैलूं, लेकिन उसके न लेकिन फिर दुख को ही गीत बना लिया जाता है। फिर आंसू मिलने पर भी संतोष ही होता है कि कम से कम अपना दुख गिनने में ही समय व्यतीत होने लगता है। फिर आदमी अपने और किसी की उपेक्षा तो साथ में है। कृपया बतायें कि ऐसा घाव के साथ ही खेलने लगता है। फिर पीड़ा होती है तो अच्छा क्यों होता है? | लगता है। कछ तो हो रहा है। ऐसा तो नहीं कि खाली हैं। इसको खयाल रखना, आदमी खाली होने के बजाय दुखी होना मनुष्य बहुत जटिल है। सुख की खोज करता है। सुख न पसंद करता है। कम से कम दुख में कुछ भराव तो है। बिलकुल मिले, तो दुख से राजी हो जाता है। क्योंकि खोज की भी एक | खाली होना कठिन मालूम होता है। या तो सुख, या दुख; खाली सीमा है। फिर खोजते ही चले जाना व्यर्थ श्रम मालूम होता है। होने को कोई भी राजी नहीं। और यहां जीवन का एक बड़ा परम तो दुख से राजी हो जाता है। राजी ही नहीं होता, एक तरह का सत्य स्मरण में रखने योग्य है—जो खाली होने को राजी है, वही दुख में रस लेने लगता है। यह बड़ी खतरनाक चित्त की दशा है। सुख को उपलब्ध होता है। अगर दुख में तम रस लेने लगे, तब तो तमने सुख के सब द्वार तो जितने लोग सुख की खोज करते हैं, वे धीरे-धीरे दुख से बंद कर दिये। दुखी रहते-रहते, बहुत दिन तक दुखी रहते-रहते राजी हो जाते हैं। फिर दुख को पकड़कर बैठ जाते हैं। दुख ही दुख के साथ संग बन गया, संबंध बन गये। फिर तो अगर कोई उनका शृंगार हो जाता है। फिर वे दुख के गीत गाते हैं। फिर दुख 151 ___ 2010_03 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 2 की कविताओं को जन्म देते हैं। नहीं कि मनुष्य के प्रेम पर अंत है, लेकिन शुरुआत है। मनुष्य विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात के प्रेम से हम पहला अ, ब, स...क, ख, ग सीखते हैं। मनुष्य वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास पर प्रेम का अंत नहीं है। मनुष्य पर प्रेम की समाप्ति नहीं, क्योंकि अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात... प्रेम तो विराट के साथ ही तप्त हो सकता है। मनुष्य के साथ कैसे ऐसे लोग दख का संग्रह करने लगते हैं: दख की तलाश करने तप्त होगा। लेकिन प्रेम के पहले चरण उथले में ही उठते हैं। लगते हैं। कहां-कहां दुख मिलेगा वहां-वहां जाते हैं। ऊपर से | जैसे कोई तैरना सीखने जाता है तो पहले उथले में सीखता है। कहते हैं हम सुख चाहते हैं, लेकिन दुख की खोज करते हैं। और एकदम से सागर में नहीं उतर जाता। किनारे पर सीखता है। | जब सुख आये तो द्वार बंद कर लेते हैं, दुख आये तो द्वार पर खड़े जहां कोई भय नहीं है वहां सीखता है। फिर किसी का संहारा | मिलते हैं। ऐसा बहुतों के साथ हो गया है। इसीलिए तो संसार लेकर सीखता है। फिर जब तैरना आ जाता है, तो किसी के में इतना दुख है। यह दुख होना नहीं चाहिए। मैं कल एक पंक्ति सहारे की जरूरत नहीं रह जाती। फिर अकेला दूर गहरे में चला पढ़ रहा था। किसी ने कहा है जाता है। रोग पैदा कर कोई तू जिंदगी के वास्ते मनुष्य का प्रेम परमात्मा के लिए किनारा है। मनुष्य का सहारा सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी कटती नहीं तो सीखने भर के लिए है। फिर तो नाव छोड़ देनी है अनंत के खूब बात कही है! सागर में। लेकिन जो किनारे पर ही नहीं आया, वह सागर में सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी कटती नहीं। कैसे उतरेगा? सिर्फ स्वस्थ रहने से कहीं जिंदगी कटी है! 'किसी के प्रेम के साये मैं बैलूं।' सोचना नहीं है, बैठो! रोग पैदा कर कोई त जिंदगी के वास्ते सोचना प्रेम के बिलकुल विपरीत है। सोचनेवाले सोचते ही रह तो लोग रोग पैदा कर लेते हैं। उन्होंने अनेक-अनेक नाम रखे जाते हैं। प्रेम करनेवाले और सोचनेवालों में बडा भेद है। हैं। महत्वाकांक्षा, राजनीति रोगों के नाम हैं। धन, पद, प्रतिष्ठा मैंने सुना है इमेनुअल कांट एक बड़ा विचारक हुआ, एक स्त्री रोगों के नाम हैं। सेहत तो प्रेम की है। प्रेम के अतिरिक्त सब रोग ने उससे प्रेम निवेदन किया। दो-तीन वर्ष तो उसके प्रेम में रही, है। प्रेम चूक जाता है, तो आदमी और रोग खोजने लगता है। राह देखी कि वह निवेदन करे। क्योंकि स्त्रियां प्रतीक्षा करती हैं। क्या करें! कुछ तो करना होगा, व्यस्त तो रहना होगा। जिंदगी निवेदन भी आक्रमण है। वह स्त्रैण-मन को ठीक नहीं लगता। है, तो खाली तो न बैठे रहेंगे। वह राह देखती है कि प्रेमी निवेदन करे। लेकिन कांट कुछ बोला जिस महिला ने पूछा है उसे जागना चाहिए। उसने बड़ा ही नहीं। तीन साल बीत गये। मजबूरी में उस स्त्री ने कहा कि खतरनाक चुनाव कर लिया है : 'सोचती हूं दुख से छूटने के क्या कहते हो, कुछ कहो। ऐसे जिंदगी बीत जाएगी। मैं तुम्हारी लिए किसी का सहारा पकडूं।' सोचना क्या है? पकड़ो! होना चाहती हूं सदा के लिए। कांट ने कहा, मुझे डर था कि कभी साचते-सोचते तो दिन निकल जाएंगे। सोचते-सोचते तो जीवन न कभी यह सवाल उठेगा। मैं इस पर सोचूंगा। | निकल जाएगा। इसमें सोचना क्या है? इसमें इतने वह बड़ा दार्शनिक था। बड़ी अदभुत कथा है। और कथा ही | सोच-विचार की बात ही कहां है? क्रोध करते वक्त नहीं होती तो भी ठीक था, सही है। वह सोचता रहा, सोचता रहा। सोचते, प्रेम करते वक्त बड़ा सोच-विचार करते हो! | कहते हैं तीन साल बाद उसने जाकर उस यवती के घर पर दस्तक 'सोचती हूं दुख से छटने के लिए किसी का सहारा पकडूं, दी। युवती के पिता ने द्वार खोला। उसने पूछा कि कैसे आये, किसी के प्रेम के साये में बैठं।' बहुत दिन से दिखायी नहीं पड़े। उसने कहा कि मैं यह कहने बैठो! क्योंकि प्रेम की सुगंध में ही परमात्मा की पहली खबर | आया हूं कि मैंने निर्णय कर लिया कि विवाह करूंगा। पिता ने मिलती है। और जिसका प्रेम का फूल अनखिला रह गया, | कहा, तुम बड़ी देर से आये। उसका तो विवाह हो भी चका, एक उसकी प्रार्थना का फूल कैसे खिलेगा? बच्चा भी पैदा हो गया। तम इतनी देर कहां रहे? कांट ने कहा, 1520 2010_03 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है द्वारा मैं सोचता रहा। जेब से उसने अपनी किताब निकाल कर किसी परुष को तम अपने पास लेते हो. तो पास लेने बतायी। विवाह के पक्ष में और विपक्ष में जितनी भी बातें हो है। दो दुनियाएं पास आ रही हैं। संघर्ष होगा। लेकिन संघर्ष सकती थीं, सब उसने लिख रखी थीं। हिसाब लगाया था, पक्ष प्रीतिकर है। समझ बढ़ेगी। प्रौढ़ता आयेगी। में कितनी हैं, विपक्ष में कितनी हैं; फायदा क्या होगा, हानि क्या पूछा है, 'सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का सहारा होगी? और तब उसने यही तय किया था कि फायदा थोड़ा पकडूं, किसी के प्रेम के साये में बैलूं।' ज्यादा है। बहुत रत्तीभर का फर्क है। कोई ज्यादा फर्क नहीं है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि दुख से छूट जाओगी प्रेम का हानि भी बहुत है, लेकिन फायदा थोड़ा ज्यादा है। और फायदा साया मिल जाए तो, इतना कह सकता हूं-दुख आंख खोलने में यह है कि उससे अनुभव होगा। | सहयोगी होगा। प्रेम भी दुख देगा, लेकिन प्रेम का दुख बड़ी सोचते-सोचते तो जिंदगी बीत जाएगी। सोचना किसलिए मधुर पीड़ा जैसा है। बिना प्रेम के जो दुख है, वह तो बस कांटे ही है? मौत तुमसे न पूछेगी कि सोच लिया, चलना है कि नहीं? कांटे हैं। प्रेम के दुख में कांटे तो हैं, लेकिन फूल भी हैं। और प्रेम | मौत आ जाएगी। जैसे मौत आती है वैसे ही प्रेम को भी आने तुम्हें तृप्त कर देगा, यह भी मैं नहीं कहता। प्रेम सच तो तुम्हें और | दो। द्वार-दरवाजे खोलो, भय क्या है? भी अतृप्त करेगा, और बड़े प्रेमी की तलाश पर भेजेगा। क्योंकि प्रेम से लोग बहुत डरते हैं। लोग कहते तो हैं कि प्रेम चाहिए कोई आदमी, या कोई स्त्री प्रेम को पूरा नहीं कर सकते। प्रेम की लेकिन डरते बहुत हैं। क्योंकि प्रेम एक तरह की मृत्यु है। आखिरी तलाश तो परमात्मा के लिए है। उससे कम पर तृप्ति अहंकार को विसर्जित करना होता है। होनेवाली नहीं है। लेकिन, सहारा मिलेगा। उस बड़ी यात्रा पर जैसा मैं देख पाता हूं, इस महिला के मन में बड़ा अहंकार जाने की हिम्मत आयेगी। जब आदमी के प्रेम में ऐसे फूल खिल होगा। अहंकार प्रेम का दुश्मन है। अहंकार किसी के साथ जाते हैं-छोटे सही, जल्दी कुम्हला जानेवाले सही; सुबह झकने नहीं देता। प्रेम में तो झकना पडेगा। प्रेम में तो दसरे के खिलते हैं. सांझ मा जाते हैं. सही-लेकिन जब आदमी के लिए जगह बनानी पड़ेगी। अहंकार को थोड़ी-सी जगह खाली | प्रेम में इतने फूल खिल जाते हैं, तो आदमी और परमात्मा के प्रेम करनी पड़ेगी। जैसे तुम अकेले एक कमरे में रहते आये थे, तो में कैसे फूल न खिलेंगे! कसी प्रेमी को लिवा लाये. मित्र को लिवा तम्हें पहली भनक परमात्मा की प्रेम के द्वार से ही मिलेगी। तो लाये. पत्नी को लिवा लाये. पति को लिवा लाये उसी कमरे में, मैं यह तो नहीं कहता कि तुम्हारा दुख मिट जाएगा, इतना कह तो अब सब नया इंतजाम करना होगा। अब बहुत-से समझौते सकता हूं कि तुम्हारा दुख सृजनात्मक हो जाएगा। सुख की थोड़ी करने होंगे। दो जहां रहेंगे वहां बहुत-से समझौते होंगे। संघर्ष झलकें मिलेंगी। उन्हीं झलकों का सहारा पकड़कर, निचोड़ भी होगा। कभी अशांति के क्षण भी होंगे। कभी कलह भी | निकालकर तुम महासुख की यात्रा पर जा सकोगे।। होगी। कभी सौंदर्य के, सत्य के, संगीत के फूल भी खिलेंगे। फिर कहा है, 'लेकिन उसके न मिलने पर भी संतोष ही होता कभी कांटे भी चुभेंगे। हर गुलाब की झाड़ी पर कांटे हैं। प्रेम तो है।' यह खतरनाक संतोष है। यह संतोष नहीं है, सांत्वना है। गुलाब का फूल है। बहुत कांटे हैं उसके आसपास। कांटों से संतोष बड़ा बहुमूल्य शब्द है। उसका ऐसा उपयोग कभी मत आदमी डरते हैं। फूल तो चाहते हैं, कांटों से डरते हैं। करना। यह सांत्वना है। यह अपने को समझा लेना है। और लेकिन जिसको फूल चाहिए, उसे कांटों को भी स्वीकार करना आदमी बड़ा कुशल है अपने को समझा लेने में। अंगूर खट्टे हैं। होगा। कांटों में ही फल का मजा है। कांटों में ही फल का रस जो नहीं मिलता, वह पाने योग्य ही नहीं। जिसको हम नहीं खोज ही तो प्लास्टिक के फूल खरीद लाओ। इसीलिए तो पाते, हमारा अहंकार कहने लगता है हम खोजना ही कहां चाहते वेश्याएं दुनिया में पैदा हुईं। वे प्रेम के डर के कारण पैदा हुईं। हैं! गरीब कहने लगता है धन में क्या रखा है। गरीब कहने वेश्या का मतलब है, प्लास्टिक का फूल। कोई नाता-रिश्ता लगता है, धन में क्या रखा है! अमीर कहे तो समझ में आता है। नहीं। कोई काटे चुभने का कारण नहीं। जब किसी स्त्री को या गरीब कहे तो कुछ समझ में आता नहीं। गरीब कहने लगता है, 153 2010_03 www.jainelibrar org Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 क्या रखा है इस संसार को जीत लेने में। सिकंदर, नेपोलियन स्वास्थ्य नहीं है, कोई संगी-साथी नहीं है! अगर इससे संतोष हो कहें; ठीक। अभी संसार को जीता नहीं, | रहा है, तो यह संतोष तो बीमारी है। इसे तोड़ो। असंतुष्ट बनो, किससे कह रहे हो, क्या रखा है संसार को जीत लेने में? कहीं | अगर यह संतोष है तो। खोजो।। मन को समझा तो नहीं रहे। कहीं मन चाहता तो नहीं है कि जीत हां, मैं भी कहता हूं एक दिन प्रेमी के भी पार जाता है प्रेम, लें संसार को, लेकिन देखते हैं अपनी असामर्थ्य, जीतना तो लेकिन पहले प्रेमी तो हो। प्रेमी से कुछ भी न मिलेगा। प्रेम की कठिन है, तो अहंकार अपने को बचा लेता है। अहंकार कहता और बड़ी प्यास मिलेगी, और बड़ा असंतोष मिलेगा, परमात्मा है, जीतना ही कौन चाहता है! को पाने की जलती हुई प्यास मिलेगी। प्रेमी की मौजूदगी से तुम्हें तुमने कभी खयाल किया, तुमने अपने जीवन में कितनी पर्ते पता चलेगा कि नहीं, इस दिशा से कुछ मिलनेवाला नहीं। मगर सांत्वना की बना ली हैं। उन सांत्वनाओं के कारण ही तो तम | प्रेमी की मौजदगी के बिना यह पता नहीं चल सकता है। आबद्ध हो गये हो, बंध गये हो, जकड़ गये हो। तोड़ो | एक आदमी रास्ते पर खड़ा है भिखारी की तरह। और फिर सांत्वनाएं! यह संतोष नहीं है। | महावीर भी रास्ते पर आकर खड़े हो गये भिखारी की तरह। तुमने कहावत सुनी है—'संतोषी सदा सुखी।' गलत है। समझ लो कि दोनों भिखारी साथ-साथ चल रहे हैं। क्या ये दोनों, 'सुखी सदा संतोषी।' संतोष से कभी सुख नहीं आता, सुख से एक ही जैसे हैं? एक महावीर हैं जिन्होंने महल देखे, महलों का जरूर संतोष आता है। संतोष तो सिर्फ अपने को समझा लेने सुख देखा, सुख की व्यर्थता देखी, महलों की असारता देखी। जैसा है। नहीं है हालत आगे बढ़ने की, क्या करें, तो तुम समझा राज्य देखा, साम्राज्य देखा, राख देखी सब। और एक दूसरा. लेते हो। तुम कहते हो, हम जाना नहीं चाहते, पाने योग्य कुछ है भिखारी चल रहा है। उसने कुछ भी नहीं देखा। उसके मन में ही नहीं, हमें तो पहले से पता है वहां कुछ भी नहीं रखा है। | अभी भी सपने हैं। अभी भी कोई उसे राजा बना दे तो वह तत्क्षण लेकिन जरा गौर से अपने मन का निरीक्षण करना। और अगर | तैयार हो जाएगा। हालांकि वह भी कहता है, कुछ सार नहीं। यह संतोष हो, तब तो ठीक है। फिर तो प्रश्न पूछने की जरूरत महावीर भी कहते हैं, कुछ सार नहीं। दोनों एक ही तरह के शब्दों ही नहीं। अगर यह संतोष होता तो प्रश्न उठता ही नहीं। संतोष का उपयोग करते हैं। लेकिन क्या दोनों के अर्थ एक ही हो सकते से कभी प्रश्न उठा है? संतोष तो ऐसा परितृप्त है, ऐसा परितृप्त हैं? दोनों के अर्थों में जमीन-आसमान का फर्क है। है, कि कहां प्रश्न की गुंजाइश! यह सांत्वना है। और स्त्रियां | महावीर कहते हैं जानकर। वह दूसरा आदमी कह रहा है सांत्वना में बड़ी कुशल हैं। क्योंकि संघर्ष में बड़ी कमजोर हैं। मानकर। अगर धन पड़ा मिल जाए तो महावीर उसके पास से 'लेकिन उसके न मिलने पर भी संतोष ही होता है।' यह | ऐसे ही गुजर जाएंगे जैसे मिट्टी पड़ी है। वह दूसरा आदमी न संतोष मुर्दा है। इस लाश को हटाओ! अन्यथा तुम भी इस लाश | गुजर सकेगा। वह कहेगा छोड़ो बकवास, हो गयी ज्ञान की बहुत के साथ मर जाओगे। मुर्दो की दोस्ती ठीक नहीं। मुर्दो के साथ बातचीत! अब मिल ही गया, तो अब इसका उपभोग कर लें। ज्यादा देर रहना भी ठीक नहीं। क्योंकि जिनके साथ हम रहते हैं, | ‘कम से कम अपना दुख और किसी की उपेक्षा तो साथ में वैसे ही हो जाते हैं। है। यह भी खूब धन! इसको धन कहते हो? इस धन को, इस 'संतोष होता है कि कम से कम अपना दुख और किसी की | धन के भ्रम को तोड़ो। उपेक्षा तो साथ में है।' यह भी कोई बात हुई! यह तो ऐसा हुआ बिना प्यार के चले न कोई आंधी हो या पानी हो कि सोये हैं जमीन पर और सोच रहे हैं कि कम से कम बिस्तर नयी उमर की चुनरी हो या कमरी फटी-पुरानी हो नहीं है यह भी तो संतोष है। बैठे हैं जमीन पर और सोच रहे हैं तपे प्रेम के लिए धरित्री जले प्रेम के लिए दीया उस कुर्सी की बात, जो नहीं है कमरे में। इससे संतोष होता है कि कौन हृदय है नहीं प्रेम की जिसने की दरबानी हो कुर्सी नहीं है! इससे संतोष होता है, कि बिस्तर नहीं है! इससे तट-तट रास रचाता चल संतोष होता है कि भोजन नहीं है। इससे संतोष होता है कि पनघट-पनघट गाता चल 2010_03 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यासी है हर गागर दूग की गंगाजल ढलकाता चल कोई नहीं पराया, सारी धरती एक बसेरा है इसकी सीमा पश्चिम में तो मन का पूरब डेरा है श्वेत बरन या श्याम बरन हो सुंदर या कि असुंदर हो सभी मछलियां एक ताल की क्या मेरा क्या तेरा है गलियां - गांव गुंजाता चल पथ-पथ फूल बिछाता चल हर दरवाजा राम- दुवारा सबको शीश झुकाता चल हर दरवाजा राम-दुवारा सबको शीश झुकाता चल – अगर प्रेम किसी से किया तो राम दुवारा खुला। जहां प्रेम ने दस्तक दी, वहीं राम दुवारा खुला। प्रेम से कभी बचना मत। प्रेम में उतरना । प्रेम से डरना मत । प्रेम बड़ी पीड़ा देगा, प्रेम जलायेगा, प्रेम अग्नि बन जाएगा, लेकिन अग्नि से ही गुजरकर कोई कुंदन बनता है, कोई शुद्ध स्वर्ण बनता है। प्रेम की अग्नि से घबड़ाना मत, भागना मत, अन्यथा अधकचरे, अधूरे, मिट्टी से भरे रह जाओगे । तो मैं यह नहीं कहता कि प्रेम तुम्हें सुख ही सुख देगा । प्रेम कोई फूलों-बिछी सेज है, ऐसा मैं नहीं कहता। प्रेम बड़ी पीड़ा की डगर है। लेकिन उससे गुजरना जरूरी है। और उससे | गुजरकर ही तुम प्रार्थना के योग्य बनोगे, प्रार्थना के लिए परिपक्व बनोगे। जैसे ही कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में डूबा, स्वाद मिलना शुरू होता है । बहुत पर्दों के पार से परमात्मा की पहली झलक | मिलनी शुरू होती है। इस पृथ्वी पर प्रेम से ज्यादा परमात्मा की झलक देनेवाली कोई अनुभूति नहीं है । में प्रेम इस जगत में उस जगत की किरण है। प्रेम इस अंधेरी रात दूर परमात्मा का चमकता हुआ सितारा है। बहुत दूर है, लेकिन इस अंधेरे को पार करके एक किरण आ रही है। तुम उस किरण का सहारा पकड़ लो। ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा कि | प्रेम से कोई तृप्त हुआ हो। इसलिए डर कुछ भी नहीं है। प्रेम तुम्हें और अतृप्त करेगा। नये शिखरों की चुनौती मिलेगी। नयी ऊंचाइयां खोजने के भाव मिलेंगे। प्रेमियों में जो संघर्ष है, उसका कारण तुमने कभी सोचा ? प्रेमियों में सदा संघर्ष बना रहता है, उसका कुल कारण इतना है कि हर प्रेमी यह कोशिश कर रहा है कि दूसरा परमात्मा की तरह 2010_03 प्रेम हे द्वार हो। यही संघर्ष है। जहां भी दूसरा परमात्मा से थोड़ा नीचे पड़ता है, कलह शुरू हो जाती है। पति भी यही चेष्टा कर रहा है कि पत्नी परमात्मरूप हो, दिव्य । जैसे ही उससे नीचे पड़ती है, अड़चन होती है। पत्नी भी यही सोच रही है कि पति परमात्मा जैसा हो। दोनों की खोज सही है। और इसीलिए संघर्ष है। धीरे-धीरे यह अनुभव में आता है कि आदमी की सीमा है। तब नाराजगी चली जाती है। तब यह खयाल उठता है कि हम खोज ही गलत जगह रहे हैं। हमें थोड़े और ऊंचाई पर आंख उठानी होगी । आदमी के पार देखना होगा। या आदमी के गहरे में देखना होगा । तुमने यह भी कभी खयाल किया कि जैसे ही तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, तुम वही नहीं रह जाते जो तुम अब तक थे। तुम्हारे भीतर कुछ नया उठने लगता है, कोई पंख खोलने लगता है। कोई आकाश की तरफ उड़ने के लिए तत्पर हो जाता है। तुमने कभी खयाल किया कि प्रेम के साथ, जो भी श्रेष्ठ भावनाएं हैं अचानक तुममें जगने लगती हैं। घृणा के साथ जो-जो अशुभ है, तुम्हारे भीतर घना होने लगता है। घृणा उठी कि हिंसा उठी । घृणा उठी कि क्रोध उठा । घृणा उठी कि तुम मरने-मारने को, मिटाने को तत्पर हुए। प्रेम उठा कि सृजन उठा। प्रेम उठा कि तुम बनाने को संवारने को, शृंगार करने को राजी हुए। इधर प्रेम उठा कि शुभ भावनाओं का जन्म उसके साथ-साथ होने लगता है। प्रेम जितना ऊंचा उड़ता है, उतनी ही शुभता भी तुम्हारे भीतर ऊंची उठती है। जितने तुम प्रेम में जाते हो, उतने ही तुम दिव्य होने लगते हो। नया-नया प्रेम तुम्हारे चेहरे पर एक ऐसी गरिमा दे जाता है, जो तुमने पहले कभी न जानी थी। एक आभामंडल, एक ऊर्जा, एक नया प्रकाश तुम्हारे चेहरे को घेर लेता है । तुम्हारी चाल बदल जाती है। तुम्हारी चाल में मीरा का थोड़ा नाच आ जाता है। कि वह परम प्रेमी की खोज पर थी, इसलिए पूरा नाच तो नहीं हो सकता, लेकिन थोड़ी घूंघर तो बजती है। रुक-रुककर बजती है। थोड़ी घूंघर तो बजती है। पायल की वैसी धुन नहीं होती कि आकाश को गुंजा दे, लेकिन आंगन को तो गुंजाती है। छोटा-सा कोने में दीया तो जलता है । महासूरज नहीं निकलता, जैसा कबीर कहते हैं कि हजार-हजार सूरज पैदा हो रहे हैं, लेकिन एक छोटा-सा दीया तो जलता है। दीया भी तो सूरज का ही प्रतिनिधि 155 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _जिन सूत्र भाग : 2 है। छोटा प्रतिनिधि सही। बहुत क्षुद्र सही। लेकिन सूरज की | पहुंचे, परमात्मा तक पहुंचे। किरण में जो है, वही तो दीये की किरण में भी है। स्वभाव तो रोज नया असंतोष जगाओ। धर्म संतोष नहीं है, परम असंतोष एक है। है। परम के लिए असंतोष है। क्षुद्र से राजी मत हो जाओ। जब नहीं कोई सागर नहीं उमड़ने लगता, लेकिन बूंद तो बरसती | तक विराट ही न मिल जाए, तब तक ठहरना मत। तब तक है। बूंद में वही है, जो सागर में है। जिसने बूंद को पहचाना, वह | | पड़ाव बहत जगह बनाने होंगे-मील के कई पत्थर कभी सागर को भी खोज ही लेगा। जिसने बूंद को चखा, वह | मिलेंगे-रुक जाना, रात ठहर जाना, लेकिन सुबह चल पड़ने कितने दर, कितने दिन तक सागर से वंचित रहेगा? जैसे-जैसे की तैयारी रखना। घर मत बनाना कहीं। विश्राम कर लेना, प्रेम की झलक मिलनी शुरू होती है, तुम्हारी प्रेम की आशा विराम कर लेना, लेकिन ध्यान रखना, विश्राम सुबह चलने की बढ़नी शुरू होती है। तैयारी है। अभाव से राजी मत होना। अनुपस्थिति से राजी मत होना। प्रेम के मैं पक्ष में हूं। क्योंकि मेरे देखे प्रेम ही सेतु है दृश्य और अभाव नर्क है। भावात्मक बनो। विधायक बनो। प्रेम नहीं है, अदृश्य के बीच, शरीर और अशरीरी के बीच, पदार्थ और इससे राजी मत हो जाना। तोड़ो चट्टानें हृदय की! बहने दो झरना परमात्मा के बीच। प्रेम का! सांसारिक, तो सांसारिक सही। शरीर का, तो शरीर का गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे सही। शुरू तो करो। कोई पहले कदम पर ही तो स्वर्ग नहीं पहुंच | हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे जाता है। लेकिन पहला कदम तो उठाओ। लाओत्सू ने कहा है, | फूल की गंध से तलवार को सर करना है एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। | और गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे एक कदम तो उठाओ। जब तुम्हारे हृदय में प्रेम नहीं, तुम पहाड़ हो। चट्टान...और प्रेम से थोड़े से लोग राजी हो जाते हैं। बहुत लोग प्रेम के चट्टान...और चट्टान...। झरने को रोके बैठे हो। जैसे ही अभाव में राजी हो जाते हैं। जो प्रेम के अभाव में राजी हो गये. वे तम्हारे भीतर प्रेम उमगा. किरण उतरी. टटी चट्टानें, निर्झर बहा। तो अंधेरी रात में भटक गये। जो प्रेम से राजी हो गये, वे दीये को गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे ही लेकर बैठे रह गये, जबकि सरज उनका हो सकता था। ये वृक्ष क्या करते हैं जब खिल जाते हैं? ये गीत धरती का है कताअ एक जलवे पर। आकाश को सुना देते हैं। ये धरती की खबर आकाश को दे देते शौक अभी तंगदस्त है शायद हैं कि धरती ही मत समझ लेना, फूल भी हैं। आकाश को भी जो एक ही जलवे से राजी हो गया और सोचा कि काफी है, मात कर देनेवाले फूल हैं धरती में छिपे। मिट्टी में सुगंध भी है, उसकी प्यास, उसका प्रेम, उसकी अभीप्सा तंगदस्त है। बड़ी रंग भी है। इंद्रधनुषी रंग भी है। कृपण है। कंजूस है। झोली भी फैलायी तो पूरी न खोलकर फूल धरती की भेंट है आकाश को। जब कोई मनुष्य खिलता फैलायी। | है तो सीमा असीम से बातें करती है। क्षुद्र विराट से बातें करता है कताअएक जलवे पर | है। तब बूंद सागर से बात करती है, संवाद करती है। धरती का एक जलवे को काफी मान लिया! प्रेम की एक छोटी-सी गीत, सीमा का गीत, बूंद का गीत! ज्योति को काफी मान लिया! गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे शौक अभी तंगदस्त है शायद। हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे लेकिन मेरे देखे सबसे अभागे वे हैं जिन्होंने प्रेम के अभाव में | और जब तक तुम प्रेम को दाबे पड़े हो, तब तक तुम अंधेरे में संतोष कर लिया। उसके बाद उनका नंबर है, जिन्होंने प्रेम से पड़े हो। जागो! जलाओ दीया प्रेम का। मेरे मन में प्रेम का संतोष कर लिया। सौभाग्यशाली तो वे हैं, जिन्होंने अभाव को परिपूर्ण स्वीकार है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें तो टिकने न दिया, प्रेम को भी न टिकने दिया। प्रार्थना तक विषाक्त कर दिया है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें प्रेम 1156 Jair Education International 2010_03 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भयभीत कर दिया है। उस भय के कारण तुम अकेले पड़े रह गये हो। तुम भटकते हो, लेकिन परमात्मा से कोई साथ नहीं बन पाता। तुम्हारे पास हाथ नहीं, जो परमात्मा का हाथ पकड़ लें। प्रेम वही हाथ तुम्हें देगा। 1 हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे फूल की गंध से तलवार को सर करना है जीवन कठिन है, तलवार जैसा है। फूल की गंध से तलवार को सर करना है। और जीतना है प्रेम से। यही तो चुनौती है। यही तो अभियान है मनुष्य का। यही तो मनुष्य की उत्क्रांति है। विकास ! या जो भी हो। यही तो मनुष्य के रूपांतरण की कीमिया है । फूल की गंध से तलवार को सर करना है T 1 जीतना है प्रेम से इस संसार को जीतना है प्रेम से इस देह को। जीतना है प्रेम से इन इंद्रियों को जीतना है प्रेम से इस मन को। जीतना है प्रेम से पर को, स्व को । फूल की गंध से तलवार को सर करना है और गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे और गीत गाकर ही जगाना है । झकझोर कर नहीं। कोई बिजली के धक्के देकर नहीं; गीत गा-गा के जैसे मां सुबह किसी को उठाती है। एक गीत गाती है। या रात अपने बेटे को सुलाती है, एक लोरी गाती है। जो मैं तुमसे बोले चला जाता हूं, वह कुछ और नहीं है। तुम्हारे भीतर के पहाड़ को जगाना है। गीत गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे • और सारे जागरण का सूत्र है - प्रेम | मत । प्रेम मिटाता है। निश्चय ही मिटाता है। लेकिन प्रेम जन्माता भी है। प्रेम सूली है, सच। प्रेम सिंहासन भी है। और जो सूली चढ़ता है, वही सिंहासन पर पहुंचता है। रात इधर ढलती है तो दिन उधर निकलता है कोई यहां रुकता है तो कोई वहां चलता है दीप और पतंगे में फर्क सिर्फ इतना है एक जल के बुझता है एक बुझ के जलता है प्रेम जलाता है। लेकिन जगाता भी है। प्रेम मिटाता है। लेकिन जन्माता भी है। प्रेम मृत्यु है और महाजीवन की शुरुआत भी। व्यर्थ की निंदा छोड़ो। चलो प्रेम की डगर पर। और प्रश्न पूछा है किसी स्त्री ने। इसलिए तो और भी जरूरी है यह समझ 2010_03 प्रेम है द्वार ना कि प्रेम से बचना मत। पुरुष तो प्रेम से बचकर भी कभी पहुंच सकता है। ध्यानी तो प्रेम को छोड़कर भी पहुंच सकता है। कठिन होगी डगर, बड़ी कठिन होगी — सरल हो सकती थी, गीत, रस भरी हो सकती थी – रूखी-सूखी होगी डगर, धूल धवांस भरी होगी, कंकड़, पत्थर, कंटकाकीर्ण होगा मार्ग, लेकिन पहुंच सकता है । लहूलुहान पहुंचेगा, लेकिन पहुंच सकता । लेकिन स्त्री तो बिना प्रेम के पहुंच ही नहीं सकती । वह खो ही जाएगी इस डगर में । दुनिया में दो ही धर्म वस्तुतः होने चाहिए। दो ही धर्म वस्तुतः हैं। एक स्त्री का धर्म, एक पुरुष का धर्म । और दुनिया के सारे धर्म दो हिस्सों में बांटे जा सकते हैं। पुरुष का धर्म कहता है, छोड़ो प्रेम । स्त्री का धर्म कहता है, बनाओ प्रेम को पूजा । लेकिन प्रेम होगा, तो ही तो पूजा बनेगी ! ! जिसने पूछा है, उसे मैं कहूंगा, घबड़ाओ मत। जीवन अनुभव के लिए है। इसे बंद कोठरी मत बनाओ। गुफा में मत छिपो । खुलो, आने दो हवाएं, आने दो नयी सूरज की किरणें । जीओ। खतरनाक है जीना। लेकिन खतरा जीवन का लक्षण है। सुरक्षा में मौत है, सुरक्षा में कब्र है । उतरो । तूफान आयेंगे प्रेम के, झेलना । उन्हीं तूफानों में तुम्हारे भीतर कुछ सोया हुआ जगेगा, कोई चट्टान टूटेगी, निर्झर बहेगा। और घबड़ाना मतरात इधर ढलती है तो दिन उधर निकलता है। कोई यहां रुकता है तो कोई वहां चलता है एक द्वार बंद हुआ नहीं कि दूसरा खुल ही जाता है। दीप और पतंगे में फर्क सिर्फ इतना है एक जल के बुझता है एक बुझ के जलता है पतंगे बन सको तो पतंगे बनो। दीया बन सको तो दीया बनो। लेकिन दीया भी जलता है और पतंगा भी जलता है। दीया जलकर बुझता है, पतंगा बुझकर जलता है। कोई भी बनो । दीये बनो या पतंगे बनो। पतंगों की प्रशंसा में तो बहुत गीत लिखे गये हैं कि पतंगा जलता है, दीवाना है। दीये की प्रशंसा की किसी ने फिकिर नहीं की कि दीया भी पतंगे के लिए ही जल रहा है, कि आओ, कि प्रतीक्षा कर रहा है। जहां पतंगे और दीये का मिलना होता है, जहां दोनों अलग-अलग मिट जाते हैं और एकरूप हो जाते हैं, वहीं प्रेम का जन्म है। परमात्मा से जब जुड़ोगे जुड़ोगे, अभी किसी छोटे परमात्मा से 157 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 जुड़ो। सूरज जब पाओगे, पाओगे; अभी किरण पास आती है उसे तो पकड़ो। लेकिन जीवन विधायक हो, प्रेम का स्वीकार, सम्मान करने से भरा हो, तो मनुष्य ज्यादा देर तक मंदिर से दूर नहीं रह सकता। प्रेम द्वार है। आज इतना ही। 158 2010_03 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 03 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रवचन प्रेम का आखिरी विस्तारः अहिंसा 2010_03 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र । सव्वेसिमासमाणं, हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं। सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु।।१०२।। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।।१०३।। मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदीसु।।१०४।। Shakti MER AAR APAN आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावतो उ। भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति।। संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दव्वहिंसा खलु भावतो य। अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा।।१०५।। जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव। तवुड्डीकरी जयणा, एगंत सुहावहा जयणा।।१०६।। HI जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।।१०७।। RE 2010_03 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ज का पहला सूत्र – 'अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य और सब व्रतों और गुणों का पिंडभूत सार है।' सव्वेसिमासमाणं, हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं । सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु।। महावीर की सारी देशना इस सूत्र में संचित है। अहिंसा का अर्थ समझ लें तो सारा जिन- शास्त्र समझ में आ गया। मनुष्य ऊर्जा है, शुद्ध शक्ति है। इस शक्ति के दो आयाम हो सकते हैं। या तो शक्ति विध्वंसक हो जाए - मिटाने लगे, तोड़ने लगे। या शक्ति सृजनात्मक हो जाए – बनाये, बसाये, निर्माण करे। शक्ति तो हमारे पास है। कैसा हम उपयोग करेंगे शक्ति का, हमारे बोध पर, हमारे ध्यान पर, हमारी समझ पर निर्भर है। हाथ तलवार दे दी है प्रकृति ने। हम मारेंगे या बचायेंगे हम पर | निर्भर है। हाथ में रोशनी दे दी है प्रकृति ने। हम अंधेरे को तोड़ेंगे या घरों को जलायेंगे हम पर निर्भर है। शक्ति सृजनात्मक हो जाए, तो अमृत हो जाती है। शक्ति विध्वंसात्मक हो जाए तो जहर हो जाती है । भाषाकोश में तो लिखा है कि जहर और अमृत अलग-अलग चीजें हैं। जीवन के | कोश का ऐसा सत्य नहीं । जीवन के कोश में तो लिखा है कि अमृत का ही विकृत रूप जहर है। और जहर का ही सुकृत रूप अमृत है। हिंदुओं की पुरानी कथा सागर मंथन की। उसमें एक ही मंथन से जहर भी निकला, उसी मंथन से अमृत भी निकला। एक ही स्रोत से जहर भी आया, उसी स्रोत से अमृत भी आया । 2010_03 स्रोत एक है। अमृत की कहीं और खोज मत करना। जो तुम्हारे जीवन में आज जहर की तरह है, वहीं से अमृत भी निकलेगा, थोड़ा मंथन चाहिए। ऐसा समझो कि अमृत जहर का ही नवनीत है। एडोल्फ हिटलर के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि वह चित्रकार होना चाहता था। कुछ बनाना चाहता था सुंदर, लेकिन चित्रशाला में उसे प्रवेश न मिला। वह असफल हो गया प्रवेश की परीक्षा में । और उसी दिन से उसके जीवन में जो अमृत हो सकता था वह जहर होने लगा। बनाने की आकांक्षा मिटाने की आकांक्षा में बदल गयी। एडोल्फ हिटलर ने बड़ा विध्वंस किया। अगर महावीर को अहिंसा का शास्त्र पता है, तो एडोल्फ हिटलर को हिंसा का शास्त्र पता है। इससे ज्यादा वीभत्स और विकराल दृश्य किसी मनुष्य ने कभी उपस्थित न किया था। मगर होना चाहता था चित्रकार । और भी विचारणीय बात है कि इतने विध्वंस, हिंसा और विनाश के बीच भी उसकी मूल आकांक्षा समाप्त नहीं हो गयी। जब उसे फुर्सत मिलती तो वह कागज पर छोटे-मोटे चित्र बनाता। जीवन के अंतिम क्षण तक कहीं कोई ऊर्जा सृजनात्मक होने की खोज करती रही। जो गीत गाना चाहता था, उससे गालियां निकलीं। ध्यान रखना, वे ही शब्द, वही ध्वनि गाली बन जाती है; वे ही शब्द, वही ध्वनियां गीत बन जाती हैं। मनुष्य सृजनात्मक ऊर्जा है । अगर सृजन न हो पाये, तो जीवन में विस्फोट होता है का, हिंसा का, विद्वेष का । घृणा 163 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 BANDHANBAR महावीर के धर्म का सार है, सृजनात्मक होने की कला। ऐसा भीतर भी मर जाएगा। जो उसके कारण ही जिंदा था, वह तो मर जैन-मुनि तुमसे न कहेंगे। क्योंकि उन्हें खुद भी ठीक-ठीक पता | जाएगा। तुम्हें नया शत्रु खोजना पड़ेगा ऊर्जा थिर नहीं रह नहीं कि अहिंसा का सारसूत्र क्या है। वे तो समझते हैं अहिंसा | सकती। ऊर्जा गतिमान है। सागर की तरह। सरिताओं की का सारसूत्र है पानी छानकर पी लेना, कि रात्रि भोजन न करना, तरह। हवाओं की तरह। कि मांसाहार न करना। ये तो बड़ी गौण बातें हैं—परिधि की | अगर ठीक दिशा न मिली, तो तुम्हारी जीवन-ऊर्जा गलत बातें हैं। इन्हें साधने से अहिंसा नहीं सधती, अहिंसा सध जाए | दिशाओं में भटकेगी भूत-प्रेतों की भांति। अंधेरी खोहों में तो ये जरूर सधती हैं। इन्हें साध लेने से अहिंसा नहीं सधती। | चीखेगी, चिल्लायेगी, पुकारेगी। अगर मुस्कुराहट न बन सकी, हिंसा इतनी आसान नहीं है कि पानी छानकर पी लिया और मिट तो तुम रोओगे, दुख के आंसुओं से भरोगे। अगर फूल न खिल गयी। पानी छानकर पीने में सृजनात्मकता क्या है? मांसाहार न सके, तो तुम कांटे बनोगे। किया तो हिंसा मिट गयी, काश, इतना आसान होता! महावीर ने सूत्र को अहिंसा में पकड़ा है। अहिंसा का अर्थ है, हिंसा तुम्हारे भीतर है। मांसाहार करने से नहीं आती। तुम | जहां-जहां विध्वंस हो, वहां-वहां से अपने को ऊपर उठा लेना। मांसाहार करना रोक सकते हो। हिंसा नये द्वार-दरवाजे खोल | विध्वंस की वृत्ति से मुक्त हो जाना अहिंसा है। तोड़ने के भाव को लेगी। हिंसा तुम्हारे भीतर है। जब तक तुम सृजनात्मक न हो | छोड़ देना अहिंसा है। ऐसी कोई भी दिशा तुम्हारे जीवन में न हो जाओ, जब तक तुम गीत न गुनगुनाने लगो, गाली आयेगी और जहां तोड़ने में रस रह जाए। जोड़ने में रस आ जाए, तोड़ने में रस आयेगी। जब तक तुम शिखर पर न चढ़ने लगो जीवन के, तुम | खो जाए; मिटाने में तुम रत्तीभर भी ऊर्जा नष्ट न करो, बनाने में, अतल खाइयों में गिरोगे और गिरोगे। ऊर्जा को कुछ करने को | सृजन में। अगर तुम मिटाओ भी, तो सृजन के लिए ही। अगर चाहिए। या तो मूर्तियां बनाओ, अन्यथा मूर्तियां तोड़ोगे। बीच में | पुराने भवन को गिराओ भी, तो नया भवन बनाने के लिए ही। नहीं रुक सकते। बीच में कोई रुकने की जगह नहीं है। जो विध्वंसक है, वह अगर सृजन भी करता है तो मिटाने के लिए तो कभी-कभी ऐसा आश्चर्यजनक इतिहास घटता है हिंद ही। वह बम बनाता है. तलवार पर धार रखता है। सजन तो वह मूर्ति बनाते रहे, बौद्ध-जैन मूर्ति बनाते रहे, मुसलमान मूर्ति तोड़ते भी करता है—बम बनाना सृजनात्मक है लेकिन बनाता रहे। अब थोड़ा सोचने-जैसा है। तुम्हें अगर मूर्ति से कोई | इसीलिए है कि मिटा सके। प्रयोजन ही न था, तो तोड़ने की भी झंझट क्यों उठायी? इसको खयाल में लेना, विध्वंसक बनाता भी है तो ध्वंस के लेना-देना ही न था कुछ तुम्हें! मूर्ति व्यर्थ थी, तो तोड़ने तक की लिए। और सृजनात्मक ऊर्जा मिटाती भी है, तो बनाने के लिए। झंझट क्यों उठायी? व्यर्थ के लिए कोई इतनी झंझट उठाता है! यह तुम्हें खयाल में आ जाए, तो महावीर की दृष्टि का सारसूत्र लेकिन नहीं, बनाना रुक जाए तो तोड़ने की आकांक्षा शुरू हो | पकड़ में आ सकता है। महावीर कहते हैं, जब भी तुम क्रोध से जाती है। ये वे ही लोग थे जो मूर्तिपूजक हो सकते थे। इनकी | भरते हो, जब भी तुम दूसरे को नष्ट करने के लिए आतुर हो उठते संभावना थी वही। लेकिन मूर्तिपूजा तो बंद कर दी गयी, तो जो हो, दूसरा नष्ट होगा या नहीं यह तो तुम छोड़ दो, क्योंकि इस पूजा बन सकती थी, वही मूर्ति का विध्वंस बन गयी। तो फिर जगत में विनाश कहां, कौन कब नष्ट हुआ, कौन किसको नष्ट तुम मूर्तियां तोड़ो। कुछ तो करना ही होगा। मूर्ति से संबंध तो कर पाया है; यहां जो है, सदा रहनेवाला है; आत्मा को तो मारा छोड़ ही नहीं सकते। अगर मित्र का नहीं तो शत्रु का सही, संबंध नहीं जा सकता, आत्मा तो अमर है, शाश्वत है, लेकिन तुम तो बनाना ही होगा। मारने की आकांक्षा से भरे कि तुमने अपने जीवन की दिशा खोनी खयाल किया, शत्रु से भी हमारे संबंध होते हैं। और शुरू कर दी। तुम भटके, तुम खोये, तुमने गलत राह पकड़ी। कभी-कभी तो मित्र से भी ज्यादा निकट होते हैं। मित्र के बिना जीवन को इस ढंग से देखना कि तुम्हारे भीतर जो भी तम सत्व तो तुम जी भी लो, शत्रु के बिना तुम बड़े अकेले अपने को लेकर पैदा हुए हो, वह धीरे-धीरे गहरे सृजन में निर्मित होता | पाओगे। अगर तुम्हारा शत्रु मर जाए, तो उसी दिन कुछ तुम्हारे जाए। मैं तुमसे कहूंगा, पानी छानकर पी लेना काफी नहीं है। 164 2010_03 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा ATME गीत गुनगुनाओ, मूर्ति बनाओ, चित्र सजाओ, जगत को सुंदर कुछ पैसे तुम्हारे पास हैं। उस पैसे से कंकड़-पत्थर भी मिलते हैं बनाओ, आसपास जीवन की झलक को फैलाओ, जीवन को और हीरे-जवाहरात भी मिलते हैं। कौन होगा जो कंकड़-पत्थर प्रज्वलित करो। जो तुम्हारे पास आये, थोड़ा और जीवंत होकर खरीदेगा! हीरे-जवाहरात तुम खरीद लाओगे। त। और यह बात बडी सक्षम है। तम एक जो तम्हारे पास ऊर्जा है, वह तम्हारी संपत्ति है। उसी से जैन-मुनि के पास जाओ, तुम थोड़े और मुर्दा होकर लौटोगे। वह कंकड़-पत्थर मिलते हैं, उसी से हीरे-जवाहरात मिलते हैं। वही कोई तलवार से मारता नहीं। उसके हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र संभोग बनती है ऊर्जा, वही समाधि बनती है। वही ऊर्जा हिंसा नहीं है। लेकिन तुम्हारी निंदा से मार देगा। जैन-मुनि तुम्हारी बनती है, वही ऊर्जा अहिंसा बनती है। वही ऊर्जा घृणा बनती तरफ देखता है तो ऐसे जैसे कि तुम पापी हो, गर्हित हो, है। वही प्रेम बनती है। एक बार तुम्हें पता चल जाए कि इस कीड़े-मकोड़े हो, आदमी नहीं। तुम्हारी तरफ देखता है ऐसे कि ऊर्जा से तो प्रेम खरीदा जा सकता है, समाधि खरीदी जा सकती तुम गलत हो। उसकी नजर में हिंसा है। है; इस ऊर्जा से तो सत्य के स्वर्ग बसाये जा सकते हैं, तो तुम अगर तुम महावीर के पास गये होते, तो तुम्हें पता चलता। | नर्कों में जाने की यात्रा बंद कर दोगे। नर्कों में तुम जाते हो मजबूरी उनकी आंख तुम पर पड़ती और तम्हारे भीतर उल्लास उठता।। से, क्योंकि तुम्हें राह नहीं मिलती स्वर्ग की। खोज तो सभी स्वर्ग उनके पास तुम जाते और तुम पाते कि तुम ताजे हो रहे हो, नये हो रहे हैं। राह नहीं मिलती। स्वर्ग को खोजने में ही लोग नर्क जाते रहे हो, पुनरुज्जीवन हो रहा है। उनके पास से तुम जीवन का हैं। कोई नर्क को थोड़े ही खोज रहा है! कौन दुख को खोज रहा संदेश लेकर लौटते। तुम नाचते लौटते। जाते वक्त भला तुम है! कौन जहर को खोज रहा है! कौन मृत्यु को खोज रहा है! लंगड़ाते गये हो, लौटते वक्त तुम नाचते लौटते। 'पंगु चढ़ें लेकिन राह नहीं मिलती। हाड।' उनके पास से तम जीवन की महिमा का वरदान लेकर महावीर ने उस राह को दिया है। इसीलिए तो वह कह सके कि लौटते, आशीष लेकर लौटते। जिस मंदिर में तुम्हारी निंदा हो आनेवाले दिनों में लोग पूछेगे कि अब वे जिन कहां हैं? अब वे रही हो, वहां हिंसा हो रही है। सब निंदा हिंसात्मक है। तुम्हारे महावीर कहां हैं? तब तुम पछताओगे, गौतम! अभी सुगमता पापों में अंगुलियां डालकर तुम्हारे घावों को कुरेदने से कोई | से धार तुम्हारे पास से बही जाती है। डूब लो, नहा लो। फिर | अहिंसा नहीं होती। तम्हारे पाप के भीतर पड़े हए तम्हारे पुण्य को पछताने से कुछ भी न होगा। फिर रोने से जगाने से, तुम्हारे अंधेरे में छिपे तुम्हारे प्रकाश को उघाड़ने से | अभी धार पास से बही जाती है। क्षणभर भी प्रमाद मत करो, अहिंसा होती है। तुम्हें तुम्हारे परमात्मा की याद दिलाने से गौतम! आलस्य मत करो, कल पर मत टालो। मत कहो कल अहिंसा होती है। जहां तुम्हारे भीतर का परमात्मा स्वीकार किया करेंगे, क्योंकि कल का क्या पता! धार रहे, न रहे। जाता हो, जहां तुम्हारे भीतर के परमात्मा को आह्वान मिलता हो, जो आज हो सकता है, आज कर लो। पाप को कल पर टालो, जहां तुम्हारी क्षुद्रता को भूलने की सुविधा हो और तुम्हारे विराट पुण्य को आज कर लो। कहो, क्रोध कल करेंगे, ध्यान आज का दर्शन होता हो, वहां अहिंसा है। जीवन सृजनात्मकता, | करेंगे। कहो, संसार कल कर लेंगे, संन्यास आज करेंगे। कहो अहोभाव, धन्यभाग! कि झूठ बोलना है, कल बोल लेंगे झूठ, जल्दी क्या है? सच और जैसे-जैसे तुम जीवन की महिमा से भरोगे, तुम पाओगे, आज बोलेंगे। और जिसने आज सच बोला, वह कल झूठ कैसे पाप की वृत्ति क्षीण होने लगी। क्योंकि वही ऊर्जा है, वही जहर बोल पायेगा। और जो आज झूठ बोला, वह कल सच कैसे बन रही थी, अब उसे मार्ग मिला, अब उसे स्वतंत्रता मिली, अब बोल पायेगा, क्योंकि आज से ही तो कल पैदा होता है। उसे प्रगट होने की सुविधा मिली। अगर तुम जीवन की ऊर्जा को तुम जो आज हो, वही तो तुम्हारे कल का निर्माण है। आज ही ऊपर न ले जा सको तो नीचे जाएगी, मजबूरी है। महावीर का तो तुम ईंट रख रहे हो कल के भवन की। आज ही बनाओगे घर, जोर ऊपर ले जाने पर है। ऊपर ले जाते ही नीचे की यात्रा कल उसमें रहोगे। अपने-आप बंद हो जाती है। थोड़ा सोचो, तुम बाजार गये हो। महावीर कह सके कि पास से बहती धार है, गौतम! तू क्यों 165 2010_03 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 सार है।' बैठा है, उठ; क्योंकि उनके पास पूरी दृष्टि थी। और जो उन्होंने हवा के झोंके जैसा-आया, गया। प्रेम बंधता नहीं कहीं। कहा, जानकर कहा है। वे शास्ता हैं। वे शास्त्र हैं। जीवंत | बादलों जैसा है। कोई जड़ें नहीं हैं प्रेम की। स्वतंत्रता है प्रेम। शास्त्र। उन्होंने जो कहा है, वह शुद्ध विज्ञान है। उसमें एक कड़ी मुक्ति है प्रेम। प्रेम बहता है, रुकता नहीं। रुका, डबरा बना, | भी गलत नहीं है। कहते हैं, 'अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है। राग हुआ। जहां प्रेम रुका, वहीं राग हो जाता है। सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों का और गुणों का पिंडभूत | महावीर ने एक बड़ी अनूठी बात कही है। महावीर ने कहा है, | जो बहता रहे, चलता रहे, वह धर्म। और जो रुक जाए, ठहर अहिंसा को अगर हम धर्म की भाषा से उतारकर आदमी की जाए, वह अधर्म। चकित होओगे यह परिभाषा जानकर। सरल भाषा में रखें, तो अहिंसा का अर्थ, प्रेम। अगर हम महावीर कहते हैं, जो सतत गतिमान है, वही धर्म है। जो ठहर जैन-शास्त्रों से अहिंसा शब्द को छुड़ा लें, मुक्त कर लें, | गया, रुक गया, जड़ हो गया, वही अधर्म। तुमने खयाल किया, | पारिभाषिक-जाल से अलग कर लें, तो अहिंसा का अर्थ होता प्रेम जब रुक जाता है, ठहर जाता है, किसी एक से अटक जाता है, प्रेम। प्रेम सृजनात्मक है। घृणा विध्वंसक है। है, फिर वहां से आगे नहीं बढ़ पाता, वहीं राग। अगर प्रेम क्या करेगा प्यार वह भगवान को फैलता रहे, किसी पर रुके न; प्रेमपात्र के ऊपर से फैलता रहे, क्या करेगा प्यार वह ईमान को और दूसरों पर बिखरता रहे; फैलता जाए...फैलता जाए...एक जन्म लेकर गोद में इंसान की घड़ी ऐसी आये कि इस जगत में तुम्हारे प्रेमपात्र के अतिरिक्त प्यार कर पाया न जो इंसान को और कोई न रह जाए, तो अहिंसा। प्रेम का आखिरी विस्तार, प्रेम प्रेम का पाठ जहां से सीखने मिल जाए, उसे चूकना मत। जहां | का परम विस्तार, प्रेम का चरम विस्तार अहिंसा है। इस जगत में से प्रेम का पाठ मिल जाए, उसे तो हीरे की तरह गांठ में गठिया | फिर एक भी कण ऐसा न रह जाए, जो तुम्हारा प्रेमपात्र नहीं। तब लेना। ऐसे प्रेम के पाठों को इकट्ठा कर-करके एक दिन तुम तुम अहिंसक हुए। पाओगे, अहिंसा का शास्त्र बन गया। प्रेम के अनुभव इकट्ठे होते निश्चित ही तब तुम पानी छानकर पी लोगे। तुम मांसाहार न चले जाएं, तो ऐसा समझो जैसे बहुत फूलों को निचोड़कर इत्र | करोगे। यह घटेगा। क्योंकि तुम्हारे मन में अब किसी भी वस्तु, बन जाता है, ऐसे बहुत जीवन में प्रेम के अनुभवों का किसी भी व्यक्ति, किसी भी पशु-पक्षी, वस्तु तक के प्रति सार-निचोड़ अहिंसा बन जाता है। अब यहां कुछ लोग हैं जो विध्वंस का कोई भाव नहीं, प्रेम की ही वर्षा हो रही है, तो तुम फूलों का तो त्याग करते हैं और इत्र की आकांक्षा करते हैं। सावधानी से बरतोगे। तुम जहां तक बन सकेगा, बचाओगे। पागल हैं वे। फूल को त्यागकर इत्र आयेगा कहां से? जहां तक बन सकेगा, सम्हालोगे। अहिंसा तो है प्रेम का परम इसलिए मैं कहता हूं कि महावीर के पीछे चलनेवालों ने विस्तार। लेकिन तर्क, पंडित, बुद्धिमानों की बुद्धिहीनता महावीर को बिलकुल भुला दिया है। उनके पास लकीरें रह गयीं ऐसे-ऐसे नतीजों पर पहुंच जाती है जिनकी महावीर ने कल्पना पिटी-पिटायी, उनको वे दोहराये चले जाते हैं। लेकिन उन भी न की होगी। लकीरों का सार खो गया है। शब्द रह गये हैं-कोरे, खाली, | अब जैनों के बीच पंथ है एक-तेरापंथ। आचार्य तुलसी का चली हुई कारतूसों जैसे, जिन्हें अब व्यर्थ ढो रहे हैं। अहिंसा का | पंथ। वहां अहिंसा की व्याख्या ठीक अहिंसा के विपरीत चली प्राण अगर प्रतिष्ठित करना हो, तो प्रेम शब्द में वह प्राण है। गयी है। तर्क के बड़े मजे हैं। चीजें इतनी खींची जा सकती हैं कि अहिंसा प्रेम के विपरीत नहीं है। अहिंसा राग के विपरीत है। प्रेम अपने से विपरीत हो जाएं। तेरापंथ कहता है कि अगर राह से स्वयं राग के विपरीत है। तुमने राग को ही प्रेम जाना है। इससे | तुम चल रहे हो और कोई आदमी मरता हो किनारे, प्यास के मारे भूल हो रही है। प्रेम तो राग को जानता ही नहीं। प्रेम की तो राग | चिल्लाता हो-पानी, पानी, तो भी पानी मत पिलाना। क्यों? से कोई पहचान ही नहीं है। जिससे तम्हें प्रेम होता है, न तो तम| क्योंकि उस आदमी को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ रहा है। उसे अपने से बांधते हो, न तुम उससे बंधते हो। प्रेम तो मुक्त है, | उसने कुछ पाप किये होंगे, जिसके कारण वह मर रहा है। 1661 -JanEducation International 2010_03 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा तुम्हारी यह अहिंसा है कि तुम उसके इस कर्मफल के भोगने में होगा, तो दौड़ तो पड़ेंगे। कोई राह के किनारे प्यासा मरता होगा, बाधा न दो। क्योंकि बाधा डालने से अड़चन होगी उसे। तुम तो दो बूंट पानी तो पिला सकेंगे। चुपचाप अपने रास्ते पर चलो। यह मैं इसलिए उदाहरण ले रहा हूं कि तुम्हें खयाल आ सके कि यह अहिंसा तो प्रेम के बिलकुल विपरीत हो गयी। और तर्क कितनी खतरनाक बात है। तर्क बिलकुल साफ-साफ भी तर्कयुक्त मालूम पड़ती है। तर्क खोज लिया। तर्क यह खोज | दिखायी पड़ता हो, तो भी खतरनाक हो सकता है। दमी अगर मर रहा है प्यासा, तो किसी पाप के अहिंसा तर्क नहीं है। अहिंसा गणित नहीं है। अहिंसा शद्ध कारण मर रहा है। उसको उसका कर्मफल भोग लेने दो। तुम प्रेम का भाव है। अहिंसा का अर्थ है, सारे जगत में परमात्मा है; बाधा मत दो। इस सारे जगत में मेरा ही स्वभाव व्याप्त है; मैं ही हूं दूसरा भी; कोई आदमी कुएं में गिर गया है, तो तुम उसे निकालो मत। दूसरा भी मेरे जैसा है; जो मैं अपने लिए ठीक समझता हूं, वही क्योंकि वह गिरा है अपने कर्मों के कारण। फिर कुएं में गिरे मैं दूसरे के लिए ठीक समझू। अगर मैं प्यासा मर रहा हूं, तो मैं आदमी को तुम निकाल लो और कल वह जाकर किसी की हत्या चाहूंगा कि कोई पानी पिला दे; यही मैं दूसरे के लिए ठीक कर दे, तो फिर तुम पर भी हत्या का भाग लगेगा। न तुम समझू। अगर मैं कुएं में गिर गया हूं और चिल्ला रहा हूं और निकालते, न वह हत्या कर सकता। न रहता बांस, न बजती चाहता हूं कि कोई मुझे निकाल ले, कोई हाथ बढ़े, कोई हिम्मत बांसुरी। अब बांसुरी बजी, तो बांस में तुम्हारा हाथ है। तुमने करे, तो जो मैं अपने लिए चाहता हूं, वही मैं दूसरे के लिए भी निकाला इस आदमी को, यह गया और कल इसने जाकर हत्या चाहूं। अगर मेरे पैर में कांटा गड़ा है, तो जो मैं चाहता हूं कोई कर दी किसी की, तो इस कल होनेवाली हत्या में तुमने सहभागी, खींच ले, वही मैं दूसरे के लिए भी करूं। साझेदारी की। अनजाने सही, जानकर नहीं, सोचकर नहीं, जीसस का प्रसिद्ध वचन है, जो तुम अपने लिए चाहते हो, लेकिन परिणाम तो बुरा हुआ! इसलिए तुम परिणाम से बाहर वही दूसरे के लिए चाहो! जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वही रहने के लिए चुपचाप अपनी राह पर, अलग-थलग। यह तो दूसरे के लिए मत चाहो। प्रेम से ठीक विपरीत बात हो गयी। | तेरापंथियों से तो जीसस कहीं ज्यादा महावीर के करीब हैं। प्रेम तो कहेगा कि ठीक है, अगर कल यह आदमी हत्या ऊपरी आवरण एक बात है, भीतरी आत्मा बड़ी और! और करेगा, तो भी मैं इसे बचाता हूं; अगर इसके बचाने के कारण व्यक्ति अगर सृजनात्मक हो जाए, तो व्यक्ति ही तो ईंट है समाज नर्क भी जाऊंगा, तो भी बचाता हूं। प्रेम तो कहेगा, मैं भोग लूंगा की। व्यक्ति अगर बदले, तो समूह बदलता है। चूंकि व्यक्ति नर्क, लेकिन यह जो सामने मर रहा है आदमी, इसको तो हिंसा से भरा है, इसलिए समूह युद्धों से भरा है।। बचाऊंगा। प्रेम सोचता थोड़े ही है। मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास युद्धों का इतिहास है। लोग प्रेम सजनात्मक है। जहां भी देखता है विध्वंस हो रहा है, लड़ते ही रहे। लोगों ने लड़ने में इतनी शक्ति व्यय की है कि हम रोकता है। जहां भी देखता है कोई चीज मर रही, वहां | कल्पना भी नहीं कर सकते। अगर इतनी शक्ति सृजनात्मक हुई सहज-भाव से, बिना किसी चिंतना के, हिसाब-किताब के, होती, तो मनुष्य अब कहां होता! शायद स्वर्ग कहीं और होने की गणित के, सहज-भाव से दौड़ा चला जाता है। अब किसी के जरूरत न थी, हमने उसे यहां बना लिया होता। हम कभी के घर में आग लग गयी है और बच्चा भीतर छूट गया है, तेरापंथी स्वर्ग में पहुंच गये होते। मनुष्य-जाति की करीब-करीब नब्बे सोचेगा-अपने कर्मों का फल भोग रहा है। ऐसे अहिंसकों से प्रतिशत शक्ति युद्ध में व्यय हुई है। अभी भी वही हालत है। तो दुनिया खाली रहे, तो अच्छा! ऐसी अहिंसा से तो वे हिंसक अभी भी रक्षा-विभाग, सभी राष्ट्रों का, देश की सारी संपत्ति पी बेहतर हैं, जो रात खाना खा लेते हों, मांसाहार कर लेते हों, पानी जाता है। सत्तर प्रतिशत, पचहत्तर प्रतिशत, अस्सी प्रतिशत तक बिना छना पी लेते हों, कम से कम घर में आग लगेगी, किसी को युद्ध के मैदान की तैयारी में लग जाता है। बचाने की जरूरत होगी, तो दौड़ तो पड़ेंगे। कोई नदी में डूबता राजनेता कहे चले जाते हैं शांति की बात, उड़ाते हैं शांति के 2010_03 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 कबतर. बनाते हैं एटम और हाइडोजन बम। इधर कबतर उडाते हासिले-जिंदगी जनं ही नहीं रहते हैं, उधर बम की फैक्ट्रियां चलाते रहते हैं। इधर शांति की जीवन का लक्ष्य पागल हो जाना थोड़े ही है। जीवन का लक्ष्य बातें करते रहते हैं, उधर युद्ध की तैयारी करते रहते हैं। शांति की तो प्रज्ञा को उपलब्ध होना है। अगर संघर्ष ही करना है, तो करो बातें सब बकवास मालूम होती हैं। अगर शांति की बात में प्रज्ञा के लिए। अगर युद्ध ही लड़ना है, तो लड़ो अंधेरे से, तो सचाई है, तो शांति की तैयारी तो करो। शांति की तैयारी करोगे लडो क्रोध से. तो लडो हिंसा से। शत्र भीतर है। करुक्षेत्र बाहर तो महावीर की बात सुननी पड़ेगी। लेकिन शांति की बात करने मत बनाओ। भीतर ही बनाओ। में कोई अड़चन नहीं है। शांति की बात युद्ध को, युद्ध की प्रवृत्ति गीता शुरू होती है तो कहती है, कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र है। बड़ा को ढांकने के लिए बड़ा सुगम उपाय हो जाती है। बमों के ढेर पर | गहरा इंगित है। कुरुक्षेत्र बाहर नहीं। धर्म का क्षेत्र। धर्म का क्षेत्र खड़े हैं, कबूतर उड़ा रहे हैं। तो भीतर है। जंग तो खुद ही एक मसला है आओ इस पीरावक्त दुनिया में जंग क्या खाक मसलों का हल देगी फिक्र की रोशनी को आम करें युद्ध तो खुद ही एक समस्या है। उससे हम हल खोज रहे हैं, अमन को जिससे तकवियत पहुंचे समाधान खोज रहे हैं। ऐसी जंगों का एहतमाम करें इसलिए ऐ शरीफ इंसानो आओ इस पीरावक्त दुनिया में जंग टलती रहे तो बेहतर है। इस भाग्यहीन दुनिया में, इस अंधेरे से भरी दुनिया में आप और हम सभी के आंगन में फिक्र की रोशनी को आम करें शमा जलती रहे तो बेहतर है ध्यान-चिंतन की, मनन की, स्वाध्याय की रोशनी जलायें। कौन-सी शमा? महावीर की शमा। अहिंसा की शमा। प्रेम अमन को जिससे तकवियत पहुंचे की शमा। और शांति से जिनको सहारा मिले, शक्ति मिले, बल मिले। आप और हम सभी के आंगन में ऐसी जंगों का एहतमाम करें शमा जलती रहे तो बेहतर है और ऐसे युद्धों का इंतजाम करें। ऐसे युद्धों का प्रबंध करें। बरतरी के सुबूत की खातिर जिनसे शांति बढ़े। खू बहाना ही क्या जरूरी है उसी युद्ध की तरफ महावीर का इशारा है। उसी युद्ध को घर की तारीकियां मिटाने को जीतकर वे महावीर बने। वह युद्ध भीतर है। वह दूसरे से नहीं, घर जलाना ही क्या जरूरी है वह अपनी ही अधोगामी वृत्तियों से है। वह अपने को ही नीचे घर में अंधेरा है, माना। लेकिन घर के अंधेरे को मिटाने के खींचनेवाली वासनाओं से है। वह अपने को ही अंधेरे में ले लिए क्या पूरे घर को जलाना जरूरी है! और जानेवाली आदतों से है। वह अपनी ही बेहोशी और मूर्छा से बरतरी के सुबूत की खातिर... है। आदमी तो इतना लड़ता रहा है, और बड़े अच्छे बहाने बड़प्पन, अहंकार, मैं बड़ा हूं, यह बताने के लिए... खोज-खोजकर लड़ता रहा है। बहानों पर मत जाओ! आदमी खू बहाना ही क्या जरूरी है लड़ने के लिए बड़ी गहरी आतुरता रखता है। राजनीति में तो क्या कोई और उपाय नहीं? लड़ता ही है, धर्म तक के लिए लड़ता है। इस्लाम खतरे में है। जंग के और भी तो मैदां हैं जैसे कि धर्म कभी खतरे में हो सकता है! हिंदू-धर्म खतरे में है। सिर्फ मैदाने-कुस्तखू ही नहीं ये सब आवाजें आदमी के भीतर हिंसा को भड़कानेवाली आवाजें और भी तो मैदान हैं युद्ध के। हैं। मंदिर-मस्जिद लड़ते हैं। यहां तक हालत पहुंच गयी हासिले-जिंदगी खिरद भी है। है...कल रात मैं किसी कवि की पंक्तियां पढ़ता था 168 | JainEducation International 2010_03 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा बुग्ज़ की आग, नफरत के शोले जाए। सभी अपने हों, ताकि किसी को अपना कहने की कोई मयकशों तक पहुंचने न पायें जरूरत न रह जाए। फस्ल यह मंदिरों मस्जिदों की अब देखना, यहां कैसी आसान तरकीब आदमी निकाल लेता मयकदों की जमीनों में क्यों हो है। महावीर कहते हैं, 'मेरे' को छोड़ो। लेकिन उनका प्रयोजन बुग्ज़ की आग है, ताकि सभी मेरे हो जाएं। जैन-मुनि कहते हैं, 'मेरे' को द्वेष की आग... छोड़ो। उनका प्रयोजन है, ताकि जो मेरे हैं, वे भी न रह जाएं। ये नफरत के शोले दोनों एक-ही तरह के शब्दों का उपयोग करते हैं, लेकिन दोनों में मयकशों तक पहुंचने न पायें बड़ा बुनियादी विरोध है। इन्हें रोकना, शराबियों तक इन्हें मत आने देना। इन्हें सज्जनों | महावीर कहते हैं, किसी घर के मत बनो, ताकि सारा अस्तित्व तक रहने देना। इन्हें संतों-साधुओं तक रहने देना। तुम्हारा घर हो जाए। महावीर कहते हैं, गृहस्थ से संन्यस्त हो बुग्ज़ की आग, नफरत के शोले जाओ। प्रयोजन इतना है कि घर में बंधे न रह जाओ। सारा मयकशों तक पहुंचने न पायें । संसार तुम्हारा घर हो जाए। जैन-साधु जब कहता है, छोड़ो घर, पियक्कड़ों तक न पहुंच पायें ये द्वेष और हिंसा की आग और छोड़ो 'मेरा', तब वह तुमसे वह छोटा-सा जो घर था, वह भी शोले। छीने ले रहा है। महावीर कहते हैं, वह छोटा-सा घर इतना फैले, फस्ल यह मंदिरों मस्जिदों की इतना फैले कि विराट विश्व हो जाए। वह उस छोटे-से घर को यह मंदिरों-मस्जिदों में ठीक है फस्ल। छीनने के लिए आतुर नहीं हैं। इस पूरे विश्व को तुम्हारा घर बना मयकदों की जमीनों में क्यों हो? देना चाहते हैं। कहीं तुम छोटे-से घर में अटके न रह जाओ, मधुशाला की जमीन में नहीं होनी चाहिए। मधुशाला तक | इसलिए छोड़ने को कहते हैं। डरती है कि कहीं मंदिरों की आग यहां न आ जाए। मंदिरों का महावीर का त्याग महाभोग की तरफ कदम है। वह पीड़ित हैं इससे बड़ा कोई पतन हो सकता है! शराबी डरते हैं, कहीं यह देखकर, परेशान हैं, यह देखकर कि तुम जो विराट सागर हो साधु-संतों के उपद्रव यहां न आ जाएं। अब इससे बड़ा पतन सकते थे, कैसा डबरा हो गये हो। वह कहते हैं, छोड़ो यह साधु-संतों का कोई और हो सकता है! डबरा, तुम सागर होने को हो। इतने छोटे में क्यों बंधकर रह गये मंदिर-मस्जिदों ने इतना लड़वाया आदमी को, ऐसे अच्छे | हो? बड़ी तुम्हारी संभावना है। विराट तुम्हारी नियति है। प्रभुता बहाने लेकर लड़वाया, ऐसे सुंदर आदर्श लेकर लड़वाया कि उन तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन जब महावीर के पीछे आदर्शों की आड़ में यह दिखायी ही न पड़ा कि यह सिर्फ लड़ने चलनेवाले लोग कहते हैं, छोड़ो घर, तो वे सारे संसार को घर की वृत्ति है। यह विध्वंस की आकांक्षा है, और कुछ भी नहीं। बनाने के लिए नहीं कह रहे हैं; वे कह रहे हैं, यह जो घर है, यह 'अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य और भी तुम्हारा न रह जाए, बेघर हो जाओ। इन्हीं शब्दों की भ्रांतियों सब व्रतों और गणों का पिंडभत सार है।' | के कारण अक्सर तो तीर्थंकरों, अवतारों और पैगंबरों ने जो कहा लेकिन इस अहिंसा का अर्थ है, प्रेम। इस अहिंसा का अर्थ है, है, उसके ठीक उल्टे अर्थ लोगों की पकड़ में आ गये। सीधे अर्थ रागमुक्त प्रेम। इस अहिंसा का अर्थ है, वीतराग प्रेम। पकड़ना तो बहुत कठिन। क्योंकि सीधे अर्थ पकड़ने का तो अर्थ इस अहिंसा का अर्थ है प्रेम फैलता चला जाए। प्रेम कोई सीमा होगा-आत्मक्रांति। एक-एक भीतर के कोने-कांतर को न माने। जहां प्रेम ने सीमा मानी, वहीं राग। जब तुमने कहाः | बदलना होगा। अंधेरा जरा-भी न बचने देना होगा। मेरा बेटा, मेरा भाई, वहीं राग। भाईचारा इतना फैले कि गलत अर्थों को पकड़ना बहुत आसान है। प्रेम को इतना 'मेरे-तेरे' की कोई जगह न रह जाए। भाईचारे का सागर हो। विराट बनाना तो बहुत कठिन है, हां प्रेम को बिलकुल खाली कर सभी भाई हों, ताकि किसी को भाई कहने का कोई कारण न रह | लेना बहुत आसान है। वैसे ही खाली हो, वैसे ही प्रेम कुछ है 11697 2010_03 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 नहीं, तो यह बात समझ में आ जाती है, यह भी छोड़ दो। है भी पर इससे क्या फर्क होता। फिर नया जन्म, फिर तुम नया क्या? लेकिन अगर प्रेम को बड़ा करना है, तब तो बड़ा श्रम सपना देखते हो। नींद जारी रहती है। मौत सपना तोड़ सकती है, होगा, बड़ी साधना होगी। यह आगे के सूत्र साफ करेंगे। | नींद नहीं तोड़ सकती है। इसे फिर से कहूं, मौत सपना तोड़ दूसरा सूत्र सकती है, क्योंकि मौत का बल इससे ज्यादा नहीं है। मौत नींद 'महावीर ने परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा है। उन महर्षि ने नहीं तोड़ सकती। नींद तो सिर्फ ध्यान ही तोड़ सकता है। नींद तो मूर्छा को परिग्रह कहा है।' सिर्फ जागरूक होने की अथक अभीप्सा तोड़ सकती है। नींद तो महावीर ने यह नहीं कहा कि वस्तओं के होने में परिग्रह है। घर तम तोडना चाहो तो तोड सकते हो. कोई और नहीं तोड़ सकता के होने में परिग्रह नहीं है, न धन के होने में परिग्रह है। न पत्नी के | है। अगर तुम सोना चाहते हो, तो कोई उपाय नहीं है। महावीर होने में परिग्रह है। कहते हैं, सपना छोड़ने की फिक्र छोड़ो, एक सपना छूट भी __ 'उन महर्षि ने मूर्छा को परिग्रह कहा।' जाएगा तो क्या फर्क होगा। जहां से सपने आते हैं, वहां से और इन वस्तुओं को अपना मान लेने में। इन वस्तुओं के साथ सपने आ जाएंगे। जकड़ जाने में। इन वस्तुओं के साथ आसक्त हो जाने में। इन मुल्ला नसरुद्दीन ने एक नौकरी के लिए दरख्वास्त दी। पानी वस्तुओं और अपने बीच एक तरह का गहरा संबंध बना लेने में, | के जहाज पर कोई जगह खाली थी। जहाज के कप्तान ने उसका कि उस संबंध को छोडना मश्किल हो जाए। उस मर्छा में इंटरव्य लिया और पछा कि अगर तफान आ जाए और जहाज परिग्रह है। डगमगाने लगे, तो तुम क्या करोगे? मुल्ला ने कहा, लंगर यह सूत्र बड़ा अनूठा है। धर्म-शास्त्रों में सारे जगत के डालेंगे! कप्तान ने कहा कि और बड़ा तूफान आ जाए, फिर क्या धर्म-शास्त्रों में इसके मुकाबले सूत्र खोजना कठिन है। करोगे? उसने कहा एक लंगर और। कप्तान ने कहा और बड़ा न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। तूफान आ जाए, फिर क्या करोगे? उसने कहा, एक लंगर और। मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।। कप्तान ने कहा, ठहरो, ये लंगर तुम ला कहां से रहे हो? मुल्ला | कहा है: वस्तुओं को छोड़ने से परिग्रह नहीं ने कहा, ये तूफान आप कहां से ला रहे हैं? वहीं से हम लंगर ला छूटता, मूर्छा छूटने से परिग्रह छूट जाता है। मूर्छा; घर नहीं रहे हैं। तुम लाये जाओ तूफान, हम लाये जाएंगे लंगर। छोड़ना, धन नहीं छोड़ना, पत्नी-बेटे नहीं छोड़ना, मूर्छा छोड़नी अगर कल्पना का ही जाल है, तो ठीक। न तूफान है कहीं, न है। सोया-सोयापन छोड़ना है। तुम ऐसे जी रहे हो जैसे नींद में लंगर दिखायी पड़ता है। एक सपना जहाँ से आ रहा है, अगर हो। सपना नहीं छोड़ना है, नींद छोड़नी है। उसका मूल स्रोत न तोड़ा गया, तो दूसरा सपना चला आयेगा। इस बात को खयाल में लो। यह सपना कहां से आया? इस पत्नी को तुमने क्यों कहा मेरी? अगर नींद न छूटी, तो एक सपना छूट जाए, दूसरा शुरू हो इस पति को तुमने क्यों कहा मेरा? इस बेटे को तुमने कैसे माना जाएगा। सपनों की फसलें नींद में उगती ही रहेंगी। तो महावीर मेरा? इस मकान को तुमने कैसे कहा मेरा? इस धन को, इस कहते हैं, सपने छोड़ने से क्या होगा? सपने तो बहुत बार देह को, तुमने कैसे दावा किया कि मेरी? यह सपना जहां से अपने-आप भी छूटे हैं। कितनी बार तुम जन्मे! कितनी पत्नियों आया है, उस स्रोत का तुम्हें पता है? अगर उस स्रोत को न को अपना नहीं कहा! कितने बेटों को अपना नहीं कहा! कितने | तोड़ा, इस देह को छोड़ दो, इस पत्नी को छोड़ दो, इस मकान को मित्र बनाये, कितने शत्रु बनाये! कितने घर बसाये! मौत आयी, छोड़ दो, इस दुकान को छोड़ दो, फिर किसी दूसरी दुकान पर वह सब उजाड़ गयी। तो मौत तो सभी को संन्यस्त कर जाती है, कहेगा-मेरा। घर छोड़ दो, जंगल में चले जाओ, गुफा में बैठ ख चीखो-चिल्लाओ, मौत तो छीन जाओ, तो गुफा को कहेगा-मेरी। क्या फर्क पड़ेगा? ही लेती है सब, जो तुम छोड़ना नहीं चाहते। छोड़ना ही पड़ता हिमालय में जाकर किसी साधु की गुफा में अड्डा जमाओ, पता है। कितनी बार मौत तुम्हारा सपना नहीं तोड़ गयी! चलेगा! धक्का मार बाहर कर देगा–पता है, यह गुफा मेरी है! 170 2010_03 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा एक भिखमंगा एक गांव की एक सड़क पर नियमित रूप से आते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की गयी। तुम काटते हो, वृक्ष भीख मांगता था। तगड़ा भिखमंगा था। कोई दूसरा भिखमंगा बढ़ता है। वृक्ष घना होता है, जैसे-जैसे तुम काटते हो। जड़ को वहां घुस भी नहीं सकता था। भिखमंगों की भी अपनी-अपनी काटना पड़े। जड़ के कटते ही वृक्ष निष्प्राण हो जाता है। उसका सीमा होती है। उसकी सीमा-रेखा में कोई दूसरा भिखमंगा नहीं संबंध टूट गया भूमि से। मूर्छा तोड़नी है। एक ही चीज तोड़नी आ सकता था। उनका भी साम्राज्य होता है-भिखमंगों का है—मूर्छा तोड़नी है। एक ही धर्म है-मूर्छा के बाहर आना। भी! लेकिन एक दिन किसी ने देखा कि वह भिखमंगा किसी और एक ही अधर्म है-मूर्छा में जीना। मूर्छा में तो मन सपने दूसरी सड़क पर भीख मांग रहा है। तो उसने पूछा, अरे! वह | ही सपने देखता रहता है। कभी-कभी विपरीत सपने देखता पुरानी जगह छोड़ दी? क्योंकि वह पुराना मोहल्ला तो धनपतियों | है-एक से ऊब जाता है। बाजार में रहते-रहते ऊब गये, पहाड़ का मोहल्ला था और वहां ज्यादा भीख मिलने की संभावना थी। भाग गये। उसने कहा, छोड़ नहीं दी, मेरी लड़की का विवाह हो गया, तुमने खयाल किया, पहाड़ में जो रहते हैं, वे बंबई आने को उसको दहेज में दे दी, उसके पति को। उत्सुक! बंबई जो रहते हैं, वे पहाड़ जाने को उत्सुक ! मन के बड़े तम्हें पता नहीं है कि तम्हारा मोहल्ला भिखमंगे ने किसी को अजब खेल हैं। मन एक सपने से ऊब जाता है, तो सोचता है दहेज में दे दिया है। भिखमंगे का भी साम्राज्य है! नंगा भी | शायद विपरीत में कुछ मजा होगा। गरीब अमीर होने को उत्सुक आदमी खड़ा हो, लंगोटी भी उसके पास न हो, तो भी जहां से है। अमीर सोचता है, गरीब बड़े मजे में है, रात चैन की नींद सपने आते थे वह जगह तो अभी नहीं तोड़ी। तो वह जहां खड़ा सोता है। भूख लगती है गरीब को, मुझे भूख भी नहीं लगती। है, जितनी छोटी-सी जमीन को घेर रहा है, उस पर ही 'मेरे' का नींद भी नहीं लगती। क्या सार हुआ इस धन को पा लेने से। कब्जा हो जाएगा। मूल को तोड़ना पड़ेगा। शाखाएं-प्रशाखाएं। ऐसा आदमी अमीर ही नहीं है, जिसे गरीब के जीवन में सुख काटने से कुछ भी न होगा। दिखायी न पड़ने लगा हो। इसे मैं अमीर की परिभाषा मानता हूं, महावीर कहते हैं, वह मूल है मूर्छा। बाकी सब सपना है। जिस दिन कोई आदमी सच में अमीर होता है, उसी दिन गरीब की 'मेरा-तेरा' 'अपना-पराया', बाकी सब सपना है। मूल है | आकांक्षा शुरू हो जाती है। वह सोचता है, इससे तो गरीब मूर्छा। मूल है कि मुझे होश नहीं। मूल है कि विवेक जागा | बेहतर। भिखमंगे को देखता है, भरी दुपहरी में, भरे बाजार में, नहीं। मूल है कि ध्यान जला नहीं, मशाल बोध की मेरे पास वृक्ष के नीचे घुर्रा रहा है, सो रहा है। न तकिया है, न बिस्तर है, नहीं। इस अंधेरे में सब उठता है; सब सांप-बिच्छू, सब न घर-द्वार है, लेकिन ऐसी गहरी नींद! ईर्ष्या से भर जाता है। कीड़े-पतंगे, मकड़ी के जाले। इस अंधेरे में भूत-प्रेत सब पलते वह रात अपने बहुमूल्य बिस्तर पर करवटें बदलता है। कोई नींद हैं। रोशनी आते ही सब विदा होने लगते हैं। का पता नहीं। रूखी-सूखी मांगी रोटी को खाते भिखमंगे को महावीर कहते हैं : 'न सो परिग्गहो वुत्तो-परिग्रह में परिग्रह देखता है, लेकिन जिस स्वाद से भिखमंगा खा रहा है, जिस भाव नहीं—नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो-मूर्छा में है से; और भूख भर जाने पर जिस तृप्ति से उठता है, ऐसी तृप्ति परिग्रह।' हिंसा में हिंसा नहीं, मूर्छा में है हिंसा। क्रोध में क्रोध अमीर भूल गया है। सब है उसके पास! नहीं, मूर्छा में है क्रोध। राग में राग नहीं, मूर्छा में है राग। तो यह बड़े आश्चर्य की बात है, जब तक भोजन नहीं होता, तब महावीर ने मूल स्रोत को पकड़ा। तक भूख होती है; जिस दिन भोजन के सब साधन हो जाते हैं, सभी पापों की जड़ मूर्छा है। अलग-अलग पापों से लड़ने में उस दिन भूख नहीं रहती। दुनिया बड़ी बेढंगी है। यहां हिसाब समय मत गंवाना। उससे कछ सार न होगा। ऐसे ही तो तमने बड़ा उलटा है। जब तक सोने का इंतजाम नहीं रहता, तब तक जनम-जनम गंवाये। छोटी-छोटी चीजों से लड़ रहे हो–पत्तों नींद आती है। जब सोने का सब इंतजाम कर चुके होते हैं, तब को काटते हो। वृक्ष को कोई चोट नहीं पहुंचती पत्ते काटने से। तक नींद खो जाती है। गरीब सोचता है, महलों में सुख होगा; वस्तुतः हालत उलटी होती है। एक पत्ता काटते हो, तीन निकल महलों में जो बैठे हैं, सोचते हैं गरीब बड़े मजे में हैं। शहरों में 2010_03 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 रहनेवाले लोग कविताएं लिखते हैं गांवों की प्रशंसा की। गांव में | फेर रहे हैं, मूर्ख बन गये हैं! यह शक उठता है। रहनेवाले लोग सिर ठोंकते हैं कि कब सौभाग्य होगा कि शहर मुझसे बड़े-बड़े बुजुर्ग साधुओं ने यह कहा है, कि शक होता है पहुंच जाएं। विपरीत। जिसको हम भोग रहे हैं, उससे तो हम कि पता नहीं हमने कुछ गलती तो नहीं कर ली! थक जाते हैं। ऊब जाते हैं। हालांकि इस सबके कारण दूसरे दिन प्रवचन में वह और जोर रात हंस-हंस के ये कहती है कि मयखाने में चल से लोगों को समझाते हैं कि संसार व्यर्थ है! कि छोड़ो, कहां फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल उलझे हो कीचड़ में! ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त, वीराने में चल खयाल रखना, जो साधु जितने जोर से तुम्हें छोड़ने को समझा ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं रहा हो, उतनी ही खबर दे रहा है कि वह बेचैन है। वह बेचैन है रात हंस-हंस के कहती है मयखाने में चल इस बात से, जब तक वह दूसरों को भी राजी न कर ले तब तक फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल उसे चैन नहीं है। वह सोचता है, दूसरे शायद मजा लूट रहे हों। फिर किसी लाल फूल-ऐसे मुखड़ेवाली के घर चल। और एक अर्थ में बात ठीक भी लगती है, क्योंकि दूसरों की ये नहीं मुमकिन... संख्या बहुत है। संख्या का बल मालम होता है। अगर धर्म सच तो मन कहता है अगर यह न हो सके... ही होता, तो सभी लोग कभी के धार्मिक हो गये होते। तो अगर तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल मंदिर में बैठे पुजारी को मधुशाला में बैठे पियक्कड़ से ईर्ष्या पैदा तो फिर वह ठीक दूसरा विपरीत रास्ता बताता है, फिर जंगल | हो जाती हो, कुछ आश्चर्य नहीं। क्योंकि मंदिर तो लोगों को भाग चलो। लाख समझाओ और लोग नहीं आते। और मधुशाला जाने से जो-जो लोग मयखानों से ऊब गये हैं, लाल मुखड़ेवाली लाख रोको, तो भी जाते हैं। कुछ होना ही चाहिए! कुछ प्रबल स्त्रियों से ऊब गये हैं, वे जंगल भागते हैं। लेकिन जंगल भागने | आकर्षण होना ही चाहिए! लाख समझाओ कि राख है, मिट्टी है से कुछ हल नहीं है। जंगल में जो बैठे हैं, उनसे तो पूछो! उनका सोना, फिर भी सोने को पकड़ते हैं। इतने समझानेवाले हुए हैं, दिल कहता है फिर भी कोई संसार से भागता नहीं है! आसानी से भागता नहीं। रात हंस-हंस के कहती है मयखाने में चल और अकसर जो संसार से भागते हैं, बहुत बुद्धिमान नहीं मालूम फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल होते हैं। इससे और शक पैदा होता है। तुम जरा साधुओं के भीतर तो उतरो। तुम पाओगे वे उन्हीं सब तुम अकसर साधु-संन्यासियों को निर्बुद्धि पाओगे। सौ में चीजों के लिए तड़फ रहे हैं, जिनके कारण तुम तड़फ रहे हो। तुम | अगर एक भी तुम्हें बुद्धिमान मिल जाए, तो अपवाद है। तुम मरे जा रहे हो जिन चीजों के कारण, घबड़ाये जा रहे हो, सोचते उन्हें निर्बुद्धि पाओगे। ये जिंदगी से हारे-थके लोग हैं। ये जिंदगी हो कब साधु हो जाएं; कब सौभाग्य का क्षण आयेगा सब में जीत न सके। ये पराजित लोग हैं। जिंदगी में प्रतियोगिता न छोड़कर चले जाएं, जो छोड़कर चले गये हैं, जरा उनसे तो पूछो! कर सके। इनके पास न इतनी बुद्धि थी, न सोच-समझ था, न वे तड़फ रहे हैं ईर्ष्या से। वे तुम्हें देख रहे हैं, वे सोच रहे हैं कि इतना साहस था, इसलिए भगोड़े हैं। लेकिन भगोड़े होने से कुछ पता नहीं तुम मजा तो नहीं लूट रहे हो! हम कहीं चूक तो नहीं मन की नींद तो नहीं टूटती! मूर्छा तो नहीं जाती! गये—जिंदगी हाथ से गुजरी जाती है, आत्मा का कुछ पता नहीं महावीर कहते हैं, भागने से कुछ न होगा, जागो। भागो नहीं, चल रहा है, भगवान के कोई दर्शन नहीं हो रहे हैं, माला | जागो। सारा जोर जागने पर है। फेरते-फेरते थक गये हैं, कहीं कोई साक्षात्कार नहीं हो रहा है, 'जीव मरे या जीए, आ-यतन-आचारी को हिंसा का दोष कहीं ऐसा तो नहीं है कि बस यही जिंदगी सब कुछ है! यह अवश्य लगता है। किंतु जो समितियों में प्रयत्नशील है, उससे मयखाने और लाल मुखड़ेवाली स्त्रियोंवाली जिंदगी ही सब कुछ | बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्मबंध नहीं होता।' है! कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नाहक बैठे हैं! खाली कोरी-माला | महावीर कहते हैं, जो जागकर नहीं जी रहा है, यतन से नहीं जी 172 2010_03 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा . रहा है...यतन से जीने का अर्थ समझ लेना-उसी को कबीर ने छिपाओ, तो भी खुल जाता है। सच को बचाओ, छिपाओ, तो | जतन कहा है। जतन को रतन कहा है। जतन से जीना। यत्न से भी प्रगट हो जाता है। जीना! क्या अर्थ है? होश से जीना! चलना काफी नहीं है, तुम अपने बावजूद बहुत-सी बातें कह जाते हो। पीछे पछताते भीतर दीया जलता रहे, फिर चलना। बोलना काफी नहीं है, हो। निश्चित ही तुम्हारे बोलने में होश का दीया नहीं है। बोलो | जतन से बोलना। होश से बोलना। होश से, जाग्रत हुए। इसको महावीर कहते हैं, यत्न। बोधपूर्वक तुम्हें कभी ऐसा मौका आता है या नहीं, जब तुम ऐसी बात कह जीने का नाम, येत्न। देते हो जो नहीं कहना चाहते थे? यह कैसा बोलना हुआ! तुम आंसू से कहो बरसे, मगर रोये नहीं कहना नहीं चाहते थे और कह गये। तय करके आये थे कि यह शबनम से कहो बिखरे, मगर खोये नहीं बात कहेंगे नहीं, और निकल गयी। तुम कहते हो, मेरे बावजूद पीने का मजा तो है तभी ऐ साकी निकल गयी। कहना नहीं चाहता था, फिर भी निकल गयी। मयखाना सभी झूमे मगर सोये नहीं अकसर तो यह होता है, जो तुम नहीं कहना चाहते हो, वह मस्ती से कुछ हर्जा नहीं है, नींद भर न आये। निकल ही जाता है। वह कोई रास्ता खोज लेता है। मयखाना सभी झूमे, मगर सोये नहीं एक मुल्ला नसरुद्दीन का मित्र बीमार था। मरने के करीब था। उठो, बैठो, चलो, जागे रहो! गीत गाओ, कि हंसो, कि रोओ, मित्र जाकर उसको समझाते थे कि कोई फिकिर नहीं, मौत आ जागे रहो! जागरण को धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन की शैली बना नहीं रही, तुम रोज-रोज ठीक हो रहे हो। आखिरी रात भी आ लो; इसको महावीर यत्न कहते हैं। गयी, डाक्टरों ने कहा, अब बचेगा नहीं। मल्ला उसे देखने गया 'जीव मरे या जीए।' था। मित्रों ने उसे समझाया कि देखो भूल से भी उसके मरने की हिंसा से इसका कोई संबंध नहीं है। आमतौर से लोग सोचते बात मत कहना। वह वैसे ही मर रहा है, अब उसे और दुखी क्यों हैं, दूसरे को मत मारो, क्योंकि मर जाएगा तो पाप लगेगा। करना! घड़ी-दो घड़ी सुख से, शांति से रह ले। जाना तो है ही। महावीर कहते हैं, जीव मरे या जीए, इससे कुछ हिंसा का संबंध उसको दुख क्यों देना! सदमा मत पहुंचाना। मुल्ला ने कहा, नहीं है। तुम्हारे मन में जो मारने की वृत्ति उठी, जो तुमने मारने की क्या तुमने मुझे नासमझ समझा है? मुझे पता है। वृत्ति उठने दी, वह तुम्हारे सोये होने का सबूत है। जो जागा हुआ मुल्ला गया उसने बड़ी इधर-उधर की हांकी, मित्र को खूब है, वह तो जानता है यहां सभी अमृतधर्मा हैं। प्रसन्न किया, इतना कि वह मरनेवाला आदमी हंसने लगा। जो समितियों में प्रयत्नशील है, उससे बाह्य हिंसा हो जाने पर उसके गप-सड़ाका, उलटी-सीधी कहानियां, वह बिलकुल भी उसे कर्मबंध नहीं होता।' | उठकर बैठ गया मरनेवाला, तभी मुल्ला, जोर-जोर से सिर महावीर बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं, जो हिलाने लगा, उसने पूछा क्या हुआ? उसने कहा, पूछो मत! होशपूर्वक जी रहा है, उससे कभी बाह्य हिंसा हो भी जाए...तुम यह तुम किस चीज के लिए सिर हिला रहे हो? उसने कहा कि चल रहे थे, एक चींटी दबकर मर गयी। लेकिन तुमने चलने में तुमसे मैं बात जरूर कर रहा हूं, लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में उठ | होश रखा था। तुमने अपनी तरफ से पूरा होश रखा था...तो रहा है कि यह तुम्हारे घर की जो सीढ़ियां हैं, मर जाओगे तो अर्थी | महावीर कहते हैं, फिर कोई हर्जा नहीं। निकाली कैसे जाएगी? यह सीढ़ियां इरछी-तिरछी हैं। तो मैं | कुछ हिंसा तो होती है जीवन के होने में ही। श्वास लोगे। बार-बार उसी को इनकार कर रहा हूं कि मुझे क्या मतलब! यह | प्रत्येक सांस में लाखों जीवाणु मर जाते हैं। सांस तो लेनी ही जब मरेगा, जब मरेगा! और जिनको उतारना होगा, वे समझें! होगी। जीवाणु तो मरेंगे ही। पानी पीयोगे, भोजन करोगे, हाथ मगर यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार आ रहा है कि इन सीढ़ियों से भी हिलाओ-डुलाओ, तो पूरा वायुमंडल सूक्ष्म-जीवाणुओं से अर्थी निकालना बड़ा मुश्किल है। छिपाना चाहता था | भरा है, वे मरते हैं। चलोगे, तो जीवाणु मरेंगे। हिंसा तो होगी। जो...सत्य के प्रगट होने के रास्ते हैं! झूठ को बचाओ, लेकिन तुम सावधानीपूर्वक बरतना। 173 2010_03 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 कहते हैं महावीर एक ही करवट सोते थे पूरी रात। रात करवट | कारण हुई। जीवन की अनिवार्यता के लिए वह जिम्मेवार नहीं भी न बदलते। नींद में भी सावधानी रखते। न्यूनतम। एक है। अपनी तरफ से उसने सब भांति अपने को रोक लिया है। करवट तो सोना ही पड़ेगा। इससे कम तो और किया नहीं जा और जो व्यक्ति विवेक से नहीं जी रहा है, होश से नहीं जी रहा सकता। हां, दो करवट बदलने से रोका जा सकता है। एक ही है, वह हिंसा न भी करे-पानी छानकर पीये, मांसाहार न करे, करवट, एक ही बाजू पर सोये रहेंगे, करवट न बदलेंगे रात में, रात भोजन न करे, सब तरह से अपने को सम्हालकर बैठा रहे, क्योंकि दूसरी तरफ कुछ कीटाणुओं के मर जाने की फिर लेकिन भीतर अगर हिंसा चलती जा रही है, भीतर अगर हिंसा के संभावना है शरीर के हिलने से। | विचार उठ रहे हैं, तरंगें उठ रही हैं, तो पाप हो गया। मारने से महावीर उतना ही करेंगे जितना जीवन के लिए एकदम | हिंसा नहीं लगती, मारने के भाव से हिंसा लगती है। अनिवार्य है। महावीर ने एकदम जीवन को वहां लाकर ठहरा | इसे तुम समझोगे तो गीता के कृष्ण और महावीर ठीक एक दिया जहां जरा भी अतिशय नहीं है। ठीक परिमार्जित। जगह खड़े हो जाते हैं। दोनों की प्रक्रिया बिलकुल अलग है, राम को लोग मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं। कहना महावीर को दोनों के साधन बिलकुल अलग हैं, लेकिन लक्ष्य बिलकुल साफ चाहिए। ऐसी मर्यादा में कोई आदमी नहीं जीया। उस मर्यादा का है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं तू परमात्मा के ऊपर सब छोड़ दे। तू महावीर का नाम है-समिति। समिति का अर्थ होता है, सीमा कर्ता न रह जा। तू भाव भी मत कर कि मैं मार रहा हूं, कि मैं नहीं बनाकर जीना। इतना पर्याप्त है, इससे फिर रत्तीभर ज्यादा नहीं। मार रहा हूं; परमात्मा पर छोड़ दे। फिर जो होता है, होने दे। 'इसका कारण है कि समिति का पालन करते हुए साधु से जो अगर तेरे भीतर भाव न रहा कि मैं मारता हूं, फिर कोई हिंसा आकस्मिक हिंसा हो जाती है वह केवल द्रव्य-हिंसा है. नहीं। महावीर कहते हैं जाग जा। क्योंकि महावीर की धारणा में भाव-हिंसा नहीं। भाव-हिंसा तो उनसे होती है जो असंयमी होते | परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं है। जो परमात्मा का स्थान है हैं। ये जिन जीवों को कभी मारते नहीं उनकी हिंसा का भी दोष | गीता में, वह महावीर की धारणा में ध्यान का स्थान है उन्हें लगता है। परमात्मा का ध्यान नहीं करना है; महावीर कहते हैं, ध्यान ही असंयमी को, अ-यतन में डूबे हुए मूर्छित व्यक्ति को, | परमात्मा है। जाग जा। फिर जागकर जो होता है, वह अनिवार्य जिनको वह नहीं मारता उनकी भी हिंसा का पाप लग जाता है। है। लेकिन तेरे भीतर भाव न रहे कि मैं हिंसा कर रहा हूं, कि मैं क्योंकि बहुत बार वह सोच लेता है। तुमने कई बार सोचा हिंसा करना चाहता हूं। अभिप्राय से दोष है। कृत्य का कोई दोष होगा-फलां आदमी को मार ही डालें। मारा नहीं है! कितनी नहीं है। बार तुमने नहीं सोच लिया कि आदमी मर ही जाए! तुमने मारने कभी-कभी तो ऐसा होता है, तुम किसी का नुकसान करने गये का भी नहीं सोचा; लेकिन मर ही जाए! दुश्मन की तो बात छोड़ थे...एक आदमी राह से चला जा रहा है, उसको वर्षों से सिरदर्द दो। कभी मां भी अपने बेटे से गुस्से में कह देती है कि तुम पैदा न है; तुमने एक पत्थर उठाकर उसको मार दिया, पत्थर उसके सिर ही हुए होते तो अच्छा था। जिसने पैदा किया है, जिसने जन्म पर ऐसी जगह लगा कि सिरदर्द चला गया। तुम चाहते थे सिर दिया है, वह भी क्रोध में सोचने लगती है कि यह तो न होता तो | तोड़ देना, फल इतना हुआ कि सिरदर्द चला गया। तुमने अच्छा अच्छा था। कोई मारता नहीं इतना, लेकिन योजना तो मन में किया या बुरा किया? हुआ तो अच्छा, किया था बुरा। पाप तो चलती है। उस योजना में ही हिंसा है। विध्वंस है। लगेगा। क्योंकि पाप अभिप्राय से लगता है, तुम्हारे भाव से तो संयमी, मर्यादा में जीनेवाला, समिति में जीनेवाला, | लगता है। इसको महावीर कहते हैं-भाव-हिंसा और यत्नपूर्वक जीनेवाला-अगर कभी उससे संयोगवशात, | द्रव्य-हिंसा...तुम किसी को मारना नही अनिवार्य कारणों से कुछ हिंसा हो भी जाती है, तो उसे कोई किसी का आपरेशन कर रहा है। सब तरह से बचाने को आतुर पापबंध नहीं। उसने करनी नहीं चाही थी। उसके भीतर कोई है, प्राणपण लगा दिये हैं, लेकिन आदमी मर जाता है। तो उसे भाव न था करने का। हुई तो वह जीवन की अनिवार्यता के हम मारे जाने का दोष नहीं देंगे। आदमी तो मरा, उसके 174 2010_03 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपरेशन में ही मरा, लेकिन फिर भी उसकी कोई भावदशा न थी। द्रव्य-हिंसा तो हुई, आदमी मरा, लेकिन कोई अभिप्राय न था। इसलिए पाप का कोई कारण नहीं है। ‘किसी प्राणी का घात हो जाने पर जैसे संयत या असंयत | व्यक्ति को द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की हिंसा का दोष लगता है, वैसे ही चित्तशुद्धि से युक्त, समितिपरायण साधु द्वारा मनःपूर्वक किसी का घात न होने के कारण उसके द्रव्य तथा भाव, दोनों प्रकारों की अहिंसा होती है।' 'यत्नाचार धर्म की जननी है । यत्नाचारिता ही धर्म की पालनहार है। यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है । यत्नाचारिता एकांत सुखावह है।' जया उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव । यत्नपूर्वक जीना धर्म की जन्मदात्री है। यत्नपूर्वक जीना धर्म की पालनकर्ता है, धारणकर्ता है । यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है । यत्नपूर्वक – राह चलते, उठते-बैठते सब तरफ होश रखना, | तुम्हारे कारण किसी को दुख न पहुंचे। फिर भी किसी को दुख पहुंचे, वह उसका अपना भीतरी कारण होगा, तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं। दुखतो महावीर के कारण तक लोगों को पहुंच जाता है। वह तो नग्न खड़े हैं। किसी को दुख हो जाता है कि यह आदमी नंगा क्यों खड़ा है? यह जिम्मेवारी उस आदमी की है। महावीर उसके लिए नग्न नहीं खड़े हैं। यह उसकी ही भावदशा है। एक मित्र ने प्रश्न किया है कि वह यहां संन्यास लेने आये थे। लेकिन उनका भरोसा, विश्वास 'स्वामी नारायण संप्रदाय' में है। तो उन्होंने पूछा है कि 'स्वामी नारायण संप्रदाय' में संन्यास लूं या यहां ? क्योंकि वहां तो ब्रह्मचर्य पर बड़ा जोर है, सख्ती है। और यहां ऐसा लगता है कि आपका ब्रह्मचर्य पर कोई जोर नहीं है । और आपके संन्यासी शिथिल मालूम होते हैं । उनको | दुविधा पैदा हुई है। पूछा है कि बड़े द्वंद्व में पड़ गया हूं । द्वंद्व में पड़ने की कोई जरूरत नहीं । तुम संन्यास लेना भी चाहो, तो मैं न दूंगा । इसलिए द्वंद्व छोड़ो। तुम रुग्ण । दूसरे संन्यासी क्या कर रहे हैं, इससे तुम्हारा प्रयोजन ही नहीं है। कौन शिथिल है, कौन शिथिल नहीं है, तुमसे किसी ने पूछा नहीं है। तुम अपने लिए ही निर्णय लो। जिनने पूछा है, इस व्यक्ति ने निश्चित 'स्वामी नारायण संप्रदाय' के प्रभाव में कामवासना का दमन 2010_03 प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा किया होगा । दबाया होगा जबर्दस्ती । जो व्यक्ति कामवासना को दबा लेता है, उसे सब तरफ कामवासना दिखायी पड़ने लगती है । जिस व्यक्ति ने कामवासना को दबाया नहीं, समझा है, उसे फिर कहीं कामवासना नहीं दिखायी पड़ती। जिसे तुमने दबाया, वही तुम्हारी आंख से उभर उभरकर तुम्हें सब जगह दिखायी पड़ेगी। दमन मुक्ति नहीं है। दमन बड़ा गहरा बंधन है। अब सोचो, अगर यह 'स्वामी नारायण संप्रदाय' को माननेवाले सज्जन महावीर को मिल जाएं, तो यह तो घबड़ा ही जाएंगे कि यह आदमी नग्न खड़ा है! यह तो बड़ी अनैतिक बात है, बड़ी अश्लील बात है। अशोभन है। अशिष्ट है। ऐसा ही हुआ था। महावीर को गांवों से खदेड़ा गया, मारा गया। क्योंकि उनका नग्न होना दूसरों को पीड़ादायी हो गया। महावीर किसी को पीड़ा नहीं देना चाहते। वह वस्तुतः नग्न इसलिए हुए कि वे नैसर्गिक होना चाहते हैं । स्वाभाविक होना चाहते हैं। नग्न आदमी पैदा हुआ है, नग्न विदा होगा, तो बीच में वस्त्र ढांकने का क्या प्रयोजन! इसलिए महावीर नग्न हुए । महावीर की नग्नता वैसी निर्दोष है, जैसे छोटे बालक की। लेकिन देखनेवालों को जो वही दिखायी पड़ा तो उनकी आंखों में भरा था। उन्होंने तो देखा कि यह बात कुछ गड़बड़ है। यह आदमी तो समाज को तुड़वा देगा । शिथिल करवा देगा। जिस व्यक्ति के आधार पर समाज सदा के लिए सुदृढ़ स्तंभ रख सकता था, वह अनैतिक मालूम पड़ा लोगों को। उसे हटाया लोगों ने अपने गांवों से । खयाल रखो, जो तुम्हारे भीतर है, वही दिखायी पड़ता है। यह भी हो सकता है तुम किसी को दुख न देना चाहो, लेकिन फिर भी किसी को दुख पहुंच जाए। पर यह उसकी बात है। यह वह जाने। यह उसकी समस्या है। तुम अपने भीतर किसी को दुख देने का भाव न रखना। तुम अपने भीतर किसी के विध्वंस की आकांक्षा न करना । तुम किसी के विनाश का बीज अपने भीत मत बोना । तुम निखालिस, तुम पवित्र रहना । तुम प्रेमपूर्ण रहना। और तुम यत्नपूर्वक जीना। और एक-एक कदम रखना होगा । पहले तो भाव में बदलाहट करनी होगी। तभी बाहर बदलाहट होगी। जमी सख्त है, आसमां दूर है बसर हो सके तो बस कीजिए 175 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 2 कफस तोड़ना बाद की बात है सूत्र हैअभी ख्वाहिसे-बालो-पर कीजिए। जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। पिंजड़े में बंद हैं हम। अभी पिंजड़े को तोड़ना तो बहुत मुश्किल | जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।। है। अभी तो पहले पंख पैदा हो जाएं, इसकी आकांक्षा कीजिए। विवेक से। 'विवेकपूर्वक चलने से, विवेकपूर्वक रहने से, जमीं सख्त है, आसमां दूर है विवेकपूर्वक बैठने से, विवेकपूर्वक सोने से, विवेकपूर्वक खाने बसर हो सके तो बसर कीजिए और विवेकपूर्वक बोलने से साधु को पापकर्म का बंध नहीं कफस तोड़ना बाद की बात है होता।' जो करो उसे विवेकपूर्वक करना। जो करो, एक शर्त अभी ख्वाहिसे-बालो-पर कीजिए जरूर पूरी करना कि वह विवेकपूर्वक हो, होशपूर्वक हो। निद्रा, अभी तो मेरे पंख पैदा हो जाएं, इसकी आकांक्षा, इस दिशा में मूर्छा में न हो। बेहोशी में न हो। क्या परिणाम होता है इसका? प्रयास। अभी तो पैर मजबूत हो जाएं, इस दिशा में प्रयत्न। फिर यह जीवन के शास्त्र की बड़ी गहरी बात है। जीवन-शास्त्र का यात्रा है। मंजिल दूर की है। बल चाहिए। भाव चाहिए। अदम्य बड़ा प्रगट लेकिन फिर भी बहुत गुप्त रहस्य है। जो तुम विवेक आशा चाहिए। से कर सको, वही पुण्य है। और जो विवेक के कारण न कर महावीर कहते हैं, 'यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है। सको, वही पाप है। यत्नाचारिता एकांत सुखावह है।' जितना यत्न होगा, उतना जैसे मैं कहता हूं, क्रोध करते हो तो मैं नहीं कहता क्रोध मत सुख होगा। क्योंकि जितना हम दूसरे को दुख देना चाहते हैं, करो; मैं कहता हूं विवेकपूर्वक करो। क्रोध आये, जाग जाओ। उतना ही अपने दुख के बीज बोते हैं। जो हम काटते हैं वह हमारा झकझोर दो अपने को। जैसे सुबह नींद से उठते हो, अंगड़ाई लेते ही बोया हुआ है। जो हम बोते हैं, वह हमीं काटेंगे। जो गड्ढे हम हो, ऐसे भीतर चैतन्य की अंगड़ाई लो। झकझोर दो अपने को। दूसरों के लिए खोदते हैं, उनमें हम ही गिरेंगे। इसलिए किसी के | जागो! जानो कि क्रोध हो रहा है। करो जानकर। और तुम लिए दुख के बीज मत बोना। अगर तुम दुखी हो, तो इसका चकित हो जाओगे, तुम क्रोध न कर पाओगे। अगर प्रेम फैल इतना ही अर्थ है कि अब तक तुमने दुख के बीज दूसरों के लिए रहा हो और तुम जाग जाओ, तो तुम हैरान होओगे, जागने के बोये। यह जगत एक प्रतिबिंब है। तुम जैसे होते हो वैसी ही कारण प्रेम करोड़ गुना होकर फैलेगा। क्रोध तत्क्षण जलकर गिर तस्वीर तुम्हें दिखायी पड़ती है। यह जगत एक प्रतिध्वनि है। तुम जाएगा। प्रेम फैलेगा। अगर तुम किसी को मिटाने चले थे, तो गीत गुनगुनाओ, तो गीत लौट आता है। तुम गाली दो, तो गाली | जागने के कारण पैर वहीं ठिठक जाएंगे। और अगर किसी को ही तुम पर हजार गुना होकर बरस जाती है। उठाने चले थे, तो जागने के कारण तुम दौड़ पड़ोगे। जो जागने से आदमी ने वक्त को ललकारा है हो सके, वही पुण्य है। और जो जागने से न हो सके, वही पाप आदमी ने मौत को भी मारा है है। पाप और पुण्य की इससे ज्यादा गहरी कोई परिभाषा कभी जीते हैं आदमी ने सारे लोक नहीं की गयी है। आदमी खद से मगर हारा है महावीर कहते हैं, पाप वही है, जो सोये-सोये होता है, वहीं एक हार है। अपने पर बस नहीं हमारा। अपने पर जागकर नहीं होता। पुण्य वही है, जो सोये-सोये कभी नहीं समिति, संयम नहीं हमारा। अपने हम मालिक नहीं। महावीर ने होता, केवल जागकर ही होता है। इसलिए एक ही बात पकड़ इस पर इतना जोर दिया, स्वयं की मालकियत पर, कि उनका पूरा | लेने जैसी है, और वह है जागरण। ध्यानपूर्वक जीना। जो जाग धर्म जिन-धर्म कहलाया। जिन का अर्थ होता है. जीता जिसने। गया. उसका संबंध परम सत्य से जड जाता है। जैन-घर में पैदा होने से मत समझ लेना कि जैन हो गये। जब ऐ शौके-नजारा क्या कहिए, तक जिन न हो जाओ, तब तक जैन कैसे होओगे? जब तक | नजरों में कोई सूरत ही नहीं | जीत न लो अपने को...और जीत कैसे आयेगी, उसका परम ऐ जौके-तसव्वुर क्या कीजे, 2010_03 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा हम सूरते-जानां भूल गये छोर नापते थके न पल छिन, अब गल से नजर मिलती ही नहीं ये कैसे अभ्यास बन गये अब दिल की कली खिलती ही नहीं तम मेरे आकाश बन गये। जैसे ही कोई जागता है, गुल से नजर मिलने लगती है। दिल | दिवस, मास या वर्ष गिनूं क्या, की कली खिलने लगती है। सोये-सोये हमारी हालत ऐसी है- सारा जीवन एक तपस्या ऐ शौके-नजारा क्या कहिए, सांसों के जितने शिशु जन्मे, नजरों में कोई सूरत ही नहीं सभी तुम्हारे दास बन गये सोये आदमी की दृष्टि में सत्य का दर्शन कैसे! परमात्मा का तुम मेरे आकाश बन गये। दर्शन कैसे! प्रिय दिखायी कैसे पड़े नींद-भरी आंखों में ! वहां तो | विवेक तुम्हारा आकाश बन जाए, वही-वही एकमात्र तुम्हारा सिर्फ सपने दिखायी पड़ सकते हैं। सत्य दिखायी नहीं पड़ लक्ष्य बन जाए, तो तुम्हारा पूरा जीवन तपस्या हो गयी। सकता। दिवस मास या वर्ष गिनूं क्या, ऐशौके-नजारा क्या कहिए, सारा जीवन एक तपस्या नजरों में कोई सूरत ही नहीं महावीर तुम्हें एक खंड को सुंदर बनाने को नहीं कहते। वे यह ऐ जौके-तसव्वुर क्या कीजे, नहीं कहते कि एक घड़ी को धार्मिक बना लो और तेईस घड़ी जीए हम सूरते-जानां भूल गये जाओ संसार में। वह कहते हैं, कुछ ऐसा करो, कुछ ऐसे जीओ अब याद भी करें उस परम की, प्रभु की, तो कैसे करें, हम तो कि चौबीस घंटा एक ही धागे में पिरो जाए। उसकी सूरत भी भूल चुके! तो अगर पूजा करो, तो चौबीस घंटे तो नहीं कर सकते। कम हम सूरते-जानां भूल गये से कम भोजन के लिए छुट्टी लेनी पड़ेगी। मंदिर में बैठो, तो उस प्रीतम की सूरत भी याद नहीं, याद क्या करें? स्मरण कैसे | चौबीस घंटे तो नहीं बैठ सकते। रात सोना तो पड़ेगा। स्नान | करने के लिए तो उठना पड़ेगा। माला फेरो तो चौबीस घंटे तो अब गुल से नजर मिलती ही नहीं नहीं फेर सकते। जीवन पंगु हो जाएगा। लेकिन महावीर कहते अब दिल की कली खिलती ही नहीं हैं, विवेक कुछ ऐसी बात है कि चौबीस घंटे साध सकते हो, कोई जैसे ही कोई विवेक को उपलब्ध हआ, मिलने लगती है गल | बाधा न पड़ेगी। स्नान करो, तो भी-जागे। बैठो, उठो, भोजन से नजर, खिलने लगती है दिल की कली। करो, बात करो, सुनो—जागे। दुकान जाओ, मंदिर जाओ, यह विवेक का बल एकमात्र बल है, जो तुम्हें तीर्थ तक पहुंचा बजार जाओ, घर आओ—जागे। भीड़ में, अकेले में-जागे। देगा। यह विवेक के पंख ही तुम्हें खुले आकाश में उड़ा सकेंगे। और महावीर कहते हैं, अगर तुम्हारा सारा कृत्य जागरण से जुड़ यह विवेक के पैर ही तुम्हें उस परम यात्रा तक पहुंचा सकेंगे। जाए, तो तुम एक दिन अचानक पाओगे कि रात तुम सोते हो अगर महावीर के सारे शास्त्र को दो शब्दों में रखा जा सके, तो वे | और जागे। इसको कृष्ण ने कहा है, 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां होंगे, 'विवेक' और 'अहिंसा'। अहिंसा है गंतव्य। विवेक है | जागर्ति संयमी।' जब सब सो जाते हैं, तब भी संयमी जागता है, उस तरफ गति। अहिंसा है साध्य, विवेक है साधन। अहिंसा है | इससे तुम ऐसा मतलब मत लेना कि संयमी बैठा रहता है बिस्तर मंजिल, विवेक है मार्ग। पर। पागल हो जाएगा! शरीर को तो नींद जरूरी है। लेकिन मन पंछी इस तरह उड़ा कुछ, भीतर का दीया जलता रहता है। रात के गहनतम अंधेरे में भी, तुम मेरे आकाश बन गये। शरीर जब सो जाता है, तब भी आत्मा जागी रहती है 'तस्यां पंखों की बिसात ही कितनी, जागर्ति संयमी।' भरी उड़ानें फिर भी इतनी, लेकिन इस जागरण को पहले जागी अवस्था में साधो। करें? 177 ___ 2010_03 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 जिन सूत्र भाग: 2 धीरे-धीरे यह तुम्हारी नींद में भी उतर जाएगा। यह चौबीस घंटे पर फैल जाएगा। और जो धर्म चौबीस घंटे पर फैल जाए, वही तुम्हें मुक्त कर पायेगा । अन्यथा, घंटेभर धर्म को साधोगे, तेईस घंटे अधर्म को साधोगे, मुक्ति होगी कैसे? घंटेभर में जो बनाओगे, तेईस घंटे में तेईस गुना मिटा दोगे । फिर दूसरे दिन घंटे भर में बनाओगे, फिर तेईस घंटे में मिटा दोगे 1 और कुछ राज ऐसा है कि अगर धागे को पिंडली में लपेटना हो, तो घंटों लगते हैं, और धागे को पिंडली से अलग निकालना हो तो क्षणभर में खुल जाता है। मकान बनाने में वर्षों लगते हैं, गिराना हो तो दिनभर में गिर जाता है। मिटाना बड़ा जल्दी हो जाता है। और मिटाने के लिए तेईस घंटे हैं। और बनाना बड़ा मुश्किल है और बनाने के लिए घंटाभर है। तुम जीत न पाओगे। इससे कभी जीत संभव नहीं है। जीत का यही सूत्र 'जयं चरे जयं चिट्ठे' - जागकर चलो, जागकर रहो । 'जयमासे जयं सए' – जागकर बैठो, जागकर सोओ। 'जयं भुंजतो भासतो' - जागकर बोलो। 'पावं कम्मं न बंधइ' – फिर कोई पाप तुम्हारे लिए नहीं है। फिर पाप का कोई बंधन नहीं है। है 2010_03 आज इतना ही। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internati 03 For www. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रवचन दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार प्रवचन में आप द्वारा एक हाथ से तो हम पर करारी चोट और दूसरे हाथ से सुगंध व फूल लुटाना। दोनों से एक-साथ गुजरने में आपको कठिनाई नहीं होती ? समता व आनंद के दीये का अधिक समय तक स्थिर रहने के बावजूद भी कभी-कभी टिमटिमाने लगना । निर्माण की भूमिका अथवा किसी शिथिलता का परिणाम ? अकंप सम्यकत्व व आनंद हेतु भगवान से मार्ग प्रकाशन की मांग। - 2010_03 हर प्रातः भगवान को देखने व सुनने के लिए आना, पर दोनों रस एक-साथ न ले पाना । सुनने में आंख का बंद होना, देखने पर सुनने का कम होना । कैसे दोनों का साथ-साथ आस्वादन हो ? समर्पण व अंधानुकरण में अंतर क्या ? सिद्ध होकर आपको क्या मिला ? क्या ईश्वर निश्चयपूर्वक है ? Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ग हला प्रश्न : प्रवचन में आप एक हाथ से हम पर सम्हालो ही, ताकि तुम्हारे सामने मेरी स्थिति साफ-साफ हो न करारी चोट करते हैं और दूसरे हाथ से फूल और जाए। मैं दोनों करता हूं तो तुम्हारे सामने मेरी स्थिति साफ नहीं सुगंध बांटते हैं। बांटते क्या हैं, लुटाते हैं! क्या होती। तुम मुझे छोड़कर भी नहीं भाग सकते, क्योंकि सहारा भी आपको इन दोनों से एक-साथ गुजरने में कठिनाई नहीं होती? | देता हूं। तुम मेरे साथ पूरे खड़े भी नहीं हो पाते, क्योंकि चोट भी करता हूं। तुम्हारे मन में मेरे प्रति स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती, दोनों में विरोध नहीं है, दोनों में सहयोग है। दोनों एक-दूसरे के रहस्य बना रहता है। विपरीत नहीं हैं, एक-दूसरे के परिपूरक हैं। कुम्हार को देखा | अगर मैं सहारा ही दूं तो तुम मेरे साथ हो जाओ। लेकिन वह है? एक हाथ से सम्हालता है और दूसरे हाथ से थपकी देता है। साथ होना किस काम का! तुम मुर्दे की तरह साथ हो जाओगे। एक हाथ से मिट्टी को सम्हालता है, गिर न जाए, भीतर से तुम्हें मैंने चुनौती न दी। तुम अनगढ़ पत्थर रह जाओगे, मूर्ति न सम्हालता है, बाहर से चोट देता है। भीतर से न सम्हाले तो बनोगे। क्योंकि मूर्ति बनाने के लिए तो छेनी उठानी ही पड़ेगी। मिट्टी की देह निर्मित न हो पायेगी, गिर जाएगी। बाहर से चोट न तुम्हें काटना ही होगा। और अगर मैं सिर्फ चोट ही करूं, तो तुम्हें दे, तो भी न सम्हल पायेगी, तो भी घड़ा बन न पायेगा। भागने में सुविधा हो जाए। चोट खाने को कौन बैठा रहता है? | - जो कुम्हार कर रहा है, वही मैं भी कर रहा हूं। वह मिट्टी के तुम या तो भाग जाओ या तुम सुनो ही न, या सुनते हुए भी तुम साथ कर रहा है, मैं आत्मा के साथ कर रहा हूं। सहारे की भी बहरे बने रहो। लेकिन संबंध टूट जाए। जरूरत है, चोट अकेली काफी नहीं। अकेला सहारा भी काफी मैने तुम्हें दुविधा में डाला। न तुम छोड़कर भाग सकते हो, नहीं, चोट की भी जरूरत है। सहारे देनेवाले तुम्हें बहुत मिल क्योंकि एक हाथ से मैं तुम्हें बुला भी रहा हूं; और तुम मेरे पास जाएंगे, लेकिन वे चोट नहीं करते। कुछ चोट करनेवाले भी हैं, आने में भी डरते हो, क्योंकि मैं चोट भी कर रहा हूं। लेकिन यही लेकिन वे सहारा नहीं देते। दोनों ही हालत में तुम्हारी आत्मा का एकमात्र उपाय है तुम्हें निर्मित करने का। बस, तुम कुम्हार को पात्र निर्मित न हो पायेगा। | जाकर देख आना-घड़ा बनाते कुम्हार को-तुम्हें मेरी बात मेहर बाबा सहारा देते हैं, चोट नहीं करते। कृष्णमूर्ति चोट समझ में आ जाएगी। कुम्हार के लिए विरोध नहीं है। शायद करते हैं, सहारा नहीं देते। ये अधूरे उपाय हैं। घड़े को अड़चन भी होती हो कि क्या कर रहे हो, उल्टी बातें मैं दोनों को एक-साथ सम्हाल रहा हूं। मुझे अड़चन नहीं है एक-साथ कर रहे हो? सहारा देते हो तो सहारा दो, चोट करते सम्हालने में, क्योंकि मेरे लिए दोनों परिपूरक हैं। अड़चन तुम्हें | हो तो चोट करो, यह तुम क्या कर रहे हो? बड़ी विसंगति है, | होगी। वह मैं जानता हूँ। तुम चाहते हो या तो चोट ही करो, या बड़ा विरोध है। 183 2010_03 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 2 मेरी बातें तुम्हें विसंगतिपूर्ण मालूम पड़ेंगी। आज कुछ कहता अंकुरित होता है। कच्चा बीज तो अंकुरित नहीं होता। चोट न हूं, कल कुछ कहता हूं। क्योंकि जब सहारा देना होता है, तब खायी, पकोगे नहीं; कच्चे रह जाओगे। जिनके जीवन में चोटें तुम्हें पुचकार लेता हूं; जब चोट करनी होती है, तब फिर नहीं पड़तीं, वे सदा कच्चे रह जाते हैं। धन्यभागी हैं वे जिन्हें निर्ममता से चोट भी करता हूं। तुम तय नहीं कर पाते कि जिसके | जीवन बहुत चोट देता है। अभागे हैं वे जिन्हें जीवन सिर्फ सहारा पास आये हो वह मित्र है, या शत्रु है ? जिसके साथ चल पड़े देता है, चोट नहीं देता। वे नपुंसक रह जाते हैं। इसीलिए तो हो, वह पहुंचायेगा या भटकायेगा? तुम साफ नहीं कर पाते। बहुत सुविधा में, संपन्नता में पले हुए लोगों में प्रतिभा नहीं होती। तुम्हारी दुविधा साफ है। मुझे कोई दुविधा नहीं है। मैं जो कर रहा प्रतिभा के लिए थोड़ी चोट चाहिए। जीवन का तप, जीवन का हूं बिलकुल स्पष्ट है, संगतिपूर्ण है। | ताप चाहिए। तूफान और आग चाहिए। और अगर तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाए, तो तुम्हारे लिए भी | मैंने सुना है, एक किसान ने बड़े दिन तक परमात्मा से पूजा संगति का दर्शन हो जाएगा। उस दर्शन से बड़ा लाभ होगा। की, प्रार्थना की। परमात्मा ने दर्शन दिये, तो उसके सामने कहा फिर तुम चोट में भी छिपे सहारे को देखोगे। सहारे में भी छिपी कि बस, मुझे एक ही बात तुमसे कहनी है। तुम्हें किसानी नहीं चोट को देखोगे। अकेली करुणा से न होगा। करुणा को कठोर आती। बेवक्त बादल भेज देते हो। जब बादल की जरूरत होती होना होगा, तो ही काम हो सकेगा। तुम्हें बनाना भी है, बहुत है, हम तड़फते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं, तब बादलों का कोई कुछ तुम में मिटाना भी है। तुम एक जीर्ण-जर्जर भवन की तरह पता नहीं! कभी ऐसी वर्षा कर देते हो कि बाढ़ आ जाती है, कभी हो। एक खंडहर! पहले तुम्हें मिटाना भी है, फिर नये भवन की ऐसा खाली छोड़ देते हो कि पानी को तरस जाते हैं। फसल खड़ी नींव भी रखनी है। तुम जैसे हो ऐसे ही परमात्मा के योग्य नहीं होती है-तूफान, आंधी, ओले! तुम्हें कुछ पता है? खेती हो। तुम परमात्मा के योग्य हो सकते हो। लेकिन उसके पहले तुमने कभी की नहीं। तो कम से कम खेती के संबंध में तुम मेरी बड़ी अग्नियों से गुजरना होगा। संभावना है तुम्हारी परमात्मा, | सलाह मानो। परमात्मा हंसा उस भोले किसान पर। उसने कहा, सत्य नहीं। तुम बीज हो अभी। टूटोगे, तोड़े जाओगे, मिट्टी में ठीक! तो तू क्या चाहता है ? एक साल तेरी मर्जी से होगा। गिरोगे, बिखरोगे, तो ही किसी दिन फूल खिल पायेगा। किसान ने कहा, तब ठीक है। पुष्ट बीज, एक साल किसान ने मर्जी से जो चाहा, जिस दिन चाहा, वैसा सुष्ट खेत, हुआ। जब उसने पानी मांगा, पानी गिरा। जब उसने धूप मांगी, साथी संगी समेत, तब धूप आयी। गेहूं की बालें इतनी बड़ी कभी भी न हुई थीं। सुसमय बोइये, आदमी ढंक जाए, खो जाए, इतनी बड़ी गेहूं की बालें हुईं। उसने सींचिए सुसाध से, कहा, अब देख! सोचा मन में, अब दिखाऊंगा परमात्मा को। रात दिन बालें तो बहुत बड़ी हुई, लेकिन जब फसल काटी, तो बालों के बात बिन भीतर गेहूं बिलकुल न थे, पोच थे। बहुत परेशान हुआ। खेत को रखाइये। परमात्मा से कहा, यह क्या हुआ? क्योंकि मैंने इतनी सुविधा काल थक जाए जब, दी। जब पानी की जरूरत थी, तब पानी; जब धूप की जरूरत धान पक जाए जब, थी, तब धूप। आंधी, तूफान, ओले इत्यादि तो मैंने काट ही होकर इकडे फिर, दिये। कोई तकलीफ तो दी ही नहीं। लेकिन बीज आये ही नहीं! काटिये कटाइये। हुआ क्या है? पुष्ट बीज-पहले तो बीज को पुष्ट होना पड़ता, पकना | परमात्मा ने कहा, पागल! सिर्फ सुविधा से कहीं कोई चीज पड़ता। कच्चे बीज को बोने से कुछ सार न होगा। धूप में, | बनी है, निर्मित हुई है? सुविधा के साथ साधना भी चाहिए। तूने सूर्य-आतप में, तप में बीज को पकना होता है। पका बीज ही सुविधा तो दे दी, लेकिन साधना का कोई अवसर न दिया। तूने 184 2010_03 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव सम्हाला तो, लेकिन चोटें-चपेटें न दीं। आंधी भी चाहिए, ओले जाता है। भीड़ में रहनेवाले आदमी की आत्मा खो जाती है। भी चाहिए, तूफान भी चाहिए; सहारा भी चाहिए। इन दोनों के दोनों के बीच में। अकेले रहना है, भीड़ में रहना है। और भीड़ में बीच में गेहूं पैदा होता, पकता। बल पैदा होता है चुनौती से। रहना है और अकेले रहना है। घूमो, चलो बाजार में, लेकिन पुष्ट बीज भीतर हिमालय का एकांत बना रहे। तो पहली तो बात है कि बीज पुष्ट हो। संबंधों से भागो मत। क्योंकि संबंधों के थपेड़े जरूरी हैं। सुष्ट खेत क्रोध, संघर्ष, चोट, चुनौती जरूरी हैं। भीतर ध्यान को साधो, फिर खेत तैयार हो। ऐसे हर कहीं बीज फेंक देने से कहीं | बाहर प्रेम के धागे को पकड़े रहो। फसल नहीं काटी जाती। पत्थर, कूड़ा-कर्कट, घास-पात अलग | पुष्ट बीज करना होगा। खाद खेत में डालनी होगी। श्रम करना होगा। सुष्ट खेत पुष्ट बीज साथी-संगी समेत सुष्ट खेत सुसमय बोइये साथी-संगी समेत ठीक समय पर बोना पड़ेगा। चाहे ठीक समय आधी रात अकेले भी न हो पायेगा। जीवन में कुछ भी तो अकेले नहीं हो आये। चाहे ठीक समय भर-दोपहरी में आये। ठीक समय जो पाता। जीवन है ही संग-साथ में। हम समाज में पैदा होते, भी मांगे, देना होगा। ठीक समय की प्रतीक्षा करनी होगी, सजग समाज में जीते, समाज में विदा होते। हमारा होना सामाजिक है। प्रहरी की तरह, आंखें खोले। झपकी न लेनी होगी। क्योंकि संबंधों में है। जैसे मछली सागर में जन्मती है, ऐसे हम संबंधों के ठीक समय पर पड़े बीज ही ठीक समय पर फूलेंगे, फलेंगे। सागर में जन्मते हैं। बिना मां के, बिना पिता के कौन पैदा जरा-सा समय चूक गये, तो जो जरा-सा समय चूक गया, वह होगा? कैसे पैदा होगा? बिना भाई-बहन के, बिना मित्र-शत्रु सदा के लिए बाधा बन जाता है। फिर उसे पूरा करने का कोई के कौन बढ़ेगा, कैसे बढ़ेगा? उपाय नहीं। पुष्ट बीज पुष्ट बीज, सुष्ट खेत सुष्ट खेत, साथी संगी समेत साथी संगी समेत, इसलिए मेरा बहुत जोर है कि तुम ध्यान भी साधो और प्रेम भी | सुसमय बोइये, साधो। ध्यान का अर्थ है, तुम अकेला होना साधो। और प्रेम का | सींचिए सुसाध से, अर्थ है, तुम संबंधों में भी माधुर्य को निर्मित करो। ऐसा न हो कि | रात दिन तुम अकेले-अकेले रह जाओ। तो तुम सूख जाओगे। कुछ बड़ा बात बिन बहुमूल्य तुम्हारे भीतर मर जाएगा। जंगल में भाग गये संन्यासी | खेत को रखाइये। का कुछ बहुमूल्य मर जाता है। भीड़ में ही रहनेवाले आदमी का काल थक जाए जब, भी कुछ बहुमूल्य मर जाता है। दोनों अधूरे हैं। भीड़ में रहनेवाले धान पक जाए जब, आदमी को अपने घर का पता खो जाता है। वह अपने | होकर इकडे फिर, मन-मंदिर तक लौट ही नहीं पाता। भीड़ में ही भटक जाता है। काटिये कटाइये। याद ही नहीं रहती कि मैं कौन हूं? अकेला जो चला गया, उसे जीवन ऐसा ही है। सभी कुछ सुविधा से मिलता होता, तो अपनी तो याद आने लगती है, लेकिन दूसरे का स्मरण भूल जाता सभी को मिल गया होता। सुविधा काफी नहीं है। साधना भी है। और दूसरे के स्मरण के बिना अहंकार खूब मजबूत हो जाता जरूरी है। और अगर अकेली साधना से ही मिलता होता, तो भी है। एकांत में रहनेवाले व्यक्ति का अहंकार खूब बलशाली हो बहुत अड़चन न थी। साधना के भीतर सुविधा भी आवश्यक 185 2010_03 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 जिन सूत्र भाग: 2 है । साधना, सुविधा में विरोध दिखायी पड़ता है। लेकिन उन्हीं को, जिन्होंने जीवन के गणित को समझा नहीं । दिनभर तुम श्रम करते हो, रात सो जाते हो, विरोध का खयाल नहीं किया? तुम यह नहीं कहते कि कल भी मुझे काम करना है, रात सो जाऊंगा, शिथिलता आ जाएगी। जागा रहूं रातभर । क्योंकि कल भी तो जागना है। तो जागने का अभ्यास जारी रखूं। अगर तुम रातभर जागे, तो कल सोओगे फिर । जाग न सकोगे। जीवन का गणित यही है कि विपरीत से मिलकर बना है जीवन । दिनभर जागे हो, रातभर सो जाओ। रातभर ठीक से सोये, तो सुबह कल फिर ठीक से जाग सकोगे। अगर श्रम किया है, तो विश्राम कर लो । श्रम ही श्रम करते रहे, तो भी पागल हो जाओगे। विश्राम ही विश्राम करते रहे, तो जीवन की सारी संपदा खो जाएगी । श्रम और विश्राम का संतुलन है जीवन। दोनों को एक-साथ साधना है। कुछ लोग सुविधा को साधते हैं, इनको ही हम सांसारिक कहते लोग साधना को साधते हैं, इन्हीं को हम संन्यासी कहते हैं। | कुछ रहे हैं। मेरे संन्यासी को मेरा आदेश बड़ा भिन्न है। मैं कहता हूं, सुविधा में साधना को साधना | साधना और सुविधा को तोड़ना मत, जोड़ना । जब साधना से थक जाओ, सुविधा में डूब जाना । सुविधा से थक जाओ, तैयार जाओ, विश्राम पा लो, फिर साधना में लग जाना। जीवन विपरीत को विपरीत की तरह नहीं देखता। वहां विपरीत परिपूरक है। दूसरा प्रश्न : भीतर समता का, आनंद का दीया अधिक समय स्थिर रहने पर भी कभी टिमटिमाने लगता है। क्या यह मेरे निर्माण की भूमिका है, अथवा मेरी किसी शिथिलता का परिणाम ? यह ठीकपन या सम्यकत्व का आनंद सदा अकंपित रहे, इसके लिए अपने अनुभव से मेरा मार्ग प्रकाशित करने की कृपा करें। एक क्षण से ज्यादा का विचार ही मत करो। उसी के कारण दीया टिमटिमाने लगता है। एक क्षण से ज्यादा तुम्हारे हाथ में नहीं है। सदा अकंपित रहे, यह आकांक्षा ही क्यों करते हो ? सदा स्थिर रहे, यह वासना ही क्यों करते हो? कल की बात ही क्यों उठाते हो ? आज काफी है। अभी, यही क्षण काफी है। एक क्षण से ज्यादा तो एक बार तुम्हें मिलता नहीं। एक-साथ दो क्षण तो कभी मिलते नहीं। 2010_03 एक क्षण भी अगर समता का दीया ठहरा रहता है, फिकिर छोड़ो। इसी क्षण को जी लो पूरा, भरपूर । निचोड़ लो पूरा सार, रस! यह जो क्षण का अंगूर है, बना लो इसकी सुरा । यही क्षण काफी है। जैसे ही तुमने सोचा, यह जो आनंद अभी मिल रहा है, सदा रहेगा ? तुम्हीं ने हवा के कंप पैदा कर दिये । दीया नहीं कंप रहा है; तुम्हारे मन ने ही दीये को कंपा दिया। आनंद नहीं कंप रहा है, तुम भविष्य को बीच में ले आये। तुमने कल की चिंता बीच में डाल दी। कल है कहां ? और कल जब आयेगा तब आज की तरह आयेगा। तुम आज को सम्हाल लो। जिसने आज को सम्हालना जान लिया, उसने शाश्वत को सम्हाल लिया। लेकिन हमारी अड़चन क्या है? जो हमारे सामने होता है, अगर कभी आनंद आता है, तो हम घबड़ाते हैं कि छूट तो न जाएगा ? अभी आया है इसे भोगते नहीं, चिंता करते हैं कि कहीं छूट तो नहीं जाएगा ? आनंद छूट ही गया। यह मौका चूक ही गया। तुमने सोचा कि छूट तो नहीं जाएगा, कि गया । छूट ही गया । तुम टूट गये, अभी। दीया कंप गया। आनंद आये, तो भोगो। कल को क्यों उठाते हो ? कल लेना-देना क्या है ? जहां से आज आया है, वहीं से कल भी आता रहेगा। फिर कल जब आयेगा, तब देख लेंगे। अभी तो यह अवसर मिला है, इसे भोग लें। अभी तो यह क्षण मिला है, इसे ना लें। अभी तो यह गीत की कड़ी उतरी है, गुनगुना लें । अभी तो पैर थिरकें, मृदंग बजे। इस क्षण तो जो मिला है, इसमें से रत्तीभर भी न चूके, इसकी चिंता लो। क्योंकि क्षण भागा जा रहा है। हाथ से फिसलता जाता है। निकलता जाता है। तुमने अगर जरा - ही इधर-उधर देखा कि चूके । दायें-बायें देखा कि गये ! इतनी देर कहां है? तुमने पूछा कि यह क्षण चला तो नहीं जाएगा - यह जा चुका! यह गया ! तुम्हारे हाथ में नहीं है अब । इतना भी अवकाश कहां है कि तुम सोचो ? भोगो! सोचने से काम न चलेगा। और जैसे ही तुम इस क्षण को भोग लोगे, इस क्षण ने बुनियाद रखी आनेवाले क्षण की। इस क्षण को तुमने भोगा, रस की धार बही, तुम और रस की धार Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासख की नींव Mindsamananews को भोगने के योग्य बने। अगला क्षण और भी वासंती, और भी भी बीच में विचार मत लाओ कि यह रुकेगी? मधुमय होकर आयेगा। अगला क्षण और गहरा नृत्य लायेगा। झेन कहानी है : अगला क्षण और भी बरसायेगा अमृत तुम पर। लेकिन यह एक मंदिर के द्वार पर दो भिक्षुओं में विवाद हो रहा है कि मंदिर तुम्हारी चिंता का कारण नहीं है, यह सहज ही होता है। यह के ऊपर लगी पताका को कौन हिला रहा है? पताका हिल रही नियम की बात कह रहा हूं, तुमसे सोचने को नहीं कह रहा हूं। है। एक भिक्षु कहता है, हवा हिला रही है। दूसरा भिक्षु कहता यह तो एक शाश्वत नियम है कि जो तुमने इस क्षण में भोगा, | है, पताका स्वयं हिल रही है। गुरु मंदिर के बाहर आता है, वह उसको तुम्हारी अगले क्षण में भोगने की क्षमता बढ़ जाती है। | कहता है : नासमझो, न हवा हिला रही, न पताका हिल रही, अभी तुमने क्रोध किया, तो अगले क्षण तुम्हारी क्रोध की क्षमता | तुम्हारा मन! तुम्हारा मन हिल रहा है। इसलिए तुम्हें हिलती बढ़ जाएगी। पताका दिखायी पड़ रही है, हिलती पताका में तुम्हें रस आ गया तुमने कभी खयाल किया? सुबह से उठकर अगर क्रोध हो है। तुम चिंता-विचार में पड़ गये हो। मन को ठहरा लो, फिर जाए तो लोग कहते हैं दिनभर क्रोध हो जाता है। इसलिए पराने हवा भी चलती रहे. तो भी पताका न हिलेगी। पताका हिलती भी दिनों में लोग सुबह राम का नाम लेकर उठते थे। उस गणित में | रहे, तो भी न हिलेगी। मन थिर हुआ, तो सब थिर हुआ। थोड़ा मनोविज्ञान है। क्योंकि जो हम सुबह-सुबह करते हैं, वह | ठीक कहा उसने। हमने नींव रख दी दिनभर के लिए। अगर सुबह-सुबह राम का मैं एक अमरीकी लेखक का जीवन पढ़ रहा था। उसने लिखा स्मरण किया, तो इस स्मरण में स्नान हो जाएगा। उस स्मरण के है कि मैं कैलिफोर्निया की सुंदर सुरम्य घाटी में पैदा हुआ। एक साथ यात्रा शुरू हुई, तो अगला क्षण उसी से तो आने को है। मछुवे के घर पैदा हुआ। सुंदर झीलों में, नदियों में, वादियों में उसी की तो शृंखला बनेगी। जो राम का नाम लेते हुए उठा, | मछलियां पकड़ते बचपन बीता। अगर किसी ने उसे गाली दी, तो एकदम से गाली उसके भीतर से उसने लिखा है कि जब मैं मछलियां पकड़ने के लिए बंसी बांधे न उठेगी-राम का नाम आड़े पड़ेगा। जो गाली देते ही उठा, हुए किसी सुरम्य झील के पास बैठा होता था, ऊपर से हवाई उसको तो कोई गाली न भी दे, तो भी गाली सुनायी पड़ जाएगी। जहाज गुजरते थे, तो मेरे मन में एक ही कामना उठती थी कि कब वह गाली से भरा है। वह तलाश ही कर रहा है, कहीं कोई मिल ऐसा समय आयेगा कि मैं भी पायलट बनूं! आकाश में उडूं! जाए कारण, तो वह टूट पड़े, बरस पड़े। वह बहाना ही खोज कैसा आनंद न होगा उस आकाश में! मैं कहां यहां बैठा रहा है। मछलियां मारने में समय गंवा रहा हूं। • इसको ही अगर तुम ठीक से समझो, तो कर्म का, संस्कार का संयोग की बात, वह आदमी बाद में पायलट बना। तब उसने पूरा सिद्धांत है। तुमने जो कल किया था, वह तुम्हारे आज को देखा कि मैं बड़ा हैरान हुआ! अब मैं पायलट होकर उसी घाटी प्रभावित करेगा। अब कल तो गया, अब कल को तो बदलने | के ऊपर से हवाई जहाज लेकर उड़ता हूं, नीचे झांककर देखता हूं, का कोई उपाय नहीं, इतनी कृपा करो कि आज को बदल लो, | मेरे मन में खयाल उठता है, हे भगवान! कब रिटायर होऊंगा कि क्योंकि आज फिर कल सतायेगा। जो तुमने पिछले जन्म में फिर उन्हीं सुरम्य घाटियों में बैलूं, मछली मारूं, विश्राम करूं! किया था, वह तुम अभी भोग रहे हो। और अभी तुम अगले तब वह चौंका कि यह मैं कर क्या रहा हूं, क्योंकि मैं जब घाटी में जन्म का विचार कर रहे हो, और यह जन्म भी हाथ से जा रहा था तब मुझे घाटी का सौंदर्य न दिखायी पड़ा। तब मुझे हवाई है। यह खाली-खाली गया हुआ जन्म, फिर अंधेरे से भरे हुए जहाज में बैठे हुए पायलट की महिमा मालूम पड़ी। अब मैं रास्ते पर तुम्हें भटका देगा। पायलट हूं, तो विश्राम की आकांक्षा कर रहा हूं। और फिर सोच पूछते हो कि समता का दीया सदा कैसे जलता रहे? बस, | रहा हूं उन्हीं घाटियों की जिनमें मैंने कभी सुख न पाया था। अब क्षणभर तुम उसे भोगो। जब समता घनी हो, गुनगुनाओ, नाचो, | नीचे फैली हरी घाटी बड़ी सुंदर मालूम पड़ती है! ताल-तलैये, डूबो उसमें। जब समता घनी हो, पीओ, फिर देर न करो। इतना सरोवर स्फटिक-मणि जैसे चमकते हैं। उनके किनारे बैठने की 2010_03 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 जिन सूत्र भाग: 2 फिर आकांक्षा है। और पक्का मानना, उनके किनारे पहुंचते ही फिर आकांक्षा कहीं और चली जाएगी। मन बड़ा अदभुत है। तुम जहां होते हो, वहां तुम्हें नहीं होने देता। मन की सारी पकड़ यही है कि तुम जहां हो वहां नहीं होने देता। तुम्हें कहीं और ले जाता है । और ध्यान का कुल इतना ही अर्थ है कि जहां हो, वहीं हो रहो। मन को यह खेल न खेलने दो। मन को कह दो कि मैं जहां हूं, वही रहूंगा। अभी मन सधा है, समता बनी है, पीओ इसे ! अगर पीना सीख गये, शाश्वत हो जाएगी। अगर सोचने लगे कि कहीं हिल तो न जाएगा, कहीं खो तो न जाएगा, कहीं यह क्षणभर का सपना तो न हो जाएगा, कल कहीं चिंता फिर तो न पकड़ेगी, कहीं फिर विषाद तो न आयेगा — आ ही गया, कल की कहां जरूरत रही! आ ही गया, तुम चिंता में पड़ ही गये। तुम्हारी इस चिंता के कारण ही कंप जाती है लौ । पूछते हो, भीतर समता का आनंद का दीया अधिक समय स्थिर रहने पर भी कभी-कभी टिमटिमाने लगता है। स्थिरता की बात ही भूल जाओ । स्थिरता मन की ही आकांक्षा है। स्थिर करने की चेष्टा क्यों करते हो? पत्थर होना चाहते हो ? जलधार रहो । बहते - बहते अपने को पकड़ो, पहचानो । घबड़ाओ मत रूपांतरण से, परिवर्तन से। अगर कभी लौ कंप भी जाए, तो कंपने का भी आनंद लो। नहीं तो यह नये आध्यात्मिक लोभ हुए। यह नयी आध्यात्मिक वासना जगी कि अब कंप न जाए लौ ! कहीं ऐसा तो न होगा कि कंप जाएगी! कभी कंप भी जाए, उसे भी स्वीकार करो। तो समता पैदा हुई। अब इसे तुम समझना, यह थोड़ा जटिल हुआ। समता कंप जाए, तो भी तुम्हारे भीतर कोई परेशानी न हो, तुम कहो ठीक है; यह भी ठीक है, कभी-कभी कंपती है, | इसको भी स्वीकार कर लो, तो समता वास्तविक समता पैदा हुई। जब विषमता को भी स्वीकार करने की कला आ जाए, तो समता पैदा हुई। लोग कहते हैं, सुख खो तो न जाएगा ! नहीं, जब दुख में भी तुम दुख न देखोगे; जब दुख भी आयेगा तब भी तुम कहोगे, यह भी ठीक है, इसे भी स्वीकार करते हैं, यह भी परमात्मा का प्रसाद है, तब फिर सुख कभी न हटेगा | मेरी बात समझे? सुख कभी-कभी हटेगा, दुख आयेगा, वह दुख परीक्षा है | वह दुख चुनौती है। वह दुख तुम्हें एक अवसर है 2010_03 कि तुम महासुख को पाने की नींव रख लो। उस दुख के क्षण में तुम घबड़ाना मत कि अरे ! वह सुख मिला था, गया; यह फिर दुख आ गया ! जो सुख दुख के आने से गिर जाए, वह सुख धोखा था । वह पकड़ने योग्य ही न था । जो सुख दुख के आने पर भी बदले न; दुख आ जाए, फिर भी तुम कहो, ठीक, यह भी स्वीकार; तुम्हारी स्वीकृति में रंचमात्र कोई बाधा न पड़े, तुम इसे भी धन्यभाव से, कृतज्ञभाव से स्वीकार कर लो; तुम परमात्मा को सुखों के लिए तो धन्यवाद दो ही, वह तुम्हें जो दुख देता है उनके लिए भी धन्यवाद दे सको, फिर कौन हिला सकेगा? फिर तुम पार हुए। जब दुख भी तुम्हें दुखी न कर सकेगा, तभी सुख थिर होगा। तभी सुख शाश्वत होगा । अशांति के क्षणों को भी शांति से अंगीकार कर लो। शांति अशांति के आने से नहीं मिटती, अशांति को अस्वीकार करने से मिटती है। अशांति के आने से अगर शांति मिटती होती, तो शांति का बल ही क्या है फिर ! अशांति के आने से नहीं मिटती, तुम अशांति को अस्वीकार करते हो, धकाते हो; नहीं, नहीं चाहिए; चिल्लाते हो कि यह क्या हुआ, फिर अशांति आ गयी ! इस चिल्लाने, चीख-पुकार करने से शांति मिटती है ! 1 अब जब दुबारा तुम्हारे दीये की लौ कंपे, तो कंपने का भी आनंद लेना। क्या बुरा है। बिजली का बल्ब नहीं कंपता, लेकिन दीये का मजा ही और है! दीये की लौ कंपती है। बिजली का बल्ब बिलकुल नहीं कंपता । लेकिन दीया जिंदा है, बिजली का बल्ब मुर्दा है। दीया जीवंत धारा है। ठहरता भी, कंपता भी। लौ में प्राण हैं। बिजली का बल्ब बिलकुल यांत्रिक है। उसमें प्राण नहीं हैं। घबड़ाना मत। कभी-कभी कंपेगी ही! ठीक है, स्वीकार है । तुम्हारा स्वीकार - भाव सदा बना रहे, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, जब तुम कंपन को भी स्वीकार करने लगे तो कंपन कम होने लगा। एक दिन तुम पाओगे, जिस दिन स्वीकार पूरा हो गया, उस दिन कंपन समाप्त हो गया। उस दिन दीये की लौ सतत, शाश्वत होकर जलने लगती है। लेकिन खयाल रखना, शाश्वत और स्थिर में फर्क है। नित्य और स्थिर में फर्क है। स्थिर में तो आकांक्षा है मन की, कि स्थिर हो जाए। शाश्वत घटना है, मन की आकांक्षा नहीं है। स्थिर की तो चिंता पैदा होती है, शाश्वत की कोई चिंता नहीं । वस्तुतः ऐसा समझो कि स्थिर के लिए सोच-सोचकर तुम लहर को कंपा जाते Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख की स्वीकृति : महासुख की नींव हो। जब तुम क्षण को जीते हो, तब परिणाम में नित्यता उपलब्ध | बांधना, अन्यथा टूट जाएंगे, बिखर जाएंगे, अति कोमल हैं, होती है। धीरे-धीरे-धीरे लौ थिर हो जाएगी। समता ऐसी सध | अति सूक्ष्म हैं, नाजुक हैं। इन पर झपट्टा मत मार देना। अन्यथा जाएगी कि तुम्हें पता ही न चलेगा कि समता भी है। जब तक झपट्टे में ही नष्ट हो जाएंगे। इनके लिए तो बड़ी शांत, मौन, पता चले समता का, तब तक जानना अभी विषमता के बीज स्वीकार की भावदशा चाहिए। तुम जब कुछ भी नहीं करते तब मौजूद हैं। जब तक सुख का पता चले, तब तक जानना कि दुख ही यह घटते हैं। जैसे ही तुमने कुछ किया कि गड़बड़ शुरू हुई। अभी संभव है। जब तक शांति का पता चले, तो समझना कि अगर क्षणभर को भी कभी समता का सूत्र बंध जाता है, तो अभी शांति अशांति के विपरीत संघर्ष कर रही है। भोग लो उसे। बस। पूरी तरह भोग लो। उस क्षण को शाश्वत महावीर से पूछो-तुम अगर उनसे पूछोगे कि क्या आप शांत हो जाने दो। उस क्षण में ऐसे डूबो कि समय ही मिट जाए। उस हैं, तो वह कंधा बिचका देंगे। वे कहेंगे, शांत! बहुत दिन से क्षण में समय की याद न रहे-न बीता, न आगा। न जा चुका अशांत ही नहीं हुए, तो शांति का पता कैसे चले? स्वास्थ्य का | याद रहे, न आनेवाला याद रहे। भूलो सब। खुल गया द्वार प्रभु पता चलता है बीमारी में, बीमारी के कारण। अगर कोई आदमी | का। वहीं कपाट खुलते हैं मंदिर के। सदा ही स्वस्थ रहे, तो उसे स्वास्थ्य का पता चलना बंद हो जाता | धीरे-धीरे तुम पाओगे, जैसे-जैसे साफ होने लगेगी बात, है। पता चलने के लिए विपरीत चाहिए। पता चलता ही विपरीत आंखों का धुंधलका हटेगा, तुम पाओगे द्वार के कपाट सदा ही के कारण है। तो जिस दिन समता पूरी होगी, उस दिन तो समता खुले रहते हैं। तुम्हारे ही विचार के कारण द्वार बंद होता मालूम का पता ही नहीं चलेगा। | पड़ता है। लेकिन स्थिरता की और थिर होने की मांग मत करो। थिर होना परिणाम है। तुम सिर्फ जीओ। सार बात इतनी कि जब तीसरा प्रश्न : प्रति प्रातः आपको देखने व सुनने आता हूं, समता हो, समता को भोगो; जब लहर आ जाए, ज्योति कंपने परंतु दोनों रस एक-साथ नहीं ले पाता। सुनता हूं तो आंखें बंद लगे, तब कंपने को भोगो। दोनों में कहीं भी तुम्हारा विरोध और हो जाती हैं और देखता हूं तो सुनना कम हो जाता है। कृपया कहीं भी तुम्हारी आसक्ति न हो। समता से आसक्ति मत | बतायें कि दोनों लाभ एक-साथ कैसे ले सकू? बनाओ। यह मत कहो कि अब मिल गयी समता, अब कभी न छोड़ेंगे। यह तो फिर नया बंधन हुआ वासना का। समता प्रेम में अकसर ऐसा होगा। स्वाभाविक है। इसे समस्या मत अपने-आप बढ़ती जाएगी। तुम समता के मालिक मत बनो। बनाओ। दोनों को एक-साथ साधना अभी आसान न होगा। तम उसे तिजोडी में बंद करने की चेष्टा मत करो। धीरे-धीरे हो जाएगा। कुछ चीजें हैं, जो तिजोड़ी में बंद नहीं की जा सकती हैं। तुमने | अभी तो ऐसा करो, कभी आंख खोलकर देखने का सुख ले बंद की, बंद करते ही मर जाती हैं। सुबह की ताजी हवा को लिया, कभी आंख बंद करके सुनने का सुख ले लिया। अभी तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? सुबह सूरज की किरणों को तिजोड़ी दोनों हाथ लड्डू की आकांक्षा मत करो। उसमें दोनों चूक जाएंगे। में बंद कर सकोगे? फूलों को, फूलों की गंध को तिजोड़ी में बंद धीरे-धीरे, जैसे-जैसे रस बढ़ेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे, कर सकोगे? जैसे ही तिजोड़ी बंद की, हवा गंदी होनी शुरू हो | आंख बंद है, तुम सुन भी रहे हो, बंद आंख से देख भी रहे हो। गयी। जैसे ही तिजोड़ी बंद की, सूरज की किरणे बाहर ही छूट | कोई देखने के लिए खुली आंख ही थोड़े ही जरूरी है? अगर गयीं। जैसे ही तिजोड़ी बंद की, फल कम्हलाने लगे, मरने खली आंख से ही देखना संभव होता तो जो भी यहां खली आंख सड़ने लगे। कुछ चीजें हैं जो खुले आकाश की हैं। करके बैठे हैं वे सभी देख लेते। लेकिन यह सभी के लिए प्रश्न समता, सम्यकत्व, शांति, आनंद, ध्यान, प्रार्थना, प्रेम, तो नहीं है, प्रश्न किसी एक का है। किसी को ऐसा हो रहा है। भूलकर इन्हें तिजोड़ी में बंद मत करना। ये आकाश, खुले कान का खुला होना ही थोड़े ही सुनने के लिए काफी है। आकाश के फूल हैं। इन्हें मुक्त रखना। इन्हें मुट्ठी में भी मत जीसस बार-बार कहते हैं अपने शिष्यों से, आंख हो तो देख 189 2010_03 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 जिन सूत्र भाग: 2 लो। कान हों तो सुन लो । फिर पीछे मुझसे मत कहना। उनके सभी की आंखें थीं, सभी के कान थे, यह बात क्या ? बार-बार जीसस कहते हैं, कान हो तो सुन लो, आंख हो तो देख लो। वे ही कान, वे ही आंख तुम्हारे भीतर जन्म ले रहे हैं। जन्म की इस | घड़ी को लोभ की घड़ी मत बनाओ। कभी आंख बंद कर ली | और सुनने का रस ले लिया। क्योंकि सुन भी तुम मुझ ही को रहे हो। उससे भी तुम मुझसे ही जुड़ रहे हो। वह भी एक द्वार से मेरे पास आना है। फिर कभी आंख खोल ली, देखने का रस ले लिया । छोड़ दिया सुनने को । तब भी तुम मुझसे ही जुड़े हो और शुरू-शुरू में अलग-अलग ही करना होगा। क्योंकि एक-एक इंद्रिय जब पहली दफा पूरी तरह से आंदोलित होती है, तो सारी ऊर्जा वहीं चली जाती है। तुमने देखा? अंधे आदमियों के कान बड़े प्रबल हो जाते हैं, बड़े कुशल हो जाते हैं। अंधा आदमी जिस कुशलता से सुनता है, आंखवाले कभी सुनते ही नहीं । । इसलिए गैर-आंखवालों का सुर - बोध गहन हो जाता है । अंधे संगीतज्ञ हो जाते हैं। अंधे की वाणी मधुर हो जाती है। क्योंकि | अंधे की सारी ऊर्जा आंख से हटकर कान पर बहने लगती है जैसे-जैसे उसका स्वर-बोध गहरा होता है, वह छोटी-छोटी चीजों को भी स्वर से पहचानता है । वह लोगों के पैरों की आवाज से भी लोगों को पहचानने लगता है— कौन आ रहा है। आंखवाले नहीं पहचान सकते। आंखवालों ने कभी इतने गौर से सुना ही नहीं। आंखवालों को पता ही नहीं कि पैर भी लोग अलग-अलग ढंग से रखते हैं। चलते भी लोग अलग-अलग ढंग से हैं। जैसे अंगूठों के निशान अलग-अलग हैं, ऐसे ही हर चीज अलग-अलग है । अंधा तुम्हारी आवाज सुनकर ही पहचान लेता है कौन हो । वर्षों बाद भी मिलने जाओ उससे, आवाज पहचानते ही पहचान लेता है। क्योंकि उसकी पहचान ही आवाज से है। चेहरे का उसे कुछ पता नहीं । तो जब तुम सुनते हो पूरी तरह से, तो स्वभावतः आंख बंद हो जाएगी। क्योंकि सारी ऊर्जा कान ले रहा है। आंख को देने को है नहीं। अगर तुमने सुनने और देखने की एक-साथ कोशिश की, तो आधी-आधी बंट जाएगी। तो न तो तुम ठीक से सुन पाओगे, न ठीक से देख पाओगे। जब तुम देखोगे, सारी ऊर्जा आंख पर आ जाएगी। शुरू में ऐसा होगा । 2010_03 यह ऐसा ही है, कभी तुमने अगर साइकिल चलानी सीखी हो, या मोटर कार चलानी सीखी हो- साइकिल चलानेवाले सीखनेवाले को जो अड़चन आती है, वह यही । पैर पर ध्यान रखे, तो हैंडिल भूल जाता । सड़क पर देखे, तो पैडिल भूल जाता। बड़ी दुविधा खड़ी होती है। कार चलानेवाले को भी वही अड़चन होती है। एक्सीलेटर को सम्हाले, सड़क को देखे, ब्रेक को देखे, गियर को बदले, तो एक चीज की तरफ तो लग जाता है; लेकिन जैसे ही दूसरे की तरफ जाता है, पहली चीज चूक जाती है। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे कुशलता आने लगती है, आत्मविश्वास बढ़ता है, अपने पर श्रद्धा बढ़ती है कि ठीक है, मैं चला लेता हूं, फिर कोई याद रखने की जरूरत नहीं रह जाती। फिर वह रेडियो भी सुनता रहता है, गीत भी गुनगुनाता रहता है, कार भी चलाता रहता है; बात भी करता रहता है। एक दफा तुम्हारी कुशलता के बढ़ जाने की बात है। तो शुरू में तो तुम ऐसा ही करो। जब सुनने का मन हो, सुन लिये । जब देखने का मन हो, देख लिये। अभी दोनों को साथ साधने की कोशिश मत करना। धीरे-धीरे अपने आप सध जाएगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि सुनते-सुनते आंख बंद है, लेकिन मैं दिखायी भी पड़ने लगा। मुझे देखने के लिए आंख का खुला होना जरूरी नहीं है । फिर तुम पाओगे कि आंख खुली है, तुम मुझे देख भी रहे हो, और सुनायी पड़ने लगा। और यहां ही नहीं, तुम अपने घर लौट जाओगे, अगर मेरे चित्र पर भी तुम आंख खोलकर बैठ गये, तो तुम्हें मेरी आवाज सुनायी पड़ने लगेगी। लेकिन यह घटित होगा। थोड़ी प्रतीक्षा करो, और जल्दी मत करो। अभी तो जिस तरह डूबना जाए, डूबो ! अभी तो डूबना सीख लो। फिर मेरे लब पे कसीदे हैं लबो - रुखसार के फिर किसी चेहरे पे ताबानी सी ताबानी है आज अर्जिशे-लब में शराबो- शेर का तूफान है जुंबिशे-मिजगां में अफसूने-गजलख्वानी है आज वो नफस की जमजमा-संजी नजर की गुफ्तगू सीना-ए-मासूम में इकतर्फा तुगयानी है आज वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज अभी होश की बात ही मत करो। अभी तो बेहोश हो लो। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है मेरे अभी तो बहक लो मेरे साथ । अभी तो यही होश है कि तुम साथ बहको । कि मेरे साथ पागल हो लो। होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज आज तो होश की बातें मत करो। आज तुम गणित मत बिठाओ कि सुन भी लूं, देख भी लूं, बुद्धि को भी समझ में आ जाए, हृदय में भी रस उतर जाए। अभी तुम गणित मत बिठाओ, अभी तर्क मत बिठाओ। अभी तो बहक लो। जहां से बहकना आ जाए, वहीं से सही। अभी तो तुम मेरे साथ मस्त हो लो। यह घड़ी अगर मस्ती में बीत जाए, तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम मस्ती की गहराइयों से परिचित होने लगोगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि सभी इंद्रियों को एक-साथ जोड़ा जा सकता है। तब न केवल आंख, न केवल कान, बल्कि और इंद्रियां भी सक्रिय होंगी। किसी-किसी को वैसा अनुभव होता है। कोई मेरे पास होता है, तो उसे एक खास तरह की गंध आने लगती है। उसका अर्थ है, वह केवल मुझे सुन ही नहीं रहा, देख ही नहीं रहा, मुझे सूंघ भी रहा है। और कुछ थोड़े-से लोग हैं, बहुत थोड़े-से | लोग कोई दो-चार लोगों ने मुझे कभी कहा है कि सुनते-सुनते उनके कंठ में एक तरह का स्वाद भी आने लगता है। तो चौथी इंद्रिय भी सम्मिलित हो गयी, स्वाद भी। जैसे कोई बूंद अमृत की भीतर टपक गयी हो। उनसे भी कम कुछ लोग हैं- एकाध ही कभी किसी ने मुझे कहा है कि सुनते-सुनते सारे शरीर में एक अनूठे स्पर्श का बोध होता है। एक तरंग ! जैसे मैंने उनके सारे शरीर को आलिंगन में ले लिया हो । तो पांचों इंद्रियां सम्मिलित हो गयीं। अभी तो एक-एक को साधो । दो को एक-साथ साधना मत। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे सभी इंद्रियां एक-साथ सजग होकर मेरे पास हो जाएंगी। जिस दिन सभी इंद्रियां सजग होकर मेरी निकटता में आ जाएंगी, उस दिन सत्संग शुरू हुआ। उसके पहले सत्संग तो है, लेकिन सीमित है। किसी का आंख का सत्संग है, किसी के कान का सत्संग है, लेकिन सीमित है । तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व का सत्संग नहीं हो रहा है। पर जल्दी की भी नहीं जा सकती। यह तो धीरे-धीरे... कला है, जो धीरे-धीरे आती है। आते ही आते आती है। ऐसा नहीं कि तुम उसे ले आओगे। 2010_03 दख की स्वीकृति : महासख की नींव चौथा प्रश्न : समर्पण और अंधानुकरण में क्या अंतर है ? अंतर है भी और नहीं भी। दोनों बातें समझ लें । अंधानुकरण का अर्थ है, अपने स्वानुभव के बिना किसी को माने चले जाना । जैसे तुम जैन-घर में पैदा हुए, या हिंदू-घर में पैदा हुए, या मुसलमान-घर में पैदा हुए, और तुम अपने को मुसलमान माने चले जाते हो, यह अंधानुकरण है। न तो मुहम्मद से तुम्हारा कोई संबंध बना, न कोई सत्संग हुआ। न मुहम्मद की आभा से तुम्हारा कोई मिलन हुआ। जैन-घर में पैदा हो गये हो । महावीर से कोई मेल-जोल नहीं है। महावीर से कुछ लेन-देन नहीं हुआ। महावीर से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ। महावीर की वाणी के फूल तुम्हारे हृदय में खिले नहीं। महावीर की वीणा का संगीत तुम तक पहुंचा नहीं। संयोगवशात तुम जैन-घर में पैदा हुए हो। इसलिए बचपन से जैन-धर्म की बात सुनी, जैन - शास्त्र सुना, जैन मंदिर गये, महावीर का नाम सुना बार-बार, सुनते-सुनते स्मृति में बैठ गया । तुम कहते हो, मैं जैन हूं। यह अंधानुकरण है । जो लोग महावीर के समय में महावीर की से आंदोलित होकर महावीर के चुंबक से खींचे गये थे; जिन्होंने महावीर को भर आंख देखा था; जिन्होंने महावीर को पूरे कानों से सुना था, जिन्होंने महावीर को अपने हृदय में पीया था, और उस पीने में जाना था कि ठीक है, यही मार्ग ठीक है, और उस मार्ग पर चल पड़े थे, तब समर्पण था, अंधानुकरण नहीं। समर्पण तो जीवित सदगुरु के पास ही हो सकता है। इसलिए दुनिया में सौ में से निन्यानबे लोग तो अंधानुकरण में हैं। मह जब गांव से गुजरे थे, तो उनमें से कोई कृष्ण को मानता था, इसलिए सुनने नहीं गया। कोई राम का भक्त था, इसलिए कैसे महावीर के पास जाता ! वे अंधानुकरण में थे। लेकिन उन्हीं राम और कृष्ण भक्तों में से कुछ हिम्मतवर थे, जो महावीर को सुनने गये थे। उन्होंने अपने अंधानुकरण को एक तरफ रखा। उन्होंने कहा, परंपरा परंपरा है, परंपरा मेरी आत्मा नहीं। किसी घर में पैदा हुआ हूं, यूं ठीक है; लेकिन जो धर्म मैंने नहीं चुना, वह मेरे प्राणों को कैसे स्पंदित करेगा? धर्म चुनाव है— सजगता से, गहन सोच-विचार से, चिंतन-मनन से, ध्यान-निदिध्यासन से, अपने जीवन को दांव पर लगाना है। धर्म उधार नहीं मिलता। तो जो धर्म तुम्हें घर के कारण, परिवार के कारण, समाज के 191 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ women जिन सूत्र भाग: 2 कारण मिल गया हो, वह अंधानुकरण है। दिया, वर्तमान को चुना। मृत को इनकार कर दिया, जीवंत को नानक के गीत को सुनकर जो उनके पास पहुंच गये थे, वे चुना। जीवंत के साथ खतरा था, पता नहीं महावीर ठीक हों, न सिक्ख हैं। बाकी सब नाम के सिक्ख हैं। सिक्ख शब्द का अर्थ हों। और पता नहीं तुम्हें जो प्रतीति हो रही है वह ठीक हो, न हो। होता है, शिष्य। वह शिष्य का ही विकत रूप है। जो नानक के हो सकता है तम सम्मोहित हो गये हो। हो सकता है इस महावीर पास गये थे, जिन्होंने नानक का गीत सुना, और जिनको नानक | के वचनों ने तुम्हें घेर लिया। तुम किसी जाल में उलझ गये। की झलक मिली। जिन्होंने उनके पास उस अमृत लोक का | खतरा है। संदेह के साथ कदम उठाने पड़ेंगे। पहला सपना देखा, जिनका सत्संग हुआ, जिनके हृदय का सेतु | लेकिन साहसी उठाता है कदम। पुराने रास्तों की बड़ी प्रतिष्ठा नानक से जुड़ गया, जो क्षणभर को नानक की आंख से देख | है—प्राचीन हैं, हजारों लोग चले हैं, तीर्थ हैं, मंदिर हैं, तुम लिये, नानक के पैरों से नाच लिये, नानक के कंठ से गुनगुना जाकर पता लगा सकते हो कि इन रास्तों से लोग पहुंचे या नहीं लिये क्षणभर को सही-जिनकी धुन नानक से मिल गयी, पहंचे? तो लोकोक्तियां हैं कि इस रास्ते पर हजारों लोग सिद्ध उन्होंने समर्पण किया। यह उनका स्वयं का अनुभव था। इस । हो गये हैं। अब महावीर अचानक आकर खड़े हुए, या मुहम्मद, स्वयं के अनुभव पर उन्होंने अपना सिर झुका दिया। अभी तो कोई इनके पास सिद्ध हुआ नहीं; अभी तो कोई पहुंचा अब सिक्ख हैं, उनका नानक से क्या लेना-देना! सिक्ख घर नहीं, अभी तो परंपरा बनने में हजारों साल लगेंगे, हजारों साल में पैदा हुए, तो सिक्ख हैं। हिंदू घर में पैदा होते तो हिंदू होते। के बाद कमजोर लोग इनका अनुसरण करेंगे। हिम्मतवर लोग मुसलमान घर में पैदा होते तो मुसलमान होते। किसी हिंदू बच्चे जीवंत सदगुरु का साथ पकड़ लेते हैं। वह साथ पकड़ लेना ही को मुसलमान के घर में रख दो, वह मुसलमान हो जाएगा। समर्पण है। जो तुमने किया, वह समर्पण, जो तुमसे तरकीबों से बचपन से मुसलमान के बच्चे को जैन के घर में रख दो, वह करवा लिया गया है, वह अंधविश्वास। अगर तुममें थोड़ा भी अहिंसक हो जाएगा। शाकाहारी हो जाएगा। लेकिन यह होना | बल और हिम्मत है, अगर तुम थोड़े भी आत्मवान हो, तो तुम कोई होना है! जो तुमने स्वयं नहीं चुना। इनकार कर दोगे उन सारे संस्कारों को जो दूसरों ने तुम पर डाले। तो जो तम्हारे पास उधार है. वह अंधानकरण है। जो निज का तम कहोगे. तम कौन हो? है, वही समर्पण है। जो तुमने किया, जो अतीत से नहीं मिला, | रूस में सभी नास्तिक हैं, क्योंकि सरकार नास्तिकता पिला रही जो तुमने स्वयं साहस करके-दुस्साहस कहना चाहिए, क्योंकि है। हिंदुस्तान में सभी आस्तिक हैं, क्योंकि समाज आस्तिकता अतीत से जो मिलता है वह तो हजारों साल चिंतन किया गया है, पिला रहा है। न इस आस्तिकता का कोई मूल्य है, न उस उस पर शास्त्र लिखे गये हैं, टीकायें लिखी गयी हैं; पंडित हैं, नास्तिकता का कोई मूल्य है। दोनों दो कौड़ी की हैं। और दोनों पुजारी हैं, मंदिर हैं, बड़ी लंबी परंपरा है, परंपरा की प्रतिष्ठा है; एक-जैसी हैं। मेरे देखे कोई फर्क नहीं है। तुमको आस्तिकता लेकिन जब तुम किसी नये सदगुरु के, जीवित सदगुरु के पास पिलायी जा रही है दूध के साथ, तुम आस्तिकता पीये जा रहे हो। आते हो तो न तो कोई परंपरा है पीछे, न वेद-कुरान-बाइबिल का उनको नास्तिकता पिलायी जा रही है, वे नास्तिकता पीये जा रहे कोई सहारा है। कोई संदर्भ नहीं है। जीवित सदगरु सीधा तुम्हारे | हैं। रूस में जो हिम्मतवर है, वह हटाकर रख सामने खड़ा है। हां, तुम्हीं अगर हिम्मतवर हो, तो समर्पण कर पिला रही है। वह सोचेगा अपनी तरफ से। तुममें जो हिम्मतवर सकोगे। और तो कोई भी कारण नहीं है समर्पण करने का। है, वह भी हटाकर रख देगा जो समाज पिला रहा है। वह महावीर के पास जाकर जो झुक गये, महावीर के सारे बड़े सोचेगा अपनी तरफ से। वह कहेगा, भटक जाऊं तो भी एक शिष्य, ग्यारह शिष्य, सभी के सभी ब्राह्मण थे। साधारण ब्राह्मण सुख तो रहेगा कि अपनी ही अभीप्सा के कारण भटका। गिरूं न थे, महापंडित थे। वेद में पारंगत थे। उनके खुद के सैकड़ों खड्ड में, तो कम से कम एक तो बात रहेगी मेरे साथ कि अपने ही शिष्य थे जब वे महावीर के पास आये। लेकिन परंपरा को चुनाव से चला था, गिरा तो किसी की जिम्मेवारी नहीं। हटाकर रख दिया। सत्य को चुना। अतीत को पोंछकर रख ध्यान रखना, दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती तुम स्वर्ग भी पहुंचा दिये 192 Jair Education International 2010_03 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति ः महासुख की नींव गये, तो तुम स्वर्ग न पहुंचोगे। स्वयं चलकर ही तुम पहुंचोगे, तो | तक जो मैं पकड़े हुए हूं, उसको पकड़ने के लिए मैंने कोई जीवन ही स्वर्ग संभव है। यह कुछ ऐसी संपदा नहीं कि कोई दे दे। यह दांव पर लगाया है? कोई ध्यान किया है? कोई प्रेम किया है? कोई हस्तांतरण नहीं हो सकती। तो तुमने जो भी मान रखा हो या सिर्फ संस्कृति ने, समाज ने, सभ्यता ने जो दिया है, उसे पकड़े परंपरा से, दूसरों के द्वारा समझा-बुझाकर तुम्हें राजी कर लिया हुए हूं! दूसरों ने दिया है। उनको भी किन्हीं औरों ने दिया था, गया हो, वह सभी अंधानुकरण है। जो तुम चुनो, वही समर्पण उनको भी किन्हीं औरों ने दिया था। सुनी हुई बात है। अपना है। यह तो भेद है दोनों का। | दर्शन कुछ भी नहीं। ऐसे कचरे को हटाओ। वह अंधविश्वास और एक अर्थ में भेद नहीं भी है। उस दूसरे अर्थ को भी समझ है। दूसरे को अंधविश्वासी कहने मत जाना। लेना जरूरी है। लोग बड़े शब्दों के उपयोग में चालाक हैं। अगर इसमें एक बात और भी खयाल में ले लेने की है। दूसरा तुम करो तो समर्पण है; अगर दूसरा करे तो अंधविश्वास! अगर | जितना समर्पित होगा, उतना तुम्हें अंधा मालूम होगा। क्योंकि तुम आकर मेरे पास संन्यास ले लो, तो तुम कहोगे, समर्पण। प्रेम में एक तरह का अंधापन है। इसलिए तो हम कहते हैं प्रेमी तुम्हारे पास-पड़ोसवाले, तुम्हारे मित्र कहेंगे, गिरा अंधविश्वास को, अंधा! क्योंकि जो प्रेमी नहीं है, वह समझ ही नहीं पाता कि में! इसे तुमने कभी खयाल किया? राम के भक्त कहते हैं, यह आदमी कर क्या रहा है? मजनू से लोग पूछते थे, तू पागल विभीषण परम भक्त है राम का; रावण के मित्रों से भी तो पूछो! है? इस लैला में कुछ भी रखा नहीं! मजनू कहता, मेरी आंख से दगाबाज है! धोखेबाज ! गद्दार! अगर हिंदू मुसलमान हो जाए, देखो। लैला देखनी है तो मेरी आंख से देखो। लैला को और गद्दार! अगर मुसलमान हिंदू हो जाए, तो हिंदू कहते हैं, कोई देखने का ढंग हो भी नहीं सकता। एक ही ढंग है, वह मजनू समझदार! अकल आ गयी। बड़ा बुद्धिमान है। की आंख है। एक जैन-मुनि थे, गणेशवर्णी। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, अगर किसी के प्रेम को देखना है, तो प्रेमी की आंख से देखो। जैनियों में। क्योंकि वे जन्म से हिंदू थे और जैन हुए। तो जैन अगर तुम मीरा को जैन की आंख से देखोगे, तो गड़बड़ हो गयी। कहते, बड़ा प्रतिभाशाली है। ऐसा संत सदियों में होता है। मीरा को देखना है, तो मीरा की आंख से देखो। मीरा के भाव को हिंदुओं से पूछो? गद्दार! धोखेबाज! यह सदा से होता आया समझना है, तो भक्त के भाव से समझो। जो भक्त नहीं हैं, उनसे है। तुम अपने लिए तो अच्छे शब्दों का उपयोग कर लेते हो, | पूछना मत; वे तो कहेंगे कि यह अंधापन है। दूसरे के लिए गलत शब्दों का उपयोग करते हो। जब तुम करोगे, | कहते हैं, अलबर्ट आइंस्टीन की पत्नी ने विवाह के बाद अपनी तो समर्पण। दूसरा करेगा तो अंधविश्वास। कछ कविताएं अलबर्ट आइंस्टीन को दिखायीं। वह कछ कविता | इसलिए खयाल रखना, जो तुम अपने लिए मौका देते हो, वह | करती थी। अब आइंस्टीन तो गणितज्ञ, भौतिकशास्त्री! तथ्य | दूसरे को भी देना। तुम्हें कोई हक नहीं है किसी दूसरे के बाबत पर उसका जोर! तथ्य और काव्य का क्या मिलना! निर्णय करने का कि वह अंधविश्वासी है, या समर्पित हुआ | जमीन-आसमान का फर्क! उसने पहली ही कविता देखी, वह व्यक्तित्व है। तुम इसकी चिंता छोड़ो। तुम कर भी नहीं सकते सिर हिलाने लगा। उसकी पत्नी ने पूछा कि क्या मामला है ? निर्णय। तुम दूसरे के हृदय में उतरोगे कैसे? जानोगे कैसे? तुम उसने कहा, यह हो ही नहीं सकता, यह कभी हो ही नहीं सकता, तो अपनी ही सोच लो। इतना ही देखो अपने भीतर कि अब तक बिलकुल गलत है। बात क्या है? तुम अंधविश्वास से जी रहे हो, या समर्पण से जी रहे हो। बस, कविता में पत्नी ने लिखा है—प्रेम की कविता है, प्रेमी के लिए वहीं निर्णय कर लो, दूसरों की फिकिर छोड़ दो। अन्यथा तुम्हारे लिखी है कि मेरे प्रेमी का जो चेहरा है वह चांद-जैसा सुंदर सभी निर्णय गलत होंगे। जीसस ने कहा है, निर्णय करो ही मत; है। आइंस्टीन ने कहा, हो ही नहीं सकता! चांद-जैसा! हो ही दूसरे के संबंध में न्यायाधीश बनो ही मत।। नहीं सकता। क्योंकि चांद बहुत बड़ा है। कहां आदमी का सिर, तो जिन मित्र ने पूछा है, अगर अपने लिए पूछते हों, तो ठीक। | और कहां चांद! फिर चांद सुंदर भी नहीं है। बड़े खाई-खड्ड हैं। दूसरों की चिंता छोड़ दें। अपने भीतर ही देख लेना है कि अब इससे कोई तुलना बैठती ही नहीं। 193 2010_03 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 अब यह दो अलग भाषाएं हैं। आइंस्टीन गणित की भाषा है। लेकिन यह गणित का संबंध नहीं है। आइंस्टीन ठीक कहता बोल रहा है। कहां सिर, कहां चांद! कोई हिसाब भी तो हो! | है, और उसकी पत्नी भी ठीक कहती है। दोनों ठीक कहते हैं। अंधेर कर रहे हो यह प्रतीक बनाकर। पत्नी भी चौंकी होगी। लेकिन दोनों के ठीक, दो अलग-अलग भाषाओं के ठीक हैं। दो कोई भी कवि चौंकता। क्योंकि कवि सदियों से यही करते रहे अलग-अलग आयाम, दो अलग-अलग व्यवस्थाओं के ठीक हैं। चांद से ज्यादा सुंदर उन्होंने कुछ पाया ही नहीं अपनी प्रेयसी हैं। इसे खयाल रखना। के चेहरे का निरूपण करने के लिए। __ जो आदमी प्रेम में पड़कर समर्पित हो जाता है, शेष सबको __ इतना ही नहीं कि उन्होंने चांद से प्रेयसी के चेहरे का निरूपण | अंधा मालम होगा ही। क्योंकि वे गणित से चलनेवाले लोग. किया है, कोई तो अंधे और भी आगे निकल गये, उन्होंने चांद का तर्क से चलनेवाले लोग; यह क्या पागलपन है! अब तुम निरूपण अपनी प्रेयसी के चेहरे से किया है। वे कहते हैं, चांद जाओगे गैरिक-वस्त्रों में घर लौटकर, माला पहने हुए, लोग | मेरी प्रेयसी के चेहरे-जैसा सुंदर।। | तुम्हें पागल कहेंगे। तुम चांदमारे। मेरे नाम का अर्थ चांद ही है! मगर क्या तुम कहोगे वह गलत कहते हैं! वह देखने का ढंग लूनाटिक-अब तुम पड़े मुश्किल में! अब तुम समझा न और! वह शैली और! वह भाषा और! वह आयाम और! वे पाओगे। तुम समझाने बैठोगे तो तुम हारोगे, यह भी पक्का भी ठीक कहते हैं। कुछ है मेल चांद में और प्रेयसी के चेहरे में। समझना। क्योंकि तर्क से कैसे समझाओगे? वह कहेंगे, पागल वह मेल वजन का नहीं है, न आयतन का है, न क्षेत्र का है, न हो गये हो। अगर तुमने समझाने की कोशिश की, तो उससे खाई-खड्डों का है, कुछ और है। कुछ एक सम्मोहन है। जो चांद सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि तुम गलत हो। कुछ सिद्ध न हो की तरफ देखकर आंखें ठगी रह जाती हैं। बस वैसी ही आंखें सकेगा। तुम समझाना मत। तुम खुद ही स्वीकार कर लेना कि | ठगी प्रेयसी के चेहरे पर भी रह जाती हैं। चांद में कुछ है जो | ठीक पहचाना, पागल हो गये हैं। इसके पहले कि वे हंसें, तुम तुम्हारे हृदय को आंदोलित कर देता है। बेसुध कर देता है। वैसा | खिलखिलाकर हंसना। तुम पाओगे कि वे गंभीर हो गये। इसके ही कुछ प्रेमी के चेहरे में भी है, जो तुम्हें बेसुध कर देता है। उस पहले कि वे कुछ कहें, कि तुम गुनगुनाना गीत, कि नाचना। वे अनजान की तुलना है। चांद से कुछ सुरा बहती है। इसीलिए तो अपने घर चले जाएंगे सोचकर कि ये महा...समझाने-बुझाने की चांद का दूसरा नाम है, सोम। सोमरस बहता है चांद से। बात ही न रही! इसलिए तो चांद के दिन को हम सोमवार कहते हैं। सोमरस | एक समझ की दुनिया है, जहां सीढ़ी-सीढ़ी तर्क चलता है। एक बहता है चांद से। कुछ है, जो चांदनी रात में होता है, फिर कभी प्रेम की दुनिया है, जहां छलांगें चलती हैं, कुलांचें चलती हैं। दोनों नहीं होता। जो पूरे चांद की रात में होता है, फिर कभी नहीं की चाल इतनी अलग है कि दोनों कभी साथ नहीं चल पाते। होता। कुछ पागल कर देनेवाला, कुछ मतवाला कर देनेवाला। तर्क पदार्थ तक पहंच पाता, प्रेम परमात्मा तक। परमात्मा का तुम जानकर चकित होओगे कि पूर्णिमा की रात को दुनिया में कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा का एक ही प्रमाण है, वे लोग जो जितने लोग पागल होते हैं और किसी रात को पागल नहीं होते। उसके प्रेम में पागल हो गये। और कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा इसलिए तो पागलों के लिए एक पुराना शब्द है-चांदमारा। | को जानना है तो परमात्मा के प्रेम में पागल हो गये लोगों से अंग्रेजी में भी पागल के लिए शब्द है-लूनाटिक। वह भी चांद पूछना पड़े। कोई तर्क नहीं है। कोई सिद्धांत नहीं है। कोई उपाय से बनता है-लूनार, चांद-और लूनाटिक-वह भी नहीं सिद्ध करने का। लेकिन, जब किसी व्यक्ति में वैसे प्रेम का चांदमारा। चांद में कुछ है! सागर को आंदोलित कर देता है जन्म होता है, तो जिनको हम आंखें कहते हैं वे तो बंद हो जाती चांद। उठते हैं ज्वार। बड़ी लहरें आकाश छूने को! ठीक वैसा हैं, लेकिन कोई और आंख खुलती है—उसी को तो तीसरी ही कुछ मनुष्य के हृदय-सागर में भी होता है। पूर्णिमा की रात | आंख कहते हैं—कोई और आंख खुल जाती है। वह किसी और को कुछ घटता है। पूरे चांद के साथ कुछ तुम्हारे भीतर काव्य, | ढंग से देखने लगता है। संगीत, नृत्य का जन्म होता है। वैसा ही प्रेयसी को देखकर होता | तो स्वभावतः जिनको नहीं घटा है प्रेम, उन्हें प्रेमी पागल मालूम 194 2010_03 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव Salmation पड़े, अंधा मालूम पड़े; मगर अगर तुममें थोड़ी भी करुणा हो, तो | की नजर में आते ही हीरा हो जाता है। उसके पहले तो पत्थर ही भूलकर ऐसे शब्दों का प्रयोग मत करना। था। और तुम्हारे पास जौहरी की नजर न हो, तो तुम्हारे लिए भी इतना ही कहना : मुझे अभी घटा नहीं, मैं कुछ कह सकता | पत्थर है। नहीं। जिसको घटा है, वह जाने। और धन्यभाग समझना कि मराहूं हजार मरण कछ लोग हैं, जिनको परमात्मा अभी भी घटता है। क्योंकि उन्हीं पायी तब चरण-शरण में आशा है उन लोगों के लिए भी, जो अभी तर्क के जाल में और भक्त तो कहता हैव्यामोह में भटक रहे हैं। जो तुम्हें जाद-ए-मंजिल का पता देता है भक्त से पूछो, वह कहेगा अपनी पेशानी पे वो नक्शे-कदम लेके चलो मरा हूं हजार मरण अपने माथे पर रख लो वे चरण, जिससे तुम्हें मार्ग मिला, पायी तब चरण-शरण जिससे तुम्हें राह मिली। तुम कहोगे, अंधा है। वह कहता है, हजारों बार मरकर यह जो तुम्हें जाद-ए-मंजिल का पता देता है चरण मिले हैं। बड़ी मश्किल से मिले हैं। जिसने तुम्हें खबर दी मंजिल की। मरा हूँ हजार मरण अपनी पेशानी पे वह नक्शे-कदम लेके चलो पायी तब चरण-शरण लेकिन दूसरों को तो पागल ही लगेगा। दूसरे की तो समझ के बड़ी कीमत से पायी है उसने। जन्मों-जन्मों जिस हीरे को बाहर होगा कि यह क्या हो रहा है? खोजा, अब पाया है। तुम कहोगे, पत्थर लिये बैठा है। हीरे को दूसरे की चिंता मत करें। अगर समर्पण घटा हो, तो वह इतना देखने के लिए जौहरी की आंख चाहिए। बहुमूल्य है कि सारी दुनिया भी कहती हो कि तुम अंधे हो, तो मैंने सुना है, एक आदमी अपने गधे के गले में एक हीरा | समर्पित व्यक्ति कहेगा, अंधा होने को राजी हूं, लेकिन समर्पण लटकाये चला जा रहा था। एक जौहरी ने देखा, चकित हो छोड़ने को नहीं। अगर न घटा हो समर्पण अब तक जीवन में, तो गया! लाखों का हीरा होगा और यह गधे के गले में लटकाये हुए जरा खोजबीन करना कि क्या पाया है समर्पण-हीन जीवन में? है! उसने पूछा, क्या लेगा इस पत्थर का? उस आदमी ने कहा, | क्या पाया है? कचरा ही कचरा, राख ही राख पाओगे। अंगारा एक रुपया दे दें। उस जौहरी ने कहा, चार आने में देना है? | भी न मिलेगा जलता हुआ एक। शास्त्रों की राख मिलेगी, सत्य पत्थर है, करेगा क्या? उसने कहा अब चार आने तो रहने दो का अंगारा न मिलेगा। परंपरा की धूल मिलेगी, परमात्मा का बच्चे खेल लेंगे! उस जौहरी ने सोचा कि आयेगा, चार आने भी दर्पण न मिलेगा। तो अपने भीतर ही खोजना कि अब तक कौन देनेवाला है इसको! जौहरी जरा दो-चार कदम आगे चला अंधविश्वास से जीये हैं, तो अब एक बार समर्पण की आंख से गया, तभी तक दूसरा जौहरी आया। उसने एक हजार रुपये में भी जीकर देख लें, यह नयी शैली भी अपना कर देख लें। वह खरीद लिया पत्थर। लौटकर जौहरी आया भागा हआ, कहा समर्पित व्यक्ति को तो धीरे-धीरे पता चलता है कि जो चरण क्या हुआ, बेच दिया? कितने में बेच दिया? उसने कहा, हजार उसने पकड़े थे, वह पराये चरण न थे; और जिसका हाथ अपने रुपये में। पहले जौहरी ने कहा, पागल हए हो! अरे, वह लाखों | हाथ में लिया था, वह पराया हाथ न था। और जिसके साथ चल का हीरा था! उस गधे के मालिक ने कहा कि मैं पागल होऊ या पड़े थे, वह अपनी ही नियति थी,अपना ही भविष्य था। न होऊं, मुझे तो पता नहीं कि वह हीरा था, इसलिए हजार में बेच निराकार! जब तुम्हें दिया आकार, स्वयं साकार हो गया दिया: तझे तो पता था कि हीरा है, एक रुपये में लेने को त राजी यग-यग से मैं बना रहा था मर्ति तम्हारी अकल, अलेखी न हुआ! आज हुई पूरी तो मैंने शकल खड़ी अपनी ही देखी। हीरा अपने-आप में थोड़े ही हीरा है! पड़ा रहता है हजारों वर्ष । लेकिन इससे भी बढ़कर अपराध कर गयी पूजन-बेला, तक, जब तक कि किसी जौहरी की नजर में नहीं आता। जौहरी तुम्हें सजाने चला फूल जो, मेरा ही शृंगार हो गया। 1951 2010_03 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 2 तुम जिसे पकड़ रहे हो, वह तुम्हारे ही होने की संभावना है। पाया! पाया कुछ भी नहीं। खोया जरूर। पूछनेवाला चकित अगर मेरे पास तुम्हें कुछ रस मिला है, तो रस मुझसे नहीं मिला हुआ, उसने पूछा, खोया! पाया कुछ भी नहीं? बुद्ध ने कहा, है, वह तुम्हारे भीतर ही झरा है। अगर मेरे पास तुम्हें कुछ पाया तो वही जो पहले से ही मिला हुआ था। पता न था, दिखायी पड़ा है, तो वह तुम्हारा ही भविष्य है, वह तुम्हारा ही पहचान हुई। इसलिए उसको पाया, ऐसा कहना तो ठीक नहीं। आनेवाला कल है, वह तुम्हारी ही संभावना है; तुम्हारी नियति, | जो जेब में ही पड़ा था, भूल गये थे, हाथ डाला, मिल गया। तुम्हारा भाग्य! अगर तुम मेरे सामने झुके हो, तो वह तुम अपने पाया क्या! था अपना, सदा से, पता न था, पता हुआ। बोध ही भविष्य के सामने झुके हो, जैसे बीज अपने ही फूल के सामने हुआ। उसी बोध से तो शब्द बुद्ध बना। बुद्ध ने कहा, परमात्मा झुक जाए। | को पाना नहीं है, सिर्फ बोध करना है। है तो है ही। मौजूद ही है। निराकार! जब तुम्हें दिया आकार स्वयं साकार हो गया वही तुम्हें भरे है। वही तम्हें घेरे है—बाहर-भीतर, सब दिशाओं तुमने अगर किसी को महिमा दी, तुम महिमावान हो गये। में, चहुं-ओर-चहुं दिशाओं में। पाना नहीं है। पाने में तो ऐसा तुमने अगर किसी को प्रभु कहकर पुकारा, उसी क्षण तुम्हारा प्रभु लगता है जैसे कि कहीं जाना है; जो है नहीं, उसे पाना है। नहीं, जन्मा। तुम अगर किसी चरण में झुके, तो तुम्हारे चरण किसी के सिर्फ जागना है। जानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है। लिए झुकने योग्य होने लगे। और बुद्ध ने कहा, खोया बहुत। वह सब खोया, जो मेरे पास निराकार! जब तुम्हें दिया आकार स्वयं साकार हो गया । नहीं था और सोचता था कि है। इसे थोड़ा समझना, बड़ा युग-युग से मैं बना रहा था मूर्ति तुम्हारी अकल, अलेखी विरोधाभास है। जो सोचता था कि नहीं है, वह था। और जो आज हुई पूरी तो मैंने शकल खड़ी अपनी ही देखी। सोचता था कि है, वह नहीं है। अहंकार खोता है, आत्मा मिलती जिस दिन तुम मेरे बिलकुल करीब आ जाओगे और मुझे ठीक है। अहंकार कभी भी नहीं है, और आत्मा सदा है। से जान लोगे, उस दिन तुम पाओगे, अरे! पकड़ने दूसरे को मुझसे पूछते हो, आपने सिद्ध होकर क्या पाया? पाया कुछ चला था, यह तो अपने को ही पा लिया। भी नहीं, खोया। पाने को यहां कछ है ही नहीं। पाने की दौड़ ही लेकिन इससे भी बढ़कर अपराध कर गयी पूजन-बेला संसार है। जब तक तुम पाने के पीछे पड़े हो, तब तक तुम संसार तुम्हें सजाने चला फूल जो, मेरा ही शंग में रहोगे। इसलिए सांसारिक आदमी अगर धार्मिक भी होने तुमने जो भी श्रद्धा से, समर्पण से कहीं चढ़ाया है, वह तुम्हीं पर लगता है, तो भी पूछता है, मिलेगा क्या? चढ़ गया है। तुम जहां भी श्रद्धा और समर्पण से आंख उठाये हो, | मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं ध्यान तो करें, लेकिन वह तुम्हारे ही भविष्य का गृह है। वह तुम्हारे ही भविष्य, तुम्हारी | मिलेगा क्या? स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। तुम पूछो ही संभावनाओं का सूत्र है। वह तुम्हारी नियति है। तुलसीदास को कि क्या मिलता है? राम की कथा कहे चले जा रहे हो, पाया क्या? स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। वह आखिरी प्रश्नः आपने सिद्ध होकर क्या पाया? और क्या कहेंगे, मौज है, मजा है, पाने का कोई सवाल ही नहीं। यह आप निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि परमात्मा है? आनंद-भाव है। यह आनंद में खिले फूल हैं। पाने के लिए नहीं। यह कोई वासना नहीं है। कोई लोभ नहीं है। कोई पाने की सिद्ध होकर कुछ पाया नहीं जाता। सब खो जाता है। कुछ दौड़ नहीं, कोई चाह नहीं है। बचता ही नहीं। वही पाना है। शून्य मिलता है सिद्ध होकर। मिला कुछ भी नहीं, खोया बहुत। खोया सब। पूरा का पूरा लेकिन वही शून्य पूर्ण का आवास है। पाने की भाषा में तो पूछो | खोया। लेकिन उस खो जाने में ही उसका आविर्भाव होता है, जो ही मत, क्योंकि वह लोभ की भाषा है। क्या पाया? कुछ भी | दबा था। इस कूड़े-कर्कट में जो दबा था हीरा, वह प्रगट हुआ। नहीं पाया। | अपने से पूछो! मुझसे पूछते हो, सिद्ध होकर क्या पाया? मैं बुद्ध से किसी ने यही सवाल पूछा था। तो बुद्ध ने कहा, तुमसे पूछता हूं, संसारी होकर क्या पाया? 196 2010_03 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख की स्वीकृति : महासख की नींव लड में घुमाया जाए। संभ पीड़ा ही मिली तुम दौड़े चले जाते हो इतने परेशान, इतने सब्जा-ओ-बर्गो-लाला-ओ-सर्वो-समन को क्या हुआ उसका नाम-धाम भी उसे पता न रहा। वह युद्ध के भी किसी सारा चमन उदास है, हाय चमन को क्या हुआ काम का न रहा। लेकिन उसे भेजें कहां? उसके घर का भी कोई मैं तुमसे पूछता हूं, इतने उदास हो, तुम्हें हुआ क्या? इतने | पता नहीं। फिर किसी ने सलाह दी—मनोवैज्ञानिक ने कि दुखी, इतने कातर, इतने हारे-थके, इतने निराश! इंग्लैंड कोई बहुत बड़ा देश नहीं है, इसको ट्रेन में बिठाकर सारे सारा चमन उदास है, हाय चमन को क्या हुआ इंग्लैंड में घुमाया जाए। संभव है अपने गांव के स्टेशन पर पहुंचे मैं तुमसे पूछं, इतने बीमार, इतने रोते, इतने परेशान, इतने तो याद आ जाए। बात काम कर गयी। उसे ले जाया गया पीड़ित, फिर भी तुम दौड़े चले जाते हो उन्हीं रास्तों पर, जिनसे स्टेशन-स्टेशन। जो लोग ले गये थे वे भी थक गये। क्योंकि हर पीड़ा ही मिली है। फिर भी दौड़े चले जाते हो उन्हीं पटरियों पर | स्टेशन पर ले जाकर उसको उतारकर खड़ा कर देते, वह खड़ा जिन पर नर्क ही मिला! फिर भी दौड़े चले जाते उसी क्रोध, उसी देखता रह जाता। माया, उसी लोभ, उसी मोह में, जिनसे सिवाय...सिवाय कांटों | लेकिन एक छोटे गांव के स्टेशन पर उतारना न पड़ा। जैसे ही के और कुछ भी न छिदा! तुम मुझसे पूछते हो कि आपको क्या | उसे गांव की तख्ती दिखाई पड़ी, अरे! उसने कहा, मेरा गांव! मिला? तुम्हारा दुख खो गया, वह मेरे पास नहीं है। तुम्हारे कांटे | वह नीचे उतरकर भागने लगा। लोगों ने उसे रोकना भी चाहा, खो गये हैं, वे मेरे पास नहीं। तुमसे मैं अगर ठीक से कहूं, तो | उसने कहा, रोको मत! अब मुझे जाने दो। मेरा गांव आ गया। तुम्हारे पास जो है, वह मेरे पास नहीं है। इतना तो पक्का! वह | जो मनोवैज्ञानिक उसे लेकर घूम रहे थे, वह उसके पीछे गये। खोया। कोई चाह नहीं, कुछ पाने की यात्रा नहीं, कोई दौड़ नहीं। वह सीधा भागता हुआ, गांव की गलियों को पार करता हुआ, अपने घर आ गये। अपने घर के द्वार पर पहुंच गया। उसने कहा, यह रहा मेरा घर। नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिये वह मेरी मां बैठी है। घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात क्या हुआ? पड़ी थी याददाश्त गहन में। वह नामपट स्टेशन नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिए! का चोट कर गया। तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, यह जो शराब का तूफान तुम्हारे | इसीलिए तो जाननेवालों ने कहा है, परमात्मा को पाना थोड़े ही सामने है? है, सिर्फ स्मरण करना है। सुमिरण कीजै। सुरति जगाइये। नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिए स्मृति भरिये। पड़ा है गहन में तुम्हारे, पुकारिये, चिल्लाइये, घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात आवाज लगाइये। किसी क्षण मेल खा जाएगा, किसी क्षण • शराब बरसी। मधुशाला मिली। लेकिन यह मिलन कुछ ऐसा | स्मरण पकड़ जाएगा, किसी क्षण तुम्हारी पुकार के कुंदे में उलझा नहीं कि अपना न था, पहचान हई। सदा से अपना ही था। हुआ ऊपर आ जाएगा। भागने लगोगे—यह रहा घर, यह आ खजाना अपना था, चाभी अपने हाथ में थी, ताला खोलना भूल | गया घर; खोया संसार, पाया उसे जो मिला ही हुआ था। गये थे। याद आ गयी, स्मरण हुआ, सुरति आयी। संसार नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिये खोया, परमात्मा मिला, ऐसा कहना गलत होगा। परमात्मा घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात। मिला ही हुआ था। संसार की उधेड़-बुन में भूल गये थे घर की | पानेवाले को कुछ नहीं मिलता। खोनेवाले को सब कुछ याद। बाजार में खो गये थे। मिलता है। पानेवाले भटकते हैं, रोते हैं, झीखते हैं; खोनेवाला ऐसा हुआ दूसरे महायुद्ध में। एक आदमी चोट खाकर गिरा | | भर जाता है, पूरा हो जाता है। युद्ध के स्थल पर, उसकी स्मृति खो गयी। जब युद्धस्थल से उसे तुझे ढूंढ़ता हूं तेरी जुस्तजू है उठाकर लाया गया, तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गयी। युद्धस्थल | मजा है कि खुद गुम हुआ चाहता हूं में उसका तगमा, उसका नंबर भी कहीं गिर गया। और उसकी तम अगर दंढ ही रहे हो, खोज ही रहे हो. तो न पा सकोगे। स्मृति भी खो गयी। अब वह कौन है, यह भी न बता सके। मजा है कि खुद गुम हुआ चाहता हूं 197 __ 2010_03 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 SA परमात्मा की खोज अपने को खोने की खोज है। परमात्मा को पाने का उपाय स्वयं को डुबाना और मिटाना है। तुम जब तक हो, परमात्मा न हो सकोगे। तुम्हीं तो बैठे परमात्मा की छाती पर पत्थर होकर। हटो, जगह खाली करो! तुम पत्थर की तरह हटे कि परमात्मा का झरना फूटा। अब तुम पूछते हो, 'आप निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि परमात्मा है?' निश्चयपूर्वक तो नहीं कह सकता। उसका कारण है। क्योंकि निश्चयपूर्वक हम उन्हीं बातों को कहते हैं, जिनका कुछ अनिश्चय होता है। सरलतापूर्वक कह सकता हूं कि परमात्मा है, निश्चयपूर्वक नहीं। क्योंकि अनिश्चय मुझे जरा भी नहीं है, तो निश्चय किसके खिलाफ खड़ा करूं? जब हम कहते हैं, दृढ़ता से, तो उसका मतलब यह होता है कि भीतर कुछ कमजोरी पड़ी है। जब हम कहते हैं निश्चय से, तो उसका मतलब यह होता है कि भीतर कुछ अनिश्चय है। सरलता से कहता हूं। ध्यान रखना मेरा वचन, सरलता से कहता हूं-परमात्मा है। परमात्मा ही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। आज इतना ही। 198] 2010_03 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 2010_08 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 ग्यारहवां प्रवचन समता ही सामायिक Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 2010_03 इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा । तम्मुत्ती तप्रकारे, उवउत्ते इरियं रिए । । १०८ ।। समभावो सामइयं, तणकंचण - सत्तुमित्तविसओ त्ति । निरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं च । । १०९ ।। वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं, परम समाही हवे तस्स । । ११० ।। झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमणं । । १११ ।। णियभावं ण वि मुच्चइ, परभावं णेव गेहए के जादि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी । । ११२ । । ww Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्र था ऐसा जैसे कि नदी चलती रहती है, ऐसा संन्यासी चलता रहे। इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा। कहीं ठहरे न, कहीं मन को न लगाये, कहीं डबरा न बनाये, तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए।। बहाव तोड़े न, बहाव बना रहे। साधारणतः मनुष्य इंद्रियों के विषय-भोग के चिंतन में लीन यह बात बड़ी गहरी थी, इसे बड़े ऊपरी अर्थों में पकड़ लिया रहता है। पांच इंद्रियां हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, पांच ही गया। जैन-मुनि अब भी चलता है, एक गांव से दूसरे गांव मनुष्य के चिंतन के विषय हैं। बदल लेता है। लेकिन भीतर का बहाव कहां है! भीतर तो सब 'इंद्रियों के विषय तथा पांच प्रकार के चिंतन-कार्य को छोड़कर | जड़ है, सब ठहरा हुआ है। भीतर गति कहां है? और महावीर केवल गमन-क्रियाओं में तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्व देकर | ने कहा है, गति धर्म है; अगति अधर्म है। उपयोगपूर्वक, जागृतिपूर्वक चलना चाहिए।' - महावीर से ज्यादा क्रांतिकारी विचारक धर्म के जगत में दसरा जो हम कर रहे हैं, वह हम शायद ही मनःपूर्वक करते हैं। जो नहीं हुआ। किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं कहा है, कि अगति अधर्म हम करते हैं, यंत्रवत करते हैं। मन और हजार काम करता है। है और गति धर्म। चलते ही रहना है। कहीं ठहरना नहीं। कहीं जैसे राह पर चल रहे हैं—शरीर तो राह पर होता है, मन न रुकना नहीं। रुकने का अर्थ है, राग बना। रुकने का अर्थ है, न कहीं और। हो सकता है घर पर हो, दुकान पर हो, मंदिर आसक्ति बनी। रुकने का अर्थ है, वस्तु महत्वपूर्ण हो गयी, में हो, लेकिन एक बात सुनिश्चित है कि वहां नहीं होगा जहां तुम बहुत महत्वपूर्ण हो गयी, उसने तुम्हारे लिए कारागृह बना हो। जिस दिन मन वहां हो जाए जहां तुम हो, उसी दिन लिया। अब तुम मुक्त न रहे, बंध गये। इसका यह अर्थ न था आत्मबोध का प्रारंभ होता है। मन का और शरीर का एक-साथ, कि कहीं साधु ठहरे न। इसका अर्थ था, साधु का चित्त कहीं ठहरे एक-ही स्थान, एक-ही काल में हो जाना ध्यान है। मन और न। तो जैन-मनि अब भी चलता है, लेकिन चित्त तो कभी का शरीर अलग-अलग चलते रहते हैं। और जब तक उन दोनों का बंध गया है, हजार तरह के बंधनों में। मिलन न हो, तब तक तुम्हें उसका पता न चल सकेगा जो दोनों| इसलिए महावीर अपने मुनियों को कहते हैं चलते समय, के पार है। | उपयोगपूर्वक चलना। चलना अकेला काफी नहीं है। गति महावीर चलने पर जोर देते हैं। क्योंकि महावीर का जो अकेली काफी नहीं है। क्योंकि अगर गति अकेली हो और संन्यासी है, वह परिव्राजक था। वह चलता रहता है एक गांव से | विवेक न हो पीछे, तो गति विक्षिप्त करेगी। देखें, पूरब में डबरे दसरे गांव। महावीर ने कहा है कि संन्यासी रुके न। यह प्रतीक बन गये हैं चेतना के। परंपरा, रूढ़ि, अतीत बहुत बोझिल होकर | था। यह प्रतीक लोगों ने बड़ी जड़ता से पकड़ लिया। यह प्रतीक बैठ गया है पत्थर की तरह छाती पर। तो पूरब में डबरे बन गये 203 2010_03 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग:2 EUR हैं। कोई गति नहीं मालूम होती। सागर की तरफ बहाव नहीं सोते उसी इंद्रिय पर बार-बार लौट आते हो। भोजन का दीवाना मालूम होता। भोजन के ही संबंध में सोचता रहता है। लेकिन एक अर्थ में लोग पश्चिम की बजाय ज्यादा शांत हैं। नीरो के संबंध में कहा जाता है कि वह इतना भोजन के लिए गरीब हैं, दीन हैं, हीन हैं, दुखी हैं, फिर भी शांत हैं। सुविधा नहीं | पागल था कि भोजन करते-करते ही रात सो जाता था। और है, सुख नहीं है, शायद भोजन-वस्त्र-छप्पर भी नहीं है, तो भी उठते से ही भोजन की मांग शुरू हो जाती। इतना ज्यादा भोजन पश्चिम के मुकाबले ज्यादा शांत हैं—कम बेचैन हैं। कोई कर नहीं सकता। क्योंकि भोजन की एक सीमा है, एक पश्चिम में गति पर जोर है। प्रगति पर जोर है। दौड़ो, | जरूरत है। तो उसने चिकित्सक रख छोड़े थे। वह भोजन करे, प्रतिस्पर्धा करो, जीवन भागा जाता है। रुको मत। भागते ही | चिकित्सक उसे जल्दी से वमन करवा दें, ताकि वह फिर भोजन रहो। इसलिए स्पीड, गति को रोज-रोज नया विकास मिलता कर सके। पेट भरा हो तो कैसे भोजन करोगे? तो वमन। ऐसा चला जाता है। परिणाम यह हुआ कि पश्चिम पागल होने के | पागल कोई आदमी नहीं हुआ, जैसा नीरो पागल था। लेकिन करीब है। धन भी है, सुविधा भी है—गति हो तो सुविधा बढ़ती | थोड़ा-बहुत नीरो तुम अपने में छिपा हुआ पाओगे। जब पेट भर है, धन बढ़ता है, समृद्धि बढ़ती है, विज्ञान बढ़ता है; सब | गया हो, तब भी तुम भोजन किये चले जाओ, तब थोड़ा-बहुत दिशाओं में संपन्नता बढ़ती है, बढ़ी—लेकिन आदमी भीतर से | अंश में नीरो तुम्हारे भीतर है। नीरो अतिशयोक्ति है। तुम भी दौड़-दौड़कर थक गया, टूट गया। दौड़-दौड़कर यह याद ही न | लेकिन उसी दिशा में गतिमान हो। रही कि मैं कौन हूं। दौड़-दौड़कर यह भी भूल गया कि कहां जा पेट भर गया हो, फिर भी बैठकर तुम भोजन का चिंतन रहा हूं। दौड़ना ही याद रहा, मंजिल का पता दौड़ में खो गया। करो—अतीत भोजनों का, या भविष्य में होनेवाली संभावनाओं आपाधापी में आत्मा का स्मरण ही न रहा। का-तो भी तुम पागल हो। क्योंकि भोजन पेट का काम है। दौड़ बहुत है। लेकिन क्या महावीर ऐसी ही दौड़ को कहते | चिंतन-धारा में भोजन की इतनी छाया पड़े तो कहीं कुछ रुग्ण हो हैं? पश्चिम तो विक्षिप्त हुआ जा रहा है। पूरब मुर्दा हुआ जा | गया। कहीं कुछ चूक हो गयी। कहीं तुम्हारे भीतर से जीवन का रहा है, पश्चिम पागल हुआ जा रहा है। महावीर कहते हैं, डबरे | सहज संयम उखड़ गया। तुम्हारी चूल ढीली पड़ गयी। तुम्हारा मत बनना। लेकिन विक्षिप्त तूफान भी मत बनना। चलना, चाक डगमगाने लगा। जरूरत जितनी है उससे ज्यादा चिंतन विवेकपूर्वक। गति + विवेक। गति + उपयोग। गति + चैतन्य। | घातक है। फिर चिंतन से घाव बनता है। तो तुम डबरे की तरह सड़ भी न पाओगे और दौड़नेवाले की तरह | फिर मजा है कि शरीर की जरूरत तो पूरी हो जाती है, चिंतन से पागल भी न हो जाओगे। न तो तुम लाश बनोगे, न तुम बवंडर | जो घाव बनता है वह जरूरत कभी पूरी नहीं होती। भोजन की तो बनोगे। इन दोनों के बीच तुम्हारे जीवन की महिमा का अवतरण | पूर्ति है, स्वाद की कहां पूर्ति है ! भोजन तो एक मात्रा में शरीर को होगा। उस संतुलन को साध लेना ही संयम है। भर देगा, जरूरत पूरी कर देगा, स्वाद की कोई मात्रा कभी भी मन कहते हैं महावीर, इंद्रियों के पांच विषय हैं, इसलिए मन में | को तृप्त नहीं कर पाती। पांच तरह के चिंतन चलते हैं। तुम्हें खोजना चाहिए कि तुम किस | मधु पीते-पीते थके नयन इंद्रिय पर अत्यधिक चिंतन करते हो। कुछ हैं, जो भोजन का ही | फिर भी प्यासे अरमान! चिंतन करते हैं; कुछ हैं, जो रूप का चिंतन करते हैं; कुछ हैं, | कुछ है प्यास जो मिटती नहीं। न पीने से, न खाने से, न भोगने जिन्हें वाणी में, संगीत में, ध्वनि में रस है, वे उसी का चिंतन | से... । करते हैं। कुछ हैं, जो स्पर्श का चिंतन करते हैं, आलिंगन का, | मधु पीते-पीते थके नयन चुंबन का, इसका चिंतन करते हैं। फिर भी प्यासे अरमान! लेकिन अगर तुम गौर करोगे, तो तुम पकड़ लोगे कि तुम किस | जीवन में मधु, मधु में गायन, इंद्रिय का बहुत अधिक चिंतन कर रहे हो। चलते, बैठते, उठते, गायन में स्वर, स्वर में कंपन, 204 2010_03 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समता ही सामायिक मा R itematic कंपन में सांस, सांस में रस, आवश्यकता पूरी हुई कि क्रिया रुक जाती है। आवश्यकता से रस में विष, विष मध्य जलन, रंचमात्र ज्यादा नहीं जाती। न केवल यह आध्यात्मिक अर्थों में जलन में आग, आग में ताप, महत्वपूर्ण है, यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है। ताप में प्यार, प्यार में पीर, मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते हैं, भोजन हम ज्यादा कर पीर में प्राण, प्राण में प्यास, जाते हैं, क्या करें? तो मैं उनसे कहता हूं, होशपूर्वक भोजन प्यास में तृप्ति, तृप्ति का नीर, करो। और कोई डाइटिंग काम देनेवाली नहीं है। एक दिन, दो और यह तृप्ति, तृप्ति ही क्षणिक, दिन डाइटिंग कर लोगे जबर्दस्ती, फिर क्या होगा? दोहरा टूट विश्व की मीठी-मीठी मधर थकान! पड़ोगे फिर से भोजन पर। जब तक कि मन की मौलिक व्यवस्था फिर भी प्यासे अरमान! नहीं बदलती, तब तक तुम दो-चार दिन उपवास भी कर लो तो एक कदम दूसरे कदम पर ले जाता है। दूसरा तीसरे पर ले क्या फर्क पड़ता है। फिर दो-चार दिन के बाद उसी पुरानी आदत जाता है। वर्तुल बड़ा होता चला जाता है। में सम्मिलित हो जाओगे। मूल आधार बदलना चाहिए। मूल लेकिन मौलिक प्यास अपनी जगह बनी रहती है। क्योंकि उस आधार का अर्थ है, जब तुम भोजन करो, तो होशपूर्वक करो, तो मौलिक प्यास का संबंध जीवन की आवश्यकता से नहीं रहा, तुमने मूल बदला। जड़ बदली। उस मौलिक प्यास का संबंध मन की अनंत भूख से जुड़ गया, होशपूर्वक करने के कई परिणाम होंगे। एक परिणाम होगा, अनंत आकांक्षा से जुड़ गया। मन के क्षितिज से जुड़ते ही कोई ज्यादा भोजन न कर सकोगे। क्योंकि होश खबर दे देगा कि अब भी प्यास तृप्ति की सीमा के बाहर हो जाती है। दुष्पूर हो जाती है, शरीर भर गया। शरीर तो खबर दे ही रहा है, तुम बेहोश हो, उसे भरा नहीं जा सकता। इसलिए खबर नहीं मिलती। शरीर की तरफ से तो इंगित आते ही महावीर कहते हैं अपने संन्यासी को कि तू इंद्रियों के सारे रहे हैं। शरीर तो यंत्रवत खबर भेज देता है कि अब बस, रुको। विषय, उनका चिंतन, उनका मनन छोड़कर चलता हो, तो मगर वहां रुकनेवाला बेहोश है। उसे खबर नहीं मिलती। शरीर बस चलना। इतना ही ध्यान रहे, उपयोगपूर्वक) उपयोग तो टेलीग्राम दिये जाता है, लेकिन जिसे मिलना चाहिए वह सोया महावीर का अपना पारिभाषिक शब्द है। उपयोग का अर्थ है, | है। उसे कुछ पता नहीं चलता। फिर धीरे-धीरे इस बेहोशी की होशपूर्वक, योगपूर्वक। उपयोग का अर्थ है, योगपूर्वक चलना। मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि शरीर की सूचनाओं का खटका भी भीतर का दीया डगमगाये न। भीतर एक सहज स्मरण बना रहे | मालूम नहीं होता। कि मैं चल रहा हूं, मैं चल रहा हूं। होशपूर्वक भोजन करो। भोजन करते वक्त सिर्फ भोजन करो। यह तो उदाहरण के लिए महावीर ने कहा। ऐसा ही स्मरण | उस समय न बाजार की सोचो, न व्यवसाय की सोचो, न सभी क्रियाओं के साथ धीरे-धीरे जोड़ देना। हर क्रिया के साथ राजनीति की सोचो-न धर्म की सोचो। उस समय कुछ सोचो भीतर का दीया जुड़ जाए। भोजन करते वक्त, भोजन कर रहा हूं ही मत। उस क्षण तुम्हारा सारा उपयोग, उस क्षण तुम्हारा सारा ऐसा होश बना रहे, तो तुम ज्यादा भोजन न कर सकोगे। तुम | बोध भोजन करने की सहज-क्रिया में संलग्न हो। तो पहली चकित हो जाओगे। ज्यादा भोजन तभी कर लेते हो जब तुम्हें | बात, जैसे ही शरीर खबर देगा रुकने का क्षण आ गया, वह तुम्हें होश नहीं रहता। अगर मित्र आ गये हैं घर पर, तो तुम ज्यादा | सुनायी पड़ेगा। दूसरी बात, अगर तुम होशपूर्वक भोजन करोगे, भोजन कर लेते हो। क्योंकि मित्रों के साथ मस्ती में, बातचीत में तो ज्यादा चबाओगे। बेहोशी में आदमी सिर्फ किसी तरह धकाये बेहोशी बढ़ जाती है। रेडियो चलाकर बैठ जाते हो, ज्यादा जाता है अंदर। जब तुम ठीक से चबाते नहीं, तो अतृप्ति बनी भोजन कर लेते हो! क्योंकि भोजन की स्मृति नहीं रह जाती, मन रहती है। रस उत्पन्न नहीं होता। शरीर में भोजन तो भर जाता है, रेडियो में जाता है, शरीर यंत्रवत भोजन को भीतर डालता चला लेकिन प्राण नहीं भरते। शरीर में भोजन है, लेकिन जाता है। जहां भी तुम होश को ले आओगे, वहीं पाओगे, यह भोजन पचेगा नहीं। यह मांस-मज्जा न बनेगा। इसलिए 2051 2010_03 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 शरीर की जरूरत भी पड़ी रह गयी। भोजन भी जरूरत से ज्यादा है। राह पर चल रहे हैं, कुछ करने जैसा कर भी कहां रहे हैं! उस भर दिया और शरीर की जरूरत भी पूरी न हुई। तो तुम दो अर्थों | समय इतना ही होश रहे कि चल रहा हूं। जब मैं यह कह रहा हूं में चूके। कि इतना होश रहे चल रहा हूं-जयं चरे–तो इसका यह अर्थ अगर होशपूर्वक भोजन करोगे...इसलिए समस्त धर्मशास्त्र नहीं है कि तुम भीतर दोहराओ कि मैं चल रहा हूं, मैं चल रहा हूं। कहते हैं, भोजन करते समय बोलो मत, बात मत करो, क्योंकि अगर तुमने ऐसा दोहराया, शब्द निर्मित किये, तो तुम चूक गये। बात तुम्हें हटायेगी, चुकायेगी। भोजन करते समय सिर्फ भोजन तुम शब्द में लग गये, फिर चूक गये। जब मैं कह रहा हूं जागकर करो। भोजन करते वक्त भोजन को ही ब्रह्म समझो। चलो, तो इसका केवल इतना ही अर्थ है, मन में कोई चिंतन न इसलिए उपनिषद कहते हैं-'अन्नं ब्रह्म।' और ब्रह्म के साथ चले। निर्मल दर्पण हो मन का, सिर्फ चलने की छाया पड़े; कम से कम इतना तो सम्मान करो कि होशपूर्वक उसे अपने | सिर्फ चलने का भान रहे-बेभान न चलो। भीतर जाने दो। कभी रास्ते के किनारे खड़े होकर देखना, लोग कितने बेभान इसलिए सारे धर्म कहते हैं, भोजन के पहले प्रार्थना करो, प्रभ चल रहे हैं। चले जा रहे हैं. जैसे नींद में हों अलसाये. को स्मरण करो। स्नान करो, ध्यान करो, फिर भोजन में जाओ, तंद्रिल! आंखों में कोई नशा, भीतर कोई मूर्छा, बेहोशी! ताकि तुम जागे हुए रहो। जागे रहे तो जरूरत से ज्यादा खा न अनेकों को तुम पाओगे कि वे बात करते चल रहे हैं, चाहे साथ सकोगे। जागे रहे, तो जो खाओगे वह तृप्त करेगा। जागे रहे, तो कोई भी न हो। उनके ओंठ फड़क रहे हैं, वे कुछ कह रहे हैं। जो खाओगे वह चबाया जाएगा, पचेगा, रक्त-मांस-मज्जा बहुतों को तुम पाओगे, वे हाथ से कुछ इशारे भी कर रहे हैं; बनेगा, शरीर की जरूरत पूरी होगी। और भोजन शरीर की | किसी अनजाने साथी को सिर हिलाकर हां भी भर रहे हैं; सिर जरूरत है, मन की जरूरत नहीं। हिलाकर ना भी कर रहे हैं। चल नहीं रहे हैं और बहत-कुछ कर जागे हुए भोजन करोगे तो तुम एक क्रांति घटते देखोगे कि रहे हैं। तुम अपने को बार-बार पकड़ो। यह चोर पकड़ में आ धीरे-धीरे स्वाद से आकांक्षा उखड़ने लगी। स्वाद की जगह जाए, यह मूर्छा का चोर तुम्हारी पकड़ में आ जाए और इसकी स्वास्थ्य पर आकांक्षा जमने लगी। स्वाद से ज्यादा मूल्यवान | जगह तुम उपयोग के पहरेदार को अपने जीवन में जगा लो, तो भोजन के प्राणदायी तत्व हो गये। तब तम वही खाओगे. जो | सब हो जाएगा। यह शरुआत है। शरीर की निसर्गता में आवश्यक है, शरीर के स्वभाव की मांग 'गमन-क्रिया में तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्व देकर है। तब तुम कृत्रिम से बचोगे, निसर्ग की तरफ मुड़ोगे। उपयोगपूर्वक चले।' महावीर कहते हैं, इस उपयोग की क्रिया को हर क्रिया से जोड़ हम जब चलते हैं, तब हम कुछ और करते हैं। जब हम कुछ देना है। स्नान करो, तो उपयोगपूर्वक। सुनो, तो उपयोगपूर्वक। | और करेंगे, तब शायद हम चलने के संबंध में सोचेंगे। हमारा जैसे मुझे तुम सुन रहे अभी। एक ही सम्यक ढंग है सुनने का। | मन बड़ा अस्त-व्यस्त है। असम्यक ढंग तो बहुत हैं। सम्यक ढंग एक ही है, और वह है कभी साहिल पे रह कर शौक तूफानों से टकराएं कि जब तुम सुन रहे हो, तो सिर्फ सुनो, सोचो मत। जब तुम सुन कभी तूफां में रह के फिक्र है साहिल नहीं मिलता रहे, तो सिर्फ कान ही हो जाओ। तुम्हारा सारा शरीर ग्राहक हो किनारे पर होते हैं तो तूफानों में टकराने की आकांक्षा पैदा होती जाए। सोच लेना पीछे। दो क्रियाएं एक साथ न करो। अभी है। तूफानों में उलझ जाते हैं, तो साहिल पर पहुंचने की, किनारे एक क्रिया में ही होश नहीं सधता, तो दो में कैसे सधेगा? एक में | पर पहुंचने की अभीप्सा होती है। साध लो, तो फिर दो में भी सध सकता है, फिर तीन में भी सध कभी साहिल ये रह कर शौक तूफानों से टकराएं सकता है, फिर और भी जटिल आधार उपयोग के लिये दिये जा कभी तूफां में रह के फिक्र है साहिल नहीं मिलता सकते हैं। | ऐसे तम जहां नहीं हो, वहां होते हो; जहां हो, वहां नहीं होते। छोटी-छोटी क्रियाओं से शुरू करो! चलना बड़ी छोटी क्रिया | पकड़ो अभी! यहीं हो? पूरे-पूरे यहीं हो? इस क्षण में तन्मय 206 2010_03 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता ही सामायिक हो? या मन कहीं और भी जा रहा है? मैं जो कह रहा हूं अगर कूड़ा-कर्कट और सोने में समभाव।। तुम उस पर सोचने भी लगे, तो चूके। क्योंकि सोचने का अर्थ 'शत्रु और मित्र में', कौन अपना है, कौन पराया है? आये है, तुम या तो अतीत में गये—पहले तुमने कुछ सुना होगा, पढ़ा अकेले, गये अकेले। आये खाली हाथ, गये खाली हाथ। न होगा, सोचा होगा, सार-संपदा है तुम्हारे विचारों की, उसका तुम कोई संगी-साथी लाये, न कोई संगी-साथी ले जाएंगे। दो दिन मेल-ताल बिठाने लगे...जो में कहता हूँ, ठीक कहता हूँ? जो का मेला है। नदी-नाव संयोग है। किसी को बना लिया मित्र, मैं कहता हूं तुमसे मेल खाता है? तुम्हारी स्वीकृति है या नहीं? किसी को बना लिया शत्रु। किसी को कहा अपना, किसी को या तुम आगे निकल गये। मैं कह रहा हूं जागकर चलो, तुम कहा पराया। सब अजनबी थे। और सब अजनबी हैं। अपना सोचने लगे-अच्छा, कल सुबह से जागकर चलेंगे। तो भी | ही पता नहीं, दूसरे का पता कैसे हो! खुद से तो पहचान नहीं हो चूक गये। तो भी भूल हो गयी। तुमने तय कर लिया मन में कि पायी अब तक, औरों की पहचान की तो बात ही छोड़ दो। कुछ ठीक है, अब यह बात समझ में आ गयी, अब जागकर ही काम अजनबियों को कहते हैं अपने और कुछ अजनबियों को कहते हैं करेंगे, तो भी चूक हो गयी, तो भी तुमने जागकर ही नहीं सुना तो पराये, कुछ अजनबियों को कहते हैं इन्हें हम पहचानते हैं, कुछ जागकर तुम चलोगे क्या! अजनबियों को कहते हैं इन्हें हम पहचानते नहीं। लेकिन सभी तो जैसे-जैसे तम पाओ कि मन छिटक-छिटककर भागता है, अजनबी हैं। किसे पहचानते हो तुम! पारे की तरह है—पकड़ो कि छिटक-छिटक जाता है, इधर से फिर हम कैसे निर्णय करते हैं कौन मित्र, कौन शत्रु? जिसका पकड़ो तो दूसरी राह खोज लेता है। मगर अगर तुम समझपूर्वक | हमारी वासनाओं में मेल खा जाए, वह मित्र। और जो हमारी मन का पीछा करते रहो, तो एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि मन वासनाओं में बाधा बन जाए, वही शत्रु। जो हमें धन की यात्रा में ठहर जाता है, रुक जाता है क्षण में। स्थिर। गीता उस स्थिति को साथ दे, वह मित्र। जो धन में अवरोध खड़े करे, हमारी परम स्थिति मानती है। ऐसे रुकते-रुकते एक घड़ी आती है। महत्वाकांक्षा में रोड़े अटकाये, वह शत्रु। जो हमें सहारा दे वह जबकि जरा भी कंपन नहीं होता, तो स्थितिप्रज्ञ, तो रुक गयी मित्र, जो सहारा न दे वह शत्र। लेकिन सहारा वासनाओं के प्रज्ञा। महावीर उसको ही उपयोग कहते हैं। | लिए ही हम मांग रहे हैं। पहले तो वासनाएं ही व्यर्थ हैं। पहले 'तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही | तो वासनाओं की दौड़ ही व्यर्थ है। सामायिक है।' तो महावीर कहते हैं, 'तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में जब तुम्हें उपयोग की कला आ जाए, तो बाहर की छोटी-छोटी समभाव रखना ही सामायिक है।' यह ध्यान की बड़ी गहरी चीजों की बजाय फिर उस उपयोग की कला का भीतर प्रयोग परिभाषा हुई। ध्यान की आत्यंतिक परिभाषा हुई। कहते हैं, शुरू करना। समता सामायिक है। सम्यकत्व, संतुलन, संयम; दो अतियों के 'तिनके और सोने में'-तब सोना और मिट्टी, दोनों के बीच | बीच डोलना न, बीच में खड़े हो जाना; न बायें, न दायें; मध्य में डावांडोल मत होना। तब यह मत कहना कि सोना मूल्यवान, | थिर हो जाना सामायिक है। प्रेम और घृणा कोई भी पकड़े न, मिट्टी ना कुछ। तब कंपना मत सोने और मिट्टी में। तब वहां भी | जन्म और मृत्यु कोई भी जकड़े न। न तो हम कहें किसी को कि कंपन छोड़ना। तब इतना ही कहना, यह सोना, यह मिट्टी। और | आओ, न हम कहें किसी को कि जाओ; न तो किसी के लिए आत्यंतिक अर्थों में तो मिट्टी हो कि सोना, सब बराबर है। | स्वागत हो और न किसी के लिए अपमान हो, ऐसी अवस्था को क्योंकि हम तो विदा हो जाएंगे और सब यहीं पड़ा रह जाएगा। | महावीर कहते हैं, सामायिक। जो पडा ही रह जाएगा, हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब बेकार बहाना, टालमटोल व्यर्थ सारी भी होगा, उसके साथ क्या राग-रस बनाना! जो छटेगा, उसके आ गया समय जाने का-जाना ही होगा साथ संबंध बनाना दुख के बीज बोना है। क्योंकि जब छूटेगा, । तुम चाहे कितना चीखो-चिल्लाओ, रोओ, तो पीडा होगी। तिनके और सोने में, मिट्टी और सोने में, | पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा 2010_03 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 कल खेला था अलियों-कलियों की गलियों में साथ है सदा से, वही साथ होगी सदा। आत्मा की परिभाषा ही अब आज मुझे मरघट में रास रचाने दो यही है, जो सदा से साथ है, जो स्वभाव है। कल मस्काया था बैठ किसी की पलकों पर इसलिए क्षण से बहुत व्यथित मत हो जाओ, शाश्वत पर ध्यान अब आज चिता पर बैठ मुझे मुस्काने दो। रखो। शाश्वत पर जिसका ध्यान है, उसकी सामायिक सध ही जिस जीवन में मौत छिपी है, जहां डेरा लग भी नहीं पाता कि जाएगी। अपने से सध जाएगी। क्योंकि उसके जीवन में जिन उखाड़ने का समय आ जाता है। ठोंक भी नहीं पाते खूटे-एक बातों से तनाव पैदा होता था, वे बातें अर्थहीन हो जाएंगी। तम्हें तरफ ठोंकना पूरा हो पाता है, दूसरी तरफ से उखड़ना शुरू हो कोई बता दे कि आज सांझ तुम्हें मरना है, मौत आ गयी; फिर जाता है। यह बाजार भर भी नहीं पाता कि संध्या हो जाती है। कोई गाली दे जाए, तो शायद तुम गाली का उत्तर भी न देना यहां मिलन हो कहां पाता, और विरह की यात्रा शुरू हो जाती है। चाहोगे। तुम कहोगे, अब क्या गाली का उत्तर देना, हम ही बेकार बहाना, टालमटोल व्यर्थ सारी चले! शायद तुम कहोगे, क्षमा ही मांग लें। कहोगे कि आ गया समय जाने का-जाना ही होगा भूल-चूक क्षमा करना। कुछ गलती हो गयी होगी, इसलिए तुम चाहे कितना चीखो-चिल्लाओ, रोओ, गाली दे रहे हो; अब मेरे जाने का वक्त आ गया, आज सांझ तो पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा। मुझे जाना है, अब क्या झगड़ा रोपना! अब क्या अदालतें खड़ी एक पल भी यहां ठहराव कहां है! बनाओ, मिटाओ; करनी। लेकिन तुम्हें पता नहीं कि मौत सांझ आ रही है, तुम ऐसे जमाओ, उखाडो खोलो, बंद करो। इस छोटी-सी क्षणभंगर | जीते हो जैसे सदा यहां रहना है। तो इंच-इंच जमीन के लिए लड व्यवस्था में हम मित्र भी बना लेते, शत्रु भी बना लेते। राग बना | जाते हो। रत्ती-रत्ती, कौड़ी-कौड़ी धन के लिए लड़ जाते हो। लेते, विराग बना लेते। धन सम्हालकर रख लेते, कूड़ा-कर्कट छोटे-मोटे पद के लिए लड़ जाते हो। हजार तरह के उपद्रव बाहर फेंक आते। और फिर एक दिन हम पड़े रह जाते, और जो अपने हाथ से खड़े कर लेते हो। इस बात को बिना सोचे-समझे सम्हाला था वह पड़ा रह जाता। महावीर कहते हैं, इसका बोध कि मेले में खड़े हो। इस बात को बिना सोचे-समझे कि यह कोई रहे, इसकी समझ रहे, तो तुम जकड़ोगे न, पकड़े न जाओगे, घर नहीं, धर्मशाला है। रात रुके, सुबह जाना है। महावीर कहते कारागृह न बनाओगे—तुम मुक्त रह सकोगे। होश मुक्ति है। हैं, यह बोध पक्का हो जाए, तो सामायिक। चीजें जैसी हैं उनको वैसे ही देख लेना मुक्ति है। कृष्ण ने कहा है: समत्व योग है-समत्वं योग उच्यते। सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है, लेकिन दोनों में से कोई भी समत्व एक योग है। महावीर कहते हैं, समता सामायिक है। तुम्हारा नहीं। मित्र, शत्रु, कौन तुम्हारा है? मित्र से मित्रता गिर वही बात कहते हैं : सामायिक का अर्थ होता है, ध्यान; आत्मा जाने दो, शत्रु से शत्रुता गिर जाने दो। तुम तो इस सत्य को में डूब जाना, तन्मय हो जाना। पहचानो कि तुम ही अगर अपने हो जाओ, तो बहुत काफी है। खयाल करेंतुम ही अगर अपने मित्र हो जाओ, तो काफी है। तुम ही अपने जब तक तुम बाहर उलझे हो, स्वयं में डूब न सकोगे। बाहर शत्रु न रहो, तो काफी है। बनाया मित्र, तो उलझे बाहर। बाहर बनाया शत्र, तो उलझे महावीर ने कहा, आत्मा ही अपना मित्र, आत्मा ही अपना शत्रु बाहर। बाहर सोचा पद पाना है, तो उलझे। बाहर सोचा कि धन है। अगर विकासमान हो तो मित्र, अगर ह्रासमान हो जाए तो | पाना है, तो उलझे। भीतर जानेवाले को बाहर की सभी बातें शत्रु। अगर आकाश की तरफ ले चले, पंख बन जाए तो मित्र, उलझा लेती हैं। और भीतर ही तुम हो। वहीं है पाने योग्य। वहीं अगर पाताल की तरफ गिराने लगे, अंधेरी गलियों में भटकाने है जाने योग्य। वहीं है परम सत्ता का निवास। वहीं है परमात्मा लगे, नरकों में डुबाने लगे, तो शत्रु। बाहर मत खोजो शत्रु और का आवास। तो भीतर जाने के लिए बाहर जितने कम से कम मित्र। वहां भीतर ही आत्मा से मैत्री बना लो, बस वही मैत्री काम उलझाव हों, उतने अच्छे। जो आदमी आनेवाली है। क्योंकि बस आत्मा ही साथ जानेवाली है। वही | मझधार की तरफ बहेगा कैसे? जो आदमी किनारे को न छोडे, 208| 2010_03 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता ही सामायिक वह नदी में बहेगा कैसे, तैरेगा कैसे ? किनारा तो छोड़ना होगा। ढलान पर, चिकनी मिट्टी पर तुम फिसल चले। एक बार हाथ से और जो इस किनारे को न छोड़े, वह उस किनारे की तरफ जाएगा | जंजीरें भर छूट जाएं। लेकिन जंजीरों को तुमने समझा है कैसे? बाहर को तुम अगर बहुत पकड़े हो, तो भीतर जाने की | आभूषण। तुम जंजीरों में लेते हो गौरव। तुम मानकर चलते हो चेष्टा व्यर्थ हो जाएगी। कि जंजीरें ही जीवन का सब कुछ हैं, सार हैं। कितना बड़ा अनेक लोग मेरे पास आते हैं. वे कहते हैं. ध्यान करना है। मकान है। कितना सोने का अंबार है। कितनी बडी की पर तम करते भी हैं, कहते हैं, लेकिन होता नहीं। ध्यान तो करना चाहते | बैठे हो! तुमने कारागृह को महल समझ रखा है। तो तुम छोड़ोगे हैं वे, लेकिन बाहर से संबंध शिथिल नहीं किये हैं। कहते हैं कैसे! पहले बाहर से थोड़े हाथ खाली करने होंगे। मझधार में उतरने का मजा लेना है, डुबकी लगानी है, मगर तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना देखता हूं, किनारों की जंजीरों को पकड़े रुके हैं। मझधार में जाने | सामायिक है।' की चेष्टा है, आकांक्षा है, किनारे को छोड़ने की हिम्मत और समभावो सामइयं, तणकंचण-सत्तुमित्तविसओ त्ति। समझ नहीं। ध्यान कैसे होगा? ध्यान तो अंतर्यात्रा है। निरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं च।। सामायिक है। 'राग-द्वेष एवं अभिष्वंग रहित उचित प्रवृत्ति प्रधान चित्त को तो महावीर कहते हैं, बाहर से थोड़े हाथ शिथिल करो, खाली सामायिक कहते हैं।' करो। बाहर से थोड़ी आंख बंद करो। अगर बाहर मित्र है, तो | 'राग-द्वेष से रहित।' न कोई अपना, न कोई पराया, न किसी बाहर की याद आयेगी; अगर बाहर शत्रु है, तो बाहर की याद से मोह, न किसी से क्रोध। आयेगी। खयाल रखना, मित्र ही नहीं बांधते, शत्रु भी बांध लेते | 'राग-द्वेष रहित, अभिष्वंग रहित उचित प्रवृत्ति प्रधान चित्त को हैं। अकसर तो ऐसा होता है कि मित्रों से भी ज्यादा शत्रुओं की सामायिक कहते हैं। बाहर नहीं जा रहा जो चित्त, भीतर जा रहा याद आती है। अकसर तो ऐसा होता है कि जिससे तुम्हें प्रेम है, जो चित्त, उसे सामायिक कहते हैं। ध्यान रखना, यहां महावीर उसकी चाहे तम विस्मति भी कर दो. लेकिन जिससे तम्हें घणा है के सत्र का बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है-प्रवत्ति प्रधान चित्त। एक और क्रोध है, उसे तुम भूल ही नहीं पाते। फूल तो भूल भी जाएं, तो प्रवृत्ति है बाहर की तरफ-सांसारिक, वह भी प्रवृत्ति है। कांटों को कैसे भूलोगे? चुभते हैं। अपनों को तो तुम विस्मरण महावीर कहते हैं, भीतर की तरफ आना भी प्रवृत्ति है। वह भी भी कर सकते हो, दुश्मनों को कैसे विस्मरण करोगे? और यह यात्रा है। वहां भी बल चाहिए। वहां भी विधायक बल चाहिए। बाहर के मित्र और बाहर के शत्रु, बाहर का धन और पद खींचते | तो महावीर भीतर आने को निवृत्ति नहीं कहते; उसे भी प्रवृत्ति हैं बाहर की तरफ। और भीतर तुम जाना चाहते हो। कहते हैं। बाहर जाना प्रवृत्ति है, भीतर आना प्रवृत्ति है। हां, जो लोग कहते हैं हम बड़े बेचैन हैं, शांति चाहिए। और यह भीतर पहुंच गया, वह निवृत्ति को उपलब्ध होता है। तो संन्यासी सोचते ही नहीं कि बेचैनी का कारण जब तक न मिटाओगे, शांति निवृत्त नहीं है, प्रवृत्त ही है। नयी प्रवृत्ति है उसकी, बाहर की तरफ कोई आकस्मिक थोड़े ही मिलती है! शांति कोई अनायास नहीं है। तीर उसका बाहर की तरफ नहीं जा रहा है, भीतर की आकाश से थोड़े ही बरस पड़ती है! शांति उसे मिलती है जिसने तरफ जा रहा है, लेकिन तीर अभी चढ़ा है, प्रत्यंचा अभी खिंची अशांति के कारणों से अपने हाथ अलग कर लिये। वे कारण हैं है। सिद्ध निवृत्त है। जो पहुंच गया, जो कहीं भी नहीं जा रहा है, बाहर के द्वंद्व में चुनाव करना। जो अपने घर आ गया, जिसने अपने केंद्र को पा लिया, वह कृष्णमूर्ति कहते हैं, 'च्वाइसलेस अवेयरनेस।' वही महावीर निवृत्त है। की सामायिक है। चनावरहित बोध। निर्विकल्प जागरूकता। न इसलिए साधारणतः हम संन्यासियों को निवृत्त कहते हैं, वह यह मेरा है, न वह मेरा है। न यह, न वह। फिर बाहर से हाथ गलत है। संन्यासी निवृत्त नहीं है। संन्यासी ने नई प्रवृत्ति खोजी। छूटे, फिर तुम चले भीतर। फिर तुम सरके भीतर। फिर तो तुम | ऊर्जा का नया प्रवाह खोजा। नयी यात्रा, नयी तीर्थयात्रा, पैरों के रोकना भी चाहोगे कि अब कैसे रुकें, तो न रुक पाओगे। जैसे लिए नया लक्ष्य, नया साध्य, नये क्षितिज। धन की आकांक्षा 209 2010_03 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 नहीं है अब, पद की आकांक्षा नहीं है अब, अब तो स्वयं को पाने अभी मिट्टी-पत्थर नहीं छूटे, हमसे ध्यान कैसे छूटेगा? हमसे की आकांक्षा है, स्वयं को पाने की अभीप्सा है, लेकिन वह भी धन नहीं छूटता, ध्यान कैसे छूटेगा ? ध्यान तो हमें पता ही नहीं, अभीप्सा है। इसलिए महावीर कहते हैं, जब तक सिद्ध न हो | अभी मिला ही नहीं, छूटने की तो बात ही दूर है! लेकिन ध्यान जाओ, तब तक रुकना मत, चलते ही जाना। जब ऐसी घड़ी आ | की परिपूर्णता तभी है, जब ध्यान भी व्यर्थ हो जाता है। जाए कि बाहर तो छूट ही जाए, भीतर भी छूट जाए क्योंकि | ध्यान तभी तक अर्थपूर्ण है, जब तक प्रवृत्ति शेष है। ध्यान बाहर और भीतर साथ-साथ जुड़े हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू औषधि है। अंग्रेजी का शब्द ध्यान के लिए है—मेडिटेशन। हैं। जब बाहर पूरी तरह छूटेगा, तो भीतर भी पूरी तरह छूटेगा; वह शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है। उसकी मूल धातु वही है जो अंग्रेजी और जब तक भीतर का कुछ बचा है तब तक बाहर का भी कुछ के दूसरे शब्द मेडिसिन की है। ध्यान औषधि है। बीमार जब दबे-छिपे बचा रहेगा—जब दोनों ही छूट जाएं, सिक्का हाथ से तक है, तब तक औषधि की जरूरत है। जब स्वस्थ हो गये, तो गिर जाए। | औषधि छूट जाती है। अगर स्वस्थ होने के बाद भी औषधि जारी महावीर ने आत्मा के तीन रूप कहे-बहिरात्मा ः संसार की रही, तो औषधि खुद ही रोग हो गयी, उपाधि हो गयी। छूटनी ही तरफ प्रवृत्ति; अंतरात्मा अपनी तरफ प्रवृत्ति; और परमात्माः चाहिए। ध्यान तो छुड़ाने को है, कि बाहर की दौड़ छूट जाए। प्रवृत्तिशून्यता, निवृत्ति। केवल परमात्मा निवृत्त है। महावीर को इसलिए भीतर की यात्रा है। जब बाहर की दौड़ बिलकुल छूट उनके भक्तों ने भगवान कहा है। महावीर के दर्शनशास्त्र में | गयी, तो भीतर की यात्रा किसलिए? बीमारी ही चली गयी, स्रष्टा की तरह भगवान के लिए कोई जगह नहीं है। सृष्टि | औषधि भी चली जाती है। अनादि है, किसी ने कभी बनायी नहीं। सष्टि का कोई मालिक, तो इसे खयाल रखना। ध्यान की अंतिम अवस्था जिसको कोई परमात्मा, कोई नियंता नहीं है। फिर महावीर के भक्तों ने पतंजलि ने समाधि कहा है, उस अंतिम अवस्था में ध्यान का भी महावीर को भगवान कहा, और महावीर ने कभी इनकार भी नहीं त्याग हो जाता है, परित्याग हो जाता है। और संन्यास की अंतिम किया किसी को कि मुझे भगवान मत कहो। भगवान को इनकार अवस्था में संन्यास भी व्यर्थ हो जाता है। वीतरागता की अंतिम करके फिर उन्होंने कैसे स्वीकार कर लिया स्वयं को भगवान अवस्था में वीतरागता भी व्यर्थ हो जाती है। यह सब साधन है। पुकारे जाना? | साध्य के आते ही साधन छूट जाते हैं। महावीर के विचार-जगत में भगवान का दूसरा ही अर्थ है। दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे हैं, जो कहते हैं अगर उसका कोई संबंध सृष्टि के बनाने से नहीं है। नियंत्रण से नहीं | ध्यान छोड़ना ही है, तो करें क्यों? एक वे, जो कहते हैं अगर है। भगवान का अर्थ है, निवृत्ति की परम दशा। जिसकी सब ध्यान किया, इतनी मुश्किल से साधा, सम्हाला, जन्मों की प्रवृत्ति जाती रही। धन तो छोड़ा ही, ध्यान भी छोड़ा। पद तो तपश्चर्या से, तो छोड़ेंगे नहीं। दोनों गलत हैं। ये ऐसे ही लोग हैं छोड़े ही, बाहर की दौड़ तो छोड़ी ही, भीतर की दौड़ भी जो कहते हैं, हम सीढ़ी चढ़ेंगे तो छोड़ेंगे नहीं। लेकिन सीढ़ी गयी-दौड़ ही गयी। जो सब भांति परम अवस्था में लीन हो छोड़ने के लिए है। चढ़ते जाओ, छोड़ते जाओ। और अगर अब कहीं जाने को न रहा. कछ पाने कोन सीढी पर रुक गये, तो छत पर न पहंचोगे। सीढी के आखिरी पैर रहा, जो पाना था पा लिया, जहां जाना था पहुंच गये, जो अपने पर भी रुक गये, तो भी छत पर पहुंचने से रुक गये। छोड़नी ही स्वभाव में लीन हो गया, स्वभाव की इस परम दशा को महावीर पड़ेगी सीढ़ी। सीढ़ी गुजर जाने को है। लेकिन दूसरे हैं तर्क से ने कहा, भगवान, भगवत्ता। और यही निवृत्ति की दशा है। भरे लोग, वे कहते हैं, अगर छोड़ना ही है, तो कौन झंझट उठाये साधारणतः हम बाहर का चिंतन करते हैं। भीतर का चिंतन तो चढ़ने की! तो हम यहां नीचे ही भले हैं। अभी ही छोड़े हुए हैं। हमने किया नहीं इसलिए हमें यह तो समझ के ही बाहर मालूम कृष्णमूर्ति निरंतर अपने शिष्यों को कहते रहे हैं, ध्यान व्यर्थ है। होगा कि ऐसी भी कोई घड़ी आती है, जहां भीतर का चिंतन भी ठीक कहते हैं, सौ प्रतिशत ठीक कहते हैं। लेकिन शायद जिनसे छूट जाता है। हमसे तो बाहर का चिंतन भी नहीं छूटा। हमसे तो कहते हैं, वे ठीक नहीं हैं। जिनसे कहते हैं, उनकी समझ के बाहर 210 2010_03 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता ही सामायिक है यह बात। पहले तो उन्हें ध्यान करवाओ, पहले तो उन्हें ध्यान पर सवार हैं, दोनों कहीं जा रहे हैं, दोनों का कोई लक्ष्य है। तीर पकड़ाओ, पहले तो बाहर से छुड़ाओ, भीतर की यात्रा पर प्रत्यंचा पर चढ़ा है, अभी तरकस में नहीं पहुंचा। हम तो बाहर चलाओ, भीतर की प्रवृत्ति दो, फिर एक दिन जब भीतर की की ही सोच-सोचकर मरे जाते हैं। महावीर कहते हैं, एक दिन प्रवृत्ति सध जाए, रमने लगें, बाहर का स्मरण भूल जाए और भीतर सोचना भी छोड़ देना। हम तो इंद्रियों के विषय-सुख भीतर का रस आने लगे, तब उनको कहना, चौंकाना कि अब सोच-सोचकर विदग्ध होते रहते हैंइसे भी छोड़ो। क्योंकि यह भी अभी बाहर है। भीतर होकर भी आज की रात और बाकी है बाहर है। तुम इससे भी ज्यादा भीतर हो। तुम सिर्फ साक्षीभाव कल तो जाना ही है सफर पे मुझे हो। जिसको पता चल रहा है ध्यान का आनंद, वही हो तुम। जिंदगी मुंतजिर है मुंह फाड़े ध्यान तुम नहीं हो। जिंदगी, खको-खून में लथड़ी है कोई संभोग में सुख ले रहा है। उसकी भूल क्या है? वह | आंख में शोला-हाय तुंद लिये साक्षी को भोक्ता समझ रहा है। फिर कोई समाधि में सुख लेने दो घड़ी खद को शादमां कर लें लगा। उसकी भूल क्या है? वही भूल है। भूल वही की वही आज की रात और बाकी है है। वह अब फिर साक्षी को भोक्ता समझ रहा है। संभोग हो कि कल तो जाना ही है सफर पे मुझे समाधि, तुम दोनों के पार हो। तुम कुछ ऐसे हो कि तुम सदा पार मरते-मरते तक आदमी सोचता है, कल तो जाना है। ही हो। कुछ भी घटे-धन मिले कि ध्यान मिले, पद मिले कि दो घड़ी खुद को शादमां कर लें परमात्मा मिले, तुम सदा पार हो। तुम्हारा होना ट्रांसेंडेंटल है, थोड़ा और मजा ले लें, थोड़ा और सुख लूट लें, थोड़ी देर और भावातीत है, विचारातीत है। तुम साक्षी हो। तुम जो देखते हो, सपनों में खो लें, थोड़ी देर और इस रस की भ्रांति में अपने को उसी से अन्य हो जाते हो। जो दृश्य में बन जाता है तुम्हारे लिए, भरमा लें, थोड़ी देर और माया का राग-रंग चले। तुम उसी के द्रष्टा हो जाते हो।। | आज की रात और बाकी है इसलिए कोई भी अनुभव तुम्हारा स्वभाव नहीं। सब अनुभव कल तो जाना ही है सफर पे मुझे तुम्हारे लिए दृश्य हैं। आकाश में चमकती बिजली देखो, या | दो घड़ी खुद को शादमां कर लें आंख बंद करके ध्यान की गहराइयों में कौंधते हए प्रकाश देखो, आज की रात और बाकी है। बराबर है। बाहर खिले फूल देखो, कि भीतर ध्यान की अंतिम एक पैमाना-ए-मये-सरजोश गहराइयों में सहस्रार का खिलता कमल देखो, एक ही बात है। लुत्फे-गुफ्तार, गर्मी-ए-आगोश लेकिन, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस सहस्रार को पाना मत। मैं | बोसे-इस दर्जा आतशी बोसे कह रहा हूँ, बाहर के फूल से तो भीतर का फूल बड़ा कीमती है।। फूंक डालें जो मेरी किश्ते-होश चलो बाहर का फूल इसी आशा में छोड़ो कि भीतर का फूल रूह मखवस्ता है तपां कर लें खिले। जिस दिन भीतर का फूल खिलेगा, उस दिन तुमसे आज की रात और बाकी है आखिरी बात भी कही जा सकेगी कि अब इसे भी छोड़ो। अभी एक पैमाना-ए-मये सरजोश और भी एक है छिपा—उसके भी पार–वही तुम हो। जो सदा एक और तेज शराब का प्याला पी लें। पार है, जिसका स्वभाव ही पार होना है, वही तुम हो। लुत्फे-गुफ्तार गर्मी-ए-आगोश तो महावीर कहते हैं प्रवृत्ति-ध्यान को भी, सामायिक को और थोड़ी देर प्रिय से बातें कर लें, आलिंगन कर लें। भी। निवृत्ति तो तब होगी जब ध्यान का भी त्याग हो जाएगा। बोसे-इस दर्जा आतशी बोसे इसका अर्थ हुआ, संसारी तो प्रवृत्त है ही, संन्यासी भी प्रवृत्त है। और गर्म चुंबन-आग्नेय चुंबन। और थोड़ी देर अपने को दिशा अलग-अलग, लक्ष्य भिन्न-भिन्न, पर दोनों ऊर्जा के अश्व | गरमा लें। 211 2010_03 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 फूंक डालें जो मेरी किश्ते-होश सामायिक होती है।' और जो मेरी चेतना की फसल को जला डालें, ऐसे गर्म चुंबन यह सूत्र बहुत महत्वपूर्ण है। और थोड़ी देर सही! 'जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके।' रूह मखवस्ता है तपां कर लें महावीर ने मौन पर बहुत जोर दिया है। ऐसा किसी ने इतना और आत्मा ठंडी पड़ी जाती है, थोड़ी गरमा लें। जोर नहीं दिया मौन पर। जोर सभी ने दिया है, मौन इतना आज की रात और बाकी है। महत्वपूर्ण है कि कोई भी उसे छोड़ तो नहीं सकता, लेकिन जैसा कल तो जाना ही है सफर पे मझे जोर महावीर ने दिया है, वैसा किसी ने नहीं दिया। महावीर ने मरते-मरते दम तक आदमी के मन में ऐसा ही चिंतन चलता है। मौन को साधना का केंद्र बनाया। इसलिए अपने संन्यासी को क्षणभंगुर जिंदगी को देखकर आदमी जागता नहीं, क्षणभंगुर | मुनि कहा। बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु कहा। हिंदुओं ने जिंदगी को देखकर और जोर से पकड़ लेता है। वह कहता है, अपने संन्यासी को स्वामी कहा। अलग-अलग जोर है। हिंदुओं कल तो छूट जाएगा, तो आज भोग लें। कल तो छीन लिया ने स्वामी कहा, क्योंकि उन्होंने कहा कि जो आत्मा को जानने तो आज भोग लें। उसे यह खयाल नहीं आता कि जो लगा, वही अपना मालिक है-स्वामी। बुद्ध ने भिक्षु कहा, छिन ही जाएगा, वह छिना ही हुआ है। वह छिन ही चुका है। उन्होंने कहा जिसने अहंकार को पूरा गिरा दिया, इतना गिरा दिया वह कभी मिला ही नहीं। वह बस सपना है। जो टूट जाएगा, | कि कहा कि मैं भिक्षु हूं, कैसा स्वामी! जिसने अस्मिता जरा-भी वह सपना है। थोड़ी देर और आंख बंद करके देख लो, क्या सार न रखी, अहंकार जरा-भी न रखा, भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो है! जिनके पास थाड़ा भी बुद्धिमत्ता है, वे कहेंगे जो सुबह टूट गया। जिसने सम्राट होने की घोषणा न की। जिसने सब । जाएगा, वह हमने अभी छोड़ा। जो कल छूट जाएगा, वह हमने घोषणाएं वापिस ले लीं, जिसने कहा मैं कुछ भी नहीं हूं। यही आज छोड़ा। इसीलिए तो ज्ञानी जीते-जी मर जाता है। वह | अर्थ है भिक्षु का। कहता है. जब कल मरना है, हम आज मर गये। अब जीने में महावीर ने अपने संन्यासी को मनि कहा। मनि का अर्थ है, जो अर्थ न रहा। संन्यास का यही अर्थ है-जीते-जी मर जाना। मौन हो गया। जिसने वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग जान लेना कि ठीक है, मौत तो होगी, तो हो गयी। अब हम ऐसे किया। क्यों महावीर ने इतना जोर दिया मौन पर, इसे खयाल में जीएंगे जैसे हम नहीं हैं। उठेंगे, बैठेंगे, चलेंगे, लेकिन वह जो लें। मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात बातचीत है, भाषा है, होने का दंभ था, अब न रखेंगे। वह मौत तो मिटायेगी ही, हम | बोलने की क्षमता है। पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, हैं तो, पर भाषा ही क्यों न मिटा दें? नहीं है। बोल नहीं सकते। इसलिए पशु-पक्षी-पौधे और ध्यान रखना. जो स्वयं उस दंभ को मिटा देता है. उसके अकेले-अकेले हैं. उनका कोई समाज नहीं है। समाज के लिए सामने मौत हार जाती है। फिर मौत को मिटाने को कुछ बचता ही भाषा जरूरी है। आदमी का समाज है। आदमी सामाजिक प्राणी नहीं। इसलिए मौत संसारी को मारती है, संन्यासी को नहीं। है, क्योंकि आदमी बोल सकता है। बोले बिना जुड़ोगे कैसे संन्यासी अमर है। संसारी मरता है, हजार बार मरता है। किसी से? जब बोलते हो, तभी सेतु फैलते हैं और जोड़ होता संन्यासी एक बार मरता है। संसारी हजार बार मरता है, | है। तो भाषा का अर्थ हुआ, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जोड़नेवाले जबर्दस्ती मारा जाता है। संन्यासी स्वेच्छा से मरता है, एक बार | सेतु। भाषा मनुष्य को समाज बनाती है। समाज देती है। स्वयं ही जीवन को उतारकर रख देता है कि हो गयी बात, ठीक | समुदाय देती है। है, जो कल छिनना है वह मैं स्वयं छोड़े देता हूं। संन्यास स्वेच्छा महावीर ने कहा, मौन हो जाओ। अर्थ हुआ, टूट जाओ, सारे से स्वीकार की गयी मृत्यु है। सेतु तोड़ दो दूसरों से। बोलने के ही तो सेतु हैं, बोलने के द्वारा 'जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग जुड़े हो, तोड़ दो बोलने के सेतु, अकेले हो जाओ। बोलना भाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसको परम समाधि या छोड़ते ही आदमी अकेला हो जाता है, चाहे बाजार में खड़ा हो। 212 | JainEducation International 2010_03 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता ही सामायिक अगर बोलना जारी रहे, तो पहाड़ पर बैठा भी अकेला नहीं है। अंधेरी कोठरियों में डाल देते हैं। उनको पड़े रहने देते हैं अकेले वहां भी किसी से, कल्पना के मित्र से, शत्रु से बात करता | में। टेप लगे रहते हैं उनके आसपास, वे कुछ भी बोलें तो वह रहेगा। वहां भी समाज बना रहेगा। कल्पना का ही सही, लेकिन | टेप में संग्रहीत हो जाता है। समाज रहेगा। आदमी अकेला न होगा। बीच बाजार में आदमी तीन-चार सप्ताह के बाद जो वह उगलवाना चाहते थे, वह मौन हो जाए, अचानक उसी क्षण मौन होते ही समाज खो गया। खुद ही उगलने लगते हैं। एक सीमा है! भीड़ के कारण समाज नहीं है, भाषा के कारण समाज है। तुमने कभी खयाल किया? कोई तुमसे गुप्त बात कह दे, कहे तो महावीर ने कहा, जंगल में भागने से क्या सार होगा! अपने किसी को कहना मत, बस तुम मुश्किल में पड़े। उसका यह में भाग जाओ, छोड़ दो दूसरे तक जाना—भाषा से ही हम दूसरे कहना कि किसी को कहना मत, कहने के लिए बड़ा उकसावा तक जाते हैं-तोड़ दो भाषा, अपने में लीन हो जाओ। महावीर | बन जाएगा। बड़ी उत्तेजना पैदा हो जाएगी। आदमी लेता है, बारह वर्ष मौन रहे। उन बारह वर्षों में उन्होंने क्या किया? | देता है, भाषा में। भीतर छिपाकर रखना बहुत कठिन है। मांति अपने को समाज से मुक्त किया। वे परम | मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया। और विद्रोही थे। समाज से सब भांति उन्होंने सब तरह के संबंध, सब उस युवक ने कहा कि मैंने सुना है कि आपको जीवन का परम धागे तोड़ डाले। उन्होंने सब तरह से अपने को समाज से अलग रहस्य मिल गया, आपके गुरु ने आपको कुंजी दे दी है, उस किया, क्योंकि उन्होंने पाया कि जितने तुम समाज से जुड़े हो, गुप्त-कुंजी को मुझे भी दे दें। उस सूफी फकीर ने कहा, ठीक! उतने ही अपने से टूट जाते हो। लेकिन तुम इसे गुप्त रख सकोगे? किसी को बताना मत ! उसने स्वाभाविक गणित था। समाज से टूट जाओ, अपने से जुड़ कहा कसम खाता हूं आपकी-पैर छुए-कभी किसी को न जाओगे। फिर महावीर लौटे, समाज में लौटे, समझाने आये, बताऊंगा। वह सूफी बोला फिर ठीक, मैंने भी ऐसी ही कसम बोले, लेकिन बारह वर्ष के मौन के बाद बोले। अब समाज से खायी है अपने गुरु के सामने। अब बोलो मैं क्या करूं? अगर जुड़ने का कोई उपाय न था। अब उन्होंने सब भांति अपनी तुम गुप्त रख सकते हो जीवनभर, तो मैं भी रख सकता हूं। और निपटता, एकांत को उपलब्ध कर लिया था। सब भांति कैवल्य अगर तुम सच पूछते हो, तो मेरे गुरु ने भी मुझे बतायी नहीं, को जान लिया था, स्वयं के अकेलेपन को पहचान लिया था। क्योंकि उसने भी अपने गुरु के सामने ऐसी ही कसम खायी थी। फिर आये। अब कोई डर न था, अब बोले। अब भाषा केवल सिर्फ अफवाह है, परेशान मत होओ। उपयोग की बात रह गयी। एक साधनमात्र। तुम्हारे लिए भाषा । गुप्त बात गुप्त रखी नहीं जा सकती। आदमी बोझिल अनुभव केवल साधन नहीं है। भाषा तुम्हारी व्यस्तता है। बिना बोले तुम करने लगता है। जो बाहर से आया है वह बाहर लौटाना पड़ता घबड़ाने लगते हो। अगर कोई बात करने को न मिले, तो बेचैन है। जब तुम बोलते हो, तुमने खयाल किया, तुम वही बोलते हो होने लगते हो। जो बाहर से तुम्हारे भीतर आ गया है। वह भारी होने लगता है। कहते हैं कि अगर तीन सप्ताह किसी आदमी को सुबह अखबार पढ़ लिया, फिर वही अखबार तुम दूसरों से एकांत में बंद कर दिया जाए, तो पहले सप्ताह तो वह बोलने लगे। जब तक तुम किसी को बता न दो तुमने अखबार में भीतर-भीतर बात करता है; दूसरे सप्ताह बोल-बोलकर बात क्या पढ़ा है, तब तक तुम्हें चैन नहीं। यह विजातीय तत्व है जो करने लगता है-अकेले में; और तीसरे सप्ताह तो वह बाहर से आ जाता है, इसे बाहर निकालना पड़ता है। यह तुम्हारी बिलकुल खयाल ही भूल जाता है कि अकेला है। वह अपनी प्रकृति को विकृत करता है। बाहर निकलते ही से तुम हलके हो प्रतिमाएं कल्पना की खड़ी कर लेता है, उनसे बातचीत में संलग्न जाते हो। इसीलिए तो किसी से अपनी बातें कहकर आदमी हो जाता है। हलकापन अनुभव करता है। रो लिया दखड़ा हो गये हलके। कम्युनिस्ट मुल्कों में जिन कैदियों से उन्हें बात उगलवानी होती पश्चिम में तो अब कोई किसी की सुनने को राजी नहीं। है, उनको वे सताते नहीं, उनको वे सिर्फ एकांत में डाल देते हैं, किसके पास फुर्सत है! तो व्यावसायिक सुननेवाले पैदा हो गये 213 2010_03 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 हैं, उन्हीं का नाम मनोवैज्ञानिक है। वे व्यावसायिक हैं, उनका | छोड़ दौड़ो सब साज-सिंगार, कोई और काम नहीं है। उनका काम यह है कि वे ध्यानपूर्वक रास की मुरली रही पुकार। तुम्हारी बात सुनते हैं। सुनते भी हैं या नहीं, यह भी कुछ पक्का गयी सहसा किस रस से भींग नहीं है, लेकिन ध्यानपूर्वक जतलाते हैं कि सुन रहे हैं। आदमी | वकुल वन में कोकिल की तान? घंटाभर अपनी बकवास उन्हें सुनाकर हलका अनुभव करता है। चांदनी में उमड़ी सब ओर और इसके लिए पैसे भी देता है। महंगा धंधा है। काफी पैसे देने कहां के मद की मधुर उफान? पड़ते हैं। लोग वर्षों तक मनोचिकित्सा में रहते हैं। एक गिरा चाहती भूमि पर इंदु चिकित्सक को छोड़ फिर दूसरे को पकड़ लेते हैं। क्योंकि एक शिथिलवसना रजनी के संग; बार वह जो राहत मिलती है किसी को, ध्यानपूर्वक कोई तुम्हारी | सिहरते पग सकता न संभाल सुन ले, तो बड़ा आनंद आता है। तुम हलके हो जाते हो। कुसुम-कलियों पर स्वयं अनंग! महावीर ने कहा, भाषा इस तरह अगर व्यस्तता का आधार बन ठगी-सी रूठी नयन के पास गयी हो तो रोग है। तो तुम चुप हो जाना। लिये अंजन उंगली सुकुमार, 'जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग अचानक लगे नाचने मर्म, भाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसको परम समाधि या रास की मुरली उठी पुकार सामायिक होती है।' साज-शृंगार? यह बात खयाल में रखने-जैसी है। छोड़ दौड़ो सब साज-सिंगार, कम से कम दिन में दो-चार घंटे तो मौन में बिताओ। नियम ही रास की मुरली रही पुकार। बना लो कि चौबीस घंटे में कम से कम चार घंटे तुम अपने लिए | खोल बांहें आलिंगन हेतु दे दोगे। बाकी दे दो बीस घंटे संसार के लिए, चार घंटे अपने | खड़ा संगम पर प्राणाधार; लिए बचा लो। चलो चार घंटे बहुत लगें, घंटे से शुरू करो। तुम्हें कंकन-कुंकुम का मोह, लेकिन एक घंटा अपने लिए बचा लो। उस एक घंटे में फिर तुम और यह मुरली रही पुकार। बिलकुल चुप हो जाओ। पहले-पहले कठिन होगा। ओंठ बंद | सनातन महानंद में आज कर लेना तो आसान है, भीतर की तरंगें बंद करना मुश्किल बांसुरी-कंकन एकाकार। होगा। लेकिन साक्षीभाव से उन तरंगों को देखते रहो...देखते बहा जा रहा अचेतन विश्व, रहो...देखते रहो। धीरे-धीरे तुम पाओगे, गति विचारों की कम | रास की मुरली रही पुकार। हो गयी। धीरे-धीरे तुम पाओगे, कभी-कभी बीच-बीच में दो साज-शंगार? विचार के अंतराल आने लगा, खाली जगह आने लगी, उसी | छोड़ दौड़ो सब साज-सिंगार, खाली जगह में से रस बहेगा। उसी खाली जगह में से तुम्हें रास की मुरली रही पुकार। आत्मा की झलक पहली दफे मिलेगी। यह झलक ऐसे ही होगी। एक बार भी तुम्हें भीतर की किरणों का बोध हो जाए-सुन जैसे वर्षा में बादल घिरे हों और कभी-कभी सूरज की झलक पड़ी मुरली, रास का निमंत्रण मिल गया। उस परम प्यारे की सुध मिल जाए क्षणभर को, किरणों की छटा छा जाए, फिर सूरज ढक आ गयी। वह तुम्हारे भीतर ही बैठा है। वह तुम्हें सदा से ही जाए। लेकिन एक बार झलक आने लगे, एक दफे वहां भीतर पुकारता रहा है। लेकिन तुम इतने व्यस्त हो दूसरों के साथ भाषा की मुरली का स्वर तुम्हें सुनायी पड़ने लगे, तो जीवन में जो में, बोलने में, झगड़ने में, मित्रता-शत्रुता बनाने में; तुम इतने सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह घट गया। व्यस्त हो बाहर कि तुम्हारे भीतर अंतर्तम से उठी मुरली की पुकार साज-शृंगार? तुम्हें सुनायी नहीं पड़ती। | Jair Education International 2010_03 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता ही सामायिक महावीर ने कहा, मौन हो जाओ; तो तुम्हें अपने संगीत का ताजा कर जाता है। पहली दफा अनुभव हो। चुप हो जाओ, उस चुप्पी में ही, उस | ध्यान में दर्शन है। मौन में दर्शन है। चुप्पी में साक्षात्कार है। अनाहत का नाद शुरू होगा। वह ध्वनिहीन ध्वनि, वह स्वरहीन | देख सकता हूं जो आंखों से वो काफी है 'मज़ाज़' स्वर तुम्हारे भीतर से उठने लगेगा। तुम्हारी अतल गहराइयों से, अहले-इर्फी की नवाजिश मुझे मंजूर नहीं तुम्हारी चेतना की परम गहराइयों से तुम्हारे पास तक पहुंचने ठीक कहा है मज़ाज़ ने। दार्शनिकों की सेवा करने की मेरी उसकी अनिवार्य शर्त है। और मौन का इच्छा नहीं। दार्शनिकों का सत्संग करने की मेरी कोई इच्छा नहीं। अर्थ है ओंठ से मौन, कंठ से मौन, भीतर विचार से देख सकता है जो आंखों से वो काफी है 'मज़ाज़' मौन-धीरे-धीरे सब तलों पर, सब पर्तों पर मौन। तब तुम मुनि जो मैं अपनी आंख से देख सकता हूं, वह पर्याप्त है। किसी हुए। मुनि का कोई संबंध बाह्य-आचरण से नहीं है। मुनि का और से क्या पूछना है! संबंध उस अंतसदशा से है, मौन की दशा से है। और जो मौन किसी और से क्या पूछने जाना है। आंख तम्हारे पास है. को उपलब्ध हुआ, वही बोलने का हकदार है। जो अभी मौन को | लेकिन तुम्हारी आंख इतने शब्दों से भरी है, इतने विचारों से ढंकी ही नहीं जाना, वह तो बाहर के ही कचरे को भीतर लेता है और है, जैसे दर्पण पर धूल जम गयी हो, दर्पण का पता ही न चलता बाहर फेंक देता है। उसका बोलना तो वमन जैसा है। जो मौन हो। झाड़ दो धूल, तुम्हारा दर्पण फिर झलकायेगा। झाड़ दो को उपलब्ध हुआ, उसके पास कुछ देने को है। उसके पास कुछ आंख से विचारों की धूल, झाड़ दो मन से विचारों की धूल, तुम भरा है, जो बहना चाहता है, बंटना चाहता है। उसके पास कुछ | प्रतिबिंब दोगे परमात्मा का। तुम्हारा दर्पण खोया नहीं है, सिर्फ आनंद की संपदा है, जो वह तुम्हारी झोली में डाल दे सकता है। ढंक गया है धूल में। और धूल कितना ही दर्पण को ढांक ले, महावीर बारह वर्ष मौन रहे। जीसस जब भी बोलते, तो बोलने नष्ट थोड़े ही कर पाती है। इसलिए जब तक पोंछा नहीं है तभी के बाद कुछ दिनों के लिए पहाड़ पर चले जाते। वहां चुप हो | तक परेशानी है। पोंछते ही तुम चकित हो जाओगे। जाते। जब भी कोई महत्वपूर्ण बात बोलते तब तत्क्षण वे पहाड़ जन्मों-जन्मों के अंधकार को क्षण में पोंछा जा सकता है। और चले जाते। अपने मित्र, संग-साथियों को भी छोड़ देते, कहते, जन्मों-जन्मों की जमी धूल को क्षण में बुहारा जा सकता है। कुछ अभी कोई मत आना। अभी मुझे जाने दो अकेले में। उस अकेले ऐसा नहीं है कि तुम्हें जनम-जनम तक सफाई करनी होगी। में जीसस क्या करते? मुहम्मद पर जब पहली दफा कुरान की सफाई तो एक क्षण में भी हो सकती है। सिर्फ त्वरा चाहिए। आयत-पहली आयत उतरी, तो वे चालीस दिन से मौन थे। प्रवृत्ति चाहिए अंतर्यात्रा की। उसी मौन में पहली दफे कुरान उतरा। _ 'ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है। जो भी मौन में उतरा है वही शास्त्र है। मौन में जो नहीं उतरा, | इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का प्रतिक्रमण है।' वह शास्त्र नहीं। किताब होगी। जो मौन में कहा गया है, मौन से महावीर कहते हैं, और सब ठीक है, लेकिन वास्तति कहा गया है, वही उपदेश है। जो शब्द मौन में डबे हए नहीं ध्यान में ही घटती है। समस्त अतिचारों का, सब दोषों का आये, मौन में पगे हुए नहीं आये, वे सब शब्द रुग्ण हैं। स्वस्थ परित्याग ध्यान में ही होता है। क्यों ध्यान में परित्याग होता है ? तो वे ही शब्द हैं जो मौन में पगे हुए आते हैं। और अगर तुम महावीर नहीं कहते हैं, करुणा साधो। महावीर नहीं कहते, दया ध्यान से सुनोगे, तो तुम तत्क्षण पहचान लोगे कि यह शब्द मौन साधो। महावीर नहीं कहते, दान साधो, त्याग साधो। महावीर में पगा आया है, या नहीं आया है ? तुम्हारा हृदय तत्क्षण गवाही कहते हैं, ध्यान साधो। क्यों? क्योंकि दान करोगे, तो पहले एक दे सकेगा। क्योंकि जितना शून्य लेकर शब्द आता है, अगर तुम कर्ता का भाव था कि मेरे पास धन है, दान करोगे, दूसरे कर्ता का शांतिपूर्वक सुनो, तो शब्द चाहे तुम भूल भी जाओ, शून्य सदा | भाव पैदा हो जाएगा कि मेरे पास त्याग है, मैं दानी हूं। क्रोध के लिए तुम्हारा हो जाता है। शब्द चाहे तुम्हारे स्मृति में रहे या न किया था, तो एक अहंकार था, करुणा करोगे तो दूसरा अहंकार रहे, शून्य तुम्हारे प्राणों पर फैल जाता है। तुम्हें नया कर जाता है, | हो जाएगा। दूसरा अहंकार स्वर्णिम है। पहला अहंकार सस्ता 215 2010_03 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 था। लेकिन हैं तो दोनों ही अहंकार। खोजनेवाला भटक रहा है। कस्तूरी कुंडल बसै। लेकिन मृग है महावीर कहते हैं, ध्यान। ध्यान का अर्थ है कि तम्हें पता चले कि पागल है, दीवाना है, गंध की खोज में भाग रहा है। उसे याद तुम कर्ता ही नहीं हो। न क्रोध के न करुणा के, न लोभ के न दान | ही नहीं। आये भी कैसे याद! आदमी को याद नहीं आती, मृग के। तुम अकर्ता हो, साक्षी हो।। | को कैसे याद आये! कैसे पता चले कि मेरी ही नाभि में छिपा है 'ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है।' | नाफा कस्तूरी का! वहीं से आ रही है गंध और मुझे पागल किये परित्याग हो जाता है। 'ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का दे रही है। प्रतिक्रमण है।' जिस आनंद को तुम खोज रहे हो, जिस मुरली की आवाज के झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं। लिए तुम दौड़ रहे हो, वह तुम्हारे भीतर बज रही है। लेकिन तुम तम्हा द झाणमेव हि, सव्वादिचारस्स पडिक्कमणं।। सपनों में खोये हो। बाहर की खोज सपना है। और इसलिए जैसे ध्यान सारभूत है। जो निज को निज-भाव से देखता है। ही तुम्हारे बाहर के सपने टूटते हैं, तुम उदास हो जाते हो। एक 'जो निज-भाव को नहीं छोड़ता और किसी भी पर-भाव को सपने को दूसरे सपने से जल्दी से परिपूरक बना लेते हो। और ग्रहण नहीं करता, तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, वह परम-तत्व जिस दिन सब सपने हाथ से छूटने लगते हैं उस दिन तुम. मैं ही हैं। आत्मध्यान में लीन साध ऐसा चिंतन करता, ऐसा | आत्महत्या करने की सोचने लगते हो। सत्य को पाये बिना कोई अनुभव करता है।' जीवन नहीं है। सपनों में सिर्फ आभास है। 'जो निज-भाव को नहीं छोड़ता।' ध्यान का अर्थ है निजता में गो हमसे भागती रही ये तेजगाम उम्र आ जाना; अपने में आ जाना। बाहर से सब नाते छोड़ देना। ख्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र बाहर से सब नाते तोड़ देना। इसके लिए जरूरी नहीं है कि तुम जुल्फों के ख्वाब, होंठों के ख्वाब और बदन के ख्वाब घर से भागो। क्योंकि यह बात तो आंतरिक है। घर से भागना मिराजे-फन के ख्वाब, कमाले-सुखन के ख्वाब भी बाहर से ही जुड़े रहना है। घर तो बाहर है, न पकड़ो, न तहजीबे-जिंदगी के, फरोगे-वतन के ख्वाब भागो। धन तो बाहर है, न पकड़ो, न छोड़ो। सिर्फ एक बात जिंदा के ख्वाब, कूचए-दारो-रसन के ख्वाब स्मरण रखो कि यह मैं नहीं हूं। यह शरीर मैं नहीं। यह घर मैं ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे नहीं। यह धन मैं नहीं। यह मन मैं नहीं। इतना भर स्मरण रखो। ये ख्वाब ही तो अपनी अमल की असास थे इतना ही याद रहे कि मैं सिर्फ साक्षी है, द्रष्टा हं, देखनेवाला हूं। ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात णियभावं ण वि मुच्चइ, परभाव णेव गेहए केइं। यूं है कि जैसे दस्ते-तहे-संग है हयात जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी।। ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे पर-भाव को छोड़कर निज-भाव को नहीं छोड़ता। सबका ये ख्वाब ही तो अपने अमल की असास थे ज्ञाता-द्रष्टा हूं, वह परम तत्व मैं ही हूं, ऐसी चिंतन-धारा जिसमें ये अपने सारे जीवन-आचरण की नींव थे—ख्वाब! सपने! सतत बहती रहती है, आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसी परम दशा कहीं पा लेने के। को जब उपलब्ध होता है, तो घटता है—असंभव घटता है, ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात आनंद घटता है, सच्चिदानंद घटता है। जिसकी हम कल्पना भी | जब ये ख्वाब मरते हैं तो लगता है जीवन रंगहीन हो गया। ' नहीं कर सकते वह भी घटता है। जिसका हमें कभी कोई स्वाद | यूं है कि जैसे दस्ते-तहे-संग है हयात नहीं मिला, यद्यपि हम उसी के लिए तड़फ रहे हैं, उसी के लिए जब ख्वाब मरते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे दो चट्टानों के बीच भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं; अनेक-अनेक दिशाओं में उसी को खोज | में हाथ पिचल गया हो। ऐसी जिंदगी पिचल जाती है। बुढ़ापे में रहे हैं जो भीतर विराजमान है; दसों दिशाओं में उसकी खोज कर इसीलिए दुख है। बुढ़ापे का नहीं है, मरे हुए ख्वाबों का। पिचले रहे हैं जो ग्यारहवीं दिशा में बैठा है। खोजनेवाले में बैठा है और | हुए ख्वाबों का है। धूल में गिर गये इंद्रधनुषों का। पैरों में रुंध 216 2010_03 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता ही सामायिक गये इंद्रधनुषों का दुख है। जवान नशे में है। बूढ़े का नशा तो टूट जाता है, लेकिन होश नहीं आता। नशा टूटते ही घबड़ाता है बूढ़ा, परेशान होता है। लेकिन यह याद नहीं आती कि जिसके पीछे हम दौड़ते थे, कहीं ऐसा तो नहीं घर में ही छिपा हो। आंखें बाहर खुलती हैं, तो हम बाहर देखते हैं। कान बाहर खुलते हैं, तो हम बाहर सुनते हैं। हाथ बाहर फैल सकते हैं, तो हम बाहर खोजते हैं। भीतर न तो आंख खुलती है, न हाथ खुलते हैं, न कान खुलते हैं—कोई इंद्रिय भीतर नहीं जाती। इसलिए भीतर की हमें याद नहीं आती। भीतर जाने की कला का नाम ध्यान है। बाहर जाने की कलाओं का नाम इंद्रियां हैं। इंद्रियां हैं बाहर जानेवाले द्वार, ध्यान है भीतर जानेवाला द्वार। इंद्रियों में ही भटके रहे, खो गये, तो | तुम्हें जीवन का सत्व न मिल सकेगा। तो तुम रोते आये, रोते जाओगे। तो तुम खाली आये, खाली जाओगे। ध्यान को जगाओ! क्योंकि ध्यान ही भीतर जा सकता है। आंख भीतर नहीं जा सकती, कान भीतर नहीं जा सकते, हाथ भीतर नहीं जा सकते। सिर्फ ध्यान भीतर जा सकता है। जिसने ध्यान को जगा लिया, उसने जीवन का सारभत पा लिया। जिसने ध्यान को जगा लिया, उसके भीतर सतत एक धारा बहती रहती है। सब कामों-धामों, व्यस्तताओं के बीच भी एक स्मरण नहीं मिटता, एक दीया नहीं बझता. वह दीया जगमगाता रहता है—मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं। ऐसा कुछ शब्द नहीं | दोहराने होते-खयाल रखना—ऐसा बोध, ऐसा भाव ः मैं | साक्षी हूं। यही समता है, यही समाधि है, यही सामायिक है। आज इतना ही। 217 2010_03 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education inte 0_03 For www.inelibrar Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रवचन ज्ञान ही क्रांति Teation international For Privelte & Rinal Use Only www.jainelibraryeorg Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार चित्त की दशा को आपने बाधा बताया । चित्त की दशा ही तो हमें आपके पास ले आयी ? बुद्धि को भी आपने बाधा बताया । पर मैं आपके इर्द-गिर्द बुद्धिमान लोगों को भरे देखता हूं? आचार्य रजनीश को सुनता था - निपट सीधा, साफ । प्यारे भगवान को भी सुनता हूं आड़े आते हैं, बुद्ध, महावीर, जीसस, शंकर आदि । स्वयं सीधे प्रकट होने की बजाय आड़ लेकर आने के पीछे रहस्य क्या ? जैन- कुटुंब में जन्म। तीन वर्षों से भगवान श्री को पढ़ना । संन्यस्त भी। फिर भी पारे की तरह बिखरते जाना । जिन न-सूत्र पर भगवान के प्रवचन अच्छे लगना । भोग में रस बहुत। परंपरा और संस्कार पांवों में बेड़ी की तरह । बहुचित्त और विक्षिप्त होते जाना, टूटते जाना। मार्गदर्शन की मांग | 2010_03 प्रवचन पढ़ने में रस आना । पुस्तकों द्वारा ही यहां तक खींच लिये जाना, पर अब शब्दों का समझ में न पड़ना। आंखों का भगवान को निहारना और मिंच जाने पर मस्तक का नत होना । क्या यह मन से आत्मा की ओर रूपांतरण है ? जाने की चाह में किसी ने रात को दिन रचते देखा । ऐसा क्यों ? Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R हला प्रश्नः आपने कहा कि चित्त की दशा ही हो; लेकिन अब इसी नाव में बैठे रहोगे तो पहुंचकर भी दूसरे बाधा है। और मुझे मेरी चित्त की दशा ही किनारे पर वंचित रह गये। कहां पहुंच पाये! नाव पकड़नी भी खींचकर आपके पास ले आयी है। आपने यह भी पड़ती, छोड़नी भी पड़ती। साधन हाथ में भी लेने होते हैं, फिर कहा कि बुद्धि ही बाधा है, क्योंकि बुद्धिमान बहुत गिरा भी देने होते हैं। सोच-विचार करता है। और मैं देखता हूं कि आपके इर्द-गिर्द इसलिए प्रथम चरण पर जो साधक है, साधन है, अंतिम चरण बुद्धिमान व्यक्ति ही भरे हैं। पर वही बाधक हो जाता है। तुम्हारा मन ही तुम्हें यहां ले आया, इसमें दो मत नहीं हो सकते। मन ही न होता तो तुम आते कैसे! निश्चय ही चित्त ही तुम्हारा यहां तक ले आया है। मेरे पास ले | यह यात्रा ही कैसे करते! मेरा आकर्षण ही तुम्हें कैसे खींचता! आया है। फिर भी चित्त बाधा है। पास तो आ जाओगे चित्त के | मेरा बुलावा ही तुम कैसे सुनते! तुम मन की डोरी को पकड़कर कारण, मिलन न हो पायेगा। निकट तो आ जाओगे, एक न हो | ही यहां तक आये। मन की नाव पर ही चढ़कर यहां तक आये। पाओगे। यहां तक तो ले आयेगा, शारीरिक रूप से तो करीब | लेकिन अब क्या मन की नाव पर ही बैठे रहोगे? अब उतरो, पहुंचा देगा, आत्मिक रूप से दूर ही दूर रखेगा। अब नाव छोड़ो। अब किनारा आ गया। धन्यवाद दे दो नाव अगर शरीर के ही मिलन की बात होती, तो चित्त बाधा नहीं को, कृतज्ञता ज्ञापन कर दो, अनुगृहीत होओ उसके-यहां तक है। चित्त तो शरीरों को करीब ले आता है, आत्माएं दूर रह जाती ले आयी—लेकिन क्या अब उसको सिर पर ढोओगे? क्या हैं। जब तक चित्त को हटाओगे न, उस अंतस्तल में मिलन न हो इसीलिए कि यहां तक नाव ले आयी, तो धन्यवाद देने के लिए सकेगा। जो जोड़ता मालूम पड़ता है नीचे तल पर, वही ऊंचे तल सदा के लिए नाव में बैठे रहोगे? तो भूल हो जाएगी। तो पर तोड़ देता है। पागलपन हो जाएगा। इसे खूब ठीक से समझ लेना। जो साधन है पहले चरण पर, | प्रश्न सार्थक है। सभी के लिए सोचने जैसा है। सीढ़ियां वही अंतिम चरण पर बाधा बन जाता है। नाव में बैठे हैं, नाव | छोड़नी पड़ती हैं। अंततः सभी साधन जब छूट जाते हैं, तभी उस पार ले गयी. फिर नाव को पकडे रहो तो उतर न पाओगे। सिद्धि उपलब्ध होती है। जब सभी मार्ग छट जाते हैं तभी मंजिल नाव ले आयी दूसरे किनारे तक, लेकिन अब नाव को छोड़ना भी | मिलती है। यद्यपि मार्ग पर चलकर मिलती है, चलने से ही पड़ेगा। तुमने अगर यह कहा कि यह नाव ही तो इस किनारे तक | मिलती है, लेकिन फिर छोड़ना अनिवार्य है। चलते रहे, चलते लायी है, अब इसे कैसे छोड़ें! यह नाव न होती, तो इस किनारे रहे, मार्ग ही इतने जोर से पकड़ लिया कि मंजिल भी सामने आ तक हम कभी आये ही न होते! सच कहते हो, ठीक ही कहते | गयी तो कहा, मार्ग कैसे छोड़ें अब! तो फिर तुमने मार्ग पकड़ा 223 2010_03 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग:2 नहीं, मार्ग ने तुम्हें पकड़ लिया। फिर तुमने मार्ग का उपयोग न चादर पर सिकुड़न पड़ी, चांद टूट जाता है, बिखर जाता है। किया, मार्ग तुम्हारा मालिक हो गया। तो फिर तुम मार्ग पर ही | हजार-हजार टुकड़े हो जाते हैं। चांदी फैल जाती झील पर, पर अटके रह जाओगे। और हो सकता है मार्ग ने तुम्हें ठीक मंजिल | चांद कहां खोजोगे। के द्वार तक पहुंचा दिया हो, तब भी क्या फर्क पड़ता है। मंदिर से विचार तरंगें हैं। उन्ही तरंगों में तो परमात्मा खो गया है। उन्हीं हजार मील दूर रहे कि मंदिर की सीढ़ियों के पास खड़े रहे, मंदिर तरंगों के कारण तो परमात्मा प्रतिबिंबित नहीं हो पाता। उसकी के भीतर तुम नहीं हो। मंदिर में तुम्हार प्रवेश नहीं हुआ। तो | छाया नहीं बन पाती तुममें। विचार से संसार चलता है. निर्विचार हजार मील की दूरी, कि हजार फीट की दूरी, कि हजार इंच की | से धर्म। विचार साधन है संसार में। वहां अगर विचार न किया, दूरी, क्या फर्क पड़ता है। मंदिर के तुम बाहर ही हो। और मंदिर लूटे-खसोटे जाओगे। वहां अगर विचार न किया, बड़े धोखे में के भीतर आओ, तो ही कुछ होगा। मंदिर तक आने से कुछ भी पड़ोगे। वहां बिना विचार किये बड़ी मुश्किल आयेगी। नहीं होता। मंदिर के भीतर आओ, क्योंकि मंदिर के भीतर आते | इसीलिए तो संसार में ले जाने के लिए विद्यालय हैं, ही तुम खो जाओगे। मंदिर के द्वार तक तो तुम बने ही रहोगे; | विश्वविद्यालय हैं—वे विचार करना सिखाते हैं। वे सिखाते हैं, मंदिर के द्वार तक तो अहंकार बना ही रहेगा। मंदिर के द्वार के कैसे ठीक-ठीक विचार करो। तर्क-सरणी से, गणितपूर्वक कैसे भीतर ही पहुंचकर तुम निराकार होते हो। सावधान रहो। कैसे संदेह करो कि दूसरा धोखा न दे पाये। बाहर मेरे पास तक आ गये, मेरे भीतर आओ। क्योंकि जब तुम मेरे | धोखे देनेवाले लोग खड़े हैं। सारा संसार संघर्ष में लीन है। वहां भीतर आओगे, तभी मैं तुम्हारे भीतर आ सकूँगा। और कोई | भोलेपन से नहीं चलता। वहां तिरछे होना पड़ता है। कहावत उपाय नहीं। जब तुम मुझमें खोओगे, तो मैं तुममें खो सकूँगा। है-सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता। अंगुली टेढ़ी करनी और कोई मार्ग नहीं। | पड़ती है। वहां आदमी को संदेह में धीरे-धीरे अपने को निष्णात 'आपने कहा कि चित्त की दशा ही बाधा है। और मुझे मेरे | करना पड़ता है। भरोसा तो तभी करना बाहर, जब संदेह का कोई चित्त की दशा ही खींचकर आपके पास ले आयी है।' कारण ही न रह जाए। सब संदेह कर चुको, कोई कारण न रह सौ प्रतिशत सही कहते हो। पर अब वहां रुको मत। इतना | जाए, तब। किया, थोड़ा और करो। आये थे इसीलिए कि मैं जो कहूंगा उसे | वस्तुतः बाहर भरोसा कोई करता ही नहीं। भरोसे के भीतर भी समझोगे और करोगे। अब व्यर्थ लड़ो मत। अब मैं तुमसे कह संदेह खड़ा रहता है। मित्र में भी हम देखते ही रहते हैं संभावना रहा हूं कि अब इस चित्त को छोड़ो, इसका काम हो गया। यह | शत्रु की। अपने में भी पराया खड़ा रहता है। चाहे थोड़ी देर को जहां तक पहुंचा सकता था, पहुंचा दिया। इसका उपयोग हो | हमने इस संदेह को स्थगित कर दिया हो, नष्ट कभी नहीं होता। चुका। अब यह चली कारतूस व्यर्थ मत ढोओ। अन्यथा यही | अपने से भी डर बना रहता है, क्योंकि कौन अपना है वहां? बाधा बनेगी। चित्त ही लाता है। फिर चित्त ही अटका लेता है। सभी संषर्घ में लीन हैं। सभी प्रतिस्पर्धा में पड़े हैं। सभी 'आपने यह भी कहा कि बुद्धि ही बाधा है।' एक-दूसरे के साथ दांव-पेंच कर रहे हैं। वहां जरा चूके कि निश्चित ही। बुद्धि बाधा है। क्योंकि बुद्धि तुम्हें ध्यान में नहीं | गिरे। वहां जरा चूके कि कोई तुम्हारी छाती पर चढ़ा। वहां जरा जाने देती। बुद्धि विचार में ले जाती है। चूके कि किसी ने तुम्हें साधन बनाया और शोषण किया। विचार और ध्यान बड़ी विपरीत दिशाएं हैं। विचार का अर्थ है, स्वभावतः बाहर की दुनिया में संदेह, विचार, इसका बहुत तरंग। ध्यान का अर्थ है, निस्तरंग हो जाना। विचार का अर्थ है, | ज्यादा उपयोग है। भीतर की दुनिया में तुम हो, तुम्हारा परमात्मा सोचना। ध्यान का अर्थ है, मात्र शद्ध होने में डब जाना। जैसे | है। अंततः तो बस परमात्मा है, तुम भी नहीं हो। वहां धोखा झील सो गयी। कोई लहर नहीं, कोई कंपन नहीं। हवा का झोंका | कौन देगा, धोखा कौन खायेगा? वह एक की दुनिया है। वहां भी नहीं आता। दर्पण हो गयी। उसी दर्पण बनी झील में चांद | दूसरा है ही नहीं। वहां दूसरे को छोड़कर ही पहुंचना होता है। झलक आता है। हवा चली, लहरें उठी, झील कंपी, झील की वहां बुद्धि का क्या करोगे? बुद्धि का शास्त्र वहां काम का नहीं। 224 JainEducation International 2010_03 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ही क्रांति । वह बोझ बन जाएगा। जैसे बाहर संदेह काम देता है, वैसे भीतर विचार से मिला हुआ सब मौत छीन लेती है। क्योंकि विचार से | श्रद्धा काम देती है। जैसे बाहर विचार काम देता है, वैसे भीतर जो मिलता है, बाहर है। मौत सब छीन लेती है जो बाहर है। निर्विचार काम देता है। उलटी यात्रा है। मौत तो तुम्हें फिर से तुम्हारे केंद्र पर फेंक देती है। ध्यान में तुम | बाहर की तरफ जाओ, अपने से दूर जाओ, तो विचार को स्वयं ही उस जगह पहुंच जाते हो, जहां मौत तुम्हें पहुंचाती है। पकड़ना पड़ेगा। अपनी तरफ आओ, विचार को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए ध्यानी की कोई मौत नहीं। ध्यानी कभी मरता नहीं। | ठीक अपने में आ जाओ, सब विचार छूट जाएगा। कहो उसे | मर सकता नहीं। मरते तो तुम भी नहीं हो, लेकिन तड़फते व्यर्थ निर्विचार समाधि, निर्विकल्प समाधि, श्रद्धा या जो भी नाम तुम्हें हो। इस खयाल में तड़फते हो कि मरे! क्योंकि तुमने बाहर सब देने हों। लेकिन एक बात पक्की है, नाम कुछ भी हो, वहां संबंध बनाये, मौत आकर सब पर्दे गिरा देती है। बाहर से सब विचार नहीं है, महावीर ने उस स्थिति को सामायिक कहा है। संबंध तोड़ देती है। अचानक अकेला छोड़ देती है। और तुमने वहां बस शुद्ध आत्मा है। वहां कोई विपरीत नहीं है, जिससे अकेले होने को कभी जाना नहीं। तुमने अकेले होने में कभी घर्षण होकर विचार की तरंग उठ सके। डुबकी न ली। तो तुम जानते ही नहीं कि अकेला होना भी क्या | तो मैं कहता हूं कि बुद्धि भी बाधा है। भला यहां तक बुद्धि ही है। तुम घबड़ाते हो। तुम कहते हो, मर गये! तुम्हारा ले आयी हो-पढ़ा हो, सुना हो मेरे संबंध में तो ही आये | तादात्म्य बाहर से-धन छिना, मकान छिना, पत्नी-पति छिने, होओगे लेकिन अब जब आ ही गये, तो सुनो मैं क्या कह रहा बेटे-बेटियां छिनी, मित्र-प्रियजन छिने; बाहर का सूरज, बाहर हूं। मैं कह रहा हूं, अब बुद्धि को हटाकर रख दो। अब जरा के चांद, बाहर के फूल, सब छिने, आंख बंद होने लगी, भीतर निर्बुद्धि होकर मेरे पास हो लो। अब जरा तरंगों को क्षीण करो। तुम डूबने लगे, तुम घबड़ाये, तुमने कहा हम मरे! क्योंकि तुमने अब जरा निस्तरंग हो लो। निस्तरंग होते ही मेरे और तुम्हारे बीच इस बाहर के जोड़ का ही नाम समझा था, अपना होना। की सब दूरी समाप्त हो जाती है। निस्तरंग होते ही एक ही बचता काश! तुम एकाध बार पहले भी इस अंतर्यात्रा पर गये होते है। न वहां मैं हूं, न तुम हो। वहां वही है। रसो वै सः। उसी का मौत के आने के पूर्व और तुमने जाना होता कि सब छिन जाए रस बरस रहा है। बस एक ही है। वही अमृत, वही अनाहत बाहर का, तो भी मैं हूं। वस्तुतः जब सब छिन जाता है बाहर का, नाद, जिसको झेन फकीर कहते हैं-एक हाथ की ताली। वहां तब मैं शुद्धतम होता हूं। क्योंकि तब कोई विजातीय नहीं होता। दुसरा हाथ भी नहीं है ताली बजाने को। जिसको हिंदू ओंकार का बाहर की कोई छाया नहीं पड़ती। दर्पण एकदम खाली होता है। नाद कहते हैं-वहां कोई नाद करनेवाला नहीं है, नाद हो रहा निपट खाली होता है। शुद्ध होता है। है। वहां नाद शाश्वत है। वहां संगीत किसी तार को छेड़कर नहीं ऐसा तुमने जाना होता, तो मौत भी तुम्हारे लिए ध्यान बनकर है, ताली बजाकर नहीं है, आहत नहीं है, अनाहत है। अकेले का | आती। तो मौत भी तुम्हारे लिए समाधि बनकर आती। तुम्हारे नाद है। वहां गानेवाला, गीत और सुननेवाला, सभी एक हैं। पहचान की भूल है। उसी पहचान के लिए तुमसे बार-बार कह हटाओ बुद्धि को। थोड़ा प्रयोग करके देखो, थोड़ी हिम्मत | रहा हूं-छोड़ो सोच-विचार। करके देखो। विचार तो करके बहुत देखा, उससे जो मिल सकता | बुद्धिमानी से कुछ भी नहीं मिलता, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। | था वह मिला। धन मिल सकता था, मिला। पर धन पाकर भी बुद्धिमानी से संसार मिलता है। सिकंदर होना हो, तो ठीक है, कहां धन मिला! उससे जो मिल सकता था मिला। शरीर | बुद्धिमानी पकड़ो। लेकिन जब तुम परमात्मा की यात्रा पर मिला। शरीरों के संबंध मिले। लेकिन शरीरों के संबंध कहां | निकलते हो, तब बुद्धिमानी मत पकड़ना। वहां तो जिनको तृप्ति लाते हैं, जब तक आत्मा के संबंध न हों। उससे जो मिल | संसार में बुद्ध कहते हैं, वे पहले पहुंच जाएंगे उनसे, जिनको सकता था, मिला। घर बना लिये, दुकानें सजा लीं, तिजोड़ी भर | संसार में बुद्धिमान कहते हैं। वहां तो तर्कशून्य पहले पहुंच ली, लेकिन मौत सब छीनकर ले जाएगी। जाएंगे तार्किकों से। वहां तो मतवाले पहले पहुंच जाते हैं मौत सिर्फ उसी को नहीं छीन पाती, जो ध्यान से मिलता है। बुद्धिमानों से। वहां पागलों की गति है। 225 2010_03 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग2 जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे सरल, वे ही निश्चित ही मैं तर्क की बात भी करता हूं, क्योंकि कुछ हैं जो मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। निश्चित ही संसार के उसी भांति आ सकते हैं। लेकिन तर्क वैसे ही है जैसे मछलीमार राज्य में छोटे बच्चों की कहां जगह है! कहां उपाय है! इसीलिए बंसी में आटा लगाता है। बस। आटा लटका देता है कांटे में, तो हम छोटे बच्चों को जल्दी उनके बचपन से छुटकारा दिलाने | कोई मछलियों को भोजन नहीं करवा रहा है आटे से। आटा तो लगते हैं। कहते हैं, बड़े होओ, बड़ों-जैसा व्यवहार करो, अब | केवल प्रलोभन है, क्योंकि मछलियां आटे को ही देखकर पास तुम्हारी उम्र हो गयी, अब ये बच्चों जैसी बात मत करो। अब आयेंगी। मैं तर्क की निश्चित बात करता हूं, पर आटा है। सरलता से काम न चलेगा। अब तिरछे बनो। अब जीवन का सोच-समझकर गले में लेना। क्योंकि जैसे ही गले में गया, तुम तर्क सीखो। अब लूट-खसोट में कुशल बनो। अब सीधे, पाओगे यहां कुछ बात और है। तर्क तो ऊपर-ऊपर है। भीतर से न चलेगा। यह बद्धपन काम न देगा। तो श्रद्धा है। तर्क से बलाता है, क्योंकि यह यग तर्क का है। यहां जीसस ने कहा है, जो इस संसार में प्रथम हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य | श्रद्धा की कोई सुनने को राजी नहीं है। गणित से तुम्हें बुलाता हूं, में अंतिम होंगे। और जो इस संसार में अंतिम हैं, वे मेरे प्रभु के क्योंकि गणित की भाषा ही तुम समझते हो। तुम्हारी भाषा में ही राज्य में प्रथम हो जाएंगे। बुलाना होगा। जब मेरे पास आने लगोगे तो अपनी भाषा भी गणित बिलकुल उलटा हो जाता है। यहां जो आगे खड़े हैं, वे समझा लूंगा, लेकिन वह तो नंबर दो की बात है। पहले तो तुम्हें एकदम पंक्ति में आखिर में पड़ जाते हैं। क्योंकि यात्रा ही अलग | बुलाना तुम्हारी भाषा में होगा। तुम्हें बुलाना हो तो तुम्हारा नाम है। यात्रा तर्क की नहीं, प्रेम की है। यात्रा संदेह की नहीं, श्रद्धा ही लेकर बुलाना होगा। फिर जब मेरे पास आओगे, तब तुम्हारा की है। जो सरलचित्त हैं, स्वभावतः श्रद्धा कर लेते हैं। उनकी नाम बदल दूंगा। लेकिन पहले तो पास! एक बार पास आ श्रद्धा में एक नैसर्गिक सुगंध होती है। संदेहशील श्रद्धा करता भी | जाओ, फिर धीरे-धीरे तुम्हें पिघला लूंगा। है, तो भी संदेह की दुर्गध कहीं न कहीं किसी कोने में छिपी होती तो जिन्होंने पूछा है, ठीक ही पूछा, ठीक ही कहा है कि आपके है। संदेहशील के मंदिर में भी संसार की गंध आती रहती है। आसपास बुद्धिमान भरे दिखायी पड़ते हैं। यह सच है। वे मेरे भी. वासना बनी रहती है। संदेहशील | तर्क को सनकर मेरे पास आ गये। अब बडी दविधा में पड़े हैं। परमात्मा से हाथ भी जोड़ता है, तो भी तैयार रहता है कि जरा ही जा भी नहीं सकते, क्योंकि मेरी बात तर्कपूर्ण मालूम पड़ती है। गड़बड़ हो तो हाथ अलग कर लें, खींच लें। पूरा नहीं होता बिलकुल डूब भी नहीं सकते, क्योंकि तर्क के पीछे छिपा हुआ प्रार्थना में। हो नहीं सकता। संदेह कभी पूरा नहीं होने देता। | अतर्य है। तर्क के पीछे छिपी हुई श्रद्धा का स्वर भी उन्हें सुनायी संदेह कहता है, पता नहीं, जो कर रहा हूं वह ठीक है या नहीं! पड़ने लगा। आते भी नहीं हैं, जाते भी नहीं। अब अटके रह गये श्रद्धा समग्ररूपेण तुम्हें डुबा लेती है। इसलिए कहता हूं बुद्धि भी हैं। अब जाएं तो जाएं कहां! क्योंकि जिस तर्क ने उन्हें प्रभावित बाधा है। | किया है. अब उस तर्क को छोडना बहत मश्किल है। और अब पूछा है, 'और मैं देखता हूं कि आपके इर्द-गिर्द बुद्धिमान उन्हें यह भी दिखायी पड़ने लगा है कि तर्क तो केवल जाल था। व्यक्ति ही भरे हैं।' तर्क के आगे छलांग है अतयं की। तर्क के आगे छलांग है यह भी सच है। लेकिन, जब तक वे बुद्धि न छोड़ेंगे, तब तक | श्रद्धा की। उनकी बुद्धि को समझाया, बझाया, राजी कर लिया, मेरे इर्द-गिर्द भरे रहें, मुझसे न भरेंगे। उनकी बुद्धि ही बाधा हो अब उन्हें दिखायी पड़ता है-यह तो निर्बुद्धि में उतरने की बात जाएगी। उनकी बद्धि यहां तक ले आयी होगी। सोचा-विचारा है। अब वे ठिठके खड़े हैं-अब वे ठीक किनारे पर खड़े हैं खाई होगा, मेरी बात तर्कपूर्ण मालूम पड़ी होगा, मेरी बात में उन्हें | के। लेकिन किनारे पर खड़े रहें जन्मों तक, तो भी कुछ न होगा। गणित और तर्क का बल मालूम पड़ा होगा, मेरी बात में प्रमाण कूदेंगे खाई में, मिटेंगे, तो ही कुछ होगा। मरेंगे तो ही कुछ का दर्शन हुआ होगा, आ गये। होगा। डरेंगे, तो कुछ भी न होगा। लेकिन तर्क! बुद्धि को धन्यवाद दो। बड़ी कृपा उसकी, यहां तक ले आयी। 226 2010_03 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ही क्रांति अब उसे विदा भी दो। अब उसे नमस्कार करो। कहो, आटा लगा देखकर जैन करीब आ जाते हैं। बस, इसलिए। अलविदा। | इसलिए अब सीधे-सीधे बात बंद की है। बात तो वही कर रहा हूं, वही कर सकता हूं, कोई दूसरा उपाय दूसरा प्रश्न : आचार्य रजनीश को सुनता था—निपट सीधा नहीं है। मैं वही कह सकता हूं, जो मैं हूं। अगर किसी दिन देखा और साफ। अब भी सुनता है प्यारे भगवान को-आड़े होते हैं कि अब लोगों को सीधे-सीधे बात फिर समझ में आने लगी. बुद्ध, महावीर, जीसस, शंकर, नारद, कबीर और फरीद। इन फिर आड़ें छोड़ दूंगा। फिर सीधी बात करने लगूंगा। तुम पर भगवानों के मूल उदघाटित करते हैं, स्वयं सीधे प्रकट होने की निर्भर है। तुमसे बोल रहा हूं, इसलिए तुम्हारा ध्यान रखना बजाय आड़ लेकर आने के पीछे रहस्य क्या है? जरूरी है। अगर एकांत में बोलता होता, अकेले में बोलता होता, शून्य में बोलता होता, तो महावीर, बुद्ध, कृष्ण के नाम का मेरी समझदारी बढ़ी। कोई कारण ही न था। अब भी जब अपने अकेले में बैठा होता पहले सोचा था, सीधे सीधी-सीधी बात कर लेने से हल हो | हूं, तो मुझे न बुद्ध की याद आती है, न महावीर की, न कृष्ण की, जाएगा। लेकिन लोग बड़े तिरछे हैं। मैंने उनकी भाषा सीखी। | न क्राइस्ट की। तुम्हें देखता हूं, तब। तब इन नामों को कहता अब भी वही हूं, जो तब कहता था। लेकिन पहले अपनी खींच-खींचकर मुझे लाना पड़ता है। तुम्हें सहारा देने के कारण, भाषा बोलता था। तब मैंने देखा कि लोग चौंकते हैं, जागते | देने के लिए। तुम आड़ में ही पहचान पाते हो, चलो यही सही। नहीं। चौंकना भर जागने के लिए काफी नहीं है। चौंककर | तुम अगर गुलाब को गुलाब कहने से नहीं समझते, चमेली कहने आदमी फिर करवट लेकर सो जाता है। चौंककर शायद नाराज से समझते हो, चलो चमेली ही सही। गुलाब तो गुलाब है। भी हो जाता है। सोचता है किसने शोरगुल किया! | चमेली कहो, चंपा कहो, जुही कहो, बेला कहो, नाम से क्या मैंने देखा कि लोग मेरी बात सुन लेते हैं, लेकिन उस सुनने से फर्क पड़ता है, गुलाब गुलाब है। मैं मैं हूं। मेरी शराब मेरी शराब उनके जीवन में कोई क्रांति घटित नहीं होती। क्योंकि मैं अपनी | है। महावीर की प्याली में ढालो कि बुद्ध की प्याली में ढालो, मेरे भाषा बोल रहा हूं, जो उनकी समझ में नहीं आती। उनको तो | स्वाद में कोई फर्क पड़ता नहीं। तुम्हारी वजह से नाहक इन नामों उनकी ही भाषा से समझाना होगा। तब मैं अपना गीत गुनगुनाये | को मुझे खींचना पड़ रहा है। जा रहा था, बिना इसकी फिक्र किये कि सुननेवाले को समझ में | अगर मैं फरीद पर बोलता हूं, मुसलमान उत्सुक हो जाता है। भी आता है या नहीं? राम के भक्त मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं आप कृष्ण पर तो • जैसे-जैसे और-और अधिक लोगों के संपर्क में आया, | बोले, राम पर क्यों नहीं बोलते? पत्र आते हैं मुझे। वैसे-वैसे एक बात दिखायी पड़ गयी कि सीधे-सीधे वे मुझे न लखनऊ से किन्हीं मित्रों का पत्र आया कि आप रैदास पर कब देख पायेंगे। सीधे देखने की आंख ही उनकी खो गयी है। उनकी बोलेंगे? वे रैदास के भक्त होंगे। तो रैदास पर कब बोलेंगे। आंखें तिरछी हो गयी हैं। | जैसे कि मैं जो बोल रहा हूं, वह रैदास पर नहीं है! तारणपंथी जैन तो अब मैं महावीर की बात करता हूं, बुद्ध की बात करता हूं; आते हैं, वे कहते हैं, तारण पर कब बोलेंगे? जैसे मैं जो बोल कृष्ण की, क्राइस्ट की, नानक की, कबीर की, फरीद की। ये रहा है, वह तारण पर नहीं है। मैं जो बोल रहा है, वही बोलंगा। भाषाएं उन्हें याद हैं। इन भाषाओं में वे रगे-पगे हैं। इन भाषाओं | गीता रखो, कि कुरान, कि बाइबिल रखो, मैं वही कहूंगा जो मुझे को सुनते-सुनते वे इन शब्दों से परिचित हो गये हैं। उन शब्दों में | कहना है। सिर्फ बीच-बीच में मुझे महावीर, बुद्ध और कृष्ण के डालता मैं वही हूं जो मुझे डालना है। नानक मेरा हाथ तो पकड़ | नाम दोहराने पड़ते हैं, और कुछ खास अंतर नहीं है। तुम्हारी नहीं सकते। जो मुझे कहना है वही कहूंगा। लेकिन सिक्ख को मर्जी। तुम ऐसा चाहते हो, चलो ऐसा सही। जो मुझे बेचना है, समझ में आ जाता है। महावीर कोई मुकदमा तो मुझ पर चला | वही बेचूंगा। नहीं सकते। जो मुझे कहना है वही कहता हूं, लेकिन महावीर का | __ बचपन की मुझे याद है। छोटा था, तब मेरे पिता के पिताजी 227 2010_03 www.jainelibrarorg Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 जिन सूत्र भाग: 2 दुकान चलाते, तो उनकी कुछ बातें याद रह गयीं। एक बात वह ग्राहकों से कहा करते थे कि तरबूजा चाहे छुरी पर गिरे, चाहे छुरी तरबूजे पर गिरे, हर हालत में तरबूजा कटेगा। वे ठीक कहते थे । क्या फर्क पड़ता है! छुरी को नीचे रखकर ऊपर से तरबूजा पटको, कि तरबूजे को नीचे रखकर ऊपर से छुरी पटको, हर हालत में तरबूजा कटेगा । छुरी कैसे कट सकती है ? छुरी काटती है। जैसी तुम्हारी मर्जी हो। लेकिन कटोगे तुम ही । तुम्हें अगर आड़ से कटने में सुख आता है, चलो यही सही। मुझे उसमें कुछ अड़चन नहीं है। क्योंकि महावीर ने वही कहा है, जो मैं कह रहा हूं। बुद्ध ने वही कहा है, जो मैं कह रहा हूं। सिर्फ सदियों का फर्क है, भाषा का फर्क है। अन्यथा कहने का उपाय नहीं । क्योंकि जैसे ही तुम शांत हुए, डूबे अपने में, उस जगह पहुंचे जो शाश्वत है, सनातन है। तीसरा प्रश्न : जैन- कुटुंब में जन्म हुआ। तीन वर्षों से आपको पढ़ता हूं। संन्यास भी लिया है। फिर भी पारे की तरह बिखरा जा रहा हूं। जिन-सूत्र पर प्रवचन अच्छा लगता है । पर भोग में रस बहुत है । फिर परंपरा और संस्कार पांव पर बेड़ी की तरह पड़े हैं । बहुचित्त और विक्षिप्त होता जा रहा हूं, टूटता जा रहा हूं; कृपया मार्ग दर्शन दें। क्यों टूट रहे हो, इसे थोड़ा ठीक से समझ लो, वहीं से मार्ग मिल जाएगा। टूटने के कारण प्रश्न में ही साफ हैं 'जैन- कुटुंब में जन्म हुआ।' किसी न किसी कुटुंब में जन्म तो होगा ही । और जब जन्म होगा किसी कुटुंब में, तो उस कुटुंब का सदियों पुराना ढांचा, संस्कार, आदतें, धारणाएं, विश्वास तुम पर थोपे जाएंगे। अब तक कोई मां-बाप इतने जागरूक नहीं हैं कि बच्चे को स्वतंत्र छोड़ें, कि उसे कहें कि तू बड़ा हो, होशपूर्ण हो, अपना चुनाव करना। जो धर्म तुझे प्रीतिकर लगे, वह चुन लेना। अगर मस्जिद में तुझे रस आये, मस्जिद जाना। गुरुद्वारा प्रीतिकर लगे, गुरुद्वारा जाना। मंदिर में तुझे ध्यान लगे, मंदिर चले जाना। अगर नास्तिकता से ही तुझे सत्य की अनुभूति होती हो, तो वही सही है। लेकिन तू चुनना। हम कुछ तेरे ऊपर थोपेंगे नहीं। अभी ऐसे मां-बाप पृथ्वी पर नहीं हैं। अभी पृथ्वी पर जागे 2010_03 हुए लोग इतने कम हैं कि मां-बाप ऐसे हों भी कैसे! तो हर मां-बाप अपने बच्चे पर वही थोप देता है, जो उस पर थोपा गया था उसके मां-बाप के द्वारा । ऐसे सदियों का कचरा मस्तिष्क पर हावी हो जाता है। वही बिखराव का कारण है। उसके कारण तुम कभी स्वतंत्र नहीं हो पाते। उसके कारण तुम सदा बंधे बंधे हो - जंजीरों में बंधे हो। तड़फते हो उस पार जाने को, लेकिन नाव जंजीरों से इसी किनारे से बंधी है। और जंजीरें बड़ी बहुमूल्य मालूम होती हैं। क्योंकि बचपन से ही तुमने उन्हें जाना। तुम समझते हो कि शायद जंजीरें नाव का अनिवार्य हिस्सा हैं। या तुम शायद सोचते हो कि जंजीरें नाव का आभूषण हैं, सजावट हैं, शृंगार हैं। या कि तुम सोचते हो कि जंजीरों को अगर तोड़ दिया, तो कहीं ऐसा न हो कि दूसरा किनारा तो मिले ही न, और यह किनारा छूट जाए ! तो बंधे हो, तड़फते हो, पताकाएं खोलते हो, पाल खोलते हो, पतवारें चलाते हो, और जंजीरें खोलते नहीं! जंजीरें तोड़ते नहीं । नाव वहीं की वहीं तड़फ तड़फकर रह जाती है। इसी से घबड़ाहट पैदा होती है। जैन - कुटुंब में पैदा हुए हो तो पहला तो काम है- जैन धारणाओं से मुक्त हो जाना। नहीं कि वे गलत हैं। बल्कि दूसरे के द्वारा दी गयी हैं, यही अड़चन है। जिस दिन तुम जागोगे, जिस दिन तुम पाओगे, उन्हें ठीक ही पाओगे। लेकिन अभी उधार हैं। अभी स्व-अर्जित नहीं हैं। और सत्य उधार नहीं मिलता। अगर हिंदू-घर में पैदा हुए हो, तो पहला कृत्य हिंदू-संस्कार से मुक्त हो जाना है। अगर मुसलमान घर में पैदा हुए हो, तो पहला काम स्वतंत्रता का – इस्लाम से छुटकारा ले लेना । खाली करो अतीत से अपने को। अपनी खोज पर निकलो। हिम्मत करो। साहस करो । दुस्साहस चाहिए। कायर की तरह किनारों से मत बंधे रहो। 'जैन - कुटुंब में जन्म हुआ।' वहीं पागलपन के बीज हैं। किसी कुटुंब में तो होगा ही । जैन में हो, सिक्ख में हो, मुसलमान में हो, हिंदू में हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जहां भी जन्म होगा, वहीं तुम पर संस्कार थोप दिये जाएंगे। पहला कृत्य धार्मिक खोजी का उन संस्कारों के जालों को काटकर अपने को मुक्त कर लेना है। जैसे मां के पेट में बच्चा पैदा होता है, तो जुड़ा होता है मां से। जैसे ही गर्भ के बाहर आता है, डाक्टर का पहला काम है उस जोड़ को तोड़ देना। अगर नाभि बच्चे की मां से जुड़ी Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ही क्रांति ही रहे, तो यह बच्चा फिर कभी बढ़ न पायेगा। माना कि अब कदम न उठाया, मोक्ष की, अंतिम मंजिल की बात ही छोड़ दे। तक इसी जोड़ के कारण जीआ, लेकिन अब यही जोड़ मौत का सपना न देखे। व्यर्थ की है बात। यही कठिनाई हुई है, मेरे पास कारण बनेगा। आकर तुम्हारे मन में मोक्ष का सपना पैदा हुआ। और तुम पहला तो पहला काम डाक्टर करता है, काट देता है बच्चे के संबंध | कदम उठाने को राजी नहीं हो। को मां से। सेतु तोड़ देता है। इसके बाद स्वतंत्रता की यात्रा शुरू | 'जैन-कुटुंब में जन्म हुआ। तीन वर्षों से आपको पढ़ता हूं।' होती है। फिर बच्चा मां पर निर्भर रहता है। मां उसका भोजन है, उसी से अड़चन हो गयी। अब तुम लौट भी नहीं सकते। अब दूध है। धीरे-धीरे दूध भी छोड़ देता है; और भी संबंध टूटा। तुम फिर उसी जगह वापस नहीं पहुंच सकते, जहां तीन साल पहले मां के ही पीछे घूमता रहता है, उसका आंचल पकड़कर ही पहले थे। अब कोई उपाय नहीं, लौटने का कोई मार्ग नहीं, विधि घूमता रहता है, फिर धीरे-धीरे पास-पड़ोस में खेलने जाने लगता नहीं। और तुम मेरे साथ भी पूरे नहीं हो पा रहे हो। जिसने पूछा है—और संबंध टूटा। फिर धीरे-धीरे संबंध बड़ा फैलाव लेने है, मुझे पता है, जब वह यहां आते हैं तो माला पहन लेते हैं, लगता है, शिथिल होने लगता है। जैसे-जैसे मां से संबंध टता गेरुआ पहन लेते हैं। घर जाकर गेरुवा-माला दोनों छिपाकर रख है, वैसे-वैसे बच्चा प्रौढ़ होता है। फिर एक दिन किसी स्त्री के देते हैं। वह घर लोगों को यही बता रहे हैं कि जैन हैं, और यहां में पड़ जाता है। उस दिन मां की तरफ बिलकल पीठ हो आकर बताते हैं कि संन्यासी हैं। दविधा तो होगी। घर जाकर जाती है। इसलिए मां कभी भी बहू को माफ नहीं कर पाती। वह घोषणा नहीं कर पाते हैं कि मैं सन्यासी हूं, कि मैंने एक मार्ग सास और बहू के बीच एक बुनियादी विरोध बना रहता है। वह चुना-स्वेच्छा से। कितना ही छिपाओ, कितना ही दबाओ, वह हटता नहीं। क्योंकि संन्यास भी ले लिया है।' इस वचन से ही साफ होता है कि मां को जाने-अनजाने यह पता रहता है कि इसी स्त्री ने उसके बेटे | संन्यास कोई आनंद की तरह घटित नहीं हुआ, जैसे मजबूरी में ले को सदा के लिए तोड़ दिया। | लिया-संन्यास भी ले लिया है! जैसे कोई मजबूरी है। जैसे कि ठीक ऐसा ही अंतस-जगत में भी घटता है। तुम जैन-कुल में लेना नहीं था और ले लिया। या, यह क्या कर लिया। संन्यास पैदा हुए, जैन-धर्म तुम्हारी मां है। जब तुम जरा समझदार हो से छूटो, या अपने संस्कारों से छूटो। पीछे लौट सकते हो, तो जाओ, तो अपने को मुक्त करना शुरू करना। इसका यह अर्थ मुझे भूल जाओ। उससे कोई मुक्ति न होगी, लेकिन कम से कम नहीं है कि तुम जैन-धर्म के विपरीत हो जाना। ऐसा समझो, तो बंधन में ही सुख रहेगा। कारागृह को ही तुम महल समझोगे, मेरी बात गलत समझ गये। मैं तो तुमसे यह कह रहा हूं, कि जो बस इतना ही। लेकिन कारागृह को महल समझनेवाला निश्चित मैं तुमसे कह रहा हूँ, यही वस्तुतः जैन होने का उपाय है। तुम | सोता है। जिस दिन तुम्हें कारागृह का पता चलता है कि यह जैन-संस्कारों से मुक्त होना, यह जैन-संस्कार का विरोध नहीं | महल नहीं है, कारागृह है, उस दिन अड़चन शुरू होती है। वह है। यह जैन होने की वास्तविक व्यवस्था है। हटना, | अड़चन शुरू हो गयी है। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे। दुश्मनी का कारण नहीं है। सिर्फ तुम मैं जानता हूं, लौटना संभव नहीं है। एक दफा कैदी को पता अपनी स्वतंत्रता खोजना। इससे जैन-धर्म गलत है, ऐसा नहीं चल जाए कि यह कारागृह है, इसको मैंने अब तक महल समझा है। तुम सिर्फ अपनी स्वतंत्रता की खोज कर रहे हो। और जो भी था वह गलत था—अब कोई उपाय नहीं है इस बात को भुला चीज बाधा बनती है, उसे तुम हटा रहे हो। देने का। अब वह लाख उपाय करे, लाख पोते दीवालें कारागृह अगर तुम अपने बचपन में डाले गये संस्कारों से मुक्त हो | की, फूल-पत्ती लगाये, सजाये, कुछ फर्क नहीं पड़ता, याद जाओ, तुम अचानक पाओगे, तुम एकजुट हो गये। तुम्हारे रहेगी कि यह कारागृह है। वस्तुतः जितना छिपायेगा, उतनी ही खंड-खंड इकट्ठे हो गये। तुम्हारे भीतर एक संगीत का जन्म | याद सघन होगी कि यह कारागह है।। हुआ, क्योंकि स्वतंत्रता का जन्म हुआ। तुम अब बंधे हुए नहीं मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ एक रास्ते से गुजर रहा हो, परतंत्र नहीं हो। यह मुक्ति का पहला कदम है। जिसने यह है। एक सुंदर युवती निकली, चौंककर नसरुद्दीन ने उसे देखा। 229 2010_03 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 मुल्ला की पत्नी ने कहा कि देखो, कोई भी सुंदर स्त्री निकली कि जोड़ न जाए! तुम भूल ही जाते हो कि तुम विवाहित हो। नसरुद्दीन ने कहा, नहीं, उलटी हालत घटी है। संन्यास लेने ने तुम्हें और तोड़ भाग्यवान! वस्तुतः जब किसी सुंदर स्त्री को देखता हूं, तभी मुझे दिया। तुमने आधे-आधे मन से लिया। यह तुम्हारा संकल्प बहुत-बहुत याद आती है कि अरे, विवाहित हूं! निश्चित मुल्ला तुम्हारी आत्मा से नहीं उठा। यह तुमने औरों को लेते देखकर ले ठीक कह रहा है। पत्नी साथ हो और सुंदर स्त्री रास्ते पर मिल लिया होगा। यह तुम भीड़ के साथ चल गये—भीड़-चाल जाए, तो बड़ी याद आती है कि अरे। विवाहित हूं! सालती है चले। तुमने औरों को प्रसन्न होते देखकर लोभ के कारण ले पीड़ा और भी। लिया होगा कि शायद संन्यास लेने से प्रसन्नता मिलती है। कारागह को अगर तमने साज-संवार लिया, जानकर, भलाने आनंद मिलता है। इसलिए ले लिया होगा। शायद मेरे को, तो कैसे भूलोगे? जानकर कोई भुला सकता है? तुम अगर आशीर्वाद से तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा, इसलिए ले लिया किसी को भुलाने का उपाय करो, तो भुलाने में ही तो याद आती होगा। तुमने भिखमंगे की तरह ले लिया होगा। तुमने सम्राट की है। जितना भुलाना चाहो, उतनी याद सघन होती है। तो लौट तो तरह नहीं लिया। तुमने अपने स्वयं के सहज-स्फूर्त भाव से नहीं तुम न सकोगे, लेकिन मैं कहता हूं, तुम अगर चाहो तो लौट लिया। शायद किसी भावुक क्षण में ले लिया होगा। यहां आये सकते हो। लौट जाओ। बन पड़े तो लौट जाओ, न बन पड़े, तो होओगे, सुना होगा, समझा होगा, भावुक हो गये होओगे, फिर पूरे मेरे हो जाओ। अब दोनों के बीच तुम डांवाडोल भाव-क्षण घिर गया होगा, उस क्षण में उतर गये, फिर पीछे आधे-आधे रहोगे, तो टूटोगे। इसलिए बहुचित्त होता जा रहा हूं, पछता रहे हो कि यह क्या कर लिया! इसीलिए तो कहते हो, विक्षिप्त होता जा रहा हूं, टूटता जा रहा हूं। होगा। निर्णय लेना संन्यास भी लिया है। अभी लिया नहीं। ले लो, गंगा बहती है, होगा अब। मेरे साथ होना है, तो परे मेरे साथ हो जाओ। तब तक पी लो। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम महावीर के दुश्मन हो गये। मेरे फिर भी पारे की तरह बिखरा जा रहा हूं।' निर्णय नहीं कर पा साथ पूरे होकर एक दिन तुम पाओगे कि महावीर मिले। लेकिन रहे हो कि अब क्या करना है। पुराने जड़-संस्कारों से बंधे रहना, यह होना साधारण अर्थों में जैन होना न होगा। जिसको मैं जिन | या इस नयी स्वतंत्रता के रोपे को आरोपित किया है, इसको पानी होना कहता हूं-जैन होना नहीं। जैन होना तो परंपरा से है, सींचना, सम्हालना। दो के बीच उलझे हो। परिवार से है; जिन होना, आत्मजयी होना, यह घटेगा। मगर तुमने सुनी उस गधे की कहानी, जिसके दोनों तरफ दो घास के इसके लिए साहस करना होगा। तो ही हो सकता है। पूरे लगे थे और वह बीच में खड़ा था। वह तय न कर पाया कि 'संन्यास भी ले लिया है।' कुछ आनंद, उल्लास, कुछ इस तरफ के घास के पूरे से भोजन करूं, या उस तरफ के। जरा अहोभाव तुम्हारे संन्यास में नहीं है अभी। अभी तुम्हारा संन्यास इधर झुकता तो खयाल आता, उस तरफ का ज्यादा हरा है। जरा बड़ा थोथा है। अभी तुमने लिया है, यह कहना ठीक नहीं है। उधर झुकता तो खयाल आता, इधर का हरा है। वह बीच में ही मैंने दिया है, इतना ही कहना ठीक है। मैं नहीं नहीं कर सका, | खड़े-खड़े मर गये। दोनों तरफ पूरे रखे थे। भोजन पास था, दूर इसलिए दे दिया है। इसे तुम मेरी सज्जनता समझो। तुमने अभी न था, लेकिन निर्णय न हो सका। दुविधा पैदा होती है जब तुम लिया नहीं है। तुमने जागकर होशपूर्वक अभीप्सा नहीं की है। निर्णय नहीं कर पाते। द्वैत पैदा होता है जब तुम निर्णय नहीं कर तुमने प्राणपण से चाहा नहीं है। तुमने अपना संकल्प अर्पित नहीं | पाते। दुई पैदा होती है जब तुम निर्णय नहीं कर पाते। निर्णय होते किया है। तुम समर्पित नहीं हो। तुमने लिया होता तो हल हो से द्वैत गिर जाता है। निर्णय अद्वैत है। जाता, सारा मामला उसी क्षण। उसी लेने में हल हो जाता है। तो तुम तय कर लो। इधर मैं हूं, उधर तुम्हारे जैन-संस्कार हैं। क्योंकि उसी लेने में तुम इकट्ठे हो जाते। उसी लेने में तुम्हारे सारे तुम तय कर लो। अगर तुम्हें वहां रस हो, लौट जाओ। मैं तुम्हें खंड एक संगीत में बंध जाते. तम्हारे सारे स्वरों के बीच एक रोकंगा नहीं। आनंद तुम्हें चाहे न मिले, कम से कम संतोष तो लयबद्धता आ जाती। क्योंकि इतना बड़ा संकल्प हो और तुम्हें मिलेगा। चलो वही सही। कम से कम सुविधा तो रहेगी, चलो 2300 2010_03 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही सही। लेकिन अगर तुममें हिम्मत है और मेरे साथ आ सकते हो, तो आश्वासन है— आनंद भी मिल सकता है। अहोभाव भी हो सकता है। तुम धन्यभागी हो सकते हो। लेकिन निर्णय तो करना पड़े, कीमत तो चुकानी पड़े। यह निर्णय करना ही कीमत चुकानी है। नहीं तो सभी कोई आनंद को उपलब्ध हो जाएं। जो निर्णय करते हैं, वही हो पाते हैं। 'जिन-सूत्र पर प्रवचन अच्छा लगता है। पर भोग में भी रस बहुत है।' जिन सूत्र पर प्रवचन क्यों अच्छा लगता है ? प्रवचन के कारण ? तो जिन सूत्र से क्या लेना-देना ! जिन सूत्र के कारण ? तो प्रवचन से क्या लेना! जिन सूत्र के कारण अच्छा लगता है, तो उसका अर्थ हुआ कि तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है कि अहो, धन्यभाग, जैन- कुल में पैदा हुआ ! ऐसी मूढ़ता सभी को सिखायी गयी है। हिंदू- कुल में पैदा हुए, धन्यभाग! भारत-भूमि में पैदा हुए, धन्यभाग ! जैसे और सब अभागे हैं दुनिया में। जैनों को तो सिखाया जाता है बचपन से कि तुम जैन- कुल में पैदा हुए, धन्यभागी । एक तो मनुष्य होना दुर्लभ, फिर जैन होना ! बिलकुल दुर्लभ ! जिन सूत्र पर प्रवचन अच्छा लगता है उसका कुल कारण इतना ही है कि तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है, जब मैं कहता हूं महावीर ठीक, तुम्हें लगता है - बिलकुल ठीक; तो हम भी ठीक, तो मैं भी ठीक! जब मैं कहता हूं गीता ठीक, कृष्ण ठीक, हिंदू अकड़ जाता है, कहता है - बिलकुल ठीक। नहीं कि उसे मैं समझ में आ रहा हूं, कि कृष्ण समझ में आ रहे हैं, कि गीता समझ में आ रही है, उसे सिर्फ अहंकार में खुजलाहट आ रही है, खुरदुरी आ रही है । फुरफुरी आ रही है। वह इसका अहंकार मजा ले रहा है, वह कह रहा है - बिलकुल ठीक । फूल के कुप्पा हो जाता है। इसीलिए रस आ रहा होगा। यह रस नहीं है। बड़ा रुग्ण रस है। यह स्वस्थ नहीं है, यह बीमार है। यदि तुम मुझे सुनते हो, तो मैं कह रहा हूं उसकी फिकिर करो। तुम खूंटियों की फिकिर कर रहे हो। मैं क्या खूंटी पर टांग रहा हूं, उसकी फिकिर करो। गुठलियां गिन रहे हो, आम चूसो । मगर मन बड़ा पागल है। अगर महावीर की मैंने प्रशंसा कर दी, जैन अकड़कर चलने लगता है। तो वह कहता है कि फिर ठीक; तो हम जो मानते थे, बिलकुल ठीक। तुम्हारी मान्यता को ठीक नहीं कह रहा हूं। जब 2010_03 ज्ञान ही क्रांति मैं महावीर को ठीक कहता हूं तो मैं जैनों को ठीक नहीं कह रहा हूं, ध्यान रखना। अगर जैन ठीक हैं, तो महावीर गलत हैं। अगर महावीर सही हैं, तो जैन गलत हैं। महावीर और जैनों का क्या लेना-देना ! इन्हीं दुष्टों के कारण तो सब खराब हुआ । इन्हीं ने तो डुबाया । ये खुद तो डूबे, महावीर को भी ले डूबे | महावीर इनसे मुक्त होते, तो... तो ज्यादा साफ होता आकाश । इन्हीं की बदलियां तो घिर गयीं, उनका सूरज ढक गया। इन्हीं के कारण तो महावीर को समझना मुश्किल हो गया है। हिंदुओं के कारण कृष्ण को समझना मुश्किल । ईसाइयों के कारण जीसस को समझना मुश्किल । मुसलमानों के कारण मुहम्मद की फजीहत! क्योंकि जिसने मुसलमान को देखा, अनजाने जो मुसलमान कर रहा है उसका दोषारोपण मुहम्मद पर भी चला जाता है। जाएगा ही। जिसने जैन को गौर से देखा, वह महावीर के चरणों में सिर नहीं झुका सकता। क्योंकि अगर यह महावीर का परिणाम है, तो महावीर में कुछ दोष रहा ही होगा। लेकिन खयाल रखना, अनुयायी अकसर गुरु से उलटे होते हैं। शायद जीवित गुरु के पास जो अनुयायी इकट्ठे होते हैं, वे तो गुरु की थोड़ी-बहुत मानते - थोड़ी बहुत कहता हूं, पूरी मान लेते तो न मालूम कितने महावीर एक-साथ पैदा हो जाते - थोड़ी-बहुत मान लेते हैं; पर थोड़ी-बहुत सही, उतनी थोड़ी भी उनको बचा लेती है। फिर उनके बच्चे पैदा होते हैं, फिर उनके बच्चे पैदा होते हैं, महावीर दूर पड़ते जाते हैं। फिर महावीर एक पिटी हुई लकीर रह जाते हैं। जिसे तुमने नहीं चुना है, वह कभी भी तुम्हारे लिए जीवंत धर्म नहीं हो सकता। जो तुमने मां-बाप से ले लिया है, परंपरा से ले लिया है, संस्कार से ले लिया है, वह मुर्दा लकीर है। उसमें कोई प्राण नहीं। तुम थोड़ा सोचो, तुम मेरे पास आये हो, तो तुम्हारे जीवन में एक उल्लास होगा। तुमने मुझे चुना है, खोजा है, तुम मर्जी से आये हो अपनी, कोई तुम्हें लाया नहीं - वस्तुतः रोकनेवाले बहुत हैं, लानेवाला तुम्हें यहां कौन है ! हजार मिले होंगे रास्ते में जिन्होंने कहा होगा – अरे, कहां जाते हो, रुको! फिर भी तुम उनको पार करके आये हो। बहुत चलते हैं, थोड़े से पहुंच पाते हैं। बीच में अनेक लोग हैं रोकनेवाले, जो उन्हें रोक लेते हैं। तो तुम्हारे आने में तुम्हारा बल है, तुम्हारा संकल्प है। लेकिन तुम्हारे 231 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 बच्चों को तुम मेरी किताबें दे जाओगे, मेरे चित्र दे जाओगे, माला | बिठाया, कोई चालाकी न की। कोई दुनियादारी न की। भोलेपन सम्हाल जाओगे कि सम्हालकर रखना, इस माला से हमने बहुत से चुना। पाया। वह पाना तुम्हारे संकल्प से हुआ था, माला से नहीं। इन तो तुम्हारे बेटों को तुम अगर मुझे दे गये कि सम्हालकर रखना, पुस्तकों से हमें बड़ी ज्योति मिली। वह ज्योति तुम्हारी खोज से वह सम्हालकर रखेंगे, वह पूजा भी करेंगे, लेकिन मैं उनके लिए मिली थी। ये बच्चे इन किताबों को रखकर पूजा करते रहेंगे, ये बोझ हो जाऊंगा, जो गलती तुम्हारे मां-बाप ने की है, वह तुम इन्हें खोलेंगे भी नहीं। और कभी खोलेंगे भी, तो इनका कभी भी मत करना। तुम्हारा मेरा नाता निजी है, वैयक्तिक है। इसे तुम हृदय का स्पर्श न हो सकेगा, क्योंकि जो स्वयं नहीं चुना है...। थोप मत जाना। हां, अगर तुम्हें कुछ मिला हो, तुमने कुछ पाया फर्क समझो। हो तो अपनी संपदा उखेड़कर बता जाना अपने बच्चों को कि एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ जाता है, यह एक बात है। हमने पाया था, इस तरह खोजा था, तुम भी खोजना। शायद फिर बाप जाता है उस युवक का, पंडे-पुजारी से मिलता है, तुम्हें भी मिल सके। मिलता है, इतना आश्वासन दे जाना। ज्योतिषियों से मिलता है, फिर किसी दूसरी लड़की से उसका तुम्हारे आनंद से उनको प्रमाण मिल जाए कि जगत में परमात्मा विवाह तय करता है। पूछो उस युवक से क्या फर्क है? जिससे है। बस काफी है। फिर वे खोज लेंगे अपना परमात्मा। खुद ही वह स्वयं प्रेम में पड़ गया है, वह जान देने को तैयार है। जिससे खोजेंगे, तो ही मजा आयेगा। मुफ्त मिलेगा, तो बे-मजा हो बाप उसका विवाह करवा देना चाहता है, वह समझता है यह | जाता है। फंदा हो रहा है, फांसी लग रही है। दोनों स्त्रियां हैं। यह भी 'जिन-सूत्र पर प्रवचन अच्छा लगता है।' तो कहीं भूल हो जरूरी नहीं है कि बाप ने जो स्त्री चुनी है, वह प्रेयसी से कम सुंदर रही है अभी। जो में कह रहा हूं, उसे सुनो, बहानों पर ध्यान मत हो—ज्यादा भी हो सकती है। निश्चित ही बाप ज्यादा होशियार दो। बहानों पर ध्यान गलत दृष्टि के कारण जाता है। अकसर है। ज्यादा जीवन देखा है। वह ज्यादा सुंदर, स्वस्थ, कुलीन, ऐसा होता है कि मैं वही कहता हूं महावीर के नाम पर, वही सुशिक्षित, संपन्न परिवार चुनेगा। वह हजार बातें सोचेगा, जो कहता हूं बुद्ध के नाम पर। ठीक वही बात कहता हूं। लेकिन बेटा अभी जान भी नहीं सकता, सोच भी नहीं सकता। बेटा तो जब बुद्ध के नाम पर कहता हूं, तब जैन बैठा रहता है. उसको अंधे की तरह किसी भी लड़की के प्रेम में पड़ सकता है। बाप कुछ रस नहीं आता। जब महावीर के नाम पर कहता हूं, तब वह हजार बातें सोचेगा, आगे की, पीछे की, सब हिसाब लगायेगा।| सजग होकर सुनने लगता है, उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है। तो बाप गणित से चलेगा, तर्क से चलेगा। बेटा प्रेम से चल रहा है। तुम अपने अहंकार को पूज रहे हो। न तम महावीर को पज रहे, लेकिन बेटा जिसके प्रेम में पड़ गया है, उस पर जान देने को न बुद्ध को पूज रहे। तैयार है। और जिससे उसका विवाह किया जा रहा है, वह 'जिन-सूत्र पर प्रवचन अच्छा लगता है, पर भोग में रस बहत जबर्दस्ती घसीटा जाएगा-जैसे बलि का पशु बूचड़खाने की है।' दोनों का कारण जिन-सूत्र है। जिन-सूत्र पर प्रवचन तरफ घसीटा जाता है, ऐसा अनुभव करेगा। उसे लगेगा मौत हो अच्छा लगता है। क्योंकि बचपन से वही सुना है, पकड़ा है, रही है मेरी। पकड़ाया गया है। अबोध थे तब से तुम्हारा मन उसी से आरोपित यही फर्क धर्मों का भी है। जो धर्म तुमने चुना, वह तो तुम्हारा किया गया है। और उसी के कारण भोग से भी छुटकारा नहीं प्रेम है। और जो धर्म तुम्हें मां-बाप से मिला, वह तुम्हारा विवाह होता, क्योंकि बचपन से ही दमन सिखाया गया है। जिन-सूत्र है। विवाह कभी प्रेम नहीं हो पाता। और जिस दिन प्रेम विवाह की जिन्होंने व्याख्या की है, उन्होंने ऐसी गलत व्याख्या की है कि हो जाता है, उस दिन प्रेम मर जाता है। या जिस दिन कभी विवाह जिन-सूत्र का पूरा अर्थ दमनात्मक हो गया है, रिप्रेसिव हो गया प्रेम बन जाता है, उस दिन विवाह समाप्त हो जाता है। प्रेम बड़ी है। दबाओ। कुछ भी स्वीकार नहीं है। निषेध करो। कुछ भी बात और है। क्या है फर्क? तुमने चुना, स्वतंत्रता से चुना। विधेय नहीं है। काटो। पापी बना गये हैं वे सूत्र और उनकी अपने भाव से चुना। अपने हृदय से चुना। कोई गणित न व्याख्याएं तुम्हें। होना तो उलटा चाहिए था। महावीर की तो 2010_03 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकांक्षा वही थी, कि तुम्हारे भीतर के परमात्मा का तुम्हें स्मरण आये। लेकिन तुम्हारे साधु-संत तुम्हें सिर्फ तुम्हारे पापी की याद दिला - दिलाकर अपराध से भर गये हैं। तो तुमने जीवन में जिन-जिन चीजों को पाप मानकर दबा रखा है, उन उन में रस बहुत आयेगा । भोग को दबाया, तो भोग में रस आयेगा। काम को दबाया, काम में रस आयेगा । लोभ को दबाया, तो लोभ नये-नये रूपों में प्रगट होगा। क्रोध को दबाया, तो नयी-नयी भाव-भंगिमाएं क्रोध धारण करेगा। जो दबाया, | उससे छुटकारा कभी भी न होगा। दबाने से कोई मुक्ति नहीं आती। समझो, जागो । अगर भोग में रस है, तो भोग से भागो मत। जागो; भोग में ही खड़े-खड़े जागो। तुम्हारा जागरण ही तुम्हें भोग से छुटकारा दिलायेगा । तो मैं नहीं कहता कि भागो। भागने से क्या होगा ? भोग भीतर है, तुम जहां जाओगे वहीं तुम्हारे साथ चला जाएगा। यह कोई बाहर रखी चीज थोड़े ही है, कि पीठ कर ली और भाग खड़े हुए, तो दूर छूट गयी। यह तुम्हारे अंतस में है। इसे मिटाने का एक ही उपाय है – इसे जानना । ज्ञान क्रांति है। और ज्ञान एकमात्र क्रांति है । और तरह की क्रांति होती ही नहीं । तो अगर भोग में रस है, तो घबड़ाओ मत, रस लो । जागकर लो। भोगो। इसका इतना ही अर्थ है कि तुम भोग से अभी गुजरे नहीं । गुजरने के पहले तुमने निंदा कर ली। संसार को अभी जाना नहीं; जानने के पहले त्याज्य समझ लिया। नहीं, व्यर्थता को देखना पड़ेगा। तभी संसार छूटता है। गुजरना पड़ेगा, अनुभव से, अनुभव की पीड़ा से । अनुभव की अग्नि से जलना, तपना पड़ेगा। ‘फिर परंपरा और संस्कार पांव पर बेड़ी की तरह पड़े हैं।' पड़े नहीं हैं, तुम उन्हें पकड़े हुए हो । बेड़ियां कोई बांधे नहीं है, तुम उन्हें सम्हाले हुए हो। कौन तुम्हें रोकता है । छोड़ो। तुम्हारे छोड़ते ही वे छूट जाएंगी। लेकिन भय है, घबड़ाहट है। यह बड़े मजे की बात है - बड़ी विडंबना की भी - कि जिससे कुछ भी नहीं मिलता उसको भी हम पकड़े रहते हैं, सम्हाले रहते हैं थाती की तरह, धरोहर की तरह । तुम कूड़ा-कर्कट भी बाहर नहीं फेंक पाते हो, उसको भी तिजोड़ी में सम्हाले जाते हो। अगर तुम्हें दिखायी पड़ गया है कि यह बेड़ियां हैं, तो अड़चन क्या है, अब छोड़ो। तोड़ो, गिरा दो । एक क्षण में यह घट | 2010_03 ज्ञान ही क्रांति सकता है। लेकिन शायद तुम्हें दिखायी नहीं पड़ रहा है। यहां भी तुमने मेरी बातें सुन-सुनकर मान ली हैं। यह तुम्हारी समझ बनी नहीं है। इसलिए तुम एक तरकीब निकाल रहे हो। तुम कहते हो बेड़ियां बांधे हुए हैं। बांधे हुए कौन है ! संस्कार कहां बांधे हुए हैं। तुम कह दो कि बस क्षमा, अब बहुत हो गया; तुमसे कुछ भी न पाया, अब मुझे तुमसे मुक्त होकर कुछ खोज लेने दो। मंदिर हो आये बहुत बार, कुछ न मिला, अब क्यों रोज चले जाते हो! आदत न बनाओ मंदिर जाने की। धर्म आदत नहीं, स्वभाव है। आदत में स्वभाव दब जाता है। जिस मूर्ति के सामने सिर झुका - झुकाकर थक गये, माथा घिस डाला, मूर्ति भी खराब कर डाली, अब उसको कहो कि बहुत हो गया; हम भी थक गये. ये, तुम भी थक गये होओगे, अब मुझे क्षमा करो! लेकिन कहीं और अड़चन है। जिसको तुम बेड़ियां कह रहे हो, वह मेरा शब्द तुमने उपयोग कर लिया, तुम्हारा नहीं । तुम्हारे मन में तो भीतर कहीं है कि यह बेड़ी बड़ी मूल्यवान है, सोने की है, हीरे-जवाहरात जड़ी है, इसको छोड़ कैसे दें ! इसमें तो बड़ा रहस्य है | तो नहीं छूट पायेगी। तो फिर कैसे छूटेगी ! अगर तुम बीमारी को स्वास्थ्य समझे बैठे हो, तो तुम कैसे इलाज करोगे ? अगर तुमने गलत को ठीक समझ रखा है, अंधेरे को प्रकाश समझ रखा है, कांटे को फूल समझ रखा है, तो फिर तुम कैसे मुक्त हो सकोगे ! जाए देखो ठीक से, अगर बेड़ी है, तो तोड़ो। तोड़ने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ समझ में आ जाए कि बेड़ी है, छूट जाती है । तुम हाथ में कंकड़-पत्थर लिए जा रहे हो और कोई मिल और कह दे कि कंकड़-पत्थर हैं, तो क्या तुम पूछोगे कि अब इन कंकड़-पत्थरों को कैसे छोडूं ? यह पूछना तो तभी संभव है, जब तुम्हारे भीतर मन में तो तुम मानते हो कि हैं तो हीरे-जवाहरात, यह आदमी कह रहा है कंकड़-पत्थर; इस आदमी को भी इनकार करना मुश्किल है, इस आदमी के तर्क में बल है और भीतर का संस्कार भी कहता है – कंकड़-पत्थर ! ये हीरे-मोती हैं, कंकड़-पत्थर नहीं हैं, अब करें क्या? तुम उस आदमी से पूछते हो, इन्हें छोड़ें कैसे? या तो ये हीरे-मोती हैं, छोड़ने की जरूरत नहीं । या फिर ये कंकड़-पत्थर हैं, छोड़ने की जरूरत क्या है ? छूट ही जाने चाहिए। गिरा दो, हाथ खोल दो । मुट्ठी खोलो। घबड़ाओ मत ! जिससे कुछ भी नहीं 233 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग 2 मिला है, उसे छोड़ने से कुछ हानि न हो जाएगी। लेकिन लोग तो प्रशंसा मिलती है। क्योंकि समाज तुम्हें मुक्त नहीं देखना दुख छोड़ने तक में डरते हैं। दुख तक को पकड़ लेते हैं, कम से चाहता। समाज के लिए यही सुविधा है कि तुम जंजीरों में रहो। कम पुराना है, पहचाना हुआ है। जैसे ही तुम जंजीरें तोड़ोगे, तुम्हारी प्रतिष्ठा खोने लगेगी। लोग यहां कछ भी मल्यवान नहीं है. जो तम पकडे हए हो। और जो तम्हें सम्मान न देंगे। मूल्यवान है, उसे पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है, वह तुम्हारा | एक जैन-साधु मुझे मिलने आये, कुछ वर्ष पहले। मैंने उनसे स्वभाव है। जिस जैन-धर्म को तुमने पकड़ा है, वह तो केवल पूछा कि सच-सच कहो, मिला क्या है तुम्हें? पचास वर्ष से तुम परंपरा है, लीक है। जिस जिन-धर्म की मैं बात कर रहा हूं, वह जैन-मुनि हो, पाया क्या है? जब तेरह-चौदह वर्ष के थे, तब तुम्हारा स्वभाव है। सब लीकें, सब परंपराएं छोड़ दोगे, तब तुम मां-बाप ने दीक्षा दे दी। मां-बाप भी मुनि हो गये थे, तो उन्होंने पाओगे उसका आविर्भाव हुआ। उन्हें भी मुनि बना लिया। वह कहने लगे, आपसे छिपा नहीं झूठ क्यों बोलें फरोगे-मसलहत के नाम पर सकता, पाया कुछ भी नहीं। फिर मैंने कहा, जब पाया नहीं. तो जिंदगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है पचास साल काफी नहीं हैं अनुभव के लिए कि यहां कछ मिला झूठ क्यों बोले फरोगे-मसहलत के नाम पर नहीं, कहीं और खोजें, जिंदगी खोती जा रही है? उन्होंने कहा, हित-अहित के नाम पर झूठ क्यों बोलें? | बड़ा मुश्किल है। प्रतिष्ठा मिली, सम्मान मिला, अहंकार की जिंदगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है। पूजा हुई–हजारों लोग मेरे चरण छूते हैं- कुछ और नहीं कितनी ही प्यारी हो जिंदगी छट ही जानी है. मरना है। इस मिला। भीतर बिलकल खाली हं. लेकिन बाहर बडा सम्मान है। जिंदगी के लिए, इस जिंदगी के हित और अहित के लिए, और अगर इसे मैं छोड़ दं, तो जो मेरे पैर छूते हैं वे मुझे घर में कल्याण-अकल्याण के लिए झूठ क्यों बोलें? जो छूट ही जाना | बुहारी लगाने की नौकरी भी देने को राजी न होंगे। न मैं है, वे समझदार के लिए छूट ही गया। जो जिंदगी मिट ही जानी पढ़ा-लिखा हूं, न मेरी कोई और योग्यता है। बस मेरी योग्यता है, वह मिटी ही पड़ी है। फिर वह यह नहीं कहता कि अब यही कि मैं उपवास कर सकता हूं। अब यह भी कोई योग्यता है, जिंदगी की रक्षा के लिए झूठ बोलना जरूरी है। जिंदगी की कोई | कि भूखे मर सकते हैं! मेरी योग्यता यही है कि मैं कष्ट सह रक्षा हो ही नहीं सकती, जिंदगी तो जाएगी ही, तो थोड़ी सकता है। यह भी कोई योग्यता है! कष्ट सहना कोई योग्यता सुख-सुविधा में बीती कि थोड़ी असुविधा में बीती, क्या फर्क है! मुर्दे की तरह जी सकता हूं, यही योग्यता है। पड़ता है! सपना सुबह टूट ही जाएगा, सपने में भिखारी रहे कि खयाल करना, तुम जिन जंजीरों को पकड़े हो, उनके साथ राजा रहे, क्या फर्क पड़ता है! गरीब की तरह जीए कि अमीर की प्रतिष्ठा जुड़ी होगी। मंदिर आदमी जाता है, क्योंकि लोग समझते तरह जीए, क्या फर्क पड़ता है! प्रतिष्ठित की तरह जीए कि | हैं धार्मिक है। न जाए, तो लोग समझते हैं अधार्मिक है। लोग अप्रतिष्ठित की तरह जीए; लोगों ने आदर दिया कि अनादर दान भी कर लेते हैं, गीता भी रखकर पढ़ लेते हैं, कुरान भी दिया, क्या फर्क पड़ता है! जिंदगी छूट ही जानी है। रखकर पढ़ लेते हैं, ताकि लोगों को लगता रहे कि जिंदगी प्यारी सही, लेकिन हमें मरना तो है धार्मिक-बड़े सज्जन-साधु-चरित्र। लोग चरित्र को भी एक बार यह समझ में आ जाए, तो फिर तुम जंजीरों को छोड़ने पकड़े रखते हैं। व्रत-नियम भी बांधे रखते हैं। मगर यह सब में कोई अड़चन न पाओगे। अहंकार की ही पूजा चल रही है। और आत्मा को पाना हो, तो डर क्या है? प्रतिष्ठा मिलती है जंजीरों से। जिसके पास इस पूजा से छुटकारा करना ही होगा। क्योंकि यही तो बाधा है। जितनी बड़ी जंजीरें हैं, उतनी बड़ी प्रतिष्ठा है। लोग कहते हैं, । 'कृपया मार्ग-दर्शन दें।' तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर छिपा देखो, कितनी बड़ी जंजीरें हैं इस आदमी के पास, कितने है। हिम्मत करो। कायर न रहो। थोड़ा साहस करो। दांव पर हीरे-मोती जड़ी, सोने की, खालिस सोने की बनी-चौबीस लगाओ। यहां खोने को तो कुछ भी नहीं है, अगर सब खो भी कैरेट सोने की बनी! जितने तुम जंजीरों में जकड़े हो, उतनी तुम्हें गया और कुछ भी न मिला, तो भी कुछ नहीं खोता है। 234 2010_03 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ही क्रांति लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जिसने हिम्मत की है दांव पर लगाने यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं, इस कहने पर बहुत ज्यादा निर्भर की उसने जरूर पा लिया है। मगर मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता मत रहना। इस कहे हुए के किनारे-किनारे अनकहा हुआ भी | है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। तुम आत्मा को पाने भेज रहा हूं। हर दो शब्दों के बीच में जो खाली जगह है, वहीं तुम चले हो, मुफ्त पाने चले हो। कीमत चुकाओ। यद्यपि जब मुझे पकड़ना। जब मैं चुप रह जाता हूं, तब मुझे गौर से सुनना। आत्मा मिलेगी, परमात्मा का दर्शन होगा, तब तुम पाओगे जो शब्द छूट जाएं, हर्ज नहीं, शून्य न चूकने पाये। इसलिए कीमत चुकायी थी, वह तो कुछ भी न थी। जो मिला है, वह तो कभी-कभी ऐसा होगा कि सुनते-सुनते एक तारी लग जाएगी। अमूल्य है। उसको किसी कीमत से चुकाना संभव नहीं। कुबेर एक लय बंध जाएगी। एक अनूठे रस में सरोबोर होने लगोगे। के सारे खजाने भी उलीच देने से उसकी कीमत चुकनेवाली नहीं उस क्षण ऐसा भी लगेगा कि अब कुछ सनायी नहीं पड़ता, अब है। घबड़ाओ मत कुछ दिखायी नहीं पड़ता, लेकिन मस्तक झुकने लगेगा। वह जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है झुकना बड़ा सांकेतिक है। वह समर्पण का सूचक है। उसे जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते तोड़ना मत। उस तंद्रा को हिलाना मत। वैसी तंद्रा समाधि की धड़कनें रुकने से अरमान नहीं मर जाते पहली झलक है। सांस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते यह मत सोचना कि यह मैं क्या कर रहा हूं, सुनने आया था, होंठ जम जाने से फरमान नहीं मर जाते सुनना तो चूका जा रहा है। देखने आया था, आंखें तो बंद हुई जा जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है। रही हैं। यहां जो देखने को है, वह आंख बंद करके ही देखने को शरीर भी मर जाए, तो भी तुम नहीं मरते हो। मन भी मर जाए, है। और यहां जो सुनने को है, वह जब तुम झुकोगे तभी सुनायी तो भी तुम नहीं मरते हो। वस्तुतः जैसे ही तुम जानने लगते हो कि पड़ेगा। तो मैंने जो कहा, अगर वह याद भी न रहे, फिकिर मत शरीर की मृत्यु मेरी मृत्यु नहीं, मन की मृत्यु मेरी मृत्यु नहीं, वैसे करना। क्योंकि यहां हम कोई परीक्षा देने नहीं बैठे हैं किसी ही तुम्हें पहली दफा महाजीवन की झलक मिलनी शुरू होती है। विश्वविद्यालय की, कि मैंने जो कहा वह तुम्हें याद रहे। उसके पहली दफा अंधेरे में दीया जलता है। नोट मत लेना। उसको मन में फिकिर मत करना। यहां तो कुछ तो व्यर्थ मूल्यों को मूल्य मत दो। प्रतिष्ठा, सम्मान, सत्कार, और ही घट रहा है बोलने के बहाने। यहां तो बोलने के बहाने रिस्पेक्टेबिलिटी–झाड़ो, बुहारो, कूड़ा-कर्कट इकट्ठा करो, हृदय और हृदय का मेल बनाने की चेष्टा चल रही है। यह कचराघर में फेंक आओ। इसे घर में रखने की जरूरत नहीं है। बोलना तो ऐसे ही है जैसे छोटे बच्चों को हम खिलौना दे देते हैं कि खेलो। बच्चे खिलौने के खेल में लग जाते हैं, तो शांत हो चौथा प्रश्न : आपके प्रवचन पढ़ने में रस आया, पुस्तकें यहां जाते हैं। उपद्रव नहीं करते। ऐसा ही मेरा बोलना है। यह तो खींच लायीं; लेकिन अब शब्द समझ में नहीं पड़ते। आंखें | खिलौने हैं, तुम्हारी बुद्धि को कि खेलो। जब तुम्हारी बुद्धि आपको निहारती रहती हैं और मिंच जाने पर मस्तक नत हो खेल-खिलौने में उलझी है, तब मैं तुम्हारे हृदय के पास हूं। बुद्धि रहता है। क्या यही रूपांतरण है मन से आत्मा की तरफ? | का उपद्रव बंद है, वह अपने खिलौनों में उलझी है, तुम्हारा हृदय मेरे करीब सरककर आ सकता है। अगर ऐसा घटने लगे, घटने निश्चित ही। शब्द कब तक सुनते रहोगे? शून्य सुनना | देना। परिपूर्ण भाव से घटने देना। क्योंकि वही लक्ष्य है। पड़ेगा। वाणी में कब तक उलझे रहोगे? वाणी के पार चलना अरबाबे-जुनूं पर फुरकत में होगा। यह बात जो मैं तुमसे कह रहा है, कानों से सुनने की नहीं, अब क्या कहिये क्या-क्या गुजरी हृदय से सुनने की है। और यह जो इशारे मैं तुम्हें कर रहा हूं, आये थे सवादे-उल्फत में आंखों से देखने पर समझ में न आयेंगे, आंखें बंद होंगी तभी कुछ खो भी गये कुछ पा भी गये समझ में आयेंगे। प्रेम के यात्रियों पर प्रेम की यात्रा में क्या-क्या गजरी? 2351 2010_03 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 अरबाबे-जुनूं पर फुरकत में है अटल विश्वास जीवन छीन जाऊंगा मरण से! अब क्या कहिये क्या-क्या गुजरी दूर मत करना चरण से!!' आये थे सवादे-उलफत में भाग्यशाली हो अगर झुकने की कला आ रही है। इस भाग्य आये थे प्रेमनगर की सीमा में। को भोगो। इस भाग्य को साथ सहयोग करो। इस भाग्य में आये थे संवादे-उलफत में बाधा मत डाल देना। इस घटती हुई घटना में किसी तरह का कुछ खो भी गये कुछ पा भी गये अवरोध खड़ा मत कर देना। तुम्हारे झुकने में ही कंजी है। वहीं यहां कुछ खोयेगा, तो ही कुछ पाया जाएगा। यहां जितना से द्वार खुलता है मंदिर का। खोयेगा, उतना ही पाया जाएगा। इधर तुम अगर बिलकुल खो गये, तो सब कुछ पा गये। यहां से अगर बचे-बचे चले गये, तो आखिरी प्रश्न : जानने की चाह में मैंने रात को दिन रचते खाली आए खाली चले गये। झुको। झुक जाओ। समग्र देखा। ऐसा क्यों हुआ? मन-प्राण से झक जाओ। यही तो सदा से भक्तों की गहन प्रार्थना रही है जो भी जानने चलेगा, वह एक न एक दिन उस पड़ाव पर दूर मत करना चरण से। पहंचता है, जहां विपरीत मिलते हए दिखायी पड़ते हैं। जहां दिन छोड़ कर संसार सारा, और रात विपरीत नहीं होते। जहां दिन और रात एक ही प्रक्रिया है लिया इनका सहारा, के दो अंग होते हैं। यदि न ठौर मिला यहां भी क्या मिला फिर मनुज-तन से! रात ही तो दिन को रचती है। रात के गर्भ में ही तो दिन पलता दूर मत करना चरण से!! है। और फिर दिन के गर्भ में रात रची जाती है। दिन ही तो रोज कलुष जीवन पुण्य होगा, रात को जन्म दे जाता है। रात ही तो रोज फिर दिन को स्वप्न, सत अक्षुण्ण होगा, पुनरुज्जीवित कर जाती है। जीवन में ही तो मौत पलती है। मौत छु सकू प्रिय पग तुम्हारे प्यार के गीले नयन से। से ही तो जीवन उमगता है। पतझड़ में ही तो वसंत के पहले दूर मत करना चरण से!! चरण सुनायी पड़ते हैं। वसंत फिर पतझड़ के लिए तैयारी कर यदि तुम्हारी छांह-चितवन जाता है। पुराने गिरते पत्तों के पीछे झांकते नये पत्तों को देखो। में पले यह क्षुद्र जीवन नये झांकते पत्तों के पीछे फिर पराने गिरते पत्तों की कथा लिख है अटल विश्वास जीवन छीन जाऊंगा मरण से! जानेवाली है। दूर मत करना चरण से! यहां जीवन में द्वंद्व, द्वंद्व नहीं है, द्वंद्व परिपूरकता है। यहां कुछ वह जब तुम झुक रहे हो, तब ऐसे गहरे भाव से झुकना कि विरोध नहीं है, अविरोध है। दो दिखायी पड़ते हैं, क्योंकि हमें प्रभु-चरणों में झुक रहे हैं, कि परमात्मा में झुक रहे हैं। अभी देखने की गहरी पकड़ नहीं आयी, सूझ नहीं आयी, | दूर मत करना चरण से!! परिप्रेक्ष्य नहीं है। अभी दृष्टि गहरी नहीं है। इसलिए दो दिखायी यदि तुम्हारी छांह-चितवन पड़ते हैं। जब दृष्टि गहरी होगी, तो तुम पाओगे एक ही बचा। में पले यह क्षुद्र जीवन यही तो अद्वैत का सार है। खोजने जो चले, उन्हें एक न एक दिन तुम झुके कि छाया में आये परमात्मा की। अकड़े खड़े रहो, तो | पता चला, जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख अहंकार की धूप में जलते रहोगे। झुके कि आये छाया में। मिली और दुख; सफलता, असफलता; शांति, अशांति; संसार, छाया। संन्यास: सभी एक ही पहल के दो हिस्से हैं। यदि तुम्हारी छांह-चितवन जिस दिन यह दिखायी पड़ता है-यह पड़ाव है, यह आखिरी में पले यह क्षुद्र जीवन पड़ाव है, इसके बाद मंजिल है-जिस दिन यह दिखायी पड़ता 236 2010_03 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । है कि द्वंद्व नहीं है और सभी द्वैत एक ही में जुड़े हैं, बस मंजिल करीब आ गयी। यह आखिरी पड़ाव है। इसके बाद जो बचता है, उसे तो एक कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि जहां दो ही नहीं बचे, वहां एक कैसे कहें! इस पड़ाव तक दो रहते हैं, इस पड़ाव पर दो एक हो जाते हैं, इसके बाद तो एक भी कहना उचित नहीं | इसलिए तो वेदांत परमात्मा को एक नहीं कहता, कहता है - अद्वैत । दो नहीं। बस इतना ही कहा जा सकता है— दो नहीं। इसलिए तो महावीर कहते हैं, परमात्मा और आत्मा ऐसा नहीं, आत्मा ही परमात्मा । वे भी अद्वैत की ही बात बोल रहे हैं, अपने ढंग से, एक ही। मगर एक कहना ठीक नहीं, क्योंकि एक से दो का खयाल उठता है, दो से तीन का खयाल उठता है, तीन से चार का खयाल उठता है । एक का कोई अर्थ ही नहीं होता अगर और संख्याएं न हों। और वह इतना एक है कि वहां और कोई संख्या नहीं। ध्यान गहरा होगा, तो वह पड़ाव आयेगा जहां द्वंद्व मिट जाते हैं। तब दौड़ना, अब घर बहुत करीब आ गया; अब तुम ठीक सामने ही खड़े हो । अब दर्शनशास्त्र में मत उलझ जाना। अब यह प्रश्न मत पूछो मुझसे कि 'जानने की चाह में मैंने रात को दिन रचते देखा, ऐसा क्यों हुआ ?' अब यह 'क्यों' उठाया तो तुम वापिस लौट पड़ोगे । 'क्यों' उठाया कि फिर चिंतन - विचार शुरू हुआ। अब छोड़ो, अब भूलो। अब यह 'क्यूं' और 'क्या', अब यह दर्शन और विज्ञान छोड़ो। अब तो दौड़ पड़ो। यह आखिरी पड़ाव है, इससे बिलकुल सामने मंजिल है । अब तो सीधे घुस जाओ उस अद्वैत में। हर सुबह शाम की शरारत है हर हंसी अश्रु की तिजारत है मुझसे पूछो न अर्थ जीवन का - जिंदगी मौत की इबारत है। सब जुड़े हैं । सब इकट्ठे हैं। कफन बढ़ा तो किसलिए नजर तू डबडबा गयी सिंगार क्यों सहम गया, बहार क्यों लजा गयी न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ, बस इतनी सिर्फ बात हैकिसी की आंख खुल गयी, किसी को नींद आ गयी आंख खुलने और बंद होने का ही फर्क है। आंख बंद हो गयी, मर गये। आंख खुल गयी, जन्म गये। इतना ही फर्क है - आंख 2010_03 ज्ञान ही क्रांति खुलने और बंद होने का । और जिस पर आंख खुलती और बंद होती है, वह तो न तो जन्मता और न मरता । तुम्हारी आंख की झलक बंद होती रहती है, खुलती रहती है— आंख झपकती रहती है। तुम बिना झपके भीतर मौजूद हो। सृष्टि है परमात्मा की आंख का खुल जाना। प्रलय है परमात्मा की आंख जाना। लेकिन दोनों के पीछे जो छिपा है - शाश्वत चैतन्य, वह न तो कभी जन्मता, न कभी मिटता । न उसका कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है । न कोई दुख है, न कोई सुख है। न कोई हार है, न कोई जीत है। जब ऐसा तुम्हें लगे कि तुम उस जगह आ गये जहां रात दिन को जन्म देती दिखायी पड़ती है, तो अब भूलकर भी उठाना । प्रश्न भटका देंगे। क्योंकि प्रश्न उत्तर में ले जाएंगे, उत्तर और प्रश्नों में ले जाएंगे। फिर तुम वापस आ गये। इस घड़ी तो सब प्रश्न - उत्तरों की गठरी बांधकर फेंक देना, दौड़ पड़ना । निर्भर होकर, घुस जाना उस अनंत में। बहुत से लोग ध्यान से लौट आये हैं। समाधि तक नहीं पहुंच पाते। क्योंकि ध्यान के आखिरी पड़ाव पर फिर प्रश्न बड़े प्रबल होकर उठते हैं। वस्तुतः बहुत प्रबल होकर उठते हैं। क्योंकि मन अपनी आखिरी चेष्टा करता है, अंतिम चेष्टा करता है। जैसे सुबह होने के पहले रात खूब अंधेरी हो जाती है । या दीया बुझने के पहले ज्योति खूब लपककर जलती है । या मरने के पहले आदमी एकदम स्वस्थ मालूम होने लगता है— बीमार आदमी भी । आखिरी उफान आता है, आखिरी ज्वार आता है जीवन का। ऐसे ही मन भी मरने के पहले, खोने के पहले बड़ी प्रबलता से प्रश्न उठाता है। उस वक्त अगर तुम जरा चूके, तो मन तुम्हें खींच लेगा । बच्चों का खेल देखा है? सीढ़ी और सांप - लूडो । तो बच्चे खेलते हैं। सीढ़ी से तो चढ़ जाते हैं, सांप से नीचे उतर आते हैं। अगर सीढ़ी पर पहुंच जाते हैं, तो ऊपर चढ़ते हैं। अगर सांप का मुंह पकड़ जाता है, तो नीचे उतर आते हैं। पासे फेंकते हैं। निन्यानबे के आंकड़े पर भी सांप का मुंह है । अगर पर पहुंच गये, तो जीत गये। लेकिन निन्यानबे तक भी सांप का मुंह है। जीवन का खेल भी ऐसा ही खेल है। सीढ़ी और सांप ! यहां आखिरी चरण निन्यानबे डिग्री पर भी, जब मन बिलकुल मिटने करीब होता है, सांप का मुंह खुलता है- आखिरी के 237 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 बार-अगर वहां सावधानी न बरती, सांप की पूंछ तुम्हें फिर वहां ले आती है जहां से फिर लंबी यात्रा है। नहीं, इस जगह प्रश्न मत पूछो। इस जगह तो निष्प्रश्न होकर, लो छलांग। ध्यान लगा है, समाधि करीब है। उतर जाओ। और समाधि में सब समाधान है। इसीलिए तो उसे समाधि कहते हैं। आज इतना ही। 238 2010_03 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010-03 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 तेरहवां प्रवचन गुरु है मन का मीत Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ती ८.३ ८ . २ - सूत्र जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणद्दिओ होइ। तह चेव उद्धियम्मि उ, निस्सल्लो निटवुओ होइ।। एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेणं दुक्खिओ होइ। सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ।।११३।। णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं। णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो कुज्जा।।११४।। तेसिं तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जइ।।११५।। नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी। संसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी त तणरासिं ।।११६।। 2010_03 www.jalnelibrary.org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्र है। हजार काम हों तो भी बीच-बीच में कांटे की चुभन याद आ 'जैसे कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा जाती है। कांटा चुभा हो, चलो, बैठो, बात करो, लेकिन हर होती है और कांटे के निकल जाने पर शरीर निशल्य जगह अंतराल में से कांटे की चुभन याद आ जाती है। यह जो अर्थात सर्वांग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रगट न चुभन है, इसको महावीर कहते हैं शल्य की अवस्था। इस चुभन करनेवाला मायावी दुखी या व्याकुल रहता है; और उनको गुरु को निकाल दो, तो निशल्य-चित्त का जन्म होता है, स्वस्थ-चित्त के समक्ष प्रगट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है। का जन्म होता है। तुम्हारे भीतर ऐसा कुछ भी न रह जाए जो मन में कोई शल्य नहीं रह जाता।' तुमने दबाया है। तुम्हारे भीतर ऐसा कुछ भी न रह जाए जो तुमने | यह सत्र अत्यधिक महत्वपर्ण है। इस सत्र को खोजते छिपाया है। तम्हारे भीतर ऐसा कछ भी न रह जाए जिसे देखने से मनोविज्ञान को बहुत देर लगी। जो महावीर ने कहा पच्चीस सौ तुम डरते हो, जिसे आंख के सामने करने में भय लगता है। पीठ वर्ष पहले, वह फ्रायड को अभी-अभी इस सदी में जाकर खयाल के पीछे कुछ भी न रह जाए, सब आंख के सामने आ जाए, में आया। इस एक सत्र पर सारा आधनिक मनोविज्ञान खडा है। आंख के सामने आते ही कांटे विदा होने शरू हो जाते हैं। मनोचिकित्सक कहते हैं, जो भी मन में दबा पड़ा है अगर प्रगट मनोविश्लेषक वर्षों मेहनत करते हैं। उनकी चिकित्सा का हो जाए, तो उससे मुक्ति हो जाती है। मनोविश्लेषण की सारी सारसूत्र इतना ही है कि जिसे वे बीमार कहते हैं, वह महावीर का प्रक्रिया अचेतन में पड़ी हुई भावनाओं, विचारों, वासनाओं को शल्य से भरा हुआ व्यक्ति है। उसे बीमार कहना शायद ठीक चेतन में लाने की प्रक्रिया है। नहीं। उसे चिकित्सा की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी कीमिया का सूत्र है-अचेतन से हम बंधे होते हैं, चेतन होते आत्म-साक्षात्कार की जरूरत है। पर जाने-अनजाने ही हम मुक्त हो जाते हैं। जिसे हमने भीतर ठीक-ठीक जान मनोविश्लेषण यही करता है। मरीज को कह देते हैं कि तुम लेट लिया, उससे हमारा छुटकारा हो जाता है। और जिसे हमने जाओ। चिकित्सक पीछे बैठ जाता है, मरीज से कहता है, तुम्हें अपने भीतर ठीक-ठीक न जाना, जिसका हमने साक्षात्कार न जो भी मन में उठे-प्रासंगिक, अप्रासंगिक-उसे उठने दो और किया, वह अंधेरे में पड़ा हमारी गर्दन में फांसी की तरह लटका बोले जाओ। तुम उसमें काट-छांट न करो। तुम किसी तरह के रहता है। महावीर इस दशा को शल्य की दशा कहते हैं। | सेंसर न बनो। अनर्गल भी आता हो तो आने दो, क्योंकि उनका शब्द भी बड़ा महत्वपूर्ण है। जैसे काटा चुभा हो, तो अनर्गल का भी कोई भीतरी कारण है तभी आ रहा है। असंबद्ध तुम भूल जाओ थोड़ी-बहुत देर को, काम में उलझ जाओ, आता है, उसे भी आने दो, क्योंकि असंबद्ध भी आना चाहता है लेकिन कांटे की चुभन बार-बार तुम्हें अपनी तरफ खींचती रहती | तो उसके भीतर भी कारण है। 243 ___ 2010_03 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 तुम कभी चकित होओगे, तुम कोई एक शब्द ले लो, बिलकुल निष्पक्ष शब्दः गाय, घोड़ा, हाथी या कार या कुत्ता; और शांत बैठकर यह कोशिश करो कि अब कुत्ता शब्द के उठते ही तुम्हारे भीतर जो-जो शब्द उठते हैं उन्हें तुम लिखते जाओ। तुम चकित हो जाओगे। जिन शब्दों का कुत्ते से कोई संबंध नहीं है, जिन विचारों का कोई ज्ञात कारण नहीं मालूम होता कुत्ते से क्यों जुड़े होंगे, वे उठने शुरू हो जाते हैं। एक साधारण-सा शब्द कुत्ता तुम्हारे भीतर लहर पैदा करता है और उस लहर में बंधे हुए अचेतन से न-मालूम कितने वर्षों के या जन्मों के भाव और विचार चले आते हैं, किसी तरह बंधे। कुत्ता शब्द कहते ही शायद तुम्हें याद आ जाए अपना कोई मित्र, जिसके पास कुत्ता था। मित्र की याद आते ही आ जाए उसका मकान । मकान की याद आते ही तुम चल पड़े। कुत्ते से यात्रा शुरू हुई थी, तुम कहां पूरी करोगे, कहना कठिन है। इसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं - 'फ्री एसोसिएशन ।' स्वतंत्र-साहचर्य का नियम। तुम्हारे भीतर सभी चीजें गुंथी पड़ी हैं। सभी तार उलझे हैं। एक तार खींचो, दूसरे तार खिंच आते हैं। लेकिन यही गुत्थी तो मनुष्य का रोग है। यही तो उसका शल्य है। इस गुत्थी को सुलझाना है। कहीं से भी शुरू करो। मनस्विद कहता है, तुम बोले जाओ । चिकित्सक सुनता रहता है। कुछ करता नहीं, कुछ बोलता नहीं, सिर्फ इतनी याद दिलाता रहता है कि हां, मैं यहां हूं। मैं सुन रहा हूं, ध्यानपूर्वक सुन रहा हूं। वह जितने ध्यानपूर्वक सुनता है, उतने ही तुम्हारे गहरे अचेतन से चीजों को निकलना आसान हो जाता है। इसीलिए तो हम किसी आदमी को खोजते हैं जो हमारी बात शांति से सुन ले । कितना दूभर हो गया है ऐसे आदमी का पाना, जो हमारी बात शांति से, ध्यानपूर्वक सुन ले । जब भी तुम्हें कोई ऐसा आदमी मिल जाता है जो घड़ीभर तुम्हारे दिल की बात सुन लेता है, तुम हलके हो जाते हो। कहां से आता है हलकापन ? कोई बात | पत्थर की तरह छाती पर पड़ी थी, किसी ने बांट ली। कुछ किसी | ने बोझ तुम्हारा उतार लिया। किसी ने सहारा दे दिया, तुम्हारे सिर पर जो पत्थर था उसे नीचे रख दिया। बात करके आदमी हलका है। मनस्विद इस सदी में जाकर इस सूत्र को पकड़ पाये। महावीर ने आज से ढाई हजार साल पहले कहा है। कहा है कि जब तक 244 2010_03 तुम्हारे भीतर कुछ भी ऐसा पड़ा है जो तुम बताने में डरते हो, तब तक तुम बीमार रहोगे, तब तक कांटा छिदा रहेगा। तुम्हें नग्न होकर प्रगट हो जाना है। कहते हैं महावीर, कम से कम अपने गुरु के पास तो इतना करो। शायद संसार में तो बहुत मुश्किल होगी। वहां इतने समझदार व्यक्ति पाने कठिन होंगे, जो तुम्हारी भूलों को, चूकों को क्षमा कर सकें। वहां ऐसे व्यक्ति पाने कठिन होंगे, जो तुम्हें तुम्हारी बातों को सुनकर, तुम्हारे संबंध में कुछ निर्णय न बनाने लगें। तुम कहो कि मैंने चोरी की है, तो जो तुम्हें चोर न समझने लगें, ऐसे व्यक्ति पाने कठिन होंगे। तुम कहो कि मैंने पाप किया है, तो तुम्हें पापी समझकर निंदित न मान लें। इसीलिए तो आदमी डरा है। तुम किसी से कह नहीं सकते कि मैं झूठ बोला। लोग कहेंगे, झूठ बोले ! तुम्हारा भरोसा टूट जाएगा। तुम्हें जिंदगी में अड़चन होगी । तो झूठ को तुम छिपाते हो । पता भी चल जाए, तो तुम सिद्ध करने की कोशिश करते हो कि नहीं, मैं सच ही बोला। अगर पकड़ भी जाओ, तो तुम कहते हो भूल-चूक से हो गया होगा, मेरे बावजूद हो गया होगा, मैंने न था। पहले तो तुम छूटने की कोशिश करते हो कि किसी को पता न चल पाये। संसार में ऐसी आंखें खोजनी कठिन हैं, जो तुमने क्या किया क्या नहीं किया, क्या सोचा क्या नहीं सोचा, इसके बावजूद भी तुम्हारा मूल्य कम न करें। जो तुम्हारे अस्तित्व को बेशर्त स्वीकार करते हों। गुरु का यही अर्थ है, एक ऐसे आदमी को खोज लेना जो उन रास्तों से गुजरा है, जिन पर तुम अभी हो। एक ऐसे आदमी को खोज लेना जिसने भूलें की हैं, पाप किये हैं, चूकें की हैं और उनके पार हो गया। एक ऐसे आदमी को खोज लेना जो समझेगा तुम्हारी पीड़ा, क्योंकि इसी पीड़ा से वह भी गुजरा है। तो अगर तुम्हें कोई ऐसा गुरु मिल जाए जिसकी आंखों में तुम्हारी निंदा न हो, तो ही गुरु मिला। जहां निंदा हो, वहां तो समझना कि संसार ही जारी है। इसे खयाल में लेना। अगर तुम जाओ किसी मुनि, किसी साधु, किसी संन्यासी के पास और तुम कहो कि मैं बहुत बुरा आदमी हूं, और मेरे मन में चोरी के भाव उठते हैं, और कभी ऐसे सपने भी मैं देखता हूं कि पड़ोसी की पत्नी को ले भागा हूं, और कभी किसी की हत्या कर देने की भी वासना जग उठती है, कभी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गुरु है मन का मीत मैं क्रोध से भी भरता हूं, और जिससे तुम यह कह रहे हो अगर व्यक्ति है। वह यह मौका नहीं छोड़ेगा। तुमने पाप की बात उसकी आंखों में निंदा झलक जाए, तो समझ लेना यह आदमी | कही, तो उसकी आंख कहेगी, अच्छा, तो फिर एक पापी गरु नहीं है। यह आदमी अभी पार नहीं हआ। क्योंकि जो पार आया! तुम्हारे पाप को देखकर वह अपने को पुण्यात्मा समझने हो गया, उसकी आंखों में करुणा बेशर्त है। और अगर इस । लगेगा। तुम्हारे पाप के कारण वह अपने को बड़ा समझेगा, तुम्हें आदमी की आंखों में निंदा झलक जाए, तो फिर तुम कैसे इसके छोटा समझेगा। सामने अपने को खोल पाओगे? जिस आंख से तुम्हें पता चले कि तुम छोटे किये जा रहे हो, वह और अगर यह आदमी किसी भी तरह से तुम्हारे संबंध में | गुरु की आंख नहीं। अगर इस एक सूत्र को तुम ठीक से समझ निर्णय बनाने लगे, तुम्हारे किये, सोचे हुए कारणों से, तो फिर | लो तो गुरु खोजने में बड़ी आसानी हो जाएगी। तुम भटक न यहां तुम अपने को खोल न पाओगे। यहां खुलना संभव न | सकोगे। जो तुम्हें सर्वांगरूप से स्वीकार कर ले। तुम जैसे हो। होगा। यहां भी तुम बंद ही रह जाओगे। उसकी आंख ही तुम्हें | जो तुम्हें अन्यथा नहीं बनाना चाहता। जो यह भी नहीं कहता कि बंद कर देगी। उसके बैठने का ढंग ही तुम्हें बंद कर देगा। उसके तुम अच्छे बनो, क्योंकि अच्छे बनने की चेष्टा में तो तुम्हें बुरा देखने का ढंग ही तुम्हारे द्वार पर ताला जड़ देगा। तुम फिर खोल मान ही लिया। जो तुमसे यह भी नहीं कहता कि छोड़ो यह पाप, न पाओगे। पुण्य की कसम लो, क्योंकि जिसने पुण्य की कसम लेने के लिए इसे तुम गुरु की कसौटी समझो। गुरु खोजने के लिए यह एक तुमसे कहा उसने तुम्हारे पापी होने को स्वीकार कर लिया। जो बड़ा आसान उपाय है कि तुम अपने पापों की बात कहना, अपनी स्वीकार कर लिया गया, वह क्षमा नहीं होता। भूलों की बात कहना, अगर गुरु सच में जाग्रतपुरुष है, तो उसकी नहीं, जिसकी करुणा और जिसके प्रेम में तुम अपने को खोल करुणा तुम्हारी तरफ गहन होकर बहेगी। उसकी क्षमा बेशर्त है। सको, जैसे सुबह का सूरज निकलता है और कलियां गहरी श्रद्धा वह यह नहीं कहता कि तुमने क्या किया है, वह कहता है, तुम से खुल जाती हैं किरणों की चोट पड़ते ही। पता नहीं, खिलकर जो हो, वह परम हो, धन्य हो! क्या होगा? अनजान घटना है, कली कभी खिली नहीं है, सूरज इसे ऐसा समझो! तुम्हारी आत्मा तुम्हारे कृत्यों का जोड़ नहीं। ने द्वार पर दस्तक दी है, कली उस द्वार पर दस्तक देते मेहमान की तुम्हारी आत्मा तुम्हारे विचारों का जोड़ नहीं। तुम्हारी आत्मा बात सुनकर, पुकार सुनकर खुल जाती है। सूरज ने पुकारा है, तुमने जो किया है उससे बहुत बड़ी है। तुम्हारी आत्मा तुमने जो कली खुल जाती है, पंखुड़ियां खोल देती है, गंध को मुक्त कर सोचा है उससे बहुत बड़ी है। तुम्हारी आत्मा के संबंध में कोई देती है। उसी खुलने में कली फूल बन जाती है। तुम जब तक निर्णय तुम्हारे विचार और कृत्य से नहीं लिया जा सकता है। अपने को छिपाये हो, तुम्हें एक भी व्यक्ति ऐसा न मिला जिसके तुम्हारा विचार और तुम्हारा कृत्य तो बाहर की बातें हैं। तुम्हारी | सामने तुम अपने को पूरा खोल देते। यही महावीर की नग्नता का आत्मा तो भीतर है। तुम्हारी आत्मा का मूल्य निरपेक्ष है, सापेक्ष सूत्र है। दिगंबर होने का मौलिक अर्थ यही है। तुम्हें एक ऐसा नहीं है। वह किसी चीज से आंका नहीं जा सकता। तुम तुम होने व्यक्ति न मिला जिसके सामने तुम निपट नग्न हो जाते! तुम जैसे की वजह से मूल्यवान हो। तुम होने की वजह से मूल्यवान हो। | थे वैसे ही हो जाते! जिसकी मौजूदगी तुम्हारे लिए किसी तरह की तुम्हारा अस्तित्व बस काफी है। तुम परमात्मा हो। ऐसी जहां निंदा न थी, प्रशंसा न थी, अपमान न था। जिसकी मौजूदगी में किसी की आंख तुम पर पड़े और तुम्हारे भीतर के परमात्मा को | तुम्हें अन्यथा करने की कोई चेष्टा न थी। तुम जैसे थे, भले थे। जगाने लगे, तो ही जानना कि गुरु मिला। तुम्हें वैसा ही स्वीकार किया था। जहां निंदा हो, जहां तुम्हारे पापों के प्रति क्रोध पैदा हो, जहां अगर तुम्हें एक भी व्यक्ति ऐसा मिल जाए, तो उसी के पास तुम्हारे पापों में रस पैदा हो, क्योंकि निंदा रस है; और जो तुम्हारे तुम्हें पहली दफे अपनी आत्मा की खबर मिलेगी। क्योंकि उसी पाप में रस ले रहा है—निंदा करने का ही सही, बुरा कहने का ही के पास तुम नग्न, सहज, सरल हो पाओगे। वह तुम पर कोई सही, तुम्हें नीचा दिखाने का सही, वह अहंकार से भरा हुआ आग्रह नहीं रखता। वह यह कहता ही नहीं कि तुम्हें कोई आदर्श 245 2010_03 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 पूरे करने हैं। वह कहता है, तुम तो परमात्मा हो ही। अगर धर्मगुरु के सामने, जो भी तुमने पाप किया हो उसे प्रगट कर भूल-चूक भी हुई है, तो परमात्मा से हुई है। और जो हो गया, हो देना। सरल मन से कह देना, यह भूल हो गयी है। यह स्वीकार गया। जो जा चुका, जा चुका। बीती को बिसार दो। जो घटा था करते ही कि मुझसे भूल हो गयी है, भूल से मुक्ति होनी शुरू हो वह तो ऐसा ही था जैसे पानी पर खींची लकीरें-अब कहीं भी जाती है। स्वीकार में मुक्ति है। और जैसे ही तुम कह आते हो नहीं हैं। अब तुम व्यर्थ परेशान मत होओ। | किसी को जो निंदा नहीं करेगा, जिसका तुम्हें भरोसा है कि जो गुरु का अगर सत्संग मिल जाए, तो कर्मों से ऐसे ही छुटकारा तुम्हारे संबंध में बुरी धारणा न बनायेगा, जिसका तुम्हें भरोसा है मिल जाता है जैसे सुबह जागकर सपनों से छुटकारा मिल जाता कि तुम इंचभर नीचे न गिरोगे उसकी नजर में, वस्तुतः तुम ऊपर है। अगर गुरु की मौजूदगी हो और फिर भी कर्मों से छुटकारा न उठोगे क्योंकि पाप की स्वीकृति, भूल की स्वीकृति पुण्यात्मा का मिले, तो समझना कि तुमने अपने को खोला नहीं। तुमने अपने कृत्य है, तो तुम हलके होकर लौटोगे।। को प्रगट नहीं किया। हिंदू गंगा में स्नान कर आते हैं। सोचते हैं, पाप का प्रक्षालन हो यह सूत्र अति क्रांतिकारी है। ईसाइयत ने जीसस के इसी सूत्र जाएगा। अगर भावपूर्वक किया हो, तो हो जाएगा। गंगा नहीं के आधार पर मेरी अपनी दृष्टि तो यही है कि जीसस ने अपना करती पाप का प्रक्षालन। गंगा क्या करेगी? तुम्हारा भाव करता उपदेश शुरू करने के पहले भारत में ही शिक्षा ली—इसीलिए है। अगर तुम यह भाव से गहरे भरे हो कि गंगा में स्नान कर यहूदी उन्हें कभी स्वीकार न कर पाये। क्योंकि वह कुछ लाते थे | आयेंगे तो जो-जो भूल-चूक की थी वह धुल जाएंगी, अगर जो बड़ा परदेशी था। उससे यहूदी-विचार का कोई तालमेल नहीं | तुम्हारा भाव यह प्रगाढ़ है, तो निश्चित ही गंगा में डुबकी लेते ही बैठता था। ईसाइयों के पास भी जीसस के तीस वर्ष के जीवन की तुम दूसरे हो जाओगे। क्योंकि गंगा के सामने तुमने स्वीकार कर कोई कथा नहीं है। आखिरी तीन वर्षभर की कथा है। बाकी तीस लिया–हो गयी थी भूलें, अब तू बहा दे मां, और क्षमा कर! तो वर्ष कहाँ बिताये, कैसे बिताये? किन गुरुओं के पास, किस संभव है कि तुम लौट आओ हलके होकर। ताजे होकर। जरूर सत्संग में, कहां जागा यह व्यक्ति, इसकी कोई कथा उनके पास नहीं है कि यह घटे, तुम पर निर्भर है। तुम कितने गहन भाव से, नहीं है। | कितनी गहरी श्रद्धा से, कितने संकल्प और समर्पण से झुके थे, इतना तो तय है कि जीसस अपने देश में नहीं थे। देश से तो। डुबकी लगायी थी, तुम्हारी श्रद्धा कितनी गहरी थी, उतना ही गंगा उन्हें जैसे ही वह पैदा हुए हट जाना पड़ा था, भाग जाना पड़ा था। असर कर पायेगी। सूत्र वही है। मां-बाप लेकर उन्हें भाग गये थे। फिर जीसस मिस्र में रहे, अब यह भी सोचने-जैसी बात है, किसी मनुष्य के सामने भारत में रहे, तिब्बत में रहे। संभावना तो यहां तक है कि वह अपने पाप को प्रगट करने में खतरा तो है ही। कौन जाने वह जापान तक पहुंचे। क्योंकि जापान में भी एक जगह है, जहां आदमी अभी उस जगह हो या न हो। संदेह तो रहेगा ही। यह अभी भी लोक-कथा प्रचलित है कि वहां जीसस का आगमन आदमी अभी ऐसी जगह न हो और तुम अपना पाप खोल दो, हुआ था। उन्होंने सारे पूरब में तलाश की।। और यह आदमी अभी उसी जगह हो जहां इसे अभी पाप में रस निश्चित ही जब जीसस भारत आये होंगे, तो महावीर की वाणी है, और यह कुतूहलवश तुम से पूछने लगे...। उस समय तक प्रज्वलित वाणी थी। पांच सौ वर्ष पहले ही फ्रायड ने एक जगह लिखा है कि मनोवैज्ञानिक तभी ठीक अर्थों महावीर विदा हुए थे। बुद्ध की वाणी अभी जीती-जागती थी। में मनोवैज्ञानिक हो पाता है जब उसकी क्यूरिआसिटी, उसकी अभी हवा में तरंग थी। फूल जा चुका था, लेकिन अभी हवा में कुतूहलता समाप्त हो जाती है। जब तक कुतूहल है, तब तक वह गंध नहीं चली गयी थी। गंध अभी मौजूद थी। निश्चित ही सहयोगी नहीं हो सकता। जीसस ने जो सूत्र पकड़ा, जिसको ईसाई कनफेशन कहते हैं, वह किसी ने आकर तुमसे कहा कि मैंने एक स्त्री के साथ व्यभिचार महावीर के इसी सूत्र से कहीं जुड़ा होना चाहिए। सिर्फ ईसाइयत किया है। पहली बात तुम्हारे मन में क्या उठती है? कतहल अकेला धर्म है जिसने कनफेशन को बहुत मूल्य दिया है। जाकर उठता है। तुम जानना चाहते हो कौन-सी स्त्री, किस की स्त्री, 246 Jair Education International 2010_03 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है मन का मीत कब किया, कैसे किया, तुम ब्यौरे और विस्तार में जाना चाहते भी कम होगा। सुविधा तो बहुत है खोल देने की, लेकिन लाभ हो। तुम इस आदमी के भीतर इसके पाप में रस लेने लगते हो. कम होगा। क्योंकि अडचन बिलकल नहीं है. चनौती बिलकल तो चूक हो गयी। यह जो रस ले रहा है पाप में, यह तुमने जो नहीं है। जब तुम गुरु के सामने जाकर खोलते हो, तो संदेह और इसके सामने प्रगट किया है, इसे छिपाकर न रख सकेगा। इसकी श्रद्धा के बीच हजार बार डोलते हो। कहूं, न कहूं? इतना बचा यह अफवाहें बनायेगा। यह किसी से कहेगा। जो तुम्हारे सुनने लूं, या इतना कह दूं? थोड़ी साज-संवार करके कहूं, शृंगार में रस ले रहा है, वह किसी से कहने में भी रस लेगा। और इसके करके कहूं, थोड़ा लीप-पोतकर कहूं कि जैसा है वैसा ही कह सामने तुम्हारी प्रतिमा नीची हो जाएगी। यह तुम्हें कल तक | दूं? थोड़ा सुंदर बना लूं पाप को, थोड़े फूल लगा लूं पाप पर, धार्मिक समझता था, अब अधार्मिक समझेगा। और यह अपने थोड़े इस ढंग से कहूं कि मेरी मजबूरी थी। थोड़ा तर्क, थोड़े आपको तुमसे बड़ा मान लेगा। विचार का सहारा देकर कहूं, पाप पूरा मेरे ऊपर न पड़े, दूसरों पर कठिन है किसी व्यक्ति के सामने जाकर खोलना। पता नहीं, | भी उत्तरदायित्व बांटकर कहूं? गुरु के सामने जाने में तो हजार इस व्यक्ति में अभी कुतूहल शेष हो। अभी आक्रामक कुतूहल संकल्प-विकल्प होंगे। वहीं तुम्हारा विकास है, प्रौढ़ता है। इसके भीतर मौजूद हो। और यह तुम्हारे भीतर खोजबीन करने अगर तुमने संदेह की बात चुनी और श्रद्धा की छोड़ी, तो भटके लगे। और यह तुम्हारे सुकोमल हिस्सों से परिचित हो जाए और अतल खाइयों में। अगर संदेह चीखता-चिल्लाता रहा फिर भी किसी दिन हमला करे। किसी दिन बीच बाजार में खडे होकर तम श्रद्धा के साथ गये. श्रद्धा की बांह । चिल्ला दे—ए पापी! कहां जा रहा है? या किसी दिन इससे क्रांति घटी। तुम संदेह पर जीते, तुम श्रद्धा में प्रविष्ट हुए। कोई झंझट हो जाए, झगड़ा हो जाए और यह खोल दे सारी बात। गंगा के पास सुविधा तो है, चुनौती नहीं है। और जहां चुनौती आदमी आखिर आदमी है। | नहीं है, वहां विकास नहीं है। इसलिए गुरु-ऐसा मनुष्य जो इसलिए हिंदुओं ने और भी अदभुत बात खोजी। उन्होंने कहा, गंगा हो गया है उसमें दोनों गुण हैं। वह मनुष्य भी है वह गंगा में जाकर समर्पित कर आना। गंगा तो किसी से कहेगी तुम्हें समझ सकता है; उन्हीं अनुभवों से स्वयं भी गुजरा नहीं। गंगा में तो कोई कुतूहल नहीं है। गंगा तो वैसी ही बहती है और गंगा भी है। उसके भीतर गंगा भी बह रही है। वह रहेगी जैसी पहले बह रही थी। तुम आये या न आये, कोई फर्क तुम्हें क्षमा कर सकेगा। न पड़ेगा। गंगा के सामने तो तुम पूरा खोल सकोगे। वहां तो | अब इसे ऐसा समझें। छिपाने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि वहां दूसरा कोई | वही आदमी तुम्हें क्षमा कर सकता है जिसने स्वयं को क्षमा कर मनुष्य नहीं है जिससे छिपाने का कोई कारण हो, जो कल खोल दिया हो। जिसने स्वयं को क्षमा नहीं किया है, वह तुम्हें क्षमा दे, परसों खोल दे, किसी आवेश के क्षण में बोल दे। तो डर भी नहीं कर सकेगा। जो अभी स्वयं से लड़ रहा है, वह कैसे तुम्हें नहीं है, तुम पूरा खोल सकते हो। | क्षमा करेगा? समझो कि कोई आदमी अभी कामवासना से खद महावीर के सूत्र को हिंदुओं ने उसकी आत्यंतिक ऊंचाई पर ही लड़ रहा है और तुमने जाकर उसके सामने कामवासना की पहुंचा दिया। उन्होंने कहा, आदमी को हटा ही लो। गंगा ठीक बात कही, वह तुम पर टूट पड़ेगा। वह कहेगा पापी हो, जघन्य है। वैसे महावीर का भी मतलब यही था, उस आदमी के सामने पापी हो, नरक में सड़ोगे। वह तुमसे जब यह कहता है, तो वह खोलना जाकर जिसका आदमी हट गया हो और गंगा पैदा हो सिर्फ इतना ही बता रहा है कि अभी कामवासना को वह भी गयी हो। मतलब तो वही था। उस आदमी के पास चले जाना सरलता से ले नहीं सकता। अभी संघर्ष कायम है। अभी ऐसे ही जिसके भीतर अब गंगा बह रही हो। उसमें जरा डुबकी लगा नहीं सुन सकता जैसे और बातों को सुन लेता है। अभी लेना। खोल देना सब। इस बात को भी खयाल में ले लें कि जब कामवासना उसे हिला जाती है। शब्द ही हिला जाता है। अभी तुम गंगा के सामने खोलते हो, तो खोलने में बहुत अड़चन नहीं भय है। अभी खुद की जीत पूरी नहीं हई। अभी हार का खद ही है। क्योंकि तुम जानते हो गंगा ही है। अड़चन नहीं है, तो लाभ भीतर डर है। 247 2010_03 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 EPHONETER तुम अगर जैन-मुनि के सामने वात्स्यायन का काम-सूत्र | नींद से झकझोरा हो, ऐसा घबड़ा गया। उसने कहा, क्या कहा, खोलकर रख दो, वह आंख बंद कर लेगा, या किताब फेंक | अश्लील! तो फिर मुझे फिर से चलकर दिखाना होगा, क्योंकि देगा। घबड़ा जाएगा। | मुझे कोई मूर्ति अश्लील दिखी नहीं। अब तुम मुझे चलकर बता तुम जैन-मुनि को खजुराहो नहीं ले जा सकते। खजुराहो के दो, कौन-कौन सी मूर्तियां अश्लील हैं, और कौन-कौन सी मंदिर में वह प्रवेश न करेगा। वह दूर-दूर बचेगा, भागेगा। मूर्तियां हैं जो विकृत हैं, और रुग्ण मन की प्रतीक हैं। क्योंकि मुझे अभी जो डर उसके भीतर है, वह डर बाहर प्रक्षेपित होगा। अभी | तो पता ही नहीं, मैं तो इसी भाव से भरा जा रहा था कि अदभुत खजुराहो की मूर्तियां भय का कारण बन जाएंगी। है, तुमने याद दिला दी, तो मैं चलूं फिर से। मेरे एक मित्र विंध्य-प्रदेश के शिक्षा मंत्री थे। एक अमरीकी वह मेरे मित्र मझे कह रहे थे कि मैं ऐसा गिरा, जैसे किसी ने कवि खजुराहो देखने आया। वह कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू आकाश से पटक दिया हो। यह एक आदमी है जिसे कुछ का परिचित था, मित्र था, तो उन्होंने विशेष खबर की कि कोई अश्लील न दिखायी पड़ा। अश्लील हमें भीतर की अश्लीलता योग्य व्यक्ति जाकर साथ खजराहो दिखा दे। वह जो मेरे मित्र | से दिखायी पड़ता है। जो हमारे भीतर है, वही हमें बाहर दिखायी शिक्षा मंत्री थे, वही विंध्य-प्रदेश के मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा | पड़ता है। सुशिक्षित व्यक्ति थे तो उन्हीं को भेजा गया। तो अगर कोई गुरु उत्सुकता ले, तुम्हारे घावों को कुरेदने लगे, वे गये, लेकिन वे बड़े डरे हुए थे। भयभीत थे कि पता नहीं यह निंदा करे, तुम्हें पापी ठहराये, तुम्हारा न्यायाधीश बने, तो आदमी क्या सोचकर जाएगा? क्या सोचेगा-खजराहो की समझना गुरु नहीं। अभी गंगा बही नहीं। अभी गंगा का नग्न, कामुक भाव-भंगिमाएं, काम से लिप्त युगल जोड़े, | अवतरण नहीं हुआ इस व्यक्ति पर। इसमें डुबकी लेने से कुछ संभोगरत मूर्तियां! क्या सोचेगा! तो मन में थोड़े अपराधी थे। भी न होगा। इसमें डुबकी लेने से तुम और गंदे हो जाओगे। यह उसे घुमाया पूरे मंदिर में जो विशेष मंदिर है, पूरा दिखाया। कोई नाला है-शहर के बीच से बहता। यह कोई गंगा नहीं है। बाहर आकर कहा कि क्षमा करें, इससे आप ऐसा मत सोचें कि यह सब नालियों का कूड़ा-कर्कट और गंदगी को लेकर बह रहा यह कोई भारत की मौलिक संस्कृति है। यह भारत की मूलधारा | है। यह तुम्हें पवित्र नहीं कर सकता। नहीं है। यह तो तांत्रिकों के प्रभाव में एक तरह की विकृति है। ये | महावीर ने जो कहा है : गुरु के समक्ष सब कुछ जो प्रगट कर अश्लील मूर्तियां हमारे सभी मंदिरों की प्रतिनिधि नहीं हैं। इसको दे, वह सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है; इस सूत्र को जैनों ने आप खयाल रखना। आप ऐसा मत सोच लेना कि हमारे सभी बहुत कम विचारा है, बहुत कम इसकी परिभाषा की है, क्योंकि मंदिर ऐसे हैं। करोड़ मंदिर हैं, उसमें एक मंदिर ऐसा है। इसको यह सूत्र तो सारे कर्म के सिद्धांत को दो कौड़ी का कर देता है। खयाल में रखना, अनुपात को खयाल में रखना। ये अश्लील | यह सूत्र तो बड़ा क्रांतिकारी है। यह तो जड़मूल से कर्म के मूर्तियां भारत की आत्मा को प्रगट नहीं करती। ये सिर्फ भारत में सिद्धांत को उखाड़ फेंकता है। महावीर यह कह रहे हैं कि अगर कभी एक विकृति की धारा चली थी, उसके शेष चिह्न हैं। तुमने सरल मन से स्वीकार कर लिया, तो मुक्ति हो गयी। शल्य वह अमरीकी कवि तो बहुत चौंका। वह तो बड़े भाव से भरा जाता रहा। कांटा चुभेगा नहीं फिर। बात समाप्त हो गयी। इसी था। उसके सामने तो भारत की महिमा पहली दफा प्रगट हुई को तो संतों ने कहा है कि गुरु की कृपा से क्षणभर में हो सकता थी। उसने सुना ही सुना था अब तक कि भारत मनुष्य की | है। लेकिन गुरु की कृपा उसी पर हो सकती है, जो अपने हृदय अंतरात्मा में बड़े गहरे उतरा है, आज उसने देखा भी था। प्रत्यक्ष को पूरा खोल दे। पात्र खुला हो, तो गुरु की कृपा तो होती ही प्रमाण थे। उसने सुना ही सुना था अब तक कि तंत्र ने मनुष्य की रहती है, वह भर जाए। लेकिन कोई खोले अपने पात्र को।। अंतर्तम-वासना के छोर छुए हैं। आखिरी केंद्र को छुआ है, जैसे एक कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा होती रूपांतरण की विधियां खोजी हैं, आज मूर्तियों में इसे सुस्पष्ट है। कांटा चुभता तो एक जगह है, लेकिन वेदना एक जगह | लिखे देखा था। वह तो भाव-विभोर था। वह तो जैसे किसी ने सीमित नहीं रहती। कांटा चुभता तो पैर में है, लेकिन सिर तक 248 | 2010_03 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु है मन का मीत चोट मारता है। कांटा चभता तो जरा-सी जगह में है, लेकिन सिकुड़ जाता है। पेट ठंडा हो जात पीड़ा विस्तीर्ण हो जाती है। छोटा-सा पाप, सारे शरीर को घाव गरमी खोपड़ी में आ गयी, पेट से खो गयी। गरमी ऊपर चढ़ बना देता है। छोटी-सी भूल, छोटा-सा झूठ, सारे शरीर पर गयी, पेट में न रही। अब भोजन तो पड़ता है पेट में, लेकिन फैल जाता है, तन-प्राण पर फैल जाता है। तो किसी भूल को पाचक-रस उससे मिलते नहीं। भोजन भारी हो जाता है। यह छोटी मत समझना। कांटे को छोटा समझकर तुम छोड़ तो नहीं पचेगा नहीं। या तो कब्जियत बनेगी, या डायरिया बनेगा, देते। तुम यह तो नहीं कहते है ही क्या, जरा-सा कांटा है। लेकिन इससे मांस-मज्जा निर्मित न होगी। अब यह ठंडा पेट छह फीट के शरीर में एक आधा इंच का कांटा लगा है, क्या | इस भोजन को पचाने में बड़ी देर लगायेगा, बड़ी मुश्किल से परवाह! लेकिन आंधा इंच का कांटा छह फीट के शरीर को | पचायेगा। एक रोग की गांठ पैदा होगी। विक्षुब्ध कर देता है। तुम भोजन कर रहे हो, तुम झूठ बोल दिये भोजन करते वक्त, महावीर ने शब्द चुना है, शल्य। वह कहते हैं, साधारण तत्क्षण पेट सिकुड़ जाता है। क्योंकि एक विरोधाभास पैदा हो आदमी बड़े शल्यों से बिंधा है। और निशल्य होना है। एक भी गया। तुम जब झठ बोलो तब खयाल करना, तम्हारे शरीर के शल्य न रह जाए। भीतर तत्क्षण रूपांतरण हो जाता है। कलियां बंद हो जाती हैं। इसे हम समझें। तुम सुरक्षा करने को तत्पर हो जाते हो। तुम लड़ने-झगड़ने को एक झूठ तुम बोले। शल्य चुभा। कांटा बिंधा। जैसे ही तुम राजी हो जाते हो। हजार तर्क तुम्हारे मन में घूमने लगते हैं, कैसे झूठ बोलते हो, तुम एक विरोधाभास में पड़े, एक कंट्राडिक्शन झूठ को सच सिद्ध करें। सिद्ध तो झूठ को ही करना पड़ता है, पैदा हुआ। और जहां ऊर्जा में विरोधाभास पैदा होता है; वहीं सत्य तो स्वयंसिद्ध है। इसलिए जो सत्य बोलता है, उसके भीतर अड़चन, पीड़ा, मवाद पड़ती है। वहीं घाव, फोड़ा पैदा होता है। विचार कम हो जाते हैं। कोई जरूरत नहीं रह जाती। सत्य को तुमने एक झूठ बोला, झूठ बोलने का अर्थ ही यह है कि तुम | विचार की जरूरत नहीं, जैसा था वैसा कह दिया। झूठ के लिए जानते हो कि सच क्या है, उसके विपरीत बोला। जो तुम हृदय हजार विचार करने पड़ते हैं; सेतु बनाने पड़ते हैं, व्यूह रचना से जानते हो, उसके विपरीत कहा। जो तुम्हारा हृदय कह रहा है, पड़ता है, क्योंकि अब झूठ बोल दिये हैं इसे सत्य सिद्ध करना उससे विपरीत तुम्हारी वाणी ने कहा। तुम्हारे भीतर एक विरोध है। सबसे कठिन काम है जगत में जो नहीं है, उसको 'है' पैदा हुआ। जानते थे कुछ, कहा कुछ। थे कुछ, बताया कुछ। | जैसा सिद्ध करना। अब इस सिद्ध करने में तुम्हें बड़ी अड़चन एक उलझन पैदा हुई, एक गांठ पड़ी। यह गांठ गड़ेगी। यह गांठ होगी। कांटा चुभ गया। तुम्हें सतायेगी, यह तुम्हें ठीक से सोने न देगी। यह तुम्हें ठीक से ऐसे कांटे चुभते जाते हैं, जिंदगी की यात्रा पर जैसे-जैसे हम भोजन न करने देगी। आगे बढ़ते हैं, कांटे ही कांटे चुभते जाते हैं! एक घड़ी ऐसी आती मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि भोजन करने के पहले कम से कम है, सारे तन-प्राण में शल्य ही शल्य हो जाते हैं, कांटे ही कांटे हो आधा घंटा न तो झूठ बोलना, न क्रोध करना, न कोई वैमनस्य, | जाते हैं। कितना झूठ बोले? कितनी विकृतियों को न कोई द्वेष, न कोई ईर्ष्या, तो ही भोजन ठीक से पचेगा। तुम | पाला-पोसा? कितने जहर पीये? कितने अपने हाथ से क्रोध कोशिश करके देखो। भोजन कर रहे हो, उसी वक्त झूठ | की अग्नियां जलायीं? कितना अपने हाथ से द्वेष और ईर्ष्या को बोलकर देखो। उसी वक्त क्रोध की बात करके देखो। अब तो पाला और सींचा? गलत को ही सींचते रहे। अगर आत्मा खो इस पर प्रयोग किये गये हैं, यंत्र लगाकर जांच की गयी है कि जाती है, तो आश्चर्य क्या! अगर आत्मा दब जाती है इन सभी आदमी भोजन कर रहा है, यंत्र के पर्दे पर उसके पेट की परी | कांटों के भीतर, तो आश्चर्य क्या। आत्मा का तो फल खिलेगा तस्वीर दिखायी पड़ रही है, पाचक-रस छूट रहे हैं और तभी कैसे, तुम तो कांटों को संभाल रहे हो। जिन्हें निकालना था, उन्हें पत्नी ने कुछ बात कह दी और वह आदमी क्रोधित हो गया। जैसे तुमने मित्र समझा है। जिन्हें हटाना था, जिन्हें झाड़ देना था, ही क्रोधित हुआ, पाचक-रस बंद हो जाते हैं। शरीर भीतर झटकार देना था, उन्हें तुम छाती से लगाकर बैठे हो। तुमने उन्हें 2497 2010_03 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 संपदा समझा है। पाप की घोषणाएं की हैं; वे भी अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, झूठी हैं।। महावीर कहते हैं, जैसे कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या | पाप को बढ़ा-चढ़ाकर कहा है। पीड़ा होती है। और कांटे के निकल जाने पर शरीर निशल्य, आदमी अदभुत है। या तो पाप को छिपाता है, या सर्वांग-सुखी हो जाता है। एक छोटा-सा कांटा निकलने का बढ़ा-चढ़ाकर कहता है। झूठ की पकड़ ऐसी है कि अगर इस सुख देखा? कांटा निकलते ही सब हलका हो जाता है। एक तरफ से हटे, तो दूसरी अति पर झूठ हो जाती है। भार हटा। एक चित्त से पीड़ा गयी। एक प्रसन्नता उठी। एक गांधी की आत्मकथा में ऐसी ही अतिशयोक्ति है। रूसो की साधारण भौतिक कांटे के निकलने से। थोड़ा सोचो तो, आत्मकथा में इसी तरह की अतिशयोक्ति है। अगस्तीन की आध्यात्मिक कांटों का निकल जाना कैसा निर्भार न कर देगा! आत्मकथा में इसी तरह की अतिशयोक्ति है और टालस्टाय की पंख लग जाएंगे तुम्हें। उड़ने लगोगे आकाश में। वजन न रह आत्मकथा में भी इसी तरह की अतिशयोक्ति है। अब तो इसके जाएगा तुममें। हवा की तरह हो जाओगे—मुक्त। पवित्र हो | बिलकुल प्रबल प्रमाण मिल गये हैं कि टालस्टाय ने ऐसी बातें | जाओगे गंगा की तरह। फिर कुछ तुम्हें अपवित्र न कर पायेगा। कही हैं जो हुई नहीं थीं। लेकिन पाप को बढ़ा-चढ़ाकर बखान तुम जिन कांटों को लगाकर बैठे हो, उन्हीं से नासूर हो गये हैं। किया। अगर यही सदगुण है कि अपने पाप को खोल देना, तो _ 'कांटे के निकल जाने से शरीर निशल्य सर्वांग-सुखी हो जाता छोटे-मोटे पाप क्या खोलो! सोचो तुम्हीं! अगर गये तुम और है। वैसे ही अपने दोषों को प्रगट न करनेवाला मायावी दुखी या स्वीकार ही करना है पाप और तुमने कहा कि किसी के दो पैसे व्याकुल रहता है। और उनको गुरु के समक्ष प्रगट कर देने पर चुरा लिये, तो तुमको भी दीनता लगेगी कि चुराये भी तो दो पैसे सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है। मन में कोई शल्य नहीं रह चुराये! तो मन करेगा कि जब चोरी स्वीकार ही कर रहे हो, तो जाता।' महावीर भी नहीं कहते कि तुम जाओ और बीच बाजार लाखों की करने में क्या हर्जा है। कहो कि दो लाख चरा लिये। में खड़े होकर अपने पापों की घोषणा करो। वस्तुतः उस तरह की | पापी भी क्या छोटे-मोटे होना! जब पाप की ही स्वीकृति कर रहे घोषणा में खतरा है। एक तो तुम कर न सकोगे। और अगर हो, तो कम से कम और कहीं आगे न हो सके, इसमें तो आगे हो कभी किया तो अतिशयोक्ति कर दोगे। क्योंकि तब तुम बाजार | जाओ। अहंकार वहां भी पकड़ लेगा। वहां भी झूठ हो जाएगा। में घोषणा करके यह सिद्ध करना चाहोगे कि मुझसे बड़ा पाप की | तो न तो ऐसे पाप की स्वीकृति करना जो किया नहीं, न ऐसे पुण्य घोषणा करनेवाला कोई भी नहीं है, देखो। तब तुम अतिशयोक्ति की घोषणा करना जो किया नहीं। कर दोगे। तब तुमने जो पाप नहीं किये हैं, वह भी तुम स्वीकार | महावीर कहते हैं, इसलिए एकांत में, गुरु के सामीप्य में जो कर लोगे। तुम्हें समझ सकेगा-उससे चुपचाप अपनी बात कह देना। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा चला। जब और तुम उसके सामने न तो पाप को छोटा करके बोल पाओगे, सालभर की सजा काटकर वह वापस लौटा, तो मैंने पूछा, | न बड़ा करके बोल पाओगे। क्योंकि उसका सरल वातावरण, नसरुद्दीन, तुम्हारी उम्र नब्बे वर्ष की हो गयी, तुम यह कर कैसे | उसकी शांति, उसका आनंद तुम्हारे अहंकार को मौके न देगा। सके? मुकदमा यह था कि उसने एक युवती के साथ बलात्कार | उसकी विनम्रता तुम्हें विनम्र बनायेगी। उसकी सहजता तुम्हें किया। उसने कहा, मैंने इस युवती को जाना भी नहीं, न सहज बनायेगी। गुरु के दर्पण के सामने बैठकर तुम्हें वही तस्वीर बलात्कार किया है, लेकिन जब अदालत में सुंदर युवती ने कहा, | घोषणा करनी पड़ेगी, जो तुम हो। बस उतनी ही घोषणा कर देनी तो मैं इनकार न कर सका। यह बात ही मुझे प्रसन्नता से भर गयी | है, जो तुम हो। इस घोषणा से ही तुम निर्भार होते हो। तुम्हारे कि नब्बे साल का बूढ़ा और बीस साल की युवती से बलात्कार | चित्त का बोझ हलका हो जाता है। द्वंद्व मिट जाता है, कर सका। में इनकार न कर सका। यह सालभर की सजा काट | | विरोधाभास समाप्त हो जाता है, गांठें खुल जाती हैं। लेने जैसी लगी। और, जो तुम एक व्यक्ति को कह सके और आनंद पा सके, मनोवैज्ञानिक इसका अध्ययन करते रहे। कुछ लोगों ने अपने तो तुम धीरे-धीरे पाओगे कितना न होगा आनंद अगर मैं सबको 250 2010_03 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रु मन का मीत MANISHARMA NAVामात RAMMARHINORITAGE कहता! धीरे-धीरे तुम पाओगे तुमने औरों के सामने भी स्वीकार तैयार हैं, तू दे न दे। हमने प्रार्थना भेज दी है, तू पूरी कर, न कर। करना शुरू कर दिया। क्या है जगत के पास जो तुमसे छीन फल तेरे हाथ में है। प्रार्थना हमने कर दी है। तू यह न कह लेगा? देने को क्या है? पद, प्रतिष्ठा, सब झूठे लुभावने भ्रम सकेगा कि हमने प्रार्थना न की। हैं। छीन क्या लेगा? जो तुमसे छीन सकता है जगत, वह किसी एक छोटा बच्चा बगीचे में खेल रहा है। उसका बाप पास ही मूल्य का नहीं। जो तुम्हें दे सकता है, वह किसी मूल्य का नहीं। बैठा हुआ है। वह बच्चा एक बड़ी चट्टान को उठाने की कोशिश और इससे छिपाकर जो तुम खोते हो, वह बहुमूल्य है। और इसे कर रहा है, वह उठती नहीं। वह सब तरफ से खींचने की प्रगट करके अपने चित्त को तुम जो पाओगे, वह तुम्हारी आत्मा | कोशिश कर रहा है, लेकिन वह उससे ज्यादा वजन की है। है। वह परम धन है। सदा से है। हिलती भी नहीं। आखिर उसके बाप ने उससे कहा, तु अपनी महावीर ने जैसा कहा. जीसस ने जैसा कहा. हिंदओं ने जैसा परी ताकत नहीं लगा रहा है। उसने कहा, मैं अपनी परी ताकत माना, किसी न किसी के समाने हृदय को खोलना है। किसके लगा रहा हूं। जितनी लगा सकता हूं, पूरी लगा रहा हूं। बाप ने सामने खोलते हो, यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है; खोलते हो, कहा कि नहीं, तेरी ताकत में यह भी सम्मिलित है कि तू मुझसे भी यह बात महत्वपूर्ण है। जिसके सामने खोल सको, वहीं खोल कह सकता है कि साथ दो। तू पूरी ताकत नहीं लगा रहा है। तेरी देना। अपने प्रिय के सामने खोल देना। अपनी पत्नी के सामने ताकत में यह भी सम्मिलित है कि तू मुझसे भी कह सकता है कि खोल देना। अपनी मां के सामने खोल देना। अपने मित्र के आओ, इस चट्टान को उठाने में साथ दो। सामने खोल देना। जिसके पास भी तुम पाओ कि सुविधा है। प्रार्थना पूरी ताकत है। जो तुम कर सकते हो तुमने किया, फिर खोल देने की, दूसरा निंदा न करेगा, वहीं खोल देना। तो वहीं तुम परमात्मा से कहते हो कि हम सीमित हैं, अब तू भी कुछ थोड़ा-सा गुरु प्रसाद मिलेगा। हां, गुरु मिल जाए, तब तुम्हें पूरा साथ दे। आकाश मिलेगा। यं तझको अख्तियार है तासीर दे न दे तेरे गुनाहगार गुनाहगार ही सही दस्ते-दुआ हम आज उठाये हए तो हैं तेरे करम की आस लगाये हुए तो हैं अपने हाथ हमने प्रार्थना में उठाये हैं, अब तेरी मर्जी! यूं तुझको अख्तियार है तासीर दे न दे यह हाथ उठाना आदमी एकदम से परमात्मा के सामने नहीं कर दस्ते-दुआ हम आज उठाये हुए तो हैं सकता, क्योंकि परमात्मा का हमें कोई पता नहीं। कहां है? भक्त कहता है किस दिशा में है? कौन है? कैसे पुकारें? क्या है उसका तेरे गुनाहगार, गुनाहगार ही सही नाम? क्या कहें? कौन-सी भाषा वह समझता है? गुरु के माना कि हम पापी हैं, स्वीकार। पास आसान है। वहां से हम जीवन का क, ख, ग सीखते हैं। तेरे करम की आस लगाये हुए तो हैं वहां से हम परमात्मा की तरफ पहली सीढ़ी लगाते हैं। वह लेकिन तेरी करुणा की आशा लगाये बैठे हैं। तू क्षमा करेगा, पहला पायदान है। क्योंकि गुरु हमारे जैसा है और हमारे जैसा यह भरोसा है। नहीं भी है। कुछ-कुछ हमारे जैसा है और कुछ-कुछ हमसे तेरे करम की आस लगाये हुए तो हैं पार। कुछ-कुछ हमारे-जैसा है और कुछ-कुछ परमात्मा जैसा यूं तुझको अख्तियार है तासीर दे न दे है। गुरु एक अदभुत संगम है, जहां आदमी और परमात्मा का क्षमा कर या न कर, यह तेरी मर्जी। मिलन हुआ है। यं तुझको अख्तियार है तासीर दे न दे जहां तक हमारे जैसा है वहां तक तो हम उससे बोल सकते हैं। दस्ते-दुआ हम आज उठाये हुए तो हैं वहां तक तो हम कह सकते हैं। वहां तक तो वह हमें समझेगा। लेकिन प्रार्थना में हमने अपने हाथ उठाये हैं। त हमसे यह न | और जहां वह हमारे जैसा नहीं है, वहां से उसकी क्षमा आयेगी। कह सकेगा कि हमने हाथ न उठाये थे। तेरी करुणा के लिए हम यही गुरु का चमत्कार है। यही गुरु की महिमा है। है मनुष्य, 251 ___ 2010_03 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 | ठीक तुम्हारे जैसा। ऐसे ही हाथ-पैर, ऐसा ही मुंह, ऐसी ही | दस्ते-दुआ हम आज उठाये हुए तो हैं जरूरतें-भोजन, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जन्म-मृत्यु-सब | गुरु खोज लेना साधक के लिए पहली अनिवार्य बात है। तुम्हारे जैसा है। वहीं से गुजरा है, उन्हीं राहों से गुजरा है, जहां जीवन पाया पर जीवन में क्या तम गजर रहे। उन्हीं अंधेरों में से टटोल-टटोलकर मार्ग बनाया दो क्षण सख के बीत सके? है उसने, जहां तुम टटोल रहे। वह तुम्हें समझ सकेगा, क्योंकि मन छलने वाले मिले बहुत पर तुम उसकी ही अतीत-कथा हो। तुम उसी की आत्मकथा हो। क्या मिल मन के मीत सके? जहां वह कल था, वहां तुम आज हो। और जहां वह आज है, मन का मीत मिल जाए, तो गुरु मिला। शरीर से मित्रता वहां तुम कल हो सकते हो। रखनेवाले बहुत मिल जाएंगे। शरीर का उपयोग करनेवाले बहुत परमात्मा बहुत दूर है। गुरु पास भी, और दूर भी। परमात्मा मिल जाएंगे। तुम्हारा साधन की तरह उपयोग करनेवाले बहुत तक सेत फैलाना बड़ा कठिन है। आदमी की सामर्थ्य के बाहर मिल जाएंगे। तम्हारे साध्य की तम्हें जो याद दिलाये, जब वह है। तुम कहते तो हो परमात्मा शब्द, लेकिन कोई भाव उठता है मिल जाए, तो मन का मीत मिला। गुरु मित्र है। भीतर? कुछ भाव नहीं उठता। जब तक तुम किसी मनुष्य में बुद्ध ने तो कहा है, कि मेरा जो आनेवाला अवतार होगा, परमात्मा की पहली झलक न पाओगे, तब तक तुम्हारे परमात्मा उसका नाम होगा मैत्रेय। मित्र। गुरु सदा से निकटतम मित्र है। शब्द में कोई प्राण न होंगे। गुरु परमात्मा शब्द को सप्राण करता | कल्याण-मित्र। तुम से कुछ चाहता नहीं। उसकी चाह जा है। तो तुम्हारे जैसा है, इसलिए तुम जो कहोगे, समझेगा। चुकी। वह अचाह हुआ। तुम्हारा कोई उपयोग करने का प्रयोजन समझेगा कि चोरी का मन हो गया था। दस हजार रुपये पडे थे नहीं। उसे कछ उपयोग करने को बचा नहीं। जो पाना था. पा रास्ते के किनारे, कोई देखनेवाला न था, उठा लेने का मन हो | लिया। वह अपने घर आ गया। वह तुम्हारी सीढ़ी न बनायेगा। गया था। वह कहेगा, बहुत बार मेरा भी हुआ है ऐसा। कुछ वह तुम्हारे कंधे पर न चढ़ेगा। प्रयोजन नहीं। जो देखना था, देख चिंता न करो। कुछ घबड़ाने की बात नहीं। देखो, मैं उसके पार लिया; जो होना था, हो लिया। सब तरह तप्त। ऐसा कोई आ गया। तुम भी आ जाओगे। सभी को होता है। स्वाभाविक व्यक्ति मिल जाए, तो सौभाग्य है! ऐसे व्यक्ति की छाया फिर है। मानवीय है। छोड़ना मत। फिर बना लेना अपना घोंसला उसी की छाया में। तुम्हारे जैसा है गुरु, तुम्हारी भाषा समझेगा। और ठीक तुम्हारे | फिर करना विश्राम वहीं और खोल देना अपने हृदय को पूरा। जैसा भी नहीं है कि निंदा करे, कि तुम्हारे रोग में रस ले, कुतूहल | निशल्य हो जाओगे तुम। मन में कोई शल्य नहीं रह जाता। करे, कि खोद-खोदकर, कुरेद-कुरेदकर तुम्हारे भीतर छिपे हुए लेकिन लोग बड़े उलटे हैं। लोग गुरु से बचते हैं। और उनको रहस्यों को चेष्टा कर-करके जाने। न, गुरु तो सिर्फ पकड़ लेते हैं जो गुरु नहीं हैं। क्योंकि जो गुरु नहीं हैं, उनसे तुम्हें निष्क्रिय-भाव से, शांत-भाव से सुन लेता है तुम जो कहते हो। कुछ खतरा नहीं है। जो गुरु नहीं हैं, वे तुम्हें मिटायेंगे और तुम्हें आश्वासन दे देता है। नहीं-तुम्हें सूली भी न देंगे, तुम्हें सिंहासन भी न देंगे, वे तुम्हारी यह आश्वासन शब्द का उतना नहीं है जितना उसके सत्व का मत्य न बनेंगे। उनके पास तम झठी सांत्वनाएं लेकर घर आ है। अपने अस्तित्व से, अपनी उपस्थिति से तुम्हें आश्वासन दे | सकते हो। सत्य तो वहां न मिलेगा। सत्य तो महंगा है। उसके देता है। तुम्हारे हाथ को हाथ में ले लेता है। या तुम्हारे सिर पर | लिए तो प्राणों से कीमत चुकानी पड़ती है। सांत्वना मिलेगी, अपना हाथ रख देता है। और तुम अनुभव कर लेते हो कि उसने | लेकिन सांत्वना बड़ी सस्ती है। क्षमा कर दिया। और अगर उसने क्षमा कर दिया, तो परमात्मा आईने से बिगड़ के बैठ गये निश्चित क्षमा कर देगा। जब गुरु तक क्षमा.करने में समर्थ है, तो जिनकी सूरत जिन्हें दिखायी गयी परमात्मा की तो बात ही क्या कहनी! गुरु से तो लोग नाराज हो जाते हैं। क्योंकि गुरु तो दर्पण है। यूं तुझको अख्तियार है तासीर दे न दे तुम्हारी सूरत तुम्हारे सामने आ जाएगी। 252 | JainEducation International 2010_03 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 गुरु है मन का मीत आईने से बिगड़ के बैठ गये अगर शरीर बीमार हो, तो मन की तरफ यात्रा नहीं हो सकती। जिनकी सूरत जिन्हें दिखायी गयी | जैसे कोई आदमी बीमार है, क्या वीणा बजाये! कैसे गीत तो गुरु का काम तो बड़ा कठिन है। उसे तुम्हें तुम्हारी सूरत भी गाये? खाट से लगा है, कैसे नाचे? कैसा साहित्य का रस, दिखानी है और तुम्हें तुम्हारी सूरत से मुक्त भी करना है। तुम कैसा काव्य, कैसी चित्रकला, कैसी मूर्ति! अभी शरीर रुग्ण है, जैसे हो वह बताना है, और तुम जैसे हो सको उस तरफ ले जाना | घावों से भरा है। तो शरीर में अटका रहता है। शरीर स्वस्थ हो है। और तुम्हारी निंदा भी न हो जाए, तुम्हारा आत्मविश्वास भी जाता है, तो आदमी मन की तरफ चलता है। तो फिर गीत भी न खो जाए, तुम्हारी प्रतिमा भी खंडित न हो जाए, बड़ा नाजुक | सुनता है, संगीत भी सुनता है। नाचता भी है, चित्र भी बनाता है, काम है। तुम्हें संभालना भी है, तुम्हें गिरने भी नहीं देना है, और | मूर्ति भी गढ़ता। बगीचा लगाता है, फूल संवारता है। सौंदर्य का तुम्हें संभालना भी ऐसे है कि तुम्हें ऐसा न लगने लगे कि कोई अनुबोध होता है। एक नया रस का संसार खुलता है। शरीर जबर्दस्ती संभाल रहा है। कहीं तुम्हें ऐसा न लगने लगे कि | स्वस्थ हो तो आदमी मन की ऊर्जा का उपयोग करना शुरू करता तुम्हारी स्वतंत्रता खोयी जा रही है, तुम गिरने की स्वतंत्रता खोये है। मन की तरंगों पर चढ़ता है। लेकिन मन अगर रुग्ण हो, तो दे रहे हो। आत्मा की तरफ नहीं जा सकता। जब मन निशल्य होता है, तो तो गुरु का काम इस जगत में सबसे नाजुक काम है। मूर्तिकार और एक नयी अंतिम यात्रा शुरू होती है-आत्मा की खोज, पत्थर की मूर्ति खोदते हैं, चित्रकार कैनवस पर चित्र बनाते हैं, परमात्मा की खोज, सत्य की खोज। शरीर, मन, दोनों संतुलन कवि शब्दों को जमाते हैं, संवारते हैं, गुरु चैतन्य की मूर्ति में हों, तो ही आत्मा की खोज हो सकती है। निखारता है-बड़ा नाजुक है। और नाजुकता यही है कि गुरु को अब मुझको करार है तो सबको करार है विपरीत काम करने पड़ते हैं। एक तरफ तम घबड़ाकर गिर ही न दिल क्या ठहर गया कि जमाना ठहर जाओ, दूसरी तरफ तुम कहीं इतने आश्वस्त भी न हो जाओ कि जैसे ही मन की उधेड़बुन ठहर जाती है, दिल ठहर जाता है, कि तुम जो हो वही रह जाओ! सारी आपा धापी, सारी दौड़-धूप, सब बंद हुई। तुम्हारे बीज को तोड़ना भी है। तुम जैसे हो उसे बदलना भी है, दिल क्या ठहर गया कि जमाना ठहर गया लेकिन तुम्हें कोई चोट न पड़े, हिंसा न हो जाए। तुम्हें कहीं ऐसा | सब ठहर जाता है, समय ठहर जाता है। उस परम ठहराव में न लगने लगे कि यह बंधन हो गया, यह परतंत्रता हो गयी, यह | ध्यान के फूल खिल सकते हैं। उस परम शांति में आदमी अपनी तो कारागृह हो गया। स्वेच्छा से, स्वतंत्रता से तुम्हारे जीवन में आखिरी मंजिल की तरफ जाता है। अनुशासन आये। यही जटिलता है। थोपा न जाए, आये। गुरु ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की के प्रेम में आये, गुरु की उपस्थिति में आये। गुरु के आदेश से न निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास आये, बस उसके उपदेश से आये। वह तम्हें आज्ञा न दे। कोई करना चाहिए।' गुरु आज्ञा नहीं देता। जो आज्ञा देते हैं वे गुरु नहीं हैं। गुरु तो णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं। सिर्फ कहता है, निवेदन करता है। सुझाव ज्यादा से ज्यादा, णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो कुज्जा।। | आज्ञा नहीं। तम्हारी स्वतंत्रता भी बचानी है और तम्हारी सत्य की 'ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है।' ज्ञान को ठीक से समझ यात्रा को भी पूरा करना है। लेना। ज्ञान का अर्थ शास्त्र अध्ययन नहीं। वह तो महावीर लेकिन इसकी पहली शुरुआत, महावीर कहते हैं, भूलों के बहुत पहले इनकार कर चुके। ज्ञान का अर्थ सूचनाओं का समग्र स्वीकार से होती है। निशल्य हुआ व्यक्ति स्वस्थ हो | संकलन नहीं है। ज्ञान का अर्थ है, जो है उसे वैसा ही जानना। गया। उसके मानसिक रोग गये। उसकी मानसिक उपाधियां | | जैसा है वैसा ही जानना। तथ्य को तोड़ना-मरोड़ना नहीं। तथ्य गिरी। मन स्वस्थ हो, तो आत्मा की तरफ यात्रा हो। के ऊपर अपने मन को आरोपित न करना। तथ्य को विकृत न इसे हम समझें। करना। जो है, जैसा है, उसे वैसे ही जानने का नाम ज्ञान है। 253 2010_03 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 Mini गुलाब का फूल खिला। तुम कहते हो, सुंदर है। तो जो जैसा मन का अभाव, ध्यान। अ-मन की अवस्था, ध्यान। है उससे तुम हट गये। तुमने अपने मन को आरोपित किया। यह 'ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। और ध्यान से सब कर्मों की सुंदर का खयाल तुम्हारा है। गुलाब के फूल को कुछ भी पता निर्जरा होती है।' नहीं है कि सुंदर है, असुंदर है। आदमी हट जाए पृथ्वी से तो भी सुनो, महावीर कहते हैं, ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती गुलाब का फूल खिलेगा। गेंदे का फूल भी खिलेगा। लेकिन न है। जो तुमने किये हों पाप-पुण्य अनंत-अनंत जन्मों में, क्षणभर तो गेंदे का फूल असुंदर होगा, न गुलाब का फूल सुंदर होगा। न के ध्यान से मिट जाते हैं। क्यों, ऐसा कैसे होता होगा? यह गेंदे का फूल कम सुंदर होगा, न गुलाब का फूल ज्यादा सुंदर गणित कुछ समझ में नहीं आता। क्योंकि जनम-जनम तक पाप होगा। घास के फूल भी खिलते रहेंगे। सभी एक जैसे होंगे। किये-चोरी की, बुराई की, झूठ बोले, हत्या की, हत्या का मनुष्य के हट जाते ही मल्य हट जाते हैं। सोचा–कम से कम आत्महत्या की-सब तरह के गर्हित कृत्य जब तुम कहते हो गुलाब का फूल सुंदर है, तो तुमने फूल के किये हैं, जन्मों-जन्मों तक इतने कर्मों का जाल, और ध्यान से साथ कुछ जोड़ा। तथ्य को तथ्य न रहने दिया। तुमने कल्पना | मिट जाएगा, क्या मामला है? ध्यान से इसलिए मिट जाता है जोड़ी। तुमने अपना भाव डाला। तुमने तथ्य को अतथ्य किया। | कि जो तुमने किया, वह सपना था। कर्ता का भाव स्वप्न है। रात गुलाब को देखो, कुछ कहो मत। कुछ जोड़ो मत। वहां हो भर कितने काम करते हो, सुबह अलार्म बजा, पक्षी चहचहाये, गुलाब, यहां हो तुम, दो उपस्थितियां-शून्य, शांत-शब्द का आंख खुली, सब गया-रात कितना क्रम था, कितना उपक्रम कोई भी रोग-राग न हो। शब्द बीच में उठे ही नहीं। शब्द सत्य था, कितना उपाय था, कितनी दौड़-धूप थी, कितना पाया, को विकृत करता है। मौन का सेतु हो। वहां गुलाब खिले, यहां कितना खोया, आंख खुलते ही सब खाली तुम खिलो। दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने साक्षात्कार हो। निर्जरा का अर्थ है, जिसे तुमने कर्म जाना वह माया से ज्यादा न तुम कुछ कहो, न तुम कुछ सोचो, न तुम कोई धारणा बनाओ, | नहीं। महावीर माया शब्द का उपयोग नहीं करते। लेकिन इससे तुम बस देखते रहो जो है। जो है उसे प्रगट होने दो, फैलने दो। | क्या फर्क पड़ता है। उनका वक्तव्य इतना साफ है। महावीर यह तब तुम पहली दफे जानोगे गुलाब को-नामरहित, कह रहे हैं, जो तुमने किया वह स्वप्नवत है। जागने की जरूरत विशेषणरहित, रूपरहित। गुलाब अपने समग्र वैभव से प्रगट है, जागते ही स्वप्न खो जाते हैं। रात तुमने चोरी की, सुबह होगा। तुम्हारी आत्मा पर फैलता चला जाएगा। तुम पहली दफा जागकर फिर तुम परेशान तो नहीं होते कि रात चोरी की, चोर स्पर्श करोगे उसका, जो है। और जो गुलाब के साथ कह रहा हूं, बना, अब क्या करूं, अब क्या न करूं? क्या अब दान करूं? वही सारे जीवन के साथ करो, तो महावीर कहते हैं, ज्ञान। | क्या जाकर पुलिस में रपट लिखाऊं? क्या करूं? रात किसी ‘णाणेण ज्झाणसिज्झी।' और ज्ञान से ध्यान सिद्ध होता है। की हत्या कर दी, तो सुबह तुम घबड़ाते तो नहीं कि पुलिस आती बड़ा अमूल्य सूत्र है। ऐसे ज्ञान का अपने-आप रूपांतरण ध्यान | होगी। जागते ही निर्जरा हो गयी। जागते ही निर्जरा इसीलिए हो में हो जाता है। यह ज्ञान की विशुद्धि ही ध्यान बन जाती है। सकती है कि जो किया था वह सोते का सपना था। ध्यान का अर्थ है, निर्विचार-चित्त। जब तुम तथ्य को तथ्य की 'ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है।' निर्जरा शब्द बड़ा तरह देखने में कुशल हो जाते हो, तो विचार विदा हो जाते हैं। प्यारा है। महावीर का अपना है। निर्जरा का अर्थ होता है, झड़ उनकी तरंगें नहीं उठतीं। मौन में साक्षात्कार होने लगता है। जाना। जैसे पतझड़ में पत्ते झड़ जाते हैं। जैसे स्नान करते वक्त तुम्हारी आंख खाली हो जाती है। तुम सिर्फ देखते हो, कुछ शरीर की धूल झड़ जाती है। बैठ गये जलस्रोत के निकट, डालते नहीं। तुम सिर्फ सुनते हो, कुछ विचारते नहीं। तुम सिर्फ जलप्रपात के नीचे, सब धूल झड़ जाती है। ऐसे ध्यान से जब छूते हो, व्याख्या नहीं करते। व्याख्या करना, विचार करना, स्नान हो जाता है, तो सब निर्जरा हो जाती है। कुछ डालना, कुछ जोड़ना, ये सब मन के कृत्य हैं। जब ये सब | 'निर्जरा का फल मोक्ष है।' और निर्जरा की अंतिम अवस्था कृत्य खो जाते हैं, मन खो जाता है। जहां मन नहीं, वहां ध्यान। | जहां सब झड़ गया, कुछ भी न बचा; सब घास-पात, सब 254 2010_03 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु है मन का मीत पात-पत्ते, सब धूल-धवांस, सब गिर गयी, कुछ भी न बचा, विवाह करे। अकेला मैं ही क्यों दुख पाऊं इसकी वजह से? तुम ही बचे तुम्हारी निपट शुद्धि में, तुम्हारा एकांत बचा, तुम्हारा | कोई और भी तो चखे दुख! और फिर एक और कारण है। मर कैवल्य बचा, बस तुम्हारी भीतर की रोशनी बची, शून्य में जाने के बाद कम से कम एक आदमी तो दुखी रहेगा, कि मुल्ल जलता हुआ प्राण का दीया बचा, सब हट गया, वही मोक्ष है। न मरता तो अच्छा था। मोक्ष कोई भौगोलिक अवस्था नहीं। मोक्ष तुम्हारी शुद्धतम लोग कहते कुछ, भीतर कुछ और होता। बोलते कुछ, भाव अवस्था है। कहो परमात्मा या मोक्ष, एक ही बात है। कुछ और होते। पर्त दर पर्त आदमी में झूठ है। बाहर फिर हम 'अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए।' महावीर के इस वही देखते चले जाते हैं जो पर्त दर पर्त हममें फैला है। तुम दूसरे वचन को जैन-मुनियों ने समझा कि सतत शास्त्र पढ़ते रहना में वही देख लेते हो, जैसी तुम्हारी देखने की आदत हो गयी है। चाहिए। करते ही यही बेचारे! शास्त्र-अभ्यास तो खूब हो जाता चोर चोर को ही देखता रहता है। चोर को साधु दिखायी पड़ता ही है, लेकिन न तो उससे ध्यान सधता है-वस्तुतः नहीं, दिखायी पड़ ही नहीं सकता। वह मान ही नहीं सकता कि शास्त्र-अभ्यास के कारण ध्यान असंभव हो जाता है—न उससे कोई साधु हो सकता है। जब वह खुद ही नहीं हो सका साधु, तो कर्मों की निर्जरा होती है, न मोक्ष मिलता है। फिर भी-न पौधा कौन हो सकता है! दिखायी पड़ता, न फल लगते, न फूल आते-फिर भी वे बैठे महावीर कहते हैं ज्ञान के अभ्यास का अर्थ है, तथ्य को देखने हैं। शास्त्र का अध्ययन किये जा रहे हैं। की कला। अपने को हटाना, बीच में मत डालना। व्यवधान म ज्ञान-अभ्यास का महावीर का अर्थ है. तथ्य को तथ्य की तरह बनना. सब पर्दे हटा लेना और जैसा हो उसको वैसा ही देखना देखने का अनुशासन। जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की | चाहे कोई भी कीमत देनी पड़े, चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। प्रक्रिया। इसे साधना होगा। क्योंकि जन्मों-जन्मों तक हमने शास्त्र-अभ्यासी तो केवल परंपरा के अंधे पूजक हैं। तथ्यों को झुठलाना सीखा है। हम कुछ का कुछ देख लेते हैं। लीक-लीक गाड़ी चले, लीकै चले कपूत हम देखते भी होते हैं, लेकिन वह नहीं दिखायी पड़ता जो है। लीक छोड़ि तीनों चलें, शायर, सिंह, सपूत और वह दिखायी पड़ जाता है जो हम देखना चाहते हैं। हमारे | वह जो शास्त्र की लकीर पीटते रहते हैं, वह तो कपूत हैं। वह भीतर की तरंगें जगत के पर्दे पर छायाएं बनाती रहती हैं। तो कायर हैं। उनमें तो कोई बल नहीं। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मेरे पास आया। उसने अपनी लीक छोड़ि तीनों चलें, शायर, सिंह, सपूत। वसीयत लिखी। वसीयत देखकर मैं चौंका। मैंने कहा, मल्ला, जो भी लीक को छोड़कर चल सकता है, जो पिटी-पिटायी बड़े उदार हो। क्योंकि वसीयत में उसने लिखा, कि मेरे मरने के बात को नहीं देखता, जो पिटे-पिटाये शब्दों को नहीं दोहराता, बाद में मेरी पत्नी को पचास हजार रुपये मिलें। लेकिन यदि वह जो पिटी-पिटायी धारणाओं में नहीं जीता, जो सब जाल को हटा विवाह करे, तो एक लाख रुपये मिलें। मैंने कहा, लोग तो लिख देता है और जीवन के तथ्य को देखता है और उस तथ्य के जाते हैं कि अगर पत्नी विवाह करे, तो एक पैसा न मिले। अगर अनुसार जीता है, वही बहादुर है, वही साहसी है, वही महावीर सदा मेरे नाम के लिए रोती रहे, तो सब मिल जाए। तुमने यह है। शायर, सिंह, सप्त। उसी के जीवन में काव्य का जन्म क्या किया? तुम बड़े उदार हो। कभी मैंने सोचा नहीं कि तुम होगा। उसी के जीवन में वीर्य का जन्म होगा। वही सपत है। इतने उदार होओगे। उसने कहा, आप गलत न समझें, मेरा | क्योंकि वही जीवन को धन्य कर पायेगा। वही भाग्यवान है। मतलब कुछ और ही है, लेकिन अब आपसे क्या छिपाना! क्या 'उन महाकुल वालों का तप भी शुद्ध नहीं है जो प्रव्रज्जा धारण मतलब है तेरा? तो उसने कहा, पहली तो बात यह है कि जो कर पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं। इसलिए कल्याणार्थी को मूर्ख-और केवल कोई मूर्ख ही उससे विवाह करेगा–विवाह | इस तरह तप करना चाहिए कि दूसरे लोगों को पता तक न चले। करेगा, उसके लिए खर्च-पानी के लिए कुछ जरूरत पड़ेगी, अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा नहीं कर लेकिन उसमें भी मेरा रस नहीं। रस मेरा इसमें है कि कोई उससे | आदमी ऐसा उलटा है, बेबूझ है। उलटी खोपड़ी है आदमी 255 2010_03 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 की। तप भी करता है तो भी कारण वही पुराने अहंकार के होते | में। अंधेरी रात में। तुम्हारी पत्नी को, तुम्हारे पति को पता न हैं। पहले धन की अकड़ से चलता था कि लाखों हैं, अब इस | चले। उठ गये आधी रात. बैठ गये अपने बिस्तर पर, क्षणभर अकड़ से चलता है कि लाखों त्याग दिये। पहले यह अकड़ थी को उस एकांत में परमात्मा से अपने को जोड़ो। भीड़-बाजार का कि देखो मेरे पास कितना है, अब यह अकड़ है कि सुनो मैंने यह काम नहीं। किसी को बताना क्या है! किसी से कहना क्या कितना त्यागा है। अकड़ अपनी जगह कायम है। रस्सी जल | है? कहा कि हाथ से खो जाएगा। कहा कि गया। तीर निकला जाती है, अकड़ नहीं जाती। तो महावीर कहते हैं, ऐसा तप मत | धनुष से। फिर लौटेगा नहीं। करना, वह तप भी अशुद्ध है। रोको, संभालो। पुण्य को छिपाओ। पाप को प्रगट करो। तेसिं तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। क्योंकि पाप छूट जाए, अच्छा। पुण्य छिप जाए, बीज बने, गहरे जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जइ।। में उतरे तुम्हारे अंतस्तल में जाए, अंतरधारा बहे, तुम्हारे रोएं-रोएं पूजा-सत्कार के लिए तप मत करना। कल्याणार्थी को तो ऐसे में. रग-रग तप करना चाहिए कि किसी को पता न चले। तप तो एकांत में 'ज्ञानमयी वायसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी हो। तप तो तुम्हारा भीतर है, भीतर हो। अग्नि संसार के कारणभूत कर्मबीज को वैसे ही जला डालती है अब इसको समझना। जैसे वन में लगी प्रचंड आग तृण-राशि को जला डालती है।' साधारणतः पाप हम एकांत में करते हैं, पुण्य भीड़ में करते हैं, इस ज्ञान की अग्नि को जलाओ। इस ज्ञान के यज्ञ को जलाओ। पाप हम छिपाते हैं, पुण्य हम बताते हैं। पाप अगर मजबूरी में इसे जलाना हो तो तथ्य को तथ्य के जैसा देखने का साहस करो। बताना भी पड़े, तो कम से कम बताते हैं। पुण्य अगर छिपाना भी इसे अगर जलाना हो तो व्यर्थ को बाहर फेंको, सार्थक को भीतर पड़े, तो कम से कम छिपाते हैं। मजबूरी में। पुण्य को हम संभालो। बुरे को कहो। कम से कम एक आदमी तो खोज लो, बढ़ा-बढ़ाकर बताते हैं, पाप को हम घटा-घटाकर छिपाते हैं। जिससे तुम अपना पूरा हृदय कह सको। और शुभ को मंजूषा पाप को हम छोटा बना-बनाकर भीतर रख लेते हैं। पुण्य को हम में-हृदय की मंजूषा में छिपाओ। शुभ का सार तुम्हारे प्राणों में बड़ा बनाकर आकाश में इंद्रधनुषों की भांति फैलाते हैं। बस जाए। और अशुभ जैसे ही तुम्हें पता चले, तत्क्षण उसे महावीर कहते हैं, प्रक्रिया उलटी होनी चाहिए। पुण्य को भीतर निवेदन कर दो। गंगा में बहा दो। तो जन्मों का जो कारणभूत छिपाकर रख लेना, पाप को बाहर प्रगट कर देना। पाप को तो बीज है, जिसके कारण हम पैदा होते हैं-वासना-वह नष्ट हो बता देना, क्योंकि जो बता दो वह खो जाता है। पुण्य बताया, जाती है। या अहंकार, वह नष्ट हो जाता है। यह शांति जिसकी पुण्य खो जाएगा। पाप बताया, पाप खो जाएगा। जो बचाकर आदमी तलाश करता है, पहाड़ों पर न मिलेगी। पहाड़ों की शांति भीतर रखते हो, वही बीज बनता है। जो छिपाया, वही बढ़ेगा। क्षणभर का धोखा है। यह शांति तुम्हें भीतर खोजनी होगी! पाप छिपाओगे, पाप बढ़ेगा। पुण्य छिपाओगे, पुण्य बढ़ेगा। कितनी शांति! कितनी शांति! अब तुम पर निर्भर है। गणित साफ है। अगर तुमने पाप समाहित क्यों नहीं होती यहां मेरे हृदय की क्रांति? छिपाया, तो पाप बढ़ता जाता है। वह तुम्हारी रंध्र-रंध्र में मवाद | क्यों नहीं अंतर-गुहा का अशंखल दुर्बाध्य वासी की तरह फैल जाता है। उसकी अंतःधारा तुम्हें पूरी तरह ग्रसित अथिर यायावर, अचिर में चिर प्रवासी कर लेती है। और पुण्य तुम प्रगट करते हो, वह खो जाता है हाथ । नहीं रुकता, चाह कर—स्वीकार कर—विश्रांति? से। पुण्य प्रगट हुआ, ऐसे जैसे कि सुगंध निकल गयी फूल से। मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा फूल खाली रह गया। गंध गयी। जगत की उपलब्धियां सब हैं लभानी भ्रांति। महावीर कहते हैं उलटा करो, थोड़े समझदार बनो। छिपाओ | कितनी शांति! कितनी शांति! पुण्य को, किसी को पता न चले। जीसस ने कहा है, एक हाथ से समाहित क्यों नहीं होती यहां मेरे हृदय की क्रांति ? दो, दूसरे हाथ को पता न चले। प्रार्थना करो एकांत में, अकेले पहाड़ों पर जो शांति है, बड़ी गहन है। पहाड़ों की है, तुम्हारी 256 2010_03 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं। मंदिर में जाकर बैठ गये, शांति है। मंदिर की है, तुम्हारी नहीं। इस शांति से तुम्हारे भीतर का उथल-पुथल, इस शांति से तुम्हारे भीतर का रुदन, इस शांति से तुम्हारे भीतर का कोलाहल समाप्त न होगा। समाहित क्यों नहीं होती यहां मेरे हृदय की क्रांति ? क्यों नहीं अंतर- गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य वासी अथिर यायावर, अचिर में चिर प्रवासी नहीं रुकता, चाह कर — स्वीकार कर — विश्रांति ? मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा जगत की उपलब्धियां सब हैं लुभानी भ्रांति । जानते तो तुम भी हो। लेकिन जानना तुम्हारा मानने का है। मानकर भी सभी ईप्सा, सभी कांक्षा जगत की उपलब्धियां सब हैं लुभानी भ्रांति कुछ हल नहीं होता। मानकर कहीं हल हुआ है? सुनकर मान लिया, कहीं हल हुआ ? जानना होगा। ज्ञान! फिर बनेगा ध्यान। फिर ध्यान से होगी निर्जरा। फिर निर्जरा से मोक्ष। इतना ही फर्क है परमात्मा में और आदमी में कि आदमी व्यर्थ के बोझ से ढंका है, जैसे हीरा कंकड़ों में दबा, कि सोना मिट्टी में पड़ा। आग से गुजर जाए, निखर जाए, कि आदमी परमात्मा है। सरापा आरजू होने ने बंदा कर दिया हमको वरना हम खुदा थे गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते अगर हृदय में आकांक्षा, वासना का बीज न होता, चाह न होती, तो हम स्वयं ईश्वर थे। फिर से चाह जल जाए, हम फिर ईश्वर हो जाएं। चाह हमें उतार लायी जमीन पर । लंगर की तरह चाह ने हमें जमीन से बांधा है। ज्ञान की अग्नि में चाह जल जाती है । ठीक कहते हैं महावीर - 'जैसे प्रचंड अग्नि में तृण - राशि | जल जाती है, ऐसा ही बीज चाह का, तृष्णा का जल जाता है।' जल्दी करो, क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं । जलाओ इस आग को। यह सोना कब से तुम्हारी प्रतीक्षा करता है । जिसलिए मैं पंख लाया था, वह काम न इनसे ले पाया। इन पंखों का देनेवाला, नाराज न होगा क्या मुझ पर ? पंखों से बांध लिये पत्थर ! फैलाओ पंखों को। फिर से तौलो हवाओं पर । फिर उड़ो 2010_03 आकाश की तरफ। जिसलिए पंख मैं लाया था, वह काम न इनसे ले पाया। इन पंखों का देनेवाला, नाराज न होगा क्या मुझ पर ? पंखों से बांध लिये पत्थर ! गरु है मन का मीत गिराओ पत्थर । लेकिन दूसरों की कही हुई बातों से यह न होगा। सुना बहुत कहते लोग, जगत माया है । छूटती तो नहीं ! सुना बहुत, लोग कहते हैं क्रोध आग है; मिटता तो नहीं ! सुना बहुत, काम पाप है; जाता तो नहीं! क्या इतने से साफ नहीं हो रहा कि सुना हुआ जो है, पढ़ा हुआ जो है; शास्त्र से, संस्कार से जो मिला है, वह ज्ञान नहीं! प्रकाश की बातें हैं, प्रकाश नहीं । पाकशास्त्र है, भोजन नहीं। जल का सूत्र होगा - एच टू ओ-लेकिन एच टू ओ से कहीं प्यास किसी की बुझी है! कागज पर किसी को एच टू ओ लिखकर दे दो, वह प्यासा तड़फ रहा है - वह फेंक देगा कागज, वह कहेगा इसे क्या करेंगे ? शास्त्र का क्या करेंगे? होगा ठीक तुम्हारा सूत्र, मुझे जल चाहिए, सूत्र नहीं। लेकिन जल शास्त्र से मिल भी नहीं सकता। स्वयं से ही मिल सकता है। और जब तक वैसा जलस्रोत तुम अपने भीतर न खोज लो, प्यासे तड़फते, जीवन के नाम पर क्षण-क्षण मरते ही तुम रहोगे। मन में मिलन की आस है, दृग में दरस की प्यास है, पर ढूंढता फिरता जिसे, उसका पता मिलता नहीं। झूठे बनी धरती बड़ी, झूठे बृहत आकाश हैं; मिलती नहीं जग में कहीं, प्रतिमा हृदय के गान की । किसके सामने नाचूं ? किसके सामने गीत गाऊं ? कहां चढ़ाऊं जीवन का अर्ध्य ? कहां चढ़ाऊं जीवन का नैवेद्य ? कहां है वह द्वार, जो मेरे घर का है? जो वस्तुतः मेरे घर का द्वार है। मन में मिलन की आस है, दृग में दरस की प्यास है, पर ढूंढता फिरता जिसे, 257 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 जिन सूत्र भाग: 2 उसका पता मिलता नहीं, बाहर ढूंढते रहोगे, मिलेगा भी नहीं। वह भीतर छिपा बैठा है। तुम्हारा होना ही उसका द्वार है। तुम जरा शुद्ध होने की कला भर सीख लो। उसी को महावीर ज्ञान कहते हैं। और घबरा मत जाना, कितने ही हारे होओ, कितने ही भटके होओ, उससे तुम दूर जाकर भी दूर जा सकते नहीं । उसे खोकर भी तुम खो सकते नहीं। क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। तृषित ! धर धीर मरु में कि जलती भूमि के उर में कहीं प्रच्छन्न जल हो । नरो यदि आज तरु में सुमन की गंध तीखी, स्यात, मधुपूर्ण फल हो । दुखों की चोट खाकर हृदय जो कूप-सा जितना अधिक गंभीर होगा; उसी में वृष्टि पाकर कभी उतना अधिक संचित सुखों का नीर होगा। घबड़ाओ मत! बहुत बार ऐसा हुआ कि महावीर और बुद्ध जैसे पुरुषों को देखकर बजाय इसके कि लोगों ने आशा के सूत्र लिये होते, लोग निराश हो गये और घबरा गये और उन्होंने कहा कि यह कुछ ही लोगों के वश की बात है। यह तो महापुरुषों | की बात है । अवतारी, तीर्थंकरों की बात है । बुद्धों की बात है । हम साधारणजन! तो, हम पूजा ही करने के लिए बने हैं। हम कभी पूज्य होने को नहीं बने। तो हम प्रतिमा के सामने फूल चढ़ाने को ही बने हैं, हम कभी परमात्मा की प्रतिमा बनने को नहीं बने हैं। बड़ी भूल हो गयी। जिनसे आत्मविश्वास लेना था, उनसे हमने और दीनता और हीनता ले ली। उनका सारा प्रयास यही था कि तुम समझो कि वे तुम्हारे जैसे ही पुरुष, आज ऐसे गौरीशंकर के शिखर जैसे हो गये हैं। तुम भी हो सकते हो। देखा कभी बड़वृक्ष के नीचे, विराट वृक्ष के नीचे पड़ा छोटा-सा बड़ का चीज! बड़ का बीज सोच भी नहीं सकता कि इतना बड़ा वृक्ष कैसे हो सकेगा ? लेकिन हो सकता है। उसकी संभावना है। 2010_03 वैसी ही संभावना तुम्हारी है। बस थोड़े से जागने की, स्मरण की बात है। रे प्रवासी, जाग! तेरे देश का संवाद आया। भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली; प्रेम से झुक झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली; दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण-तृण जगाता, फिर उदय की वायु का वन में सुपरिचित नाद आया रे प्रवासी, जाग! तेरे देश का संवाद आया। जिन सूत्र तुम्हारे देश की खबरें हैं। रे प्रवासी, जाग! तेरे देश का संवाद आया । महावीर और बुद्ध डाकिया हैं । चिट्ठीरसा। खबरें लाते हैं। परमात्मा की । तुम चिट्ठियों को संभालकर छाती पर मत रख लेना । खोलो और उनका अर्थ खोलो। खोलो चिट्ठियों को । उनका सार समझो। ये चिट्ठियां पूजने के लिए नहीं हैं। ये चिट्ठियां शास्त्र बना लेने के लिए नहीं हैं। ये चिट्ठियां जीवन बनाने के लिए हैं। रे प्रवासी, जाग! तेरे देश का संवाद आया। आज इतना ही। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education in a For P www.ja Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां प्रवचन जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ c. com . COM प्रश्न-सार भगवान श्री की आंखों से निरंतर आशीर्वाद की वर्षा। उनके दृष्टिपात मात्र से शरीर में कंपन व अंतर्तम में बी की चुभन। मृत्यु घटित होती-सी लगना। फिर भी आत्यंतिक-मृत्यु क्यों नहीं? भगवान श्री के सानिध्य से भीतर प्रेम-प्रवाह प्रारंभ हर व्यक्ति, हर वस्तु के प्रति।। प्रेमपूरित होकर किसी से गले लगने को बढ़ने पर दूसरे द्वारा संकोच व अनुत्साह, प्रश्नकर्ता का पीछे हट जाना। मार्गदर्शन की मांग! तूने आटा लगाया और फंसाया। अब हम अकेले तड़प रहे हैं! जिम्मेवार कौन? भगवान श्री, तेरी रज़ा पूरी हो। SHREE 2010_03 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न: आपकी आंखों से निरंतर आशीर्वाद | होता है। जहां तुम मिटे, परमात्मा हुआ। तुम्हारे मिटे बिना वह बरसता-सा प्रतीत होता है, मधुर और सलोना। | हो भी नहीं सकता। तुम बहुत जगह घेरे हो। उसके लिए श्रोताओं पर आपकी आंखें घूमती हैं और जैसे ही | अवकाश नहीं है भीतर आने को। मिटो, मरो, विदा होओ, मुझ पर पड़ती हैं, लगता है कोई बी मेरे अंतर्तम में छिद ताकि वह आ सके। और तुम ही तुम्हारी बीमारी हो। लेकिन इस गयी। सारा शरीर कांप जाता है। मृत्यु-सी घटित होती है। बीमारी को तुमने अपना शृंगार समझा है। इस अहंकार को तुमने लेकिन आत्यंतिक-मत्य क्यों नहीं घट जाती? अपनी आत्मा समझा है। इससे भल हो रही है। जो मेरे पास आयेंगे, वे चाहे किसी कारण से मेरे पास आ रहे वह भी घटेगी। थोड़ी प्रतीक्षा, थोड़ी बाट जोहनी होगी। प्रारंभ हों, मैं उन्हें पास मरने के लिए ही बुला रहा हूं। मैं उन्हें स्वाद देना हो गया है। धीरे-धीरे मरने की कला आती है। इतना साहस नहीं चाहता हूं मृत्यु का। एक बूंद भी तुम चख लो मृत्यु की, तो मृत्यु होता कि एक छलांग में आदमी मर जाए। रत्ती-रत्ती छटता है। के द्वार से ही अमत की पहली झलक मिलती है। मत्य के लेकिन एक-एक कदम से चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो आवरण में छिपा है अमृत। मृत्यु की ओट में छिपा है परमात्मा। जाती है। इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है। जब मंसूर को सूली लगी, तो वह आकाश की तरफ देखकर और ध्यान निश्चित ही मृत्यु जैसा है। क्योंकि जिसे हमने खिलखिलाकर हंसने लगा। किसी ने पूछा उस भीड़ में से जो जीवन कहा है वह जीवन नहीं है। और जिसे हमने अब तक मृत्यु उसकी हत्या कर रही थी कि क्या देखकर हंस रहे हो? तो मंसूर समझा है वह मृत्यु नहीं है। हम बड़े धोखे में हैं। जिसे हम जीवन ने कहा, तुम जिसे मृत्यु समझ रहे हो, वह मेरे परमात्मा से मेरा कहते हैं, वह केवल एक सपना है। और जिसे हम मृत्यु कहते मिलन का द्वार है। उसे मैं खड़ा देख रहा हूं। वह हाथ फैलाये हैं, वह है केवल इस सपने का टूट जाना। लेकिन चूंकि सपने को बाहुओं में लेने को तत्पर है। तुम यहां मुझे मारो कि वहां मैं उसके हम सत्य मानते हैं, जोर से पकड़ते हैं उसे, छाती से लगाये रखते | आलिंगन में गिरा। इसलिए हंस रहा हूं कि तुम्हें किसी को हैं उसे। जीवन को जोर से पकड़ने के कारण ही मौत दुखदायी | दिखायी नहीं पड़ता! वह बिलकुल सामने खड़ा है। इधर मेरे मालूम होती है। अन्यथा मृत्यु में कोई दुख नहीं है। मृत्यु विश्राम | मरने की देर है कि उधर मिलन हुआ। जल्दी करो, देर क्यों लगा है, विराम है। जीवन को गलत समझा है, इसलिए मृत्यु के | रहे हो? संबंध में भी गलत दृष्टि बन गयी है। | जिन्होंने भी स्वयं को जाना. उन्होंने जाना. मत्य कचरे को ले ध्यान है मृत्यु को ठीक-ठीक जानना, पहचानना। अहंकार को जाती है, सोने को तो छोड़ जाती है। व्यर्थ को बहा ले जाती है, धीरे-धीरे डुबाना और खोना। जहां तुम नहीं होते, वहीं परमात्मा सार्थक को तो निखार जाती है, साफ-सुथरा कर जाती है। मृत्यु 263 2010_03 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MENT जिन सत्र भाग: वरदान है। और जिसे मृत्यु में भी वरदान दिख गया, उसे फिर फिर चूकोगे, फिर उतरोगे जन्म के गड्डे में, फिर भटकोगे इन्हीं कहां वरदान न दिखेगा! जिसने मृत्यु में भी परमात्मा के हाथ देख अंधेरी गलियों में, फिर इन्हीं कंटकाकीर्ण मार्गों पर, फिर इन्हीं लिये, स्वभावतः जीवन में तो उसके हाथ देख ही लेगा। उसने वासनाओं की, इन्हीं क्रोध-कामनाओं की, लोभ, मद-मत्सर की आखिरी कसौटी पार कर ली। भीड़ में फिर खो जाओगे। जब तक तुम मृत्यु में जीवन का सूत्र न खोज लोगे, तब तक इसलिए कहता हूं, ध्यान मृत्यु है। और अगर तुमने मुझे गौर से तुम्हें बार-बार जन्मना होगा, मरना होगा। तुम फिर-फिर भेजे | देखा, तो उस गौर के क्षण में ध्यान की थोड़ी-सी झलक तुम्हें जाओगे, क्योंकि परीक्षा में तुम उत्तीर्ण नहीं होते। जीवन तैयारी | आयेगी। अगर तुमने शांत होकर मुझे देखा, तो शांति के क्षण में है, मृत्यु परीक्षा है। परीक्षा अंत में है, स्वभावतः। जीवनभर | बी चुभेगी। चुभनी ही चाहिए। वही प्रयोजन है मेरा और तैयारी करते हैं हम, तैयारी किसलिए? कभी सोचा मृत्यु अंत में | तुम्हारा यहां होने का कि मैं तुम्हें थोड़े मृत्यु के दर्शन दे दूं। और क्यों आती है? परीक्षा को अंत में आना ही होगा। मृत्यु जीवन | एक बार तुम्हें मृत्यु की झलक आने लगे और रसधार बहने लगे, की समाप्ति नहीं है। जीवनभर में तुमने कुछ सीखा, कुछ जाना, और तुम देखो कि अरे, कैसा नासमझ था, मृत्यु तो वरदान है, कुछ निचोड़ा, कुछ सार हाथ आया, इसकी परीक्षा है। अगर अब तक मैंने अभिशाप समझा! बस, फिर तुम्हें कोई डिगा न कुछ सार हाथ आया हो, तो मृत्यु तुम्हें मार नहीं पाती। अगर सकेगा। फिर तुम चल पड़े सीधी डगर पर। फिर मिली राह। कुछ भी हाथ न आया हो, तो मृत्यु तुम्हें मार पाती है। फिर फेंके | अब तुम्हारी दिशा उचित हुई। जाते हो जन्म में। जो मृत्यु से चूका, फिर जन्मेगा। जैसे-जैसे मृत्यु का रस बढ़ने लगेगा, वैसे-वैसे जिसे तुम मृत्यु से चूकने के कारण ही जन्म है। जो मृत्यु को जागकर जी | जीवन कहते हो, इससे हाथ छूटने लगेंगे। मैं तुमसे यह नहीं लिया, सौभाग्य से जी लिया, जिसने मृत्यु को आत्मसात कर कहता कि त्यागो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहता हूं, जागो। लिया; जो मरा तन्मयता से, आनंद से, अहोभाव से, जिसने जैसे-जैसे जागोगे, त्याग घटता है। किया त्याग भी कोई त्याग मृत्यु में भी परमात्मा के हाथ फैले देख लिये, फिर उसका कोई | है! करना पड़े, बात ही व्यर्थ हो गयी! हो जाए। दृष्टि से हो, जन्म नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं, ध्यान तो मृत्यु को ही सीखना | दर्शन से फले, बोध का परिणाम हो। इधर तुम जागो, उधर है। स्वेच्छा से सीखना है। और अभी तुम न सीखोगे तो मौत | जागने की छाया की तरह त्याग भी घटे। स्वाभाविक है कि जब जब आयेगी, तो अचानक तुम अपने को तैयार न कर पाओगे। | कोई चीज व्यर्थ दिखायी पड़ जाए, हाथ से छूट जाए; मुट्ठी खुल मौत तो अचानक आती है, अकस्मात, कोई खबर नहीं देती, | जाए, गिर जाए। उसे त्याग क्या कहना! छूट गयी। छोड़ा, ऐसा कोई पूर्व-संदेशा नहीं भेजती। एक दिन अचानक द्वार पर खड़ी क्या कहना! छोड़ने जैसा क्या है! कचरे में न पकड़ने जैसा है हो जाती है : तुम अस्त-व्यस्त! तुम चलने को तैयार भी नहीं | कुछ, न छोड़ने जैसा है कुछ। लेकिन यह तो मृत्यु के स्वाद से ही होते, बोरिया-बिस्तर भी बांधा नहीं होता, व्यर्थ से सार्थक को | संभव होगा। छांटा नहीं होता, सार से असार को अलग नहीं किया होता, सब तो यहां मेरे पास जब होओ, तब सच ही मेरे पास हो जाओ। उलझा पड़ा होता है-बीच में मौत आकर खड़ी हो जाती है। तब कोई दूरी मत रखो। तब बीच में विचारों का व्यवसाय न क्षणभर का समय भी नहीं देती कि तुम जमा लो, कि तुम तैयारी | चलने दो। तब चिंतन की धारा मत बहने दो। तब हटाकर सब कर लो, कि तुम पाथेय जुटा लो, कि आनेवाली लंबी यात्रा के बदलियों को सीधा-सीधा मुझे देखो! यहां मैं नहीं हूं। जैसे ही लिए तुम अपने को तत्पर कर लो, एक क्षण का अवकाश नहीं; तुम सीधा-सीधा मुझे देखोगे, नहीं होने की एक लहर तुममें भी मौत आयी-समय गया। मौत के आते ही समय नहीं बचता। उठेगी। इधर मैं मिटा हूं, अगर मेरे साथ संगसाथ क्षणभर को भी अकस्मात आनेवाली यह मत्य, इसकी अगर तुमने जीवन में साधा, तो उधर तुम भी पाओगे कि मिटने लगे। रोज-रोज तैयारी न की, तो जैसा पहले भी इसने तुम्हें गैर-तैयार | सत्संग का इतना ही अर्थ है, किसी ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में पाया, इस बार भी पायेगी। | मिटने की कला सीख लेना, जो मिट गया हो। किसी शून्य के 264 2010_03 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है पास बैठकर शून्य होने का अनुभव ले लेना। शुरू-शुरू में हाथ से हाथ भी छू जाएगा, तो छुरी लगेगी। हाथ में हाथ पकड़ जरूरत है सहारे की। अकेले तो तुम बहुत घबड़ाओगे। इधर मैं | आ जाएगा, तो आत्यंतिक मृत्यु भी घटेगी। अब तुम जिनको भी हूं, तो तुम्हें भरोसा है कि आदमी मिट भी जाए तो भी होता है, | ऐसा हो रहा हो— उन्हें जानना चाहिए कि सौभाग्यशाली हैं, घबड़ाने की कोई बात नहीं। वस्तुतः जितना मिट जाए, उतना ही कुंजी हाथ में आने लगी। देर न लगेगी ताले खोल लेने में। प्रगाढ़ता से होता है। जब कोई आदमी बिलकुल शून्य हो जाता छोटी-सी कुंजी होती है, बड़े से बड़े विराट महलों के ताले खुल है, तो पूर्ण हो जाता है। इस आश्वासन में बंधे तुम मेरे करीब आ जाते हैं। छोटी-सी कुंजी होती है, बड़े-बड़े द्वार खुल जाते हैं। सकते हो। बिना इस आश्वासन के तुम बहुत डरोगे। तुम नाव यह जो अभी छोटी-सी छुरी की तरह छिदती मालूम पड़ती है, को किनारे से छोड़ोगे नहीं। तुम किनारे को जकड़े रहोगे। यह कुंजी है। इसी राह चले चले, तो महामृत्यु घटेगी। भागना ठीक हो रहा है। छुरी चुभती है, चभने दें। और आकांक्षा भी | भर मत। घबड़ाना भर मत। ठीक है। वह आकांक्षा सूचक है कि छुरी को चुभने दिया है। साधक अपनी मृत्यु खोज रहा है। परमात्मा का तो हमें पता पूछा है, आत्यंतिक-मृत्यु कब घटित होगी? घबड़ाओ मत, वह नहीं। इतना ही पता है कि हम जो हैं, गलत हैं। इस गलत को भी होगी। चले चलो। राह पर हो। मिटाने के लिए साधक आकांक्षा कर रहा है। इस आशा में कि सत्संग का जिसे सुख आ गया, उसकी भावदशा ऐसी हो जाती | जब गलत मिटेगा, तो जो शेष रहेगा, ठीक होगा। प्रकाश का हमें कुछ पता नहीं, यह अंधेरा हमें खूब भटका लिया है, इतना कुछ न हुआ, न हो हमें पता है। यह अंधेरा न रहेगा, तो जो बचेगा वह प्रकाश होगा, मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल यही हम सोच सकते हैं, यही हम कामना कर सकते हैं। पास तुम रहो। साधक ने जीवन तो देखा-तुम सब ने जीवन देखा—चारों मेरे नभ के बादल यदि न कटे तरफ जीवन का सपना तुम्हारे फैला है, पाया क्या? सब पा चंद्र रह गया ढंका, लिया हो तो भी कुछ नहीं मिलता। जो कुछ नहीं पा पाते वे तो तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे नंगे रह ही जाते हैं, खाली रह ही जाते हैं, जो सब पा लेते हैं वे भी लेश गगन भास का, खाली रह जाते हैं। इस जीवन की जैसे ही समझ साफ होती, वैसे रहेंगे अधर हंसते, पथ पर, तुम ही आदमी सोचता है कि यह जीवन तो देख लिया, अब मृत्यु को हाथ यदि गहो। भी देख लें। शायद जो यहां नहीं, वहां हो। इधर खोजा, इस राह कुछ न हुआ, न हो पर खोजा, नहीं मिला, विपरीत राह पर खोज लें। अपने से दूर रहेंगे अधर हंसते, पथ पर, तुम जाकर देख लिया, अब अपने पास आकर देख लें। बाहर जाकर हाथ यदि गहो। देख लिया, अब भीतर आकर देख लें। विचार करके, बह रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा चिंतन-मनन करके देख लिया, अब ध्यान करके देख लें। होने मंद सबों ने कहा, की प्रगाढ़ आकांक्षा करके देख ली, अब न होने की कामना करके मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा देख लें। वह न होने की कामना ही प्रार्थना है। ज्ञान, जहां का तहां रहा, जैसे-जैसे मृत्यु इंच-इंच तुममें प्रवेश करेगी, तुम पाओगे मृत्यु रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम के बहाने परमात्मा तुम्हारे भीतर आने लगा। वह सदा मृत्यु के कथा यदि कहो। बहाने ही आता है। वह केवल उनके पास ही आता है, जो मरने अगर, तुमने फैलाया अपने प्राणों का सेतु मेरी तरफ, तुमने को तत्पर हैं। जो कहते हैं तेरे बिना जीना, इसके लिए हम राजी अगर हाथ मेरी तरफ बढ़ाया-मेरा हाथ बढ़ा ही है-मैं तुम्हारे नहीं। तेरे साथ मरने को राजी हैं, तेरे बिना जीने को राजी नहीं। हाथ गहने को तैयार हूं। प्रतीक्षा है बस तुम्हारे हाथ के बढ़ने की। जो ऐसा दांव लगाता है, वही उसे पाता है। 265 ___ 2010_03 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या! मौत सीखकर गये, तो तुमने कुंजी ले ली। जैसे-जैसे उसकी थोड़ी-सी किरणें तुम्हारे भीतर प्रवेश करती हमने भारत के परम रहस्यवादी ग्रंथों को उपनिषद कहा है। हैं, तो पहले तो किरणें मारती हैं, मिटाती हैं, जलाती हैं। उपनिषद का अर्थ होता है, गुरु के पास होना। उपनिषद का अर्थ तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या! होता है, पास बैठना। बस इतना। तारक में छवि प्राणों में स्मृति पास बैठने से क्या हो जाएगा? पलकों में नीरव पद की गति जो मिट गया है, उसके पास बैठने से तुम्हारे भीतर भी मिटने लघु उर में पुलकों की संसृति का साहस जगेगा। जो मिट गया है उसके पास बैठने से, उसकी भर लायी हूं तेरी चंचल खाई में झांकने से, उसकी अतल गहराई में झांकने से तुम भी और करूं जग में संचय क्या! खिंचने लगोगे अतल गहराई की तरफ। जो मिट गया है उसे थोड़ा-सा परमात्मा संचय कर लो देखकर तुम्हें पता चलेगा कि जो मिट गया है, कैसा कमलवत हो भर लायी हूं तेरी चंचल गया है; मरकर कैसे महाजीवन का अवतरण हो जाता है! लघु उर में पुलकों की संसृति इस जगत में सबसे कठिन बात यह भरोसा है कि मरकर भी मैं और करूं जग में संचय क्या! बचूंगा। यह बड़ी से बड़ी श्रद्धा है कि मरकर मैं बचूंगा। जिसको तेरा अधर-विचंबित प्याला यह भरोसा आ गया, वही धार्मिक है। और जो इस भरोसे के तेरी ही स्मित-मिश्रित हाला सहारे पर चल पड़ा, साधक है। जो पहुंच गया, उसे हम सिद्ध तेरा ही मानस मधुशाला; कहते हैं। फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी! रोम-रोम में नंदन पुलकित देते हो मधुमय विषमय क्या! सांस-सांस में जीवन शत-शत परमात्मा का हाथ तुम्हारे पहचानने में आने लगे, फिर तुम न | स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित पूछोगे। मझमें नित बनते मिटते प्रिय फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या; देते हो मधुमय विषमय क्या! फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी! फिर उस प्याली में जो भी हो; मृत्यु सही, तो महाजीवन है। देते हो मधुमय विषमय क्या! जहर अमत है। फिर मिटा डाले वह तो यही तम्हारे निर्माण की मत्य दे रहा हं तम्हें, ले लेना। दो खयाल रखना। एक, प्रक्रिया है। नष्ट कर डाले, प्रलय में डाल दे तुम्हें, तो यही घबड़ाकर बचाने में मत लग जाना। उस बचाने की प्रक्रिया में तुम्हारा सृजन है। | तुम्हारे भीतर हजार तर्क उठते हैं, हजार संदेह उठते हैं। वे तर्क सुनार सोने को आग में डालता है। अगर सोने के पास भी और संदेह केवल निमित्त मात्र हैं, वस्ततः गहरे में तम बचना थोड़ी बुद्धि होती, तो चिल्लाता, तड़फता, कहता यह क्या करते चाहते हो, भागना चाहते हो। भागने के लिए कोई हो, मार ही डालोगे क्या? लेकिन सोने को पता भी कैसे हो कि रेशनलाइजेशन, कोई बुद्धिगत उपाय खोजते हो। तो एक तो यही शुद्ध स्वर्ण बनने की प्रक्रिया है। ऐसे, आग में गुजरकर ही इससे बचना। और दूसरी बात, स्वाभाविक है कि आकांक्षा उठे जो शेष रह जाएगा, वही कुंदन है। मरकर भी तुम्हारे भीतर जो कि थोड़ी-थोड़ी मृत्यु घटती है, ऐसा रस आ रहा है, पूरी क्यों नहीं मरता, वही आत्मा है। मिटकर भी जो तुम्हारे भीतर नहीं नहीं घट जाती! उसकी बहुत ज्यादा चाहना मत करना। उसकी मिटता, वही तुम्हारा वास्तविक होना है। | प्रतीक्षा करना, चाहना नहीं। क्योंकि चाहने से बाधा पड़ेगी। मृत्यु से गुजरना ही होगा। मेरे पास तुम अगर और कुछ | और देर लगेगी। सीखकर गये, तो तुम कूड़ा-कर्कट बीनकर चले गये। अगर कुछ ऐसा है कि जहां से चाह आती है, वह मृत्यु का स्रोत नहीं 266 2010_03 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है है। जहां से चाह आती है, वहीं जीवेषणा है। एक क्षण को तुमने रखना ही जीवेषणा है। तो मौत नहीं घटेगी, देर लग जाएगी। मेरी आंख में देखा, या मैंने तुम्हें देखा। एक धक्का लगा, एक मांगा, तो देर लग जाएगी। सुख की तरंग उठी, कुछ चुभा हृदय में। पीड़ा भी हुई, लेकिन छोड़ो परमात्मा पर, जो दे रहा है उसके लिए धन्यवाद दो। जो मीठी हुई। जो पीड़ा को देखेगा सिर्फ, वह भाग खड़ा होगा। जो नहीं दे रहा है, जानो कि अभी तैयारी न होगी। क्योंकि जब मिठाई को देखेगा सिर्फ, वह और की मांग करने लगेगा। लेकिन फसल के पकने का समय आ जाता है, फसल पकती ही है। दोनों डांवाडोल हो गये। सभी चीजें अपने समय पर पक जाती हैं। तुमने सुना, जीसस को जब सूली लगी तो उनके दोनों तरफ दो और हर बात की घड़ी, हर बात का बंधा हुआ क्रम है। छलांगें चोरों को भी सूली दी गयी। जीसस बीच में थे, सूली पर लटके, नहीं लगती। क्रमिक, धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता तैयारी दोनों तरफ दो चोरों को भी सूली दी गयी थी। जिनने ऐसा होती है। क्योंकि तुम अगर तैयार न हो और कुछ तुम्हें मिल आयोजन किया था, उनका तो केवल अर्थ इतना ही था कि वे जाए, तो तुम गंवा दोगे। तुम अगर तैयार न हुए और कुछ तुम्हारी जीसस को भी एक चोर-लफंगे से ज्यादा नहीं समझते। इसलिए अपात्रता में गिरा, तो नष्ट हो जाएगा। दो चोरों के साथ-साथ सूली दी थी। लेकिन, ईसाई संतों ने बड़ी | धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता चुभने दो इस छुरी को। इसकी अनूठी बात इस साधारण-सी घटना में खोज ली। यह पीड़ा को भी स्वीकार करो, इसके प्यार को भी स्वीकार करो। साधारण-सी घटना एक गहरा बोध-प्रसंग बन गयी। इसकी पीड़ा भी, इसकी मिठास भी। तुम चुनो मत। जितना हो जैकब बहुमे ने कहा है कि जीसस के दोनों तरफ दो चोर खड़े रहा है, उसके लिए धन्यवाद; जो नहीं हो रहा है, उसके लिए हैं, लटके हैं सूली पर, अगर तुम जरा बायें झुककर नमस्कार भरोसा कि होगा। ऐसी श्रद्धा से जो चलता है, वह एक दिन मिट किये तो चोर को नमस्कार हो गयी, दायें झुककर नमस्कार किये भी जाता है और मिटकर सर्वांग सुंदर भी हो जाता है। तो चोर को नमस्कार हो गयी। ठीक बीच में रहे तो ही तम्हारा नमस्कार जीसस को पहंचेगा। यह तो बड़ी मीठी बात कही बहमे दूसरा प्रश्न : जबसे आपके शिष्यों का, आपके साहित्य का ने। जरा इधर-उधर हुए कि चूके। सत्य मध्य में है। दोनों तरफ और अंततः आपका ही संपर्क उपलब्ध हुआ है, मेरे जीवन में चोर हैं। दोनों तरफ असत्य है। परमात्मा मध्य में है, दोनों तरफ प्रेम का प्रवाह आरंभ हो गया है। हर आदमी, हर चीज अच्छी शैतान है। लगने लगी है। परंतु कई बार जब मैं प्रेम से भरकर दूसरे के तो न तो भाग जाना घबड़ाकर, न बहुत वासना से भरकर मेरी गले मिलना चाहता हूं, तो वह दूसरा संकुचा जाता है और फिर तरफ भागने लगना। दोनों हालत में चूक हो जाएगी, क्योंकि मैं पीछे हट जाता हूं। कृपया बतायें कि ऐसे समय में मैं क्या दोनों अतियां हैं। तुम जहां हो वहीं शांति से, स्वीकार-भाव से | करूं? प्रतीक्षा करना। वहीं नत हो जाना, वहीं तुम्हारा सिर झुके। न तो तुम कहना कि मैं चाहता हूं ऐसा हो, न तुम कहना मैं चाहता हूं प्रेम नाजुक बात है। प्रेम को अगर ठीक से समझा, तो उसमें वैसा हो। तुम कहना, अब मैं कुछ चाहता ही नहीं। चाह को तुम यह बात समाहित है कि दूसरे का ध्यान रखना। प्रेम का अर्थ ही हटा लेना। क्योंकि चाह डांवाडोल कर देगी। चाह कंपित कर यह होता है कि दूसरे का ध्यान रखना। देगी। तुम बेचाह होकर, जो घटे उसके स्वीकार-भाव से भरना। तुम किसी के गले लगना चाहते हो, लेकिन दूसरा लगना इसे समझो। चाह में अस्वीकार है। बेचाह में स्वीकार है। चाहता है या नहीं? इतना काफी नहीं है कि तुम गले लगना जब तुम कहते हो, जो हो उसके लिए मैं राजी हूं, तो मृत्यु, चाहते हो। शुभ है कि तुम्हारे हृदय में गले लगने का भाव जगा। आत्यंतिक-मृत्यु भी जल्दी घटेगी। लेकिन तुमने कहा कि जल्दी धन्यभागी हो! आभारी बनो प्रभु के। लेकिन इतने से जरूरी नहीं घटे, तुम यह कह रहे हो कि मैं अपनी आकांक्षा जो घट रहा है है कि दूसरे को तुम्हारे कंधे लगना ही पड़ेगा। तब तो प्रेम न उसके ऊपर रखता हूं। यह अपनी आकांक्षा को घटने के ऊपर हुआ, तब तो बलात्कार हुआ। तब तो तुमने दूसरे के साथ 267 2010 03 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 जबर्दस्ती की, यह तो हिंसा हो गयी। यह तो प्रेम के बहाने हिंसा राष्ट्रपति हो गया, तो यह अहंकार की ही यात्रा हुई प्रेम के द्वारा। हो गयी। यह प्रेम नहीं। यह प्रेम के पीछे महत्वाकांक्षा का रोग है। प्रेम तो प्रेम तो रत्ती-रत्ती संभलकर चलता है, इंच-इंच संभलकर कुछ भी नहीं मांगता, देता है।। चलता है। प्रेम तो देखता है कि दूसरा कितने दूर तक चलने को पत्नी कहती है, मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। पति कहता है, मैं तुम्हें राजी है, उससे इंचभर ज्यादा नहीं चलता। क्योंकि प्रेम का अर्थ प्रेम करता हूं। और जैसे-जैसे प्रेम के जाल में दूसरा फंसता है, ही है कि तुम्हें दूसरे का खयाल आया। दूसरे का मूल्य! दूसरा पता चलता है कि यह तो फांसी हो गयी। पत्नी स्वतंत्रता मार साध्य है, साधन नहीं! तुम गले लगना चाहते हो; दूसरा लगना डालती है पति की बिलकुल। हिलने-डुलने योग्य भी नहीं रहने चाहता है या नहीं? दूसरे को देखकर कदम उठाना। और देती-पंगु कर देती है। पक्षाघात! पति पत्नी की स्वतंत्रता मार धीरे-धीरे कदम उठाना, अन्यथा दूसरा घबड़ा ही जाएगा। तब डालता है। दोनों एक-दूसरे के गुलाम हो जाते हैं। तुम्हारा प्रेम आक्रमण जैसा मालूम पड़ेगा। तुमने दूसरे की चिंता प्रेम गुलामी देता है? प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम स्वतंत्रता में ही न की। तुम इतनी देर भी न रुके कि पूछ तो लेते कि मैं पास सहारा देता है। प्रेम चाहता है, तुम्हें जो सुखद हो, करो। यह प्रेम आता हूं, आ जाऊं? | नहीं है, कुछ और है। यह प्रेम के नाम पर दूसरे पर मालकियत प्रेम सदा द्वार पर दस्तक देता है। पूछता है, क्या भीतर आ| करने का सुख है। यह हिंसा है। दूसरे को वस्तु बन सकता हूं? अगर इनकार आये, तो प्रतीक्षा करता है, नाराज नहीं परिग्रह बना लेना हिंसा है। हो जाता। क्योंकि यह दूसरे की स्वतंत्रता है। दूसरे का स्वत्व है, पति-पत्नी निरंतर कलह में लगे रहते हैं। कलह क्या है? अधिकार है कि वह कब तुम्हारे गले लगे, कब न लगे। तुम्हें प्रेम कलह यही है कि कौन किस पर मालकियत करके दिखा दे! का अवरतण हुआ है, उसे तो नहीं हुआ। तुम्हारे भीतर प्रेम कौन छोटा है, कौन बड़ा है? फैलना शुरू हुआ है, उसे तो तुम्हारे प्रेम का कोई पता नहीं। और जीवनभर संघर्ष चलता है पति-पत्नी में। संघर्ष एक ही बात वह दूसरा व्यक्ति तो प्रेम के नाम पर इतने धोखे खा चुका है कि का है कि मालिक कौन है? ऐसे पत्नी क उसे क्या पता कि फिर कोई नया धोखा नहीं पैदा हो रहा है। प्रेम पर यह शब्द ही है, ऐसा स्वीकार नहीं करती। ऐसा दासी कहकर के नाम पर ही लोगों को सताया गया है, इसलिए लोग सकुच भी पैर पकड़ने से शुरू करती है, गर्दन पर समाप्त करती है। गये हैं। मां ने किया प्रेम, बाप ने किया प्रेम, भाई ने किया प्रेम, आखिर में गर्दन दबा लेती है। पत्नी ने किया प्रेम, मित्रों ने किया प्रेम, और सबने प्रेम के नाम प्रेम से इतने कांटे चुभे हैं लोगों को, और प्रेम के नाम पर पर चूसा, और सबने प्रेम के नाम पर तुम्हारी छाती पर पत्थर इतना-इतना दुख लोगों ने पाया है कि जब भी तुम कहोगे कि मुझे रखे। बहाना प्रेम था, काम कुछ और लिया। जिसने भी कहा, तुमसे प्रेम हो गया है और हाथ फैलाओगे, दूसरा सकुचा जाए, मुझे तुमसे प्रेम है, उसी से तुम डरने लगे। क्योंकि अब कुछ और आश्चर्य नहीं है। दूसरे का ध्यान रखना। और एक खयाल होगा! इस प्रेम के पीछे छिपा हुआ कोई न कोई रोग होगा। रखना कि प्रेम जब भी आक्रामक होता है, तो दूसरे को घबड़ा | रोगी आदमी के प्रेम में भी रोग होता है। स्वाभाविक है। कुछ देता है। प्रेम में आक्रमण होना ही नहीं चाहिए। आक्रमण होते और होता है! बाप अपने बेटे से कहता है कि तू देख, ही प्रेम में हिंसा समाविष्ट हो जाती है। अब राह चलते किसी पढ़-लिख, बड़ा बन, प्रतिष्ठित हो। तुझसे मेरा प्रेम है इसलिए अजनबी को तुम जबर्दस्ती गले लगाकर आलिंगन कर लो, तो यह कह रहा हूं। लेकिन बेटा अगर अप्रतिष्ठित हो जाए, बड़े वह पुलिस-थाने में खबर करेगा कि यह आदमी पागल है। कुछ पदों पर न पहुंचे, तो प्रेम खो जाता है। तो प्रतिष्ठा से प्रेम होगा, लेना-देना नहीं है मुझसे! बेटे से कहां प्रेम है! महत्वाकांक्षा से प्रेम होगा; शायद, मेरा तुम्हारे भीतर प्रेम का अवतरण हुआ है, लेकिन जब तुम दूसरे बेटा है, खूब प्रशंसा पाये, इससे प्रेम होगा, क्योंकि इसके बहाने को आलिंगन करते हो तो दूसरा भी समाविष्ट हुआ। तुम अकेले मेरा अहंकार भी तृप्त होगा। मेरा बेटा प्रधानमंत्री हो गया, न रहे। हां, तुम एकांत अपने कमरे में बैठकर प्रेम के गीत 268 2010_03 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है गनगनाना, नाचना, कोई मनाही नहीं है। अन्यथा तुमने प्रेम का वासना की आंख से देखा जाना किसी को भी पसंद नहीं। प्रेम गलत अर्थ समझा। और फिर इस बात का भी डर है कि तुम | की आंख से देखा जाना सभी को पसंद है। तो दोनों आंखों की जिसे प्रेम कह रहे हो, वह प्रेम है? या कि वासना ने नये रूप परिभाषा समझ लो। वासना का अर्थ है, वासना की आंख का रखे? या वासना नये ढंग लेकर आयी? या वासना ने प्रेम का अर्थ है कि तुम्हारी देह कुछ ऐसी है कि मैं इसका उपयोग करना आवरण पहना? क्योंकि मेरी नजर ऐसी है कि जब भी तुम चाहूंगा। प्रेम की आंख का अर्थ है, तुम्हारा कोई उपयोग करने किसी व्यक्ति की तरफ वासना से भरकर देखते हो, तो दूसरा का सवाल नहीं, तुम हो, इससे मैं आनंदित हूं। तुम्हारा होना, सकचाता है. डरता है, घबडाता है क्योंकि वासना तो एक । अहोभाग्य है। बात खतम हो गयी। प्रेम को कछ लेना-देना नहीं कारागृह है। और घबड़ाहट स्वाभाविक है। क्योंकि वासना का है। वासना कहती है, वासना की तृप्ति में और तृप्ति के बाद सुख अर्थ ही यह होता है कि तुम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करना होगा; प्रेम कहता है, प्रेम के होने में सुख हो गया। इसलिए प्रेमी चाहते हो। कोई भी नहीं चाहता उसका उपयोग किया जाए। की कोई मांग नहीं है। उपयोग का मतलब हुआ कि तुमने दूसरे व्यक्ति को वस्तु में तब तो तुम अजनबी के पास से भी प्रेम से भरे निकल सकते बदल दिया। उसकी आत्मा मार डाली। उपयोग तो वस्तुओं का हो। कुछ करने का सवाल ही नहीं है। हड्डियों को हड्डियों से होता है, व्यक्तियों का नहीं। कर्सी का उपयोग होता है, टेबल लगा लेने से कैसे प्रेम हो जाएगा। प्रेम तो दो का उपयोग होता है, मकान का उपयोग होता है, व्यक्तियों का तो निकट होना है। और कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि जिसके नहीं। जब भी तुम वासना से किसी की तरफ देखते हो, तब तुमने पास तुम वर्षों से रहे हो, बिलकुल पास रहे हो, पास न होओ; | इस ढंग से देखा कि तम कामवासना के लिए इस दसरे व्यक्ति और कभी ऐसा भी हो सकता है कि राह चलते किसी अजनबी के का उपयोग करना चाहते हो। दूसरा तत्क्षण सचेत हो जाता है, साथ तत्क्षण संग हो जाए, मेल हो जाए, कोई भीतर का संगीत सावधान हो जाता है। वह अपनी रक्षा में लग जाता है। बज उठे, कोई वीणा कंपित हो उठे। बस काफी है। उस क्षण आक्रामक प्रेम में डर है कि कहीं कामवासना छिपी हो। परमात्मा को धन्यवाद देकर आगे बढ जाना। पीछे लौटकर भी वास्तविक प्रेम तो प्रार्थनापूर्ण होता है, वासनापूर्ण नहीं होता। देखने की प्रेम को जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर वासना वास्तविक प्रेम को दूसरे को गले लगाना जरूरी भी नहीं है। देखती है। और वासना चाहती है कि दूसरा मेरे अनुकूल चले। वास्तविक प्रेम तो एक आशीर्वाद है। तुम किसी के पास से अब जिन मित्र ने पूछा है, वह कहते हैं कि दूसरा हट जाता है गुजरे, आशीर्वाद से भरे हुए गुजरे, काफी है। आत्मा आत्मा को अगर मैं आलिंगन करना चाहता हूं। इतनी तो स्वतंत्रता दूसरे को गले लग गयी, शरीर को शरीर से लगाने से क्या प्रयोजन है! दो, अन्यथा यह तो बलात्कार हो जाएगा। यह तो एक तरह की कभी-कभी आत्मा के गले लगने के साथ-साथ शरीर का गले तानाशाही हो जाएगी। तुम दूसरे को इतना भी नहीं मौका देते कि लगना भी घट जाए, तो शुभ है। लेकिन वह घटे, घटाया न वह हट सके। दूसरा सकुचा रहा है, वह इस बात की खबर दे जाए। कभी ऐसा होगा कि तुम बड़े आशीर्वाद से भरे हुए किसी रहा है कि तुम्हारे प्रेम में अभी प्रार्थना का स्वर नहीं है। अभी प्रेम के पास से निकलते थे और उसके हृदय में भी तुम्हारे आशीर्वाद में कहीं छिपी वासना है; कहीं दुर्गंध है। कहीं देह की बदबू है। की तरंगें पहुंची और दोनों एक-साथ किसी अनजानी शक्ति के आत्मा की सुवास नहीं। अभी वह तुम्हारे से हटकर यह खबर दे वशीभूत होकर एक-दूसरे के गले लग गये। रहा है तुम्हें कि तुम अभी उस परिशुद्धि को उपलब्ध नहीं हो, तो तुम गले लगे ऐसा नहीं, दूसरा गले लगा ऐसा नहीं, प्रेम ने जहां अजनबी भी तुम्हारे हाथों में, तुम्हारी बाहों में आये और दोनों को गले लगा दिया। यह बड़ी और घटना है। जब तुम समा जाए। तो इसका संकेत समझना। लगते हो गले, तो वासना है। तुम्हारी वासना के कारण दूसरा दूसरे व्यक्ति की परिपूर्ण स्वतंत्रता को सदा स्वीकार करना। हटेगा। कृपा करके ऐसा आक्रमण किसी पर मत करना। तुम और इतना काफी है कि तुम पास से निकल गये। दूसरा दिखा, दूसरे को भयभीत कर दोगे। दूसरे में तुम्हें परमात्मा दिखा, परमात्मा का रूप दिखा, तुम 269 2010_03 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 अहोभाव से गुजर गये। कभी-कभी ऐसा हो जाएगा कि दोनों के परमात्मा तुम्हारी तलाश में आया इस बहाने, इस निमित्त—तुम हृदय में एक-साथ कोई तीसरी शक्ति-परमात्मा कहो, प्रेम | इस छोटे-से बच्चे को ढांचों में मत ढालना। तुम इस तरह की कहो-एक साथ उठेगी, समवेत, और तुम दोनों एक-दूसरे के | कोशिश मत करना, कि यह तुम्हारे पीछे-पीछे चले, तुम्हारी हां आलिंगन में गिर जाओगे। लेकिन वह आलिंगन तुम्हारा नहीं में हां मिलाये। तुम जो कहो, वही करे। तुम इसे मार मत होगा, न दूसरे का होगा, वह आलिंगन परमात्मा का होगा। उस डालना। परमात्मा तुम्हारे घर आया है, तुम इस बच्चे को क्षण की प्रतीक्षा करो। तब तक जल्दी मत करना। प्रेम बड़ी परमात्मा की प्रतिष्ठा देना। इसकी स्वतंत्रता को स्वीकार करना। पवित्र घटना है। हां, अपना अनुभव इसे दे देना। लेकिन वह अनुभव आदेश न जब तुम प्रेम करने की चेष्टा करने लगते हो, तभी अपवित्र हो | हो। तुमने जो जाना है, उसकी संपत्ति इसे सौंप देना। लेकिन जाता है प्रेम। तुम्हारा कृत्य नहीं है प्रेम-प्रेम है समर्पण, चुनाव का हक इसी को देना कि वह चुन ले–राजी हो, न हो परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ देना। पहले परमात्मा का राजी। न राजी हो तो नाराज मत होना। राजी हो तो प्रसन्न मत आलिंगन तो कर लो। फिर, परमात्मा के बहुत रूप हैं, इनका होना। क्योंकि प्रसन्नता और नाराजगी की राजनीति से ही हम आलिंगन भी हो जाएगा। और हुआ या नहीं, उसका कोई बच्चों के ऊपर जबर्दस्ती करते हैं। बाप एक बात कहता है बेटे प्रयोजन नहीं है। प्रेम पाप नहीं है, लेकिन प्रेम को थोपना पाप से, कहता है तेरी जो मर्जी हो वैसा कर। लेकिन अगर बाप की है। प्रेम तो बड़ा पुण्य है। फिराक की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं- मर्जी के खिलाफ करता है, तो बाप दुखी मालूम पड़ता है। तो कोई समझे तो एक बात कहूं बेटा बाप को सुखी करना चाहता है कि चलो! अगर बाप की इश्क तौफीक है गुनाह नहीं मर्जी के अनुसार करता है, तो बाप प्रसन्न होता है। तो बेटा बाप प्रेम तो प्रसाद है-तौफीक। प्रभु-प्रसाद, प्रभु-कृपा, को प्रसन्न करना चाहता है कि चलो! ऐसे-ऐसे धीरे-धीरे बेटे की अनुकंपा; न मालूम कितने पुण्यों का फल है। इश्क तौफीक है | आत्मा खो जाती है। गुनाह नहीं। अपराध नहीं है प्रेम, लेकिन तुम प्रेम के साथ भी | इसीलिए तो दुनिया में इतनी भीड़ है और इतने आत्महीन लोग दुर्व्यवहार कर सकते हो। तुम इसे पाप बना सकते हो। आदमी | हैं। आत्मा कहां? आत्मा तो स्वतंत्रता में पनपती है, फैलती है, ने यही तो किया, प्रेम को पाप बना दिया। तुम श्रेष्ठतम को भी फूलती है। तो चाहे अजनबी, चाहे जिनको तुम अपने कहते निकृष्टतम कीचड़ में घसीट सकते हो। और तुम श्रेष्ठतम को हो...अपने जिनको कहते हो वे भी अजनबी हैं। जो बेटा तुम्हारे निकृष्ट कीचड़ से निकाल भी सकते हो। तुम पर निर्भर है। घर पैदा हुआ है, उसे तुम जानते हो, कौन है? कहां से आया तो सदा ध्यान रखना, दूसरे की स्वतंत्रता पर आंच न आने है? क्या संदेश लाया है? क्या उसकी नियति है? तुम्हें कुछ पाये। और यह मैं अजनबियों के लिए ही नहीं कह रहा हूं, | भी तो पता नहीं! सिर्फ तुम्हारे घर पैदा हो गया है, तुम्हें माध्यम जिनको तम अपना मानते हो, उनके संबंध में भी खयाल रखना। चुन लिया है। तुम इससे ज्यादा पागलपन से मत भर जाना कि तुम्हारी पत्नी की स्वतंत्रता को आंच न आने पाये। तुम्हारे पति | उसकी गर्दन दबाने लगो। अजनबी तो अजनबी है। की स्वतंत्रता को आंच न आने पाये। जहां आंच आने लगे, इसीलिए तो सारे धर्मशास्त्र कहते हैं, यहां कौन अपना है? समझना प्रेम पाप होने लगा। आलोक तो मिले, आंच न आये। अपने ही हम अपने नहीं हैं, दूसरे की तो बात ही मुश्किल है। प्रकाश तो मिले, लेकिन ताप पैदा न हो। चांद की तरह हो प्रेम, अपना ही हमें पता नहीं कि हम कौन हैं, तो किस को हम सूरज की तरह नहीं। जला न दे, झुलसा न दे। चांद की पहचानें। न, पास हों लोग कि दूर हों, अपने हों कि पराये हों, से. अमत बरसे. सोमरस बहे। शीतलता दे। स्वतंत्रता को मत तोड़ना। जहां प्रेम स्वतंत्रता तोड़ता है, वहीं पाप तो ही प्रेम पुण्य है। हो जाता है। अन्यथा प्रेम तो इस जगत में, इस अंधेरे जगत में जो तुम्हारे बहुत पास हैं, तुम्हारा बेटा, तुम्हारी बेटी-छोटा | परमात्मा की किरण है। इस गहन अंधकार में प्रेम ही एकमात्र बच्चा तुम्हारे घर पैदा हुआ है, परमात्मा ने एक रूप लिया, ज्योतिशिखा है। 270 2010_03 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है फिर किसी के सामने चश्मे-तमन्ना झुक गयी पानी पर खींची लकीर है। लेकिन प्रेम, प्रेम सत्य है। प्रेमपात्र शौक की शोखी में रंगे-एहतिराम आ ही गया बदल जाते हों, प्रेम नहीं बदलता। बचपन में अपनी मां को कोई बारहा ऐसा हुआ है याद तक दिल में न थी प्रेम करता है; पिता को प्रेम करता है; थोड़ा बड़ा होकर बारहा मस्ती में लब पर उनका नाम आ ही गया भाई-बहन को प्रेम करता है; पास-पड़ोस, मित्रों को प्रेम करता जिंदगी के खाका-ए-सादा को रंगी कर दिया है; और थोड़ा बड़ा होकर किसी स्त्री को प्रेम करता है; और हुस्न काम आये न आये इश्क काम आ ही गया थोड़ा बड़ा होकर बच्चों को प्रेम करता है; और थोड़ा बड़ा होकर सौंदर्य साथ दे या न दे, प्रेम सदा साथ देता है। सौंदर्य काम किसी दिन किसी मंदिर में, किसी मस्जिद में झुकता है किसी आये न आये, प्रेम सदा काम आ जाता है। अज्ञात प्रेमपात्र के लिए। प्रेमपात्र बदलते रहते हैं, लेकिन प्रेम जिंदगी के खाका-ए-सादा को रंगी कर दिया नहीं बदलता। बचपन से लेकर अंत तक, जन्म से लेकर मृत्यु वह जिंदगी की जो सादी-सी रूपरेखा है, सादा रेखाचित्र है, | तक अगर कोई एक चीज तुम्हारे भीतर सदा चलती रहती है, तो उसे रंगीन कर देता है प्रेम। प्रेम है। जैसे सांस सदा चलती रहती है। सांस शरीर को संभाले जिंदगी में जो हरियाली दिखायी पड़ती है, वह प्रेम की आंखों रखती है, प्रेम आत्मा को संभाले रखता है। के कारण। जो फूल खिलते हैं, वह प्रेम की आंखों के कारण। प्रेम सौभाग्य है! लेकिन भूलकर भी दूसरे पर उसे मत जीवन के कंकड़-पत्थरों में जो कभी-कभी हीरे दिखायी पड़ जाते थोपना। अपने भीतर संभालकर! बाहर उछालने की जरूरत भी हैं, वह प्रेम के कारण। पदार्थ में परमात्मा की थोड़ी-सी जो नहीं है। दिखावा करने का, प्रदर्शन करने का कोई कारण भी नहीं झलक मिलने लगती है, वह प्रेम के कारण। अगर प्रेम न हो, तो | है। कबीर ने कहा है-हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बनाओ मंदिर, मस्जिद, गरुद्वारे. सब व्यर्थ होंगे। बार-बार क्यों खोले? हीरा मिल जाता है किसी को रास्ते पर प्रेम के कारण ही मंदिर की पत्थर की प्रतिमा में परमात्मा की पड़ा, जल्दी से गांठ में गठियाकर संभालकर चल पड़ता है, फिर झलक मिलती है। प्रेम के कारण ही काबे का साधारण-सा इधर बार-बार थोड़े ही खोलकर देखता है? अगर कभी शक भी पत्थर परमात्मा का प्रतीक हो जाता है। कितने लोगों ने चूमा है हो तो थोड़ा हाथ डालकर समझ लेता है कि है, फिर अपना चल उस पत्थर को! किसी और पत्थर को इतने लोगों ने नहीं चूमा पड़ता है। होगा। धन्यभागी है काबा का पत्थर! करोड़ों-करोड़ों लोग प्रेम का हीरा तुम्हें मिला-हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको जनम-जनम प्रतीक्षा करते हैं उस पत्थर के पास जाकर चूम लेने बार-बार क्यों खोले? अब इसमें कोई दिखाना थोड़े ही है, की। इतने लोगों के चुंबन ने अगर उस पत्थर को परमात्मा नहीं बाजार में जाकर घोषणा थोड़े ही करनी है कि हम एक बड़े प्रेमी बना दिया है, तो फिर परमात्मा हो ही नहीं सकता। इतने लोगों ने | हो गये, कि जो मिलता है उसको गले लगते हैं। संभाल लो प्रेम बरसाया है, पत्थर भी परमात्मा हो ही जाएगा। भीतर, बांध लो गांठ और जितना भीतर छिपा सको उतना में जब तुम मंदिर में जाकर, किसी और के मंदिर में जाकर मूर्ति | छिपा दो। तुम पाओगे, वह हीरा बीज बन जाता है। उसमें अंकुर देखते हो, तो मत कहना पत्थर की है। तुम्हारे लिए पत्थर की आते हैं। यह हीरा कोई पत्थर नहीं है, यह हीरा तो प्राण का होगी, क्योंकि प्रेम की तुम्हारे पास आंख नहीं। लेकिन जो भक्ति सारभूत अंश है। इसे छिपा दो अपने अचेतन की गहराइयों में। से, श्रद्धा से भरकर उसी मंदिर में जाता है, उसे पत्थर की प्रतिमा इसे बाहर मत उछालते फिरो, अन्यथा गंवा दोगे। मुस्कुराती लगती है कभी, कभी आंस बहाती लगती है। उसे बीज तो जमीन में छिपा देने को होता है। बाहर रखे रहोगे, पत्थर की प्रतिमा जीवंत मालूम होती है। खराब हो जाएगा। छिपा दो अपनी चेतना की भूमि में। गहन जिंदगी के खाक-ए-सादा को रंगीं कर दिया, तल में डाल दो। वहां से फूटेगा, वहां से निकलेंगी कोंपलें, वहां हस्न काम आये न आये इश्क काम आ ही गया से उगेगा अंकर, और एक बीज में लाखों-करोड़ों बीज लगेंगे। सौंदर्य तो आज नहीं कल खो जाता है। सौंदर्य तो सपना है। यह जो छोटा-सा प्रेम का दीया जला है, इसे हवाओं में लेकर 271/ 2010_03 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 मत भटको यहां-वहां, बुझ जाएगा। इसे तो संभालकर रखो।। | कांटे से लड़ो मत। कहीं भीतर लड़ाई चल रही होगी। कहीं अब यह सूरज बन सकता है। भी लग रहा होगा कि यह कहां उलझ गये। यह कांटा तो पीड़ा दे रहा है! पीड़ा तो होगी। सभी निखार पीड़ा से संभव होते हैं। यह तीसरा प्रश्न : तने आटा लगाया और हमें फंसाया। अब हम प्रसव-पीड़ा है। अनेक बार गर्भवती स्त्री को मन में खयाल कष्ट पा रहे हैं और अकेले-अकेले तड़फ रहे हैं, इसका आता है, कहां उलझ गये! बोझ बढ़ता जाता है पेट में, वमन जिम्मेवार कौन? होने लगता है, भोजन पचता नहीं, रात नींद नहीं आती, एक लंबी यातना हो जाती है। कितनी बार नहीं गर्भवती स्त्री सोचती होगी आटे का लोभ। आटे के लोभ ने फंसा दिया। न करते लोभ, कि अच्छा होता कि प्रेम में पड़े ही न होते! लेकिन इस पीड़ा को न फंसते। अब जब फंस ही गये हो, तो पीड़ा कांटे के कारण नहीं झेल लेती है, तो मां बन जाती है। और मां बने बिना कोई स्त्री हो रही है। अभी भी कांटे से संघर्ष चल रहा होगा, इसीलिए हो पूर्ण नहीं होती। रही है। पुरुष तो बाप बनने से कुछ बहुत नहीं पाता-थोड़ी बहुत अब कांटे के साथ ही हो लो। अब कांटे से राजी हो जाओ। | झंझटें पाता होगा क्योंकि बाप होना पुरुष का कोई निसर्ग नहीं जिससे हम राजी हो जाते हैं, उसी से पीड़ा होनी बंद हो जाती है। है, सामाजिक व्यवस्था है। प्रकृति में आदमी को छोड़कर और पीड़ा से भी राजी हो जाओ, तो पीड़ा समाप्त हो जाती है। | तो बाप कहीं होता नहीं। मां तो सभी जगह होती है। पशु में, इसे समझना। | पक्षी में, सब जगह मां होती है। मां नैसर्गिक व्यवस्था है। बाप जब तक हम लड़ते रहते हैं किसी चीज से, तभी तक पीड़ा सामाजिक व्यवस्था है। इसी कारण मार्क्स जैसे विचारकों ने तो होती है। जब स्वीकार कर लिया, कहा कि चलो, सौभाग्य कि यह भी कहा कि जब समाजवाद पूरी तरह व्यवस्थित हो जाएगा, इस योग्य समझे गये कि फंसाये गये, कि इस योग्य समझे गये तो बाप की संस्था खो जाएगी। क्या जरूरत रह जाएगी? राज्य कि कांटा हमारे लिए डाला गया। जीसस ने कहा है, परमात्मा | काम कर देगा बाप का। वैसे कर ही रहा है धीरे-धीरे। शिक्षा अपना जाल फेंकता है मछुवे की भांति। उसमें बहुत-सी मुफ्त, अस्पताल मुफ्त, तो बाप का काम छिनता जा रहा है। एक मछलियां फंस जाती हैं, लेकिन सभी चुनी नहीं जाती। जिनको | न एक दिन कम्युनिज्म जब पूरी तरह फैल जाएगा-ऐसा मार्क्स व्यर्थ पाता है, उन्हें वापस सागर में छोड़ देता है। जिन्हें सार्थक का खयाल-बाप समाप्त हो जाएगा। मां समाप्त नहीं होगी। पाता है, उन्हें घर ले जाता है। मां को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। अगर फंस गये होओ मेरे जाल में, कांटा छिद गया, तो बाप को तो थोड़ी झंझट-सी ही होती है बाप बनकर, लेकिन सौभाग्यशाली हो। परमात्मा का लोभ रहा होगा। आटे का लोभ मां बड़ी सौभाग्य से भर जाती है। मां बने बिना स्त्री ऐसी ही होती उसी को मैं कह रहा हूं। आत्मा को पाने का लोभ रहा है जैसे कि कोई वृक्ष जिस पर फूल नहीं आया, फल नहीं होगा-आटे का लोभ! वह लोभ भी सौभाग्य है! धन के | लगे-बांझ। प्रसाद नहीं होता। मां बनते ही स्त्री के भीतर से लोभी तो बहुत हैं, धर्म के लोभी कहां? पदार्थ के लोभी तो बहुत | एक आभा फूटती है। जीवनदात्री ! लेकिन वह जीवनदात्री बनने हैं, परमात्मा के लोभी कहां? कंकड़-पत्थर बीननेवाले तो बहुत के लिए पीड़ा सहनी पड़ती है। हैं, करोड़ों हैं, हीरों के पारखी कहां? उसी को आटे का लोभ | और इसलिए ठीक भी है कि बाप को तो कोई पीड़ा सहनी नहीं कह रहा हूं। नहीं तो मेरे पास आ नहीं सकते थे। मेरे पास आने पड़ती। इसलिए बच्चा पैदा हो जाता है, इससे बाप को तो कोई में बाधाएं तो बहत हैं, सविधाएं कहां हैं? जो सब तरह की पीड़ा सहनी नहीं पड़ती। बाप तो करीब-करीब बाहर खडा रह बाधाओं को तोड़कर आ सकता है, वही आ सकता है। जाता है। बाप का कोई बहुत बड़ा सहयोग नहीं है। जो बाप यह कांटा जो तुम्हें छिद गया है, यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का | करता है वह एक इंजेक्शन भी कर सकता है। इससे कोई, बाप पुण्य ही हो सकता है, अन्यथा छिद नहीं सकता था। अब इस | का कोई ऐसा आत्यंतिक साथ नहीं है। झेलना तो मां को पड़ता 272 2010_03 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है की तरफ ! पहले जमीन पर ही आंखें भी गड़ी थीं। एक तालमेल था। दुकान पर थे तो दुकान पर थे। अब पैर दुकान पर होंगे, आंखें मंदिर में। अब करते होओगे भोजन, स्मरण आत्मा का । अब गिनते होओगे रुपये और भीतर याद परमात्मा की। अब अड़चन हुई। अब एक द्वंद्व शुरू हुआ। एक महाद्वंद्व, एक संघर्ष, जिसको गीता कहती है – कुरुक्षेत्र। अब एक धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, उपद्रव शुरू हुआ ! अब एक बड़ा संघर्ष है। आज भी है 'मज़ाज़' खाकनशीं और नजर अर्श पर है क्या कहिये फिर वही रहगुजर है क्या कहिये जिंदगी राह पर है क्या कहिये आह तो बेअसर थी बरसों से नग्मा भी बेअसर है क्या कहिये हुस्न है अब न हुस्न के जलवे अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये धीरे-धीरे, सौंदर्य तो सब खो जाएगा, दिखायी पड़नेवाली चीजें तो सब खो जाएंगी, रूप तो सब खो जाएगा, आकार तो सब खो जाएगा, आंख ही बचेगी। शुद्ध। अब नजर ही नजर है क्या कहिये सत्य को जन्म हो, तो गर्भ धारण करना ही होगा। जिसको तुम अभी कांटा कह रहे हो, वह तुम्हारे भीतर पड़ गया गर्भ का बीज है । चुभता है, इसलिए कांटा कहते हो, ठीक । गड़ता है, इसलिए कांटा कहते हो, ठीक। लेकिन उसी कांटे में तुम्हारा सारा भविष्य, तुम्हारी सारी नियति निर्भर है। अगर सत्य तुमसे | जन्म ले ले, तो वही तुम्हारा जन्म होगा। और निश्चित ही यह पीड़ा साधारण प्रसव की पीड़ा से बहुत ज्यादा है। क्योंकि साधारण प्रसव की पीड़ा में तो तुम दूसरे को जन्म देते हो, नौ महीने में झंझट खतम हो जाती है। यहां तो तुम्हें अपने को जन्म | देना है। समय का कुछ पक्का नहीं कितना लगेगा। नौ महीने भी लग सकते हैं, नौ वर्ष भी लग सकते हैं, नौ जन्म भी लग सक हैं। । तुम पर निर्भर है। कितनी त्वरा, कितनी प्यास, और झेलने की कितनी क्षमता ! अहोभाव से झेलने की क्षमता, आनंदभाव से झेलने की क्षमता, नाचते हुए झेलने की क्षमता, इस पर निर्भर करता है; उतना ही समय कम होता जाएगा। उसी को तो हमने दर्शन कहा है, द्रष्टा की स्थिति कहा है, साक्षीभाव कहा है । सब खो जाएगा। सब दृश्य खो जाएंगे। सिर्फ आंख। पहले तो बड़ा सूनापन, बड़ा सन्नाटा लगेगा। पूछा है, अकेले-अकेले तड़फ रहे हैं, इसका जिम्मेवार कौन ? मुझे पता है, जब व्यक्ति परमात्मा की तरफ चलता है, तो पहले तो संसार छूटने लगता है हाथों से, भीड़ विदा होने लगती है, अकेला रह जाता है। परमात्मा मिले, इसके पहले बिलकुल अकेला हो जाता है। जब बिलकुल अकेला हो जाता है, तभी तो परमात्मा के योग्य बनता है। महावीर ने उस पीड़ा स्वाभाविक है। लेकिन उस पीड़ा को सौभाग्य बनाने की अकेलेपन को कैवल्य कहा है। जब बिलकुल केवल तुम ही रह चिंता करो। ये तुम्हारा होना ही रह गया। हुस्न है अब हुस्न के जलवे, है। एक नये जीवन का आरोपण, उस नये जीवन का भीतर बढ़ना । फिर वह उसी बच्चे के लिए जीती है। नौ महीने तक उसी के लिए सांस लेती है, उसी के लिए भोजन करती है, उसी के लिए उठती - बैठती है । स्वभावतः एक गहन सृजन की प्रक्रिया होती है, लेकिन पीड़ा ! फिर बच्चे का पैदा होना और बड़ी प्रसव पीड़ा है। तो जैसे-जैसे तुम मेरे जाल में फंसोगे, वैसे-वैसे पीड़ा बढ़ेगी। गर्भित हुए। सत्य ने तुम्हारे भीतर जगह बनायी । अब तुम्हें बहुत-सी पीड़ाएं होंगी जो तुम्हें कभी भी न हुई थीं। वह सत्य को जन्म देने की पीड़ाएं हैं। और वे बढ़ती जाएंगी क्रमशः, जैसे- जैसे नौ महीने का समय करीब आयेगा वे बढ़ती जाएंगी। और आखिरी क्षण में तो महापीड़ा होगी। लेकिन उस पीड़ा से गुजरे बिना कोई सत्य को जन्म नहीं दे पाता। आज भी है 'मज़ाज़' खाकनशीं और नजर अर्श पर है क्या कहिये जैसे ही तुम मेरे करीब आये, एकदम से तुम आसमान पर तो न पहुंच जाओगे। रहोगे तो तुम जमीन पर, सिर्फ नजर आकाश की तरफ उठेगी। अड़चन शुरू हुई। पैर जमीन पर, आंख आकाश 2010_03 अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये ! पीड़ा होगी। बड़ी गहन रात्रि मालूम होगी। पर सूरज के ऊगने के पहले रात तो गहन अंधेरी हो ही जाती है। इस एकांत को अकेलापन मत समझो। इस एकांत को उसे 273 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 पाने की तैयारी समझो। जरा-सी दृष्टि बदलने की बात है, जरा | मिटते हुओं को देखकर क्यों रो न दे 'मज़ाज़' दृष्टिकोण बदलने की बात है और सब अर्थ और हो जाता है। आखिर किसी के हम भी मिटाये हुए तो हैं अकेलापन अकेलापन मालूम होता है अगर उन लोगों का सीने में उनके ज़ल्वे छुपाये हुए तो हैं खयाल करो, जिनने कल तक घेरा था और अब वे दूर हटते चले | हम अपने दिल को तूर बनाये हुए तो हैं गये हैं। स्वभावतः अगर पति ध्यान करेगा, पत्नी थोड़ी दूर होने बस इतना ही खयाल रहे कि रोशनी जलती रहे। दिल का दीया लगेगी। पत्नी ध्यान करेगी, पति थोड़ा दूर होने लगेगा। जलता रहे। भीतर होश बना रहे। संसार तो छूटेगा, छूटना ही घर-द्वार, बच्चे, अपने, दूर होने लगेंगे। ऐसा बाहर से दूर हों है। लाख उपाय करो, पकड़कर रखा जा सकता नहीं। कोई नहीं ऐसा जरूरी नहीं, लेकिन भीतर। भीतर कोई सरकने लगेगा पार, रख सका, तुम भी न रख सकोगे। कोई अपवाद नहीं है। गहरे में जाने लगेगा। बाहर से आंख झपकने लगेगी, भीतर | जो कल छूटना ही है, उसे अपने हाथ से छोड़ देना कला है। आंख खुलने लगेगी। शान है उसमें। गरिमा है, गौरव है। यही तो संन्यासी का गौरव रोज ऐसा होता है। है। संन्यासी का गौरव क्या है? यही कि संसारी को जबर्दस्ती रात तुम सोते हो, तब तुम्हें पत्नी की याद रह जाती है? पति | छुड़ाया जाता; संन्यासी खुद ही कह देता है कि ठीक है, जो की याद रह जाती है? बेटे-बेटी की याद रह जाती है? छूटना है, छूट गया। संसारी बड़ी पीड़ा से छोड़ता है, रो-रोकर मित्र-प्रियजन की याद रह जाती है? कुछ भी नहीं। आंख बंद छोड़ता है, दीन होकर छोड़ता है। लगता है जैसे लूटा जा रहा है। हुई, संसार गया। तुम अपने भीतर डूबे। ध्यान में तो यह घटना | संन्यासी यह देखकर कि यहां तो सभी लुट जाते हैं, खुद खड़ा और भी गहरी घटेगी। तो अकेलापन आयेगा। अगर तुमने होकर लट जाता है। कहता है, ठीक है। पीड़ा होगी, भीड़ विदा बाहर पर नजर रखी, तो यह लगेगा अकेलापन; अगर भीतर पर होगी, अकेलापन आयेगा, उसी अकेलेपन की राह से परमात्मा नजर रखी तो यह लगेगा एकांत। एकांत और अकेलेपन में बड़ा | आयेगा। अकेलापन तो सेतु है उसके आने के लिए; हमने पुल फर्क है। भाषाकोश में कोई फर्क नहीं है। भाषाकोश में तो दोनों बनाया। इसे इस तरह देखोगे, तो इस पीड़ा में भी सुख होगा। का अर्थ एक ही लिखा है। जीवन के कोश में बड़ा फर्क है। जब तुम कुछ निर्माण कर रहे होते हो, तो माथे से पसीना बहता एकांत का अर्थ तो बड़ा आनंदपूर्ण है। अकेलेपन का बड़ा | रहे, तो भी सुख होता है। क्योंकि तुम जानते हो, यह तो श्रम है। दुखपूर्ण है। तुम गलत व्याख्या मत करो। इसे अकेलापन मत और इस श्रम के पीछे फल है। यह तो श्रम है, सृजन है। इसके कहो, इसे कहो एकांत। इसे कहो शुद्ध अपना होना। इसे कहो पीछे अहोभाव चला आ रहा है। इसके पीछे उपलब्धि है। तैयारी। प्रभु के पास जा रहे हैं, तो भीड़ लेकर तो कोई कभी गया | इस एकांत से ही परमात्मा तुम्हारे पास आयेगा। जिस दिन तुम नहीं। एकाकी। अकेले ही जाना पड़ता है। उस मंदिर में दो तो मौन हो जाओगे, उस दिन वह बोलेगा। जिस दिन तुम अकेले हो कभी साथ प्रविष्ट हुए नहीं। एक ही प्रविष्ट होता है। तो इसे जाओगे, उसी दिन उसके हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाते हैं। वह तैयारी समझो। और जितना एकांत बढ़ने लगेगा उतना जानना कोई दूर थोड़े ही है। पास ही है, लेकिन तुम भीड़ में इतने उलझे कि प्रभु पास आ रहा है, संसार दूर हो रहा है। एक क्रांति घट रही हो कि उसे देख नहीं पाते। है। पहले-पहले तो यह मिटने-जैसा ही लगेगा। इसीलिए तो खुद दिल में रह के आंख से परदा करे कोई इसको मैं मृत्यु कहता हूं। हां, लुत्फ जब है पा कर भी ढूंढा करे कोई मिटते हुओं को देखकर क्यों रो न दे ‘मज़ाज़' ऐसा ही लुत्फ चल रहा है। पाया ही हुआ है, उसी को ढूंढ रहे | आखिर किसी के हम भी मिटाये हुए तो हैं हैं। उसे कभी खोया नहीं है, लेकिन भीड़ में आंखें उलझ गयी जो मेरे पास आ रहे हैं, वह समझेंगे। वह इस बात को हैं। भीड़ में आंखें उलझने के कारण वह तुम्हारे पास ही खड़ा है, समझेंगे। जब वह दूसरे को मिटते, एकांत की पीड़ा में उतरते कंधे से कंधा सटाये, तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है, तुम्हारी सांसों देखेंगे, तो वह समझेंगे। में चल रहा है, बह रहा है, दिखायी नहीं पड़ता। इधर से अकेले 274 2010_03 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए, भीड़ को विदा किया, वह दिखायी पड़ने लगेगा। एक दफा दिखायी पड़ जाए, फिर मैं तुमसे नहीं कहता कि भीड़ को छोड़ो, फिर मैं कहता हूं, उतर जाना संसार में। फिर तुम्हें सभी के भीतर वही दिखायी पड़ने लगेगा। फिर भीड़ उसी की भीड़ है। लेकिन अभी भीड़ उसी की नहीं है। अभी तो अपने भीतर भी उसे नहीं जाना, तो दूसरे के भीतर कैसे जानना हो सकता है ! 'तरु' का प्रश्न है । रोयें न अभी अहले-नजर हाल पर मेरे होना है अभी मुझको खराब और जियादा आवारा-ओ-मजनू ही पे मौकूफ नहीं कुछ मिलने हैं अभी मुझको खिताब और जियादा तो तरु से मैं कहता हूं, अभी घबड़ा मत, अभी तो और मुसीबतें आने को हैं । और कोई तुझसे सहानुभूति दिखायें तो उनसे कह देना रोयें न अभी अहले-नजर हाल पे मेरे होना है अभी मुझको खराब और जियादा आवारा-ओ-मजनू ही पे मौकूफ नहीं कुछ मिलने हैं अभी मुझको खिताब और जियादा लेकिन मजनू हुए बिना कौन लैला को पा सका ! और मजनू हुए बिना कोई परमात्मा को कैसे पा सकता है! आवारा हुए बिना! आवारा का अर्थ है जिसका अब कुछ भी नहीं; रिक्त, खाली, अकेले । ऐसा हुए बिना कौन उसे निमंत्रण दे सका ! जीसस निरंतर कहते थे कि कोई गड़रिया अपनी भेड़ों को | लेकर आता । सांझ का अंधेरा घिरने लगा, सूरज ढल गया, अचानक देखता कि एक भेड़ खो गयी। तो सभी भेड़ों को स अंधेरी रात में किसी वृक्ष के तले छोड़कर, उस भेड़ को खोजने निकल जाता है जो खो गयी। मिले हुओं को छोड़कर उसे खोजने निकल जाता जो खो गयी। अंधेरी रात में पुकारता, टेरता, और जब वह मिल जाती, तो पता है क्या करता? उसे कंधे पर रख लौटता। खो गये को कंधे पर रखकर लौटता है । और जीसस कहते थे, मैं भी ऐसा ही गड़रिया हूं। अगर हम सच में ही रो उठें, तो उसके हाथ तुम्हारे आंसू तक पहुंच ही जाएंगे, पोंछ देंगे तुम्हारे आंसू। अगर हम सच ही पीड़ा से भर जाएं, तो वह दौड़ा चला आयेगा । हम अगर भटक ही जाएं उसको खोजते खोजते, तो आयेगा जरूर, और कंधे पर 2010_03 जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है रखकर ले जाएगा । उसे खोजना कोई आदमी का ही अकेले कृत्य थोड़े ही है। उसकी भी कुछ जिम्मेवारी है। दोतरफा जिम्मेवारी है। हम उसे खोजें, वह हमें खोजे। और ऐसा ही चल रहा है । परमात्मा तो हमें खोज ही रहा है। जिस दिन हम खोजने लगते हैं, उसी दिन हममें और उसमें तालमेल हो जाता है। आखिरी प्रश्नः भगवान श्री, तेरी रज़ा पूरी हो ! चैतन्य भारती ने पूछा है। 'पूछना' कहना ठीक नहीं, कहा है । 'तेरी रज़ा पूरी हो ।' यही प्रार्थना का मूलमंत्र है। इसमें ही पग जाओ पूरे-पूरे, तो कुछ और करने को नहीं है ! जीसस को सूली हुई, आखिरी क्षण उन्होंने आकाश की तरफ मुँह उठाकर कहा कि हे परमात्मा, यह क्या दिखा रहा है ! एक संदेह उठ आया होगा कि मैं तेरे लिए जीआ, तेरी प्रार्थना में जी, तेरी पूजा में जीआ, तेरे नाम को फैलाने के लिए जीआ और यह तू मुझे क्या दिखा रहा है! एक शिकायत आ गयी होगी – हलकी-सी बदली, छोटी-सी बदली जीसस की छाती पर तैर गयी । एक क्षण को सूरज ढक गया होगा। लेकिन जीसस तत्क्षण पहचान लिये कि चूक हो गयी, भूल हो गयी । तत्क्षण कहा, क्षमा कर, यह मैंने क्या कहा ! तेरी रज़ा पूरी हो ! तू जो दिखा रहा है, वही ठीक है। तेरी रज़ा से ऊपर मेरी रज़ा नहीं है। तेरी इच्छा से ऊपर मेरी इच्छा नहीं है। तू जो चाहता है, वही मैं चाहूं, बस इतनी ही मेरी इच्छा है। यह मैंने कैसे कहा ! आखिरी क्षण ! बिलकुल स्वाभाविक है। बड़ी पीड़ा जीसस को दी गयी । सूली पर लटकाया गया । स्वाभाविक है, मानवीय । इस बात से सिद्ध होता है कि जीसस परमात्मा के बेटे तो थे ही, आदमी के बेटे भी थे। इससे कुछ और सिद्ध नहीं होता। इससे सिर्फ आदमियत सिद्ध होती है। और जीसस ने बहुत बार बाइबिल में जगह-जगह कहा, कहीं वह कहते हैं मैं आदमी का बेटा हूं, कहीं कहते हैं परमात्मा का बेटा हूं। वह दोनों हैं। सभी दोनों हैं। उन्हें याद आ गयी, सभी को याद नहीं आयी है। तो आदमी का बेटा बोला, यह क्या दिखा रहा है मुझे ! लेकिन तभी उन्हें स्मरण आ गया होगा कि अरे ! मैं आदमी का बेटा ही 275 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 नहीं, परमात्मा का भी बेटा हूं। फिर बाप की जो मर्जी! फिर का छोड़ देने का ही अर्थ है, 'तेरी रज़ा पूरी हो।' इस चिंता को उसकी जो रज़ा! वह कुछ बुरा तो न चाहेगा। उससे ज्यादा तभी कोई छोड़ सकता है जब अहंकार को छोड़ दे। जब कह दे समझदार मैं तो नहीं हो सकता। अगर उसने यही चाहा है, तो कि अब मैं नहीं हूं, तू ही है। यही ठीक होगा, इसीलिए चाहा है। उसकी चाह का निर्णय मैं जिसके हृदय में यह दीया जल जाए कि उसकी मर्जी पूरी हो, कौन हूं करनेवाला? और मैं अपनी मर्जी को उसके विरोध में खड़ा न करूंगा, पूछा है, 'तेरी रज़ा पूरी हो।' इसे मैं कहता हूं प्रार्थना का लड़ाऊंगा नहीं, मैं धार के खिलाफ, धारे के खिलाफ बहूंगा नहीं, मूलमंत्र। अगर यही तुम्हारे जीवन पर छा जाए, इसी रंग में तुम नदी जहां ले जाएगी वहीं जाऊंगा, समर्पित करता हूं, अपने को रंग जाओ, तो यही गैरिक-वस्त्र है, यही गेरुआ रंग है। यही छोड़ता हूं उसकी धारा में डुबाये तो डूबूंगा और डूबने को ही संन्यासी की भावदशा है। हर घड़ी जो भी हो, तुम यही जानना किनारा समझंगा। बचाये तो बचूंगा। ऐसी चित्तदशा में दुख हो कि परमात्मा ने किया, ठीक ही किया होगा। बुरा हो तो, भला हो सकता है? पीड़ा हो सकती है? ऐसी चित्तदशा में नर्क हो तो, सुख मिले तो, दुख मिले तो, कांटे मिलें तो, फूल मिलें तो, | सकता है? असंभव। स्वर्ग खुल गया। तुम सभी उसी को समर्पित करते चले जाना। तुम सभी उसको बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये अर्पित करते चले जाना। कहना, जो तेरी रज़ा। तुम प्रसन्न इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है रहना। तुम बोझ अपने सिर पर न ढोना। तुम नाहक ही अपने | आस्था के दीये बुझते गये। और यह सबसे बड़ा दीया है सिर पर बोझ रखे हो। करनेवाला वही। तुम व्यर्थ करने की आस्था का। यही आस्तिकता है। झंझट अपने सिर पर ले लिये हो। बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये सुनी है तुमने कहानी? एक सम्राट आता था। राह पर उसने इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है एक भिखारी को देखा। दूर है गांव। सम्राट को दया आ गयी, | और जैसे-जैसे आस्था के दीये बझते गये हैं वैसे अंधेरा गहन उसने भिखारी को कहा, तू भी आ, रथ में बैठ जा। वह भिखारी | होता गया है। और यह सबसे महत्वपूर्ण दीया है। आस्था बैठ तो गया, लेकिन अपनी पोटली जो सिर पर रखे था, सिर पर | का-तेरी रज़ा, तेरी मर्जी, तेरी इच्छा पूरी हो। मैं समर्पित। मैं ही रखे रहा। वह सम्राट ने कहा पोटली नीचे रख दे, अब इसको बहंगा। मैं तैरूंगा भी नहीं। मैं पतवार न चलाऊंगा। मैं नाव में सिर पर क्यों रखे है ? उसने कहा कि नहीं मालिक, इतना ही क्या पाल बांध दिया हूं अब, तेरी हवाएं जहां ले जाएं। कम है कि आपने मुझे बैठने दिया; अब पोटली का बोझ भी रामकृष्ण कहते थे, दो तरह से नदी पार हो सकती है। या तो आपके रथ पर रख। नहीं, नहीं, ऐसा मैं कैसे कर सकता है। पतवार चलाओ, या पाल खोल दो। पाल जो खोल देता है, वही लेकिन तुम रथ पर बैठे हो, पोटली सिर पर रखे हो, क्या सोचते भक्त है। पतवार जो चलाता है, वह भक्त नहीं है। वह अभी भी हो रथ पर बोझ नहीं है? बोझ तो रथ पर ही है, चाहे तुम सिर पर | अपने पर भरोसा किये है। वह अभी भी अपनी बाहुओं के बल रखो, चाहे तुम नीचे रख दो। पर जी रहा है। अभी सोचता है, अगर मैं न कुछ किया, तो उस परमात्मा कर्ता है। सारा कृत्य उसका है। वस्तुतः परमात्मा का पार पहुंचूंगा नहीं। भक्त कहता है, अगर इस पार रखा है, तो कोई और अर्थ नहीं है। इस सारे खेल का जो इकट्ठा जोड़ है। यह पार भी उसी का है। तो इस पार ही रहेंगे। उस पार पहुंच ही इस सारे कर्म के महत प्रवाह का जो केंद्र है, वही तो परमात्मा है। गये। इसी पार रहते हुए उस पार पहुंच गये। लेकिन हम सब अपनी-अपनी पोटली सिर पर रखे हैं, हम कहते दूर कितने भी रहो तुम, पास प्रतिपल, हैं, मैं कर रहा हूं। हम कहते हैं, अब इतना बोझ परमात्मा पर क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल, क्या डालना! चांद-तारे जो चला रहा है, वह तुम्हें नहीं चला कर दिये केंद्रित सदा को ताप बल से पायेगा! सारी प्रकृति कैसे लयबद्ध-स्वर में बह रही है। एक विश्व में तुम और तुम में विश्व भर का प्यार! तुम्हीं चिंता लिये बैठे हो कि तुम्हें स्वयं को चलाना है। इस चिंता हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार। 2761 2010_03 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है इस गांव एक काशी, उस गांव एक काबा, हो। हर घड़ी; निमिष-पल; रात-दिन; सुख में, दुख में; हार इसका इधर बुलावा, उसका उधर बुलावा, में, जीत में; सम्मान में, अपमान में; इसे याद रखना, और गहरे इससे भी प्यार मुझको, उससे भी प्यार मुझको, इसे दोहाराते रहना तेरी रजा परी हो। और जब दोहराओ. तो किसको गले लगाऊं, किससे करूं दिखावा; केवल शब्द ही मत दोहराना, इसमें अपनी आत्मा उंडेल देना। परजात क्यों बनाऊं, दीवार क्यों उठाऊं, इस एक मंत्र में सारे मंत्र समा जा सकते हैं। हर घाट जल पीआ है, गागर बदल-बदल कर जीसस ने कहा है, 'दाई किंग्डम कम, दाई विल बी डन', जिसे दिखायी पड़ने लगा, सभी घाट उसके हैं। बहुत बार | प्रभु, तेरा राज्य उतरे; प्रभु तेरी रज़ा पूरी हो। शरीर बदले, वह सिर्फ गागर का बदलना है। बहुत बार इच्छाएं बदलीं, वह भी सिर्फ गागर का बदलना है। बहुत बार मन आज इतना ही। बदला, वह भी सिर्फ गागर का बदलना है। प्यास एक है और उस प्यास को तृप्त करनेवाला जल एक है। हर घाट जल पीआ है, गागर बदल-बदलकर। और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए, यह दिखायी पड़ने लगे-थोड़ी-सी भी झलक आ जाए कि सारे कृत्यों के पीछे वही है, सारे घाटों के पीछे वही है: प्यास में भी वही, जल में भी वही; जो तुम्हें चला रहा है, वही सबको चला रहा है; जो तुम्हें राह पर चलने का सुझाव दे रहा है, वही तुम्हारे राह पर पत्थर भी रख रहा है; तो जरूर दोनों में कुछ तालमेल होगा। बिना पत्थरों के चुनौती न होगी। इसलिए पत्थर भी रख रहा है। तुम्हें पुकार भी रहा है कि आओ और चलो, और राह को दुर्गम भी बना रहा | है। क्योंकि दर्गम राह पर चलोगे तभी तम्हारा निर्माण होगा. सृजन होगा। तुम्हें आनंद की आकांक्षा से भी भरा है, और हजार-हजार तरह के दख भी पैदा कर रहा है, क्योंकि उन दखों के बीच ही अगर तुम आनंदित हो सको, तो ही आनंद का कोई अर्थ है। अगर दुख न होते और तुम आनंदित होते, तो उस आनंद में कोई रीढ़ न होती, कोई बल न होता। विपरीत स्थिति पैदा करके चुनौती पैदा की गयी है। संघर्ष का मौका तुम्हें निखारने का उपाय है। समझने की कोशिश हर घटना, हर पल में करना। और जैसे ही कभी तुम भूलने-भटकने लगो; और मन होने लगे कहने का कि हे प्रभु! यह क्या दिखा रहा है, तो तत्क्षण जाग जाना, चौंकना! अपने को झकझोर लेना और कहना, तेरी मर्जी पूरी हो। तेरी रज़ा पूरी हो। यह तुम्हारा मंत्र बन जाए-महामंत्र। इसे तुम ओंकार समझो। राम-राम जपने से जो लाभ न होगा, वह लाभ इस एक सूत्र को पकड़ लेने से होगा-तेरी रज़ा पूरी ___ 2010_03 www.jainelibrarorg Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 0 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंद्रहवां प्रवचन त्वरा से जीना ध्यान है 2010_03 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 सूत्र सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलम दुमस्स य । सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते । । ११७ ।। लवण व्व सलिलजोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स । तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयासेइ । । ११८ ।। जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिक्कमो । तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी।। ११९।। पलियंकं बंधेउं, निसिद्धमण-वयणकायवावारो। नासग्गनिमियनयणो, मन्दीकयसासनीसासो । । १२० ।। गरहियनियदुच्चरिओ, खामियसत्तो नियत्तियपमाओ । निच्चलचित्तो ता झाहि, जाव पुरओव्व पडिहाइ । । १२१ ।। थिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाने सुनिच्चलमणाणं । गामम्मि जणाइणे, सुण्णे रणे व ण विसेसो । । १२२ ।। www.jamnelibrary.org Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAD M ASite मनुष्य कुछ खोज रहा है। मनुष्य खोज है। खोज को मनुष्य खड़ा नहीं, जैसे वृक्ष खड़े हैं। मनुष्य रुका नहीं, जैसे 7 नाम हम कुछ भी दें। कहें आनंद, कहें महाजीवन, पशु-पक्षी रुके हैं। टटोलता है, अंधेरे में सही। गिरता है, फिर कहें परमात्मा, निर्वाण, मोक्ष; यह भेद नामों के हैं। उठता है। कहीं कोई एक अदम्य भरोसा है गहरे में कि कुछ पाने एक बात सुनिश्चित है कि आदमी चाहे कैसा ही हो, खोज रहा को है। जीवन जैसा दिखायी पड़ता है, उतने पर समाप्त नहीं। है। ठीक-ठीक साफ भी न हो कि क्या खोज रहा हूं, फिर भी कुछ छिपा है। उसे उघाड़ना है। उसका आविष्कार करना है। खोज रहा है। खोज जैसे मनुष्य का अंतर्तम है। बिना खोजे यह जो दिखायी पड़ रहा है, यह केवल बाह्य रूप है। भीतर कुछ मनुष्य नहीं रह सकता। खोज में ही मनुष्य की मनुष्यता है। हीरे छिपे होंगे। जब परिधि है, तो केंद्र भी होगा। जब घर की पशु-पक्षी हैं। खोज नहीं रहे हैं। वृक्ष हैं, चट्टानें-पहाड़ हैं, बाहर की दीवाल है, तो भीतर का अंतर्तम मंदिर भी होगा। तो हैं। खोज नहीं रहे हैं। कहीं जा नहीं रहे, कोई जिज्ञासा नहीं। | आदमी उघाड़ रहा है, पर्दे उघाड़ रहा है। चूंघट हटा रहा है। इस अस्तित्व जैसा है, स्वीकार है। कोई रूपांतर करने की कामना | खोज के दो रूप हो सकते हैं। एक रूप, जिससे विज्ञान पैदा नहीं। क्रांति का कोई स्वर नहीं। प्रकृति में विकास है, मनुष्य में होता है। तब हम पर्दा उठाते हैं जरूर, अपने पर से नहीं उठाते; क्रांति है। वहीं मनुष्य भिन्न है। पर पर से उठाते हैं। विज्ञान भी घूघट हटाता है, लेकिन वैज्ञानिक डार्विन का सिद्धांत सारी प्रकृति के संबंध में सही है, आदमी स्वयं चूंघट में रह जाता है। आइंस्टीन ने खोज लिया हो कोई भर को छोड़कर। प्रकृति विकास कर रही है। कर रही है कहना | सत्य सापेक्षता का प्रकृति में, अस्तित्व में, लेकिन खुद पर्दे में ठीक नहीं, हो रहा है। विकास या 'एवोल्यूशन' का अर्थ ही और चूंघट में रह गया। इतना है, जो तुम्हारे बिना किये हो रहा है। मनुष्य भर कुछ ऐसा मरते वक्त आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि दुबारा जन्म हो, तो है कि कुछ करता है। उस करने में क्रांति है। जो होता है, विकास तुम क्या बनना चाहोगे? तो उसने कहा एक बात पक्की है, है; जो किया जाता है, वही क्रांति है। वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। प्लंबर भी बन जाऊंगा तो ठीक है, इस क्रांति की दृष्टि को बहुत गहरे में पकड़ लेना जरूरी है कि | लेकिन वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। क्या कारण था आइंस्टीन को मनुष्य बिना किये नहीं रह सकता। कुछ करेगा, कुछ बदलेगा। ऐसा कहने का कि वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा? पूछा तो था क्या कुछ मिटायेगा, कुछ बनायेगा। रूपांतरण, सुंदरतम, सत्यतर बनना चाहोगे, उत्तर में उसने कहा क्या नहीं बनना चाहूंगा। की खोज जारी रहती है। कोई छोटे पैमाने पर, कोई बड़े पैमाने वैज्ञानिक नहीं बनना चाहूंगा। एक बात धीरे-धीरे उस मनीषी को पर। कोई दौड़ता है, कोई घसिटता है। लेकिन इस यात्रा में सभी दिखायी पड़ने लगी थी कि दूसरों पर से सब पर्दे भी उठ जाएं, सम्मिलित हैं। और तुम अंधेरे में रह जाओ, तो सार क्या? सारे जगत में सूरज 283 ___ 2010-03 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HINovewar जिन सूत्र भागः निकल आये और तुम्हारा भीतर का लोक अंधकार में दबा रह में बिक सकती है। एक कवि आ जाए, तो उसे ऐसे रंग दिखायी जाए, तो सार क्या? सब जान लो और अपने को न जान पाओ, पड़ेंगे जो तुम्हें दिखायी नहीं पड़ते। तुम्हें सब वृक्ष हरे मालूम तो इस जानने का मूल्य क्या? यह सब जानना भीतर के अज्ञान पड़ते हैं। कवि को हर हरियाली अलग हरियाली मालूम पड़ती के सामने व्यर्थ हो जाएगा। | है। हर वृक्ष का हरापन अद्वितीय है। अलग-अलग है। तुम विज्ञान भी पर्दा उठाता है, धर्म भी। धर्म पर्दा उठाता है कहते हो फूल खिले हैं, लेकिन प्रगाढ़ता से तुम्हारी चेतना के जाननेवाले पर से, ज्ञाता पर से। विज्ञान पर्दा उठता है ज्ञेय पर सामने फल प्रगट नहीं होते। क्योंकि वहां कोई प्रगाढ़ता नहीं है। से। विज्ञान उठाता है आब्जेक्ट पर से पर्दा, विषय पर, जो | कोई चित्रकार आये, कोई संगीतज्ञ आये, तो संगीतज्ञ सुन लेगा दिखायी पड़ता है दृश्य उससे। धर्म उठाता है पर्दा द्रष्टा पर से, कोयल की कह-कुह, इन पक्षियों का कलरव। हम जो होते हैं, जो देखनेवाला है, जो जाननेवाला है, जो मैं हूं। और धर्म की वैसा हमें संसार दिखायी पड़ने लगता है। धर्म कहता है, जिसने ऐसी समझ है कि जिसने स्वयं को जान लिया, उसने सब जान स्वयं को जान लिया, उसने सब जान लिया। इक साधे सब लिया। अपना घर भीतर आह्लाद से, प्रकाश से भर गया, तो | सधे। और वह एक तुम्हारे भीतर है। सारा जगत प्रकाश से भर गया। धर्म और विज्ञान दोनों एक ही खोज के दो पहलू हैं। अगर तुम प्रसन्न हो, तो तुमने खयाल किया, तुम्हारी प्रसन्नता विज्ञान बहिर्मुखी खोज है, धर्म अंतर्मुखी। विज्ञान जाता है दूर के कारण फूल भी हंसते हुए मालूम होते हैं। तुम उदास हो, तो अपने से, धर्म आता है पास और पास। उस पास आने का नाम फल भी उदास मालूम होते हैं। फलों को तुम्हारी उदासी से क्या ही ध्यान है।। लेना-देना! तुम अगर दुखी हो, पीड़ित हो, तो चांद भी रोता | महावीर के ये सूत्र ध्यान के सूत्र हैं। इन सूत्रों को बहुत गहरे में मालूम पड़ता है। तुम अगर आनंदित हो, नाच रहे, तुम्हारा प्रिय | उतरने देना। क्योंकि ध्यान धर्म का सार है। कुंजी है। ध्यान को घर आ गया, मित्र को खोजते थे मिल गया, तो चांद भी नृत्य जिसने समझा, उसने धर्म को समझा। और ध्यान को छोड़कर करता मालूम होता है। चांद वही है। पृथ्वी पर हजारों लोग चांद जो सारे धर्मशास्त्र भी समझ ले, वह कुछ भी धर्म को नहीं को देखते हैं; लेकिन एक ही चांद को नहीं देखते। हर आदमी समझा। उसका धर्म का जानना ऐसे ही है जैसे कोई भूखा का चांद अलग है। क्योंकि हर आदमी की देखनेवाली आंख | पाकशास्त्र के शास्त्र पढ़ता रहे. या मिठाइयों की तस्वीरों को रखे अलग है। कोई खुशी से देख रहा है—किसी का प्रियजन घर बैठा रहे। उससे भूख न मिटेगी। ध्यान है धर्म का प्राण। ध्यान आ गया। कोई दुख से देख रहा है-किसी का प्रियजन छूट है धर्म की वास्तविकता। ध्यान है धर्म का अर्थ और अभिप्राय। गया। कोई नाच रहा है खुशी में, सौभाग्य में; कोई रो रहा है, ये सूत्र ध्यान के सूत्र हैं। पहला सूत्रआंसू बहा रहा है। आंसुओं की ओट से जब चांद दिखायी पड़ता 'जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट या है, तो आंसुओं में दब जाता है। गीत की ओट से जब दिखायी मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।' पड़ता है, तो चांद में भी गीत उठने लगता है। 'सीसं जहा सरीरस्स-जैसे शरीर में सिर।' पैर काट दो, इसे खयाल लेना, तुम जैसे हो, वैसा तुम्हारा संसार हो जाता आदमी जी जाएगा। हाथ काट दो, आदमी जी जाएगा। सिर है। तुम जैसे नहीं हो, वैसा तुम्हारा संसार हो ही नहीं सकता। काट दो, आदमी नहीं जी सकेगा। अभी तो वैज्ञानिकों ने ऐसे क्योंकि तुम ही मौलिक रूप से अपने संसार के निर्माता हो। प्रयोग किये हैं कि सिर को काटकर अकेला जिलाया रखा जा तुम्हारी आंख, तुम्हारे कान, तुम्हारे हाथ प्रतिपल संसार को | सकता है। यंत्रों के सहारे। यांत्रिक हृदय खून को गतिमान निर्मित कर रहे हैं। एक लकड़हारा इस बगीचे में आ जाए, तो | करता रहेगा। और यांत्रिक फेफड़े श्वास लेते रहेंगे। अकेला | वह देखेगा कि कौन-कौन से वृक्ष काटे जाने योग्य हैं। अनजाने सिर जिलाये रखा जा सकता है। सारे शरीर को हटाक ही! उसे फूल न दिखायी पड़ेंगे! उसे वृक्षों की हरियाली न लेकिन सिर के हट जाते ही-सारा शरीर मौजूद है लेकिन दिखायी पड़ेगी। उसे केवल लकड़ी दिखायी पड़ेगी, जो बाजार फिर जिलाया नहीं जा सकता। और जिलाये रखा भी जा सके, 284 | Jan Education International 2010_03 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो उस जीवन का कोई अर्थ न होगा। क्योंकि सारा अर्थ और अभिप्राय तो मनुष्य की प्रतिभा में है, प्रज्ञा में है। उसके बोध में है । गहन मस्तिष्क के अंतस्तलों में छिपा है जीवन का अर्थ । । तो महावीर कहते हैं— 'सीसं जहा सरीरस्स' – जैसा सिर है शरीर में अत्यंत मुख्य, मालिक, राजा, सिंहासन पर बैठा 'जहा मूलम दुमस्स य।' और जैसे जड़ें हैं वृक्ष की । वृक्ष को काट दो, नया अंकुर आ जाएगा - जड़ें भर बचा लो। जड़ें काट दो, बड़े से बड़ा वृक्ष समाप्त हो जाएगा। इसीलिए तो उपनिषद कहते हैं कि आदमी उलटा वृक्ष है। उसकी जड़ें ऊपर की तरफ, सिर में हैं। उलटा लटका वृक्ष है मनुष्य । बड़ा महत्वपूर्ण प्रतीक है उपनिषदों में। और सब वृक्ष की जड़ें जमीन में हैं, आदमी के सिर की जड़ें आकाश में। पैर आदमी की शाखाएं-प्रशाखाएं हैं। जड़ें उसके सिर में हैं। सूक्ष्म जड़ें हैं। ऐसा कहें कि मनुष्य की जड़ें आकाश में, अनंत आकाश में। या परमात्मा में, अगर धार्मिक शब्द प्रिय हो । लेकिन एक बात सुनिश्चित है कि किसी गहरे अर्थ में आदमी सिर से जुड़ा है जगत से। पैर से नहीं जुड़ा है। इसीलिए तो ब्राह्मणों ने कहना चाहा कि हम सिर हैं और शूद्र पैर हैं। ऐसे यह बात दंभ की है लेकिन बात तो ठीक ही है । अगर ब्राह्मण ब्राह्मण हो, तो सिर है । क्योंकि ब्राह्मण का अर्थ होता है, जिसने ब्रह्म को जान लिया। वह जानने की घटना तो सहस्रार में घटती है, सिर में घटती है। जिसने ब्रह्म को जान लिया, वही ब्राह्मण है। तो ठीक है कि ब्राह्मण सिर है। और यह कहना भद्दा है और आज के लोकतांत्रिक युग में तो बहुत भद्दा है कि शूद्र पैर है, लेकिन बात सही है। इसे हम उलटाकर कहें तो बात ठीक हो जाती है। जो अभी पैर ही हैं, वे शूद्र हैं। शूद्र पैर हैं, यह कहना तो अभद्र है, लेकिन जो अभी भी पैर हैं और जिनका सहस्त्रार नहीं खुला, जिनके मस्तिष्क में छिपे कमल अभी बंद पड़े हैं, वे शूद्र हैं। प्राचीन दृष्टि ऐसी थी कि पैदा तो सभी शूद्र होते हैं - सभी --- ब्राह्मण भी, पैदाइश से तो सभी शूद्र होते हैं, फिर कभी कोई साधना से ब्राह्मण होता है। महावीर की क्रांति का यह अनिवार्य हिस्सा था । महावीर और बुद्ध दोनों की अथक चेष्टा थी कि ब्राह्मण का संबंध जन्म से छूट । कोई व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण नहीं होता । हो नहीं सकता। क्योंकि ब्राह्मणत्व अर्जित करना होता है। मुफ्त नहीं मिलता। 2010_03 त्वरा से जीना ध्यान है जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं, फिर कभी कोई, एकाध कोई विरला, कोई जाग्रत, जागा हुआ ब्राह्मण हो पाता है । ब्राह्मण तभी होता है, जब उसे अपनी जड़ों की स्मृति आती है । ब्राह्मण तभी होता है, जब अपनी सिर से फैली जड़ों को वह आकाश में खोज लेता है । जो सहस्रार तक पहुंचा है, वही ब्राह्मण है। अन्यथा कुछ और होगा। महावीर कहते हैं, 'जैसे सिर है मनुष्य के शरीर में और जैसे जड़ें हैं वृक्षों में । ' जड़ों को काट दो, कितना ही बलशाली वृक्ष मर जाएगा। या जड़ों को काटते रहो, तो वृक्ष दीन-हीन हो जाएगा। जापान में टोकियो के बड़े बगीचे में चार सौ साल पुराना एक पौधा है। वह अगर वृक्ष होता, तो एकड़ों जमीन घेरता । लेकिन वह एक छोटी-सी बसी में― चाय पीने की बसी में आरोपित है । चार सौ साल पहले जिस आदमी ने उसे आरोपित किया था— जरा-सी इंचभर पतली पट्टी है मिट्टी की, चाय पीने की बसी में, उसमें लगाया हुआ है। और बसी के नीचे छेद है, उन छेदों से वह जड़ें काटता रहा है। तो पौधा चार सौ साल पुराना है, लेकिन केवल कुछ इंच बड़ा है। जराजीर्ण हो गया है। बड़ा वृद्ध है । चार सौ साल लंबी यात्रा है। लेकिन ऐसा है जैसे अभी चार दिन का पौधा हो। जड़ें नीचे कटती गयीं, रोज-रोज जड़ों को माली छांटता रहा। फिर उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम करती रही। वह पौधा अनूठा है। जड़ों को बढ़ने न दिया, नीचे जड़ें न बढ़ीं, ऊपर वृक्ष न बढ़ा। वृक्ष को काटो, फिर नया हो जाएगा। जड़ को काट दो, बस वृक्ष समाप्त हुआ । उसके प्राण जड़ में हैं । आदमी की जड़ें कहां हैं। होनी तो चाहिए ही, क्योंकि आदमी बिना जड़ों के जी नहीं सकता – कोई नहीं जी सकता। हम अस्तित्व में किसी न किसी भांति अपनी जड़ों को फैला रहे होंगे। हमें पता हो, न पता हो — वृक्षों को भी कहां पता है कि उनकी जड़ें हैं। वृक्षों को भी कहां बोध है कि गहरे अतल अंधेरे में फैली उनकी जड़ें हैं। आदमी की भी जड़ें हैं- गहरे अतल प्रकाश में फैली, आकाश में फैली। ठीक कहते हैं उपनिषद, आदमी उलटा वटवृक्ष है। जड़ें ऊपर हैं, शाखाएं नीचे की तरफ फैली हैं। तुमने सुना होगा, बेबीलोन में दुनिया के सात चमत्कारों में एक चमत्कार था, और वह था एक उलटा बगीचा । वृक्ष इस तरह लगाये गये थे कि नीचे लटक रहे थे। एक बड़ा सेतु बनाया गया 285 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 PARDENIENDRA था। सेतु के ऊपर मिट्टी डाली गयी थी। और वृक्षों को सेतु के महावीर ने निश्चित ही यही कहा होगा कि सभी साधुओं के धर्मों नीचे लटकाया गया था। अब तो सिर्फ उसकी कथा रह गयी, | का मूल ध्यान है। और तब इस सूत्र का अर्थ और भी गंभीर हो कुछ खंडहर उसके बचे हैं, लेकिन अतीत में वह दुनिया के जाता है। फिर चाहे ईसाई हों, या मुसलमान हों, या यहूदी हों, बड़े-बड़े चमत्कारों में से एक था। या हिंदू हों, या बौद्ध हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब भी कभी बेबीलोन के उस बगीचे के संबंध में मैंने पढ़ा है, और यह बात तथ्य की है कि चाहे धर्म कहीं पैदा हुआ हो, चाहे या उसके खंडहरों के चित्र देखे, तो मुझे खयाल आया कि जरूर किसी रूप-रंग में जन्मा हो, चाहे कैसी ही भाषा धर्म ने चुनी हो, यह खयाल कहीं न कहीं उपनिषदों से तैरकर बेबीलोन तक पहुंचा लेकिन जहां भी साधु पैदा हुआ है, वहां उसका मूल ध्यान है। होगा। क्योंकि उपनिषद अकेले शास्त्र हैं दुनिया में, जिन्होंने वह ध्यान कहता हो या न कहता हो—कहे प्रार्थना, कहे पूजा, कहा-आदमी उलटा लटकता वृक्ष है। यह बगीचा सिर्फ | कहे ध्यान, या कुछ और, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ध्यान का बगीचा नहीं था। नहीं हो सकता। यह आदमी का प्रतीक रहा मूल तो रहेगा ही। चाहे वृक्ष देवदारू का हो, चाहे चिनार का; होगा। यह एक शिक्षण की पाठशाला रही होगी। आदमी ऐसा चाहे आकाश को छूनेवाला वृक्ष हो और चाहे छोटा-मोटा पौधा ही वृक्ष है, जिसकी जड़ें ऊपर हैं। हो; चाहे गुलाब का पौधा हो, चाहे चांदनी का, चाहे चंपा का, 'जहा मूलम दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं क्या फर्क पड़ता है। एक बात सुनिश्चित है। सभी वृक्षों का मूल विधीयते।' वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। यह उनकी जड़ में है। बहुत फर्क है जैन-साधु में, बौद्ध-साधु में, जो अनुवाद है, दो तरह से हो सकता है। जैन-मुनि इसी तरह का हिंदू-साधु में, ईसाई-साधु में। वे सब फर्क ऊपर-ऊपर हैं। जड़ अनुवाद करते रहे, जैसा मैं पढ़ रहा हूं-जैसे मनुष्य-शरीर में में तो कोई फर्क नहीं हो सकता। जड़ तो चाहिए ही होगी। जड़ सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट है वैसे ही साधु के समस्त | के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, ध्यान के बिना साधु नहीं हो धर्मों का मूल ध्यान है। खयाल देना आखिरी हिस्से पर-वैसे | सकता। ध्यान के बिना धर्म नहीं हो सकता। ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। मूल का अनुवाद एक इसलिए पहला अनुवाद ठीक है। उस अर्थ को स्वीकार करने और तरह से भी हो सकता है। लेकिन जैन-मुनियों ने उसे शायद में कुछ अड़चन नहीं। साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। पसंद नहीं किया। 'सव्वस्स साधुधम्मस्स...' सब साधुओं बिलकुल ठीक है। लेकिन दूसरा और भी ज्यादा ठीक है–सब का धर्म। या तो हम कहें कि साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है। है। या सब साधुओं के धर्म का मल ध्यान है। ध्यान को हम समझें कि क्या है। 'सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।' ओ रंभाती नदियो, मैं दसरे ही अर्थ को ज्यादा पसंद करूंगा। सभी साधुओं के बेसुध कहां भागी जाती हो? धर्म का मूल ध्यान है। और इसलिए भी कि महावीर का बहुत वंशी-रव जोर था इस बात पर कि सभी धर्म सही हैं। सभी साधुओं के धर्म तुम्हारे ही भीतर है। सही हैं। इसलिए महावीर ने, महावीर के प्रसिद्ध महामंत्र ने सब ध्यान का पहला सूत्र है-जिसे तुम खोजने चले हो, वह साधुओं को नमस्कार किया है—'णमो लोए सव्व साहूणम।' खोजनेवाले में छिपा है। कस्तूरी कुंडल बसै। यह ध्यान के पाठ समस्त साधुओं को मेरा नमस्कार है। का प्रारंभ है कि पहले अपने घर को टटोल लो। आनंद को लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद ऐसा करते हैं जिसमें बाकी खोजने चले हो? जगत बहुत बड़ा है। पहले घर में खोज लो, साधुओं को काटा जा सके। वे कहते हैं, वैसे ही साधु के समस्त वहां न मिले, तो फिर जगत में खोजना। कहीं ऐसा न हो कि है। क्योंकि जैन-साधु तो जैन-साधु को ही आनंद की राशि घर में लगी रहे और तुम जगत में खोजते फिरो। साध मानता है। किसी और का साध तो साध नहीं है। महावीर | अकसर ऐसा ही होता है। ऐसा ही हआ है। इतने कृपण नहीं हो सकते। ऐसी कंजूसी उन्हें शोभा भी न देगी। हम खोज रहे हैं, मिलता भी नहीं है वहां, तो हम और दूर 286 Jair Education International 2010_03 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वरा से जीना ध्यान है A निकलते जाते हैं खोज में। जितना ही पाते हैं कि मिलना नहीं हो | है, अनुकरण जारी है। जैसे पुराने दिनों में महात्मा का प्रभाव था रहा है, उतनी ही हमारी खोज बेचैन और विक्षिप्त होती जाती है। और हर एक व्यक्ति महात्मा बनना चाहता था, वैसे अब जितना ही हम पाते हैं कि दौड़कर नहीं पहुंच रहे हैं, हम दौड़ को अभिनेता का प्रभाव है। हर एक व्यक्ति और बढ़ाये जाते हैं। हमारे मन का तर्क कहता है कि शायद ठीक है। कोई फर्क नहीं पड़ा आदमी में। से नहीं दौड़ रहे, शायद जितनी शक्ति से दौड़ना चाहिए उतनी | तुम यह मत समझना कि पहले जो आदमी महात्मा बनना शक्ति से नहीं दौड़ रहे हैं। और दौड़ो, और उपाय करो; सारे चाहते थे, वे बड़े महात्मा थे। कुछ फर्क नहीं है। वह उस भीड़ लोग बाहर दौड़े जा रहे हैं, तो होगा तो जरूर बाहर, इतने लोग | का मनोविज्ञान था, यह इस भीड़ का मनोविज्ञान है। उस दिन गलत थोड़े ही हो सकते हैं। महात्मा पूज्य था, समादृत था, उसकी प्रतिष्ठा थी। महात्मा हम जिस भीड़ में पैदा होते हैं, जन्म से ही हम पाते हैं कि भीड़ | बनने में अहंकार की तृप्ति थी। अब अभिनेता बनने में अहंकार भागी जा रही है किसी के साथ। हम भी भीड़ के हिस्से हो जाते की तृप्ति है। बात वही की वही है। हैं। कोई धन खोज रहा है, कोई पद खोज रहा है, कोई यश खोज क्रांति तो तब घटती है जब तुम भीड़ से हटते हो। जब तुम रहा है। लेकिन खोज बाहर है, सभी की बाहर है, तो हम भी कहते हो, अनुकरण अब मैं न करूंगा। अब मैं अपने से उसमें लग जाते हैं, संलग्न हो जाते हैं। मनुष्य का मन भीड़ से सोचूंगा। तुम लाख दोहराओ, तुम करोड़ हो तो भी कोई फिकिर चलता है। भीड़ का एक मनोविज्ञान है। तुम जहां बहुत लोगों नहीं, मैं अपनी सुनूंगा, मैं अपनी अंतरात्मा की सुनूंगा। मैं अपने को जाते देखते हो, तुम भी चल पड़ते हो। अनजाने यह बात हृदय की वाणी से चलूंगा। स्वीकृत कर ली गयी है कि जहां इतने लोग जा रहे हैं, वह ठीक जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वाणी को सुनना शुरू करता है, ही जा रहे होंगे। वैसे ही समझ में ध्यान का सूत्र पड़ने लगता है। ध्यान के सूत्र का इसीलिए तो दुनिया में बहुत-सी भ्रांत धारणाएं भी सदियों तक अर्थ है, जिसे हम खोजते हैं, वह कुछ भी क्यों न हो, उसे हम चलती हैं। पता भी चल जाता है कि गलत हैं, तो भी चलती हैं, | पहले अपने घर तो खोज लें। क्योंकि भीड़ जब तक उन्हें न छोड़ दे तब तक नये लोग आते हैं | सुना है, सूफी फकीर स्त्री हुई राबिया। वह एक सांझ अपने और पुरानी धारणाओं को पकड़ते चले जाते हैं। जब तक भीड़ घर के सामने कुछ खोज रही थी, दो-चार लोग आते थे, उन्होंने उन्हें पकड़े है तब तक नये बच्चे भी उन्हें पकड़ लेंगे, क्योंकि पूछा, क्या खो गया? उसने कहा मेरी सुई गिर गयी। तो वे बच्चे तो अनुकरण करते हैं। हम सब अनुकरण में हैं। दो-चार भी उसको साथ देने लगे-बूढ़ी औरत है, आंखें भी इसलिए अलग-अलग संस्कृति, अलग-अलग समाज में, कमजोर हैं! लेकिन फिर उनमें से किसी एक को होश आया कि अलग-अलग चीजें मूल्यवान हो जाती हैं। किसी समाज में धन सुई बड़ी छोटी चीज है, जब तक ठीक से पता न चले कहां गिरी, ल्य हैं। जैसे अमेरिका। तो अमेरिका में जो भीड़ है, तो इतने बड़े रास्ते पर कहां खोजते रहेंगे? तो उसने पूछा कि मां, वह धन की दीवानी है। और सब चीजें गौण हैं, धन प्रमुख है। यह बता दे कि सुई गिरी कहां है? तो वहीं आसपास हम खोज हर चीज धन से खरीदी जा सकती है। इसलिए धन को पा लो। | लें, इतने बड़े रास्ते पर! उसने कहा बेटा! यह तो पूछो ही मत, जिन समाजों में त्याग का बड़ा मूल्य रहा है उन समाजों में सदियों सुई तो घर के भीतर गिरी है। वे चारों हाथ छोड़कर खड़े हो गये, तक लोगों ने त्याग किया है। क्योंकि त्याग को सम्मान था। उन्होंने कहा तू पागल हुई है! सुई घर के भीतर गिरी है, खुद भी बचपन से ही व्यक्ति सुनता है त्याग की महिमा, उसके मन में भी पागल बनी, हमको भी पागल बनाया। जब सुई घर के भीतर भाव जगने शुरू होते हैं—यही मैं भी करूं। गुमी है, तो भीतर ही खोज। उसने कहा, वह तो मुझे भी पता है। भारत में ऐसा हुआ। सदियों तक त्याग की महिमा रही। उस लेकिन भीतर अंधेरा है, बाहर रोशनी है—सूरज अभी ढला त्याग की महिमा के कारण करोड़ों लोग त्यागी बने। लेकिन नहीं-अंधेरे में खोजू भी कैसे? खोज तो रोशनी में ही हो त्यागी बन जाओ कि धन की दौड़ में पड़ जाओ, कोई फर्क नहीं सकती है। 1287 2010_03 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 वे हंसने लगे। उन्होंने कहा कि मालूम होता है बुढ़ापे में तेरा चल सकता-वहां भी अपरिचित चोर दूसरे के अंधेरे घर में सिर फिर गया है! सठिया गयी तू! अगर घर में रोशनी नहीं है, | बड़ी व्यवस्था से चल लेता है, न तो चीज गिरती है, न आवाज तो भी खोजना तो घर में ही पड़ेगा। तो रोशनी भीतर ले जा। होती है। जिस घर में शायद कभी भी न आया हो! चोर की दीया मांग ला उधार पड़ोसी से, अगर तेरे घर में दीया नहीं। आंखों को अंधेरे का अभ्यास हो गया है। उसने धीरे-धीरे अंधेरे अब हंसने की बारी उस बुढ़िया की थी। वह बड़ी महत्वपूर्ण | में देखने की पटुता पा ली है। उसकी आंखें अंधेरे से सामंजस्य सूफी फकीर औरत हुई। वह हंसने लगी। उसने कहा कि मैं तो कर ली हैं। धूप से आते हो घर, अंधेरा मालूम पड़ता है। ऐसे ही सोचती थी कि तम इतने समझदार नहीं हो जितनी समझदारी की बाहर जन्मों-जन्मों से भटके हो, जब आंख बंद करते हो तो बात कर रहे हो। मैं तो उसी तर्क का अनुसरण कर रही थी, भीतर अंधेरा मालूम पड़ता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जिसका तुम सब कर रहे हो। तुम सब भी बाहर खोज रहे हो, कबीर और नानक और दादू गलत नहीं। हजार-हजार सूरज बिना बुझे कि खोया कहां? भीतर खोया है, खोज बाहर रहे हो। प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन थोड़ा अभ्यास! और कारण जो मैंने बताया, वही तुम्हारा है। क्योंकि आंखों की ध्यान का अर्थ है, भीतर होने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, रोशनी बाहर पड़ती है, आंखें बाहर देखती हैं, बाहर सब | बाहर से हटने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, बाहर पर पर्दा साफ-सुथरा है, भीतर बड़ा गहन अंधकार है। डाल देने का अभ्यास। बाहर पर्दा डाला कि भीतर पर्दा उठा। भीतर तुमने कभी आंख बंद करके देखा? कबीर को पढ़ो, भीतर पर्दा उठाने की और कोई तरकीब नहीं है, बस बाहर पर्दा दादू को पढ़ो, नानक को पढ़ो, तो वे कहते हैं, हजार-हजार | डाल दो। सरजों जैसा प्रकाश! तुम भीतर आंख बंद करते हो, सिर्फ 'जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वक्ष में उसकी जड़ उत्कष्ट, अंधेरा। कुछ सूरज का प्रकाश वगैरह नहीं दिखायी पड़ता। वैसे समस्त धर्मों का मूल ध्यान।' सूरज तो दूर, मिट्टी का दीया भी नहीं टिमटिमाता। झट आंख जैन-मुनि से पूछो ध्यान के संबंध में। वह भूल ही गया है। खोलकर तुम फिर बाहर आ जाते हो। कम से कम रोशनी तो है! | और सब साध लिया है, ध्यान बिलकुल भूल गया है। अहिंसा कम से कम रास्ते परिचित तो हैं। चीजें दिखायी तो पड़ती हैं। साधता है, अस्तेय साधता है, अचौर्य साधता है, ब्रह्मचर्य फिर खोज शुरू कर देते हो। साधता है, सब साधता है, सिर्फ ध्यान भूल गया है। यह दुर्घटना भीतर, जो आदमी बाहर का आदी हो गया है, जब पहली दफा | कैसे घटी होगी? क्योंकि महावीर चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं जाएगा तो अंधेरा पायेगा। ऐसे ही जैसे तुम भरी दोपहरी में बाहर | सब धर्मों का मूल ध्यान है। चलकर घर आते हो, एकदम अंधेरा मालूम पड़ता है। बैठ मेरे पास जैन-मुनि आते हैं, वे कहते हैं, कैसे ध्यान करें? तुम जाओ थोड़ा। थोड़ी देर में आंखें अभ्यस्त होंगी। आंख प्रतिपल | मुनि कैसे हुए? क्योंकि मुनि तो कोई हो ही नहीं सकता बिना बड़ी और छोटी होती रहती है। कभी धूप से आकर आईने में | ध्यान के! मुनि का अर्थ है, जिसका चित्त मौन हो गया। चित्त आंख को देखना, तो तुम पाओगे कि आंख बड़ी छोटी हो गयी | मौन कैसे होगा बिना ध्यान के? अब तुम पूछने आये हो कि है। क्योंकि इतनी धूप भीतर नहीं ले सकती, तो छोटी हो जाती ध्यान कैसा! कितने वर्षों से मुनि हो? कोई कहता है तीस वर्ष से है। जब अंधेरे में बैठेते हो, तो आंख बड़ी होती है। जैसे कैमरे | मुनि हैं, कोई कहता चालीस वर्ष से मुनि हैं। तो तुम मुनि शब्द का लेंस काम करता है, वैसे ही आंख काम करती है। थोड़ी देर का अर्थ भी भूल गये। मुनि का अर्थ ही ध्यानी होता है-मौन! बैठते हो तो घर में जहां पहले अंधेरा मालूम पड़ा था, अंधेरा | जिसके भीतर चित्त में अब तरंगें नहीं उठतीं विचार की। जो समाप्त हो जाता है, रोशनी मालूम पड़ने लगती है। निर्विचार हुआ, निर्विकल्प हुआ। अगर कोई व्यक्ति अंधेरे में देखने का अभ्यास करता ही रहे, मगर खयाल ही भूल गया है। मुनि शब्द का अर्थ ही भूल गया जैसा कि चोर कर लेते हैं, तो दूसरे के घर में जहां बिलकल है। ध्यान तो ऐसा लगने लगा जैसे जैन-धर्म से ध्यान का कोई अंधेरा है-घर का मालिक भी जहां बिना चीजों से टकराये नहीं | संबंध नहीं है। और जैन-धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़ा 288 2010_03 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। सभी धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़े हैं। और कोई उपाय ही नहीं। जैन धर्म उसी दिन मरने लगा, जिस दिन ध्यान से संबंध छूट गया। अब तुम साधो अणुव्रत और महाव्रत, अब तुम साधो अहिंसा, लेकिन तुम्हारी अहिंसा पाखंड होगी। क्योंकि ऊपर से आरोपित होगी। भीतर से आविर्भाव न होगा। ध्यानी अहिंसक हो जाता है । होना नहीं पड़ता । ध्यानी में महाकरुणा का जन्म होता है। अपने को जानकर दूसरे पर दया आनी शुरू होती है। क्योंकि अपने को जानकर पता चलता है कि दूसरा भी ठीक मेरे जैसा है। अपने को जानकर यह स्पष्ट अनुभव हो जाता है कि सभी सुख की तलाश कर रहे हैं, जैसे मैं कर रहा हूं। अपने को जानकर पता चलता है, जैसे दुख मुझे अप्रिय है, वैसा सभी को अप्रिय है। जिसने अपने को जान लिया, वह अगर अहिंसक न हो, असंभव ! और जिसने अपने को नहीं जाना, वह अहिंसक हो जाए, यह असंभव ! कल मैं महर्षि महेश योगी के गुरु का जीवन-चरित्र पढ़ रहा था। ब्रह्मानंद सरस्वती का। वह युवा थे । प्रकट, प्रगाढ़ खोजी थे। गुरु की तलाश में थे। किसी व्यक्ति की खबर मिली कि वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, तो वह भागे हिमालय पहुंचे। वह आदमी मृगचर्म बिछाये, बिलकुल जैसा योगी होना चाहिए वैसा योगी दिखायी पड़ता था। प्रभावशाली आदमी मालूम पड़ता था। सशक्त, बलशाली! इस युवा ने— ब्रह्मानंद ने — पूछा कि महाराज! यहां कहीं आपकी झोपड़ी में थोड़ी अग्नि मिल जाएगी ? अग्नि ! हिंदू संन्यासी अग्नि नहीं रखते अपने पास । न अग्नि जलाते हैं। उन्होंने कहा, तुझे इतना भी पता नहीं है कि संन्यासी अग्नि नहीं छूते । फिर भी उस युवा ने कहा, फिर भी महाराज ! शायद कहीं छिपा रखी हो। वह जो योगी थे, बड़े आग हो गये, बड़े नाराज हो गये, चिल्लाकर बोले कि नासमझ कहीं का! तुझे इतनी भी अकल नहीं कि हम और अग्नि चुराकर | रखेंगे ! क्या समझा है तूने हमें ? तो ब्रह्मानंद ने कहा, महाराज! अगर अग्नि नहीं है, नहीं छुपायी, तो ये लपटें कहां से आ रही हैं ? लपटें तो आ गयीं । ऊपर से थोपकर कोई अभिनय कर सकता है। यह घटना मुझे प्रीतिकर लगी । अग्नि छुपाने का सूत्र भी इसमें साफ है । यह बाहर की अग्नि को छूने की बात नहीं, न बाहर की अग्नि रखने न रखने से कुछ फर्क पड़ता है, यह तो भीतर की आग संन्यासी न 2010_03. त्वरा से जीना ध्यान है छुए। लेकिन ध्यान की जब तक वर्षा न हो जाए, भीतर की आग बुझती नहीं । जब तक ध्यान की रसधार न बहे, तब तक भीतर कुछ अंगारे-सा जलता ही रहता है, चुभता ही रहता है। महावीर ने तो कहा कि मूल धर्म है – ध्यान | जिसने ध्यान साध लिया, सब साध लिया। तो हम समझें, यह ध्यान क्या है? पहली बात, अंतर्यात्रा है। दृष्टि को भीतर ले जाना है। बाहर भागती ऊर्जा को घर बुलाना है । जैसे सांझ पक्षी लौट आता है, नीड़ पर, ऐसे अपने नीड़ में वापस, वापस आ जाने का प्रयोग है ध्यान। जब सुविधा मिले, तब समेट लेना अपनी सारी ऊर्जा को संसार से – घड़ीभर को सही - सुबह, रात, जब सुविधा मिल जाए तब बंद कर लेना अपने को। थोड़ी देर को भूल जाना संसार को समझना कि नहीं है। समझना कि स्वप्नवत है। अपने को अलग कर लेना । अपने को तोड़ लेना बाहर से । और अपने भीतर देखने की चेष्टा करना - कौन हूं मैं? मैं कौन हूं ? यही एक प्रश्न । शब्द में नहीं, प्राण में। यही एक प्रश्न, बोल-बोल कर मंत्र की तरह दोहराना नहीं है, बोध की तरह भीतर बना रहे । एक प्रश्न चिह्न खड़ा हो जाए भीतर अस्तित्व में - मैं कौन हूं ? – और इसी प्रश्न के साथ थोड़ी देर रहना । एकदम से उत्तर न मिल जाएगा। और एकदम से जो उत्तर मिले, समझना थोथा है। एकदम से उत्तर मिल सकता है, वह उत्तर सीखा हुआ होगा। पूछोगे, मैं कौन हूं? भीतर से उत्तर आयेगा - तुम आत्मा हो। वह तुमने शास्त्र से पढ़ा है। इतनी सस्ती आत्मा नहीं है। किसी से सुन लिया है। भीतर से आयेगा - अहं ब्रह्मास्मि । वह उपनिषद में पढ़ लिया होगा, या सुन लिया होगा । वर्षों की चेष्टा के बाद, वर्षों प्रश्न के साथ रहने के बाद-3 - और प्रश्न के साथ रहने का अर्थ ही यह है कि तुम थोथे और उत्तर स्वीकार मत करना, अन्यथा उत्तर फिर बाहर फेंक देगा । देख लेना कि ठीक है; यह कठोपनिषद से आता है, बिलकुल ठीक है; यह गीता से आता है, बिलकुल ठीक है; क्षमा कर गीता मैया! छोड़ पीछा ! कुछ मुझे भी जानने दे ! गीता बाहर है। असली गीता तो भीतर है। तुम्हारी गीता तो घटने को है, अभी घटी नहीं । अभी तुम्हारा महाभारत तो शुरू है। अभी तो तुम्हा अर्जुन थका भी नहीं। अभी तो तुम्हारा अर्जुन कंपा भी नहीं । अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने गांडीव छोड़ा भी नहीं और कहा कि मेरे 289 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 जिन सूत्र भाग: 2 हुए गात शिथिल जाते हैं। अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने प्रश्न ही नहीं जब कोई थोथे ज्ञान से मुक्त हो जाता है, तो वास्तविक का जन्म पूछा, तो तुम्हारा कृष्ण बोले कैसे ? होता है। शायद वास्तविक तो मौजूद ही है, थोथे के कारण पता नहीं चलता । तो बाहर के कृष्ण और बाहर के अर्जुन को थोड़ा बाहर ही छोड़ देना । प्रश्न बनना, तो तुम अर्जुन बनोगे । और ध्यान रखना, जहां भी अर्जुन प्रगट होता है, वहां कृष्ण प्रगट हो ही जाएंगे। जहां प्रश्न है, वहां उत्तर आयेगा ही । तुम प्रश्न भर पैदा कर लो, लेकिन प्रश्न सच्चा हो, प्रगाढ़ हो, ज्योतिर्मय हो। तुम अपने को दांव पर लगाने को तैयार होओ। अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता - काम चलाऊ; ऐसे ही कृष्ण को प्रभावित करने के लिए, | देखो मैं कितना धार्मिक हुए जा रहा हूं—अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता कि चलो, क्या हर्ज है, कृष्ण को भी तृप्ति मिल जाएगी कि कैसा महान शिष्य मेरा, कैसा महान साथी ! अर्जुन कोई अभिनय नहीं कर रहा था। वही तो गीता का यथार्थ है । वस्तुतः उसके प्राण कंप गये देखकर । तुम अगर आंख खोलकर जगत को देखा है, तुम्हारे प्राण भी कंपने चाहिए। तुमने अगर गौर से देखा, तो युद्ध-पंक्तियां बंधी खड़ी हैं। हजारों तरह का युद्ध चल रहा है, संघर्ष चल रहा है, हिंसा हो रही है। तुम उसमें भागीदार हो । अर्जुन को इतना ही तो | दिखायी पड़ा कि कम से कम मैं तो अलग हो ही जाऊं; जो हो रहा है, हो। कम से कम यह दाग मेरे उपर तो न पड़े। वह थककर बैठ गया। उसने कहा, मैं भाग जाऊं । छोड़ दूं सब। कुछ सार नहीं । इतनी मृत्यु ! इतनी हिंसा ! मिलेगा क्या ? राज-सिंहासन पर बैठ जाऊंगा तो क्या होगा ? इतनी लाशों के ऊपर राज-सिंहासन रखा जाएगा? नहीं, यह प्रतिस्पर्धा, यह प्रतियोगिता मेरे काम की नहीं। उस घड़ी तैयारी बनी। उस घड़ी जिज्ञासा उठी और यह जिज्ञासा कुतूहल न थी । यह ऐसे ही पूछ लिया प्रश्न न था चलते-चलते। इसके पीछे गहरे प्राण दांव पर लगाने की तैयारी थी। तुम अभी अर्जुन नहीं बने, तुम्हारी गीता पैदा नहीं हो सकती। तो जब बाहर की गीता उत्तर देने लगे, कहना कि महाराज, हे कृष्ण महाराज, तुम बाहर रहो ! अभी मुझे प्रश्न को जीने दो, अभी अर्जुन पैदा नहीं हुआ, तुम समय के पहले आ गये। उधार जो तुमने सीख लिया हो, बुद्धि में जो इकट्ठा कर लिया हो कूड़ा-कर्कट सब तरफ से बटोरकर, उसे बाहर रख देना। ध्यान की प्रक्रिया थोथे ज्ञान से मुक्त होने की प्रक्रिया है । और 2010_03 एक बौद्ध भिक्षु हुआ - आर्य असंग बड़ा बहुमूल्य भिक्षु हुआ । उसके जीवन में बड़ी अनूठी कथा है। नालंदा में आचार्य था। फिर समझ आयी संसार की व्यर्थता की तो सब छोड़कर चला गया। तय कर लिया कि अब तो ध्यान में ही डूबूंगा, हो गया ज्ञान बहुत । जान लिया सब, और जाना तो कुछ भी नहीं । पढ़ डाले शास्त्र सब, हाथ तो कुछ भी न आया । छोड़कर पहाड़ चला गया। एक गुफा में बैठ गया। तीन साल अथक ध्यान किया। लेकिन कहीं मंजिल करीब आती मालूम न पड़ी। हतोत्साह, हताशा से भरा गुफा से बाहर निकल आया। सोचा लौट जाऊं। तभी उसने क्या देखा कि एक चिड़िया वृक्षों से तोड़-तोड़कर लाती है, पत्ते गिर- गिर जाते हैं, घोंसला बनता नहीं; मगर फिर चली जाती है, फिर ले आती है, फिर चली जाती है, फिर ले आती है। उसने सोचा क्या इस चिड़िया से भी कमजोर है मेरा साहस और मेरी आशा और मेरी आस्था ? घोंसला बन नहीं रहा है, लेकिन इसकी कहीं भी आशा नहीं टूटती, हताशा नहीं आती। वह फिर वापस गुफा में चला गया। तीन साल तक कहते हैं, फिर उसने हिम्मत करके ध्यान किया। कुछ न हुआ । सब श्रम लगा दिया, लेकिन कुछ न हुआ। फिर घबड़ाकर एक दिन बाहर आ गया और कहा, अब बहुत हो गया ! फिर उस वृक्ष के नीचे बैठा था कि देखा एक मकड़ी जाला बुन रही है। गिर गिर जाती है, जाले का धागा सम्हलता नहीं, फिर-फिर बुनती है। फिर उसे खयाल आया कि आश्चर्य की बात है, ऐसी चीजें मुझे बाहर आते ही से दिखायी पड़ जाती हैं। अभी मकड़ी भी नहीं हारी, मैं क्यों हारूं ? एक बार और कोशिश कर लूं। कहते हैं, वह फिर तीन साल ध्यान किया। कुछ न हुआ। बहुत परेशान हुआ । अब उसने सोचा, अब बाहर निकलूंगा पता नहीं फिर कुछ हो जाए, तो अब की दफे आंख बंद करके ही चले जाना है। अब कुछ भी हो रहा हो बाहर—मकड़ी हो कि चिड़िया हो कि कुछ भी हो, परमात्मा कोई भी इशारे दे, अब बहुत हो गया, नौ साल कोई थोड़ा वक्त नहीं, सारा जीवन गंवा दिया। वह आंख बंद करके भागा। वह जैसे ही पहाड़ से नीचे उतर Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा था, उसने देखा एक कुतिया, उसकी पीठ सड़ गयी है, उसमें कीड़े पड़ गये हैं—वह उसे दिखायी पड़ी। उससे न रहा गया। बैठा, उसके कीड़े अलग किये, जब वह उसके घाव धो रहा था, तभी ध्यान घटा। जो नौ साल में नहीं घटा था, वह घटा । अचानक, जैसे कुछ गहन में भीतर खींचे लिये चला गया। आंख बंद हो गयीं, वह भीतर पहुंच गया। जिसकी तलाश थी, वह रोशनी सामने खड़ी है। जिसकी तलाश थी, वह बुद्धत्व खिला । उसने कहा, हे प्रभु! इतने दिन तक खोजता था— नौ वर्ष अथक श्रम किये, तब तुम न दिखायी पड़े, तब यह रोशनी न मिली, अब ! ! तो कहते हैं उस रोशनी से उत्तर आया कि मैं तो तब भी तेरे ही भीतर था, लेकिन तेरे ध्यान की चेष्टा बड़ी अहंकार - पूर्ण थी। तेरा अहंकार बाधा बन रहा था। इस कुतिया के घाव धोते वक्त एक क्षण को तेरा अहंकार मौजूद न रहा । करुणा हो, तो अहंकार मौजूद नहीं रहता । प्रेम हो, तो अहंकार समाप्त हो जाता है। मैं तो सदा से तेरे पास था - नौ महीने से भी और नौ सालों से भी, नौ जन्मों से भी । मैं तो भीतर था ही, मैं तेरा स्वभाव हूं, लेकिन तू भीतर नहीं आ पाता था। ध्यान भी कर रहा था तू, तो उसमें अकड़ थी— मैं पाकर रहूंगा। वह अहंकार की उदघोषणा थी । भीतर जाना है जिन्हें उन्हें बाहर की दौड़ छोड़नी है। और बाहर की दौड़ का जो सूक्ष्म सूत्र है — अहंकार - वह भी तोड़ना है। स्वयं को मिटाये बिना कोई ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। और स्वयं को मिटाये बिना कोई स्वयं को उपलब्ध नहीं होता । यह जिसको हमने अभी स्वयं समझा है, जिसको अभी हम कहते हैं— 'मेरा', 'मैं', यह हमारी आत्मा नहीं है। यह आत्मा ही होती, तो हम परम आनंद से भर गये होते। यह अहंकार है। अहंकार का अर्थ है, यह हमने बाहर से इकट्ठा किया है। किसी स्कूल में 'गोल्ड मेडल' मिल गया था, वह जुड़ गया। किसी अखबार में नाम छप गया था, वह काटकर चिंदी जोड़ । कोई आदमी ने हंसकर कह दिया कि तुम बड़े सुंदर हो, वह भी जोड़ लिया। किसी ने कहा कि तुम बड़े त्यागी हो, किसी ने कहा तुम बड़े सच्चरित्र हो, कहीं 'पद्मश्री' मिल गयी, कहीं 'भारतरत्न' हो गये, इस तरह के सब पागलपन इकट्ठे कर लिये, उन सबको जोड़कर अहंकार की थेगड़ी बनाकर बैठ गये हैं। तुम जरा कभी सोचना कि 'मैं कौन हूं', तो जो भी उत्तर आयें 2010_03 त्वरा से जीना ध्यान है तुम हैरान होओगे, ये बाहर से दिये गये उत्तर हैं । कोई तुम्हारी मां ने दिया था, कोई तुम्हारे पिता ने, कोई तुम्हारे मित्र ने, कोई तुम्हारी पत्नी ने, कोई तुम्हारे शत्रु ने, कोई अपनों ने, कोई परायों ने। इन सबको इकट्ठा कर के तुमने एक घास-फूस की झूठी प्रतिमा खड़ी कर ली है। और निश्चित ही यह प्रतिमा प्रतिपल घबड़ायी रहती है, क्योंकि यह बिलकुल झूठी है । यह कभी भी गिर सकती है और बिखर सकती है। इसमें कोई बल नहीं है, कोई प्राण नहीं है। ध्यान का अर्थ है, पहले बाहर से भीतर मुड़ना । और भीतर जाते वक्त तुम पाओगे दरवाजे पर अड़ा हुआ ताला। वह ताला है अहंकार का। 'जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो गया, उसके चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है ।' 'जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है।' नमक की डली पानी में डालते ही खो जाती है । विलीन हो जाती है। ऐसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प ध्यान में लीन हो गया, जिसने बाहर को छोड़ा, बाहर से बने हुए प्रतिबिंबों के अहंकार को छोड़ा, निर्विकल्प हुआ, निशल्य हुआ, अपने एकांत में ठहरा, तत्क्षण जन्मों-जन्मों की चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों की जो राशि है, वह विलीन हो जाती है। महावीर बड़ी क्रांतिकारी घोषणा कर रहे हैं। वह कह रहे हैं, जन्मों-जन्मों की कर्म की शृंखला को मिटाने के लिए यह सोचना कि जन्म-जन्म लगेंगे अब शुभ कर्म करने में, एक-एक कर्म को काटना पड़ेगा। तब तो असंभव हो जाएगा। क्योंकि हम कितने अनंत काल से कर्म करते रहे। अगर एक-एक कर्म को काटना पड़े, तो अनंत काल लग जाएगा। तब तो मुक्ति असंभव है। महावीर कहते हैं, एक क्षण में भी घट सकती है घटना, त्वरा चाहिए, तीव्रता चाहिए; अग्नि की प्रगाढ़ता चाहिए - एक क्षण में सारा अतीत भस्म हो सकता । और तुम ऐसे ताजे हो सकते हो, जैसे तुम पहले क्षण जन्मे, जैसे इसके पहले तुम कभी थे ही नहीं। तुम्हारा सारा इतिहास ध्यान की एक गहरी झलक में विलीन हो सकता है, विदा हो सकता है। जन्मों-जन्मों की जमी 291 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 धूल तुम्हारे दर्पण पर, हवा के एक झोंके में बिखर सकती है। ध्यान अभ्यास न रहा, सिद्धि हो गयी। जब तुम्हारे भीतर झोंका बलशाली चाहिए ! निर्विचार रहना तुम्हारी सहज संपदा हो गयी - तुम जब चाहो तब आंख बंद करके निर्विचार हो गये। पहले तो बड़ा कठिन होगा। पहले तो उलटी हालत हो जाएगी। जब आंख बंद करोगे, विचारों का हमला होगा। उससे भी ज्यादा — दुकान पर बैठकर जितना नहीं होता उतना मंदिर में होता है, कभी खयाल किया ? दुकान पर बैठकर काम में लगे रहते हो, उलझे रहते हो विचारों का कोई खास हमला पता नहीं चलता है। लेकिन मंदिर में जाकर बैठते हो कि चलो घड़ीभर शांति से बैठें, आंख बंद की कि न मालूम कहां-कहां के विचार खड़े हो जाते हैं । संगत- असंगत; अच्छे-बुरे; सार्थक-व्यर्थ; जिनसे कुछ भी नहीं लेना-देना, वे सब सिर उठाने लगते हैं। क्या जाता है ? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं जब ध्यान करते हैं, तब विचार और ज्यादा आते हैं। इससे तो बिना ध्यान में कम आते हैं। बिना ध्यान में कम आते हैं, क्योंकि जब तुम बिना ध्यान में हो, तब तुम्हारा मन कहीं संलग्न होता है, कहीं लगा होता है। तो जिस तरफ तुम संलग्न हो, उसी सीमा से बंधे हुए विचार, उसी अब एक रात अगर कम जीये, तो कम ही सही यही बहुत है कि हम मशालें जला के जीये इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितनी देर जीये! कितने गहरे दिशा से बंधे हुए विचार आते हैं। जब तुम ध्यान में बैठे जीये.. ...! हो – असंलग्न, अव्यस्त - तो सभी दिशाओं से विचार आते हैं। तब तुम घबड़ा जाते हो। ध्यान लगता नहीं। शुरू-शुरू में यह स्वाभावकि है । बहुत-से विचार तुम्हारे भीतर पड़े हैं, जो तुमने दबा रखे हैं, वह उभरेंगे। इसलिए पहले ध्यान में रेचन होगा। सब कूड़ा-कबाड़ उठेगा। जैसे वर्षों तक किसी ने घर को बुहारा न हो, फिर एक दिन घर में आये तो धूल उठने लगे। धूल की पर्तें की पर्तें जमी हैं। हां, बाहर बैठे रहो, पोर्च में, तो भीतर सब शांति है, कोई धूल नहीं उठती। भीतर जाओ, तो धूल उठती है । ऐसे ही जन्मों-जन्मों तक हमने विचार की धूल को जमने दिया है – भीतर गये नहीं, बुहारी लगायी नहीं । भीतर कभी वर्षा होने न दी, स्नान होने न दिया, अब जब भीतर जाएंगे तो जन्मों-जन्मों का कचरा उठेगा। इसकी सफाई करनी होगी। और जब कोई सफाई करता है, तो धूल बड़े जोर से उठती है। ऐसे ही ध्यान में विचार बड़े जोर से ध्यान एक मशाल बने । दोनों छोरों से जले । | जर्मनी की एक बहुत विचारशील महिला रोजा लक्ज़ेंबर्ग | कहती थी कि मैंने एक ही बात जीवन में पायी कि अगर तुम | अपनी मशाल को दोनों तरफ से एक-साथ जलाओ, त्वरा से जीओ, सघनता से जीओ, तो परमात्मा दूर नहीं। हम ढीले-ढीले जीते हैं, सुस्त-सुस्त जीते हैं— कुनकुने - कुनकुने — कभी वह घड़ी नहीं आती जहां हमारा जल वाष्पीभूत हो जाए। हम लंबा जीना चाहते हैं, गहरा नहीं जीना चाहते। हम आशीर्वाद देते हैं कि सौ साल जीओ। सौ साल जीने से क्या होगा! जैसे मुर्दे की तरह जी रहे हो, ऐसे हजार साल भी जीओ तो कोई सार नहीं है। यह आशीर्वाद भ्रांत है। यह आशीर्वाद शुभ नहीं है। सौ साल जीने से क्या लेना! एक दिन भी जीओ, लेकिन जीओ ! ऐसे सौ साल घसिटने से क्या होगा ? ध्यान रखना, बाहर की तरफ जानेवाला व्यक्ति मात्रा और परिमाण पर जोर देने लगता है— सौ साल जीये। भीतर | जानेवाला व्यक्ति कहता है, जीओ चाहे एक क्षण, लेकिन ऐसी परिपूर्णता से जीओ, ऐसी समग्रता से जीओ कि उस एक क्षण में शाश्वतता समाविष्ट हो जाए। और एक क्षण में शाश्वत समाविष्ट हो जाता है। एक छोटा-सा क्षण अनंत काल बन सकता है। सवाल गहराई का है। लंबाई का नहीं । ऐसा समझो कि एक आदमी पानी में रहा है। ऐसा तैरता चला जाता है एक किनारे से दूसरे किनारे, यह एक ढंग है । यह हम सबका ढंग है। सतह पर तैरने का। और एक आदमी डुबकी लगाता है, पानी में गहरे जाता है। गहराई में जाना ध्यान है, सतह पर तैरते रहना संसार है । सतह पर तैरनेवाले राजनीति में हैं । गहरे जानेवाले धर्म में । 'पानी का योग पाकर नमक जैसे विलीन हो जाता है, ऐसे ही उठते हैं। लेकिन यह तो संक्रमण की बात है। सफाई हो जाएगी, निर्विकल्प समाधि में...।' विचार चले जाएंगे। निर्विकल्प समाधि का अर्थ है, जब ध्यान सध गया। जब अगर कोई व्यक्ति शांतिपूर्वक प्रयोग करता जाए, तो 292 2010_03 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीरे-धीरे - धीरे कुछ करना नहीं होता, सिर्फ अपने विचारों के साक्षी भाव बने रहने से; साक्षी, द्रष्टा बने रहने से; देखते रहो – अलिप्त - ठीक है, विचार आते हैं, जाते हैं; देखते रहो, आने भी दो, जाने भी दो; न रोको, न धकाओ; रस मत लो; विरस, उदासी, तटस्थ; जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं; ऐसे देखते-देखते तुम पाओगे कि धीरे-धीरे अंतराल भी आने लगे। कुछ क्षण आ जाते हैं जब कोई विचार नहीं होता। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा बदलियां छंटेंगी, सूरज की रोशनी उतरेगी। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा निर्विकल्पता के थोड़े-थोड़े अनुभव होंगे – छोटे-छोटे, क्षणभंगुर – लेकिन वे क्षण बहुमूल्य हैं। जिन्होंने उन क्षणों को जान लिया, समझो कि उन्होंने स्वर्ग की यात्रा कर ली। थोड़ी देर को सही, लेकिन किसी और लोक में प्रवेश कर गये। फिर क्षण बड़े होने लगते हैं। धीरे-धीरे विचारों से छुटकारा होता चला जाता है | विचार दूर होते चले जाते हैं। और व्यक्ति अपने में लीन होता चला जाता है। इस लीनता को कहते हैं, निर्विकल्प । इस स्थिति को कहते हैं, समाधान, समाधि । और तब चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है। 'जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं हैं तथा मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रगट होती है।' तुम कहां से आ रहे हो, नाम क्या है ? वह पुकारूं शब्द मत मुझको बताओ जो तुम्हारा आवरण है। पर कहो वह नाम जो वह पुकारूं, शब्द मत मुझको बताओ तुम्हारा आवरण है। को को हम कहते हैं राम, किसी को कृष्ण, किसी को कुछ, किसी को कुछ। यह तो पुकारू नाम है। तुम जब आये थे, तो कोई नाम लेकर न आये थे। तुम जब आये थे, तब खाली, अनाम आये थे। तुम जब आये थे, तब कोई लेबल तुम पर लगा न था । न हिंदू थे, न मुसलमान थे, न जैन थे, न ईसाई थे। तुम जब आये थे, तब न सुंदर थे, न कुरूप थे। तुम जब आये थे, न बुद्ध थे, न बुद्धिमान थे। तुम जब आये थे, तब कोई विशेषण न लगा था । विशेषण - शून्य । तुम कौन थे तब ? | ध्यान अग्नि है। क्योंकि जलाती है कचरे को । क्योंकि जलाती है व्यर्थ को, और असार को। ध्यान अग्नि है, क्योंकि जलाती है अहंकार को ध्यान मृत्यु जैसी है। क्योंकि मारती है तुम्हें —तुम जैसे अभी हो, और जन्माती है उसे-जैसे तुम होने चाहिए। तुम्हारे भविष्य को प्रगट करती है, तुम्हारे अतीत को विदा करती है। तुम्हें संसार की पकड़ के बाहर ले जाती है और परमात्मा की सीमा में प्रवेश देती है। ध्यान के इस द्वार से खोज करनी है अपने असली स्वरूप की । ध्यान में उसकी फिर से खोज करनी है। ध्यान में फिर उस जगह को छूना है, जहां से संसार शुरू हुआ है, जहां से समाज शुरू हुआ; जहां तुम्हें नाम दिया गया, विशेषण दिये गये; शिक्षा दी गयी, संस्कार दिये गये; तुम्हें एक रूप, ढांचा दिया गया; उस ढांचे के पार कौन थे तुम ? एक दिन मृत्यु आयेगी, यह देह छिन जाएगी। जब तुम्हारी चिता पर जलेगी यह देह, तो अग्नि इसकी फिकिर न करेगी - हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो; सिक्ख, ईसाई, कौन हो? सुंदर हो, कुरूप, स्त्री हो, पुरुष; धनी हो, गरीब हो, अग्नि कोई चिंता न करेगी, बस भस्मीभूत ही कर देगी। मिट्टी तुम्हें अपने में मिला लेगी। तब तुम कौन बचोगे? जो तुमने इस संसार में जाना और माना था, वह सब तो फिर छिन जाएगा । उस सबके छिन जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही हो तुम। जिसको फूल और नक्षत्र ये कहते नहीं नाम जो असहाय, मर जाता उसी दिन 2010_03 जिस दिवस हम भूमितल पर जन्म लेते हैं झेन फकीर कहते हैं कि बताओ अपना मौलिक चेहरा — वह चेहरा, जब तुम पैदा नहीं हुए थे तब तुम्हारा था । वह चेहरा, जब तुम मर जाओगे तब भी तुम्हारा होगा - बताओ वह मौलिक चेहरा। अभी तो हम जो चेहरे रखे हुए हैं, ये सब ओढ़े हुए चेहरे हैं । तुम कहां से आ रहे हो, नाम क्या है ? त्वरा से जीना ध्यान है। ध्यान में हम उसी की खोज करते हैं, जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा। तो ध्यान का अर्थ हुआ - किसी भ इन सारी समाज के द्वारा दी गयी संस्कार की पर्तों को पार कर के अपने स्वभाव को पहचानना है। स्वभाव को पहचान लेना ध्यान 293 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग:2 है। इसलिए महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है। जैन होते। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और कोई तुमसे वत्थू सहावो धम्म। वस्तु के स्वभाव को जान लेना धर्म है। कहता नहीं कि तुम सुंदर हो कि असुंदर, तो तुम कौन होते? तुम्हारा जो स्वभाव है, उसको जान लेना तुम्हारा धर्म है। जैन | सुंदर होते कि असुंदर होते? कोई तुमसे कहता नहीं कि बुद्ध हो और हिंदू और मुसलमान नहीं, तुम कौन हो इसे पहचान लेना | कि बुद्धिमान, तो तुम कौन होते? यह सब तो सिखावन है। धर्म है। सिखावन की पर्तों को तोड़कर....तो ध्यान है कुदाली, खोद देना तुम जवानी हो है सारे संस्कारों को, पहुंच जाना है जलस्रोत तक। जैसे ही तुम कि शैशव जलस्रोत तक पहुंचे कि एक अभिनव जगत का आविर्भाव होता आप अपना पाठ फिर दोहरा रहा है? है। पहली दफा अपने पर आंख पड़ती है। पहली दफा भराव जिंदगी हो, आता है। पहली दफा परितृप्ति, परितोष। या सुनहला रूप धर कर सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं मृत्यु विचरण कर रही है? स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं कौन हो तुम? क्या है तुम्हारा नाम? कहां से आते हो? कहां बंधा हूं, स्वप्न हैं, लघु वृत्त में हूं को जाते हो? तो एक तो हमारे ऊपर पड़ी हुई पर्ते हैं, नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं कंडीशनिंग, संस्कार। इन पर्तों की गहरी गहराई में कहीं हमारा यह जो बंधन है तुम्हारे ऊपरस्वरूप दब गया है। जैसे हीरे पर मिट्टी चढ गयी हो। मिट्टी पर बंधा है, स्वप्न हैं, लघवत्त में हैं मिट्टी चढ़ती चली गयी हो। हीरा बिलकुल खो गया हो। फिर | तो एक छोटी-सी सीमा बन गयी है, भी खो तो नहीं जाता, मिट्टी हीरे को मिटा तो नहीं सकती, दब नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं जाता है। नहीं तो आकाश-जैसे बड़े हो तुम। महावीर कहते हैं, आत्मा सिर्फ दब गयी है। ध्यान से उस दबे सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं तक कुआं खोदना है। अपने भीतर सारी पर्तों को तोड़कर उस स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं जगह पहुंचना है जहां तोड़ने को कुछ भी न रह जाए। समाना चाहती जो बीन उर में ऐसा समझो कि जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो, वही विकल वह शून्य की झंकार हूं मैं छोड़ना है, वही बाधा है। स्वयं मैं कौन हूं, जानने के लिए वह भटकता खोजता हूं ज्योति तम में सब छोड़ देना होगा, जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो। सुना है ज्योति का आगार हूं मैं दूसरों को अपना पता नहीं, तुम्हारा क्या पता होगा? दूसरों को | लेकिन कब तक सुनोगे? जानोगे कब? तुम्हारा कोई पता नहीं है। नाम दे दिया है, क्योंकि नाम के बिना सुना है ज्योति का आगार हूं मैं काम नहीं चलता। कोई नाम तो चाहिए। तो एक लेबिल लगा सुना है कि परमात्मा हूं। सुना है कि आत्मा हूं। सुना है कि दिया है। सुविधा हो गयी। पुकारने में व्यवस्था हो गयी। मोक्ष मेरे भीतर बसा हैचिट्ठी-पत्री लिखने के लिए आसानी हो गयी। एक सुना है ज्योति का आगार हूं मैं पता-ठिकाना बना लिया है। यह सब कृत्रिम है। यह स्वभाव जानोगे कब? ध्यान जानने की प्रक्रिया है। नहीं है। अगर तुम जंगल में रखे गये होते और किसी ने तुम्हारा | लवण व्व सलिलजोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स। | नाम न पुकारा होता, तो तुम्हारे पास कोई नाम होता? तुम्हारे | तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयासेइ।। पास कोई नाम न होता। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और | 'जैसे नमक गल जाए, ऐसे ध्यान की अग्नि में सब अतीत किसी ने तुम्हें बताया न होता कि तुम हिंदू हो, कि मुसलमान, कि कर्म जल जाते हैं।' जैन, तो तुम कौन होते? न तुम हिंदू होते, न मुसलमान होते, न जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिक्कमो। 294] Jair Education International 2010_03 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSHA त्वरा से जीना ध्यान है तस्स सुहासहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी।। मन-मन का अर्थ है, सूक्ष्म तरंगें, जो अभी विचार भी नहीं 'और उस आग में समस्त शुभ-अशुभ कर्मों का विनाश हो बनीं। जिसको फ्रायड अनकांशस कहता है। जिसको फ्रायड जाता है। जहां न राग बचते हैं, न द्वेष बचते हैं, । कांशस माइंड कहता है, उसको महावीर वचन कहते हैं। मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं बचता।' जो तुम्हारे भीतर विचार के तल पर आ गया, प्रगट हो गया, इसको खयाल में ले लेना, यह ध्यान की अनिवार्य शर्त है। वह विचार-वचन। और जो अभी अप्रगट है, प्रगट होने के 'मन-वचन-काया रूप व्यापार का न रह जाना।' रास्ते पर है, अभी तैयार हो रहा है, अभी गर्भ में छिपा है-वह यह महावीर के ध्यान की पद्धति का अनिवार्य हिस्सा है। | मन। सबसे ज्यादा प्रगट शरीर है, उससे कम प्रगट विचार है, ध्यान की बहुत पद्धतियां हैं। महावीर की अपनी विशिष्ट पद्धति उससे भी कम प्रगट मन है। क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की तरफ है। उसका पहला सूत्र है: मन-वचन-काया रूप योगों का चलना और एक-एक को थिर करते जाना। जब इन तीनों का व्यापार नहीं रह जाए। | व्यापार नहीं रह जाता, तो जो घटना घटती है, उसका नाम जब तुम ध्यान करने बैठो, तो पहली चीज महावीर कहते हैं: ध्यान। 'राग और द्वेष और मोह नहीं।' राग, द्वेष, मोह बाहर शरीर थिर हो, कंपे न। इसके पीछे बड़ा विज्ञान है। क्योंकि की यात्रा पर हैं। भीतर तो तुम अकेले हो, किससे करो राग? शरीर और मन जुड़े हैं। जब शरीर कंपता है, तो मन भी कंपता किससे करो द्वेष? किससे करो मोह ? भीतर तो तुम्हारे है। जब मन कंपता है, तो शरीर भी कंपता है। तुमने देखा, जब अतिरिक्त कोई भी नहीं। तो अपने आप राग, द्वेष, मोह क्षीण हो क्रोध से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपने लगते हैं। मन कंपा, जाते हैं। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई अपना होता है, न शरीर कंपा। जब तुम भय से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपित पराया होता है। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई परिग्रह होता होने लगते हैं। मन कंपा, शरीर कंपा। जब तुम्हारा शरीर रुग्ण है। ध्यान की घड़ी में तुम्हारी कोई मालकियत नहीं रह जाती है। होता है, कंपता है, तो मन भी दीन-हीन हो जाता है। तो मन भी और मजा यही है कि ध्यान की घड़ी में तुम पहली दफा मालिक साहस खो देता है, आत्मविश्वास खो देता है, हीनग्रंथि से भर होते हो। मालकियत कोई भी नहीं रह जाती, साम्राज्य सब खो जाता है। शरीर और मन एक-दूसरे पर निरंतर क्रिया-प्रतिक्रिया जाता है और तुम सम्राट होते हो। करते हैं। शरीर स्वस्थ होता है, तो मन भी स्वस्थ होता है। मन | स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह कहा करते थे। पास कुछ स्वस्थ होता है, तो शरीर भी स्वस्थ होता है। था नहीं। जब अमरीका गये, तो वहां भी वह अपने को बादशाह वैज्ञानिक तो कहते हैं कि मन और शरीर दो चीजें नहीं हैं, एक ही कहते थे। कहते हैं अमरीकी प्रेसीडेंट उनको मिला था तो ही चीज के दो पहलू हैं। और ठीक कहते हैं। पश्चिम में तो उसने पूछा, और सब तो ठीक है, लेकिन आपकी बादशाहत विज्ञान ने शरीर और मन ऐसा कहना ही बंद कर दिया, उन्होंने | समझ में नहीं आती। लंगोटी को छोड़कर आपके पास कुछ भी एक ही शब्द बना लियाः मनोशरीर। दो कहना ठीक नहीं. एक | नहीं, आप कैसे बादशाह! राम तो बोलते थे तो भी वह कहते कि 'बादशाह राम' ऐसा कहता है। उन्होंने किताब लिखी : महावीर को यह प्रतीति साफ रही होगी। इसलिए पहली बात | 'बादशाह राम के छह हुक्मनामे।' राम हंसने लगे। उन्होंने वह कहते हैं-जब ध्यान में बैठो, तो शरीर को बिलकुल थिर | कहा कि इसीलिए तो मैं बादशाह हूं कि मेरे पास कुछ भी नहीं। कर लो। कभी कोशिश करना। जैसे-जैसे शरीर थिर होगा, | जिनके पास कुछ है, उन्हें चिंता होती है। जिनके पास कुछ है, वैसे-वैसे तुम पाओगे मन भी शांत होने लगा। फिर इसके बाद | उन्हें फिक्र होती है। जिनके पास कुछ है, वह उस कुछ के गुलाम वचन को थिर करना। विचार को। शरीर को पहले, क्योंकि वह होते हैं। मैं बादशाह इसीलिए तो हूं कि मैं किसी का गुलाम नहीं, सब से स्थूल है। फिर विचार की तरंगों को धीरे-धीरे शांत मेरे पास कुछ भी नहीं। पता नहीं अमरीकी प्रेसीडेंट को समझ में करना। कहना, शांत हो जाओ। फिर जब मन-काया और | आयी यह बात, या नहीं आयी। शायद ही आयी हो! क्योंकि वचन, तीनों शांत होने लगें-पहले काया, फिर वचन, फिर राजनीतिज्ञ को धर्म की बात शायद ही समझ में आये। ही है। 295 2010_03 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w जिन सूत्र भाग : 2 धर्म और राजनीति विपरीत दिशाएं हैं। राजधानी की तरफ का छेद छोटा है, धागा पतला है। मगर अगर चेष्टा जारी रहे, तो जाना हो तो तीर्थ कभी न पहुंच सकोगे। तीर्थ जाना हो, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों धागा पिरोया जा सकता है। राजधानी की तरफ पीठ कर लेना। कठिन होगा, असंभव नहीं। धर्म और राजनीति विपरीत हैं। एक दफा पापी भी पहंच | और महावीर कहते हैं, जिस सई में धागा पिरो लिया गया, वह स्वर्ग, राजनीतिज्ञ-संदिग्ध है बात! | गिर भी जाए तो खोती नहीं। और जिस सुई में धागा नहीं पिरोया ___ मैंने सुना है, एक दफा स्वर्ग के द्वार पर दो आदमी साथ-साथ है, वह अगर गिर जाए तो खो जाती है। पहुंचे-एक फकीर और एक राजनीतिज्ञ। द्वार खुला, फकीर यह ध्यान का धागा तुम्हारे प्राण की सई में पोना ही है। इसे | को तो बाहर रोक दिया द्वारपाल ने, राजनीतिज्ञ को बड़े बैंडबाजे डालना ही है। यह ध्यान का सूत्र ही तुम्हें भटकने से बचायेगा। बजाकर भीतर लिया। बड़े फलहार, स्वागतद्वार। फकीर बड़ा | तुम गिर भी जाओगे, तो भी खोओगे नहीं: वापिस उठ चिंतित हुआ। उसने कहा यह तो हद्द हो गयी अन्याय की! वहां आओगे। यह कठिन तो बहुत है। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, भी यही आदमी जमीन पर भी हार लेता रहा, हम सोचते थे कि | वे तुम्हें धोखा देते हैं। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हारा कम से कम स्वर्ग में तो हमें स्वागत मिलेगा, सांत्वना थी, वह भी शोषण करते हैं। यह सरल तो निश्चित नहीं है, यह कठिन तो है गयी। यहां भी इस आदमी को फिर अंदर पहले लिया गया, मुझे ही, लेकिन कठिनाई ध्यान के कारण नहीं है, कठिनाई तुम्हारे कहा कि रुको बाहर। यह कैसा स्वर्ग है! यहां भी राजनीतिज्ञ ही | कारण है। चला जा रहा है! बड़े फूल बरसाये, दुदुभी बजी। ध्यान अपने आप में तो बड़ा सरल है, सीधी-सी बात है। सब जब सब शोरगुल बंद हो गया, तब फिर द्वार खुला और थिर हो जाए, शांत हो जाए, ध्यान घट जाता है। लेकिन तुमने द्वारपाल ने कहा, अब आप...आप भी भीतर आ जाएं। उसने कंपने का इतना अभ्यास किया है कि थोड़ा अभ्यास अकंपन का सोचा कि शायद मेरे लिए भी कोई इंतजाम होगा, लेकिन वहां भी करना होगा। तुमने मन चलाने के लिए इतनी स्पर्धा की है कोई नहीं था; न बैंड, न बाजा। वह थोड़ा चकित हुआ। उसने अब तक, सारा शिक्षण, सारा संस्कार मन को ही चलाने का है। कहा, क्षमा करें, लेकिन यह मामला क्या है? हम जिंदगीभर तुमने मन को तो खूब सीखा है, ध्यान को सीखा नहीं, बस यही परमात्मा की पूजा और प्रार्थना में लगे रहे, और यह स्वागत! अड़चन है। तुम्हारा सारा जीवन-व्यापार मन से चला है। और और यह आदमी कभी भूलकर भी परमात्मा का नाम न लिया! | ध्यान के लिए तो कोई जीवन में जगह नहीं है। इसलिए तम भूल तो उस द्वारपाल ने कहा, तुम समझे नहीं। तुम्हारे जैसे फकीर तो गये। तुम्हारी ध्यान की क्षमता जंग खा गयी है। बस उतनी ही सदा से आते रहे, राजनीतिज्ञ पहली दफा आया है। और फिर कठिनाई है। जिस दिन ध्यान देना शुरू करोगे, जंग थोड़ी साफ सदियां बीत जाएंगी फिर शायद कभी आये! वह तो आता ही करोगे, फिर निखर आयेगा तुम्हारा स्वभाव। नहीं. इधर कभी आने का मौका ही नहीं मिलता। | वह ध्यान, वह ध्याता आसन बांधकर और मन-वचनबाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा है। मोह है। काया के व्यापार को रोककर दष्टि को नासाग्र पर स्थिर करके मित्र हैं, शत्रु हैं। भीतर के जगत में तुम बिलकुल अकेले हो। मंद-मंद श्वासोच्छवास ले।' शुद्ध एकांत है। उस शुद्ध एकांत में राग-द्वेष खो जाते हैं। मोह पहले शरीर को थिर कर लिया, फिर मन-वचन-काया को खो जाता। लेकिन तुम्हें ये शर्ते पूरी करनी पड़ें-काया, वचन, थिर किया, फिर शांत थिर आसन में बैठे हुए दृष्टि नासाग्र पर मन। इन तीनों को थिर करना पड़े। इस चेष्टा में लग जाओ। रखी। इसका उपयोग है। सिर्फ इतना ही उपयोग है, वह खयाल यह चेष्टा शरू में बड़ी कठिन होती है। ऐसे जैसे आंखें कमजोर लेना। अगर तम आंख खोलकर बैठो ध्यान में-परी आंख हों और कोई आदमी सुई में धागा डाल रहा हो। बस ऐसी ही खोलकर बैठो-तो हजार व्यवधान होंगे। कोई निकला, कोई कठिनाई है। आंखें हमारी कमजोर हैं। दृष्टि हमारे पास नहीं है, गया, पक्षी उड़ा, सड़क से कोई गुजरा—कुछ न कुछ होता हाथ कंपते हैं। सुई में धागा डाल रहे हैं, कंप-कंप जाता है। सुई | रहेगा। तो आंख पर जब दृश्य बदलते रहते हैं, तो उनकी वजह 1296 2010_03 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वरा से जीना ध्यान है से भीतर चित्त पर कंपन होते हैं। तो हम सोचते हैं, फिर बेहतर है मन के वेग श्वास को प्रभावित करते हैं। इससे उलटा भी सच आंख बंद कर लें। लेकिन आंख तुमने बंद की कि तुम्हारे आंख है। श्वास का परिवर्तन मन को प्रभावित करता है। तुम कभी बंद करने के साथ सपने शुरू हो जाते हैं। तुमने जब भी आंख | कोशिश करके देखो। क्रोध आ जाए, तब तुम धीरे-धीरे श्वास बंद की है, तो बस जब तुम सोने गये हो तभी बंद की है। और तो लेकर क्रोध करने की कोशिश करो, तुम बड़ी मुश्किल में पड़ तुम कभी आंख बंद करते नहीं। तो ऐसोसिएशन, एक संबंध जाओगे। तुम पाओगे, अगर श्वास धीमी लेते हो, क्रोध नहीं बन गया है। आंख बंद करते ही सपने शुरू हो जाते हैं। तुम बैठो होता। अगर क्रोध होता है, तो श्वास धीमी नहीं रहती। तुम कुर्सी पर आराम से आंख बंद करके, थोड़ी देर में तुम पाओगे, कभी बिलकुल श्वास धीमी लेकर संभोग में उतरने की कोशिश दिवास्वप्न शुरू हो गया। जागे हो और सपना देख रहे हो। करो। मुश्किल पड़ जाएगी। कामऊर्जा उठती न मालूम पड़ेगी, तो चाहे वास्तविक जगत में परिवर्तन हो रहे हों, तो भी तुम्हारे क्योंकि श्वास की चोट चाहिए। श्वास का ताप चाहिए। भीतर कंपन होता है; आंख बंद करके सपने देखो, तो भी कंपन| कामवासना में उतरना तो एक तरह का बुखार है। जब तक होगा। क्योंकि दृश्य फिर उपस्थित हो गये। इन दोनों से बचने के श्वास जोर से ताप पैदा न करे, आक्सीजन जरूरत से ज्यादा लिए सभी ध्यानियों ने नासाग्र-दष्टि पर जोर दिया है। तो मध्य | शरीर में न दौडे. तब तक शरीर की ऊर्जा बाहर फिंकने को राजी में ठहरा लो। न तो आंख खोलकर देखो कि बाहर वस्तुओं का नहीं होती। उसको तो फेंकने के लिए भीतर से धक्के चाहिए जगत दिखायी पड़े, न आंख बंद करके देखो, नहीं तो सपने का | श्वास के। आदमी की श्वास उसके मन को थिर करती है, या जगत दिखायी पड़ेगा। तुम नाक के नोक पर अपनी आंख को अथिर करती है। रोककर बैठ जाओ। आधी खुली आंख सपने को भी कठिनाई तो महावीर ठीक कह रहे हैं, नासिकाग्र-दृष्टि हो, और श्वास होगी, आधी खुल आंख बाहर की चीजें भी दिखायी नहीं पड़ेंगी। | धीमी-धीमी, आनंद-पूर्ण, मंद-मंद, मंद-मंद श्वासोच्छवास। धीरे-धीरे जब अभ्यास सघन हो जाए, जब नासाग्र-दृष्टि में क्योंकि ध्यान की अवस्था तो ठीक संभोग से उलटी अवस्था है। चित्त थिर होने लगे, रस बहने लगे, सुख की पुलक उठने लगे, ध्यान की अवस्था तो क्रोध से उलटी अवस्था है। ध्यान की तब तुम आंख बंद करके भी कर सकते हो। फिर सपना नहीं अवस्था तो दौड़ने से उलटी अवस्था है। दौड़ने में श्वास तेज हो आयेगा। और जब आंख बंद करने में सपना न आये, तो फिर जाती है, और ध्यान की अवस्था तो थिर होना है, दौड़ना तुम खली आंख से भी ध्यान कर सकते हो। फिर बाहर लोग बिलकल बंद करना है। शरीर को जरा कंपने भी नहीं देना है, तो चलते रहें, फिरते रहें, घटनाएं घटती रहें, तुम्हारे भीतर कोई श्वास की कोई जरूरत नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा होगा, ध्यान अंतर न पड़ेगा। लेकिन प्रथम जो शिशु की भांति प्रविष्ट हो रहा | करते-करते तुम डर भी जाओगे कि कहीं श्वास रुक तो नहीं है ध्यान के जगत में, उसके लिए नासाग्र-दृष्टि बड़ी उपयोगी है। गयी! घबड़ाना मत। वे बड़े कीमती क्षण हैं, जब तुम्हें ऐसा 'और मंद-मंद श्वासोच्छवास ले।' खयाल किया तुमने लगता है, श्वास रुक तो नहीं गयी! तुम ध्यान के करीब आ रहे, कभी कि तुम्हारी श्वास तुम्हारे चित्त की दशाओं से बंधी है। जब घर के करीब आ रहे। उस वक्त चौंककर घबड़ा मत जाना, नहीं तुम क्रोधित होते हो, श्वास ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। जैसे ऐसे तो घबड़ाते से ही श्वास का छंद फिर टूट जाएगा। जब ऐसा रास्ते पर चल रहे हो-कच्चे रास्ते पर। नीची-ऊंची हो जाती लगने लगे कि श्वास रुक रही है, बड़े आनंदित होना, बड़े है, गति टूट जाती है। लय भंग हो जाता है। छंद बिखर जाता अनुगृहीत होना। कहना, हे प्रभु, धन्यवाद! तो घर करीब आ है। जब तुम प्रसन्न हो, तब खयाल किया, श्वास में एक लय रहा है! होती है। एक संगीत होता है। जब तुम कामवासना से भरते हो, जब कोई बिलकुल गहरे ध्यान में पहुंच जाता है, तो श्वास तब खयाल किया, श्वास विक्षिप्त हो जाती है। बड़े जोर से नाममात्र को रह जाती है। पता ही नहीं चलता कि चल रही है या चलने लगती है। जब तुम्हारा चित्त बिलकुल कामवासना से नहीं चल रही है। क्योंकि अब कोई भी गति नहीं हो रही, तो | मुक्त होता है, तब श्वास बड़ी शांत, धीमी, थिर हो जाती है। श्वास की कोई जरूरत नहीं है। सब गति 2971 2010_03 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 NA श्वास की जरूरत है, जितने से शरीर और आत्मा का धागा जुड़ा परम जीवन का द्वार खुलता है। रहता है, बस। वह बड़ी धीमी है। इसीलिए योगी चाहते हैं तो | 'अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्दा करे, सब प्राणियों से जमीन के नीचे महीनों तक रुक जाते हैं। चमत्कार कुछ भी नहीं क्षमा-भाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके है। सिर्फ मंद-मंद श्वास लेने की कला है। आक्सीजन की तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं।' जरूरत इतनी कम कर लेते हैं कि उस छोटी-सी गुहा में जमीन के | तो ध्यान कोई सदा करने के लिए नहीं है। ध्यान औषधि है। भीतर जितनी आक्सीजन है, वह महीने-भर तक काम दे देती है। बीमारी जब चली गयी, तो ध्यान को भी छोड़ देना। जब तक हमारी आक्सीजन की जरूरत बहुत ज्यादा है। क्योंकि श्वास बीमारी है, तब तक औषधि है। जब ध्यान की भी जरूरत नहीं हम बहुत ले रहे हैं। शरीर में हजार तरह की क्रियाएं चल रही हैं। | रह जाती, तभी समाधि फलती है। जो योगी जमीन के भीतर बैठता है, वह जो महावीर कह रहे हैं समाधि का अर्थ है, आत्मा का स्वास्थ्य। मिल गया, वापिस। यही करता है। शरीर को थिर, वचन को थिर, मन को थिर, कांटा चुभा था, दूसरे कांटे से निकाल दिया, फिर दोनों कांटे फेंक नासाग्र-दृष्टि और श्वास को धीरे-धीरे मंद करता जाता है। फिर दिये। विचार का कांटा चुभा है, ध्यान के कांटे से निकाल लेना एक ऐसी घड़ी आ जाती है कि श्वास करीब-करीब रुक जाती है। फिर दोनों कांटे फेंक देने हैं। तो ध्यान कोई सदा नहीं करते है। उस करीब-करीब श्वास रुकी हालत में योगी महीनों तक भी रहना है। ध्यान तो सीढ़ी है। औषधि है। उपाय कर लिया, काम छोटी-सी जगह में रह सकता है। उस जगह में जितनी हवा है, पूरा हो गया, ध्यान भी गया। उतनी पर्याप्त है। | तो महावीर कहते हैं, जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं। तम्हें पता होगा. मेढक वर्षा के बाद जमीन में छिप जाते हैं और जब तक तुम्हें अतीत का सारा कचरा समाप्त होता हुआ न श्वास बंद कर लेते हैं। वैज्ञानिक बहुत चकित रहे हैं। साइबेरिया दिखायी पड़े। जब तुम्हें ऐसा दिखायी पड़े कि अतीत सब समाप्त में जो सफेद भाल होते हैं, वे भी छह महीने जब अंधेरा हो जाता हो गया, जैसे मैं कभी था ही नहीं, सब अतीत पोंछ डाला; जब है साइबेरिया में छह महीने सूरज होता है, छह महीने तुम इतने नये हो गये जैसे सुबह ही ओस, जैसे तुम अभी-अभी रात—तो रात के समय में वे सब बर्फ में सोकर पड़ जाते हैं, पैदा हुए; जब तुम इतने नये और ताजे हो गये, तो फिर ध्यान की श्वास बंद कर लेते हैं। मरते नहीं। छह महीने! इसको विज्ञान कोई जरूरत नहीं। अब तुम समाधि में जी सकते हो। अब कहता है-हाइबरनेशन। तुम्हारा उठना, बैठना, चलना, सब समाधि है। योगियों ने यह कला बहत पहले खोज ली, कि जब मेढक कर अपने पर्वकृत बरे आचरण की गर्दा करे। सब प्राणियों से सकता है, रीछ कर सकते हैं, भालू कर सकते हैं, तो आदमी क्यों क्षमाभाव चाहे...।' नहीं कर सकता? क्योंकि शरीर का शास्त्र तो एक ही जैसा है। यह सब बातें ध्यान में सहयोगी हैं। इनसे सहायता मिलेगी। अगर सब थिर हो जाए, तो प्राणवायु की जरूरत कम हो जाती जो बुरा किया है अतीत में, अब दुबारा न करूंगा। जो बुरा है। इसलिए ध्यान में अगर कभी तुम्हें ऐसा हो कि श्वास थिर हो किया, वह बुरा था। तुमने खयाल किया, आमतौर से हम बुरा जाए, तो घबड़ा मत जाना। घबड़ाने से तो बाहर फिंक जाओगे। कर लेते हैं, हम जानते भी हैं कि बुरा हो गया, तो भी हम बड़ी मुश्किल से जो पाया था, खो जाएगा। तब तो और भी राजी रेशनलाइज़ेशन करते हैं। हम हजार तर्क जुटाते हैं, हम कहते हैं हो जाना, और भी श्वास को कह देना कि तू बिलकुल विदा होजा वह मजबूरी थी। या इसके अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता तो भी ठीक, अगर मृत्यु भी आती मालूम पड़े तो कहना कि ठीक था। अन्यथा कोई मार्ग ही न था। या हम सिद्ध करने की मैं मरने को राजी हूं। क्योंकि ध्यान में मर जाने से बड़ा और कोशिश करते हैं कि हमने जो किया, ठीक ही किया। आदमी सौभाग्य क्या। मरना तो होगा ही। लेकिन जो ध्यान में मर गया, बड़े तर्क जटाता है, गलत को भी सही सिद्ध करने के लिए। उससे बड़ा सौभाग्य कोई भी नहीं है। जीवन से बड़ा सौभाग्य है | लेकिन महावीर कहते हैं, अगर तुम गलत को सही सिद्ध करने ध्यान में मर जाना। मगर कोई मरता नहीं, ध्यान के क्षण में तो की कोशिश में लगे हो, तो एक बात पक्की है, ध्यान में कभी न 298 2010_03 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुंच सकोगे। गलत को गलत मान लेना, स्वीकार कर लेना, क्षमा मांग लेना, क्योंकि गलत को गलत की तरह जानते ही फिर उसके दुबारा दोहरने का कारण नहीं रह जाता। 'अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे।' सब प्राणियों से। महावीर कहते हैं, इसकी फिकर न करे कि किसके साथ मैंने बुरा किया, क्षमा ही मांगनी है। तो इसमें क्या कंजूसी! इसके पीछे बड़ा राज है। क्योंकि महावीर कहते हैं, हम इतने जन्मों से इस पृथ्वी पर हैं कि करीब-करीब हम सभी के साथ बुरा-भला कर चुके होंगे। इतनी लंबी यात्रा है कि हम करीब-करीब सभी से मिल चुके होंगे। असंभव है यह बात कि कोई भी ऐसा पृथ्वी पर हो जिससे किसी जन्म में, किसी मार्ग पर, किसी चौराहे पर मिलना न हुआ हो। तो महावीर कहते हैं, इतना लंबा अतीत है, तुम कहां हिसाब करोगे किससे क्षमा मांगें, किससे न मांगें ! और फिर क्षमा ही मांगनी है, तो इसमें क्या हिसाब-किताब रखना! सभी से क्षमा मांग लेना । 'सभी प्राणियों से क्षमाभाव चाहे । प्रमाद को दूर करे।' तंद्रा को तोड़े। निद्रा को तोड़े, आलस्य को छोड़े। क्योंकि जितने ही तुम तेजस्वी बनोगे, जागरूक बनोगे, उतनी जल्दी घर करीब आयेगा, उतनी जल्दी मंजिल करीब आयेगी। नींद नींद में थड़ाते - लथड़ाते, किसी तरह चलते-चलते तुम मंजिल तक पहुंच न पाओगे। तुम कहीं बीच में मार्ग पर सो जाओगे । 'और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं।' संघर्ष है। हजार बाधाएं हैं। मन के पुराने तर्क हैं। पुरानी आदतें हैं। संस्कार हैं। गलत को ठीक करने की चेष्टा अहंकार की चेष्टा है। दूसरा ठीक भी करे, तो हम गलत मानने को तत्पर रहते हैं। खुद गलत भी करें तो ठीक सिद्ध करने का उपाय करते हैं। ये सब उपद्रव हैं। इन सब उपद्रवों को पार कर के ही कोई ध्यान तक पहुंचता है। फजा में मौत के तारीक साये थरथराते हैं हवा के सर्द झोंके कल्ब पर खंजर चलाते हैं गुजश्ता इसरतों के ख़्वाब आईना दिखाते हैं मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं फजा में मौत के तारीक साये थरथराते हैं। 2010_03 त्वरा से जीना ध्यान है। हवा के सर्द झोंके कल्ब पर खंजर चलाते हैं और हृदय प्रतिपल क्षीण हो रहा है, जैसे कि हवा का हर झोंका छुरी चला रहा हो । प्रतिपल हम मर रहे हैं। एक घड़ी गयी, एक घड़ी जिंदगी गयी। एक घड़ी गयी, एक घड़ी मौत करीब आयी । गुजश्ता इसरतों के ख़्वाब आईना दिखाते हैं और इंद्रियों की कामवासना है, सुखभोग की आकांक्षाएं हैं, वे नये-नये सपने बुने रही हैं। इधर जीवन हाथ से जा रहा, उधर वासना सपने बुन रही है। इधर मौत पास आ रही है, उधर वासना खींचे चली जाती है। वह कहती है, आज की रात और ! गुजरता इसरतों के ख़्वाब आईना दिखाते हैं मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं जमीं चीं -बर - जबीं है आसमां तखरीब पर माइल रफीकाने - सफर में कोई बिस्मिल है कोई घायल तआकुब में लुटेरे हैं, चट्टानें राह में हाइल मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं बड़ी चट्टानें हैं। बड़ी बाधाएं हैं। हजार तरह के उपद्रव हैं। कोई हत्यारा है, कोई घायल है, कोई दुखी है, कोई दुखी कर रहा है। इन सबसे, इन सबके बीच से आसमान नाराज मालूम पड़ता है, जमीन क्रुद्ध मालूम पड़ती है, ऐसा लगता है हम अजनबी हैं और हर चीज हमारी दुश्मन है। फिर भी आदमी को बढ़ते ही जाना है। चिरागे- दैर फानूसे-हरम कंदीले-रहबानी ये सब हैं मुद्दतों से बेनियाजे- नूरे - इर्फानी न नाकूसे बिरहमन है, न आहंगे-हुदी -ख्वानी मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं और इस सबसे भी ऊपर और एक मुश्किल खड़ी हो गयी है। चिरागे- दैर फानूसे- हरम कंदीले रहबानी मंदिर का दीपक कभी का बुझ गया। काबे का फानूस मुर्दा है। उसमें कोई ज्योति नहीं । चिरागे - दैर फानूसे- हरम कंदीले-रहबानी गिरजे की मोमबत्ती में कोई रोशनी नहीं रही। ये सब हैं मुद्दतों से बेनियाजे- नूरे - इर्फानी न - मालूम कितनी सदियों से इनके साथ परमात्मा का संबंध हवा में सब तरफ मौत की अंधेरी छाया है। प्रतिक्षण मौत आ छूट गया है। परमात्मा का नूर अब इनमें झलकता नहीं । सकती है, किसी भी क्षण मौत आ सकती है। न नाकूसे बिरहमन है 299 . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 न तो ब्राह्मण के शंखनाद की आवाज जगाने को है। ध्यान जिसका सध गया, हिमालय सध गया भीतर। तुम न आहंगे-हुदी-ख्वानी गौरीशंकर पर विराजमान हो गये भीतर। फिर तुम बीच बाजार में और न कुरान का पाठ है। न सुबह पढ़नेवाली अजान है। कोई बैठे रहो, तो अंतर नहीं पड़ता। जिसका ध्यान सध गया, उसे जगाने को नहीं। नींद के हजार उपाय हैं। जगानेवाले खुद गहरे फिर कोई विघ्न न रहा, कोई बाधा न रही। ध्यान बड़ी से बड़ी सोये हैं। संपदा है। शांति का, आनंद का एकमात्र आधार है। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं। तुम दूसरे के द्वारा जल्दी ही परेशान हो जाते हो। क्योंकि चैन लेकिन ध्यानी को इन सारी कठिनाइयों को पार करके बढ़ते ही से होने का पाठ तुमने सीखा नहीं। दूसरा तुम्हें जल्दी ही क्षुब्ध जाना है। कठिनाइयों को बहाना मत बनाना। यह मत कहना, कर देता है। हालांकि तुम कहते हो, यह आदमी जिम्मेवार है। हम इस वजह से न कर सके। | इसने गाली दी, इसलिए मैं क्रुद्ध हो गया। असली बात दूसरी मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, क्या करें, समय नहीं है। है। तुम्हारे पास ध्यान नहीं है, इसलिए इसकी गाली काम कर ध्यान कब करें? ये वे ही लोग हैं, जो सिनेमा में भी बैठे हैं। ये वे गयी। तुम्हारे पास ध्यान होता, इसकी गाली कितनी ही आग से ही लोग हैं, जो होटल में भी दिखायी पड़ते हैं। ये वे ही लोग हैं, भरी आती, तुम्हारे पास आकर बुझ जाती। अंगारा नदी में जो सबह रोज अखबार बड़ी तल्लीनता से पढ़ते हैं। ये वे ही फेंककर देखो। जब तक नदी को नहीं छता, तब तक अंगारा है। लोग हैं जो रेडियो भी सुनते हैं, टेलिविजन भी देखते हैं। ये वे ही जैसे ही नदी को छुआ कि राख हुआ। लोग हैं, जो ताश भी खेलते हैं। और जब ताश खेलते मिल जाते तुम्हारे भीतर ध्यान की सरिता हो, तो न गालियां चुभती न हैं, तो कहते हैं, क्या करें, समय काट रहे हैं। और इनसे कहो | क्रोध, न अपमान, न सम्मान, न सफलता न असफलता, न यश ध्यान, तो कहते हैं समय नहीं है। और इन्हें खयाल भी नहीं | न अपयश, कुछ भी नहीं छता। भीतर ध्यान हो, तो महावीर आता कि ये क्या कह रहे हैं! ये कैसा बहाना कर रहे हैं! कहो | कहते हैं, तुम पहाड़ पर रहो कि भरे बाजार में, सब बराबर है। कि ध्यान, तो वह कहते हैं, अभी तो बहुत संसार में उलझनें हैं। रोम-रोम में नंदन पुलकित, संसार की उलझनें कब कम होंगी? कभी कम हुई हैं? बढ़ती ही सांस-सांस में जीवन शत-शत जाती हैं। इनसे कहो ध्यान, तो तत्क्षण कोई तरकीब निकालते स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित हैं। तरकीब केवल इतना ही बताती है कि इन्हें अभी पता ही नहीं | मुझमें नित बनते-मिटते प्रिय! कि ये क्या गंवा रहे हैं। मुश्किल तो यह है, विडंबना यह है कि | स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या! पता हो भी कैसे। यह तो पाकर ही पता चलता है कि क्या गंवा स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या! रहे थे। यह तो ध्यान जिस दिन लगेगा, उस दिन पता चलता है | जिसके भीतर ध्यान की कीमिया पैदा हो गयी, वह अपने स्वर्ग कि अरे, हम किस चीज के लिए समय नहीं पा रहे थे। तब पता | को खुद ही निर्मित करने लगता है। वह मिट्टी छू देता है, सोना हो चलता है कि सब समय इसी पर लगा दिया होता तो अच्छा था। | जाती है। तुम सोना छओ, मिट्टी हो जाता है। तुम प्यारे से प्यारे क्योंकि जो ध्यान में गया समय, वही बचा हुआ सिद्ध होता है। | आदमी को मिल जाओ, जल्दी ही कटुता आ जाती है। तुम जो ध्यान के बिना गया, वह गया। वह रेगिस्तान में खो गयी | प्रीतम से प्रीतम व्यक्ति को खोज लो, जल्दी ही संघर्ष शुरू हो नदी। ध्यान में जो लगा, वही सागर तक पहुंचता है। शेष सब जाता है। ध्यानी मिट्टी को भी छुए, सोना हो जाता है। ध्यानी रेगिस्तान में भटक जाता है। | कुटिया में भी रहे, तो महल हो जाता है। ध्यानी के होने में कुछ "जिन्होंने अपने योग, अर्थात मन-वचन-काया को स्थिर कर | राज है। उसके पास भीतर का जादू है। वह जादू है। लिया और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया, उन | स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या! मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य | शून्य में भी लय बजती है। नर्क में भी फेंक दो ज्ञानी को, ध्यानी अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता है।' को, तो स्वर्ग बना लेगा। 300 2010_03 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वरा से जीना ध्यान हे Bimal तुम थोड़ा सोचो, अगर तुम्हें स्वर्ग भी किसी तरकीब | मतलब, जो तिथि बिना बताये आता है। अतिथि शब्द बड़ा से-पीछे के रास्ते से सही, रिश्वत के द्वारा, कोई तरकीब अदभुत है। 'गेस्ट' शब्द में वह बात नहीं है। 'मेहमान' में से-पहंचा भी दिया जाए, तो स्वर्ग तुम भोग सकोगे? तुम नर्क वह बात नहीं है। अब हमें अतिथि तो कहना ही नहीं चाहिए, बना ही लोगे। तुम्हारा नर्क तुम अपने भीतर लिये चलते हो। क्योंकि अब तो सभी तिथि बताकर आते हैं। पहले ही तुम जानते सब बात हो, चिट्ठी-तार करके आते हैं कि आ रहे हैं। अब कोई अतिथि नहीं दिन हो कि आधी रात हो, रहा। अतिथि का मतलब, जो अचानक आ जाए। अकस्मात! मैं जागता रहता कि कब तुम्हें ख्याल भी न था। सपने में झलक न थी, और आ जाए। मंजीर की आहट मिले, परमात्मा अतिथि है। जागे रहना है। कब आ जाएगा, पता मेरे कमल-वन में उदय नहीं। किस क्षण तुम्हारी अंतरंग-वीणा उसकी वीणा के साथ किस काल पुण्य प्रभात हो; बजने लगेगी, किस क्षण तुम नाचने लगोगे उसके साथ, किस किस लग्न में हो जाए कब क्षण उसके हाथ में हाथ आ जाएगा, कछ पक्का नहीं है। इसकी जाने कृपा भगवान की! कोई घोषणा नहीं हो सकती। एक ही उपाय है कि हम जागते ध्यान का केवल इतना ही अर्थ है-जागते रहना। सतत रहें। हम एक क्षण भी न गंवायें। वह कभी भी आये, हमें जागा जागते रहना। भीतर अंधेरा न हो, निद्रा न हो। पाये। वह कभी भी आये, हमें स्वागत के लिए तैयार पाये। तुम जानते सब बात हो, जागो हे अविनाशी! दिन हो कि आधी रात हो, जागो किरण-पुरुष, कुमुदासन, मैं जागता रहता कि कब विधुमंडल के वासी, मंजीर की आहट मिले, जागो, हे अविनाशी! कौन जाने कब परमात्मा पुकार दे! कौन जाने किस क्षण रत्नजड़ित पथचारी जागो, अस्तित्व बरस उठे! कौन जाने किस क्षण आकाश टूटे! उडु, वन, वीथि-बिहारी जागो, तुम जानते सब बात हो, जागो रसिक विराग लोक के, दिन हो कि आधी रात हो, मधुबन के संन्यासी, मैं जागता रहता कि कब जागो, हे अविनाशी! मंजीर की आहट मिले, जागने की कला का नाम ध्यान है। सोये रहना-संसारी; मेरे कमल-वन में उदय जागे रहना–संन्यासी। भीतर की घटना है। उठो-बैठो, किस काल पुण्य प्रभात हो; चलो-फिरो, जागरण न खोये। किस लग्न में हो जाए कब जागो, हे अविनाशी! जाने कृपा भगवान की! । जागो, मधुबन के संन्यासी!! जीसस की कहानी। एक धनी तीर्थयात्रा को गया। उसने जागो, हे अविनाशी!!! अपने नौकरों को कहा कि तुम जागे रहना, मैं कभी भी वापिस आ सकता हूं। घर लापरवाही में न मिले। तुम मुझे सोये न आज इतना ही। मिलो। तुम जागे रहना। मेरे आने की तिथि तय नहीं है। मैं कल आ सकता, मैं परसों आ सकता, मैं महीनेभर बाद आऊं, मैं सालभर बाद आऊं। पुराने शास्त्र परमात्मा को अतिथि कहते हैं। अतिथि का 301 ___ 2010_03 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education der 03 FOC WWW.JE Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रवचन गुरु है द्वार Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .5AM प्रश्न-सार नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे, लेकिन उन्होंने स्वयं को भगवान नहीं कहा। आप...? ध्यान के एक गहन अनुभव पर भगवान से मार्गदर्शन की प्रार्थना। INE अफसोस, दिल का हाल कोई पूछता नहीं! और सब यही कहते कि तेरी सूरत बदल गयी। और कि सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या आये! ___मैं क्या करूं?... आप उत्तर न देंगे तो पागल हो जाऊंगा। 2010_03 wwwjainelibrary.org Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानक ने न कहा हो, मैं कहता हूं कि नानक भगवान थे। और नानक ने अगर न कहा होगा, तो उन लोगों के कारण न कहा होगा जिनके बीच नानक बोल रहे थे। उनकी बुद्धि इस योग्य न रही होगी कि वे समझ पाते । कृष्ण तो नहीं डरे । कृष्ण ने तो अर्जुन से कहा – सर्व धर्मान परित्यज्य..., छोड़-छाड़ सब, आ मेरी शरण, मैं परात्पर ब्रह्म तेरे सामने मौजूद हूं। कृष्ण कह सके अर्जुन से, क्योंकि भरोसा था अर्जुन समझ सकेगा । नानक को पंजाबियों से इतना भरोसा न रहा होगा कि वे समझ पायेंगे। इसलिए नहीं कहा होगा। और इसलिए भी नहीं कहा कि नानक उस विराट परंपरा से थोड़ा हटकर चल रहे थे जिस विराट परंपरा कृष्ण हैं, राम हैं, उससे थोड़ा हटकर चल रहे थे। नानक एक नया प्रयोग कर रहे थे कि हिंदू और मुसलमान के बीच किसी तरह सेतु बन जाए। एक समझौता हो जाए। एक समन्वय बन जाए। मुसलमान सख्त खिलाफ हैं किसी आदमी को भगवान कहने के। अगर नानक सीधे-सीधे हिंदू-परंपरा में जीते तो निश्चित उन्होंने घोषणा की होती कि मैं भगवान हूं। लेकिन सेतु बनाने की चेष्टा थी। जरूरी भी थी। उस समय की मांग थी। मुसलमान को भी राजी करना था। मुसलमान यह भाषा समझ ही नहीं सकता कि मैं भगवान हूं। जिसने ऐसा कहा उसने मुसलमान से दुश्मनी मोल ले ली। में पहली बात, पहले ही प्रश्न की पंक्ति में पूछनेवाला कह रहा है— नानकदेव ! देव का क्या अर्थ होता है? देव का अर्थ होता है दिव्य, डिवाइन । दिव्यता का अर्थ होता है भगवत्ता । नानकदेव कहने में ही साफ हो गया कि मनुष्य के पार, मनुष्य से | ऊपर दिव्यता को स्वीकार कर लिया है। भगवान का क्या अर्थ होता है? बड़ा सीधा-सा अर्थ होता है - भाग्यवान । कुछ और बड़ा अर्थ नहीं। कौन है भाग्यवान ? जिसने अपने भीतर की दिव्यता को पहचान लिया। कौन है भाग्यवान ? जिसकी कली खिल गयी, जो फूल हो गया। कौन है भाग्यवान ? जिसे पाने को कुछ न रहा — जो पाने योग्य था, पा लिया। जब पूरा फूल खिल जाता है, तो भगवान है। जब गंगा सागर में गिरती है, तो भगवान है। जहां भी पूर्ण की झलक आती है, वहीं भगवान है। भगवान शब्द का अर्थ ठीक से समझने की कोशिश करो। | नाक हाथ बढ़ा रहे थे मित्रता का, इसलिए नानक को ऐसी भाषा बोलनी उचित थी जो मुसलमान भी समझेगा। नहीं तो जो मंसूर के साथ किया, वही उन्होंने नानक के साथ किया होता। या उन्होंने कहा होता, नानक भी हिंदू हैं, यह सब बकवास है। हिंदू प हला प्रश्न : नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे। लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं भगवान हूं। उन्होंने यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए। और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना चाहिए। पूछा है आर. एस. गिल ने । सिक्ख ही पूछ सकता है ऐसा प्रश्न | क्योंकि प्रश्न हृदय से नहीं आया। प्रश्न थोथा है, और बुद्धि से आया। प्रश्न परंपरा से आया। मान्यता से आया। पक्षपात से आया। पर समझने जैसा है, क्योंकि ऐसे पक्षपात सभी के भीतर भरे पड़े हैं। 2010_03 307 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग:2 और मुसलमान के एक होने की। बुद्ध की पूजा की। इस मुल्क में भगवत्ता की तरफ ऐसा सहज जिसको समन्वय साधना हो, वह बहुत सोचकर बोलता है। भाव है कि जिन्होंने इनकार किया, उनको भी भगवान मान लिया नानक बहुत सोचकर बोले। उन्होंने कृष्ण जैसी घोषणा नहीं की। गया। यह इस मुल्क की आंतरिक दशा है। उनकी जो घोषणा है, वह मुहम्मद जैसी है। उसमें मुसलमान को तो जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, वह भी कहते हैं—नानकदेव! फुसलाने का आग्रह है। पंजाब है सीमा-प्रांत, वहां हिंदू और नानक कहने से काम चल जाता। देव क्यों जोड़ दिया? मुसलमान का संघर्ष हुआ। वहां हिंदू और मुसलमान के बीच | 'भगवान' शब्द का उपयोग न किया, 'देव' शब्द को उपयोग विरोध हुआ। वहीं मिलन भी होना चाहिए। वहीं हिंदू और किया। लेकिन बात तो वही हो गयी। घोषणा तो हो गयी कि मुसलमान एक-दूसरे के सामने दुश्मन की तरह खड़े हुए, वहीं | नानक आदमी पर समाप्त नहीं हैं, आदमी से ज्यादा हैं। मैत्री का बीज भी बोया जाना चाहिए। सीमांत-प्रांत यदि | और ठीक ही है, वह आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी तो हैं समन्वय के प्रांत न हों, तो युद्ध के प्रांत हो जाते हैं। तो नानक ने | ही, लेकिन धन, आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी होना तो बड़ी गहरी चेष्टा की। | जैसे उनका प्रारंभ है, अंत नहीं। वहां से शुरुआत है, वहां इसलिए सिक्ख-धर्म बिलकुल हिंदू-धर्म नहीं है। न | समाप्ति नहीं। मुसलमान-धर्म है। सिक्ख दोनों के बीच है। कुछ हिंदू है, कुछ | 'नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे।' निश्चित ही। इसमें कोई दो मुसलमान। दोनों है। दोनों में जो सारभूत है, उसका जोड़ है। मत नहीं है। लेकिन जागते और सोते में कुछ फर्क करोगे? इसलिए सिक्ख-धर्म की पृथक सत्ता है। | प्रकृति और परमात्मा में फर्क क्या है? जागने और सोने का। लेकिन इसे हमें समझना होगा इतिहास के संदर्भ में, नानक प्रकृति है सोया हुआ परमात्मा। परमात्मा है जागी हुई प्रकृति। क्यों न कह सके जैसा कृष्ण कह सके। बुद्ध कह सके, महावीर | फर्क क्या है ? बुद्ध में और तुममें फर्क क्या है ? बुद्ध जागे हुए, कह सके, नानक क्यों न कह सके। नानक के सामने एक नयी तुम सोये हुए। तुम सोये हुए बुद्ध हो। आंख खोल ली कि तुम परिस्थिति थी, जो न बुद्ध के सामने थी, न महावीर के, न कृष्ण | ही हो गये। आंख की ओट में ही फर्क है, बस। आंख खोली कि के। न तो बुद्ध को, न महावीर को, न कृष्ण को, किसी को भी प्रकाश ही प्रकाश है। आंख बंद की कि अंधेरा ही अंधेरा है। मुसलमान के साथ सामना न था। यह नयी परिस्थिति, और नयी एक आदमी सो.रहा है, उसी सोये आदमी के पास एक जागा भाषा खोजनी जरूरी थी। और जीवंत पुरुष सदा ही परिस्थिति के हुआ आदमी बैठा है। दोनों आदमी हैं, सही। लेकिन क्या दोनों अनुकूल, परिस्थिति के लिए उत्तर खोजते हैं। यही तो उनकी एक ही जैसे आदमी हैं? तो फिर नींद और जागरण में कुछ फर्क जीवंतता है। उन्होंने ठीक उत्तर खोजा। लेकिन पूछनेवाले को | करोगे, न करोगे? नींद और जागरण में इतना क्रांतिकारी फर्क है सोचना चाहिए नानक देव क्यों? कि अगर हम जागे हुओं को कहें कि यह बिलकुल दूसरे ही ढंग इस देश में जो पले, वे चाहे हिंदू हों, चाहे जैन हों, चाहे सिक्ख | का आदमी है, तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं। क्योंकि सोया हुआ हों, चाहे बौद्ध हों, इस देश की हवा में, इस देश के प्राणों में एक आदमी क्या आदमी है! सोये हुए आदमी में और चट्टान में क्या संगीत है, जिससे बचकर जाना मुश्किल है। यहां तो मुसलमान | फर्क है? सोये हुए आदमी और वृक्ष में क्या फर्क है? मूछित भी जो बड़ा हुआ है, वह भी ठीक उसी अर्थ में मुसलमान नहीं रह आदमी और पत्थर में क्या फर्क है? न पत्थर जाग रहा है, न जाता जिस अर्थ में भारत के बाहर का मुसलमान मसलमान होता सोया हआ आदमी जाग रहा है। दोनों है। यहां के मुसलमान में भी हिंदू की धुन समा जाती है। महावीर | नींद में हम प्रकृति में गिर जाते हैं। जागकर हम परमात्मा में ने कहा, कोई भगवान नहीं, कोई संसार को बनानेवाला नहीं, उठने लगते हैं। और यह जागरण जिसको अभी हम जागरण लेकिन महावीर को माननेवालों ने महावीर को भगवान कहा। | कहते हैं, यह तो शुद्ध जागरण नहीं है। इसमें तो नब्बे प्रतिशत से बुद्ध ने कहा, सब मूर्तियां तोड़ डालो, सब मूर्तियां हटा दो, किसी ज्यादा नींद समाविष्ट है। जब कोई व्यक्ति सौ प्रतिशत जाग की पूजा की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्ध के माननेवालों ने | जाता है, तो उसी को किसी परंपरा में भगवान कहा है, किसी 308 Jair Education International 2010_03 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुहेद्वार परंपरा में अरिहंत कहा है, किसी परंपरा में तीर्थकर, किसी परंपरा रही है, जब लोग हिम्मत से घोषणा करें भगवत्ता की। में पैगंबर, किसी परंपरा में गुरु, कोई फर्क नहीं पड़ता, शब्दों का | क्योंकि जब कोई तुमसे कहता है मैं भगवान हूं...अगर वह ही फर्क है। लेकिन हम शब्दों से बंध जाते हैं। सिक्ख है, तो जो | यह कहता हो कि मैं भगवान हूं और तुम भगवान नहीं हो, तब तो उसने सुना है उससे बंध गया है। हिंदू है, तो बंध गया है; जैन | वह तुम्हारा दुश्मन है; और अगर वह इसलिए कहता हो कि मैं | है, तो बंध गया है। हम सब सने हए शब्दों से बंध जाते हैं। और भगवान है. क्योंकि तम भी भगवान हो: वह इसलिए घोषणा फिर शब्दों के कारण सत्यों को देखने में अड़चन हो जाती है। करता हो कि मैं भगवान हूं, ताकि तुम्हें भी याद आये तुम्हारे 'नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा भगवान होने की...देखो मेरी तरफ, अगर मैं भगवान हो सकता कि मैं भगवान हूं।' उन्हें अर्जुन न मिला होगा। क्योंकि मैं हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते, कोई भी कारण नहीं, कोई भगवान हूं, यह कहने के लिए कोई सुननेवाला चाहिए। कोई रुकावट नहीं; ठीक तुम जैसा हूं मैं, अगर मैं भगवान हो सकता समझनेवाला चाहिए। कोई आत्यंतिक प्रेम से सुननेवाला | हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते? हो सकते हो। अगर यह फूल चाहिए। अन्यथा यह बात विवाद ही पैदा करेगी, इससे कुछ हल खिला, तो तुम्हारी कली भी खिल सकती है। न होगा। मैं भगवान हूं, यह तो कहा ही जा सकता है किसी बड़े | यह घोषणा जरूरी है अब, क्योंकि द्वार फिर करीब आयेगा। गहरे श्रद्धा के क्षण में, जबकि दो व्यक्ति इतने जुड़े हों कि संदेह जैसे हर वर्ष मौसम का एक वर्तुल घूमता है-मंडलाकार; फिर का उपाय न हो। कृष्ण कह सके। वर्षा आती, फिर सर्दी आती, फिर गर्मी आती है, फिर वर्षा आती फिर यह भी खयाल रखें कि प्रत्येक जाग्रतपुरुष अपनी भाषा है-जैसे बारह महीने में एक वर्तुल घूमता है मौसम का, ऐसे ही | चुनता है, अपना ढंग चुनता है। कोई जाग्रतपुरुष किसी और आध्यात्मिक मौसम का भी एक वर्तुल है जो घूमता है। जैसे जाग्रतपुरुष का अनुकरण नहीं करता। तालमेल बैठ जाए, | चौदह वर्ष में बच्चा जवान होने लगता, वीर्य परिपक्व होता, ठीक; अनुकरण नहीं करता। नानक ने अपने ढंग से चुना। वासना जगती; और अगर सब ठीक चलता रहे तो बयालीस नानक को अपनी शैली बनानी पड़ी। अब अगर तुम इस तरह वर्ष के करीब वासना क्षीण होने लगती, ब्रह्मचर्य की याद आने सोचते फिरे कि जो बुद्ध ने कहा है वही नानक कहें, जो नानक ने लगती; अगर सब ठीक चलता रहे, तो सत्तर वर्ष का होते-होते कहा है वही मैं कहूं, तो तुम व्यर्थ की उलझन में पड़ रहे हो। मैं | व्यक्ति पुनः फिर बच्चे की तरह सरल हो जाता है। कुछ गड़बड़ वही कहूंगा जो मैं कह सकता हूं। नानक ने मुझसे नहीं पूछा, मैं | हो जाए, तो बात अलग है। वह नियम की बात नहीं है। भटक उनसे क्यों पूछू? नानक की मौज, उन्होंने नहीं कहा कि मैं गये तो बात अलग। अन्यथा नियम से सब चलता रहे, तो ऐसा भगवान हूं। मेरी मौज, मैं कहता हूं। होगा। एक वर्तुल है जीवन का भी। मरते-मरते फिर व्यक्ति और मैं मानता हूं कि अस्तित्व एक ऐसी घड़ी के करीब आ रहा सरल हो जाता है, जैसे छोटा बच्चा जन्म के बाद सरल होता। है, जहां यह घोषणा करनी उपयोगी है। हर पच्चीस सौ वर्ष में ठीक ऐसा ही एक बड़ा वर्तुल है, जो पच्चीस सौ वर्ष का घेरा मनुष्य की चेतना एक ऐसे द्वार के निकट आती है, जहां जागरण लेता है। हर पच्चीस सौ वर्ष में मनुष्य की चेतना ज्वार पर होती आसान है। बुद्ध से, महावीर से पच्चीस सौ वर्ष पहले है। और जब ज्वार हो, तब बड़ी सुगमता से ऊंचाइयां छुई जा कृष्ण हुए। कृष्ण ने भगवत्ता की घोषणा की। फिर पच्चीस सौ सकती हैं। जब ज्वार न हो, तब बड़ी कठिनता से ऊंचाइयां छई साल बाद बुद्ध, महावीर हुए; जरथुस्त्र हुआ परसिया में; | जा सकती हैं। लाओत्सू, कन्फयूशियस हुए चीन में; हेराक्लाइटस, सुकरात | नानक ने अपना समय देखा, मैं अलग अपना समय देख रहा हुए यूनान में। पच्चीस सौ वर्ष के बाद फिर एक गहन विस्फोट हूं। नानक मेरे समय के लिए नहीं बोले, मैं उनके समय के लिए हुआ और सब तरफ सारे जगत में एक गुनगुनाहट गूंज गयी नहीं बोलूंगा। नानक अपने भक्तों से बोले, मैं अपने भक्तों से अध्यात्म की। फिर पच्चीस सौ वर्ष पूरे होते हैं। इस सदी के पूरे बोल रहा हूं। नानक का अपना प्रयोजन है, मेरा अपना प्रयोजन होते-होते सारी पृथ्वी पर धर्म की अनुगूंज होगी। घड़ी करीब आ है। इसलिए व्यर्थ के प्रश्न बीच में मत उठाओ। क्या नानक ने 309 2010_03 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कहा, यह नानक से पूछो कहीं मिल जाएं तो। मुझसे क्या पूछते कहां है, परमात्मा से बचने की जगह कहां है! हो? क्या मैं कहता हूं, वह मुझसे पूछो। ___ मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जितने भी तुम्हें पूजना हो। तुम्हें जो 'उन्होंने यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर | रूप भा जाए, पूजो। तुम्हें जो नाम भा जाए, पूजो। इस अर्थ में किसी को भी नहीं मानना चाहिए।' मैं तुमसे कहता हूं, तुम | हिंदू बड़े अदभुत हैं। दुनिया का कोई धर्म हिंदुओं जैसी गहराई किसी को भी मानो, हर मानने में एक ही परमात्मा को मान सकते | को नहीं छू पाया। क्योंकि दुनिया के सभी धर्म किसी अर्थों में हो, करोगे क्या? पूजो पीपल को कि पहाड़ को, चरण उसी के | थोड़े संकीर्ण हैं। हिंदुओं के पास एक ग्रंथ है—विष्णु पाओगे। वहीं सिर झुकेगा। उसके अतिरिक्त कोई है नहीं। मैं | सहस्रनाम। उसमें परमात्मा के हजार नाम हैं। कोई भी नाम तो तुमसे कहता हूं कहीं भी चढ़ाओ पूजा के फूल, सब पूजा के छोड़ा ही नहीं। जो भी नाम हो सकते थे संभव, वह सब जोड़ फूल उसी के चरणों में गिर जाते हैं, क्योंकि उसी के चरण हैं, और दिये हैं। कोई भी नाम लो, उसी का नाम है। कोई को भी पुकारो, कुछ है ही नहीं। फूल भी उसी के हैं, चरण भी उसी के हैं, उसी को पुकार रहे हो। चुप रहो, तो उसके साथ चुप बैठे हो; चढ़ानेवाला भी उसी का है। इसलिए मैं तुम्हें संकीर्ण नहीं बोलो, तो उसके साथ बोल रहे हो। इधर तुम सोचते हो मैं तुमसे बनाता। मैं नहीं कहता कि सिर्फ एक को छोड़कर किसी को मत बोल रहा हूं, तो तुम गलती में हो। मैं उसी से बोल रहा हूं। तुमसे मानो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम किसी को भी मानो, एक ही माना मैं नाहक सिर नहीं मारूंगा। तुम तो दीवाल जैसे हो। मैं उसी से जाएगा। अंततः तुम पाओगे वही एक पूजा गया। मंदिर में पूजो बोल रहा हूं। तुम्हें जब पुकारता हूं, तो उसी को पुकार रहा हूं। कि मस्जिद में, राम में कि कृष्ण में, बुद्ध में कि महावीर में, कहीं मुसलमान, ईसाई, यहूदी, तीनों धर्म यहूदियों की संकीर्णता से भी सिर झुकाओ, किसी के भी सामने सिर झुकाओ। पैदा हुए हैं। तीनों धर्मों का मूलस्रोत यहूदी है। और सिक्ख-धर्म तमने नानक की कहानी सनी? गये काबा. रात सो गये तो भी आधा यहदी है। इसलिए थोडी-सी संकीर्णता है। नानक में काबा के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो गये। तो न रही होगी, सिक्खों में है। मुल्ला-मौलवी नाराज हो गये होंगे, भागे हुए आये। कहा कि हिंदू कहते हैं, सभी कुछ उसका है। इसलिए तो हिंदू बड़े | कैसे नासमझ हो! और हमने तो सुना कि तुम बड़े ज्ञानी हो, | अदभुत हैं। पत्थर रख लेते हैं वृक्ष के नीचे, सिंदूर पोत देते हैं, औलिया हो; यह कैसा ज्ञान? तुम्हें तो साधारण शिष्टाचार के | पूजा शुरू! अभी पत्थर था, अभी सिंदूर लगाया, पूजा शुरू! नियम भी मालूम नहीं। पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो रहे! | पत्थर को भगवान बनाने में देर नहीं लगती। अनगढ़ पत्थर पूजने परमात्मा की तरफ पैर करके सो रहे! कहानी कहती है कि नानक | लगते हैं। गढ़ो, मूर्ति बनाओ, समय जाया होता है। मिट्टी के हंसे और उन्होंने कहा ऐसा करो, तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो गणेश बना लेते हैं। पूज भी लेते हैं, पूजने के बाद समुंदर में सिरा जहां परमात्मा न हो। कहते हैं उन्होंने पैर घुमाये सब तरफ, भी आते हैं। बड़े अदभुत लोग हैं। क्योंकि उसी का समुंदर है, लेकिन जहां भी पैर घुमाये, वहीं काबा का पत्थर हो गया। मिट्टी उसी की है; बना लिया, सिरा दिया। दुनिया में कोई जाति ऐसा हुआ हो, जरूरी नहीं। लेकिन कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। अपनी मूर्तियों को सिराती नहीं। बना ली, तो फिर घबड़ाती है, मैं नहीं मानता कि ऐसा वस्तुतः हुआ है। पर इतना मैं जानता हूं कहीं मूर्ति का अपमान न हो जाए। हिंदू अदभुत हैं। नाच-गाना कि होना चाहिए ऐसा ही। क्योंकि काबा का ही पत्थर सब तरफ करके जाकर नदी में डुबा आते हैं कि अब बस विश्राम करो, अब है, सब पत्थरों में वही पत्थर है। पत्थर मात्र काबा के पत्थर हैं, | हमको भी तो चैन लेने दो। और भी तो काम हैं! फिर अगले तो कहां पैर करो! और ऐसा थोड़े ही है कि परमात्मा उत्तर में है, | साल देखेंगे। और फिर तुम सभी जगह हो। सागर तुम्हारा, दक्षिण में नहीं: परब में है, पश्चिम में नहीं; ऊपर है, नीचे नहीं। मिट्टी तुम्हारी, आकाश तुम्हारा। सब तुम्हारा है। तो ऐसा मोह परमात्मा ने तो सभी कुछ घेरा है। चलो तो उसमें, बैठो तो उसमें, क्या बांधना! सोओ तो उसमें ओढ़नी भी वही है, बिछौनी भी वही है, करोगे ध्यान रखना, परमात्मा निराकार है, इसका अर्थ यही हआ कि क्या! खाओ तो उसे, पीओ तो उसे, श्वास लो तो उसकी, उपाय सभी आकार उसके। मुसलमानों ने बड़ी जिद्द पकड़ ली कि 310/ | Jair Education International 2010_03 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुहद्वार परमात्मा निराकार है तो मूर्तियां तोड़ने लगे। अगर समझे होते कहते हैं कि गुरु साक्षात ब्रह्म है। परमात्मा तो दूर है, दिखायी कि परमात्मा निराकार है, तो यही समझ में आता कि सभी नहीं पड़ता है। गुरु दिखायी पड़ता है। परमात्मा तो आकाश की आकार उसके। निराकार का अर्थ आकार तोड़ना नहीं है, गंगा है, कहां है पता नहीं, गुरु ऐसी गंगा है जो तुम्हारे घर के द्वार आकार में उसको देखना है। आकार रोक न पाये, आकार द्वार से बह रही है। स्नान तो उसी में हो सकता है। इसमें स्नान होगा, बने, दरवाजा बने; बाधा न बने। | तो ही तुम परमात्मा की गंगा के योग्य बनोगे। पहला परमात्मा तो मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जिसको पूजना हो, कम से कम गुरु ही है। गुरु से मिलने पर ही तो पहली दफा, परमात्मा है, पूजो तो। क्योंकि मेरा जोर तुम्हारी पूजा में है। तुमने पूजा, तुमने इसकी प्रतीति होती है। प्रार्थना की, तुम झुके, बस काफी है। जहां तुम झुके, वहीं | मगर लोग जड़ हैं। शब्दों को पकड़कर बैठ जाते हैं। वे कहते परमात्मा के चरण हो गये। हैं, गुरु कहेंगे हम तो, भगवान नहीं कह सकते। इसलिए नानक परमात्मा के चरण तो वहां थे ही, तुम झुक नहीं रहे थे इसलिए को गुरु कहते हैं। लेकिन गुरु का अर्थ ही यही है, जिसमें दिखायी नहीं पड़ते थे। झुके कि दिखायी पड़ गये। और हिसाब भगवान प्रगट हआ हो। जो भगवान के साथ एकाकार हो गया कौन लगाये कि कहां है और कहां नहीं है। मंदिर में है कि मस्जिद हो। जिसकी मौजूदगी में भगवान की झलक मिले। जिसके में है कि गुरुद्वारे में है। हिसाब लगाने की जरूरत कहां। सत्संग में तुम्हारे भीतर का भगवान भी जगे और नाचे और बेहिसाब सब जगह है। अमर्याद सब जगह है। प्रफुल्लित हो। गुरु का अर्थ ही यही है, जो तुम्हें खींचने लगे, जिन मित्र ने पछा है. वह नानक को समझे न होंगे। 'आदमी प्रबल आकर्षण बन जाए। जो चंबक की तरह तम्हें खींचने को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना | लगे। किसी ऐसी जगह ले जाने लगे जहां तुम अपने से न जा चाहिए।' मान ही नहीं सकते। यही कहा होगा नानक ने कि | सकते। भय पकड़ता, हिम्मत न होती। गुरु तो परमात्मा है। जहां भी मानो, उसी को मानना, उस एक को ही मानना। सिक्ख कबीर ने कहा हैकुछ गलत समझे होंगे। कम से कम पूछनेवाला सिक्ख तो | गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय गलत समझा ही है। मानना एक को ही। इसका अर्थ हुआ, जहां | किसके चरण छुऊं पहले? दोनों सामने खड़े हैं। दुविधा बड़ी भी आंख पड़े, उसी को खोजना। जहां सिर झुके, उसी के चरण साफ है। अगर परमात्मा के चरण पहले लगू, तो गुरु का टटोलना। जहां तक हाथ पहुंच सके, उसी की तलाश करना। | अपमान होता है। और गुरु के बिना परमात्मा तो कभी मिल नहीं जहां तक मन जा सके, उसी में उड़ने देना मन को। जहां तक सकता था। तो यह तो अकृतज्ञ होगा कृत्य। यह तो गुरु के प्रति स्वप्न उठ सकें, उठने देना उसी में। जीना तो उसमें, सोना तो | आभार न हुआ। गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय। अगर उसमें। उठना, बैठना, तो उसमें। उस एक में। गुरु के पैर पड़ता हूं, तो परमात्मा का अपमान हो जाएगा। गुरु के इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम एक धारणा को पकड़ लेना, साथ इसीलिए तो थे कि परमात्मा को खोजना था। बड़ी दुविधा और सब धारणाओं को इनकार कर देना। अगर एक धारणा ही है! क्या करूं? भगवान का ढंग है, तो भगवान बड़ा सीमित हुआ। फिर वह । बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय निराकार न हुआ, फिर असीम न हुआ, फिर सारी सत्ता उसकी न | लेकिन गुरु ने तत्क्षण गोविंद को बता दिया कि तू गोविंद के ही हुई। वही होना चाहिए सभी में, तभी निराकार है। तभी शाश्वत पैर लग। पद तो कबीर का यहीं पूरा हो जाता है, पक्का नहीं फिर है, सर्वव्यापी है। वह पैर किसके लगे! मैं जानता हूं कि वह गुरु के लगे। क्योंकि 'और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना | उनकी इस दूसरी पंक्ति में ही साफ है—'बलिहारी गुरु चाहिए।' गुरु भी क्यों कहना! क्योंकि उपनिषद तो कहते हैं, आपकी।' गुरु ने कह दिया कि लग परमात्मा के, देर क्यों कर गुरु परमात्मा है, गुरुर्ब्रह्मा। झंझट हो जाएगी! अगर किसी को रहा है, रुक क्यों रहा है, सोच क्या रहा है? चुनाव थोड़े ही गुरु कहा, तो परमात्मा मान लिया उसको। सारे भारत के शास्त्र करना है। यहीं के लिए तो तुझे ले आया था अपने साथ, आ 311 2010_03 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 गयी वह घड़ी, अब झुक परमात्मा को, भूल मुझे। पद तो यहां दर्शनशास्त्री नहीं हूं। मैं तुम्हें कोई शास्त्र नहीं दे रहा हूं। संकेत दे पूरा हो जाता है, फिर किसी ने कभी कबीर को पूछा नहीं कि रहा हूं। और जीवन के काव्य को समझना हो तो बंधी-बंधायी, वस्तुतः तुम लगे किसके पैर? मैं मानता हूं कि कबीर गुरु के ही पिटी-पिटायी धारणाओं को हटाना, ताकि जीवन अपनी सुषमा पैर लगे-'बलिहारी' शब्द में ही बात आ गयी। अब कैसे को, अपने सौंदर्य को प्रगट कर सके। मन को थोड़ा किनारे कर और कुछ किया जा सकता है। के रखना। गुरु अंततः तुम्हें अपने से भी मुक्त कर देता है— बलिहारी | तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।' सदा प्राणों में कहीं सुनता रहा हूं तुम्हारा संवादतो गुरु तो परमात्मा है। गुरु तो परमातमा का द्वार है। ये जो बिना पूछे, सिद्धि कब? इस इष्ट से होगा कहां साक्षात प्रश्न उठते हैं, ये उठ आते हैं संस्कारों से। संस्कार बाधा हैं। कौन-सी वह प्रात, जिसमें खिल उठेगी क्लिन्न, संस्कारों से मुक्त होना है। और एक ऐसा चित्त पाना है, जहां | सूनी शिशिर-भीगी रात? कोई संस्कार तथ्यों पर धूमिल छाया न डालते हों। जहां तथ्य | चला हूं मैं; मुझे संबल रहा केवल बोधप्रगट होते हों, जैसे हैं वैसे ही। भक्त की कोशिश यही है कि | पग-पग आ रहा हूँ पास; भगवान होना है। रहा आतप-सा यही विश्वास तुझी से तुझे छीनना चाहता हूं स्नेह के मृदुघाम से गतिमान रखना निबिड़ ये क्या चाहता हूं, ये क्या चाहता हूं मेरे सांस और उसांस। भक्त बेचैन भी होता है कि यह भी क्या चाह रहा हूं! लेकिन आह, संख्यातीत रूपों में तुम्हें किया है याद! तुझ ही को तुझ ही से छीनना चाहता हूं, चेष्टा तो यही है कि यहां | तुमने जब भी कुछ चाहा है, मैं कहता हूं, तुमने परमात्मा ही जो प्राणों का दीया जल रहा है, यह भगवत्ता का दीया हो जाए। चाहा है। तुमने धन चाहा, तो धन में भी तुम परमात्मा को ही जब तक भक्त भगवान न हो जाए, तब तक यात्रा पूरी नहीं हुई। खोजते थे। तुमने पद चाहा, तो पद में भी तुम परमपद को ही इंचभर भी दूरी रह गयी, तो कछ पाने को शेष रहेगा। है क्या | खोजते थे। तुमने किसी स्त्री के प्रेम में आंसू बहाये, तो तुम ईश्वर? प्रार्थना को ही टटोलते थे। तुम किसी मोह से भरे, तुम किसी ईश्वर वह प्रेरणा है राग में गिरे, तो उन सब खाई-खड्डों में भी तुम प्रभु का ही मार्ग जिसे अब तक शरीर नहीं मिला खोजते थे। अनंत-अनंत रूपों में अनंत-अनंत ढंगों से आदमी टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, उसी को खोज रहा है। भला तुम्हारी खोज गलत हो, लेकिन जो वृंत पर अब तक नहीं खिला तुम्हारे प्राणों की अकुलाहट गलत नहीं है। भला तुम रेत से तेल टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, जो वृंत पर अब तक | निचोड़ने की चेष्टा कर रहे होओ, लेकिन तेल निचोड़ने की नहीं खिला—बस वही ईश्वर है। ईश्वर भविष्य है, संभावना आकांक्षा थोड़े ही गलत है। तुम वहां खोज रहे हो, जहां न पा है। ईश्वर तुम जो हो सकते हो उसका नाम है। ईश्वर तुम्हें जो सकोगे, विषाद हाथ लगेगा, विफलता हाथ लगेगी, लेकिन होना ही चाहिए उसका नाम है। ईश्वर तुम्हारी बीजरूप संभावना इससे तुम्हारी खोज की ईमानदारी को तो इनकारा नहीं जा है। तुम्हारे बीज में छिपा हुआ सत्य है। सकता। पत्थर पूजो, प्रेमी को पूजो, अनजाने, तुम्हारी बिना टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, पहचान के परमात्मा की तरफ ही तुम बढ़ रहे हो। जो वंत पर अब तक नहीं खिला तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद मैं जब ईश्वर की बात कर रहा हूं तो मैं किसी दर्शनशास्त्र की और कोई उपाय भी नहीं है। जिस दिन तुम ऐसा समझोगे, उस बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो तुम्हारे जीवन-काव्य की बात कर दिन तुम्हारे जीवन में एक लयबद्धता आ जाएगी। तब तुम रहा हूं। तुम मुझे एक कवि की तरह याद रखना। मैं कोई | देखोगे, सब कदम जो किन्हीं भी रास्तों पर पड़े, सभी 3120 2010_03 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु हे द्वार तरफ पड़े। कभी भटके भी तो मंदिर से ही भटके। कभी दूर भी कहां खून गिरता है—पत्थर पर गिरता है, कि लाश पर गिरता गये, तो परमात्मा से ही भटके, लेकिन चेष्टा उसी की तरफ जाने | है, कि मंदिर पर गिरता है-कहां गिरता है, इससे क्या फर्क की लगी थी। हारे भी बहुत बार, पराजित भी बहुत बार हुए, गिरे पड़ता है ? भी बहुत बार, विषाद भी आया, हताशा भी आयी, लेकिन यह खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा र्ग पर घटा है। और अंतिम निर्णय में तम पाओगे. ऐसा ही मैं तमसे कहता हं_श्रद्धा फिर श्रद्धा है. टपकेगी तो | इस सबने ही तुम्हें मार्ग को खोजने में सहायता दी है। कुछ भी जम जाएगी। और जहां श्रद्धा जमी, वहीं भगवान है। श्रद्धा होनी व्यर्थ नहीं गया है। कुछ व्यर्थ जा नहीं सकता। चाहिए। असली बात भीतर है, असली बात अंतर्तम की है। जीवन के परम अर्थशास्त्र में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है। अगर वहां न हो, तो कहीं भी भगवान नहीं है। अगर वहां श्रद्धा | लेकिन पता तो तब चलता है जब हम पहुंच गये-आखिरी हो, तो सब कहीं, सब दिशाओं में वही है। भीतर हो, तो बाहर घड़ी। तब हम लौटकर देख सकते हैं कि अरे, अगर मैं भटका न भी वही है। भीतर न हो, तो फिर बाहर कहीं भी नहीं है। फिर श्किल होता! कि मैंने धन से पाने की | जाओ तीर्थयात्रा, काबा और काशी, कोई अंतर न पड़ेगा। तुम कोशिश की, वह भी जरूरी था। वह भी शिक्षण था। कि मैंने व्यर्थ ही भटकोगे। घर आओ, कहीं और नहीं जाना है। तुम्हारे प्रेम में प्रार्थना खोजी, वह भी शिक्षण था। उस सबसे बचकर भीतर है तीर्थ। अगर आ जाता, तो इस मंदिर तक आ ही नहीं सकता था। | फिर खयाल रखना, आदमी आदमी में बड़े भेद हैं। तो आदमी इसलिए मैं तो कहता हूं, जिस तरह तुम्हें याद आ सके उसी आदमी के ईश्वर में भी भेद होंगे। चांद निकला आकाश तरह याद करो। सब में वही है। और सबसे उसी की खोज चल | में-पूर्णिमा की रात, शरद पूनो-हजारों, करोड़ों प्रतिबिंब रही है। श्रद्धा चाहिए। एक आदमी पीपल के वृक्ष के पास श्रद्धा | बनते हैं पृथ्वी पर। सागर भी प्रतिबिंब बनाता है, मानसरोवर में से जल चढ़ा रहा है। तुम पीपल का वृक्ष देखते हो, हाथ से भी प्रतिबिंब बनेगा। शांत झीलों में भी बनेगा। तूफान आये हुए गिरती जलधार देखते हो, मैं उसके भीतर गिरती श्रद्धा की धार सागर में भी बनेगा। मिट्टी के कूड़े-कचरे से भरे डबरों में भी देखता हूं। एक आदमी मंदिर की मूर्ति के सामने बैठा दीया जला बनेगा। नाली का जल कहीं इकट्ठा हो गया होगा, उसमें भी रहा है। तुम पत्थर देखते हो, मृण्मय दीया देखते हो, उसके बनेगा। चांद के प्रतिबिंब करोड़-करोड़ बनेंगे, चांद एक है। गंदे भीतर चिन्मय की धार नहीं देखते। एक आदमी विराट, सूनी डबरे में भी बनेगा। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो जाएगा। क्योंकि मस्जिद में बैठा परमात्मा का गीत गनगना रहा है। कोई है जो प्रतिबिंब तो है ही कहां, जो गंदा हो जाए चुप बैठा है वृक्ष के तले, बुद्ध की भांति-न कोई प्रार्थना है, न प्रतिछाया है। कोई पूजा है; न कोई बाह्य उपकरण है, न कोई साधन है; न लेकिन फिर भी गंदा डबरा तो गंदा है। तो गंदे डबरे से अगर मंदिर है, न मस्जिद है; आंख बंद है-अपने में लीन। लेकिन तम पछोगे कि जो चांद तेरे भीतर बना. उसके संबंध में तेरा क्या इन सबके भीतर एक बात समान है, वह भीतर की खयाल है? तो गंदा डबरा जो कहेगा, उसमें गंदगी जुड़ी होगी। चैतन्य-धारा। बाहर के उपकरण भिन्न-भिन्न हैं। बाहर के तो स्वाभाविक है। उसने तो वही चांद देखा, जो उसकी गंदगी में सब खिलौने हैं. जिससे मर्जी हो उससे खेल लेना, भीतर रसधार | प्रतिछायित हो सकता था। मानसरोवर से पूछोगे, तो वह अपने बहती रहे। चांद की बात करेगी। इसीलिए तो दनिया में इतने धर्म हैं। अगर कल मैं पढ़ रहा था ठीक से समझो, तो हर आदमी का खदा अलग होगा। आदमी खके-सेहरा पे जमे, या कफे-कातिल पे जमे आदमी में इतने फर्क हैं। फर्के-इंसाफ पे या पाये-सलासिल पे जमे मेरे भीतर का ईश्वर, तेग-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे विकराल क्रोध है, ऊसर, अनजोती जमीन खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा पर तांडव का त्यौहार रचानेवाला! 313/ 2010_03 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः मेरे भीतर का ईश्वर, बाकी सब डुबा दिये। आग बरसा दी नगरों पर। जरा नाराज है मेरे मन के स्वर्ग-लोक की नींव हिला हुआ कि विकराल क्रोध! मेरे भीतर भूकंप मचानेवाला! ईश्वर क्रोधी है? नहीं, जिन यहदियों ने परानी बाइबिल मेरे भीतर का ईश्वर, लिखी, वे क्रोधी रहे होंगे। पुरानी बाइबिल यहूदियों के संबंध में है अग्निचंड, मैं उसके भीतर जलता हूं खबर देती है। वेद में ईश्वर की धारणा है, वह धारणा ईश्वर की मेरे भीतर का ईश्वर, खबर नहीं देती, वेद जिन्होंने रचे उनकी खबर देती है। कोई ऋषि है घन घमंड, अंबर का उद्वेलित समुद्र, प्रार्थना कर रहा है कि मेरी गौओं के थन में दूध बढ़ जाए और मेरे मेघों को, जाने, हांक कहां ले जाता है। दुश्मन की गौओं के थन का दूध सूख जाए। हे प्रभु, ऐसा कुछ मेरे भीतर का ईश्वर कर कि मेरी फसल तो खूब आये, पड़ोसी की फसल न आ है नामहीन, एकाकी, अभिशापित विहंग पाये। क्या ईश्वर इस तरह की प्रार्थनाएं सुनता है? क्या ईश्वर जो हृदय-व्योम में चिल्लाता, मंडराता है। की इससे कोई धारणा हमारे मन में साफ होती है—यह कैसा मेरे भीतर का ईश्वर, ईश्वर है? नहीं, इससे इतना ही पता चलता है, जो प्रार्थना है जोर-जोर से पटक रहा मेरे मस्तक को पत्थर पर। करनेवाले थे उनकी याचना, उनके हृदय की खबर।। मेरे भीतर का ईश्वर, तुम जब ईश्वर के संबंध में बोलते हो, तो ध्यान रखना कि यह महाघोर चतुरंग प्रभंजन वेगवान तुम्हारे ईश्वर के संबंध में बोल रहे हो। मैं जब ईश्वर के संबंध में मेरे मन के निर्जन, अकूल, आश्रयविहीन, बोलता हूं, तो ध्यान रखना मैं अपने ईश्वर के संबंध में बोल रहा उत्तप्त प्रांत में ज्वालाएं भड़काता है। हूं। यह बिलकुल स्वाभाविक है। भीतर उर के मुद्रिक कपाट ईश्वर बड़ी निजी धारणा है। और हर एक की अपनी दृष्टि से बाहर-बाहर वह प्रलय-केतु फहराता है। प्रभावित होती है। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारी सारी दृष्टि आदमी आदमी का ईश्वर अलग-अलग होगा। तुम क्रोधित चली गयी, जब तुम्हारे मन में कोई पक्षपात न रहा—न हिंदू का, हो, तो तुम्हारा ईश्वर क्रोधित होगा। तुम अहंकारी हो, तो तुम्हारे न मुसलमान का, न सिक्ख का, न जैन का, कोई पक्षपात न भीतर का ईश्वर अहंकारी होगा। तुम शांत हो, तो तुम्हारा ईश्वर रहा-तुम सब शास्त्रों, सब शब्दों से मुक्त हुए, तुम शून्य में शांत होगा। तुम उदास हो, तो तुम्हारा ईश्वर उदास होगा। विराजमान हुए, तब उस मानसरोवर में जो झलकता है, वह क्योंकि तुम ही तो तुम्हारे ईश्वर को प्रतिबिंब दोगे। तुम्हारा ईश्वर ईश्वर की निकटतम प्रतिमा है। वह प्रतिमा इतनी निकटतम है, तुम्हारे भीतर रूप धरेगा। तुम ही तो उसकी परिभाषा बनोगे। क्योंकि मानसरोवर का स्वच्छ स्फटिक जैसा जल कोई विकृति तुम ही तो सीमा बनाओगे। तम ही तो बागड़ लगाओगे। तम्हारा पैदा नहीं करता है। पारदर्शी। जैसा है ईश्वर तुम्हारे-जैसा होगा। वह झलक इतनी स्पष्ट और इतनी ईश्वर जैसी है, इसलिए इसीलिए दुनिया में इतने ईश्वरों की भिन्न धारणाएं हैं। इसीलिए उपनिषद के ऋषि कह सके-अहं ब्रह्मास्मि। वह झलक इतनी हर सदी का ईश्वर भी अलग होता है। बदलता चला जाता है। स्पष्ट और इतनी साफ कि उपनिषद के ऋषि कह सके, हम ब्रह्म ईश्वर बदलता, ऐसा नहीं, प्रतिबिंब बदलते हैं। क्योंकि प्रतिबिंब हैं। ब्रह्म में और उस झलक में कोई फर्क न रहा। कभी-कभी धारण करनेवाले बदलते हैं। पुरानी बाइबिल का ईश्वर बड़ा बहुत थोड़े-से लोग उस ऊंचाई पर पहुंचे हैं, जिन्होंने 'अहं क्रोधी, रुद्र-रूप, जरा-सी बात पर नाराज हो जानेवाला, | ब्रह्मास्मि' की घोषणा की है। कोई मंसूर कह सका, जरा-सी बात पर अग्नि बरसा देनेवाला, जरा-सी बात पर अनलहक-मैं हूं सत्य। महाप्रलय ला देनेवाला। क्रोध में उसने डुबा दी दुनिया एक यह तब घटता है, जब समाधि घटती है। जब सब कचरा दफा। थोड़े-से लोग चुने हुए बचा लिये थे नोह की नाव में; तुम्हारे चित्त का बह गया। तुम भी जब निर्विकार, निराकार, | जैसीं जाती । जैसा है वैसा ही यालका देता है। 314 2010_03 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - mmmmmmmmmmmost -- द्वार निर्विकल्प हुए, तब घटता है। इसकी आकांक्षा करो। इस पर प्रकाश प्रभुरूप है। प्रभु प्रकाश की आभा है। इस प्रकाश में तुम भरोसा करो। क्योंकि श्रद्धा न होगी, तो यह कभी भी न घटेगा। | भी मत बचो। इसीलिए तो घबड़ाहट लगती है। सब गया, तो यह मानकर तो चलो कि परमात्मा ने जिन्हें बनाया है, उनकी आखिर में लगता है, अब मैं भी जाऊंगा। क्योंकि तुमने अब तक अंतिम नियति परमात्मा ही हो सकता है। परमात्मा ने जिसे सृजा अपना जो रूप जाना है, वह उसी सभी का जोड़ था। वह सब तो है, उसका अंतिम निखार परमात्मा ही हो सकता है। और तुम | गया, अब तुम कैसे बचोगे? तुम्हारा सब गया, तो तुम भी जब तक परमात्मा न हो जाओगे, तब तक तुम वापिस-वापिस जाओगे। इससे घबड़ाहट पैदा होती है। भेजे जाओगे। क्योंकि परमात्मा तब तक राजी न होगा, जब तक | ध्यान के अंतिम चरण में मृत्यु घटेगी है। उसको घटने देना है तम उसके जैसे ही होकर चरणों में नैवेद्य न बन जाओ। तब तक स्वागत से घटने देना है। सहर्ष घटने देना है। राजी न होगा, जब तक तुम ठीक उस जैसे न हो जाओ। इसीलिए | उपलब्ध हो जाएगी। अगर डर-डरकर वापिस लौटते रहे, तो मैं कहता हूं, स्मरण रखो इस बात का कि तुम अभी बंद कली हो, यह यात्रा तो ऐसी हुई कि गंगा गयी सागर तक और ठिठककर खिलना है। तुम बंद परमात्मा हो, खिलना है। तुम छिपे खड़ी रह गयी और लौटने लगी गंगोत्री की तरफ। सागर तक परमात्मा हो, प्रगट होना है। गये हैं, तो गिरना ही होगा। फिर यह गंगा कहे कि नहीं, अब मैं गिरना नहीं चाहती, मैं तो मिलने आयी थी, गिरने थोड़े ही आयी दुसरा प्रश्न : सक्रिय-ध्यान के तीसरे चरण में काफी शक्ति थी; मैं तो सागर होने आयी थी, मिटने थोड़े ही आयी थी, तो लगाने पर वहां प्रकाश के सिवाय कुछ भी नहीं बचता है। फिर क्या कहोगे तुम गंगा से? तुम कहोगे, सागर होने का एक ही भय पकड़ता है कि मरा! हे प्रभो, उस घड़ी में क्या करना उपाय है कि सागर में खो जाओ। तुममें सागर तभी खो सकता चाहिए? है, जब तुम सागर में खो जाओ। तुम मिटो, तो सागर हो जाए। ध्यान की आखिरी घड़ी में तुम्हारी गंगा सागर के किनारे आकर उस घड़ी में मरना चाहिए। मरे बिना थोड़े ही चलेगा। उस खड़ी हो जाती है, तब मन घबड़ाता है, स्वाभाविक है। मैं समझ घड़ी में अपने को बचाने की चेष्टा ही फिर तुम्हें वापस लौटा सकता हूं। सभी का घबड़ाया है। कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई लायेगी। उस घड़ी में खुद को खो देना। उस घड़ी तो कहना- नानक, कोई कबीर उस घबड़ाहट से बचा नहीं। वह सभी का अंतिम यह अभिलाष हृदय में! घबड़ाया है। वह मनुष्य का स्वाभाविक रूप है। अब तक जिसे जीवन दीप जलाकर मेरा, अपना जाना था, जीवन जाना था, वह सब छूटता लगता है, चाहे कोई हरे अंधेरा; बिखरता लगता है। सारा अतीत शून्य में लीन होता मालूम किंतु बुझे यदि दीप कभी तो पड़ता है, भविष्य का कुछ पता नहीं है, तो मृत्यु मुंह बाकर खड़ी बुझे तुम्हारे कोमल कर से, हो जाती है। उस क्षण नाचते हुए मृत्यु में समा जाना। लौटकर अंतिम यह अभिलाष हृदय में! पीछे मत देखना। लौटकर पीछे देखा कि मुश्किल में पड़ परमात्मा के हाथ से अगर तुम्हारा दीया बुझता हो, तो और जाओगे। लौट भी न पाओगे और गिर भी न पाओगे, त्रिशंकु हो क्या सौभाग्य हो सकता है! जाओगे। बड़ी दुविधा में पड़ जाओगे, बड़े द्वैत में पड़ जाओगे। किंतु बुझे यदि दीप कभी तो, उधर सागर बुला रहा होगा, इधर पीछे का अतीत बुला रहा बुझे तुम्हारे कोमल कर से होगा। उधर भविष्य खींचेगा, इधर अतीत खींचेगा। तुम दोनों के अंतिम यह अभिलाष हृदय में! बीच खिंचकर पिस जाओगे। पूछा है कि ध्यान के अंतिम चरण में केवल प्रकाश बचता है। बहुत बार ऐसा हुआ है कि जिन लोगों ने ध्यान की इस घड़ी में और क्या चाहते हो? कुछ और की भी इच्छा है? प्रकाश का तो | मरने से विरोध किया, वे विक्षिप्त हो गये हैं। क्योंकि लौट भी अर्थ हुआ, जो बचना चाहिए वही बचा अब। शुद्धतम बचा। नहीं सकते अब; अब गंगोत्री तक जाना कैसे संभव है? जहां 315 2010_03 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 तक आ गये, आ गये, लौटना तो होगा नहीं; और आगे जाना नहीं चाहते, तो सारी ऊर्जा तुम्हारे भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगेगी। उससे विक्षिप्तता पैदा हो सकती है। धर्म के जगत में या तो मृत्यु को घटने दो, या पागल हो जाओगे। इसलिए मैं कहता हूं - मरो । पूछा है - हे प्रभो ! उस घड़ी में क्या करना चाहिए ?' कुछ | करना नहीं चाहिए । चुपचाप सरक जाना चाहिए सागर में। जैसे ओस की बूंद, घास की पत्ती से सरककर पृथ्वी में गिर जाती है, खो जाती है, ऐसे चुपचाप सरक जाना चाहिए और गिर जाना चाहिए। गिरकर तुम पाओगे कि पहली दफे जाना तुम कौन हो। मिटकर तुम पाओगे कि हुए। शून्य होकर पाओगे कि पूर्ण उतरा इधर उधर परमात्मा आया। प्रकाश तो उसके आगमन की खबर है। जैसे सुबह सूरज निकलने के पहले एक लाली छा जाती है क्षितिज पर, प्राची सुर्ख होने लगती है— सूरज की अगवानी में यह सूरज का पहला संदेश हुआ। आता ही है सूरज अब । अब देर नहीं। पक्षी चहकने लगते हैं, हवाएं फिर गतिमान होने लगती हैं, प्रकृति जागने लगती है, प्राची लाल हो गयी, सूरज आता ही है अब । । जब ध्यान के आखिरी चरण में प्रकाश बचे, तो समझना कि प्राची लाली हो उठी, लाल हो उठी, अब सूरज आता ही है। अब मंत्रमुग्ध, नाचते, अहोभाग्य मानकर गिरने को तैयार हो जाना, मिटने को तैयार हो जाना। ध्यान का अंतिम चरण मृत्यु है | इसीलिए ध्यान के बाद जो घटना घटती है, उसे हम समाधि कहते हैं। समाधि का अर्थ, महामृत्यु । जो मरने योग्य था, मर गया, जो नहीं मर सकता था, वही बचा । मर्त्य गया, अमृत बचा। मरणधर्मा से छुटकारा हुआ, अमृत से गांठ बंधी और जिसे तुम जिंदगी कहते हो, उसमें बचाने जैसा भी क्या है! क्या है बचाने को तुम्हारे पास? तुम व्यर्थ ही बचाने की चिंता में लगे रहते हो, बचाने को कुछ भी नहीं ! हालत वैसी ही है जैसे कोई नंगा नहाता नहीं, क्योंकि कहता है कि नहाऊंगा तो कपड़े कहां सुखाऊंगा ? नंगा है, कपड़े सुखाने की चिंता के कारण नहाता नहीं ! तुम्हारे पास है क्या ? तुम्हारे हाथ बिलकुल खाली हैं। तुम्हारे प्राण खाली हैं, तुम रिक्त हो। इस रिक्तता को भी नहीं छोड़ पाते ! नहीं है कुछ, तो भी मुट्ठी नहीं खोल पाते ! अगर कुछ होता, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाती। 316 2010_03 बेदिलों की हस्ती क्या, जीते हैं न मरते हैं ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है कुछ भी नहीं है - ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है। बेदिल की हस्ती क्या जीते हैं न मरते हैं तुम जिसे जीवन कहते हो, वह जीवन नहीं है। जीवन और मृत्यु के बीच में अटके हो। तुम जिसे मृत्यु कहते हो वह मृत्यु नहीं है, तुम जिसे जीवन कहते हो वह जीवन नहीं है। मृत्यु तो केवल उन्होंने ही जानी, जो समाधि में मरे । तुम जिसे मृत्यु कहते हो, वह तो एक बीमारी का दूसरी बीमारी में बदल जाना है। वह तो वस्तुओं का परिवर्तन है। घर बदल लेना है । भीतर के सब रोग वही के वही रहते हैं, घर बदल जाता है। तुम जिसे जीवन कहते हो, अगर वही जीवन है, तो फिर परमात्मा की खोज है। परमात्मा को हम खोजते इसीलिए हैं कि जिसे हमने अब तक जीवन जाना है, वह धीरे-धीरे सिद्ध होता है कि जीवन नहीं था, भ्रांति थी । माया थी, एक सपना था। परमात्मा की खोज का इतना ही अर्थ है कि यह जीवन, जीवन सिद्ध नहीं हुआ, अब हम महाजीवन को खोजते हैं, किसी और जीवन को खोजते हैं। लेकिन जिन मित्र ने पूछा है, उनका प्रश्न बिलकुल ही अनिवार्य है। सभी ध्यानियों को घटता है, इसलिए चिंता मत लेना । डर लगे, तो अपराध - भाव भी मत पैदा होने देना, स्वाभाविक है। कोई भी उस घड़ी आकर ठिठक जाता है । यहीं तो गुरु की जरूरत हो जाती है। उस घड़ी अगर गुरु न हो, तो तुम लौट जाओगे । या कम से कम वहीं अटके रह जाओगे । गुरु के बिना इस घड़ी में पागल होने की पूरी संभावना है। गुरु का केवल इतना मतलब है कि वह तुम्हें आश्वस्त कर सके कि मत डरो, देखो मैं खो गया हूं, फिर भी हूं। बहुत होकर हूं। अनंत होकर हूं। शाश्वत होकर हूं। आ जाओ, ले लो छलांग । डरो मत । झिझको मत । संदेह न करो। उतर आओ। गुरु हाथ बढ़ा दे, खींच ले, मरने की हिम्मत दे दे, मिटने का बल दे दे, तो उतरते से ही तुम्हें पता चलेगा कि नाहक परेशान थे। मैंने सुना है, एक आदमी एक अंधेरी अमावस की रात में पहाड़ पर भटक गया। अंधेरा गहन। हाथ को हाथ न सूझे । किसी तरह टटोल-टटोलकर वह रास्ता खोज रहा था कि एक खड्ड में Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु है द्वार गिर गया। खड्ड में गिरा तो उसने एक वृक्ष की जड़ को पकड़ है। या कि प्रेम के पास ऐसी आंखें हैं, जिनको सिर्फ प्रेमी ही लिया जोर से। सारी रात कैसे कटी, कहना कठिन है। रोते ही, जानते हैं, और कोई नहीं जानता। और प्रेम तो एक पागलपन है, आंसू बहाते ही रात बीती। सर्द रात, ठिठुर रहा, हाथ जड़ हए एक दीवानगी है। प्रेम तो मजन होना है। प्रेम का तो अर्थ ही यही जाते, कब वृक्ष की जड़ हाथ से छूट जाएगी, कहना मुश्किल! है कि अब सब दांव पर लगाने की तैयारी है, लेकिन अब और बल खोता जाता, मृत्यु निश्चित है, पता नहीं नीचे कितना बड़ा | देर सहने की तैयारी नहीं। खड्ड हो! और फिर आधी रात के करीब हाथ बिलकुल ठंडे सुन्न | तो तुम पूछते हो कि पागल हो जाऊंगा। मेरी तरफ से तो जिस हो गये। पकड़ संभव न रही। जड़ छूट गयी और वह आदमी | दिन तुम्हें संन्यास दिया, उसी दिन मैंने मान लिया कि तुम पागल गिरा। और गिरने के बाद उस घाटी में एक खिलखिलाहट की हो गये। पागल हुए बिना परमात्मा को कब किसने पाया है ? आवाज आयी, क्योंकि नीचे कोई खाई न थी, समतल जमीन पागल होने का इतना ही अर्थ है कि जीवन में बड़ी त्वरा से खोज थी। गिरकर पता चला कि गिरने को कुछ नीचे था ही नहीं। हो रही है। कुनकुनी नहीं, उबलती हुई खोज। दुकानदारी नहीं, नाहक कष्ट झेला। जुआरी की तरह-सब लगा दिया। लेकिन अंधेर में पता कैसे चले? गिरकर पता चला कि नीचे | होशियार मेरे पास नहीं आते। मेरे पास तो प्यासे आते हैं। समतल भूमि थी। खिलखिलाकर हंसने लगा। होशियारों के लिए तो बहुत और जगहें हैं, जहां वे संसार को भी सुनो मेरी, उतर आओ! लौटकर मत देखो; जो गया, गया। सम्हाले रहते हैं, परमात्मा का भी थोड़ा सहारा पकड़े रहते हैं। न और प्रभु द्वार पर खड़ा है। सुनो मेरी। स्वागत कर लो! गले यह दुनिया जाए, न वह दुनिया जाए। कुछ दांव पर लगाना नहीं भेंट लो। आनंद से उतर आओ। नाचते, गुनगुनाते। सौभाग्य है। सब सम्हालकर रखना है, दोनों नाव पर सवार रहना है। मेरे समझो! प्रकाश आया, प्राची लाल हो उठी, सूरज करीब है। मैं | पास तो तुम आये हो, तो उसका अर्थ ही यही है कि तुमने पागल तुमसे कहता हूं-मरो! होने की हिम्मत जुटायी। और दूसरे तुम्हारे हृदय को नहीं देख सकते। पूछा है, तीसरा प्रश्न : अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता। | 'अफसोस कोई दिल का हाल नहीं पूछता।' और सब यही कह रहे हैं तेरी सूरत बदल गयी। और यह भी | दिल तो दूसरों को दिखायी पड़ नहीं सकता। दिल तो वही है कह रहे हैं कि सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या आये! | जिसे तुम जानते हो, अपने निजी एकांत में। दिल तो अत्यंत ऐसी मेरी हालत है, मैं क्या करूं? मेरे प्रश्न का उत्तर देने की वैयक्तिक है। वहां तो तम किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते। कृपा करेंगे। आपने उत्तर नहीं दिया, तो मैं सचमुच पागल हो अपने निकटतम मित्र को भी वहां तुम नहीं ले जा सकते। उस जाऊंगा। जगह तो बस तुम्हारा ही आना-जाना है। दूसरे को तुम्हारे दिल का क्या पता चलेगा? इसलिए यह आशा ही छोड़ दो कि कोई तो अभी क्या ढोंग ही रच रहे हो! सचमुच पागल हो तुमसे दिल का हाल पूछेगा। कोई पूछे तो तुम बता भी न जाओगे? तो पागल होना भी तुम्हारी स्वेच्छा पर है? कि जब सकोगे। एक तो कोई पूछेगा ही नहीं। दूसरे को तो यह भी पक्का होना चाहोगे तब हो जाओगे। तो स्वांग होगा। मेरे उत्तर देने न नहीं होता कि तम में दिल है भी। देने से पागल होने का क्या संबंध है? या तो पागल हो; और या इसीलिए तो लोग कहते हैं, आत्मा नहीं है। क्योंकि बाहर से पागल नहीं हो तो कैसे हो जाओगे? | तो सिर्फ इतना ही दिखायी पड़ता है, शरीर है; बहुत से बहुत जिसने संन्यास लिया, मेरे लिए तो पागल हो ही गया। अनुमान लगता है कि मन होगा, वह भी न है, दिखायी तो संन्यास का अर्थ ही यह है कि तुम अब ऐसी डगर पर चले जहां कुछ पड़ता नहीं। | हिसाब-किताब नहीं, जहां तर्क व्यर्थ हैं। जहां श्रद्धा सार्थक है। हृदय की तो बात ही नहीं जमती कि तुम्हारे भीतर हृदय होगा। तुम ऐसी डगर पर चले, जो प्रेम की डगर है। और प्रेम तो अंधा | फिर आत्मा तो और भी आखिरी बात हो गयी। 317 2010_03 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 शरीर की पहचान तो साफ है। मन की थोड़ी-बहुत अनुमान से अन्यथा कौन किसकी सूरत देखता है! अपनी देखने से फुर्सत पहचान होती है कि मेरे भीतर भी विचार चलते हैं, दूसरे के भीतर मिले तो आदमी दूसरे की सूरत देखे! अपनी देखने से तो फुर्सत भी चलते होंगे। चलने चाहिए। क्योंकि शरीर मेरा जैसा लगता मिलती नहीं। तुम जब घर से निकलते हो तो तुम्हीं बहुत परेशान है, तो मन भी शायद मेरे जैसा हो। फिर मन के भीतर छिपा हुआ होते हो आईना वगैरह देखकर कि कहीं कुछ गलती न रह जाए, हृदय, उस तक तो पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तो केवल प्रेम कोई दाग न रह जाए, कोई कचरा न लगा रह जाए, कहीं कोई से पहंच हो पाती है. अनमान से नहीं। फिर हृदय के भीतर छिपी आदमी देख ले। कौन देखता है, तम इसकी फिकर तो करो? आत्मा है। उस तक तो प्रेम से भी पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तुम किसकी सूरत देखते हो? कोई किसी की सूरत नहीं देख तो ध्यान से ही पहंच हो पाती है। फिर आत्मा के भीतर छिपा रहा। लोग अपने-अपने अहंकारों में ग्रस्त हैं। लोग परमात्मा है, उस तक तो किसी चीज से भी पहुंच नहीं होती, अपने-अपने में बंद हैं।। ध्यान से भी नहीं होती। लेकिन जब तुम आत्मा में पहुंच जाते हो, तो कोई अगर तुम्हारी सूरत भी देख लेता है, तो बड़ी कृपा! तो परमात्मा तुम्हें खींच लेता है। आत्मा तक मनुष्य जा सकता और कोई अगर इतना भी पहचान लेता है कि तुम्हारी सूरत बदल है, वहां तक मनुष्य के कृत्य की सीमा है। गयी है, तो उसे धन्यवाद दो। उसके मन में तुम्हारे लिए कुछ इसीलिए तो महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। क्योंकि सहानभति होगी। कछ जगह होगी तम्हारे लिए। कछ लगाव जहां तक मनुष्य जा सकता है वहीं तक बात करनी उचित है, होगा, कुछ राग होगा। और लोग पहले सूरत ही पहचान पाते आगे की क्या बात करनी! आगे तो घटना घटती है—अपने से हैं। लेकिन सूरत निश्चित बदलती है, यह पक्का है। कभी तो घटती है। ऐसा समझो कि तुम छत पर खड़े हो। जब तक खड़े क्षणभर में क्रांति हो जाती है। हो, ठीक; छलांग लगा लो, तो छलांग लगाने के बाद फिर कभी-कभी मैं देखता हूं, एक आदमी आता है, अस्त- व्यस्त, जमीन तक आने के लिए थोड़े ही तुम्हें कुछ करना पड़ता है। संदिग्ध, मन डांवाडोल; उसकी चाल भी देखकर कह सकते हैं छलांग लगा ली कि फिर तो गुरुत्वाकर्षण काम करने लगता है। कि डांवाडोल है, कुछ तय नहीं किया है; भीतर कंपन है, बाहर फिर तो जमीन का ग्रेविटेशन तुम्हें खींच लेता है, कशिश खींच भी कंपन है मेरे सामने बैठता है, कहता है कि संन्यास लूं, या लेती है। फिर तुम यह थोड़े ही पूछोगे कि छलांग लगाने के बाद न लूं? कई दिन से सोच रहा हूं, कुछ तय नहीं हो पाता। जब फिर मैं क्या करूं कि जमीन तक आ जाऊं? हम कहेंगे, तुम कोई चीज तय नहीं हो पाती, तो तुम भीतर बहुत डांवाडोल हो सिर्फ छलांग लगा लो, बाकी काम छोड़ो, फिक्र तुम मत मरो, जाते हो, बंट जाते हो। फिर वह हिम्मत जुटा लेता है, सुन लेता वह जमीन कर लेगी। है मेरी पुकार। मैं कहता हूं-कूदो, देखेंगे; सोचना बाद में कर आत्मा तक मनुष्य जाता है। आत्मा के बाद कशिश परमात्मा लेंगे। सोचना इतना जरूरी भी नहीं है। वह कहता है, बिना सोचे की शुरू होती है। वहां से सीमा परमात्मा की। छलांग लग गयी, कैसे संन्यास ले लूं? फिर वह तुम्हें खींच लेता, उसका गुरुत्वाकर्षण खींच लेता। मैं कहता हूं, जिन्होंने लिया, बिना सोचे ही लिया। हालांकि 'अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता।' लेने के बाद पछताये नहीं। क्योंकि लेने के बाद पाया कि लेने अफसोस मत करो। ऐसे अफसोस किया तो व्यर्थ ही परेशान | योग्य था। कुछ चीजें हैं, जिनको लेकर ही पता चलता है क्या होओगे। कौन पूछेगा दिल का हाल तुमसे? कोई जरूरत भी हैं। स्वाद से ही पता चलता है क्या हैं। पहले से पता भी कैसे नहीं किसी को पूछने की। और बताने की भी आकांक्षा मत चले? मैं कहता हूं, तुम ले लो। मैं देता हूं, तुम ले लो। फिर | करो। तुम्हारी प्रार्थना प्रदर्शन न बने। भीतर-भीतर स्वाद ले लेना, फिर बाद में तय कर लेना कि लेने 'हां, लोग कहते हैं कि तेरी सूरत बदल गयी।' योग्य था या नहीं। हिम्मतवर आदमी होता है, साहसी होता है, सूरत तक उनकी पहचान है। चेहरा दिखायी पड़ता है, तुम उतर जाता है। इधर मैं माला उसके गले में डालता हूं, उधर एक थोड़े ही दिखायी पड़ते हो। उतना भी पूछ लेते हैं, बड़ी कृपा है, | रूपांतरण शुरू होता है, उसकी सूरत बदलने लगती है। क्योंकि 318 2010_03 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक निष्कर्ष आ गया। एक दुविधा मिटी। दुविधा के मिटते ही पागल होने का अर्थ समझ लेना। भीतर जो लड़ते खंड थे, इकट्ठे हो जाते हैं। जब ले ही लिया, तो पागल होने का अर्थ है, तर्क से नाता तोड़ना। हिसाब-किताब एक हलकापन हो जाता है, चिंता गयी। चेहरे पर प्रसाद आ के जगत से नाता तोड़ना। रहस्य के जगत में पदार्पण। पागल जाता है। और ले सका, इतना आत्मविश्वास कर सका, इतनी होने का अर्थ है, गद्य से पद्य की तरफ यात्रा। पागल होने का श्रद्धा कर सका, तो जब वह आदमी जाता है तो उसकी चाल मैं | अर्थ है, साफ-सुथरे राजमार्गों को छोड़कर जीवन की रहस्य की देखता हूं अब और हो गयी। जैसे वृक्ष को जड़ें मिल गयी हों। पगडंडियों पर चलना। चलो तो बनती हैं। सीमेंट से पटे हुए उसके पैर जमीन में लगे होते हैं बल से। उसका सिर आकाश में | राजमार्ग नहीं हैं, जहां सारी भीड़ चल रही है। उठा होता है बल से। यही आदमी क्षणभर पहले आया था, यही | पागल होने का अर्थ है—अकेला होना। भीड़ चल रही क्षणभर बाद जा रहा है, सूरत बदल जाती है। है-हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की-जब तक तुम भीड़ लेकिन सूरत बदलती है भीतर की बदलाहट से। कोई रंगरोगन के हिस्से बने हो, तब तक तुमने अभी परमात्मा की खोज पर लगाने से सूरतें नहीं बदलती। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे कुछ दांव पर नहीं लगाया। जिस दिन तुम उतरते हो भीड़ को पर रोशनी आ जाती है। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे पर छोड़कर, राजमार्ग को छोड़कर; उतरते हो जीवन के बीहड़ आभा आ जाती है। कुछ रहस्यपूर्ण चेहरे को मंडित कर लेता है। जंगल में और जीवन बीहड़ जंगल है, खतरे हैं वहां, एक प्रभामंडल पैदा हो जाता है। वन्य-पशु हैं वहां, भटक जाने की पूरी संभावना है; पहुंचना, लोग ठीक ही कहते हैं कि सूरत बदल गयी। सूरत इसीलिए जरूरी नहीं कि पहुंचो ही, निश्चित नहीं है-जो आदमी राजमार्ग बदल गयी कि दिल बदल गया है। लोग नहीं पूछेगे दिल का को छोड़कर बीहड़ के मार्ग पर उतरता है, पागल है। तुम्हारे हाल, क्योंकि लोगों को न अपने दिल का पता है, न तुम्हारे दिल संगी-साथी कहेंगे, क्या कर रहे हो? समझ-बूझ से काम लो। का पता है। लोग दिल को तो भल ही गये हैं। दिल को तो लेकिन अगर तुम समझ-बझ को समझ पाये हो तो एक विस्मरण ही कर दिया है। दिल के विस्मरण करने के कारण ही समझ में आ गयी होगी कि समझ-बूझ से कितना ही काम लो, तो परमात्मा से टूट गये हैं, क्योंकि दिल ही जोड़ है। मैंने तुमसे हाथ कुछ आता नहीं। तो तुम कहते हो, अब तो समझ-बूझ कहा, शरीर, शरीर के भीतर मन, मन के भीतर हृदय, हृदय के | छोड़कर जीकर देखना है। अब तो मस्त होकर जीकर देखना है। भीतर आत्मा, आत्मा के भीतर परमात्मा। हृदय ठीक मध्य में अब तो दीवाना होकर जीकर देखना है। है। इस तरफ मन और शरीर, उस तरफ आत्मा और परमात्मा। धार्मिक व्यक्ति स्वेच्छा से जीवन की सुरक्षाओं को छोड़कर हृदय ठीक मध्य में है। जोड़ है। सेत है। कड़ी है। असुरक्षा को वरण करता है। तर्क, विचार, गणित की जो लोग हृदय को भूल गये हैं, वे आत्मा को तो कैसे याद साफ-सुथरी, पटी-पटायी लीकों को छोड़कर प्रेम की, प्रार्थना . करेंगे। उनके लिए आत्मा तो केवल एक कोरा शब्द है, की बेबूझ पहेलियों को सुलझाने चल पड़ता है। अर्थहीन। जो लोग हृदय को भूल गये हैं, उनके लिए परमात्मा लेकिन ऐसे ही व्यक्ति किसी दिन परमात्मा को पाने में सफल तो बिलकुल व्यर्थ है। वे कैसे परमात्मा शब्द का सार्थक उपयोग होते हैं। परमात्मा तार्किक नहीं है, प्रेमी है। और सत्य तर्क की करें, समझ में भी नहीं आ सकता। | कोई निष्पत्ति नहीं, नयी आंखों का दर्शन है। ये आंखें जो तुम्हारे तो पहली तो बात है, हृदय जगे। लेकिन मैं तुम्हारे हृदय की पास हैं, काफी नहीं। तीसरी आंख पैदा करो। और यह कान जो बात करूंगा, लोगों से आशा मत करो। वही मैं कर रहा हूं रोज तुम्हारे पास हैं, काफी नहीं। तीसरा कान पैदा करो। संन्यास सुबह-शाम। तुम्हारे हृदय की बात तुमसे कह रहा हूं कि उसी तीसरी आंख और तीसरे कान की खोज है। धीरे-धीरे तुम अपने हृदय की भाषा पहचानने लगो। और रही मेरे साथ होना है, तो पागल होकर ही हो सकते हो। और जब पागल होने की बात, मेरे हिसाब से तो तुम हो ही गये हो। और तक मैं हूं, हो लो, क्योंकि पीछे पछताने से कुछ भी न होगा। अब तुम किसलिए रुके हो, अगर नहीं हो गये हो तो जाओ। पीछे पछताये होत का, जब चिड़ियां चुग गयीं खेत। 319 2010_03 www.jainelibrarorg Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग:21 भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें बहुत याद आयेंगे हम याद रखना इसलिए अभी जब तुम्हारे पास हैं, तो पागल हो लो, कल पर मत छोड़ो। यह नृत्य, यह संगीत, जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं, ले लो। संकोच मत करो। फैलाओ झोली और भर लो। भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें बहुत याद आयेंगे हम याद रखना। आज इतना ही। 3200 Jai Education International 2010_03 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 03 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां प्रवचन ध्यान है आत्मरमण 2010_03 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C. . COS बाल SS जे इंदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न याऽमणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी।।१२३।। सुविदियजगस्सभावो, निस्संगो निब्भओ निरासो य। वेरग्गभावियमणो, झाणंमि सुनिच्चलो होइ।।१२४।। देहविवित्तं पेच्छइ, अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे। देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ।।१२५।। ___णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा।।१२६।। णातीतमटुं ण य आगमिस्सं, अटुं नियच्छंति तहागया उ। विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी।।१२७।। मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं विजेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।।१२८।। न कसायमुत्थेहि य, वहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं। ईसा-विसाय-सोगा इएहिं, झाणोवगयचित्तो।।१२९।। चालिज्जइ बिभेइ य, धीरो न परीसहोवसग्गेहिं। सुहुमेसु न संमुच्छइ, भावेसु न देवमायासु।।१३०।। 2010_03 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला सूत्र : 'समाधि की भावना वाला तपस्वी इंद्रियों के अनुकूल विषयों में कभी राग-भाव न करे और प्रतिकूल विषयों में भी मन में द्वेष न लाए।' मनुष्य के मन के आधार ही चुनाव में हैं। मनुष्य के मन की बुनियाद चुनने में है । चुना, कि मन आया । न चुनो, मन नहीं है। इसलिए कृष्णमूर्ति बहुत जोर देकर कहते हैं, च्वाइसलेस अवेयरनेस - चुनावरहित सजगता । चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता । न रहेगा पेंडुलम की तरह । कभी मित्रता बनाता, कभी शत्रुता बनाता । बांस, न बजेगी बांसुरी । कभी कहता अपना, कभी कहता पराया । मन को तो बहुत लोग मिटाना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो मन से परेशान न हो। मन से बहुत पीड़ा मिलती है, बेचैनी मिलती है। मन का कोई मार्ग शांति तक, आनंद तक जाता नहीं; कांटे ही चुभते हैं। मन आशा देता है फूलों की, भरोसा बंधाता है फूलों का; हाथ आते-आते तक सभी फूल कांटे हो जाते हैं। ऊपर लिखा होता है - सुख । भीतर खोजने पर दुख मिलता है। जहां-जहां स्वर्ग की धारणा बनती है, वहीं-वहीं नर्क की उपलब्धि होती है। जैसे ही तुमने राग बनाया, तुमने द्वेष के भी आधार रख दिए। खयाल किया ? किसी को भी मित्र बनाए बिना शत्रु बनाना संभव नहीं । शत्रु बनाना हो तो पहले मित्र बनाना ही पड़े। तो मित्र बनाया कि शत्रुता की शुरुआत हो गई। तुमने कहा किसी से 'मेरा है', संयोग-मिलन को पकड़ा - बिछोह के बीज बो दिए। जिसे तुमने जोर से पकड़ा, वही तुमसे छीन लिया जाएगा। तो यह भी संभव हो जाता है कि आदमी देखता है, जिसे भी मैं पकड़ता हूं, वही मुझसे छूट जाता है। तो छोड़ने को पकड़ने लगता है, कि सिर्फ छोड़ने को पकड़ लूं। यही तो तुम्हारे त्यागी और विरागियों की पूरी कथा है। धन को पकड़ते थे; पाया कि दुख मिला, तो अब धन को नहीं पकड़ते। लेकिन 'नहीं पकड़ने' पर उतना ही आग्रह है । पहले धन के लिए दीवाने थे, अब धन पास आ जाए तो घबड़ा जाते हैं, जैसे सांप-बिच्छू आया हो; जैसे जहर आया हो। तो स्वाभाविक है कि मनुष्य मन से छूटना चाहे; लेकिन चाह काफी नहीं है। यह भी हो सकता है कि मन से छूटने की चाह भी मन को ही बनाए। क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं । चाह मात्र मन की निर्मात्री है। तो बुनियाद को खोजना जरूरी है, मन बनता कैसे है ? यह पूछना ठीक नहीं कि मन मिटे कैसे? इतना ही जानना काफी है किन बनता कैसे है ! और हम न बनाएं तो मन नहीं बनता । हमारे बनाए बनता है। हम मालिक हैं। लेकिन ऐसा हो गया है कि बुनियाद में हम झांकते नहीं, जड़ों को हम देखते नहीं, पत्ते काटते रहते हैं। पत्ते काटने से कुछ हल नहीं होता । 2010_03 महावीर का यह पहला सूत्र, निर्विकल्प भावदशा के लिए पहला कदम है। महावीर कहते हैं, न तो राग में, न द्वेष में। ये दो ही तो मन के विकल्प हैं। इन्हीं में तो मन डोलता है, घड़ी के 325 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः मन तो फिर कंप गया। पहले धन के लिए कंपता था, अब धन | ठहर जाओ। के विरोध में कंप गया। पहले खोजते थे सुंदर देह, सुंदर स्त्री, | यह तो उदाहरण हुआ। ऐसा ही जीवन की हर चीज में है। धन सुंदर पुरुष; अब अपने को समझा लिया कि दुख ही दुख पाया। तो धन है। न तो कहो कि यही मेरा सर्वस्व है; और न कहो, यह तो तुम जाओ त्यागी-वैरागियों के पास, तुम उन्हें वहां शरीर क्या है! यह तो मिट्टी ही है। कहो ही मत कुछ। कहा, कि मन की निंदा करते हुए पाओगे। और तुम यह भी देख पाओगे कि बना। तुमने इधर निर्णय लिया कि मन की ईंट रखी। तुम सिर्फ निंदा में बड़ा रस है। शरीर के भीतर मांस-मज्जा है, कफ-पित्त देखते रहो; द्रष्टा बनो। चुनाव मत करो। बीच में खड़े रहो; न है, दुर्गंध है, मल-मूत्र है, इसकी चर्चा करते हुए तुम त्यागियों को इधर जाओ, न उधर। पाओगे। जैसे भोगी चर्चा करता है सुंदर आंखों की, स्वर्ण जैसी देखा ! पेंडुलम घड़ी का रुक जाए तो घड़ी रुक जाती है। बायें काया की, स्वर्गीय सुगंध की, वैसे ही त्यागी भी चर्चा करता है। जाए, दायें जाए, तो घड़ी चलती रहती है। पेंडुलम के चलने से त्यागी चर्चा करता है शरीर में भरे मल-मूत्र की! यह तो गंदगी घड़ी चलती है। मन के गतिमान होने से मन निर्मित होता है। मन का टोकरा है। यह तो चमड़ी ही ऊपर ठीक है, बाकी सब भीतर डोलता नहीं, अडोल हो जाता है। वहीं ध्यान का जन्म होता है। गंदा भरा है। चमड़ी के धोखे में मत आओ। _ 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं; निस्संग, निर्भय और लेकिन दोनों का राग शरीर से है। जिसको हम विराग कहते हैं, आशारहित हैं, तथा जिनका मन वैराग्य से युक्त है, वही ध्यान में वह भी सिर के बल खड़ा हो गया राग है; शीर्षासन करता हुआ सुनिश्चल भलीभांति स्थित होता है'। राग है। शरीर से छुटकारा नहीं हुआ। बंधे शरीर से ही हैं। जो इसलिए एक बात खयाल में ले लेना—'जो संसार के स्वरूप अभी कह रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है, अभी शरीर से से सुपरिचित है...।' उसका लगाव बना है। वह इसी लगाव को तोड़ने के लिए तो | महावीर कहते हैं, संसार से वही मुक्त हो सकता है, जिसने अपने को समझा रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है। कहां जल्दबाजी नहीं की; जो संसार के स्वभाव से सुपरिचित है। जाता है पागल! शरीर में कुछ भी नहीं है। वह तुम्हें नहीं समझा कच्चे-कच्चे भागे, बिना पके वृक्ष से छूट गए—पीड़ा रह रहा है, वह अपने को ही समझा रहा है तुम्हारे बहाने। वह शरीर जाएगी। किसी की सुनकर संसार छोड़ दिया; अपने जानने, की निंदा करके अपने भीतर जो छिपी वासना है, उस पर नियंत्रण | अपने अनुभव से नहीं छोड़ा, किसी के प्रभाव में छोड़ दिया, तो करने की कोशिश कर रहा है। ऊपर-ऊपर छूटेगा, भीतर-भीतर संसार खींचता रहेगा। निंदा हम उसी की करते हैं, जिससे हम डरते हैं। दमन भी हम इसलिए महावीर का यह सूत्र अति मूल्यवान है, 'जो संसार के उसी का करते हैं, जिससे हम भयभीत हैं । लेकिन भयभीत हम स्वरूप से सुपरिचित हैं, वे ही केवल वीतरागता को उपलब्ध हो उसी से होते हैं, जिसमें हमारा राग है। सकते हैं।' इस सारी व्यवस्था को समझना जरूरी है। इसलिए महावीर | वस्तुतः जो संसार से परिचित हो गया, वह वीतराग न होगा तो कहते हैं, 'न तो अनुकूल विषयों में राग-भाव करे, न प्रतिकूल और करेगा क्या? फिर कोई उपाय नहीं। वीतराग-भाव तुम्हारा विषयों में द्वेष-भाव करे।' निर्णय नहीं है, तुम्हारे जीवन-अनुभव का निचोड़ है। न तो कहो कि शरीर स्वर्ण की काया है, न कहो कि मल-मूत्र वीतराग-भाव राग के विपरीत तुम्हारा संकल्प नहीं है; राग, द्वेष की टोकरी है। चुनो ही मत-इधर या उधर। डोलो ही मत। सब के अनुभव से तुमने पाया, कुछ सार नहीं है; इस अनुभव शरीर जो है, है। तुम इसके संबंध में कोई धारणा मत बनाओ का नाम ही वीतरागता है। और कोई व्याख्या मत करो। तथ्य को तथ्य की भांति देखो। न इस पर मेरा भी बहुत जोर है। जहां रस हो वहां से भागना तो इसके प्रशंसा के गीत गाओ, न तो स्तुति में ऋचाएं रचो, और मत। रस का पूरा अनुभव कर लेना। दूसरे क्या कहते हैं, इसकी न निंदा में गालियां निकालो। न तो शरीर गाली के योग्य है, और चिंता मत करना क्योंकि दूसरों का अनुभव तुम्हारा अनुभव नहीं न स्तुति के योग्य है। शरीर बस, शरीर है। जैसा है, उतने पर बनेगा। अगर तुम्हें अभी भोजन में रस हो तो रस ले लेना। रस 3261 2010_03 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aur ध्यान है आत्मरमण इतना ले लेना कि भीतर कोई भी आकांक्षा शेष न रह जाए। कहीं व्यक्ति हमारे पास से गुजरता है, तो उसकी दमक, उसकी प्रभा, कोने-कातर में मन के, किसी रस को दबा मत रहने देना, उभाड़ उसकी शांति का वायुमंडल हमें लोभ से भर देता है। हम कहते लेना; पूरा उभाड़ लेना। हां, इतना ही खयाल रखना कि रस हैं, काश, ऐसा आनंद हमारा होता! ऐसा आनंद कैसे हमारा हो बोधपूर्वक लेना, जागे लेना। जाए? कैसे डुबकी लगे इसी सागर में, जिसमें तुम डूबे? रस तो बहुत लोग लेते हैं। जो सोए-सोए लेते हैं, वे रस से तो हम महावीर और बुद्ध के वचनों को पकड़ने लगते हैं। कोई निष्पत्ति नहीं निकाल पाते। उनके जीवन में अनुभवों का ढेर हमने उनका गीत तो सुना, लेकिन किस पीड़ा से वे इस गीत को तो लग जाता है, निचोड़ नहीं होता। अनुभव में दब जाते हैं, उपलब्ध हुए, उसकी हमें कोई खबर नहीं है। अनुभव में खो जाते हैं, लेकिन अनुभव से कुछ जीवन-सत्य के | अश्कों में जो पाया है वो गीतों में दिया है मणि-माणिक्य नहीं खोजकर ला पाते। इस पर भी सुना है कि जमाने को गिला है अनुभव अगर सोए-सोए किया गया तो किया ही नहीं गया। जो तार से निकली वो धुन सबने सुनी है उससे कुछ सार न होगा। अगर जागकर किया गया तो अनुभव जो साज पे गजरी है वो किसको पता है तुम्हारे लिए शिक्षण दे जाएगा, कुछ पाठ सिखा जाएगा। वही जो साज पे गुजरी है वो किसको पता है पाठ जीवन की संपदा है। वही पाठ वेद है, वही कुरान है, वही जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है धम्मपद है। जिन्होंने जीवन के अनभव को जाग-जागकर देखा, जब तम महावीर या बद्ध या कष्ण या क्राइस्ट के जाग-जागकर भोगा, उनके हाथ में कोई ज्योति आ गई। जो तो जो धुन निकल रही है वह तो सुनाई पड़ती है, जो गीत पैदा हो व्यर्थ था, वह व्यर्थ दिखाई पड़ गया, जो सार्थक था, वह सार्थक | रहा है वह तो सुनाई पड़ता है, लेकिन किन पीड़ाओं से इस गीत दिखाई पड़ गया। | का निखार हुआ है, किन पर्वत-खंडों को तोड़कर यह झरना बहा जैसे प्रकाश पैदा हो जाए तो कमरे में क्या है, सब साफ हो है; किन आंसुओं ने इन गीतों में धुन भरी है; किस कंटकाकीर्ण जाता है। कहां कचरा पड़ा है कोने में, वह भी पता चल जाता मार्ग पर गुजरकर मंदिर के ये स्वर्ण-कलश दिखाई पड़े हैं, है। कहां तिजोडी है, हीरे-जवाहरात रखे हैं, वह भी पता चल उसका तो हमें कछ भी पता नहीं चलता। गीत से ह जाता है। अगर तुम कमरे में सोए हो अंधेरे, तो भी तिजोड़ी है, | जाते हैं। धुन हमें बांध लेती है। हम पूछने लगते हैं, हम क्या कचरा भी पड़ा है, लेकिन तुम्हें कुछ पता नहीं चलता। | करें? कैसे तुम्हें हुआ, कैसे हमें भी हो जाए? और जब तक तुम्हें तिजोड़ी न दिखाई पड़े, तब तक कचरा तो अगर हम महावीर का अनुकरण करने लगे, बड़े धोखे में कचरा है, यह भी पता नहीं चल सकता। जीवन में सार्थकता की पड़ जाएंगे। हम महावीर जैसा वेष रख सकते हैं। अगर वे थोड़ी प्रतीति हो तो क्या-क्या निस्सार है, वह अपने आप साफ निग्रंथ हैं, नग्न हैं, तो हम नग्न हो सकते हैं, दिगंबर हैं, दिगंबर हो जाता है। कांटों का बोध हो जाए तो फलों का बोध हो जाता | हो सकते हैं। कैसे उठते हैं. कैसे बैठते हैं. कैसे चलते हैं. हम भी है। फूलों का बोध हो जाए तो कांटों का बोध हो जाता है। ठीक वैसा ही अभ्यास कर सकते हैं। जागकर जीवन के सारे अनुभव जिसने लिए, अधैर्य न किया, लेकिन तुम पाओगे कि जो धुन उनके भीतर पैदा हुई थी वह जल्दबाजी न की, लोभ न किया, यह न कहा कि चलो, तुम्हारे भीतर पैदा न हुई। क्योंकि मौलिक चीज खो रही है; जड़ ऋषि-महर्षि तो कहते हैं, कि छोड़ो संसार ! ऋषि-महर्षि ठीक ही नहीं है। तुम्हारे जीवन के अनुभव का निचोड़ नहीं है। महावीर कहते हैं लेकिन वे अपने अनुभव से कहते हैं। उन्होंने संसार का को तुमने ऊपर से ओढ़ लिया। वे तुम्हारे प्राण में विकसित हए दुख भोगा, उन्होंने संसार की पीड़ा झेली। उनकी पीड़ा को जब फूल नहीं हैं। तक तुम न झेलोगे, तब तक उनकी निष्पत्तियां तुम्हारी निष्पत्तियां | यही तो दुर्भाग्य है जैन मुनियों का। यही दुर्भाग्य है बौद्ध नहीं हो सकतीं। भिक्षुओं का। यही दुर्भाग्य है ईसाई साधु-संतों का। जिससे वे हम तो लोभ से भर जाते हैं। जब बुद्ध या महावीर जैसा कोई प्रभावित हुए थे, ठीक ही प्रभावित हुए थे। आश्चर्य नहीं है कि 327 2010_03 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 जीसस की हवा तुम्हें पुकार बन जाए, आह्वान बन जाए ! कि महावीर की आंख तुम्हारी आंख से मिले और तुम्हारी अतल गहराइयां कंपित उठें, तुम्हारे प्राणों में कोई नाद बजने लगे - स्वाभाविक है । लेकिन तुम यह भी तो पूछो कि किन पीड़ाओं से, किस तपश्चर्या से ? महावीर का शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर मधुर वातास फैल जाए; महावीर का शब्द शब्द तुम्हारे भीतर मधु घोलने लगे — ठीक ! लेकिन यह भी तो पूछो कि ये शब्द किस मौन से आए हैं? किस ध्यान में इनका जन्म हुआ है ? किस साधना में गर्भित हुए हैं? कहां से पैदा हुए हैं। शब्द को ही पकड़कर तुम याद कर लो तो मुर्दा शब्द तुम्हारे मस्तिष्क में अटका रह जाएगा, शोरगुल भी करेगा; लेकिन | तुम्हारे भीतर वैसी शांति पैदा न हो सकेगी, जो महावीर के भीतर है। क्योंकि शब्द कारण शांति पैदा नहीं हुई, शांति के कारण शब्द पैदा हुआ है। महावीर की वीतरागता ऐसे ही आकश से नहीं टपक पड़ी है, छप्पर नहीं टूट गया है। महावीर की वीतरागता इंच-इंच सम्हाली गई है, साधी गई है। और जीवन के अनुभव में उसकी जड़ें हैं। अनुभव पृथ्वी है। । तुम किसी पौधे से प्रभावित हो गए, काट लाए पौधा ऊपर से और जड़ें वहीं छोड़ आए, तो थोड़ी-बहुत देर पौधा हरा रह जाए, लेकिन कुम्हलाने लगेगा; ज्यादा देर जीवंत नहीं रह सकता और अगर तुम जड़ें ले आओ, पौधा छोड़ भी आओ तो भी चलेगा। क्योंकि जड़ें आरोपित करते ही तुम्हारे घर में भी पौधा अंकुरित होने लगेगा। 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं...।' परिचित भी नहीं कहते; महावीर कहते हैं - 'सुपरिचित ।' परिचित तो हम सभी हैं थोड़े-बहुत, लेकिन नींद- नींद में हैं। कुछ हो भी रहा है, कुछ पता भी चल रहा है, लेकिन सब धुंधला-धुंधला है। न तो आंखें प्रगाढ़ हैं, न ज्योति जली है, न एक-एक अनुभव को पकड़कर निचोड़ लेने की कला सीखी है। तो रोज हम वही किए जाते हैं। तुमने कभी खयाल किया ? नया क्या करते हो? जो कल किया था, वही फिर दोहरा लेते हो। कैसे आदमी हो तुम? यह तो यंत्र जैसा हुआ। कल क्रोध किया था, आज भी कर लिया। 328 2010_03 और कल पछताए थे क्रोध करके, आज भी पछता लिए । कल भूल हो गई थी, रो लिए थे, क्षमा मांग ली थी। आज फिर भूल हो गई, फिर रो लिए, फिर क्षमा मांग ली। ऐसे वर्तुलाकार तुम कब तक भटकते रहोगे ? इसको ही पूरब में हमने संसार कहा है – संसार-चक्र । गोल-गोल घूमता रहता है, कोल्हू की बैल की तरह घूमता रहता है। बैल को शायद लगता हो कि गति हो रही है, विकास हो रहा है। कहीं जा रहा हूं, कहीं पहुंच रहा हूं। लेकिन जरा देखो, कहां पहुंच रहा है ! चलता जरूर है, मगर बंधा है एक ही केंद्र से । उसी के आसपास चक्कर काटता रहता है। तुम जरा गौर से देखो, तुम्हारे जीवन में विकास है ? उत्क्रांति है? तुम कहीं जा रहे ? कुछ हो रहा ? कि सिर्फ उसी उसी को पुनरुक्त कर रहे हो ? वही राहें, वही लीक ! जैसे कल सुबह उठे थे, वैसे आज सुबह उठ आए। जैसे कल रात सो गए थे, आज रात भी सो जाओगे। कितनी बार सूरज ऊगा है; और तुम्हें वहीं का वहीं पाता है! तो सुपरिचित नहीं हो; परिचित तो हो । सुपरिचित का अर्थ है कि जो अनुभव तुम्हारे जीवन में गुजरा उसके गुजरने के कारण ही अब तुम और हो गए। तुमने उससे कुछ सीखा, कुछ संपत्ति जुटाई। अगर तुमने आज क्रोध किया तो तुमने उस क्रोध से कुछ सीखा। कल अगर क्रोध करना भी पड़ा तो ठीक आज जैसा नहीं करोगे । उसमें कुछ फर्क होगा, भेद होगा, सुधार होगा, तरमीम होगी, संशोधन होगा, कुछ छोड़ोगे, कुछ जोड़ोगे | तो ठीक है, विकास हो रहा है। अगर ऐसे ही क्रोध से सीखते गए... सीखते गए... सीखते गए तो एक दिन तुम पाओगे कि क्रोध अपने आप, जैसे-जैसे तुम सुपरिचित हुए, विदा हो गया है। जीवन का ज्ञान क्रांति है। 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है...।' इसलिए खयाल रखना, किसी के प्रभाव में कुछ कसम मत ले लेना। किसी के प्रभाव में कुछ छोड़ मत देना । अकसर ऐसा होता है, जाते हो तुम सुनने, सत्संग में बैठते हो, बातें प्रभावित कर देती हैं! कोई कसम खा लेता है ब्रह्मचर्य की, लेकिन ब्रह्मचर्य की कसम मंदिर में थोड़े ही खानी होती है ! अगर तुम मुझसे पूछो तो ब्रह्मचर्य की कसम वेश्यालय में किसी ने खायी हो तो शायद टिक भी जाए, मंदिर में खायी नहीं टिक Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान हे आत्मरमण सकेगी। अगर कामभोग के अनुभव से ही आयी हो तो टिक पैरों में चलने की सामर्थ्य नहीं रह जाती और मन में दूर पहाड़ जाएगी। मंदिर में प्रवचन सुनकर, शास्त्र पढ़कर, एक चढ़ने की कल्पना और सपने रह जाते हैं। तब बड़ी दविधा पैदा भावाविष्ट अवस्था में तुमने ले ली हो, टिकेगी नहीं, टूटेगी। होती है। इसी दुविधा के कारण बूढ़े निंदा करते हैं। उनकी निंदा तुमने तो हुक्मे-तकें-तमन्ना सुना दिया में अगर गौर करो, तो ईर्ष्या पाओगे। बूढ़ा जब निंदा करता है किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई! जवान की, तो वह सिर्फ ईर्ष्या कर रहा है।। संत तो कहे चले जाते हैं, छोड़ो यह इश्क का जाल! छोड़ो यह | डी. एच. लारेन्स ने कहीं लिखा है कि जब मैं छोटे बच्चों को प्रेम की झंझट! छोड़ो यह भोग! वृक्षों पर चढ़ा देखता हूं तो तत्क्षण मेरे मन में होता है, उतरो! गिर तुमने तो हुक्मे-तकें-तमन्ना सुना दिया पड़ोगे! लेकिन तब मैने बार-बार यह कहकर सोचा कि मामला तुमने तो कह दिया, दे दिया आदेश कि छोड़ दो प्रेम! | क्या है? मैं अपने भीतर खोजं तो। तो मझे पता चला कि छोटे किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई! बच्चों को वृक्ष पर चढ़ते देखकर मुझे ईर्ष्या होती है। मैं नहीं चढ़ लेकिन जिसे जीवन का अभी कोई अनुभव नहीं है, वह कैसे पाता अब। उम्र न रही। अब हाथ-पैर में वैसी लोच न रही, न प्रेम को छोड़ दे? वैसा साहस रहा: न खतरा मोले लेने का वैसा निर्बोध चित्त जिसे जाना ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? जिसे पाया ही नहीं. | रहा। तो कहता तो हैं कि 'उतरो, गिर पड़ोगे,' लेकिन भीतर उसे छोड़ोगे कैसे? एक बात को खयाल रखना, जो पाया हो कहीं कोई ईर्ष्या पंख फड़फड़ाती है, कि मैं नहीं चढ़ पाता अब। वही छोड़ा जा सकता है। जो तुम्हारी मुट्ठी में हो उसी को गिराया जब मैं नहीं चढ़ पाता तो कोई भी न चढ़े। जा सकता है। जो तुम्हारे पास हो उसे ही फेंका जा सकता है। बूढ़ों की निंदा में तुम अकसर पाओगे, जो वे नहीं कर पाते हैं, लेकिन अकसर ऐसा होता है कि बूढ़े बच्चों को सिखाते हैं। कोई भी न करे। इन्हीं से बच्चे शिक्षित होते हैं। और बच्चे उन इससे बड़ी झंझट पैदा होती है। बूढ़े बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं। चीजों को छोड़ने का विचार करने लगते हैं, जिनका अभी और बूढ़े भी कुछ जानकर दे रहे हैं, ऐसा नहीं है। जैसे जवानी में अनुभव ही नहीं हुआ है। गैर-अनुभव से छोड़ी गई कोई भी बात नशा होता है राग का, वैसे बुढ़ापे में नशा होता है वैराग्य का। न लौट-लौटकर आ जाएगी; फिर-फिर तुम्हें पकड़ेगी; फिर-फिर तो जवानी के राग में कोई समझ है, न बुढ़ापे के वैराग्य में कोई तुम्हें सताएगी। समझ है। जैसे जवानी में आदमी अंधा होता है, वैसे बुढ़ापे में भी महावीर के इस सूत्र को खूब हृदय में हीरे की तरह सम्हालकर अंधा होता है। बुढ़ापे का अंधापन बुढ़ापे का है, जवानी का रख लेनाअंधापन जवानी का है। 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं, निस्संग, निर्भय और बढ़े जवानों की निंदा किए चले जाते हैं। कभी उन्होंने मन में आशारहित हैं...।' सोचा, कि जब तुम जवान थे, तुम्हारे बूढ़ों ने भी ऐसा ही किया जो ठीक से परिचित हुआ संसार से, जिसने सब कडुवे-मीठे था; तुमने सुना था? अगर तुम इतना भी न समझ पाए कि | अनुभव लिए, जो डरा नहीं, जो निस्संकोच उतर गया अंधेरों में, तुम्हारे बूढ़ों की तुमने नहीं सुनी, तुम्हारे जवान बेटे तुम्हारी कैसे जो गड्ढों में भी गिरा और भयभीत न हुआ, जिसने सारे जीवन के सुन लेगे, तो तुम कुछ भी नहीं समझ पाए। तो तुम बूढ़े...धूप में अनुभव लेने की ठानी कि परिचित तो हो लं! इस जीवन में आया बाल पक गए होंगे तुम्हारे, सुपरिचित नहीं हो। हं, ठीक से जान तो लूं, कि क्या है? जिसने उधार वचन न जो बूढ़ा सुपरिचित है, वह युवकों से कहेगा, ठीक से भोगना; सीखे, और उधार सिद्धांतों का बोझ न ढोया; और शास्त्रों से न जागकर भोगना; होश से भोगना। वह यह नहीं कहेगा कि भोग जीया, जीवन के शास्त्र को ही शिक्षा देने का जिसने मौका और छोड़ना। वह कहेगा, जब भोगने के दिन हैं तो खूब होश से भोग | अवसर दिया, वह अपने आप निस्संग हो जाएगा। लेना। कहीं ऐसा न हो कि भोगने के दिन निकल जाएं और भोग | निस्संगता का अर्थ है, जीवन को ठीक से पहचानोगे तो तुम की आकांक्षा भीतर शेष रह जाए तो बड़ी झंझट पैदा होती है। पाओगे, तुम अकेले हो। साथ होना धोखा है। हम सब अकेले 329 2010_03 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 हैं। अकेले के कारण डर लगता, भय होता, असुरक्षा मालूम और एक बात तय है कि अकेले हम आते हैं, अकेले हम जाते होती; तो हमने संग-साथ बना लिया है। लेकिन संग-साथ हैं, और बीच में यह जो दो दिन का मेला है, इसमें हम बड़े संबंध मान्यता भर है। तुम मरोगे, अकेले जाओगे। तुम आए अकेले, बना लेते हैं। राह पर चलते लोगों के हाथ में हाथ डाल लेते हैं। जाओगे अकेले। थोड़ी देर को अपरिचित लोगों से...और ध्यान कोई पत्नी हो जाती है, कोई पति हो जाता है। कोई मित्र हो जाता | रखना, जब मैं अपरिचित कह रहा हूं तो मेरा मतलब यह नहीं है | है. कोई शत्र हो जाता है। हम जल्दी से संबंध जोड लेते हैं. ताकि जिसे तुम नहीं जानते। जिसे तुम सोचते हो कि तुम जानते हो, अकेलापन छिप जाए। हम संबंध की चादर फैला देते हैं ताकि वह भी तो अपरिचित है। | अकेलापन भीतर छिप जाए। हम अकेले होने से डरे हैं, भयभीत तुम्हारी पत्नी परिचित है? एक दिन एक अपरिचित स्त्री के | हैं। कोई तो अपना हो इस अजनबी दुनिया में। दो-चार को साथ सात चक्कर लगा लिए थे, परिचय हो गया? तुम्हारा बेटा | अपना बनाकर थोड़ा भरोसा आता है। कोई फिक्र नहीं, कोई तो तुमसे परिचित है? एक दिन एक अनजान आत्मा तम्हारे घर में अपना है। किसी से तो नाता है। पैदा हो गई थी। सिर्फ तम्हारे गर्भ से पैदा हआ. तो परिचित है? जिस व्यक्ति ने भी जीवन को गौर से देखा, वह यह पाएगा कि तुमने उसके अवतरण में थोड़ा साथ-सहयोग दिया, तो परिचित हम निस्संग हैं। और जब निस्संग हैं तो नाते-रिश्तों के धोखे में पड़ने का कोई कारण नहीं। . खलील जिब्रान ने कहा है, तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं। तुमसे इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सब नाते-रिश्ते तोड़कर आज आते हैं जरूर। तुम माध्यम हो। लेकिन दावा मत करना कि भाग जाओ। भागने का तो खयाल उसी को आता है, जिसको हमारे बच्चे हमारे हैं। तुम उन्हें प्रेम तो देना, ज्ञान मत देना। | समझ नहीं आई। मां मां रहेगी, पिता पिता रहेगा, बेटा बेटा क्योंकि वे कल में जीयेंगे। वे भविष्य में जीयेंगे। उस भविष्य का रहेगा; लेकिन भीतर अब तुम जानते हो, जागकर जानते हो कि तुम्हें सपना भी नहीं आ सकता। तुम्हारा ज्ञान अतीत का है। वे कोई, कोई का नहीं। कोई अपना नहीं। खेल के नियम हैं। भविष्य में जीयेंगे। तुम अपना प्रेम देना, अपना ज्ञान मत देना। जैसे ताश खेलते हैं, तो ताश के पत्तों में रानी होती है, राजा और दावा मत करना कि बच्चे हमारे हैं। | होता है, गुलाम होता और सब कुछ होता है; लेकिन कोई हम एक आदिम जाति है—होपी। अकेली होपी भाषा ऐसी भाषा मानते थोड़े ही, कि राजा-रानी हैं। जानते हैं कि ताश का पत्ता है, है, जो इस संबंध में सच के करीब पहंचती है। तुम अपने बेटे को खेल है। अगर कोई आदमी ताश के पत्तों में एकदम उठकर खड़ा लेकर कहीं जाते हो, कोई पूछता है 'कौन है?' तुम कहते हो, हो जाए और कहे, कि यह सब धोखा है, मैं तो त्याग करता हूं यह 'मेरा बेटा,' या 'मेरी बेटी।' होपी भाषा में ऐसा कोई शब्द | राजा-रानियों का। तुम्हें हंसी आएगी। क्योंकि त्याग करने का नहीं है, अगर होपी बाप अपने बेटे को लेकर कहीं जा रहा है और खयाल तो तभी सार्थक हो सकता है, जब राजा-रानी सच्चे हों। कोई पूछता है, यह कौन है, तो वह कहता है, यह लड़का है, तुम कहोगे पागल हुए हो? है ही कौन, जिसको तुम त्याग कर जिसके साथ हम रहते हैं। यह लड़का है, जो हमारे घर पैदा हुआ रहे हो? ये राजा-रानी तो कागज पर बने चिह्न हैं। यह तो हमारी है। पता नहीं कौन है! मान्यता है। त्याग तो तब हो सकता है, जब हो। यह बात ज्यादा समझ में आने जैसी लगती है—यह लड़का तो जब कोई आदमी कहता है, मैं पत्नी को छोड़कर जंगल जा हमारे साथ रहता है, हम इस लड़के के साथ रहते हैं। संयोग है। रहा हूं, तो चूक गया। पत्नी को छोड़कर जंगल जाने की क्या यह हमारे घर में पैदा हुआ है। वैसे हम जानते नहीं कौन है! | जरूरत थी? पत्नी जब तुम्हारे बिलकुल पास बैठी है, हाथ में कौन जानता है? कभी अपने छोटे बच्चे की आंखों में हाथ डाले बैठी है, तब भी तुम अकेले हो, यह जानना है। पत्नी झांककर देखा-जानते हो? इससे ज्यादा अजनबी आंखें और | अकेली है, यह जानना है। बेटा जब तम्हारी गोद में खेल रहा है, कहां पाओगे? कोई उपाय नहीं है। अपने को नहीं जानते, दूसरे तब भी जानना है कि तुम अकेले हो, बेटा अकेला है। को हम जानेंगे कैसे? संबंध ताश के पत्तों का खेल है; संयोग मात्र है। नदी-नाव 330 Jail Education International 2010_03 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n soommunisma MAAVARANANEWomawwwmummo वाEिDIAS ध्यान है आत्मरमण MANTRINAGIRATRAINA संयोग! थोड़ी देर को मिलना हो गया है। इन थोड़े क्षणों में इस साधु-संत तुम्हें कहते हैं, वासना छोड़ो, यह नहीं कहते कि आशा तरह जीओ कि तुम्हारे कारण किसी को व्यर्थ दुख न पहुंचे; बस छोड़ो। क्योंकि अगर आशा छोड़ो तो साधु-संत भी आशा ही के काफी है। थोड़ी देर राह पर साथ हो लिए हैं, गीत गुनगुना लो, सहारे जी रहे हैं-स्वर्ग की आशा, मोक्ष की आशा, इस संसार ठीक। कुछ देते बने, दे दो; ठीक! लेकिन इस भ्रांति में मत में नहीं मिला तो परलोक में मिलेगा सुख, इसकी आशा। पड़ना कि यह सदा संबंध रहनेवाला है—निस्संग! महावीर की बात कुछ और है। महावीर कह रहे हैं, आशा और जिसको यह पता चला कि मैं निस्संग हूं, वह निर्भय हो जानी चाहिए। आशारहितता जब तक न हो जाए, तब तक मुक्ति जाता है। मूल भित्ति है, जीवन से जो सुपरिचित होता है, वह | नहीं है। निस्संग हो जाता है। जीवन को देखोगे तो दिखाई ही पड़ जाएगा| आशा वासना का सूक्ष्मतम रूप है। आशा का अर्थ है, जो अकेला हूँ; बिलकुल अकेला हूं। जन्मों-जन्मों से अनंत की आज नहीं हुआ, कल होगा। जो आज नहीं हो पाया, कल कर यात्रा पर अकेला हूं। लेंगे। आज चूक गए, कल न भूलेंगे, कल न चूकेंगे। आशा का और जब अकेला हूं, और साथ-संगी होने का कोई उपाय ही अर्थ है, जीवन को कल पर टालने की सुविधा। नहीं है तो भय कैसा? जब अकेला ही हूं और अकेला ही रहा हूं | रोज-रोज हारते हैं, लेकिन कल की आशा बचाए रखते हैं! और अकेला ही रहूंगा तो अब भय भी क्या करना ! जब कोई बहुत घुटन है, कोई सूरते-बयां निकले, आदमी तथ्यों को देख लेता है, तथ्य स्वीकार हो जाते हैं। अगर सदा न उठे, कम से कम फुगां निकले। अकसर ऐसा होता है कि युद्ध के मैदान पर जब सैनिक जाते फकीरे-सहर के तन पर लिबास बाकी है, हैं, तो बहुत डरे रहते हैं-जाने के पहले डरे रहते हैं; बड़े अमीरे-सहर के अरमां अभी कहां निकले। घबड़ाए रहते हैं, मौत की तरफ जा रहे हैं। पता नहीं लौटेंगे, नहीं | हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे लौटेंगे। लेकिन जैसे ही युद्ध के मैदान पर पहुंच जाते हैं, भय मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले। समाप्त हो जाता है। फिर गोलियां चलती रहती हैं और बम गिरते -कुछ सपने अगर झूठे निकल गए तो इतना दुखी होने की हैं और वे ताश भी खेलते रहते हैं, गपशप भी करते हैं, हंसते भी क्या जरूरत? हैं, गुनगुनाते भी हैं, भोजन भी करते हैं—सब चलता है। हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे एक दफा युद्ध के मैदान पर पहुंच गए, एक बात स्वीकृत हो और अभी संसार तो बना है; तो और सपने बना लेंगे जाती है कि ठीक है, मौत है। जो है, है। उससे बचने का क्या मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले! है? भागने का कहां है? -कुछ ख्वाब झूठे निकल गए, कुछ सपने सच न सिद्ध हुए जैसे ही हम तथ्यों के साथ आंख मिलाना सीख जाते हैं, एक तो इसमें दुखी होने की क्या बात है? अभय पैदा होता है कि जो है, है। मौत है तो है, करोगे क्या? आदमी हारता है एक में, तो लोग उसे आश्वासन देते हैं, क्या जाओगे कहां? भागोगे कहां? फिर युद्ध के क्षेत्र से तो भागना घबड़ाते हो? एक बार आदमी हार जाता है, दूसरी बार जीत संभव भी है। युद्ध के क्षेत्र में तो बचने का कोई उपाय हो भी जाता है। दूसरी बार हार जाता है, तीसरी बार जीत जाता है। सकता है, लेकिन जीवन के क्षेत्र में कहां भागोगे? चले चलो! जीतोगे। यहां तो मौत सुनिश्चित ही है। कहीं भी जाओ, कैसे भी बचो, हालांकि इस संसार में कोई अब तक जीता नहीं। यहां सभी कहीं भी छिपो, मौत तुम्हें खोज ही लेगी। तो जब होना ही है तो हारे हैं। जीत यहां संभव नहीं है। हार यहां स्वभाव है। लेकिन स्वीकार हो जाता है। आशा कहे चली जाती है, आज हार गए, ठीक से संघर्ष न कर 'निस्संग, निर्भय और आशारहित...।' पाए, विधि-विधान न जुटा पाए, अब समझदार भी हो गए यह आशारहित शब्द को बहुत खयाल से समझने की जरूरत | ज्यादा, अनुभव भी हो गया, कल जीत लेंगे। है। जीवन में हम कामना से भी ज्यादा आशा से बंधे हैं। ऐसे जो कभी नहीं घटता, कभी नहीं घटेगा, उसकी आशा में 331 2010_03 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 हम जीये चले जाते हैं। और हाथ से रोज-रोज जीवन चुकता | हार और जीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जाता है। इधर जीवन राख हुआ जा रहा है, उधर आशा सुलगती आशा-निराशा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रहती है, सुलगाए रखती है। हम दौड़े रहते हैं। सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वासना से भी ज्यादा खतरनाक पकड़ है आशा की। क्योंकि स्वर्ग-नर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा तो दिखाई पड़ता है कि बहुत से लोग वासना से ऊब जाते तुम दुख से बचना चाहते हो, सुख पाना चाहते हो; मिलता तो हैं, मगर आशा से नहीं ऊबते। इधर वासना से ऊबते हैं, तो दुख ही है। तुम निराशा से बचना चाहते हो, आशा को उकसाए भागते हैं संसार छोड़कर; लेकिन संन्यास में भी आशा को तो रखते हो; मिलती तो निराशा ही है। जलाए ही रखते हैं कि जो संसार में नहीं मिला, वह संन्यास में महावीर कहते हैं, आशारहित हो जाओ; आशा से शुद्ध हो मिल जाएगा। | जाओ। आशा को छोड़ दो। आशा के छोड़ते ही एक क्रांति महावीर की दृष्टि में संन्यास घटता है, जब तुम आशारहित हो | घटती है। वह क्रांति है, भविष्य का विसर्जित हो जाना। वह गए। जब तुमने यह स्वीकार कर लिया कि कुछ होता ही नहीं, क्रांति है, भविष्य का समाप्त हो जाना। निराशा नहीं आती, होनेवाला नहीं है। सब आशाएं व्यर्थ हैं, धोखा हैं, प्रवंचना हैं, भविष्य विदा हो जाता है। और भविष्य के विदा होते ही तुम्हारी मृग-मरीचिका हैं। ऊर्जा यहीं और अभी ठहर जाती है। तुम तो घबड़ाओगे। तुम कहोगे, अगर ऐसा आदमी | वही ध्यान का पहला चरण है-ऊर्जा यहां, अभी ठहर जाए। आशारहित हो जाए, हताश हो जाए, निराश हो जाए तो जीयेगा कल में न भटकती फिरे, कल में तलाश न करे। आज और यहीं कैसे? चलेगा कैसे? उठेगा कैसे? सुबह बिस्तर से बाहर कैसे और इसी क्षण तुम्हारा सारा अस्तित्व संगठित हो जाए। निकलेगा? अगर कुछ भी नहीं होना है तो बिस्तर से बाहर अभी तुम बिखरे-बिखरे हो। कुछ अतीत में पड़ा है, जो अब निकलने का भी क्या प्रयोजन? रहा नहीं; कुछ वहां उलझा है...कुछ क्या, काफी उलझा है। हम डरते हैं। हम डरते हैं कि ऐसा आदमी अगर निराश हो नब्बे प्रतिशत आदमी अतीत में उलझा है। किसी ने गाली दी थी गया तो फिर जीना असंभव है; श्वास लेना असंभव है। लेकिन बीस साल पहले, अभी भी वहां उलझाव बना है। तीस साल हमें पता नहीं है। निराश भी हम तभी तक होते हैं, जब तक पहले कोई मित्र चल बसा था दुनिया से, अभी भी एक घाव बना | आशा है। जब आशा बिलकुल विदा हो जाती है तो निराश भी है। पंद्रह साल पहले कोई हार हो गई थी, अभी तक उसकी होने को कुछ नहीं बचता। इसे समझना। तिक्तता जीभ पर बनी है। अभी तक छटती नहीं है। अभी तक निराशा आशा की असफलता है। बार-बार याद आ जाती है। निराशा आशा का अभाव नहीं है, निराशा आशा की नब्बे प्रतिशत आदमी वहां उलझा है, जो है नहीं; और जो दस असफलता है। जिस आदमी ने आशा छोड़ दी, उसी के साथ प्रतिशत है वह वहां उलझा है, जो अभी आया नहीं। ऐसे हम निराशा भी छूट गई। अब निराश होने को भी कुछ न बचा। जब | शून्य में जीते हैं। आशा ही न बची तो निराश होने का क्या बचा? जब जीत का यही ठीक अर्थ है माया में जीने का। माया का अर्थ है, उसमें कोई खयाल ही न रहा तो हारोगे कैसे? | जीना, जो नहीं है-अतीत; और उसमें जीना, जो अभी आया इसलिए लाओत्से कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता। नहीं है- भविष्य। क्योंकि मैं जानता है, जीत होती ही नहीं। और मैं जीत की कोई और ब्रह्म में जीने का अर्थ है अभी जीना. यहीं जीना, सौ आकांक्षा नहीं करता हूँ। मझे कोई हरा नहीं सकता। प्रतिशत इसी क्षण में इकट्ठे हो जाना। सारी प्राण-ऊर्जा इसी क्षण कैसे हराओगे उस आदमी को, जो जीतने के लिए आतुर ही में आकर इकट्ठी हो जाए, केंद्रित हो जाए, संगठित हो जाए, नहीं है? जिसने जीतने की व्यर्थता को समझ लिया, उसे तुम | एकाग्र हो जाए। तो उस ऊर्जा की एकाग्रता में ही हमारा पहला कैसे हराओगे? संबंध, पहला साक्षात्कार सत्य से होता है। B32] Jal Education International 2010_03 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए महावीर कहते हैं, आशारहितता । हम अपने को धोखा दिए चले जाते हैं। हम कहते हैं, कल अच्छा हो सकेगा। मनुष्य की बड़ी से बड़ी जो भ्रांति की कला है, वह यह है कि कल थोड़ा सुधार हो जाएगा। आज दुकान ठीक नहीं चल रही है, कल चलेगी। आज ग्राहक नहीं आए, कल आएंगे। आज सम्मान नहीं मिला, कोई कारण नहीं है, कल क्यों न मिलेगा। थोड़ी और कोशिश करें। प्रत्येक नया दिन नई नाव आता है. लेकिन समुद्र है वही, सिंधु का तीर वही प्रत्येक नया दिन नया घाव दे जाता है, लेकिन पीड़ा है वही, नैन का नीर वही कुछ बदलता नहीं । पीछे लौटकर देखो ! रेगिस्तान की तरह... रिक्त है जीवन । अपने अतीत को देखो, वहां कुछ भी नहीं है। न होने का कारण ही जो-जो तुम अतीत में चूक गए हो, वह तुम भविष्य में रख लिए हो। जो तुम्हें पीछे नहीं मिल सका, उसे तुमने आगे सरका लिया है। जो तुम सत्य में नहीं पा सके, उसका सपना देख रहे हो । जब महावीर कहते हैं, कि 'आशारहितता', तो उनका अर्थ यह है : सत्य यहां है, इस क्षण ! तुम इस क्षण से और कहीं न भटको। तुम इस क्षण में लौट आओ। इस क्षण में होगा मिलन। इस क्षण में घटेगी वह क्रांति, जिसको समाधि कहें, सम्यक ज्ञान कहें या कोई और नाम देना हो तो और नाम दें। इस क्षण से द्वार खुलता है अस्तित्व में । यह क्षण द्वार है । केवल वर्तमान सच है, शेष सब झूठ है । जो बीत गया, बीत गया, अब नहीं है। जो नहीं आया, अभी नहीं आया है। जो बीत गया वह कभी सच था, जब वह वर्तमान था। और जो नहीं आया है, वह कभी सच होगा लेकिन तभी जब वर्तमान बनेगा। तो एक बात तय है कि केवल वर्तमान के अतिरिक्त और कुछ भी सच नहीं होता। तो तुम वर्तमान में होने की कला सीख जाओ, तो सत्य के साथ हो जाओगे । सत्य से सत्संग जुड़ेगा। और वह पल जो गया, सो गया ही जो नया आए, रहे वह नया ही यह नहीं होगा, नया भी जाएगा और हर क्षण नया ही क्षण आएगा फिर क्षणिक क्या ? खंड क्या है, छिन्न क्या ? 2010_03 ध्यान है आत्मरमण आज, कल अत्यंत और अभिन्न क्या ? सब सनातन, सिद्ध और समग्र है सब अचिंत्य, अनादि और अव्यग्र है और वह पल जो गया सो गया ही जो नया आए, रहे वह नया ही इसे थोड़ा सोचना । तुम्हारी आशा के कारण नया भी नया नहीं हो पाता । तुम जो-जो योजना बना लेते हो, उसके कारण नए को भी जूठा कर देते हो, पुराना कर देते हो, आने के पहले ही खराब कर देते हो । तुम्हारी अपेक्षा नए पर पहले से ही छाया डाल देती है । तुम कुछ मानकर चल रहे हो, यह होगा; अगर हुआ तो भी मजा नहीं आता। क्योंकि इसको तो तुम बहुत बार सपने में देख चुके थे; बहुत बार सोच चुके थे, वही हुआ। होने के पहले ही पुराना पड़ गया। अगर न हुआ तो दुखी होओगे कि नहीं हुआ; अगर हुआ तो सुखी न होओगे। आदमी का गणित बड़ा अजीब है। तुमने खयाल किया, जिससे अपेक्षा हो उससे सुख नहीं मिलता। राह तुम चल रहे हो, तुम्हारा रूमाल गिर जाए और एक अजनबी आदमी उठाकर रूमाल दे दे तो तुम धन्यवाद देते हो; क्योंकि अपेक्षा नहीं थी। तुम प्रसन्न होते हो कि भला आदमी है। लेकिन तुम्हारी पत्नी ही रूमाल उठाकर दे दे, तो तुम धन्यवाद भी नहीं देते! हां, अगर उठाकर न दे तो नाराज होओगे कि तुमने उठाकर दिया क्यों नहीं ? उठाकर दे, तो प्रसन्न नहीं होते; न धन्यवाद, न अनुग्रह । न दे तो नाराज होते हो। जिससे अपेक्षा होती है, उससे हम दुख पाते हैं, सुख नहीं पाते। अगर पूरा हो जाए तो होना ही चाहिए था, इसलिए सुख का कोई कारण नहीं है । पत्नी ने रूमाल उठाकर दिया—देना ही चाहिए था; उसका कर्तव्य ही था । इसमें बात क्या हो गई। धन्यवाद की ? अगर न दिया तो कर्तव्य का पालन नहीं हुआ। अगर बेटा बाप को सम्मान दे तो कोई सुख नहीं मिलता; न दे सम्मान तो दुख मिलता है। यह बड़ी हैरानी की बात है । फिर तुम कहते हो, हम दुखी क्यों हैं ? अगर तुमने धंधा किया और दस हजार रुपये मिलने की आशा थी, मिल गए तो कोई खास सुख नहीं होता - मिलने ही थे। निश्चित ही था । मिलने के पहले ही तुम योजना बना चुके थे कि 333 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 मिलेंगे। इतना ही नहीं, मिलने के बाद क्या-क्या करोगे उस सबकी भी योजना बना चुके थे। तो जब मिलते हैं, तब चौंकाते नहीं तुम्हें । विस्मय से नहीं भरते, आनंद-विभोर नहीं करते। अगर न मिले तो तुम दुखी जरूर हो जाते हो। कलकत्ते में मेरे एक मित्र हैं, उनके घर मैं कभी-कभी रुकता था। एक बार मुझे लेकर एअरपोर्ट से वे घर जा रहे थे, उदास थे; तो मैंने पूछा कि क्या मामला है ? वे बोले कि बड़ा नुकसान लग गया, कोई पांच लाख का नुकसान लग गया। उनकी पत्नी भी पीछे थी कार में, वह हंसने लगी। उसने मुझसे कहा, आप | इनकी बातों में मत पड़ना। मैंने कहा, वे उदास हैं और तू हंस रही है; बात क्या है ? तो उसने कहा, मामला ऐसा है कि नुकसान हुआ नहीं, पांच | लाख का लाभ हुआ है। लेकिन दस लाख का होना चाहिए था, इसलिए ये दुखी हैं। इनको मैं लाख समझा रही हूं कि तुम्हें पांच लाख का लाभ हुआ। मगर ये कहते हैं, वह कोई सवाल ही नहीं है, दस का होना निश्चित ही था। पांच का नुकसान हो गया। अब जिसको दस लाख का लाभ होना है, उसे पांच लाख का भी लाभ हो तो प्रसन्नता कैसे हो ? क्योंकि प्रसन्नता तो तुम्हारी अपेक्षा पर निर्भर होती है। तुम खयाल करना, अगर तुम अपेक्षाशून्य हो जाओ तो तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा हो जाएगी। अगर तुम्हारी कोई आशा न रह जाए तो तुम पाओगे, प्रतिपल स्वर्ग के फूल खिलने लगे। जिसकी कोई आशा नहीं है उसे तो सांस चलना भी बड़े आनंद की घटना मालूम पड़ती है। जिंदा हूं, यह भी बहुत है । यह भी कोई जरूरी तो नहीं है कि होना चाहिए। इसकी भी कोई ऐसी अनिवार्यता तो नहीं है। यह जगत मुझे जिलाए ही रखे, इसकी क्या अनिवार्यता है? मेरे दीये को बुझा दे तो शिकायत कहां करूंगा ? अपील की कोई कोर्ट भी तो नहीं है । मेरा दीया जल रहा है, यह भी धन्यभाग है। जिस व्यक्ति के जीवन में आशा नहीं है, होना मात्र भी परम आनंद है। छोटी-छोटी चीजें आनंद की हो जाती हैं। हवाओं का वृक्षों से गुनगुनाते हुए गुजर जाना! वृक्षों में नई कोपलों का फूट आना ! सुबह पक्षियों की चहचहाहट ! रात आकाश का तारों से भर जाना! राह पर किसी आदमी का नमस्कार कर लेना, किसी बच्चे का मुस्कुरा देना, किसी का प्रेम से हाथ हाथ में ले 334 2010_03 लेना - सभी कुछ अपूर्व है। लेकिन आशारहित व्यक्ति हो तो प्रतिक्षण सोने का है; प्रतिक्षण में सुगंध है, प्रतिक्षण में स्वर्ग है। महावीर कहते हैं, 'संसार से जो सुपरिचित, निस्संग, निर्भय और आशारहित है, उसी का मन वीतरागता को उपलब्ध होता है; और वही ध्यान में सुनिश्चल, भलीभांति स्थित होता है।' ध्यान की स्थिरता का अर्थ है, वर्तमान के क्षण से यहां-वहां न जाना; जरा भी डांवांडोल न होना। जो है, उसके साथ पूरी समरसता से जीना। जो है, उससे अन्यथा की न मांग है, न चाह है, न आशा है। जो है, वैसा ही होना चाहिए। ऐसा ही भाव है। जो है, वह वैसा है ही जैसा होना चाहिए था । न कोई विरोध है, न कोई निंदा है, न कोई आलोचना है। तथ्य की इस स्वीकृति का नाम तथाता है। और जो ऐसी तथाता को उपलब्ध हुआ, उसको महावीर और बुद्ध दोनों ने तथागत कहा है । तथागत बुद्ध और महावीर का विशिष्ट शब्द है । उसका अर्थ होता है, तथाता को उपलब्ध; तथ्य की स्वीकृति को पूर्णता से उपलब्ध है। जो है, है; जो नहीं है, नहीं है। और इसमें मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं राजी हूं। जो है, उसके होने से राजी हूं। जो नहीं है, उसके नहीं होने से राजी हूं। अन्यथा की कोई चाह नहीं है। तथ्य का पूरा स्वागत है। ऐसा व्यक्ति ही ध्यान को स्थित होता है। आमतौर से तो हम रोते ही रहते हैं। लोगों की आंखें देखो, तुम उन्हें सदा आंसुओं से भरी पाओगे । हजार शिकायतें हैं । शिकायतें ही शिकायतें हैं । सारा अतीत व्यर्थ गया, वर्तमान व्यर्थ जा रहा है, भविष्य की आशा पर टंगे हैं। बड़ा पतला धागा है, जिससे तलवार लटकी है। वह भी होगा इसका पक्का भरोसा थोड़े ही है ! सिर्फ आशा है, भरोसा नहीं है। भरोसा हो भी कैसे सकता है? आशा तो पहले भी की थी, हर बार टूट गई। आशा-आशा करके तो अब तक गंवाया; मिला कुछ भी नहीं । लेकिन बिना आशा के जीयें भी कैसे? तो फिर आगे के लिए सरका लेते हैं। पीछे के लिए रोते रहते हैं, आगे के लिए रोते रहते हैं । और बीच के क्षण में परमात्मा तुम्हारे द्वार दस्तक देता रहता है। परमात्मा कहता है, यहां, इसी क्षण ! खोलो आंखें ! देखो, मैं मौजूद हूं! लेकिन हमें फुर्सत कहां ? वर्तमान का छोटा-सा क्षण, बड़ा Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ध्यान है आत्मरमण छोटा है—आणविक, हमारी चिंताओं में अतीत और भविष्य | लेकिन जब दूसरों से संबंध धीरे-धीरे छोड़ देते हो, भीतर जान की, कहीं खो जाता है। लेते हो, जाग जाते हो कि कोई अपना नहीं, तो यह शरीर की दौड़ कभी सोचना बैठकर बंद हो जाती है। इस दौड़ के बंद होते ही धीरे-धीरे शरीर के साथ आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर तुम्हारी जो आंतरिक आसक्ति है, वह क्षीण हो जाती है। जब देखे थे हमने जो वह हंसी ख्वाब, क्या हुए? कोई अपना नहीं है तो एक दिन पता चलता है कि शरीर भी पहले भी तुम ख्वाब देखते रहे थे; उनका क्या हुआ? अब | अपना नहीं है। मैं शरीर नहीं हूं, यह बोध गहन होता है। फिर ख्वाब देख रहे हो। जो उनका हुआ, वही इनका भी होगा। और जब यह बोध गहन होता है, तब एक और नई क्रांति मरते वक्त रोओगे कि ख्वाब में ही गंवाया। आशा में ही घटती है कि मैं मन भी नहीं हूं। जैसे शरीर जोड़ता है दूसरों से, बंधे-बंधे नष्ट हुए। ऐसा मन जोड़ता है शरीर से। जैसे-जैसे तुम पीछे हटते जाते हो, ख्वाब छोड़ो। ये स्वप्नीली आंखों पर थोड़ा पानी छिड़को होश सेतु टूटते जाते हैं। का। थोड़ा झकझोरो अपने को, जगाओ। और इस क्षण में लौट शरीर जोड़ता है संसार से, पर से। पर से संबंध गिरा, शरीर आओ। पकड़-पकड़कर...। का संबंध शिथिल हुआ। शरीर का पता चला कि शरीर मुझसे पहले तो बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि मन की परानी आदतें अलग है, मैं देह नहीं, तो मन जोड़ता है शरीर से। अब मन के हैं, वह खिसक-खिसक जाता है। तुमने इधर से पकड़ा, वह भी जोड़ने का कोई कारण न रहा। मैं शरीर नहीं हूं तो मन का दूसरी गली से निकल गया। पीछे गया, आगे गया, यहीं भर नहीं | जोड़ भी उखड़ा। आता। लेकिन तुम कोशिश करते रहो, कोशिश करते रहो, कभी और जैसे ही जोड़ उखड़ा कि आखिरी क्रांति घटती है। पता अगर क्षणभर को भी यहां रुक जाएगा, तो स्वाद की शुरुआत हो चलता है कि मैं मन भी नहीं हूं; उसके पार जो शेष है, वही हूं। जाएगी-सत्य का स्वाद! फिर स्वाद पकड़ लेता है। फिर उस वही हूं। स्वाद के कारण मन ज्यादा-ज्यादा रुकने लगता है। उससे संबंध कभी नहीं छूटता। वही है शाश्वत आत्मा। वही 'ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य | है तुम्हारे भीतर सनातन। वही है नित्य। वही संयोगों से भिन्न देखता है। अर्थात देह तथा उपाधि का सर्वथा | शरीर मरता है; इसलिए शरीर के साथ जुड़े तो भय रहेगा। त्याग करके निस्संग हो जाता है।' मन बदलता है; मन के साथ जड़े तो जीवन में कभी थिरता न जिसने यह जाना कि कोई मेरा नहीं है, कोई मित्र नहीं, कोई होगी। प्रियजन नहीं; जिसने यह समझा कि मैं अकेला हूं, उसे जल्दी ही शरीर और मन के पार जो छिपा है-साक्षी, चैतन्य—उससे | एक और नई समझ आएगी। और वह समझ होगी कि मैं शरीर जुड़े तो फिर सब शाश्वत है, सब थिर है। फिर कोई परिवर्तन की नहीं हूं। क्योंकि दूसरों के साथ हम जो संबंध जोड़े हैं, वह शरीर लहर नहीं आती। फिर तुम उस अनंत गृह में पहुंचे, जहां से से जोड़े हैं। जब दूसरों से संबंध टूट जाता है तो शरीर से संबंध निकलने का कोई कारण नहीं। जहां तुम सदा के लिए विश्राम शिथिल होने लगता है। जो आदमी दौड़ता है, उसके पैर मजबूत कर सकते हो। जहां विराम है—चिंताओं से, विचारों से, रहते हैं। जब वह घर बैठ जाता है, दौड़ना बंद कर देता है, पैर अशांतियों से, तनावों से। तुम अपने घर वापिस आए। अपने आप कमजोर हो जाते हैं। अगर वह वर्षों तक बैठा ही रहे | 'ध्यान-योगी अपने शरीर को तथा समस्त बाह्य संयोगों को तो फिर चल ही न पाएगा। | भिन्न देखता है। देह तथा उपाधि का सर्वथा त्याग करके निस्संग जब तुम्हारा मन शरीर के माध्यम से दूसरों से बहुत संबंध हो जाता है।' बनाता है, हजार तरह के नाते जोड़ता है तो शरीर मजबूत रहता 'वही श्रमण आत्मा का ध्याता है, जो ध्यान में चितवन करता है। शरीर की पकड़ गहरी रहती है, आसक्ति भारी रहती है। है कि मैं न पर का है, न पर पदार्थ या भाव मेरे हैं। मैं तो एक क्योंकि उसी के द्वारा...वही तो सेतु है दूसरे तक पहुंचने का। शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं।' 335 2010_03 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 RATHI 'चितवन'—जैनों का अपना शब्द है। इसे तुम चिंतन से एक अकंप होने की दिशा है वर्तमान। मत समझ लेना। चिंतन से भिन्न करने के लिए ही इस शब्द को 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते।' गढा गया है चितवन। चिंतन का अर्थ होता है. सोचना. और | न तो अतीत में कोई सार्थकता है. और न भविष्य में कोई चितवन का अर्थ होता है देखना। सार्थकता है। तथागत तथ्य में देखते हैं। तथ्य में देखने से ही, तुम ऐसा बैठकर सोच सकते हो कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं; तथ्य के साथ जुड़ने से ही, जो है उसमें उतरने से ही, सत्य का इससे कुछ लाभ न होगा। यह तो मन में ही उठी तरंग है। यह तो अनुभव उपलब्ध होता है। मन ही दोहरा रहा है। नहीं, ऐसा सोचना नहीं है, ऐसा देखना है। तथ्य द्वार है सत्य का। ऐसा विचार में नहीं, भीतर दोहराना है। ऐसा भीतर अनुभव में ....कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो।' लाना है। ऐसा स्पष्ट दिखाई पड़े कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं। अनुपश्यी वर्तमान का! वर्तमान की प्रतीति में, वर्तमान के इसमें जरा भी शंका और शल्य न रहे। इसमें जरा भी संदेह की अनुभव में, वर्तमान के साक्षात्कार की जो दशा है, जो इस समय छाया न पड़े। यह श्रद्धा परिपूर्ण हो। यह हो जाती है। गुजर रहा है सामने से, उसको ही देखता है। उसका ही अनुपश्यी जो आशारहित, निस्संग भाव से जीता है. स्वभावतः धीरे-धीरे होता है। उसे यह दृष्टि उपलब्ध होती है। यह सम्यकत्व उपलब्ध होता अवेयरनेसं, जागरूकता बस इस क्षण की होती है। इसे थोड़ा है। वह देखने लगता है अपने भीतर। उसे साफ दिखाई पड़ने करने की कोशिश करो। कठिन है, अति कठिन है। लेकिन जब लगता है कि मैं देखनेवाला हूं। जो भी दिखाई पड़ता है, वह मैं | सधता है तो सभी कठिनाइयां सहने योग्य थीं, ऐसा पता नहीं है। हो भी कैसे सकता है? जो मझे दिखाई पड़ता है. उससे चलेगा। तब बहमल्य हीरा. अमल्य हीरा हाथ लगता है। मैं अलग हो गया। मैं तो वह हूं, जिसे दिखाई पड़ता है। थोड़ी कोशिश करो। जो भी तुम कर रहे हो...रास्ते पर चल इसलिए धीरे-धीरे समस्त दृश्यों से अपने को मुक्त करके शुद्ध रहे हो, तो बस चलने का ही अनुपश्यन, चलने की ही द्रष्टा में लीन हो जाने का नाम चितवन है। | जागरूकता रहे। भोजन कर रहे हो तो भोजन करने की ही 'वही श्रमण आत्मा का ध्याता है...।' जागरूकता रहे। और महावीर कहते हैं, वही ध्यान को उपलब्ध हुआ, जो झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या | चितवन करता है, जो देखता है, जिसके अनुभव में आता है, है? उसने कहा, जब भोजन करता हूं तो सिर्फ भोजन करता है जिसकी प्रतीति में उतरता है कि मैं न पर का हूं, न पर मेरे हैं। मैं और जब कुएं से पानी भरता हूं तो सिर्फ कुएं से पानी भरता हूं। एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं। . | और जब सो जाता हूं तो सिर्फ सो जाता हूं। 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते...।' उस आदमी ने कहा, यह भी कोई साधना हुई? यह तो सभी 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। करते हैं। कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म-शरीर का | बोकोजू ने कहा, काश! सभी यह करते होते तो पृथ्वी पर बुद्ध शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।' ही बुद्ध होते। सब तथागत होते। तुम जब भोजन करते हो तब "तथागत अतीत और भविष्य में नहीं देखते'-वही तथागत तुम हजार काम और भी करते हो। भोजन तो शायद ही करते हो, की परिभाषा है; जो न पीछे देखता है, न आगे। जो बस यहीं है; और ही काम ज्यादा करते हो। इस क्षण में पर्याप्त है। जो इस क्षण से बाहर नहीं जाता। आदमी भोजन पर बैठा है, वह यंत्रवत भोजन को फेंके जाता है जैसे दीये की लौ हवा के झोंके में कंपती इधर-उधर, फिर हवा | शरीर में। मन हजारों दिशाओं में भटकता है। न मालूम के झोंके बंद हो गए और दीये की लौ अकंप जलती है। जब तुम कहां-कहां की यात्राएं करता है। न मालूम कितनी योजनाएं | अकंप होते हो, तुम यहां होते हो। जरा कंपे कि या तो अतीत में | बनाता है। गए, या भविष्य में गए। दो ही दिशाएं हैं कंपने की। तुम रास्ते पर चलते हो, जब चलते हो तो सिर्फ चलते हो? 336 Jal Education International 2010_03 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ध्यान है आत्मरमण चलने का तो खयाल ही नहीं रखते। जो वर्तमान में हो रहा है '...तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी।' उसको तो देखते ही नहीं। उससे तो तुम चूकते ही चले जाते हो। मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो। और वर्तमान बड़ा छोटा-सा क्षण है। जरा चूके कि गया। चूके अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।। नहीं कि गया! एक शब्द भी उठा मन में कि वर्तमान गया। तुमने यही परम ध्यान है। अगर इतना भी कहा कि 'अरे! वर्तमान को देखू,' वर्तमान | इसे थोड़ा खयाल में ले लें। कभी बैठे हैं तो बैठे रह जाएं; तो गया। तुमने इतना भी कहा मन में कि मुझे वर्तमान में जागरूक बैठने में ही लीन हो जाएं। भीतर से शब्दों को विदा कर दें, रहना है, तो तुम जब यह कह रहे थे तब वर्तमान जा रहा था। नमस्कार कर लें। कुछ चिंतन भी न करें। आत्मा का भी चिंतन जो है, वह तो शब्द मात्र से भी चूक जाता है। इसलिए भीतर न करें। यह भी मत सोचें कि मैं आत्मा हूं, शुद्ध-बुद्ध हूं। शब्द न उठे, निशब्द रहे तो ही वर्तमान पकड़ में आता है। क्योंकि वह सब चूकना है। निशब्द रहे और जो क्रिया तुम कर रहे हो, उसमें ही पूरी न चिंतन करें, न शरीर की कोई क्रिया में संलग्न हों, बैठे हैं तो तल्लीनता रहे। जैसे यही परम कृत्य है। | बैठने में डूब जाएं और भीतर सिर्फ जागे रहें, बस एक खयाल इसीलिए कबीर ने कहा है कि जो खाता-पीता है, वही तेरी रखें कि होश बना रहे. नींद न आ जाए। सेवा है प्रभु! जो उठता-बैठता हूं, वही तेरी परिक्रमा है प्रभु! अगर ध्यान का किसी चीज से विरोध है तो नींद से; और 'खाऊ पिऊ सो सेवा।' किसी चीज से विरोध नहीं है। संसार छोड़कर मत भागो। बडी अदभत बात कबीर ने कही कि मैं जो खाता-पीता हं. वही| घर-गहस्थी छोडकर मत भागो। इससे कछ लेना-देना नहीं है। तुझे मैंने भोग लगा दिया प्रभु! और भोग कहां लगाऊं? | सिर्फ नींद को गिरा दो। उठता-बैठता हूं, यही तेरे मंदिर की परिक्रमा है; अब और | जब मैं कह रहा हूं, नींद को गिरा दो तो मेरा मतलब यह नहीं है परिक्रमा करने कहा जाऊं? इसका अर्थ हुआ कि अगर क्षण को | कि रात तुम सोओ मत। जब जागो तो परिपूर्णता से जागो। कोई पूरी तरह जीये तो सब हो गया। क्षण से चूके कि सब चूके। आहिस्ता-आहिस्ता चलो, उठो, बैठो एक बात ख क्षण में जागे कि सब पाया। भीतर होश को सम्हाले रखना है। 'हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ अभी नाजुक है। अभी बार-बार खो जाएगा। बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का निरोध सम्हालते-सम्हालते आने लगेगा। फिर धीरे-धीरे तुम पाओगे, करने से तू स्थिर हो जाएगा, तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। जब दिन की जागृति में जागरण सध गया, तो नींद में भी शरीर तो यही परम ध्यान है।' सो जाएगा, तुम जागे रहोगे। शरीर तो विश्राम करेगा, लेकिन यह परम ध्यान का परम सूत्र! तुम्हारे भीतर एक प्रहरी जागा रहेगा। 'हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर...।' ध्यान के जिस दिन चौबीस घंटे जागरण सध जाता, उसी दिन व्यक्ति लिए शरीर की चेष्टा का कोई प्रयोजन नहीं है। | बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता। '...न वाणी से कछ बोला' न भीतर शब्द को निर्मित कर। तो जागने में तो जागना पहले साधो. फिर नींद की फिक्र कर क्योंकि ध्यान से उसका भी कोई संबंध नहीं है। लेंगे। पहले तो जागने से नींद को हटाओ। तुम्हें भी कई दफे '...और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का | लगा होगा कि तुम्हारे भीतर जागरण की कई मात्राएं होती हैं। निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा।' जैसे समझो कि तुम रास्ते पर जा रहे हो और अचानक एक एक निशब्द शून्य भीतर घेर ले। उस निशब्द शून्य में जागरण सांप रास्ते से निकल जाए तो तुम चौंक पड़ते हो। सांप नहीं का दीया भर जलता रहे, बस! शून्य हो और जागृति हो। निकला था तब तुम किस अवस्था में थे? थोड़ी तंद्रा थी। चले शून्य + जागृति—कि ध्यान हुआ। जा रहे थे डूबे-डूबे, सोये-सोये; थोड़े-थोड़े जागे, थोड़े-थोड़े ध्यान का यही परम सूत्र है। सोये। सांप सामने आया, मौत सामने आ गई, एक धक्का 337 2010 03 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 लगा, एकदम जाग गये। एक क्षण को तुम उस अवस्था में आए से बाधित, ग्रस्त या पीड़ित नहीं होता।' जिसको महावीर कहते हैं, प्रत्येक क्षण की बनाना है। _ 'वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित तुम कार चला रहे थे, गीत गुनगुना रहे थे, कि सिगरेट पी रहे | होता है, न ही सूक्ष्म भावों, से भयभीत होता है, और देव-निर्मित थे, कि रेडियो सुन रहे थे। चले जा रहे थे अपनी धुन में। मायाजाल से मुक्त होता है।' अचानक दूसरी कार तेजी से सामने आ गई, मौत का खतरा ध्यान, धर्म का मौलिक आधार है। आया। दुर्घटना होने-होने को थी, बाल-बाल बचे। उस क्षण जैसे किसी को दर्शनशास्त्र में जाना हो तो विचार, तर्क मौलिक एक जोर तुम्हारे भीतर ऊर्जा का उठेगा। तुम जाग जाओगे। एक आधार है। वैसे ही किसी को स्वयं में जाना हो, स्वभाव में जाना क्षण को लगेगा, सब नींद टूट गई। खतरा इतना था कि नींद रह हो तो ध्यान मौलिक आधार है। नहीं सकती थी। तुम और सब साध लो और ध्यान न सधे, तो तुमने जो साधा मनोवैज्ञानिक कहते हैं खतरे में रस ही इसीलिए है कि उससे है, वह धर्म नहीं है। तुम तप साधो, योग साधो, और हजार तरह कभी-कभी जागने की झलकें आती हैं। लोग पहाड़ पर चढ़ने के क्रियाकांड और विधियां करो; यज्ञ करो, हवन करो, जाते हैं, गौरीशंकर चढ़ते हैं, खतरनाक है, जान-जोखिम में पूजा-प्रार्थना करो, लेकिन तुम्हारे भीतर अगर ध्यान नहीं सधा तो डालना है। लेकिन जब जोखिम होती है तो भीतर जागरण होता यह सब साधना बाहर-बाहर है; भीतर तुम न आ पाओगे।। है। जब जोखिम बहुत होती है तो भीतर बहुत जागरण होता है। और इस भीतर आने के लिए कुछ करने जैसा नहीं है। इस पहाड़ पर चढ़नेवाले को शायद पता भी न हो, कि वह क्यों पहाड़ भीतर आने की प्रक्रिया को तुम्हारी सारी क्रियाओं में से साधा जा पर चढ़ने के लिए पागल हुआ जा रहा है! लेकिन मनस्विद कहते सकता है। तुम दुकान पर बैठे बाजार में काम कर रहे हो, हैं, और सदा से ज्ञानियों को इस बात का खयाल रहा है कि खतरे ध्यान-पूर्वक करो-सोओ मत। मजदूर हो, कि अध्यापक हो, में लोगों को इसीलिए रस आता है कि खतरे में थोड़ी-सी नींद | कि दफ्तर में क्लर्क हो, कि स्कूल में चपरासी हो, कुछ भी हो; टूटती है और जागरण का स्वाद मिलता है। गरीब हो, कि अमीर हो; सैनिक हो कि दुकानदार हो; कोई भी लेकिन पहाड़ पर अगर रोज-रोज चढ़ते रहे...जो पहाड़ पर | कृत्य हो जीवन का, वहीं एक बात साधी जा सकती है कि जो भी चढ़ने जाता है उसको तो थोड़ा रस आता है, लेकिन नेपाल में जो तुम करो, उसे होशपूर्वक करते रहो। आदमी दूसरों को पहाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं जिंदगी से, पृथ्वी यह परिस्थिति यह, उनको कुछ नहीं होता। स्थान और पुरजन ये दलदल है, वह अभ्यस्त हो गया, यह यांत्रिक हो गया। एरावत बन हम फंसते हैं बाहर तो हर चीज यांत्रिक हो जाती है, जब तक कि भीतर का मदांध हो समझते हैं जागरण ही सीधा-सीधान खोजा जाए...जैसे तुम कभी आग कमलवन हमारा है, हमारा हे जलाते हो, अंगारों पर राख जम जाती है. ऐसी चित्त पर नींद जमी यहां कुछ भी हमारा नहीं। यहां जो भी हमारा मालूम पड़ता है, है। इसे थोड़ा झकझोरना है। इसे झकझोरते रहना है। अंगारा वह सब दलदल है। लेकिन इस हमारे के दलदल में कुछ है, जो जलता रहे। हमारा स्वभाव है। मेरा तो कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं हूं। 'हे ध्याता, न तो तू शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ यह मैं क्या है? इस मैं को हम कैसे पकड़ें? इस मैं की तरफ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार निरोध करने से हम किन यात्राओं, किन यात्रापथों से चलें? इस मैं का सुराग तू स्थिर हो जाएगा। तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परम कैसे मिले? ध्यान है।' महावीर के इन सूत्रों का अर्थ हुआ कि इस मैं को जानना हो तो 'जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पहले तो जिस-जिस को तुमने मेरा माना है, उससे अपना संबंध पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों शिथिल कर लो। क्योंकि 'मेरे' के दलदल में, 'मैं' फंसा है। 1338 2010_03 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N ध्यान हे आत्मरमण तो पहले तो दलदल से बाहर कर लो। एक बार दलदल से बाहर आश्रम में, वही उसका काम था, और फकीर ने आकर पीछे से हो जाए, मेरे का जाल छूट जाए तो फिर दूसरा काम करने का है, उस पर हमला किया एक लकड़ी और वह यह है कि मैं सोया न रहे। सम्राट तो बहुत चौंका, उसने कहा, यह आप क्या करते हैं? बाहर का दलदल मिटे, फिर भीतर का दलदल मिटाओ। फकीर ने कहा, ध्यान की शुरुआत आज हुई। अब तुम खयाल बाहर का दलदल है संबंधों का जाल, और भीतर का दलदल है रखना। तुम कुछ भी कर रहे हो...तुम्हारा काम है लकड़ी एक तरह की सुप्ति, एक तरह की निद्रा, एक तरह की तंद्रा। काटकर लाना, बुहारी लगाना, भोजन पकाना, तुम सब करना, हम ऐसे चल रहे हैं जैसे कोई शराबी चल रहा हो। चल भी रहे लेकिन एक ध्यान रखना कि मैं कभी भी पीछे से हमला करूंगा, हैं, साफ भी नहीं है-अंधेरे में टटोलते से, खोये-खोये से, इसका होश रखना।। सोये-सोये से। उसने कहा, यह किस तरह का ध्यान हुआ? फकीर ने कहा, तो झकझोरो! पुकारो! खींचो इस भीतर के दलदल से अपने वह तुम फिक्र मत करो। तुम बस इतना होश रखो। को बाहर। कहते हैं ऐसा एक वर्ष बीता। और वह फकीर अनेक-अनेक महावीर कहते हैं, इसके लिए न तो कोई योगासन करने जरूरी | रूपों से पीछे से हमला करता। धीरे-धीरे होश सम्हलने लगा। हैं। शरीर की कोई क्रिया अपेक्षित नहीं है। न कोई बहुत बड़ा | क्योंकि जब कोई चौबीस घंटे हमले के बीच में पड़ा हो तो कैसे विचारक होना जरूरी है। कोई बड़े विश्वविद्यालयों से बड़ी रहेगा बेहोशी में? वह बार-बार चौंककर इधर-उधर देख उपाधियां लेकर आना जरूरी नहीं है। न शास्त्रों का पठन-पाठन लेता। जरा-सी पीछे से आवाज आती कि वह सजग हो जाता। आवश्यक है। क्योंकि चिंतन यहां काम आता ही नहीं। यहां तो हमले से बचना जरूरी था। बिल्ली भी चलती, कोई हवा का सिर्फ एक चीज काम आती है. और वह जागरण है। झोंका आता तो भी वह सजग हो जाता। तो तुम जो भी करते हो, अपने छोटे-छोटे कृत्यों में...बुहारी एक वर्ष होते-होते ऐसी हालत हो गई कि जब भी फकीर लगा रहे हो घर में, बस जागकर लगाओ। हमला करता—इसके पहले कि फकीर हमला करता, उसका एक झेन फकीर हुआ; सम्राट उसके पास आया था सीखने हाथ लकड़ी को पकड़ लेता। हमला करना मुश्किल हो गया। ध्यान। तो उस फकीर ने कहा कि रुको, जब ठीक समय फकीर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, तमने पहला पाठ सीख आएगा, मैं शुरू करूंगा। उस सम्राट ने कहा, मैं ज्यादा देर नहीं लिया। अब दूसरा पाठ-कि अब रात जरा सम्हलकर सोना, रुक सकता, मेरे पिता वृद्ध हैं उनकी मृत्यु कभी भी हो सकती है। क्योंकि मैं सोते में हमला करूंगा। उन्होंने ही मुझे भेजा है कि उनके जीते-जी मैं ध्यान को उपलब्ध | लेकिन अब सम्राट को भी खयाल में आ गया था कि एक बड़ी हो जाऊं। तो जल्दी करें। गहरी शांति, अकारण-भीतर भरी थी। एक बड़ा प्रसाद, बड़ी उस फकीर ने कहा, अगर जल्दी की तो देर हो जाएगी। जल्दी प्रसन्नता। कुछ सीधा संबंध भी नहीं दिखाई पड़ता था कि आदमी करने में बड़ी देर हो जाती है। यह तो काम धीरज का है। तुमने किसी के पीछे से हमला करे तो प्रसाद का क्या संबंध? इतने अगर समय की मांग की तो फिर न हो सकेगा। तो तम पहले तय आनंद का क्या कारण? लेकिन आनंद ही आनंद था। जरूर कर लो। मैं तो तुम्हें स्वीकार ही तब करूंगा शिष्य की तरह, जब इसमें भी कुछ राज होगा। तुम मुझ पर छोड़ दो। जब समय परिपक्व होगा, जब मौसम रात कुछ दिन तो चोटें खायीं, फिर धीरे-धीरे नींद में भी आएगा और जब मैं समझूगा, कि अब शुरू करना पाठ, शुरू | सम्हलकर सोने लगा। नींद में भी, कमरे में फकीर प्रवेश करता कर दूंगा। तो वह आंख खोलकर बैठ जाता। गहरी नींद सोया होता, घुर्राटे कोई और उपाय न देखकर सम्राट ने स्वीकार कर लिया। तीन | लेता होता, लेकिन जरा आवाज होती कि वह चौंक जाता। साल, कहते हैं बीत गए और फकीर ने ध्यान की बात ही न की। तुमने देखा किसी मां को? तूफान हो, आंधी हो, नींद नहीं लेकिन एक दिन फकीर आया और सम्राट बुहारी लगा रहा था | खुलती। बच्चा जरा रो दे, नींद खुल जाती है। जिस तरफ ध्यान 339 2010_03 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 होता है, उस तरफ संबंध हो जाता है। तो एक आह्लाद बचता है-असीम! अपरिभाषित! तुम यहां सारे लोग सो जाओ आज रात, फिर मैं आकर आज मिलन-त्यौहार मनाये कौन वहां? पुकारूं, 'राम', तो किसी को सनाई न पड़ेगा, लेकिन जिसका। बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां? नाम राम है उसे सुनाई पड़ जाएगा। क्योंकि राम से उसका एक वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां? सेतु बंधा है, एक संबंध बंधा है। बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां? एक साल बीतते-बीतते ऐसा हो गया कि फकीर नींद में भी अमत बरसता है। इतना कहने को भी कोई नहीं बचता कि हमला न कर पाता। हमला करता कि इसके पहले ही हमला | अमत बरस रहा है कि गाये कौन वहां? बरस रही रसधार। रोकने का इंतजाम हो जाता। वीणा बजती है. बजानेवाला भी नहीं रह जाता। एक दिन सबह की बात है, सर्दी के दिन! फकीर. बढ़ा फकीर वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां? वृक्ष के नीचे धूप में बैठा कुछ पढ़ रहा था, और वह युवक इसको हिंदुओं ने अनाहत नाद कहा है-अपने से हो रहा संन्यासी–सम्राट–बुहारी लगा रहा था। बुहारी लगाते- नादः ओंकार। लगाते उसे खयाल आया कि दो साल से यह आदमी सब तरह से इसको महावीर ने स्वभाव कहा है-अपने से जो हो रहा। मुझ पर चोट कर रहा है, लाभ भी बहुत हुए, लेकिन मैंने कभी | आनंद हमारा स्वभाव है। हम सच्चिदानंद-रूप हैं। लेकिन इस यह नहीं सोचा कि मैं भी इस पर कभी हमला करके देखू, इस बूढ़े रूप को जानने के लिए जो आंख चाहिए ध्यान की, वह हमारे पर, यह भी जागा हुआ है या नहीं? पास नहीं है। या है भी, तो बंद पड़ी है। ऐसा खयाल भर आया, कि उस बूढ़े ने अपनी किताब पर से सौ-सौ बार चिताओं ने मरघट पर मेरी सेज बिछाई आंख उठाई और कहा, नासमझ! ऐसा मत करना, मैं बूढ़ा सौ-सौ बार धूल ने मेरे गीतों की आवाज चुराई आदमी हूं। लाखों बार कफन ने रोकर मेरा तन शंगार किया पर वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहा, 'हआ क्या? मैंने तो एक बार भी अब तक मेरी जग में मौत नहीं हो पाई सिर्फ सोचा।' उसने कहा, 'जब जागरूकता बहुत सघन होती है तो जैसे अभी तू पैर की आवाज को पकड़ने लगा, ऐसे विचार मैं जीवन हूं, मैं यौवन हूं की आवाज भी पकड़ में आने लगती है। विचार की भी तो जन्म-मरण है मेरी क्रीड़ा आवाज है। विचार की भी तो तरंग है। विचार से भी तो घटना इधर विरह-सा बिछुड़ रहा हूं घटती है। जैसे तू अभी नींद में भी जाग जाता है, मेरा पैर नहीं| उधर मिलन-सा आ मिलता हूं। पड़ता तेरे कमरे के पास कि तू बैठ जाता है तैयार होकर। मैं इतने जिसे तुमने अब तक समझा है तुम हो, वे तो केवल सतह पर सम्हलकर चलता हूं, कोई उपाय नहीं। जरा-सी आवाज तुझे उठी तरंगें हैं। और जो तुम हो उसका तुम्हें पता नहीं है। उसका न चौंका देती है। एक दिन तेरे जीवन में भी ऐसी घड़ी तो कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु हुई। आएगी-अगर जागता ही गया—कि विचार की तरंग भी उस शाश्वत को जगाओ। पर्याप्त होगी। उस शाश्वत में जागो। ध्यान का अर्थ है : जागरण। उस शाश्वत को बिना पाए विदा मत हो जाना। जीवन उसको जैसे-जैसे तुम जागते जाते हो, वैसे-वैसे जीवन की सूक्ष्मतम पाने का अवसर है। जिसने ध्यान का धन पा लिया, उसने जीवन तरंगों का बोध होता है। परमात्मा जीवन की आत्यंतिक तरंग है, में कुछ कमा लिया। और जो और सब कमाने में लगा रहा और आखिरी सूक्ष्म तरंग है। तुम्हारी जब जागरण की आखिरी गहराई ध्यान के धन को न कमा पाया, उसने जीवन व्यर्थ गंवा दिया। आती है, तब परमात्मा का शिखर तुम्हारे सामने प्रगट होता है। इस अवसर से चूकना मत। पहले बहुत बार चूके हो, इसलिए उस घड़ी में न तो तुम बचते, न परमात्मा बचता। उस घड़ी में चूकने की संभावना बहुत है। क्योंकि चूकने की आदत बन गई 2010_03 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ध्यान है आत्मरमण है। लेकिन कितने ही बार चूके होओ, पा लेना संभव है। क्योंकि जिसे पाना है, वह तुम्हारा स्वभाव है। वह तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। जरा पर्दे हटाना। जरा धूंघट हटाना। चूंघट के पट खोल! बूंघट बहुत तलों पर है। संबंधों का चूंघट, फिर शरीर का चूंघट, फिर मन का बूंघट। इन तीन पर्तों को तुम तोड़ दो तो तुम्हारी अपने से पहचान हो जाए। अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं। आत्मा आत्मा में रम जाती है फिर। यही परम ध्यान है। आज इतना ही। 341 2010_03 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain. Education email Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्रवचन मुक्ति द्वंद्वातीत है ForPrivate & Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित होता है। क्या मोक्ष के भी ऐसे ही दो पहिये होते हैं? गुरु मृत्यु है या ब्रह्म है, या एक साथ दोनों है? सूली ऊपर सेज पिया की, किस विध मिलना होय? आपका स्मरण मुझे प्रगाढ़ रसमयता और आनंद से भर देता है, मेरी चाल में आपकी धुन के घर बजते हैं, तो अब मैं ध्यान को कहां रखें? वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि अब कुछ हो सकता है। प्रभु, प्रणाम! मन एकदम शांत होगा तो सांसारिक कार्य कैसे होंगे? 2010_03 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न: आप कहते हैं कि राग और द्वेष के दो | दूसरी बात : जहां तक यात्रा है, वहां तक संसार है। जहां यात्रा १ पहियों से संसार निर्मित होता है। क्या इनके ठीक समाप्त हुई, वहीं मोक्ष है। विपरीत कोई दो पहिये और हैं, जिनसे मोक्ष तो दो पहियों की तो जरूरत है ही नहीं, एक पहिये की भी निर्मित होता है? कृपा करके समझाएं। जरूरत नहीं है। और एक पहिया हो भी, तो व्यर्थ होगा। | तीसरी बातः पूछा, 'राग-द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित पहली बात : जहां दो हैं, वहां संसार है। जहां एक बचा, वहां होता है।'-सच है। क्योंकि राग एक तरफ झुकाता, द्वेष मोक्ष प्रारंभ हुआ। दूसरी तरफ झुकाता। राग-द्वेष के झंझावात में हमारा चित्त कंपता द्वैत संसार है, अद्वैत मोक्ष है। है। आसक्ति और विरक्ति, राग और द्वेष, शत्रु और मित्र, इसलिए संसार के तो दो पहिये हैं, मोक्ष के नहीं। अपना और पराया, हितकर और अहितकर, इन दोनों के बीच दूसरी बात ः संसार गति है, प्रवाह है, खोज है, तलाश है, मार्ग हम कंपते हैं। जब दोनों के बीच हम थिर हो जाते हैं और कंपन है, इसलिए दो पहियों की जरूरत है। दो पहियों के बिना यह | समाप्त हो जाता है, न राग बुलाता, न द्वेष बुलाता; जहां हम गाड़ी चलेगी नहीं। निर्द्वद्व होकर, निष्कंप होकर बीच में समाधिस्थ हो जाते हैं; जहां मोक्ष, कहीं जाना नहीं है, मोक्ष तो पहुंच गए। मोक्ष तो वहां है, मध्य-बिंदु मिल जाता है, वहां मोक्ष है। जहां सब जाना समाप्त हुआ। गाड़ी चलती रहे तो मोक्ष नहीं है। | राग और द्वेष के विपरीत मोक्ष में कुछ भी नहीं है। राग और जहां रुक गया सब, ठहर गया सब, परम विश्राम आ गया, | द्वेष से मुक्ति, मोक्ष है। मोक्ष संसार का विरोध नहीं है, मोक्ष जिसके पार कोई लक्ष्य न बचा, वहीं मोक्ष है। संसार का अभाव है। संसार नहीं बचता, इतना ही कहो, बस वासना जहां शून्य होती है, कामना जहां विराम लेती है, लक्ष्य काफी है। फिर जो शेष रह जाता है, वही मोक्ष है। जहां संपूर्ण हो गए। सिद्धि जहां श्वास-श्वास में है-फूल | जैसे एक आदमी बीमार है; जब बीमारियां हटा लेते हैं हम, तो खिल गया। अब और खिलने को कछ बचा नहीं। पर्णता | जो शेष रह जाता है. वही स्वास्थ्य है। उतरी। अब कुछ और उतरने को बचा नहीं। स्वास्थ्य बीमारियों के विपरीत नहीं है कुछ, बीमारियों का इसलिए दो पहियों का तो सवाल ही नहीं है, एक पहिये की भी समाप्त हो जाना है। जहां कोई बीमारी नहीं बची, वहां स्वास्थ्य जरूरत नहीं है—पहिये की जरूरत नहीं है। सहज रूप से मुखरित होता है। तो पहली तो बात; जहां तक दो हैं, वहां तक संसार है। जहां संसार बाधा की तरह है, पत्थर है झरने को रोके हुए। पत्थर एक है, वहां मोक्ष है। हट गया, झरना बहा। झरना तो मौजूद ही है। मोक्ष तो मौजूद ही 347 2010_03 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 जिन सूत्र भाग: 2 है तुम्हारे भीतर । संसार से तुम्हारी पकड़ छूटी कि जो सदा से मिला हुआ था, उसका पता चलता है। जो मिला ही हुआ था, उसकी प्रत्यभिज्ञा होती है, उसकी पहचान होती है। मोक्ष कुछ ऐसा नहीं है, जिसे तुमने खो दिया हो । मोक्ष स्वभाव है । खोने का कोई उपाय ही नहीं। कहीं भूलकर, चूककर रख आये हो, ऐसा कोई उपाय नहीं है। तुम हो मोक्ष। इसलिए इनके विपरीत कोई दो पहिये और हैं? ऐसा पूछना ही ठीक नहीं है। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है, इसलिए संन्यासी संसार का विरोधी नहीं है। जो संन्यासी संसार का विरोधी है, वह अभी संसार में है। उसने राग को द्वेष से बदल लिया। कुछ लोग धन को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। कुछ लोग देह को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। सांसारिक जिनको वह कहता है, जो-जो करते थे, उससे उलटा करने लगा। संन्यासी अगर संसार का विरोधी है मैं तुमसे कहता हूं, संसार में है। सिर के बल खड़ा होगा, मगर खड़ा बाजार में है। हिमालय पर बैठा हो, लेकिन खड़ा बाजार में है। भाग जाए स छोड़कर, लेकिन जिससे भाग रहा है, उससे छुटकारा नहीं हुआ है। भीतर मन में उसकी आकांक्षा शेष है । उसी आकांक्षा को अगर मोक्ष कहीं संसार से अलग है तो फिर भागना पड़े गुफाओं में, कंदराओं में खोजना पड़े, तपश्चर्या में आंखें बंद करके कहीं दूर, जहां कोई न हो, वहां जाना पड़े। लेकिन मोक्ष यहीं है। मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। बस दीये का आना, आंख का खुलना, दिखाई पड़ जाना सार का असार से भिन्न - पर्याप्त है। मोक्ष बोध | 'कहते हैं आप, राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित होता है...।' निश्चित ही । संसार दो के बिना निर्मित नहीं बाने के लिए तो विपरीत कर रहा है। संन्यासी उसे कहता हूं मैं, जो संसार का विरोधी नहीं है, जो होता । संसार एक से निर्मित ही नहीं हो सकता। एक पहिये से संसार में जागा; जिसने संसार को भर - नजर देखा | कहीं कोई गाड़ी चली है ? महावीर कहते हैं, जो सुपरिचित हुआ; जिसने संसार की व्यर्थता समझी। संसार के विपरीत किसी चीज को पकड़ने का सवाल ही नहीं है, संसार की व्यर्थता स्पष्ट हो जाए तो जो शेष रह जाता है - इस कूड़े-कर्कट के बह जाने के बाद, जो जलधार भीतर शेष रह जाती है, वही मोक्ष है। समझ आ गई तो मुक्ति आ गई। नासमझी रही तो बंधन रहा । नासमझी अर्थात बंधन । समझदारी अर्थात मोक्ष | विपरीत की भाषा ही भूल जाओ। विरोध की भाषा ही भूल जाओ । शत्रुता का रोग ही छोड़ो। सिर्फ भर आंख देख लेना है, ठीक से पहचान लेना है। जहां हो, वहीं जागकर देख लेना है। उस जागरण में जो भी व्यर्थ है, वह अपने से छूट जाता है, गिर जाता है। एक अंधेरे कमरे में तुम बैठे हो, हीरे भी पड़े हैं और कूड़ा-कर्कट भी पड़ा है, फिर कोई दीया लेकर भीतर आ गया । जब तक दीया न था तब तक पता न था, कूड़ा-कर्कट क्या है, हीरे क्या हैं? हो सकता है, अंधेरे में तुमने कूड़े-कर्कट की तो गठरी बांध ली हो और हीरों का खयाल ही न आया हो। फिर कोई दीया लेकर आ गया, आंख मिली, दृष्टि खुली, दर्शन हुआ। तुम हंसोगे, अगर तुमने अपनी गठरी में कूड़ा-कर्कट बांध रखा था। जल्दी गांठ खोलोगे। जल्दी गठरी खाली कर लोगे। जल्दी से हीरे भर लोगे। इसमें कुछ त्याग थोड़े ही होगा ! इसमें कुछ अभ्यास थोड़े ही होगा ! इसमें कोई श्रमसाध्य प्रक्रिया थोड़े ही होगी! 2010_03 यह गाड़ी शब्द बड़ा अदभुत है। इस पर तुमने शायद कभी सोचा न हो। गाड़ी का मतलब होता है, जो गड़ी है। मगर हम चलती हुई चीज को गाड़ी कहते हैं। गाड़ी तो चल ही नहीं सकती। जो गड़ी है, वह चलेगी कैसे ? वृक्ष चलते हैं ? गड़े हैं। चलती चीज को हम गाड़ी क्यों कहते हैं ? बड़ा मधुर व्यंग्य है उस शब्द में । संसार चलता तो है, पहुंचता कहीं नहीं लगता है चलता है; ऐसे गड़ा है। ऐसे सपने में ही चलना होता है, यथार्थ में कोई चलना नहीं होता। भाग-दौड़, आपाधापी ! जब आंख खुलती है, तुम पाते हो वहीं के वहीं खड़े हो, अपनी खाट पर पड़े हो । सब सपने में दौड़-धूप की। बड़े आकाश छान डाले। जब सुबह आंख खुली तो पाया, अपने बिस्तर में पड़े हैं। तो संसार गाड़ी है। ऐसे तो गड़ा है। यथार्थ में तो गड़ा है, ज्ञान मुक्ति है। तो संसार को छोड़ना नहीं, न संसार के विपरीत सोचना । वह स्वप्न में चल रहा है, कल्पना में चल रहा है, कामना में चल रहा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, विचार में चल रहा है, मन में चल रहा है-ऐसे गड़ा है। गाड़ी बस चलती मालूम पड़ती है। कभी छोटे-छोटे बच्चे, जो साइकिल चलाना नहीं जानते, साइकिल पर सवार हो जाते हैं— खड़ी साइकिल पर, स्टैंड पर खड़ी साइकिल पर । जोर से पैडल मारते हैं और बड़े प्रफुल्लित होते हैं क्योंकि जब चाक चलने लगता है—वह गाड़ी है। गड़ी है, मगर बच्चा बड़ा प्रसन्न हो रहा है। जितने जोर से पैडल मारता है, जितने जोर से चाक घूमता है— उसकी किलकारी सुनो ! ऐसी ही किलकारी दे रहे हैं राजनेता, धनिक, पद-प्रतिष्ठा को प्राप्त लोग। साइकिल पर चढ़े हैं। साइकिल स्टैंड पर खड़ी है । स्टैंड यानी गड़ी है। मगर चाक जोर से चल रहा है। पैडल काफी मार रहे हैं, पसीना पसीना हुए जा रहे हैं। एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा भी कर रहे हैं, कि किसकी गाड़ी तेज चल रही है। कौन आगे जा रहा है! किसको पीछे छोड़ दिया है ! निर्विचार का आकाश मोक्ष है। संसार के विरोध में नहीं है मोक्ष, संसार का अभाव है मोक्ष | इसे तुम जितने गहरे में बांधकर रख सको, रख लेना। इस पर गांठ बांध लेना। क्योंकि अगर यह तुम्हें खयाल न रहा तो बहुत डर है कि तुम्हारा संन्यास भी संसार का विरोध बन जाए। विरोध में उतर जाना बड़ा आसान है। मन की सारी राजनीति द्वंद्व की है। इसलिए विरोध तो बिलकुल सुगम है, सरल है, ढलान है। जैसे पहाड़ से कोई नीचे की तरफ उतर रहा है, धीमे भी चलना चाहे तो चल नहीं सकता; दौड़ना पड़ता है। ढलान है । कोई शक्ति नहीं लगती। अगर कार पहाड़ के नीचे उतार रहे हो तो पेट्रोल की भी जरूरत नहीं पड़ती। बंद कर दो इंजन, गाड़ी अपने आप ढलकती ढलकती चली आती है। मन की वृत्ति द्वंद्व की है, संघर्ष की है। पहले लड़ रहे थे धन के लिए, फिर लड़ने लगे ध्यान के लिए। मगर लड़ाई जारी रही । ये सब किलकारियां एक दिन व्यर्थ सिद्ध होती हैं, जब होश पहले लड़ते थे जीवन के लिए, फिर लड़ने लगे मोक्ष के लिए। आता है कि हम जिसको चला रहे हैं वह गड़ा है। लड़ाई जारी रही। रोग अपनी जगह रहा। नाम बदला, लेबल बदला, लेकिन भीतर की विषय-वस्तु वही की वही रही। तो इसे स्मरण रखना। कम से कम मेरे संन्यासी — ठीक से स्मरण रखना कि संसार का विरोध नहीं है संन्यास, संसार की समझ है संन्यास । और समझ के लिए भागना उचित नहीं है। क्योंकि जिससे भागोगे उसे समझोगे कैसे? जिसे समझना हो, वहीं खड़े रहना। जिसे समझना हो, उसका ठीक से अवलोकन करना । ठीक से निरीक्षण करना, ठीक से साक्षी बनना । एक-एक पर्दा उठाकर देख लेना । सब घूंघट उघाड़-उघाड़कर देख लेना । कुछ भी छुपा न रह जाए। उसी समझ में मोक्ष का आविर्भाव होगा। जैसे-जैसे प्रज्ञा बढ़ेगी, समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे तुम पाओगे, तुम मुक्त होने लगे। आखिरी बात : मोक्ष परलोक में नहीं है। वह भी द्वंद्व है - इस लोक का, उस लोक का; पृथ्वी का, आकाश का । मोक्ष परलोक में नहीं है। मोक्ष का लोकों से कोई संबंध नहीं है। मोक्ष है तुम्हारी आत्मा की दशा । मोक्ष का स्थान - समय से कोई संबंध नहीं है। मोक्ष का संबंध है, तुम्हारा अपने में लीन हो जाना। अपने में डूब जाना । अपने से भरपूर होकर अपने रस में मग्न हो जाना। संसार चलता हुआ मालूम पड़ता है और चलता नहीं। यहां कोई विकास नहीं है। गति तो बहुत है, प्रगति बिलकुल नहीं है। चलना तो बहुत है, पहुंचना बिलकुल नहीं है। यहां तो आश्चर्य है कि तुम बहुत चलकर अगर अपनी जगह पर भी खड़े रह जाओ तो भी बहुत चमत्कार है। डर तो यह है कि तुम जहां अपने को पाये थे, उससे भी पिछड़ जाओगे। दौड़-दौड़कर अपनी जगह पर भी बने रहे तो काफी है। संसार के लिए तो दो चाक चाहिए। झूठी ही सही गाड़ी, माया की ही सही, लेकिन है तो गाड़ी। दो चाक चाहिए। इसलिए जीवन में हम हर जगह जरा खोजबीन करेंगे तो हम पाएंगे, हर चाक के पीछे दूसरा चाक छिपा है। सफलता के पीछे विफलता छिपी है। सुख के पीछे दुख छिपा है। दिन के पीछे रात छिपी है। पुण्य के पीछे पाप छिपा है। हंसी के पीछे रुदन छिपा है। यहां तुम एक चीज तो पाओगे ही नहीं। यहां सब चीजें जोड़ी से हैं। संसार जोड़ी से जीता है। मोक्ष का अर्थ है, यह दो का | विभाजन गया। यह दो में खंडित होने की प्रक्रिया समाप्त हुई। यह जो लौ बायें कंपती थी, दायें कंपती थी, अब कंपती नहीं, अब मध्य में खड़ी हो गई। अब इसने कंपन छोड़ा, चिंतन छोड़ा। विचार की तरंगें अब नहीं आतीं। अब निर्विचार | 2010_03 मुक्ति द्वंद्वातीत हैं 349 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 यह अभी घट सकता है। और अगर अभी नहीं घट सकता तो कभी नहीं घट सकता। और जब भी घटेगा, अभी घटेगा, वर्तमान के क्षण में घटेगा। इसलिए महावीर कहते हैं, जो महर्षि हैं, जो मनीषी हैं, वे बीत गए अतीत की चिंता नहीं करते। अनागत-न आए हुए भविष्य का विचार नहीं करते। वे शुद्ध वर्तमान में जीते हैं। वे वर्तमान को देखते हैं, वर्तमान का पश्ययन करते हैं, वर्तमान का दर्शन करते हैं। एक पहिया है संसार का अतीत में, एक पहिया है भविष्य में । यह संसार की गाड़ी बड़ी अदभुत है, बड़ी विचित्र है । एक पहिया है वहां, जो अब है नहीं । और एक पहिया है वहां, जो अभी हुआ नहीं। ऐसे दो शून्यों में संसार चल रहा है। और जो है, वह अभी इन दोनों के बीच है; वह मध्य में है। बुद्ध ने तो अपने मार्ग को मज्झिम निकाय कहा। सिर्फ इसीलिए कहा कि जो अतियों से बच गया और मध्य में खड़ा हो गया, वही उपलब्ध हो जाता है। दूसरा प्रश्न : कभी आप कहते हैं, गुरु साक्षात ब्रह्म है, और कभी कहते हैं, गुरु साक्षात मृत्यु है । क्या वह एक साथ, एक समय में दोनों है ? कृपा करके कहें। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कुछ आशीर्वाद दें। जीवन में बड़ी निराशा है। आशा का दीया जला दें। मैं उनसे कहता हूं, तुम गलत जगह आ गए। यहां तो आशा के दीये बुझाए जाते हैं। सुना कल महावीर का सूत्र ! - आशारहितता को जो उपलब्ध हो जाए...। तुम आते हो शायद निराशा मिटाने । तुम आते हो यहां, कि थोड़ा बल मिल जाए और संसार में जाकर फिर तुम जूझ पड़ो । | शायद अभी हार गए थे। शायद अभी जीत नहीं पाते थे। शायद अभी बलशाली लोगों से संघर्ष हो रहा था। तुम कमजोर पड़ते थे। और बल लेकर, और शक्ति लेकर, और ऊर्जा लेकर उतर जाओ जीवन के युद्ध में। लेकिन तब तुम गलत जगह आ गए। अगर तुम गुरु के पास गए तो गलत जगह गए। इसके लिए तो तुम्हें कोई झूठा गुरु चाहिए । इसलिए झूठे गुरु चलते हैं। झूठे सिक्के इसीलिए चलते हैं क्योंकि तुम जो चाहते हो, उसे वे पूरा करने का आश्वासन देते हैं। वह कभी पूरा होता है या नहीं, यह सवाल नहीं है। आश्वासन काफी है; उसमें ही तुम लुटते हो। फिर जो शेष बचता है, वह तो कुछ ऐसा है, जिसका शिष्य को पता ही नहीं था । वह तो मरने के बाद ही पता चलता है। अहंकार की मृत्यु के बाद ही आत्मा का बोध होता है। इसे ध्यान रखना, यह सदगुरु की पहचान है— जो तुमसे आशा छीन ले; जो तुमसे संकल्प छीन ले । यह सदगुरु की शायद शिष्य आता है अपने प्रयोजन । वह शायद पहचान है - जो तुम्हें मिटा दे। तुम भला किसी कारण से उसके गुरु मृत्यु है, इसीलिए गुरु ब्रह्म है । उसमें मृत्यु घट सकती है, इसीलिए महाजीवन का सूत्रपात हो सकता है। है । पुराने हिंदू शास्त्र कहते हैं, 'आचार्यो मृत्युः ।' आचार्य मृत्यु । गुरु मृत्यु है । क्या अर्थ है उनका ? क्या प्रयोजन है ? शिष्य जब गुरु के पास आता है तो जैसा है, वैसा तो उसे मरना होगा। और जैसा होना चाहिए, वैसा होना होगा। जब शिष्य गुरु के पास आता है तो बीमारियों का जोड़ है, उपाधियों का जोड़ है। गुरु की औषधि बीमारियों को तो मिटा देगी। लेकिन जैसा शिष्य आता है अहंकार से भरपूर, वह अहंकार तो सिर्फ बीमारियों का | बंडल है । जब बीमारियां हटती हैं, वह अहंकार भी मर जाता है। वह उनके बिना जी भी नहीं सकता । महाजीवन की तलाश में आता है। वह शायद सोचकर आता भी नहीं कि गुरु के पास मरना होगा, मिटना होगा। धीरे-धीरे, इंच-इंच गलना होगा, बिखरना होगा। वह तो किसी लोभ से आया था । वह तो शायद संसार की वासना को ही और थोड़ी गति मिल जाए, और थोड़ी शक्ति मिल जाए, कामना के जगत में और थोड़ा बलशाली हो जाऊं, जीवन के संघर्ष में और थोड़ा संकल्प मिल जाए इसलिए आया था। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, संकल्प-शक्ति की कमी है --विल पावर। आप कृपा करें, संकल्प शक्ति दे दें। मैं पूछता हूं, संकल्प शक्ति का करोगे क्या ? संकल्प - शक्ति का उपयोग संघर्ष में है, संसार में है; मोक्ष में तो कोई भी नहीं । अशांत होना हो तो संकल्प शक्ति की जरूरत है। शांत होना हो तो विसर्जित करो। जो थोड़ी-बहुत है, वह भी विसर्जित करो। उसे भी डाल आओ गंगा में । उससे भी छुटकारा लो । संकल्प तो बाधा बनेगा, समर्पण मार्ग है। 350 2010_03 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास आए हो, वह तुम्हारी चिंता न करे। उसके लिए तो आत्यंतिक बात ही महत्वपूर्ण है। वह तो तुम्हारे भीतर मोक्ष को लाना चाहता है। और स्वभावतः तुम कैसे मोक्ष की कामना कर सकते हो ? संसार को ही तुमने जाना है। वहां भी सफलता नहीं जानी । किसने जानी ! सिकंदर भी असफल होता है। संसार में असफलता ही हाथ लगती है। तो तुम वही सफलता पाने के लिए आ गए हो अगर, तो केवल असदगुरु से ही तुम्हारा मेल हो पाएगा, जहां गंडा - ताबीज मिलता हो, मदारीगिरी से भभूत बांटी जाती हो, जहां तुम्हें इस बात का भरोसा मिलता हो कि ठीक, यहां कुछ चमत्कार हो सकता है; जहां तुम्हारा मरता -बुझता अहंकार प्रज्वलित हो उठे; जहां थोड़ा कोई तुम्हारी बुझती ज्योति को उकसा दे । मगर वह ज्योति संसार की है। वही तो नर्क की ज्योति है। वही तो अंधकार है। उसी ने तो तुम्हें पीड़ा दी है, सताया है। उसी से बिंधे तो तुम पड़े हो । वही तो तुम्हारी छाती में लगा विषाक्त तीर है | सदगुरु उसे खींचेगा। उसके खींचने में ही तुम मरोगे। | सदगुरु तो मृत्यु है तुम्हारी; जैसे तुम हो । यद्यपि उसी मृत्यु के बाद तुम्हें पहली दफा उसका दर्शन होता है, जो वस्तुतः तुम हो। धोखा मरता है, सत्य तो कभी मरता नहीं । असत्य मरता है, सत्य की तो कोई मृत्यु नहीं । आग में हम सोने को डाल देते हैं, कूड़ा-कर्कट जल जाता है, सोना कुंदन होकर बाहर आ जाता है। गुरु आग है, अग्नि है। और इसीलिए गुरु ब्रह्म है। क्योंकि वहीं से तुम मिटते हो। और जहां तुमने मिटना सीख लिया, वहीं तुमने ब्रह्म होना सीख लिया। गुरु सूली है। लेकिन उसी सूली पर लटककर तुम्हें पहली दफा पता चलता है कि जो सूली पर मर गया वह मैं नहीं था । इधर सूली लगी, उधर सिंहासन मिला। इस तरफ सूली है, उस तरफ सिंहासन है। तुम्हें सूली भर दिखाई पड़ती है। तुमने जीसस के चित्र देखे होंगे; सूली को अपने कंधे पर ढोते हुए, गोगोथा की पहाड़ी पर वे जा रहे हैं। सूली ठोंक दी गई जमीन में, उन्हें सूली पर लटका दिया गया है। लेकिन ये अधूरे चित्र हैं। ये चित्र जीसस की नजर से नहीं बनाए गए। ये जिन लोगों ने देखा होगा गोलगोथा की सड़क पर जीसस को सूली ले 2010_03 मुक्ति द्वंद्वातीत है जाते, उनकी स्मृतियां हैं। यह चित्रकार ने बाहर से देखकर बनाया है। जीसस से तो पूछो। जीसस सूली ढो रहे हैं ? नहीं, जीसस तो अपने सिंहासन की तैयारी कर रहे हैं। यह सूली तो सिंहासन की सीढ़ी बनेगी। इस तरफ सूली है, उस तरफ सिंहासन है। दृश्य में सूली है, अदृश्य में सिंहासन है। रूप में सूली है, अरूप में सिंहासन है। आकार में सूली है, आकार की सूली है, निराकार में सिंहासन है, निराकार का सिंहासन है। तो जिन्होंने जीसस को केवल सूली ढोते देखा वे जीसस को देख ही नहीं पाए। जिस दिन तुम्हें जीसस की सूली में सिंहासन दिखाई पड़ जाए उस दिन तुम अर्थ समझोगे । उस दिन तुम्हें पहली दफा सूली सूली न लगेगी। सूली परम कृतज्ञता का कारण बन जाएगी। गुरु के चरणों में धन्यवाद सदा के लिए रहता है क्योंकि यही है, जिसने मिटने का बोध दिया। न मिटते, न हो सकते। यही है, जिसने मिटाया। मिटाया तो बनने की शुरुआत हुई । झाड़ी धूल, तो दर्पण निखरा । लेकिन तुम जिसे जिंदगी कहते हो, गुरु उसे जिंदगी नहीं कहता । और तुम जिसे मृत्यु कहते हो, गुरु उसे मृत्यु नहीं कहता । अलग भाषाएं हैं, अलग आयाम हैं। दो लोक बड़े भिन्न-भिन्न हैं। गुरु कुछ और भाषा बोलता है। वह तुम्हारे लिए अटपटी है। मध्ययुग में भारत में उस भाषा का नाम ही अलग हो गया – सधुक्कड़ी; उलट बांसुरी । साधुओं की भाषा । उल्टी भाषा । जहां मृत्यु जीवन का पर्याय है। और जहां सूली सिंहासन का पर्याय है। तुम्हारे भाषाकोश में कुछ और लिखा है। गुरु के पास आकर तुम्हें नई भाषा सीखनी होगी। कष्टपूर्ण है। क्योंकि तुमने अपनी भाषा को खूब कंठस्थ कर लिया है। वह तुम्हारे रोएं - रोएं में समा गई है। तुम जब मुझे सुनते हो, तब तुम मुझे थोड़े ही सुनते हो। तुम तत्क्षण उसका भाषांतर करते हो। तुम उसका अनुवाद करते हो। इधर मैं कुछ कहता हूं, तुम तत्क्षण अपनी भाषा में उसका अनुवाद कर लेते हो, भाषांतर कर लेते हो । जब तुम यह छोड़ोगे, तभी तुम मेरे पास आओगे। तुम्हारी भाषा मेरे और तुम्हारे बीच बाधा है। 351 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कल मैं एक गीत पढ़ता था : जिंदगी से उन्स है, हुस्न से लगाव है धड़कनों में आज भी इश्क का अलाव है दिल अभी बुझा नहीं - इसे लोग दिल का न बुझना कहते हैं। जिंदगी से उन्स है -राग है जीवन से । हुस्न से लगाव है -सौंदर्य के लिए अभी तड़फ है, आकांक्षा है। धड़कनों में आज भी इश्क का अलाव है। और अभी भी धड़कनों में राग की, आसक्ति की आंच है। दिल अभी बुझा नहीं अगर तुम मुझसे पूछो तो इन्हीं कारणों से तुम्हारा दिल जल नहीं पा रहा है। बुझने की तो बात ही दूर है, जला ही नहीं। इन्हीं के कारण तो दिल पर राख पड़ गई है। रंग भर रहा हूं मैं खाक-ए-हयात में आज भी हूं मुनहमिक फिक्रे कायनात में गम अभी लुटा नहीं हर्फे-हक अजीज है, जुल्म नागवार है अहदे-नौ से आज भी अहद अस्तवार है मैं अभी मरा नहीं तुम जिसे जिंदगी कहते हो... तुम जब कहते हो, 'मैं अभी मरा नहीं, तो तुम बड़ी अजीब बातें कह रहे हो। अगर तुम्हारे स्वप्न में अभी भी प्राण अटके हैं तो तुम कहते हो, 'मैं अभी मरा नहीं । दिल अभी बुझा नहीं ।' अगर कामना अभी भी तुम्हें तड़फाती है और वासना के दूर के सुहावने ढोल तुम्हें अभी भी बुलाते हैं तो तुम कहते हो, दिल अभी बुझा नहीं। जहां कुछ भी नहीं है, वहां तुम चित्त से रंग भरते हो। जहां कुछ भी नहीं है, जहां कोरा पर्दा है, वहां तुम कल्पनाओं, वासनाओं, तृष्णाओं के बड़े रंगीले इंद्रधनुष बनाते हो। और कहते हो : मैं अभी मरा नहीं हर्फे-हक अजीज है, जुल्म नागवार है अहदे - नौ से आज भी अहद अस्तवार है मैं अभी मरा नहीं 352 2010_03 इसी कारण तुम मुर्दा हो । तुम जिसे जीवन कहते हो, उसे समझो मृत्यु। तब मैं जिसे मृत्यु कहता हूं, तुम तत्क्षण समझ जाओगे उसका अर्थ । तुम जिसे जीवन कहते हो, यह बड़ी क्रमिक मृत्यु है। आहिस्ता-आहिस्ता आत्मघात है। यह रोज-रोज, धीमे-धीमे मरते जाना है। जिस दिन तुम यह समझोगे कि यह मृत्यु है, उस दिन पहली बार तुम्हें किसी और जीवन की पुकार सुनाई पड़ेगी – कोई और आह्वान ! उस दिन तुम धार्मिक हुए। उस दिन तुम्हारी आंखें अदृश्य की तरफ उठने लगीं। उस दिन तुम्हारे हाथ में थोड़ा-सा सही, छोटा सही, पतला सही, धागा आया, जिसके सहारे तुम सूरज तक पहुंच सकोगे। तो मैं कहता विरोध नहीं है। गुरु मृत्यु है, गुरु ब्रह्म है; इन दोनों में कोई गुरु इसीलिए ब्रह्म है क्योंकि वह मृत्यु है । गुरु सूली है क्योंकि वह सिंहासन है। एक द्वार से मिटाता है, दूसरे द्वार से बनाता है। एक हाथ से मिटाता चलता है, दूसरे से बनाता चलता है। जो मिटने को राजी हैं, उन्हें बनने का सौभाग्य मिल जाता है। जो मिटने से कतराते हैं, वे बनने से वंचित रह जाते हैं। तीसरा प्रश्न : हे भगवान! सूली ऊपर सेज पिया की किस विध मिलना होय ? प्रीतम आन मिलो, नैना नीर झरे, हृदय पीर करे प्रीतम आन मिलो । सूली ऊपर सेज पिया की – सदा से ऐसा ही है। लेकिन सूली हमें दिखाई पड़ती है क्योंकि हम नासमझ हैं। क्योंकि हमने अभी पिया की भाषा नहीं समझी; अभी पिया के प्रतीक हमारे सामने खुले नहीं। अभी हमने अपनी ही भाषा से पिया को भी समझना चाहा है। इसलिए लगता है— सूली ऊपर सेज पिया की। के घबड़ाहट होती है। कौन नहीं घबड़ाएगा मरने से ? गुरु पास आकर डर लगता है, बेचैनी होती है। एक युवती परसों सांझ मेरे पास आयी। कैलिफोर्निया से यात्रा करके आयी है। और आकर बोली कि मैं तत्क्षण वापिस लौट Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्ति द्वंद्वातीत है जाना चाहती हूं। क्योंकि पहली तो बात यही मेरी समझ में नहीं छोड़कर तो देखो। तुम पाओगे, यमदूत विदा हो गए। तुम स्यों? और अब आ गई हूं तो मुझे डर लगता पाओगे, न कोई भैंसे हैं, न काली सूरतोंवाले यमदूत हैं; तुम है कि जिंदा अब मैं लौट न पाऊंगी। वह रोने लगी। उसने कहा अचानक पाओगे, परमात्मा हाथ फैलाए खड़ा है। कि मेरा बच्चा है, मेरा पति है। मुझे जाने दें। | वही परमात्मा तुम्हारी जिंदगी की अतिशय पकड़ के कारण उसे सूली दिखाई पड़ी है। लेकिन उस सूली में सिंहासन की यमदूत मालूम होता है। तुम अगर राजी हो, तुम अगर उसके थोड़ी-सी झलक भी है, इसीलिए खिंची चली आयी है—अपने साथ चल पड़ने को तत्पर हो, तुम तैयार हो, इधर मौत आयी बावजूद। उससे मैंने कहा, अब लौटना मुश्किल है। अब तो और तुम उठ खड़े हुए; और तुमने कहा, मैं तैयार हूं। कहां कठिन है। अब तो एक ही उपाय है, मरकर ही लौट। वह बहुत चलूं? किस तरफ चलूं? कौन-सी दिशा में यात्रा करनी है? मैं घबड़ा गई। क्योंकि अभी नई है और उसे मेरी भाषा से अभी तेरी प्रतीक्षा ही करता था। ठीक-ठीक पहचान नहीं। उसने कहा, मरकर लौट? क्या | तुम अचानक पाओगे, यमदूत विदा हो गए। वे यमदूत तुम्हारी मतलब आपका? मैंने कहा, नई होकर लौट। तब वह थोड़ी व्याख्या के कारण थे। तुमने एक दुश्मनी बांध रखी थी। जीवन आश्वस्त हुई। से लगाव बनाया था और मृत्यु से द्वेष किया था। तुमने द्वेष 'सूली ऊपर सेज पिया की!' गिराया मृत्यु से, जीवन से लगाव छोड़ा, तत्क्षण तुम पाओगे, जो सूली दिखाई पड़ती है; है तो सेज ही। है तो पिया का आमंत्रण अंधेरे की तरह आया था वह ज्योतिर्मय हो उठा है। तब तुम्हें ही। लेकिन जो मरने को राजी हैं, वही उसके मिलने के हकदार यमदत न दिखाई पडेंगे. शायद कष्ण की बासरी सनाई पडे. या हो पाते हैं। इसलिए सूली ऊपर सेज पिया की। | बुद्ध की परम शांत प्रतिमा का आविर्भाव हो, या महावीर का | अब डरो मत। हिम्मत करो। ऐसे भी मिटोगे। मरना तो होगा | मौन तुम्हें घेर ले, या नाचती हुई गौरांग की प्रतिमा उठे। लेकिन ही। एक ही बात सुनिश्चित है इस जगत में, वह मृत्यु। और एक बात तय है, कुछ घटेगा जो अनूठा है, अदभुत है, सब तो अनिश्चित है। हो न हो; संयोग की बात है। एक बात | आश्चर्यजनक है, अवाक कर देनेवाला है। कुछ दुखद नहीं सुनिश्चित है-मृत्यु। बड़ा अदभुत जीवन है। जीवन ऐसा | घटेगा, कुछ घटेगा जो महासुख जैसा है, स्वर्गीय है। पर देखने जिसमें सिर्फ एक बात निश्चित है, वह मरना। बाकी सब के, सोचने के, व्याख्या के ढंग बदलो। अनिश्चित है। जो होगा ही, उसे स्वेच्छा से वरण करो। बस, 'सूली ऊपर सेज पिया की, किस विध मिलना होय।' इतना ही फर्क है समाधि में और मृत्यु में। जो जबर्दस्ती मारा और जब एक दफा सूली दिखाई पड़ती है तो फिर सवाल उठता जाता है, तब मृत्यु। मृत्यु हमारी समाधि की व्याख्या है क्योंकि है, किस विध मिलना होय? क्योंकि वह सूली अटकाती मालम हम राजी न थे मरने को। उसी व्याख्या के कारण हम चूक गए | पड़ती है। सूली को कैसे पार करें? एक अभूतपूर्व घटना से। तुम बिना मरे परमात्मा में लीन होना चाहते हो। यह नहीं हो बहुत बार तुम मरे हो। लेकिन हर बार झिझकते, लड़ते, | सकता। यह तो ऐसा हुआ कि गंगा कहे, मैं बिना उतरे सागर में झगडते. संघर्ष करते, मजबरी में, विवश, असहाय मरे हो। लीन होना चाहती हैं। बंद कहे. मैं बिना उतरे सागर में. सागर इसीलिए तो हम कहते हैं, यमदूत आते हैं और खींचते हैं। कोई होना चाहती हूं। यह तो नहीं हो सकता। यह तो जीवन के गणित यमदूत नहीं आते। तुम इतने जोर से पकड़ते हो कि मौत लगती के विपरीत है। है, खींच रही है। भैंसों पर बैठकर आते हैं यमदूत। बड़ी डरावनी बूंद को खोना होगा। गंगा को उतरना होगा। सूरत! खींचते हैं, जबर्दस्ती करते हैं। सागर मिलेगा, बेशर्त मिलेगा, पूरा मिलेगा, लेकिन उतरे बिना बड़ी गलत कहानियां हैं। कोई जबर्दस्ती नहीं करता। तम | कभी नहीं मिला है. कभी नहीं मिलेगा। जिंदगी को जबर्दस्ती पकड़ते हो। इसलिए जब जिंदगी हाथ से सूली को देखना बंद करो तो दूसरा सवाल उठना बंद हो छूटने लगती है, तुम्हें लगता है जबर्दस्ती हो रही है। तुम अपने से जाए-किस विधि मिलना होय? 353 2010_03 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 - मरना ही विधि है। सूली विधि है। और सूली के कारण तुम हाथ फैलाए हैं परमात्मा की तरफ, लेकिन परमात्मा को नहीं घबड़ाते हो। तुम कहते हो, किस विधि मिलना होय? कोई मांगते। परमात्मा से भी दो कौड़ी की चीजें मांगकर आ जाते हैं; रास्ता बताएं कि सूली से बचकर निकल जाएं, कि इधर-उधर से कि दुकान ठीक चले, कि मुकदमा जीत जाएं, कि किसी स्त्री से निकल जाएं। सूली यहां रही, रही आए, हम जरा पीछे के विवाह हो जाए, कि लड़के को नौकरी लग जाए, कि बीमारी दूर दरवाजे से निकल जाएं। हो जाए। तुम मांगते क्या हो? । सूली विधि है। अगर तुम मुझसे पूछो, मरना विधि है। तो तुम्हारे आंसू बड़े झूठे थे। अब जो आदमी मांग रहा है कि 'किस विध मिलना होय?' मुझे बीमारी है, वह दूर हो जाए-वह रो रहा है, लेकिन उसके मरो! मिटो। खो जाने को राजी हो जाओ। | रोने में परमात्मा की प्रार्थना तो नहीं है। उसके आंसुओं में बीमारी 'प्रीतम आन मिलो'-तुम मिटे कि प्रीतम मिले। की, असहाय अवस्था की घोषणा तो है, लेकिन जीवन का ऐसे चीखने-पुकारने से कुछ भी न होगा। सूली से डरते रहे धन्यभाव नहीं है, अहोभाव नहीं है। और कहते रहे, 'प्रीतम आन मिलो', तो कुछ भी न होगा। जरा गौर करना, तुम्हारे आंसू तुम्हारे हैं। तुम गलत हो तो 'नैना नीर झरे, हृदय पीर करे तुम्हारे आंसू भी गलत हैं। और तुम्हारा हृदय तुम्हारा है। तुम प्रीतम आन मिलो।' गलत हो तो तुम्हारे हृदय की पीर भी गलत है। नहीं, इतना काफी नहीं है। तुम तुम ही हो। और तुम तुम ही जिसे तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल कहता है ऐ नादां रहकर आंसू भी गिरा रहे हो। वे आंसू भी तुम्हारे हैं। उन वही शौक-ए-वफा की इब्तदा मालूम होती है आंसुओं में भी तुम्हारी भाषा है। उन आंसुओं में भी तुम्हारे जिसे तुम समझते हो कि यह दिल के दर्द की चरम सीमा है, संस्कार हैं। उन आंसुओं में भी तुम्हारी दृष्टि है। तुम्हारी आंख | यह केवल प्रेम की शुरुआत है, चरम सीमा नहीं। के आंसू हैं, तुम्हारी दृष्टि से भरे हैं। उन आंसुओं में भी तुम गौर जिसे तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल कहता है ऐ नादां । से देखोगे तो सूली ही झलक रही है। जैसी तुम्हारी आंख में ऐ नासमझ! जिसे तू कहता है कि यह दिल के दर्द की आखिरी झलक रही है, तुम्हारे आंसुओं में भी सूली झलक रही है। वे घड़ी आ गई-नैना नीर झरे, हृदय पीर करे—वही तुम्हारी घबड़ाहट के आंसू हैं। वे तुम्हारी बेचैनी के आंसू हैं। शौक-ए-वफा की इब्लदा मालूम होती है। यह केवल शुरुआत सूली को स्वीकार करो। तब एक अभिनव अनुभव होगा। है। यह प्रेम की यात्रा का पहला कदम है। और परमात्मा से आंसू फिर भी शायद बहें, लेकिन अब आनंद के होंगे। और मिलन तो अंतिम कदम पर होगा, पहले कदम पर नहीं। आंसओं में सिंहासन की झलक होगी। और तब तम्हें कहना न और पहले कदम और अंतिम कदम के बीच यात्रा क्या पड़ेगा, प्रीतम आन मिलो। उस घड़ी में मिलन हो ही जाता है। है?-तुम्हारे मिटने की यात्रा है। तुम धीरे-धीरे अपने को अन्यथा कभी हुआ नहीं, अन्यथा हो नहीं सकता। इधर तुम मिटे | छोड़ते जाओ। छलांग में छोड़ सको तो सौभाग्य। कंजूस हो तो कि मिलन हुआ। तुम ही बाधा थे। और तो कुछ रोक नहीं रहा धीरे-धीरे छोड़ो, क्रमशः छोड़ो। कृपण हो तो इंच-इंच छोड़ो, था। तुम ही रोके हो। रत्ती-रत्ती त्याग करो। साहसी हो, एक क्षण में छलांग हो सकती _ 'नैना नीर झरे, हृदय पीर करे'-अभी तुम्हारी पीर में भी, है। कह दो एक क्षण में कि अब मैं नहीं। उसी क्षण में तुम | पीड़ा में भी तुम हो। तुम रोते भी हो तो तुम्हारे आंसू कुंआरे नहीं पाओगे, परमात्मा उतर आया। इधर तुमने जगह खाली की, कि हैं। तुम पीर से भी भरते हो तो तुम्हारी पीड़ा में भी शिकायत है। वह आया। तुम्हारी पीड़ा में भी दंश है। तुम्हारी पीड़ा में तुम्हारा सारा संसार | तुम भीतर के सिंहासन पर अकड़कर बैठे हो। वहीं से तुम छिपा है। पूछताछ कर रहे हो। वहां से जगह खाली नहीं करते, बातें करते मंदिरों में जाकर देखो। लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, मांगते क्या हो। अच्छी-अच्छी बातें सीख ली हैं—'प्रीतम आन मिलो। हैं? आंसू झर रहे हैं, मांगते क्या हैं? मांगते संसार की चीजें हैं। नैना नीर झरे, हृदय पीर करे।' 354 2010_03 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है काव्य से कुछ भी न होगा। कविता काफी नहीं है। सुंदरतम | बसाने की कोई जरूरत नहीं। एक साधै सब सधै। कविताएं करो, लेकिन केवल जीवन से प्रमाण दोगे तो ही कुछ | जिसने पूछा है, उसके लिए प्रेम ही अनुकूल पड़ेगा। ध्यान का होगा। मिटने की तैयारी दिखाना शुरू करो। शास्त्र बाधा बनेगा। चौबीस घंटे स्मरण रखो कि कैसे-कैसे ढंग से तुम अपने को तुम प्रार्थना की चर्चा करो, पूजा की, अर्चना की चर्चा करो, भरते हो और अहंकार को सख्त करते हो, मजबूत करते हो। धूप-दीये जलाओ, नाचो, गुनगुनाओ, आह्लादित होओ। जरा-जरा सी बात में अहंकार मजबूत होता है। जरा-जरा सी प्रार्थना में उतरो। तुम्हारा मंदिर प्रार्थना की यात्रा से आएगा। बात में अहंकार चोट खाता है। चोट खाए सांप की तरह | जिसने पूछा है, वह इसे ठीक से याद रखे। ध्यान की चिंता में फुफकारता है। | मत पड़ो। अक्सर ऐसा होता है। मन बड़ा लोभी है। प्रेम सधता इसे जागकर देखो। इस सांप से छुटकारा पाओ। ऐसे जीयो, है तो मन में यह होता है कि अरे! ध्यान नहीं सध रहा है। कहीं जैसे तुम नहीं हो। ऐसे जीयो, जैसे परमात्मा है और तुम नहीं हो। ऐसा तो न होगा कि आखिर में मैं चूक जाऊं! कोई गाली दे तो समझो, उसी को दी गई। तुम परेशान मत उधर वह पीछे मंजु बैठी है। उसको भी फिकर लगी रहती है मो। कोई सम्मान करे तो समझो, उसी का किया गया। तुम | कि ध्यान नहीं सध रहा भगवान! प्रेम सध रहा है। तो घबड़ाहट गौरवान्वित मत होओ। तुम अहंकार से मत भरो। कांटा चुभे तो लगी रहती है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि ध्यान चूक जाए तो जानो, उसी को चुभा। फूल बरसें तो जानो उसी पर बरसे। तुम कुछ चूक जाए! अपने को हटा ही लो। भूख हो तो उसकी, प्यास हो तो उसकी। प्रेम मिल गया तो मिल गया। ध्यान भी अपने आप चला प्रसन्नता हो तो उसकी, तृप्ति हो तो उसकी। तुम अपने को हटा आएगा। फूल खिल गए, सुगंध अपने आप फैलेगी। लेकिन ही लो। इस चिंता के कारण बाधा पड़ सकती है। तब-केवल तब ही उस महत का पदार्पण होता है। तो अपनी वृत्ति को ठीक से पहचान लेना। अगर प्रेम में तन्मयता आती हो, छोड़ दो ध्यान। शब्द ही भल जाओ। यह चौथा प्रश्नः मिठास की याद भी मुंह को स्वाद से भर देती | शब्द तुम्हारे लिए औषधि नहीं है। यह औषधि किसी और के है। प्रकाश का स्मरण अंतस को आलोक और ऊष्मा से भर लिए होगी। तुम्हारे रोग की औषधि तम्हें मिल गई. रामबाण देता है। मैंने सुना था कि 'ध्यानमूलं गुरुमूर्तिः।' और मुझे औषधि मिल गई। अब तुम फिक्र छोड़ो। आपका स्मरण एक प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और तन्मयता से तुमने देखा ! केमिस्ट की दुकान पर लाखों औषधियां रखी हैं। भर जाता है। जब मेरी चाल में हर क्षण बूंघर की तरह आपकी | तुम अपना प्रिस्क्रिप्शन लेकर गए, तुम्हें अपनी औषधि मिल धुन बजती है, जब मेरे रोम-रोम में ध्यानमूर्ति, प्रेममूर्ति और गई। डाली अपनी झोली में, चल पड़े। तुम इसकी फिक्र नहीं गरुमर्ति आप बसते हैं तो अब मैं ध्यान को कहां रखं? | करते कि इन सब औषधियों में से और तो कुछ ले लें। इतनी दुकान पर औषधियां रखी हैं, एक ही लेकर चले? इतने से कहीं प्रेम जग जाए तो ध्यान की चिंता छोड़ो। प्रेम के पीछे-पीछे काम हल होगा! तुम्हारी बीमारी की औषधि मिल गई, बात पूरी छाया की तरह चला आएगा ध्यान। छाया को रखने के लिए हो गई। कोई स्थान तो नहीं बनाना पड़ता। तुम घर में आते हो, तुम्हारे तो अगर प्रेम से रस झर रहा हो तो तुम भाषा प्रेम की सीखो। लिए जगह चाहिए। तुम्हारी छाया के लिए तो कोई अलग से | कंठ को भरो उमंग से। ध्यानी तो खोज रहा है, इसलिए ध्यानी जगह नहीं चाहनी होती। छाया तो कोई जगह घेरती नहीं। थोड़ा रूखा-सूखा होगा ही। भक्त ने तो पा ही लिया। ध्यानी अगर प्रेम आ गया तो ध्यान छाया की तरह आता है; उसके अंत में कहेगा, रसधार बही। भक्त पहले दिन से कहता है कि लिए कोई अलग से जगह बनाने की जरूरत नहीं है। अगर ध्यान | रसधार बही। भक्त के लिए पहला दिन आखिरी दिन जैसा है। आ गया तो प्रेम छाया की तरह आता है। फिर प्रेम को अलग से महावीर भी कहते हैं, अतिशय हो जाता रस का, अतिरेक हो 355 2010_03 www.jainelibrar.org Beat Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ More जिन सत्र भागः2 जिन सूत्र भाग 2 जाता रस का, लेकिन आखिरी घड़ी में होगा ध्यानी के लिए। तो तुम ध्यान की चिंता छोड़ दो। अगर तुम श्रद्धा कर सकते हो से ही नाचने लगता है। उसका भरोसा ऐसा | तो धन्यभागी हो। अगर संदेहशून्य मन से, जो मैं तुमसे कह रहा है। उसकी श्रद्धा ऐसी है। जो ज्ञानी को सोच-सोचकर, चिंतन हूं उसकी मिठास तुम्हें अनुभव होती है, अगर मुझे सुनकर तुम्हारे कर-करके, मनन कर-करके, निदिध्यास्न कर-करके मिलता है, अंतस में आलोक प्रगाढ़ होता है, ऊष्मा भरती है तो फिर तुम भक्त श्रद्धा से पा लेता है। ध्यान के लिए अलग से जगह बनाने की सोचो ही मत। तम्हारा अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए ध्यान तुम्हें मिल गया। जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा प्रेम तुम्हारा ध्यान है। भक्त तो भगवान से भी मनुहार लेने लगता है। वह तो रूठ भी | अब इसमें व्याघात मत डालो, व्यवधान मत डालो। यह जो जाता है भगवान से, कि अगर तू नहीं गाएगा साथ, तो हम भी न पूछ रहा है, यह मन है। यह मन कह रहा है, ध्यान का क्या? गाएंगे। यह तो प्रेम है, ठीक; यह तो भक्ति है, ठीक; लेकिन ध्यान का अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए क्या? मन एक बिबूचन पैदा कर रहा है। जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा तुम ध्यान की चिंता में पड़ गए कि भक्ति खो जाएगी। और आंसू के द्वारे कटी सुबह, दुख के घर बीती दोपहरी ध्यान तो मिलेगा कि नहीं पक्का नहीं है, भक्ति खो जाएगी यह अब जाने डोला कहां रुके, अब जाने शाम कहां पर हो पक्का है। बरसात भिगोकर पलक गई, तन झुलसाकर पतझर लौटा और जिस मन ने अभी बाधा खड़ी की है, कल अगर कभी खंडहर घर को कर जेठ चला, पनघट मरघट बनकर लौटा तुम्हारा ध्यान भी जमने लगे, सधने लगे, तो यही मन कहेगा, पी डाली उम्र सितारों ने, चुन डाले गीत बहारों ने ठीक है, ध्यान तो ठीक है। लेकिन प्रेम का क्या? भक्ति का लौटा तो गेह मुसाफिर यह, खाली ही हाथ अगर लौटा क्या? यह ध्यान तो सूखा-सूखा है, मरुस्थल है। इसमें रसधार दिन एक मिला था सिर्फ मुझे, मिट्टी के बंदीखाने में कहां बहेगी? इसमें नाचोगे कैसे? इससे शांति तो मिल जाएगी आधा जंजीरों में गुजरा, आधा जंजीर तुड़ाने में लेकिन आनंद? नाचता हुआ आनंद, नर्तन करती हुई दिव्यता प्राणों को पकड़े खड़ी देह, पांवों को जकड़े पड़ा गेह कहां मिलेगी? अब जाने इतने पर्यों में बेपर्दा श्याम कहां पर हो? ऐसे मन तुम्हें डांवाडोल करेगा। मन की आदत यही है। तुम अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए जहां हो, वह तुम्हें कहीं और के सपने दिखाता है। वह कहता है, जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा | कहीं और होना चाहिए। वह तुमसे कहता है, इससे बेहतर जगह पर्दे बहुत हैं। भक्त कहता है, अब मैं कहां खोजता फिरूं? | है। और इसलिए तुम जहां हो, वहां से चुका देता है। किन-किन पर्दो को उठाऊं? अब तू ही मुझे खोज ले। और दुख और अगर तुम इस अभ्यास में बहुत ज्यादा कुशल हो मैंने बहत उठाए। सारी जिंदगी दख उठाने में बीती। सारी जिंदगी गए-चकने के अभ्यास में-तो तुम हर जगह चूकते चले सुख की आशा करने में, दुख को काटने में गुजारी। अब बहुत | जाओगे। तुम स्वर्ग में भी होओगे तो भी मन तुमसे कहेगा, पता हो गया। अब मैं दुख को काटने की फिकर नहीं करता, और न नहीं नर्क में क्या हो रहा है! हो सकता है, लोग वहां ज्यादा मजा सुख की तलाश करता हूं; अब मैं सुखी होता हूं। उठा रहे हों। इस बात को खयाल में लेना। भक्त कहता है, अब मैं सुख की | मैंने तो सुना है, एक फकीर मरा और स्वर्ग पहुंचा। तो वह खोज नहीं करता, अब मैं सुखी होता हूं। अब इस क्षण से खोज बड़ा चकित हुआ स्वर्ग में प्रवेश करके। क्योंकि उसने देखा, कई. बंद हुई। अब मैं नाचूंगा। अब में आनंदित हूं। अब मैंने तय कर लोग जंजीरों से बंधे हैं। लिया कि खोजने से नहीं मिलता, खो जाने से मिलता है। उसने जो देवदूत उसे अंदर ले जा रहा था, उससे पूछा कि मेरी भक्त की श्रद्धा बड़ी अनूठी है। अगर श्रद्धा का सूत्र हाथ में हो यह समझ के बाहर है। मैंने तो सुना था, स्वर्ग मुक्ति है। और 356 2010_03 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्ति द्वंद्वातीत है यहां भी जंजीरें बंधी हैं? इसे देखकर तो मेरी घबड़ाहट बढ़ती | अब ध्यान को रखकर करोगे क्या? अब ध्यान की जरूरत है। यह मामला क्या है ? ये लोग बंधे क्यों हैं? कहां रही? यह तो ऐसा हुआ कि किसी अंधे को आंखें मिल गई उसने कहा कि ये लोग नर्क जाना चाहते हैं इसलिए जंजीरें और अब वह पूछता है कि यह मेरी लकड़ी, जिससे मैं डालना पड़ीं। ये लोग एकदम उतावले हो रहे हैं। ये कहते हैं, टटोल-टटोलकर चलता था जब मैं अंधा था, तो अब इस स्वर्ग तो देख लिया, अब नर्क देखना है। ये कहते हैं, यहां तो | लकड़ी का क्या करूं? और कहां रखू? मैं इसको छोड़ तो ऊब आने लगी। देख लिया, जो देखना था। पता नहीं नर्क में | सकता नहीं, क्योंकि इसने कितना साथ दिया है! अंधा था तो कहीं ज्यादा मजा हो। इसी से टटोल-टटोलकर चलता था। आंखें तो आज मिलीं, मन ऐसा है। स्वर्ग भी पहुंच जाओगे तो भी चैन से न बैठने | अंधा तो जन्मों से था। लकड़ी ने जन्मों साथ दिया, इसे कैसे देगा। अब जिसने पूछा है, 'मिठास की याद भी मुंह को स्वाद से छोड़ दं? भर देती है।' जब याद इतने स्वाद से भर रही है तो चल पड़ो। | प्रेम मिल गया तो ध्यान की कोई जरूरत नहीं। ध्यान मिल स्मरण तुम्हारा मार्ग है, सुरति तुम्हारी विधि है। अब इस मिठास गया तो प्रेम की कोई चिंता नहीं। दो में से एक सध जाए। और में डूबो। मिठास हो जाओ। दोनों के बीच अपने मन को डांवांडोल मत करना, अन्यथा तुम 'प्रकाश का स्मरण अंतस को आलोक से, ऊष्मा से भर देता | त्रिशंकु हो जाओगे। है। मैंने सुना था कि ध्यानमूलं गुरुमूर्तिः। और मुझे आपका | और जब मैं कह रहा हूं, एक सध जाए तो मेरा मतलब यही है स्मरण एक प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और तन्मयता से भर देता कि एक के सधते दसरा अनायास अपने आप सध जाता है। उजाड़ से लगा चुका उम्मीद में बहार की तो फिर अब बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? तो फिर रुके क्यों | निदाघ से उम्मीद की, वसंत की बयार की हो? जहां से रस बहे, जानना वहीं सत्य है। रस सत्य की खबर मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी लाता है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। जहां से अंगार से लगा चुका उम्मीद मैं तुषार की रस बहे, समझना परमात्मा छिपा है। पत्थर से बहे, तो प्रतिमा हो कहां मनुष्य है जिसे न भूल शूल सी गड़ी गई वह परमात्मा की। भोजन से बहे, तो अन्न ब्रह्म हो गया। इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो संगीत से आए तो संगीत अनाहत का नाद हो गया। जिस व्यक्ति इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो की उपस्थिति में लगने लगे वह रस, तो उपस्थिति उसकी पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो भगवतस्वरूप हो गई। वह व्यक्ति भगवान हो गया। ध्यानी कहता है, मैं अपने को सधारूंगा। ध्यानी का अर्थ है: जहां से रस मिल जाए, चल पड़ना उस तरफ अंधे की भांति। सारा दायित्व मेरे ऊपर है। फिर आंखों को रख देना। इन आंखों का काम तो तभी तक था, प्रेमी का अर्थ है। इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार जब तक रस का पता न हो। यह आंखों से टटोल-टटोलकर लो। कि तुम मुझे पुकार लो, कि पुकार कर दुलार लो, कि चलना तभी तक ठीक था, जब तक रस का पता न हो। जब रस दुलार कर सुधार लो। की झलक मिलने लगी, तो अब सब छोड़ो समझदारी। अब हो | प्रेमी का अर्थ है, कि वह कहता है, कि मैंने छोड़ दिया तुम्हारे जाओ नासमझ। अब हो जाओ पागल। अब हो जाओ उन्मत्त। हाथों में। अब तुम सुधार लो। मेरे किए न होगा। मेरे किए होगा दौड़ पड़ो। अब चलने से काम न चलेगा। आंधी-अंधड़ की भी कैसे? मैं गलत है, मैं जो करूंगा वह और गलती को तरह चल पड़ो परमात्मा की तरफ। बढ़ाएगा। मैं नासमझ हूं। मैं जो करूंगा उससे नासमझी और 'जब मेरी चाल में हर क्षण घूघर की तरह आपकी धुन बजती उलझ जाएगी। मैं वैसे ही उलझा हूं। है, जब मर रोम-रोम में ध्यानमूर्ति, प्रेममूर्ति और गुरुमूर्ति आप तुमने कभी देखा, कोई चीज उलझी हो, सुलझाने जाओ तो बसते हैं तो अब मैं ध्यान को कहां रखं?' और उलझ जाती है। मैं वैसे ही भ्रम में हूं। अब इसमें और 357 2010_03 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 उपद्रव करूंगा तो और कीचड़ मच जाएगी। | प्रेम की दृष्टि और है। वह कहता है, कि मैंने तुम्हारे हाथों में छोड़ा अपने को। तुम मुझे बना सके तो तुम मुझे सुधार न सकोगे? तुम मुझे जीवन दे सके तो तुम मुझे ज्योति न दे सकोगे ? तुमने बिन मांगे जीवन दिया, तुमने बिन मांगे अहोभाग्य बरसाया, तो मांगता हूं तुमसे, ज्योति न दे सकोगे ? बिन मांगे जीवन देते हो, मांगे ज्योति न दोगे ? प्रेमी परमात्मा पर छोड़ रहा है। और इसी छोड़ने में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि जैसे ही तुमने उस पर छोड़ा, तुम्हारा अहंकार मिटना शुरू हुआ। और अहंकार मूल है सारे उपद्रव का, सारी भूलों का, सारे पाप का, सारी नासमझियों का। अहंकार द्वार है नर्क का । 'तुम क्या कर रहे हो ? कुछ किया नहीं ?' उसने कहा, 'मैं यही तो सोच-विचार में पड़ा हूं। बड़े एक तो जिसने पूछा है— कृष्ण गौतम का प्रश्न है— उससे मैं तरफ कर दूं, छोटे एक तरफ कर दूं, कुछ मझोल हैं; इनको कहां कहता हूं : करना ? और जब तक सब बात साफ न हो जाए तब तक कोई भी कृत्य करना खतरे से खाली नहीं है । मैं सोच-विचारवाला आदमी हूं।' गौतम! दार्शनिक होने की कोई जरूरत नहीं। अब ध्यान की चिंता छोड़ो। तुम्हें जिससे संगति बैठ सकती है, वह स्वर बजा है। अब चल पड़ो। अब श्रद्धा से भरपूर, भरोसे से । सोच-विचार एक तरफ रखकर, अब दौड़ो। आगाज़ जो अच्छा है, अंजाम बुरा क्यों हो ? नादां है जो कहता है, अंजाम खुदा जाने ! जब प्रारंभ अच्छा है, अंत भी अच्छा होगा। तुम फिक्र छोड़ो। | नासमझ है, जो कहता है कि शुरुआत तो बड़ी अच्छी हो रही है, परिणाम परमात्मा जाने! जब शुरुआत अच्छी है तो परिणाम भी अच्छा होगा। जब बीज मिठास के और रस के हैं तो फल भी रस के और मिठास के होंगे। तुम चल पड़ो। अब तुम बैठे-बैठे विचार मत करो | चिंतन अक्सर आलस्य बन जाता है। बहुत सोच-विचार करनेवाले लोग चलने की बात भूल ही जाते हैं। इसलिए दार्शनिक कुछ भी नहीं कर पाते। सोचते-सोचते जीवन गंवा देते हैं । करने के लिए मौका ही नहीं बचता, समय नहीं बचता, शक्ति नहीं बचती । कहा कि तुम किसी काम के नहीं हो। अगर तुम इतना सोच-विचार करोगे तो युद्ध के मैदान पर क्या होगा? इतना सोच-विचार सैनिक के लिए नहीं है। मगर अब तुम भर्ती हो ही गए हो तो कोई तो काम देना । तो उसे मेस में भेज दिया — भोजनालय में — कि वहां तुम कुछ काम करो। पहले ही दिन उसको मटर के दाने दिए, कि बड़े-बड़े एक तरफ कर लो, छोटे-छोटे एक तरफ कर दो। घंटेभर बाद जब उसका शिक्षक आया तो दाने वैसे के वैसे रखे थे और वह माथे से हाथ लगाए – जैसे रोडेन की प्रतिमा है न! विचारक – वैसे बैठा था। 358 2010_03 पांचवां प्रश्नः वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि कुछ सकता है। अब कोई भय नहीं मालूम देता । प्रभु, प्रणाम ! प्रणाम !! प्रणाम !!! शुभ है ऐसी घड़ी, जब ऐसा भाव सघन होने लगे कि अब कुछ हो सकता है। मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक महत्व की घड़ी यही घड़ी है, जब भरोसा आता है कि अब कुछ हो सकता है। मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में एक दार्शनिक भर्ती हुआ। युद्ध में जरूरत थी, सभी भर्ती किए जा रहे थे, वह भी भर्ती कर लिया | गया। लेकिन बड़ी कठिनाई हुई। क्योंकि जो इसे शिक्षण दे रहा था वह बड़ी परेशानी में पड़ गया। वह कहे, 'बायें घूम।' सारी दुनिया घूम जाए, वह वहीं खड़ा है। तुम खड़े क्यों हो? वह कहता, जब तक मैं सोच न लूं कि बायें घूमूं क्यों ? आखिर बायें घूमने से फायदा क्या है? और फिर दायें घूमना पड़ेगा, तो यहीं क्यों न खड़े रहो ? अन्यथा साधारणतः तो भरोसा आता ही नहीं कि कुछ और मुझे हो सकेगा? और उस गैर-भरोसे का भी कारण है। जन्मों-जन्मों से कुछ न हुआ, आज अचानक कैसे हो सकेगा ? अनंत काल में न हुआ, आज कैसे हो सकेगा? इसलिए इस जगत में सबसे बड़ी महत्वपूर्ण घटना, जहां से आखिर वह जो शिक्षण देनेवाला था, परेशान हो गया। उसने और महत्वपूर्ण घटनाओं की शुरुआत होती है, वह इस क्षण का Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है आ जाना है, जब तुम्हें यह लगे कि हां, मुझे कुछ हो सकता है। और जाएगी। इसलिए जब चली जाए तो घबड़ा मत जाना, इसीलिए तो लोग बुद्ध पर, महावीर पर, कृष्ण पर, क्राइस्ट पर उदास मत हो जाना। क्योंकि यह बड़ी दूर की झलक है। जैसे भरोसा नहीं करते। क्योंकि उनको लगता है, जब हमें नहीं हो आकाश में क्षणभर को बिजली कौंध गई हो और तुम्हें दूर सकता तो किसी को कैसे हुआ होगा? आखिर हम भी मनुष्य हिमालय का शिखर दिखाई पड़ गया हो। पर बिजली गई, फिर जैसे मनुष्य हैं-हड्डी, मांस, मज्जा के बने। जैसे तुम घना अंधेरा है। और ध्यान रखना, जब बिजली के बाद अंधेरा थे–महावीर हो, कि बुद्ध हो, कि कृष्ण हो, कि क्राइस्ट हो। होता है तो बिजली के पहले के अंधेरे से ज्यादा घना हो जाता है। हम भी जन्मे, तम भी जन्मे। हम भी मरण की तरफ जा रहे हैं, तो जिनके जीवन में यह सौभाग्य का क्षण आता है, उन्हें लगता तुम भी मरे। हमें भी भूख लगती है, तुम्हें भी लगती है। हमारा है, अब कुछ हो सकता है, वे बड़ी खतरे की स्थिति में भी हैं। भी शरीर जीर्ण-शीर्ण होता है, वृद्ध होता है, तुम्हारा भी हुआ। उन्हें सचेत कर देना जरूरी है। क्योंकि यह बिजली की कौंध है; हमारी भी कमर झुक गई, तुम्हारी भी झुक जाएगी, तुम्हारी भी यह खो जाएगी। यह बहुत बार पकड़ में आएगी, बहुत बार छूट झुक गई थी। | जाएगी। और जब छूटेगी तब तुम ऐसे अतल अंधेरे में गिरोगे, तो अंतर कहां है? हमारे जैसे मनुष्य! हमें नहीं हुआ, हमें नहीं जैसे कि तुम कभी भी नहीं थे। घटा वह अघट, हमारे जीवन में नहीं उतरा आकाश। हमारा | लेकिन अगर सावधान रहे और स्मरण रखा कि ऐसा होता है, आंगन तो सिकुड़ता ही गया। आकाश के तो दर्शन ही नहीं हुए। | तो तुम उन अंधेरी रातों को भी पार कर जाओगे। और जो अभी हमारे तो झरोखे बंद ही होते गए। कभी कोई खुला प्रकाश, सूरज | बिजली की कौंध की तरह घटा है, वह एक दिन सुबह के सूरज का दर्शन न हुआ, तो तुम्हें कैसे हुआ होगा? या तो तुम धोखा दे की तरह घटेगा। पहले झलक आती है, फिर झलक साफ होती रहे हो, या तुम भ्रम में पड़े हो, या तो तुम सिर्फ बातचीत कर रहे | है; फिर झलक झलक नहीं रह जाती, तुम्हारा सुनिश्चित अनुभव हो और या फिर तुम कोई सपना देख रहे हो। हो जाता है। फिर अनुभव नहीं रह जाता है, परमात्मा फिर ध्यान रहे, जिस दिन तुम्हें भरोसा आता है कि मुझे हो सकता अनुभव जैसा नहीं मालूम होता, तुम्हारा स्वत्व हो जाता है, है, उसी दिन पहली दफे बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट पौराणिक तुम्हारा स्वभाव हो जाता है। नहीं रह जाते, ऐतिहासिक हो जाते हैं। उसी क्षण सारा इतिहास मधर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल नया हो जाता है, जैसे तुम्हारे लिए फिर से लिखा गया। पहली छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल दफा ऐसे व्यक्तियों पर, जिनके जीवन में परमात्मा की झलक | तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज आयी, प्रतिबिंब उतरा, जिनमें किसी तरह परमात्मा की प्रभा | भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज प्रगट हुई, तुम्हें भरोसा आता है। जिस दिन तुम्हें अपने पर पर खयाल रखनाभरोसा आता है उसी दिन तुम्हें कृष्ण, महावीर, बुद्ध पर भरोसा मधुर निर्यात और आयात साधते हो दोनों के खेल। आता है। छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल लोग ईश्वर पर भरोसा नहीं करते क्योंकि उनका अपने पर एक क्षण तो लगता है, इतने करीब; और एक क्षण लगता है, भरोसा नहीं है। नास्तिक की असली नास्तिकता | इतने दूर। एक क्षण लगता है, हाथ की पहुंच के भीतर; और आत्म-अविश्वास है। वह कहता है, कोई ईश्वर नहीं है। | एक क्षण लगता है, असंभव! बिलकुल असंभव! ऐसा बहुत क्योंकि भीतर जब ईश्वर का पता नहीं चलता, किरण भी नहीं | बार होगा। पता चलती. झलक भी नहीं पता चलती. सपने में भी कोई तरंग तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज नहीं लहराती तो ईश्वर हो कैसे सकता है? भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज ईश्वर होता है उस क्षण, जब तुम्हारे भीतर तुम होने लगते हो। तो डरना मत। यह झलक सौभाग्य है। शुभ घड़ी है। लेकिन ध्यान रखना, यह घड़ी कई बार आएगी लेकिन जिनके जीवन में सौभाग्य आता है, उसके साथ-साथ 359 2010_03 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 उतने ही खतरे भी आते हैं। जब तुम्हारे पास कुछ नहीं होता तो सावधान! क्योंकि इस पहली किरण के साथ ही जब अंधेरा खोने को भी कुछ नहीं होता। जब कुछ होता है तो खोने को भी फिर से आएगा तो बहुत गहरा होगा। तुम बहुत तड़फोगे फिर। कुछ होता है। जितना ज्यादा तुम्हारे पास होगा, उतने ही तुम तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज खतरे में भी हो; क्योंकि उतना ही खोने को भी तुम्हारे पास है। भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज एक युवक छह महीने पहले आया। आने के महीनेभर बाद मधुर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल उसने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि क्या मैं वापस जा छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल सकता हूं अपने घर? मैंने कहा, जा सकते हो। लेकिन वह गया परमात्मा ऐसी बहुत धूप-छांव तुम्हें देगा। परमात्मा बहुत बार नहीं। महीनेभर और रुका। फिर उसने पूछा कि क्या मैं जा करीब और बहुत बार दूर निकल जाएगा। यह छिया-छी का सकता हूं? मैंने कहा कि अब जाना ठीक नहीं। खेल है। ऐसे ही तुम्हें वह मजबूत करता है, बलशाली करता है। वह थोड़ा चौंका। उसने कहा कि महीनेभर पहले आपने कहा | ऐसे ही तुम्हें जीवन देता है। ऐसे ही तुम्हारी परिपक्वता आती है। कि जा सकते हो। अब आप कहते हो, जाना ठीक नहीं, मामला | ऐसे ही मिलकर-खोकर, खोकर-मिलकर, बार-बार धूप-छांव क्या है? क्योंकि मैं तो सोचता था, महीनेभर में मैं और तैयार हो | से गुजारकर तुम्हें पकाता है; परिपक्व करता है। तुम्हें प्रौढ़ता जाऊंगा तो जाने के योग्य हो जाऊंगा। | देता है। तुम्हारे जीवन में एकता आती है। मैंने कहा, महीनेभर पहले जब तुमने पूछा था, तुम्हारे पास | और एक ऐसी घड़ी आती है कि वह मिले तो ठीक, न मिले तो खोने को कुछ भी नहीं था। तो मैंने कहा, जाओ। कोई फर्क नहीं ठीक; हर हालत में तुम प्रसन्न होते हो। अंधेरी रात भी उसी की, पड़ता था। अब तुम्हारे पास कुछ खोने को है। थोड़ा-सा अंकुर जगमगाते सूरज का दिन भी उसी का। जब तुम्हें कुछ भी उसका फूटा है। अब मैं कहता हूं, मत जाओ। अभी रुको। अब तुम्हारे पता नहीं चलता, तब भी तुम जानते हो, वह है। और जब उसका पास कुछ है, जो खो सकता है अभी जाने से। अब थोड़ी देर रुक पता चलता है, तब भी तुम जानते हो, वह है। उस घड़ी जाओ। जरा इसे मजबूत होने दो। जरा इसकी जड़ें गहरी होने धूप-छांव का खेल बंद होता है। दो। अन्यथा तुम इतने दुख में पड़ जाओगे, जितने दुख में तुम अभी तो खतरा आएगा। पूर्व-सावधान कर देना उचित है। पहले भी न थे। आरजुओं में हरारत है, न उम्मीदों में जोश तम्हें पता है? एक गरीब आदमी है. गरीबी उसको भी है। सर्द अब हर गर्मिये-बाजार है तेरे बगैर फिर एक अमीर आदमी है, जिसका दिवाला निकल गया; वह जिंदगी एक मुश्तकिल आजार है तेरे बगैर भी गरीब है। दोनों के पास कुछ भी नहीं है। लेकिन जिसका सांस एक चलती हुई तलवार है तेरे बगैर दिवाला निकल गया है उसकी गरीबी का कोई अंदाज तुम गरीब अभी तो जब खोओगे तो लगेगाआदमी की गरीबी से नहीं लगा सकते। गरीब आदमी क्या खाक सांस एक चलती हुई तलवार है तेरे बगैर गरीब है! जो अमीर ही कभी नहीं रहा, उसे गरीबी का कोई पता जिंदगी एक मुश्तकिल आजार है तेरे बगैर ही नहीं हो सकता। जो अमीर रह चुका है, उसकी गरीबी की। बड़ी कठिनाई होगी, जैसी कभी न हई थी। लेकिन यह केवल पीड़ा बड़ी गहरी है। जिसने वैभव के दिन जाने, वही जानता है, सौभाग्यशालियों को होती है कठिनाई। ऐसा दुर्दिन केवल उन्हें दुर्दिन क्या है। जिसने वैभव के दिन ही नहीं जाने, वह तो दुर्दिन मिलता है, जिन्हें प्रभु की थोड़ी-सी झलक मिलनी शुरू हुई। में भी मस्त चादर ओढ़कर सोता है। कोई दुर्दिन जैसी कोई बात तुम्हारे पैर ठीक जमीन पर पड़ रहे हैं। मगर अभी भटकोगे। ही नहीं। सहज सामान्य जीवन है। इतनी जल्दी कुछ भी नहीं होता। और पाकर जब भटकोगे तो ऐसा ही आंतरिक संपदा के संबंध में भी सच है। बहुत रोओगे। उन आंसुओं में याद रखना। उन आंसुओं में जिन मित्र ने पछा है, उनके जीवन में बड़ी महत्वपूर्ण घटना भरोसे को कायम रखना। घटने के करीब आ रही है. घट रही है। पहली किरण उतरी है। अभी तो भरोसा आसान है। जब कछ ठीक हो रहा होता है तब 3601 Jalil Education International 2010_03 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws मक्ति द्वंदातीत है तो भरोसा बिलकुल आसान है। जब सब गलत जाने लगता है, आखिरी प्रश्नः मन जब एकदम शांत रहने लगेगा तब तब भरोसा कठिन होता है। सांसारिक कार्य कैसे होंगे? लेकिन उसी कठिनाई की चुनौती को जो मान लेता है उसके जीवन में विकास होता है। अशांत रहकर भी चल रहे हैं, तो शांत रहकर और भले तरह से तेरा-मेरा संबंध यही, तू मधुमय औ' मैं तृषित हृदय चलेंगे। आखिर शांति किसी काम में बाधा तो नहीं है। अशांत तू अगम सिंधु की रास लिये रहकर भी कर लेते हो तो शांत रहकर तो और कुशलता से कर मैं मरु असीम की प्यास लिये सकोगे। यह तो सीधा-सा गणित है। मैं चिर-विचलित संदेहों से एक आदमी अशांत है और कोई काम कर रहा है, तो अर्थ हुआ तू शांत अटल विश्वास लिये कि अशांति बड़ी शक्ति ले रही है। मन का तनाव बड़ी शक्ति पी तेरी मुझको आवश्यकता, आवश्यकता तुझको मेरी रहा है। फिर भी काम कर रहा है, किसी तरह खींच रहा है। तब मैं जीवन का उच्छवास लिये भी कर लेता है। तो थोड़ा सोचो, जब तुम शांत हो जाओगे और तू जीवन का उल्हास लिये सारी शक्ति काम में ही पड़ेगी क्योंकि मन कोई शक्ति रोकेगा तुझसे मिल पूर्ण चला बनने, बस इतना ही मेरा परिचय नहीं; अशांति नहीं, तनाव नहीं, कोई चिंता नहीं-जब तुम तेरा-मेरा संबंध यही, तू मधुमय औ' मैं तृषित हृदय पूरे-पूरे काम में उंडलोगे तो काम की गति तो बढ़ेगी, कुशलता हम प्यासे हैं। हम भूखे हैं। हम अतृप्त हैं-तृषित हृदय। बढ़ेगी, गुणवत्ता बढ़ेगी। और परमात्मा में छिपी है वह सुधा, वह अमृत, जो हमें तृप्त यह प्रश्न ही क्यों उठता है? यह प्रश्न इसलिए उठता है कि करेगी। परमात्मा और हमारे बीच जो संबंध है, वह प्यासे और तुम्हें अब तक यही समझाया गया है कि जो शांत हो जाते हैं, वे जल के बीच का संबंध है। | संसार से भाग जाते हैं। इसीलिए संन्यास से एक भय हो गया अभी तुम्हें सरोवर दिखाई पड़ा है, पर दूर से दिखाई पड़ा है। है। शांति से भय हो गया है। यह भय बिलकुल निर्मूल है। अभी बहुत संभावना है कि फिर तुम वृक्षों की ओट में हो मैं तुमसे कहता हूं, अशांत भला भाग जाते हों संसार से, शांत जाओगे। शायद सरोवर की तरफ चलने में ही बहुत बार वृक्ष क्यों भागने लगे? शांत को भागने के लिए जरूरत ही क्या ओट में आ जाएंगे और सरोवर खो जाएगा। चलोगे भी सरोवर रही? शांत को तो आनंद आएगा चारों तरफ की अशांति के की तरफ, तो भी अनेक बार सरोवर दिखाई पड़ेगा, अनेक बार बीच खड़े होने में। क्योंकि यहां कसौटी होगी। खो जाएगा। । यहां प्रतिपल भरोसा गहरा होगा कि अशांति कितनी ही हो जब खो जाए, तब भूलना मत कि है। क्योंकि जब दिखाई बाहर, अब मेरे भीतर प्रवेश नहीं करती। मैं अभेद्य दुर्ग में पड़ता है तब बिलकुल आसान मानना, कि है। जब खो जाता है विराजमान हो गया हूं। मेरी शांति अटूट है। अब कोई चीज इसे तब बहुत दुर्गम मानना, कि है। तब उदास हो, हताश हो, विशृंखल नहीं करती। मेरी शांति अब कमजोर नहीं है कि टूट थककर बैठ मत जाना। जाए; कि कोई भी चीज मेरे मन को डांवाडोल करे। अब सब जो इस क्षण में हुआ है, इसे तुम सदा के लिए अपनी एक परीक्षाओं से गुजर रहा हूं और मेरी शांति और गहरी और मजबूत चिर-संचित निधि बना लो। यह जो भरोसा जगा है कि अब कुछ होती चली जाती है। हो सकता है, इसे भलना मत। कछ भी हो, कैसी भी परिस्थिति नहीं, मैं तमसे कहता है. शांत आदमी जो भी करेगा उसमें हो, इसे फिर-फिर जगा लेना। इसे याद रखना। यह तुम्हारी उसकी कुशलता बढ़ जाएगी। स्मृति से उतर न जाए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं कह रहा हूं, शांत आदमी तो जो अभी झलक की तरह मिला है, वह तुम्हारी स्थायी वे सब काम करेगा ही, जो तुम कर रहे हो। क्योंकि कुछ काम हैं, संपदा बन जाता है। जो केवल अशांत आदमी ही कर सकता है, क्योंकि उनका मूल 361 2010_03 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 अशांति में है। दवा लेने लगे। और मैं कितने दिन से साथ रही। जन्मों-जन्मों जैसे एक आदमी चोरी कर रहा है, तो मैं तुमसे यह नहीं कह | का, जुग-जुग का संग-साथ-तुम दवा लेने लगे? धोखेबाज सकता कि शांत आदमी चोरी कर सकेगा। कर सके तो कुशलता | कहीं के! दगाबाज कहीं के! दवा लेने लगे? यह तुम क्या कर से करेगा; मगर कर सकता नहीं। क्योंकि चोरी के लिए बड़ा रहे हो? सब खराब हो जाएगा। सोया चित्त चाहिए। बड़ा दीन-दुर्बल चित्त चाहिए। चोरी के लेकिन तुम बीमारी की नहीं सुनते। मन को तुमने अब तक लिए बड़ा अशांत, विक्षिप्त चित्त चाहिए। बीमारी नहीं जाना। तुम सोचते हो, मन तुम हो। यहीं भूल हो शांत आदमी क्रोध न कर सकेगा। कर सके तो बड़ी कुशलता रही है। तुम मन नहीं हो। तुम मन के पार साक्षी हो। उस साक्षी से करेगा, मगर कर न सकेगा। क्योंकि क्रोध का मूल अशांति में का परम आनंद घटेगा शांति में। शांति में मन चला जाएगा, तुम है। लेकिन जीवन के सहज काम तो और कुशल हो जाएंगे। बचोगे। मन के बहुत-से व्यापार, जो रुग्ण हैं, जिन्होंने सिवाय शांत आदमी ज्यादा बेहतर पति होगा, ज्यादा बेहतर पत्नी दुख के और कुछ भी नहीं दिया, वे भी चले जाएंगे। लेकिन होगी, ज्यादा बेहतर बेटा होगा, ज्यादा बेहतर बाप होगा, ज्यादा उनका चला जाना हितकर है। बेहतर मित्र होगा। शांत आदमी के जीवन में, जो भी शांति के मन सदा ध्यान में बाधा डालता है। क्योंकि ध्यान मन की मत्य साथ बच सकता है, वह सभी बेहतर, स्वर्णमयी होकर, है। मन समझाता है: सुगंधमयी होकर होगा। उसके सोने में सुगंध आ जाएगी। बहुत खोया, और खोने दो मुझे तो मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम्हारी सभी चीजें बचेंगी। और भी गुमराह होने दो मुझे लेकिन मैं यह कहता है, जो बचाने योग्य हैं वे बचेंगी। जो बचाने आज पलकों की छबीली छांह में लग गई है आंख योग्य ही नहीं हैं जिनको तम भी बचाना नहीं चाहते हो. वे ही सोने दो मझे। केवल खो जाएंगी। महंगा सौदा नहीं है। बहुत खोया, और खोने दो मुझे महंगा सौदा तो तुम अभी कर रहे हो अशांति को चुनकर। आज पलकों की छबीली छांह में लग गई है आंख 'मन जब एकदम शांत रहने लगेगा तब सांसारिक कार्य कैसे सोने दो मझे होंगे?' मन बहाने खोज रहा है। मन कह रहा है, शांत मत हो लेकिन जिसे तुम पलकों की छबीली छांह समझ रहे हो, वहीं जाना। यह क्या कर रहे हो? ध्यान में लगे हो? अपनी जड़ें से तुम्हारे जीवन का सारा ज्वर, सारा उत्ताप पैदा हुआ है। जिसे खोद रहे हो? सब गड़बड़ हो जाएगा। | तुम सौंदर्य समझ रहे हो उसी ने तुम्हारे जीवन को कुरूप किया मन का तो सब गड़बड़ हो जाएगा, यह सच है। मन ठीक ही है। और जिसे तुम सोचते हो तुम्हारा बल, वही तुम्हारी कह रहा है। क्योंकि मन है तुम्हारा रोग, बीमारी। नपुंसकता है, वही तुम्हारी निर्बलता है। इसे ठीक से देखो। अगर तुम महत्वाकांक्षी हो तो महत्वाकांक्षा चली जाएगी। और अगर तुम्हें यह चिंता हो कि तुम अगर शांत हो गए तो अगर तुम पागल की तरह स्पर्धा में लगे हो, स्पर्धा चली जाएगी। संसार का क्या होगा. तो यह चिंता तम बिलकल मत करो। अगर तुम व्यर्थ चीजों को जोड़ने-बटोरने में लगे हो तो वह बहुत अशांत लोग हैं। तुम्हारे जाने से यहां कुछ बाधा न पड़ेगी। पागलपन उतर जाएगा। यहां काफी पागल हैं। तुम इस चिंता में मत पड़ो कि मैं अगर तो मन तो ठीक कह रहा है। मन को संसार की फिक्र नहीं है, ठीक हो गया, तो पागलखाने का क्या होगा? यह चलता ही रहा मन को अपनी फिक्र है। मन यह कह रहा है, कि मेरा क्या है। यह चलता ही रहेगा। होगा? तुम तो शांत होने लगे, कुछ मेरी तो सोचो! कितने दिन ये रंगे-बहारे-आलम है तुम्हारे साथ रहा! क्यों फिक्र है तुझको ऐ साकी! यह तो ऐसे ही हुआ, कि तुमने दवा लेनी शुरू की, बीमारी महफिल तो तेरी सूनी न हुई, | तुमसे कहे, कि जरा यह भी तो सोचो, मेरा क्या होगा? तुम तो कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए 362 2010_03 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति द्वंद्वातीत है । हैं -यह महफिल भरी ही रहती है। महफिल तो तेरी सूनी न हुई, महफिल तो तेरी सूनी न हुई, कुछ उठ भी गए, कुछ आ भी गए कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए तुम सिर्फ अपनी चिंता कर लो। और इतना मैं तुमसे कह तुम उठने में संकोच मत करो। कुछ बाहर खड़े हैं, जोर से सकता हूं आश्वासन के साथ, कि जो भी शुभ है, वह बचेगा। चिल्ला रहे हैं, जगह दो। क्यू में खड़े हैं। तुम हटो, वे बड़े प्रसन्न | जो भी श्रेयस्कर है, वह बचेगा। जो भी अशुभ है, वह छूट होंगे। तुम्हें वे धन्यवाद देंगे। इसीलिए तो लोग संन्यासी का जाएगा। मेरे मन में तो पाप और पुण्य की परिभाषा यही है : शांत स्वागत करते हैं ! चलो एक जगह खाली हुई। इसीलिए तो लोग मन जिसे न कर सके, वही पाप। जिसे करने के लिए अशांत मन त्यागी की महिमा गाते हैं, चरण छूते हैं कि धन्य प्रभु! कम से | अनिवार्य शर्त है, वही पाप। शांत मन ही जिसे कर सके, वही कम आपने तो जगह खाली की! पुण्य। शांत मन जिसके होने के लिए अनिवार्य भूमिका है, वह तुम अक्सर पाओगे त्यागियों के पास भोगियों को स्तुति | पुण्य है। करते। जैन मंदिरों में देखो! जो छोड़कर बैठ गए हैं संसार, जो पुण्य बचेगा। पुण्य की कुशलता बचेगी। पाप खोते चले संसार को जोर से पकड़े हैं, वे उनके चरण छू रहे हैं। वे कह रहे | जाएंगे। नर्क छूटेगा, स्वर्ग शेष रहेगा। बंधन गिरेंगे, मुक्ति हैं, बड़ी कृपा आपकी। | उपलब्ध होगी। मोक्ष बचेगा। उसमें तुम्हारी कुशलता बढ़ेगी। शायद उन्हें भी साफ न हो। मगर मामला क्या है? मामला | तुम पछताओगे न। तुम कभी लौटकर ऐसा न सोचोगे कि बड़ी यह है कि ये भी प्रतियोगी थे। ये हट गए मैदान से। जितने गलती कर ली, जो शांत हो गए। प्रतियोगी कम हुए उतना ही अच्छा है। अब तक किसी ने ऐसा नहीं कहा। जो भी श संसारी सदा संन्यासियों की प्रशंसा करता रहा है। लेकिन सदियों-सदियों में अनंत लोग हए हैं। यह शंखला छोटी नहीं प्रशंसा निश्चित ही झूठ होगी, बेमन से होगी; असली नहीं है। बहुत लोग हुए सदियों-सदियों में, उनमें से किसी एक ने भी होगी। असली होती तो खुद ही संन्यासी हो जाता। यह बड़े नहीं कहा कि शांत होकर पछतावा हुआ। आश्चर्य की बात है। भोगी त्यागी के चरण छूता है। अगर यह | और इन सदियों में उनसे हजारों गुने लोग अशांत रहे, उन | श्रद्धा सच होती तो खुद ही त्यागी हो गया होता। यह श्रद्धा झूठी सबने सदा यह कहा कि चूक गए कुछ। कुछ भूल हो गई। कहीं है। वह कह रहा है, आपने बड़ी कृपा की। आपने बड़ा ही जीवन का तार टूट गया। वीणा बजी नहीं। बांसुरी पर धुन उतरी अच्छा किया जो छोड़ दी झंझट। नहीं। आए तो जरूर, खाली आए, खाली जा रहे हैं। जब एक राजनीतिज्ञ विदा होता है दिल्ली से तो बाकी | निरपवाद रूप से जो लोग अशांत रहे हैं, वे पछताए हैं। राजनीतिज्ञ उसका विदाई समारोह करते हैं। कहते हैं कि गिरि निरपवाद रूप से जो लोग शांत हुए हैं उन्होंने धन्यभाग, साहब, आप चले बंगलोर! बड़ी कृपा! फिर न आना। आप सौभाग्य माना है। बंगलोर में ही बसना। आबोहवा भी अच्छी है। और दिल्ली में रखा क्या है? आज इतना ही। चलो, क्यू में एक आदमी कम हुआ। थोड़े हम आगे सरके। ऐसी आशा से तो आदमी जी रहा है। तुम इसकी फिक्र मत करना कि संसार का क्या होगा? संसार तुम्हारे बिना बड़े मजे से चल रहा था, तम्हारे बिना बड़े मजे से चलता रहेगा। ये रंगे-बहारे-आलम है क्यों फिक्र है तुझको ऐ साकी! 363 2010_03 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 58 1 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 03 उन्नीसवां प्रवचन ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र जह चिरसंचयमिंधण-मनलो पवणसहिओ दुयं दहइ। तह कम्मेंधणममियं, खणेण झाणानलो डहइ।।१३१।। झाणोवरमेऽवि मुणी, णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो। होइ सुभावियचित्तो, धम्मझाणेण जो पुव्वि।।१३२।। अद्धवमसरणमेगत्त-मन्नत्तसंसारलोयमसुइत्तं । आसवसंवरणिज्जर, धम्मं बोधिं च चिंतिज्ज।।१३३।। STI A 2010_03 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला सूत्रः भाव बढ़ता है। मंदिर बनाओ, दान दो, उपवास करो, तप करो प जैसे चिर-संचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तो भी हर कृत्य से कर्ता मजबूत होता है। और कर्ता का मजबूत तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि होना ही संसार है। कर्ता का मजबूत होना ही संसार में वापस अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है।' लौट आने की सीढ़ी है। मनुष्य अति प्राचीन है; कहें कि सनातन है, सदा से है। कर्ता क्षीण होना चाहिए। अनंत जन्मों में अनंत कर्म हुए हैं—पुण्य हुए हैं, पाप हुए हैं। कर्ता क्षीण होगा तो कर्म क्षीण होंगे। यदि उन सब पुण्य और पापों के लिए एक-एक का हिसाब धीरे-धीरे यह भाव ही मिट जाना चाहिए कि मेरे भीतर कोई चुकाना पड़े तो मुक्ति असंभव है। एक तो इतना लंबा काल! | कर्ता है। सिर्फ साक्षी शेष रहे। सिर्फ द्रष्टा शेष रहे। उस लंबे काल में इतने कर्मों की शृंखला! उसे छांटते-छांटते तो कर्म को कर्म से काटा नहीं जा सकता। न पाप को पुण्य से अनंत काल व्यतीत होगा। काटा जा सकता है। क्योंकि यह हो सकता है, पाप की जगह और यह जो अनंत काल व्यतीत होगा पुराने कर्मों को तोड़ने में, पुण्य रख लो, लेकिन बंधन बदलेंगे नहीं; रूपांतरित भला हो इस बीच भी नए कर्म निर्मित होंगे। तोड़ना भी कर्म है। किसी जाएं। पहले से सुंदर हो जाएं; ज्यादा सजे-बजे हो जाएं; पहले कर्म से छूटने की चेष्टा नया कर्म और नए कर्म की शुरुआत है। से ज्यादा शृंगार हो जाए उनका। हथकड़ियों पर सोना मढ़ा जा तब तो जाल दुष्टचक्र जैसा है। इसके बाहर होना मुश्किल है। | सकता है, लेकिन हथकड़ियों को इस तरह तोड़ने का कोई उपाय कुछ तो करोगे! अधर्म न करोगे, धर्म करोगे। पाप न करोगे, | नहीं है। कर्म से कर्म नहीं टूटता। पुण्य करोगे। लेकिन महावीर कहते हैं, पुण्य भी वैसे ही बांध | तो फिर कर्म कैसे टूटेगा? लेता है, जैसे पाप। बुरा करनेवाले का भी अहंकार होता है, अगर कर्म से कर्म नहीं टूटता तो क्या आदमी के लिए कोई भी भला करनेवाले का भी अहंकार होता है; और कभी-कभी तो आशा नहीं है? अगर हर कृत्य नए जाल को बना जाएगा तो बुरा करनेवाले से ज्यादा सघन होता है। बुरा करनेवाले को तो फिर हम इस जाल के कभी बाहर हो सकेंगे या न हो सकेंगे? थोड़ी पीडा भी होती है, दीनता भी होती है, अपराध भाव भी होता महावीर कहते हैं, बाहर हआ जा सकता है, लेकिन कर्म द्वार है। भला करने का अहंकार तो स्वर्णमंडित हो जाता है। उसमें नहीं है बाहर होने का। कर्म ही तो संसार में आने की व्यवस्था हीरे-जवाहरात टक जाते हैं। भला करनेवाले का अहंकार तो है। अकर्म द्वार है। पुण्य से शोभायमान हो जाता है, प्रदीप्त हो जाता है। ध्यान का अर्थ है : अकर्म की दशा। ठीक भी करें तो भी करनेवाले की मजबूती बढ़ती है, कर्ता का | ध्यान का अर्थ है : साक्षी की दशा। 369 2010_03 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः ध्यान का अर्थ है: ऐसी जागरूक चेतना, जो कृत्य के साथ इतनी नहीं है। साक्षी होने में कुछ खर्च नहीं हो रहा है। लेकिन अपना तादात्म्य नहीं करती। जब भूख पीड़ा की तरह चुभे, छाती में गहरी उतरती जाए, राह चलते हो तुम, लेकिन भीतर कोई जागकर देखता रहता है रोआ-रोआं चीखने-चिल्लाने लगे, तब ध्यान रखना कठिन कि मैं नहीं चल रहा हूं, शरीर चल रहा है। मैं तो देख रहा हूं कि होता चला जाएगा। शरीर चल रहा है। महावीर ने उपवास को सिर्फ ध्यान की प्रक्रिया समझा। ऐसी भूख लगती है, भीतर कोई देखता रहता है, भूख मुझे नहीं लगी | घड़ी आती है, जहां भूख अपने प्रचंड वेग में खड़ी होती है कि है, शरीर को लगी है। भोजन किया जाता है, शरीर में भोजन आदमी पागल हो जाए; कि आदमी कुछ भी खा ले; कि चोरी डाला जा रहा है, कोई भीतर जागकर देखता रहता है। तृप्ति हो कर ले, कि हत्या कर दे। जाती है, भूख मिट जाती है, कोई भीतर साक्षी की तरह रेगिस्तान में चलनेवाले लोगों का अनुभव है कि कभी प्यास अवलोकन करता रहता है कि अब भूख मिट गई, शरीर तृप्त है। | ऐसी लग आती है कि आदमी अपनी पेशाब पी जाता है, पानी न लेकिन किसी भी स्थिति में अपने को जोड़ता नहीं कृत्य से। मिले तो। ऊंट की पेशाब पी जाता है, अगर पानी न मिले तो। कृत्य से तोड़ लेने का नाम ध्यान है। ऐसी प्यास लग सकती है रेगिस्तान में कि आदमी को होश ही न चौबीस घंटे कृत्य हो रहे हैं। कुछ न भी करो, खाली बैठे रहो | रह जाए, साक्षी की तो बात और। यह भी खयाल न रहे, मैं क्या | तो भी श्वास चलती है; तो भी कृत्य हो रहा है। तुम कहते हो कि पी रहा हूं। मैं श्वास ले रहा हूं। हालांकि तुमने कभी सोचा नहीं कि इससे ये तो सब सुविधा की बातें हैं कि तुम कहते हो, जल शुद्ध है या ज्यादा झूठी बात क्या होगी, कि तुम कहते हो, मैं श्वास ले रहा | नहीं? छना है या नहीं? ये तो सुविधा की बातें हैं कि तुम कहते हूं। जब श्वास न आएगी तब ले सकोगे? जब रुक जाएगी तब हो कि प्राशुक है? उबाला गया है, या किसी गंदी नाली से भर तुम कहोगे, कोई फिक्र नहीं, मैं तो लेना जारी रखूगा? जो श्वास लाए हो? ये सुविधा की बातें हैं। रेगिस्तान में जब प्यास पकड़ी बाहर गई और न लौटी तो तुम लौटा सकोगे? हो, सामने नाली भी पड़ जाए गंदगी से बहती, तो भी आदमी पी उस वक्त पता चलेगा कि श्वास भी मैं नहीं ले रहा था, श्वास | लेगा। महावीर ने इसको महत्वपूर्ण प्रयोग बनाया। क्योंकि भूख चल रही थी। और चलने की क्रिया के साथ मैंने नाहक ही अपने बड़ी गहरी बात है। सबसे गहरी बात है। को कर्ता की तरह जोड़ लिया था। भूख तुम्हें लगी है? भूख | आदमी के जीवन में दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं : एक है तुमने लगाई है? लग रही है, सच है; लेकिन तुम नाहक बीच में | कामवासना और एक है भूखवासना। कामवासना से समाज जुड़ जाते हो। तुम दूर खड़े देख सकते हो। भूख शरीर में जीता है। कामवासना समाज का भोजन है। अगर तुम घटनेवाली घटना है। कामवासना को रोक लो तो तुमने समाज की एक शाखा को तोड़ महावीर ने इसीलिए उपवास पर बड़ा जोर दिया। वह उपवास दिया। अब आगे कोई संतति पैदा न होगी। तुम्हारी कामवासना आत्मदमन के लिए नहीं था; जैसा जैन मुनि करते रहे। महावीर | से तुम्हारे बच्चे जीते हैं। तुम्हारी कामवासना से जीवन जीता है, का उपवास शरीर को पीड़ा देने के लिए नहीं था। महावीर का | संसार चलता है। उपवास तो सिर्फ एक भीतर अवकाश पैदा करने के लिए था कि तो कामवासना संसार के लिए भोजन है। उसके बिना संसार चेतना जागकर देखती रहे। जैसे-जैसे भूख सघन होती जाए, | मरेगा। अगर सभी लोग ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाएं तो संसार वैसे-वैसे संभावना बढ़ती है कि तादात्म्य पैदा हो जाए। जब तत्क्षण रुक जाएगा। भूख बहुत जोर से हो तो तुम भूल ही जाओ कि मैं साक्षी हूं। भूख इसलिए पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक इमेन्युएल कांट ने थोड़ी-थोड़ी लगी हो, भोजन पास में हो, फ्रिज के पास ही बैठे ब्रह्मचर्य को पाप कहा। उसकी बात में बल है। वह कहता है, हो, चौके से सुगंध आ रही है, तब शायद तम ध्यान की बातों का ब्रह्मचर्य तो एक तरह की हिंसा है। तम मजा भी ले लो। तुम कहो, कहां भूख ! मैं तो साक्षी हूं। भूख रोक रहे हो। तो किसी को जिंदा रहकर मारो या पैदा होने से 870] Jair Education International 2010_03 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत रोको, बात तो बराबर है। किसी की गर्दन काटो, या किसी को जाए कि सभी लोग झूठ बोलते हैं और सभी लोगों को झूठ पैदा न होने दो। पैदा न होने देने का मतलब हआ कि तुमने गर्दन बोलना ही धर्म है तो उसी दिन झूठ मुश्किल में पड़ जाएगा। बनने के पहले ही काट दी। क्योंकि कौन तुम्हारा भरोसा करेगा? तुम सच भी कहो तो लोग फिर इमेन्युएल कांट ने कहा कि नीतिशास्त्र का आधारभूत समझेंगे, झूठ बोल रहे हो। नियम है कि जिस सूत्र को मानकर हम चलें उसके मानने से ऐसी अगर चोरी नियम हो तो चोरी असंभव हो जाएगी। अगर सभी घटना नहीं घटनी चाहिए कि उस सूत्र को मानना ही असंभव हो लोग चोरी कर रहे हों तो चोरी का अर्थ क्या है? एक घर से दूसरे जाए। नहीं तो वह आत्मघाती सूत्र हुआ। | घर चीजें उठाकर रखने में फायदा क्या है? सार क्या है? जहां जैसे ममयो दमेन्याल कांट कहता है. झठ बोलना पाप है. सभी चोर हों...इसलिए तमने देखा होगा, कि चोरों के जो मंडल अगर सभी लोग झूठ बोलने लगे तो झठ होते हैं, वे आपस में चोरी नहीं करते। क्योंकि वहां तो नियम बोलना संभव न रह जाएगा। झूठ तो चलता इसीलिए है कि कुछ मानकर चलना चाहिए कि चोरी नहीं। नहीं तो जीवन ही मुश्किल लोग अभी भी सच में भरोसा करते हैं। झूठ झूठ के कारण नहीं हो जाएगा। चलता, सच पर भरोसा करनेवालों के कारण चलता है। झूठ के इमेन्युएल कांट ने कहा है, ऐसा ही ब्रह्मचर्य भी है। अगर सभी अपने पैर नहीं हैं। सच की बैसाखी को लेकर चलता है। लोग ब्रह्मचारी हो जाएं तो इस जगत में ब्रह्मचर्य को पालन करने इसीलिए तो झूठ बोलनेवाला बड़ा दावा करता है कि मैं सच बोल के लिए भी कोई न बचेगा। इसका अर्थ हुआ कि अगर दुनिया में रहा है। जब तक वह तम्हें भरोसा न दिला दे कि मैं सच बोल रहा ब्रह्मचारी चाहिए तो कुछ कामी चाहिए ही होंगे; नहीं तो ब्रह्मचारी हूं, तब तक झूठ बोलने का अवसर नहीं, उपाय नहीं। न बचेंगे। एक अदालत में मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा था। एक बहुत | तो ब्रह्मचर्य का नियम सार्वलौकिक नहीं हो सकता। इसके सीधे-सादे, साधु पुरुष को उसने धोखा दे दिया। उसकी जेब मानने के लिए भी, इसके माननेवालों के होने के लिए भी, इसको काट ली। पुरानी मित्रता थी और साधु पुरुष था; इस पर भरोसा तोड़नेवालों की जरूरत है। करता था। गांव भर को पता था कि वह आदमी अत्यंत साधु है। महावीर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकते हैं क्योंकि महावीर के मजिस्ट्रेट को भी पता था। मजिस्ट्रेट ने कहा, 'नसरुद्दीन! माता-पिता ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं थे। अगर महावीर के किसी और को धोखा देते। यह तुम्हारा पुराना मित्र, बचपन का माता-पिता ने ही ब्रह्मचर्य साधा होता तो महावीर के होने की साथी। गांव में साधु की तरह पूजा जाता, इसकी तुमने जेब संभावना ही न थी। तो महावीर के होने के लिए महावीर के काटी? तुम्हें संकोच न हुआ? जो इतना भरोसा करता है तुम माता-पिता की कामवासना को धन्यवाद तो देना ही होगा। बुद्ध पर, उसकी जेब काटी?' को, या कृष्ण को, या क्राइस्ट को होने के लिए भी कामवासना नसरुद्दीन ने कहा, 'तो और किसकी काटूं? वह जो भरोसा का सहारा ही लेकर आना पड़ेगा। करता है, उसी की काटी जा सकती है। जो भरोसा नहीं करता इसे समझने की जरूरत है। उसकी तो काटनी मुश्किल है।' ब्रह्मचर्य जीवन का समाप्त-अंतिम अध्याय होगा; अंतिम साधु को ही धोखा दिया जा सकता है; धोखेबाज को कैसे पटाक्षेप हो जाएगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ब्रह्मचर्य पालन दोगे? ईमानदार के साथ ही बेईमानी की जा सकती है; बेईमान | मत करना। क्योंकि सभी ब्रह्मचर्य पालन कर सकें, यह असंभव के साथ कैसे करोगे? है। एक भी पालन कर पाए, यह भी बड़ा कठिन है, तो सभी कर इमेन्युएल कांट ने कहा, कि जिस सूत्र को मानने से उस सूत्र पाएंगे यह तो असंभव है। को मानना असंभव हो जाए, वह अनैतिक है। तो झूठ अगर इमेन्युएल कांट ने असंभव की बात को संभव मानकर गलत सभी लोग मान लें, अगर झठ सार्वलौकिक हो जाए, यनिवर्सल | सिद्ध करने की चेष्टा की है। यह होनेवाला नहीं हो जाए तो झूठ असंभव हो जाएगा। अगर यह घोषणा कर दी से आदमी ब्रह्मचर्य की चर्चा करता है, शास्त्र लिखता है। कभी 371 2010_03 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कोई एकाध व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो पाता है । यह बात हो ? क्या ऐसी भी कोई सीमा आती है, जहां कि मैं भूल जाऊं कठिन है। कि मैं साक्षी हूं और कर्ता हो जाऊं ? मैं यह कह रहा हूं कि कामवासना दूसरों का भोजन है, भविष्य का भोजन है, आनेवाली पीढ़ियों का भोजन है। इसीलिए कामवासना का इतना प्रबल प्रभाव है। तुम्हारे बच्चे तुमसे आने को रहे हैं। इसलिए तुम लाख चेष्टा करो ब्रह्मचर्य साधने की, उनके प्राण संकट में पड़े हैं। वे धक्के मारेंगे। वे तुम्हारे नियम तोड़ेंगे, तुम्हारी प्रतिज्ञा का खंडन करेंगे और जन्म लेने की आतुरता प्रगट करेंगे। तड़फ तुम्हारे भीतर कामवासना उठती है तो वह भी तुम्हारी नहीं है। वह भी आनेवाले जन्मों का, आनेवाले जीवनों का आकर्षण है, खिंचाव है। तुमसे आनेवाले जीवन कह रहे हैं कि अपना काम पूरा करो। इसके पहले कि तुम विदा हो जाओ, तुम माध्यम बनो। जीवन की शृंखला जारी रहे। 1 तो 'एक' तो कामवासना का आदमी पर बड़ा प्रभाव है। लेकिन वह इतना बड़ा प्रभाव नहीं है कि आदमी ब्रह्मचर्य से न रह सके। क्योंकि दूसरे का जीवन संकट में पड़ता है, तुम्हारा तो पड़ता नहीं। तुम तो हो । तुम्हारा तो पड़ता - तुम्हारे मां बाप, उनके मां बाप अगर ब्रह्मचर्य का नियम लेते। तुम तो हो गए। तुम तो हो । तुम्हारा तो अब कोई संकट में पड़ने का कोई कारण नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण वासना है भोजन की । वह कामवासना से ज्यादा गहरी है, क्योंकि उससे तुम्हारा ही जीवन संकट में पड़ता है। कामवासना से कोई होनेवाले लोग, जिनका हमें कोई पता नहीं है, न होंगे। क्या लेना-देना है ? लेकिन भोजन छोड़ने से तुम नहीं हो जाओगे । तो महावीर ने उपवास को बड़ा गहरा प्रयोग बनाया । जैसे-जैसे भूख बढ़ती जाती है, तुम्हारा जीवन संकट में पड़ता है, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर होश की क्षमता क्षीण होती जाती है। भूखा क्या न करता ? मनोवैज्ञानिक कहते हैं, भूख सब पापों की जड़ है। शायद सच | कहते हैं। जब तक भूख न मिटे, दुनिया से शायद पाप मिट भी न सकेंगे। भूखा कुछ भी कर सकता है। और भूखा कुछ करे तो क्षम्य भी मालूम पड़ता है। महावीर ने गहरे उपवास किए। सिर्फ एक बात जानने के लिए कि क्या ऐसी भी कोई सीमा है भूख की, जहां मेरा होश खो जाता 372 2010_03 इस गहरे परीक्षण के लिए उपवास । उपवास आत्मदमन नहीं है महावीर का ध्यान का एक गहन प्रयोग है। उपवास शब्द में भी वह बात छिपी है। इसलिए महावीर ने उपवास को अनशन नहीं कहा, भूखा रहना नहीं कहा, उपवास कहा। उपवास का अर्थ होता है : अपने निकट होना। अपने निकट वास । उपवास का अर्थ होता है: आत्मा के पास होना । उपवास का अर्थ होता है, कर्ता से हटना, साक्षी की तरफ धीरे-धीरे सरकना । तो तुम कुछ भी करो, उस करने में अगर साक्षीभाव बना रहे तो धीरे-धीरे कर्ता से मुक्ति हो जाती है। और कर्ता से मुक्ति होते ही सारे कर्मों का जाल, अनंत जन्मों का, एक क्षण में भस्मीभूत हो जाता है। यह महावीर की बड़ी अनूठी उदघोषणा है। इस उदघोषणा में ही मनुष्य की संभावना है। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर मोक्ष की कोई संभावना मानी नहीं जा सकती। अगर हम कर्म से ही छूटकर मुक्त हो सकेंगे तो फिर हम कर्म से कभी छूट नहीं सकते। कर्ता से छूटने से अगर मुक्ति होती हो तो मुक्ति संभव है। इसे खयाल में रख लेना । यही गीता का भी आत्यंतिक संदेश है कि अर्जुन, तू कर्ता न रह जा। बड़े दूसरे मार्ग से कृष्ण इसी निष्पत्ति पर पहुंचते हैं कि अर्जुन, तू कर्ता न रह जा । तू कर्म की फिक्र छोड़। कर्म तो होता रहा, होता रहेगा। तू ऐसा भाव छोड़ दे कि मैं कर रहा हूं। महावीर की और गीता की भाषा बड़ी विपरीत है। इसलिए यह समझना भी जरूरी है कि कभी-कभी विपरीत भाषाओं से भी एक ही सत्य की उदघोषणा होती है। भाषा में मत उलझ जाना। जैन गीता को पढ़ते भी नहीं। जैनों के लिए गीता में कुछ सार भी नहीं मालूम होता । सार तो दूर, खतरनाक मालूम होती है, हिंसात्मक मालूम होती है। हिंदुओं ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया अपने शास्त्रों में । इतना जीवंत व्यक्ति इस भूमि पर चला, हिंदू शास्त्रों में उल्लेख भी नहीं है। इससे गहरी और निंदा और विरोध क्या हो सकता था? जैनों ने तो फिर भी कम से कम थोड़ी भलमनसाहत की । कृष्ण का उल्लेख तो किया। माना कि नर्क में डाला, माना कि Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण मरकर सातवें नर्क गए, मगर फिर भी इतना सम्मान तो दिया कि उल्लेख किया— निंदा के लिए सही ! भूले तो नहीं, बिसराया तो नहीं। लेकिन हिंदुओं ने तो हद्द कर दी। उन्होंने महावीर को नर्क में डालने योग्य भी न माना । महावीर का उल्लेख ही न किया। अगर बौद्ध शास्त्र न हों तो महावीर का उल्लेख सिर्फ जैन शास्त्रों में रह जाएगा। और अगर बौद्ध शास्त्र न हों तो जैनों के पास प्रमाण जुटाना भी मुश्किल हो जाएगा कि महावीर कभी हुए। इसीलिए जब पहली दफा हिंदू शास्त्रों का पश्चिम में अनुवाद हुआ तो पश्चिम के विचारकों ने यही समझा कि महावीर बुद्ध का ही एक नाम है। मूर्ति एक जैसी लगती भी है। उपदेश भी अहिंसा का कुछ एक जैसा मालूम पड़ता है। यह बुद्ध का ही एक | रूप है। महावीर को स्वीकार ही नहीं किया था। क्योंकि हिंदू शास्त्रों में कहीं उल्लेख ही नहीं । कारण क्या रहा होगा ? भाषा बड़ी भिन्न है। भिन्न ही कहनी ठीक नहीं, ठीक विपरीत है । एक अगर रात कहता तो दूसरा दिन कहता; ऐसा फासला है। जमीन और पृथ्वी का फसला है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दोनों एक बात कहना चाह रहे हैं। कृष्ण ईश्वर की धारणा का उपयोग करते हैं उस बात को कहने के लिए। वे कहते हैं, ईश्वर कर्ता है, तू निमित्त । तू साक्षीभाव से जो हो रहा है, होने दे। इतना भर खयाल छोड़ दे कि मैं कर रहा हूं। फिर जो करवाए परमात्मा, कर। महावीर परमात्मा की धारणा का उपयोग नहीं करते। उनकी भाषा में परमात्मा का कोई प्रत्यय, कोई प्रतीक नहीं है। वे इतना ही कहते हैं, तू साक्षीभाव कर। ध्यान की आत्यंतिक गहराई में, साक्षीभाव की परमदशा में अचानक तू जागकर देखेगा कि तुझसे अब तक जो हुआ था वह तुझसे हुआ ही नहीं था । अर्थ है कि सारे भस्मीभूत हो जाते हैं। वह तूने स्वप्न में किया था। वह कभी हुआ ही नहीं। सपने के खयाल थे। सपने में बुदबुदाया था। सपने में कुछ सोचा था कि कर रहा हूं, कुछ हो रहा है। सुबह जागकर पाया है कि सब सपने व्यर्थ हैं। सुबह जागकर तू हंसा है कि रात जो देखा, कितना सत्य मालूम पड़ता था ! कितना यथार्थ मालूम पड़ता था । जागते ही सब खो जाता है। 2010_03 ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत कभी एक प्रयोग करो छोटा । सपने में जागने की चेष्टा करो। कठिन है, लेकिन हो जाता है। अगर रोज-रोज इसी धारणा को लेकर रात सोओ कि सपने में चेष्टा करूंगा कि जाग जाऊं; कि सपने को जान लूं कि सपना है। ऐसा अगर रोज रात को सोते वक्त यही धारणा, यही भावना करते-करते सोओ तो तीन और नौ महीने के बीच किसी न किसी दिन ऐसी घटना घटेगी कि अचानक तुम सपना देख रहे होओगे और भीतर स्मरण आ जाएगा कि अरे ! यह तो सपना है। और एक तब अनूठा मीठा अनुभव होता है। बड़ा अदभुत, बड़ा अनुपम, अपूर्व । क्योंकि जैसे ही तुम्हें याद आता है कि अरे ! यह तो सपना है कि सपना तत्क्षण खो जाता है। और उस सपने के खोने में पहली दफे तुम्हें पता चलता है कि होश में आना और सपने का टूट जाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा ही जीवन भी एक बड़ा सपना है। महावीर माया शब्द का भी उपयोग नहीं करते। क्योंकि माया शब्द के उपयोग के लिए भी परमात्मा का होना जरूरी है। वह परमात्मा की शक्ति हो तो माया । कोई मायावी हो तो माया । कोई जादूगर हो तो जादू। कोई जादूगर तो है नहीं महावीर की भाषा में, इसलिए कोई माया भी नहीं है। लेकिन यह सूत्र घोषणा कर रहा है कि जो कर्म केवल ध्यान में उतरने से समाप्त हो जाते हैं, वे वस्तुतः न रहे होंगे। अगर रहते तो ध्यान में उतरने से क्या होता था ? ध्यान में उतरने से सत्य थोड़े ही बदलता है। ध्यान में उतरने से केवल माया ही बदल सकती है। तुम कमरे में बैठे हो, आंखें झपकी हैं, सपना ले रहे हो। अगर जाग जाओगे तो सपना टूट जाएगा, लेकिन तुम्हारे जागने से कमरे की कुर्सी, फर्निचर, दीवालें थोड़े ही समाप्त हो जाएंगी! जो है, वह तो तुम्हारे ध्यान में जाने से नष्ट नहीं होगा । वस्तुतः तुम जैसे ध्यान में जाओगे, प्रगट होगा, पूरे रूप में प्रगट होगा, जो है । जो नहीं है, वहीं खो जाएगा। इस सूत्र का मैं यह अर्थ करता हूं कि महावीर यह कह रहे हैं कि तुमने अब तक जो किया है, हुआ, वह सब सपने में हुआ है। जागते ही एक क्षण में मिट जाएगा। जह चिरसंचयमिंधण-मनलो पवणसहिओ दुयं दह । 'जैसे चिर-संचित ईंधन को वायु से प्रदीप्त आग तत्काल जला 373 . Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 डालती है...।' करना नहीं चाहता था और हो गया। तह कम्मेधणममियं, खणेण झाणानलो डहइ।। तुम्हारे बावजूद ? तुम्हारा मतलब क्या? किया तो तुम्हीं ने। ....वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को हआ तो तुम्हीं से। साथ तुम्हारा था। क्षणभर में भस्म कर डालती है।' लेकिन तुम कहते हो, सब मैं भूल ही गया। बेहोश था। कुछ 'मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को याद ही न रहा। न नियम याद रहे, न शिष्टाचार याद रहा। और सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी सदा खुद की खायी कसमें भी याद न रहीं। कितनी बार तय किया कि अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के चितवन में लीन रहे।' नहीं करूंगा क्रोध, फिर हो गया। यह भी खयाल में रखना कि महावीर अकेले चिंतक हैं, लेकिन जब क्रोध पकड़ता है तो आदमी एकदम एक जिन्होंने ध्यान को धर्म और अधर्म, दो खंडों में बांटा। अकेले। जाता है। महावीर ने इसको रौद्र ध्यान कहा है-क्रोध में। पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। पतंजलि ने वैसा नहीं किया, कामवासना में भी आदमी ध्यान से भर जाता है। बुद्ध ने वैसा नहीं किया, कृष्ण ने वैसा नहीं किया। अकेले मैंने सुना है, एक आदमी को पकड़ा गया क्योंकि उसने एक महावीर ने ध्यान को धर्म और अधर्म, दो में बांटा। और इसमें राह के किनारे बैठे दुकानदार की थैली झपट ली; रुपयों की थैली बड़ी वैज्ञानिक सूझ है। यह उनका अनुपम दान है। झपट ली। वह दुकानदार रुपये गिन रहा था और थैली में डाल मनुष्य-जाति को सभी जाग्रत पुरुषों ने कुछ दिया है, जो रहा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तू भी खूब चोर है। चोर हमने विशिष्ट है। कुछ है, जो सामान्य है; जो सभी ने दिया है। कुछ बहुत देखे, भरे बाजार में, भरी दुपहरी में इतने आदमी वहां खड़े है, जो एक-एक ने दिया है और विशिष्ट है। यह महावीर की थे, यह पुलिसवाला भी चौरस्ते पर मौजूद था, यह तेरे को चोरी विशिष्ट देन है ध्यान के शास्त्र और विज्ञान को। महावीर कहते करने का वक्त मिला? हैं, अधर्म ध्यान और धर्म ध्यान। उसने कहा, उस समय मुझे सिवाय थैली और रुपये के कोई भी थोड़े तुम चौंकोगे। अधर्म ध्यान? ध्यान से तो हम संबंध ही दिखाई नहीं पड़ रहा था। उस समय बस, यह थैली और रुपये धर्म का जोड़ते हैं। लेकिन महावीर की पहुंच गहरी है। महावीर | दिखाई पड़ रहे थे। और सब मेरे ध्यान से उतर गया था। मेरा कहते हैं, कुछ ऐसी घड़ियां हैं, जो अधर्म की होती हैं, लेकिन ध्यान बिलकुल थैली पर लग गया था। न मुझे पुलिसवाला ध्यान बंध जाता है। दिखाई पड़ा...। जैसे जुआरी जुआ खेल रहा है; जब वह पांसे हाथ में लेकर तुमने देखा, कामातुर आदमी को कुछ दिखाई नहीं पड़ता! चल रहा है तो उसके चित्त में बड़ी एकाग्रता होती है। ऐसा भी हो तुलसीदास की कथा है कि एक मुर्दे की लाश का सहारा लेकर सकता है कि मंदिर में जो माला जप रहा है, उससे ज्यादा नदी पार गए। पत्नी से मिलने जा रहे थे। गहरा कामांध भाव एकाग्रता जुआरी जब पांसे हाथ में लेकर चलता हो, तब हो। रहा होगा। याद भी न आयी कि यह लाश है। समझा कि कोई कोई हत्यारा किसी को मारने जा रहा है, तब.बड़ा एकाग्र होता लकड़ी का डूंगर बहा जाता है। फिर कहते हैं, पत्नी के घर है। कोई विचार नहीं उठते। इधर-उधर सोच भी नहीं जाता। पहुंचकर, लटके सांप को पकड़कर जीना चढ़ गए-सोचकर तीर की तरह एक ही बात, एक ही भाव, एक हवा, उसे घेरे कि रस्सी है। रखती है। पत्नी ने जो कहा, निश्चित ही कुछ न कुछ महावीर के धर्म और तुमने भी कभी देखा हो, शायद जुआ न खेला हो, हत्या भी न अधर्म ध्यान का पता तुलसीदास की पत्नी को रहा होगा। क्योंकि की हो, लेकिन कभी क्रोध में थोड़ी-बहुत झलक आयी होगी। पत्नी ने कहा कि इतना ध्यान तुम अगर राम पर लगा देते, जितना हो सकता है क्रोध का मजा भी यही हो कि ध्यान बंध जाता है। तुमने मुझ पर लगाया है, तो परम आनंद और परम मुक्ति तुम्हें क्रोधी आदमी क्रोध के क्षण में सब भूल जाता है। इसीलिए तो उपलब्ध हो जाती। इतना ध्यान, जो तुमने काम पर लगाया, अक्सर क्रोध के बाद तुम कहते हो, मेरे बावजूद हो गया। मैं अगर राम पर लगा देते...। 374] 2010_03 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत जा है। और वही घटना तलसीदास के जीवन में क्रांति बनी। वह एक पावलोव ने बड़े प्रयोग किये मनष्य के संस्कारों पर। उसका शब्द चोट कर गया। वह एक शब्द जैसे कुछ छिपे हुए बड़ा जाहिर, प्रसिद्ध प्रयोग है कि एक कुत्ते को रोटी देता है। जब जन्मों-जन्मों की खोज को स्पष्ट कर गया। वह एक शब्द उसके सामने रोटी रखता है तो कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती जीवनभर के लिए क्रांतिकारी सूत्र हो गया। समझ में आ गई बात | है। साथ में वह घंटी बजाता है। ऐसा रोज करता है पंद्रह दिन कि काम के लिए इतना ध्यान लगा रहा हूं, इतना राम पर लग | तक। रोटी देता है, घंटी बजाता है, लार टपकती है। फिर जाए तो सब मिल जाए। काम से मिलेगा भी तो क्या मिलेगा? सोलहवें दिन रोटी नहीं देता, सिर्फ घंटी बजाता है, और लार महावीर दो भाग करते ध्यान केः अधर्म-ध्यान और टपकती है। अब लार से और घंटी का कोई भी संबंध नहीं है। धर्म-ध्यान। वे कहते हैं ध्यान तो दोनों हैं। अधर्म-ध्यान ऐसा तुम किसी कुत्ते के सामने घंटी बजाओ, वह लार नहीं ध्यान है, जिसमें ध्यान तो होता, मिलता कुछ भी नहीं। ध्यान तो | टपकाएगा; लेकिन पावलोव का कुत्ता टपकाता है। होता है; कष्ट मिलता है, दुख मिलता है, पीड़ा मिलती है। पावलोव ने यह सिद्धांत निकाला इससे, कि रोटी और लार का ध्यान तो है लेकिन गलत दिशा में आरोपित है। तो संबंध था, दोनों के बीच में घंटी भी समा गई। दोनों के धर्म-ध्यान का अर्थ है: वही ध्यान, जो गलत दिशा में साथ-साथ घंटी भी जुड़ गई। आरोपित था, ठीक दिशा में लगा। काम से मुड़ा, राम की तरफ | इसलिए अक्सर तुम्हें भी हुआ होगा। पावलोव ने न भी किया लगा। धन से हटा, धर्म की तरफ लगा। क्रोध से हटा, करुणा हो प्रयोग, तुम अपने पर कर सकते हो। तुम अगर रोज एक बजे पर बरसा। भोजन करते हो, एकदम घड़ी में तुमने देखा, एक बजा--भूख 'मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को लगी। अभी एक क्षण पहले तक भूख का पता भी न था। और सुभावित करे...।' | हो सकता है, घड़ी बिगड़ी हो और एक अभी बजा न हो, अभी पहले अधर्म-ध्यान से हटे और धर्म-ध्यान में लगे। पहले ग्यारह ही बजे हों। लेकिन देखा, एक बज गया, एकदम कौंध उन-उन विषयों से अपने ध्यान को मुक्त करे, जिनसे की तरह भीतर कोई भूख जग आयी...साहचर्य! जन्मों-जन्मों में सिवाय कांटों के और कुछ भी न मिला। फूल तुमने अब तक जहां भी ध्यान किया है-कभी क्रोध पर का आश्वासन रहा, हाथ जब आए, कांटे आए। दरवाजा दूर से किया, कभी काम पर किया, कभी धन पर किया। फिर तुम दिखा, पास जब आए, सिर दीवाल से टकराया। दूर से सब मंदिर गए। तुम कहते हो, ध्यान करने जा रहे हैं। तो तुमने स्वर्णिम मालूम पड़ा, पास आते-आते सब मिट्टी हो गया। जहां-जहां ध्यान किया है, वहां-वहां ध्यान जुड़ गया। घंटी से इस अनुभव के आधार पर पहले तो ध्यान की ऊर्जा को अधर्म | लार बंध गई। एक बजे से भूख जुड़ गई। अब तुम मंदिर में बैठे, से मुक्त करना है क्योंकि यही ऊर्जा धर्म में लगेगी। अगर यह एक बजने लगा, घंटी बजने लगी। अब तुम मंदिर में बैठे, तुम ऊर्जा अधर्म से मुक्त नहीं है तो तुम्हारे पास धर्म में लगाने को कहते हो, ध्यान करना है। माला फेरने लगे। तुम कहते हो जैसे ऊर्जा न होगी। ही कि ध्यान करना है, मन में न मालूम कितने कूड़ा-कर्कट उठने इसलिए अक्सर होता है-तुम्हें भी हुआ होगा, मुझे बहुत लगे। क्योंकि तुम्हीं उठा रहे हो उनको। तुम कहते हो, ध्यान लोग आकर कहते हैं कि मंदिर में जाकर बैठते हैं, माला जपते करना है। और ध्यान तुमने जिन-जिन चीजों पर किया है अब हैं, तब न मालूम कहां-कहां के खयाल आते हैं। ये वे ही खयाल तक, उनका अभ्यास प्रबल है। हैं, जिन पर तुमने अब तक ध्यान किया है। ये हर कहीं से नहीं कोई सुंदर स्त्री खड़ी हो गई। तुम झिड़कते हो कि हटो भी! मैं आ रहे हैं, आकाश से नहीं आ रहे हैं। ये तुम्हारे पुराने अभ्यास ध्यान कर रहा हूं। यह मंदिर है, यह कोई वेश्यालय नहीं है। मैं से आ रहे हैं, और इसीलिए आ रहे हैं कि अब तक तुम्हारे चित्त ने | यहां पूजा-पाठ करने आया, ध्यान करने आया, माला फेर रहा जिस चीज को ध्यान जाना, वही तो आएगा, जब तुम ध्यान करने हूं। हटो भी! लेकिन तुम जितना हटाते हो, माला तो याद नहीं बैठोगे। पुराना एसोसिएशन, पुराना साहचर्य, पुराना संबंध। आती, सुंदर स्त्री खड़ी हो-हो जाती है। तुम चकित भी होते हो 1375/ 2010_03 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 कि यह सुंदर स्त्री, जब दुकान पर बैठकर धन कमा रहा हूं, तब मगर कहानी बड़ी प्रीतिकर है। यह अप्सरा तुम्हारी इंद्रियों से इतना नहीं सताती। यह मंदिर में क्यों पीछा करती है? आयी, इसलिए इंद्र ने भेजी। यह तुम्हारी ही इंद्रियों का ऋषि-मुनियों की कथाएं हैं, अप्सराएं सता रही हैं उनको। कोई सार-निचोड़ है। तुम्हारी आंखों ने जो देखा, और जो सार किसी को सताएगा? अप्सराओं को क्या पड़ी है? | निचोड़ा, तुम्हारे कानों ने जो सुना और सार निचोड़ा, तुम्हारे हाथों ऋषि-मुनियों से क्या लेना-देना! और सताना ही होता तो कोई ने जो छुआ और सार निचोड़ा। यह तुम्हारी सारी इंद्रियों ने जो ढंग के आदमी चुनतीं—ऋषि-मुनि! सूखे, हड्डी-कंकाल! निचोड़ा, इन सारी इंद्रियों के पीछे बैठा हुआ मन है, इंद्र। इंद्रियों काफी समय हो गया तब मर चुके। न देह में सौंदर्य रहा, न देह में | का मालिक यानी इंद्र। उस मन में जो इकट्ठा हो गया है। रस रहा। इनको अप्सराएं स्वर्ग से सताने आ रही हैं। अधर्म-ध्यान से जो-जो निष्पत्तियां वहां इकट्ठी हो गई हैं कहीं कुछ गड़बड़ है। ऋषि के मन में ध्यान के पुराने साहचर्य, | जन्मों-जन्मों की यात्रा में, वे ही जब तुम ध्यान करने बैठोगे, संबंध बने हैं। स्त्रियों पर ध्यान किया होगा। अब कहते हैं, | तुम्हारे सामने खड़ी हो जाएंगी। निश्चित ही वे ऐसी कोई भी स्त्री चौबीस घंटे ध्यान करने वृक्ष के नीचे गुफा में आकर बैठ गए हैं। से बहुत सुंदर होंगी, जिनसे तुम परिचित हो। ध्यान शब्द ही अधर्म से जुड़ा रहा है जन्मों-जन्मों तक। तो जब वास्तविक स्त्रियों से कल्पना की स्त्रियां निश्चित ही सुंदर होती तुम धर्म के नाम पर भी ध्यान करते हो तो अधर्म तुम पर हमला हैं। इसीलिए कवि किसी भी स्त्री से तृप्त नहीं हो पाते। क्योंकि करता है। कल्पना की स्त्री उनकी बड़ी सुंदर होती है। सभी स्त्रियां ओछी महावीर कहते हैं, यह साहचर्य तोड़ना पड़ेगा। जो पावलफ ने | पड़ जाती हैं। जो लोग साधारण स्त्रियों से तप्त हो जाते हैं. एक ढाई हजार साल बाद रूस में कहा, वह महावीर ने भारत में बात का सबूत देते हैं कि उनके पास कल्पना की शक्ति नहीं है; पच्चीस सौ सदियों पहले कह दिया था कि पहले साहचर्य को और कुछ सबूत नहीं देते। जितना कल्पना-प्रवण व्यक्ति होगा, तोड़ो। एकदम मंदिर में मत भागे जाओ, पहले बाजार से मुक्त जितनी प्रगाढ़ क्षमता होगी कल्पना करने की, उतना ही यह तो हो लो। नहीं तो मंदिर में बैठोगे, अप्सराएं आएंगी। और वे संसार उसे अतृप्त करेगा। क्योंकि उसकी धारणा बड़ी ऊंची अप्सराएं अगर तुम गौर से देखोगे, तुम भलीभांति पहचान लोगे, | होती है। उसकी कल्पना की स्त्रियां एकदम सुगंध की प्रतिमाएं कोई अप्सराएं नहीं हैं, यही जमीन की स्त्रियां हैं। यह हो सकता हैं। स्वप्न से निर्मित, फूलों के पराग से निर्मित, चांद की चांदनी है कि कई स्त्रियों ने मिलकर एक अप्सरा बना दी हो। किसी स्त्री से, हवाओं की ताजगी से, ओस की ताजगी से निर्मित। की नाक पसंद पड़ी, किसी स्त्री का कान पसंद पड़ा, किसी की | साधारण स्त्री, साधारण पुरुष बहुत स्थूल है, बहुत पार्थिव है; आंख पसंद पड़ी, किसी के ओंठ पसंद पड़े, किसी के शरीर की उसकी कल्पना बड़ी पारलौकिक है। गंध पसंद पड़ी, किसी के शरीर का अनुपात पसंद पड़ा; ऐसा जब ऋषियों को अप्सराओं ने घेरा तो किसी ने नहीं घेरा। ये मन चुनता रहा, ध्यान करता रहा। इन सबको इकट्ठा कर लिया। | किसी स्वर्ग से नहीं आयी हैं, ये ऋषियों की कल्पना से आयी हैं। अब जब तुम ध्यान करने बैठे, तुमने तुम्हारी कल्पना में एक स्त्री महावीर कहते हैं, पहले तो धर्म-ध्यान पर जाना जरूरी है। खड़ी हुई, जो अप्सरा मालूम होती है। क्योंकि जितनी स्त्रियां तुम | अधर्म से, अधर्म के विषयों से चित्त को हटाना और धर्म के जानते हो उनमें से किसी जैसी नहीं लगती, परम सुंदर है। विषय देना जरूरी है। महावीर बहुत गणितज्ञ, वैज्ञानिक की तरह मगर गौर से खोजना तो तुम पाओगे, अरे! यह नाक कमला | इंच-इंच बढ़ते हैं। वे कहते हैं, जल्दबाजी में कुछ भी न होगा। की रही, ये कान निर्मला के रहे; ये ओंठ विमला के रहे। एकदम तुम आज तय कर लो कि मंदिर में चले जाओगे; कुछ अड़चन न होगी। अगर जरा गौर से देखोगे, तो अप्सरा को | फर्क न पड़ेगा। मंदिर में बैठोगे, लेकिन रहोगे बाजार में। तोड़कर देखोगे, विश्लेषण करोगे तो सब समझ में आ जाएगा। ऊपर-ऊपर मंदिर में होओगे, भीतर-भीतर बाजार में। बाजार से जहां-जहां ध्यान किया था, वहां-वहां से खंड इकट्ठे हो गए बड़े पुराने नाते हैं। हैं। यह अप्सरा स्वर्ग से नहीं आयी और किसी इंद्र ने नहीं भेजी, | 'मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को 13761 | Jair Education International 2010_03 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत सुभावित करे...।' निर्विषय चित्त, निर्विकार चित्त तभी संभव है, जब मात्र ध्यान अधर्म से हटे, धर्म की तरफ गतिमान हो। विषयों को | रह जाए-शुद्ध, एकदम शुद्ध। ध्यान के लिए कोई वस्तु न रह धीरे-धीरे बदले। जाए, बस ध्यान की ऊर्जा रह जाए। और दूसरी बात इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण ध्यान में रखनी 'मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को जरूरी है कि अधर्म-ध्यान के विषय अधार्मिक हैं। ध्यान तो वही | सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी...।' है। धर्म-ध्यान के विषय बदल गए, ध्यान तो वही है। फिर एक घड़ी आती है, जब आदमी धर्म-ध्यान से भी उपरत फिर एक तीसरी अवस्था है, जिसको महावीर समाधि कहते हो जाता है। उसके भी पार हो जाता है, अतिक्रमण कर जाता है। हैं, सम्यकत्व कहते हैं। वस्तुतः समाधि, वस्तुतः निर्विकल्प चित्त फिर भी, महावीर कहते हैं, इन थोड़ी-सी बातों का चितवन की दशा है। वहां कोई भी विषय नहीं रह जाते। वहां तो | करता रहे। धर्म-ध्यान से विषयों को छुड़ाना पड़ता है। ....सदा अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के चितवन में पहले ध्यान को गलत विषयों से छुड़ाओ, ठीक विषयों पर लीन रहे।' लगाओ। ठीक विषयों पर लगाना केवल संक्रमण की प्रक्रिया क्योंकि महावीर कहते हैं, कि चित्त की शक्ति बड़ी प्रबल है। है, ताकि गलत से छूटने में सहारा मिल जाए। फिर जब गलत से कभी-कभी क्षणभर को तुम पार भी हो जाते हो; और अगर छुटकारा हो जाए तो मत करना ऐसा, कि अब ठीक पर बैठकर शिथिल हो गए तो चित्त तुम्हें वापस खींच ले सकता है। इसलिए रह जाओ। यह तो केवल उपाय था। जैसे बीमार को औषधि देते ऐसी घड़ी भी आ जाए कि तुम्हें लगे अब ध्यान की कोई जरूरत हैं। बीमारी चली गई. अब औषधि का क्या करना? अब इसे नहीं, यह भी महावीर सावधानी बरतने को कहते हैं कि तुम अभी फेंकना होगा। इससे भी मुक्त होना होगा। यह तो केवल बीच जल्दी से ध्यान छोड़ मत देना। इतनी धारणाओं का चितवन का सहारा था; संक्रमण की स्थिति थी। करते रहनातो धर्म-ध्यान भी वस्तुतः ध्यान नहीं है, संक्रमण की स्थिति है; 'अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, सीढ़ी है। फिर तो ध्यान से भी मुक्त होना है। फिर तो ये धर्म के आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि—इन बारह भावनाओं विषय भी छोड़ देने हैं। तभी परम ध्यान होगा। जब कोई भी का चितवन जारी रखना।' विषय न रह जाए, तुम्हारी चेतना बचे, चेतना की ज्योति बचे। इनमें से एक-एक भावना समझने जैसी है। ये महावीर की मल लेकिन उस ज्योति का प्रकाश किसी चीज पर न पड़ता हो-न भित्तियां हैं-ये बारह भावनाएं। जिन्होंने इन बारह भावनाओं को धन पर, न धर्म पर; न काम पर, न अकाम पर; न क्रोध पर न साध लिया, समाधि अपने आप फलित हो जाती है। करुणा पर। | 'अनित्य'-महावीर कहते हैं, इस बात को सदा स्मरण रखें करुणा का उपयोग कर लेना क्रोध से बचने के लिए; लेकिन कि जो भी है यहां, सब क्षणभंगुर है। इसे क्षणभर को न भूलें। फिर करुणा से ग्रसित मत हो जाना। उससे भी पार जाना है। क्षणभंगुरता को क्षणभर को न बिसारें। जन्मों-जन्मों का मन पर एक ऐसी घड़ी खोजनी है, जहां तुम हो। बस तुम हो। अकेले यह प्रभाव है कि बदलती हुई चीजें थिर मालूम होती हैं। तुम हो। तुम देखते हो दीवाल, वृक्ष, सब थिर मालूम होते हैं, हालांकि उसको महावीर कहते हैं केवल, केवल दशा. कैवल्य. जहां तम जानते हो. सब बदल रहे हैं। जो फल कल नहीं था. आज बस तुम हो। ऐसा समझो कि शून्य में कोई दीया जलता हो। आ गया। जो पत्ते कल थे, गिर गए। यह दीवाल भी जो बहुत जहां प्रकाशित करने को कुछ भी नहीं है, बस प्रकाश है। क्योंकि मजबूत है, यह भी राख हो जाएगी। यह भी आज नहीं कल रेत जो भी चीज मौजूद हो, वह प्रकाश को थोड़ा-सा धूमिल और होकर बह जाएगी। कितने महल बने और बिखर गए। पहाड़ दूषित करती है। क्योंकि कोई चीज मौजूद हो तो उसकी छाया बनते हैं और खो जाते हैं। सागर बनते हैं और मिट जाते हैं। पड़ती है। कोई चीज मौजूद हो तो अंधेरा पैदा होता है। महाद्वीप के महाद्वीप लीन हो जाते हैं। 377| 2010_03 || Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः लेकिन फिर भी आंखें एक भ्रम देती हैं कि जैसे सब थिर है। | हजारवें हिस्से का खयाल है। तो ही...। तुम रोज बूढ़े हो रहे हो लेकिन मन ऐसा ही माने रखता है कि सब | जैसे-जैसे बहुमूल्य को पहचानना हो वैसे-वैसे तुम्हारे ठीक चल रहा है। सब वैसे का वैसा ही है। रोज सुबह आईने के | बांट-बटखरे ज्यादा सुनिश्चित होने चाहिए। और एक ही सामने खड़े होकर तुम अपने को देख लेते हो, लगता है, सब बटखरा है, एक ही बांट है हमारे पास, वह है जागरूकता का, ठीक है। वैसा का वैसा है। होश का, ध्यान का। नाम कुछ भी हो, बांट एक ही है। यह प्रक्रिया इतनी धीमी है और तुम्हारा होश इतना कम है। तो या बहुत स्पष्ट होना चाहिए। इसमें रत्ती-रत्ती का पता चलना तो प्रक्रिया बहुत तेजी से हो तो कुछ हो सकता है। कि रात तुम चाहिए। यह ऐसा मोटा, साग-सब्जी तौलने जैसा बांट न हो, सोओ जवान और सुबह बूढ़े हो जाओ तो शायद तुम्हें अकल सोना तौलने जैसा; या वैज्ञानिक का कांटा हो, जहां रत्ती का आए कि अरे! सब क्षणभंगुर है। लाखवां हिस्सा भी पहचाना जा सकता है कि कम हुआ कि मगर बूढ़ा होना इतने धीमे-धीमे होता है, इतने ज्यादा हुआ। | आहिस्ता-आहिस्ता होता है, इतने रत्ती-रत्ती होता है, कि पता ही तो तुम्हारा होश बढ़े। नहीं चलता। एक-एक बूंद रीतता है सागर। ऊपर से ऐसा पहली भावना है: अनित्य। चलते, उठते, बैठते, सोते, लगता है, वही का वही; वैसा का वैसा है। जागते एक बात तुम्हारे भीतर सतत बनी रहे; एक स्मरण बना तो या तो जो क्षणभंगुरता है, वह बड़ी तीव्रता से, त्वरा से घूमने रहे-सब बदल रहा है, सब बदला जा रहा है। लगे कि घर के बाहर गए, लौटकर आए, पत्नी बूढ़ी हो गई। गए क्या होगा इसका परिणाम? इसका परिणाम यह होगा कि तुम थे तो जवान छोड़ गए थे। घर के बाहर गए, लौटकर आए तो मोहग्रस्त न होओगे। जो बदल ही रहा है उसको पकड़ने का कोई | देखा, कि घर राख हो गया। गए थे तो बिलकुल अभी महल की | अर्थ नहीं है। जो जा ही रहा है, जाएगा ही, उसके साथ लगाव तरह खड़ा छोड़ गए थे। लौटकर आए तो रेत पड़ी है, रेत का ढेर | और आसक्ति बनाने का कोई अर्थ नहीं है। जो छूटेगा ही, वह लगा है। छूट ही गया। बुद्धिमान व्यक्ति को इस संसार में पकड़ने को या तो ऐसा हो...ऐसा तो होता नहीं है। ऐसा तो स्वभाव नहीं | कुछ भी नहीं, क्योंकि कुछ पकड़ा ही नहीं जा सकता। यहां थिर वस्तुओं का। तो फिर दूसरा उपाय है, कि तुम्हारा बोध गहरा हो, कुछ भी नहीं है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति कोई अपेक्षा नहीं तुम्हारा होश गहरा हो कि बहुत धीमे से, बारीक से हो रहे फर्क | रखता थिर होने की। को भी तुम पहचान पाओ। बह भी आंख से बच न जाए। | अगर तुम महावीर को जाकर धोखा दे दो तो महावीर चकित जागकर देखो तो तम हर सबह चेहरे में अंतर पाओगे। नहीं होते। तम्हारा मित्र तम्हें आकर धोखा दे दे, तम चकित होते लौटकर घर आओ, तुम अंतर पाओगे। लेकिन बड़ी जागरूकता हो। क्या कारण है? तुम चकित होते हो क्योंकि तम मानते थे, चाहिए होगी। क्योंकि अंतर बड़े आहिस्ता हो रहे हैं, बड़े | कि मित्र सदा मित्र रहेगा। थिरता की अपेक्षा कर रहे थे क्षणभंगुर धीमे-धीमे हैं। जगत में। यहां कोई थिर नहीं है। न शत्रु थिर है, न मित्र थिर है। ऐसा समझो कि बाजार में कोई साग-सब्जी तौलता है तो मोटे कल मित्र शत्रु हो सकता है, शत्रु मित्र हो सकता है। सब चीजें बांट-बटखरों से तौलता है। कोई फर्क नहीं पड़ता, तोला इधर बदल रही हैं। सब चीजें उथल-पुथल में हैं। कि तोला उधर, साग-सब्जी है। सोना नहीं तौला जाता ऐसे। लेकिन तम सोचते थे, मित्र सदा मित्र है। और जब मित्र धोखा बांट-बटखरे हर तरह के काम नहीं दे देंगे। रत्ती-रत्ती का हिसाब दे जाता है, तुम एकदम चौंककर खड़े रह जाते हो। तुम चकित रखना होता है। तो सुनार भी तौलता है लेकिन वहां रत्ती-रत्ती का हो जाते हो। हिसाब है। लेकिन यह भी तौल बहुत गहरी तौल नहीं है। तुम चकित मित्र के कारण नहीं होते, न उसके धोखे के कारण वैज्ञानिक तौलता है, वहां तो रत्ती का भी हजारवें हिस्से का होते हो। तुम अपनी थिर अपेक्षा के कारण चकित होते हो। खयाल है। वहां तो सेकेंड-सेकेंड का खयाल है। सेकेंड के तुम महावीर को जाकर धोखा दे आओ, कोई अंतर न पड़ेगा। -378 Ja Education International 2010_03 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे चकित न होंगे, क्योंकि उनकी कोई अपेक्षा नहीं है। शायद वे अपने भीतर दोहराएंगे कि देखा, संसार कैसा थिर है! सब अनित्य है। यहां मित्र भी अपना नहीं। यहां शत्रु भी पराया नहीं। यहां किसी का भरोसा, गैर-भरोसा करने का कोई कारण नहीं। एक बड़ी प्रसिद्ध सूफी कहानी है, एक सम्राट ने अपने सारे बुद्धिमानों को बुलाया । और उनसे कहा कि मैं कुछ ऐसा सूत्र चाहता हूं—छोटा हो। बड़े शास्त्र नहीं चाहिए। मुझे फुर्सत भी नहीं बड़े शास्त्र पढ़ने की — ऐसा सूत्र चाहता हूं, एक वचन में पूरा हो जाए। और हर घड़ी काम आए। दुख हो कि सुख, जीत हो कि हार, जीवन हो कि मृत्यु, सूत्र काम आए। तो तुम एक ऐसा सूत्र खोज लाओ। उन्होंने बड़ी मेहनत की, बड़ा विवाद किया। कुछ निष्कर्ष नहीं हो सका। तो उन्होंने कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़े हैं। बड़ा विवाद है, संघर्ष है। कोई निष्कर्ष नहीं हो पाता। अच्छा हो... कि हमने सुना है एक सूफी फकीर गांव के बाहर ठहरा है। कहते हैं बड़ा प्रज्ञा को उपलब्ध, संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति है। हम उसी के पास चलें। उस सूफी फकीर ने अपनी अंगूठी पहन रखी थी अंगुलि में, वह निकालकर सम्राट को दे दी और कहा कि इसे पहन लो। इस पत्थर के नीचे छोटा-सा कागज रखा है, उसमें सूत्र लिखा हुआ है । वह मेरे गुरु ने मुझे दिया था। मुझे तो जरूरत भी न पड़ी तो मैंने तो अभी तक खोलकर देखा भी नहीं। शर्त उन्होंने एक ही रखी थी कि जब कुछ और उपाय न रह जाए, सब तरफ से निरुपाय हो जाओ, तब इसे खोलकर पढ़ना । ऐसी कोई घड़ी न आयी। उनकी बड़ी कृपा है। इसलिए मैं तो इसे खोलकर पढ़ा नहीं लेकिन जरूर इसमें कुछ राज होगा। आप रख लो। लेकिन शर्त याद रखना — इसका वचन दे दो कि जब कोई और उपाय न रह जाएगा, सब तरफ से निरुपाय, असहाय हो जाओगे, तभी अंतिम घड़ी में इसे खोलना। क्योंकि यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है और साधारणतः खोला गया तो अर्थहीन है। बड़ी प्रखर वेदना की स्थिति में इसे खोलना । यह शब्द वेदना - सुनते हो, बड़ा बहुमूल्य है। यह उसी से बना है, जिससे वेद बना । वेदना के दो अर्थ होते हैं। एक तो अर्थ होता है, दुख | और एक अर्थ होता है ज्ञान । गहरे दुख के 2010_03 ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत क्षण में ही ज्ञान होता है। तो उस फकीर ने कहा कि जब वेदना का बहुत गहरा क्षण हो, तब इसे खोलना। यह वेद का सूत्र है। यह वेद है। इसे हर घड़ी में खोल लोगे तो बेकाम है। क्योंकि तुम तैयार ही न होओगे । तुम्हारा इससे तालमेल न बैठेगा। तुम जब बिलकुल वेदना में जल रहे हो, चिता में बैठे हो और सब तुम्हारे सांसारिक उपाय व्यर्थ हो जाएं- क्योंकि तुम सम्राट हो, तुम्हारे पास बहुत उपाय हैं - तो इसको मत खोलना। जब तुम पाओ कि तुम दीन-दरिद्र, सम्राट नहीं; असहाय - लकड़ी के टुकड़े की तरह सागर में पड़े तरंगों के हाथ में― कहां ले जाएं, पता नहीं; तब इसे खोलना । उस वेदना के क्षण में इसका वेद-सूत्र तुम्हारे काम आ जाएगा। सम्राट ने अंगूठी पहन रखी। वर्षों बीत गए। कई दफे खयाल भी आया— लेकिन शर्त पूरी करनी थी । वचन दिया था तो खोला नहीं। कई दफे जिज्ञासा भी हुई। फिर सोचा कि खराब न हो जाए कहीं। फिर घड़ी भी आ गई। वर्षों बाद सम्राट हार गया। दुश्मन जीत गया, उसके राज्य को हड़प लिया। वह भागा एक घोड़े पर, अपनी जान बचाने को । राज्य तो गया, संगी-साथी भी थोड़ी देर बाद उसे छोड़ दिए। दो-चार सैनिक, उसके रक्षक साथ थे; वे भी धीरे-धीरे हट गए क्योंकि अब कुछ बचा ही न था तो रक्षा करने का भी कोई सवाल न था । है दुश्मन पीछा कर रहा है, वह एक पहाड़ी घाटी से भागा जा रहा अपने घोड़े पर पीछे घोड़ों की आवाजें आ रहीं हैं, टापें सुनाई पड़ रहीं हैं । प्राण संकट में हैं। और अचानक उसने पाया कि रास्ता समाप्त हो गया। आगे तो भयंकर गड्ढ है। लौट भी नहीं सकता। पीछे दुश्मन पास आ रहा है। आगे जा भी नहीं सकता । एक क्षण को किंकर्तव्यविमूढ़, हतप्रभ खड़ा रह गया ! क्या करे ? याद आयी अचानक, खोली अंगूठी, पत्थर हटाया, निकाला कागज, उसमें एक छोटा-सा वचन लिखा था 'दिस टू विल पास - यह भी बीत जाएगा।' सूत्र को पढ़ते ही मुस्कुराहट आ गई उसे । एक बात खयाल में आयी, सब तो बीत गया – सम्राट न रहा, साम्राज्य गया। सुख बीत गया। तो जब सुख बीत जाता है तो दुख भी थिर तो नहीं हो सकता। शायद सूत्र ठीक ही कहता है। अब करने को भी कुछ 379 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 नहीं है। बुद्धिमान उड़ने के पहले भी जानता है, पंख टूटेंगे। वासनाओं लेकिन सूत्र ने जैसे उसके भीतर कोई सोया तार छेड़ दिया, | के इंद्रधनुष गिरेंगे। सपने उजड़ेंगे। जिंदगी यहां जिंदगी जैसी कोई साज छेड़ दिया। यह भी बीत जाएगा।' ऐसा बोध आते | नहीं है। जो टिकती नहीं, बचती नहीं, सदा नहीं रहती, उसे ही जैसे एक सपना टूट गया। अब वह व्यग्र नहीं, बेचैन नहीं, | जिंदगी क्या कहना? पूरब की परिभाषा यही है कि वही है घबड़ाया हुआ नहीं...कि ठीक है। वह बैठ गया। सत्य-जो सदा है, सनातन है, शाश्वत है। क्षणभंगर सत्य नहीं संयोग की बात! थोड़ी दूर तक तो, थोड़ी देर तक तो घोड़ों की है, क्षणभंगुर सपना है। टापें सुनाई पड़ती रहीं, फिर टापें बंद हो गईं। शायद सैनिक पूरब और पश्चिम की परिभाषाओं में बड़ा फर्क है। अगर किसी दूसरे रास्ते पर मुड़ गए। घना जंगल है, बीहड़-पहाड़ हैं, | पश्चिम में तुम पूछो, सपना क्या है? सत्य क्या है? तो अलग पक्का उन्हें पता भी नहीं है, कि सम्राट किस तरफ गया है। | व्याख्याएं हैं। पश्चिम कहता है, सपना वह है, जो नहीं है; और धीरे-धीरे घोड़ों की टापें दूर हो गईं। सत्य वह है, जो है। पूरब कहता है, हैं तो दोनों ही। सपना भी है अंगूठी उसने वापिस पहन ली। अन्यथा होता कैसे? सत्य भी है। फर्क होने और न होने का नहीं कुछ दिनों बाद फिर दुबारा उसने अपने मित्रों को इकट्ठा कर है, फर्क शाश्वतता का, क्षणभंगुरता का है। लिया। हमला किया, पुनः जीता, फिर अपने सिंहासन पर बैठ | सत्य वह है, जो है, था और होगा। सपना वह है, जो पहले गया। जब सिंहासन पर बैठा तो बड़ा आह्लादित हो रहा था, तभी नहीं था, अभी है, और अभी नहीं हो जाएगा। उसे पनः उस घड़ी की याद आयी। उसने फिर अंगठी खोली, परब और पश्चिम की व्याख्या बड़ी बनियादी रूप से भिन्न हैं। फिर कागज को पढ़ा, फिर मुस्कुराया। वह सारा आह्लाद, विजय इसलिए पश्चिम में जब माया का अनुवाद करते हैं वे, तो सदा: का उल्लास, विजय का दंभ, सब विदा हो गया। इल्यूजन। वह गलत है अनुवाद। माया का अनुवाद इल्यूजन उसके वजीरों ने पूछा, 'आप बड़े प्रसन्न थे, आप एकदम शांत नहीं है, भ्रम नहीं है। हो गए! क्या हुआ?' इल्यूजन का अर्थ होता है : जो नहीं है; सिर्फ दिखाई पड़ा। सम्राट ने कहा, यह सूत्र—'यह भी बीत जाएगा।' अब माया का अर्थ होता है, जो है लेकिन क्षणभंगुर है। होने में कोई सभी बीत जाएगा। तो न इस संसार में दुखी होने को कुछ है, न | शक नहीं है, शाश्वतता में शक है। टिकेगा नहीं। लहर की तरह सुखी होने को कुछ है। आया और गया। यह भी बीत जाएगा। इसको महावीर कहते हैं, अनित्य भावना। तो जो चीज भी तुम्हें लगती हो, बीत जाएगी, याद रखना। था जिंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ अगर यह एक सूत्र भी पकड़ में आ जाए तो और क्या चाहिए? उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग जर्द था तो तुम्हारी पकड़ ढीली होने लगेगी। तुम धीरे-धीरे उन सब जिसको मौत का पता है, वह उड़ने के पहले भी जानता है कि | चीजों से अपने को दूर पाने लगोगे, जो चीजें बीत जाएंगी। क्या पंख टेंगे और गिरूंगा। अकड़ना! कैसा गर्व! किस बात के लिए इठलाना! सब बीत था जिंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ जाएगा। यह जवानी बीत जाएगी। जिसके पास बोध है, उसे मौत का खटका प्रतिक्षण लगा है। याद बन-बनके कहानी लौटी हृदय की धक-धक और कोई खबर नहीं लाती। धक-धक मौत | सांस हो-होके बिरानी लौटी का खटका है। लौटे सब गम जो दिए दुनिया ने यह धक-धक ही बंद होगी एक दिन। यह धक-धक ही पहुंचा मगर न जाकर जवानी लौटी देगी उस जगह, जहां फिर धक-धक न होगी। यह सब बीत जाएगा। यह जवानी, यह दो दिन की इठलाहट, था जिंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ यह दो दिन के लिए तितलियों जैसे पंख। ये सब बीत जाएंगे। उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग जर्द था यह दो दिन की चहल-पहल, फिर गहरा सन्नाटा। फिर मरघट 380 Jal Education International 2010_03 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की शांति । महावीर कहते हैं, मौत को मत भूलना। अनित्य का यही अर्थ है । अनित्य भावना का अर्थ हुआ, मृत्यु को स्मरण रखना। प्रतिपल मृत्यु को स्मरण रखना। मनुष्य की महिमा यही है कि उसे मृत्यु का पता है । मृत्यु के पता से ही धर्म का जन्म हुआ है। मृत्यु का जिसको जितना बोध है, उसके जीवन में धर्म की उतनी प्रगाढ़ता हो जाएगी । इसीलिए तो लोग बुढ़ापे में धार्मिक होने लगते हैं। मौत करीब आने लगती है। पगध्वनि ज्यादा साफ सुनाई पड़ती है । चीजें दूर होने लगती हैं। 'यह भी बीत जाएगा, इसका स्मरण ज्यादा ज्यादा आने लगता है। इसीलिए तो आदमी दुख में परमात्मा को स्मरण करता है । क्योंकि दुख में पता चलता है, यहां पर कुछ भी नहीं है, खोजूं परमात्मा को । सुख में फिर भूल जाता है। मौत करीब आती है तो याद आ जाता है। लेकिन कोई अगर तुम्हें चमत्कार से जवान बना दे. ... I मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था, उसके डाक्टर ने कहा, बचना मुश्किल है। तो उसने अपनी पत्नी को कहा, अब डाक्टर को बुलाने की कोई जरूरत नहीं । नाहक फीस खराब करनी । अब तो पुरोहित को बुलाओ। अब तो मंत्र सुना दे कान में। पढ़ दे कुरान । पुरोहित आने लगा। संयोग की बात, मुल्ला मरा नहीं। डाक्टर के डायग्नोसिस में, निदान में कहीं भूल थी। महीनेभर जी गया तो उसने फिर डाक्टर को बुलाया। अब वह स्वस्थ हो गया था, सब ठीक था। उसने डाक्टर से कहा, डाक्टर ने जांच की और उसने कहा, चमत्कार है। तुम बिलकुल ठीक हो गए हो। मैं तो सोचता था, तुम बचोगे | नहीं तीन सप्ताह से ज्यादा। और अब तो ऐसा लगता है, तुम कम से कम दस साल बचोगे । उसने अपनी पत्नी को कहा, अब पुरोहित को बुलाने की कोई जरूरत नहीं। और पुरोहित को जाकर कह दे कि अब दस साल तो मौत का कोई कारण नहीं है। इसलिए दस साल इस तरफ कृपा मत करना। लेकिन नौ साल बाद, तीन सौ चौसठ दिन बीत जाने के बाद अगर जीवित रहो तो आ जाना। एक दिन बचे, तब आ जाना। आदमी बिलकुल मरने के वक्त याद करता। धर्म को टालता । 2010_03 ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत लेकिन इसमें सार की बात समझ लेने जैसी है— मौत याद दिलाती धर्म की। लेकिन मौत क्या इस तरह थोड़े ही है कि तुम कहो दस साल बाद होने वाली है तो जब एक दिन बचे, नौ साल तीन सौ चौसठ दिन बीत जाएं, तब तुम आ जाना। मौत तो किसी पल आ सकती है। मौत अभी आ सकती है। मौत कल आ सकती है। हम मौत से घिरे हैं। अनित्य भावना का अर्थ है : मौत हमें घेरे हुए है। हम मौत के हाथ में पड़े ही हैं। हम मौत के जाल में फंसे ही हैं। कब जाल सिकोड़ लिया जाएगा और कब हम हटा लिए जाएंगे, कुछ नहीं है। लेकिन इतना तय है कि यह होगा। अगर तुम थोड़े-से होशपूर्वक सोचो तो जैसे-जैसे मौत साफ होगी, वैसे-वैसे धर्म की तरफ तुम्हारी दिशा, अपने आप तुम्हारा हृदय का कांटा धर्म की दिशा में मुड़ने लगेगा। 'अनित्य, अशरण' – अशरण महावीर का बुनियादी सूत्र है। जैसे कृष्ण का सूत्र है शरणागति | इसलिए मैं कहता हूं, बड़ी विपरीत भाषाएं हैं और फिर भी एक ही तरफ ले जाती हैं। कृष्ण कहते हैं, परमात्मा की शरण गहो । मामेकं शरणं व्रज सर्वधर्मान् परित्यज्य । आ तू मेरी शरण । छोड़ सब धर्म । महावीर कहते हैं, अशरण हो रहो। किसी की शरण भूलकर मत जाना। क्योंकि पर से मुक्त होना है। अकेले हो तुम। कोई दूसरा सहारा नहीं है । सब सहारे धोखे हैं। सहारों के कारण ही अब तक तुम भटके हो । अब सहारों का सहारा छोड़ो। अब तुम बेसहारे हो, इस सत्य को समझो। अपने पैर पर खड़े हो जाओ। कोई दूसरा तुम्हारा कल्याण न कर सकेगा। तुमने ही करना चाहा तो ही कल्याण होनेवाला है। और दूसरे की शरण पर छोड़कर कहीं तुम ऐसा मत करना कि यह सिर्फ धोखाधड़ी हो। ऐसा दूसरे पर टालकर तुम बच रहे हो। अक्सर शरणागति में जानेवाले लोग यही करते हैं। एक मित्र मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हम तो आपकी शरण आ गए। मैं उनको कहता हूं, कुछ ध्यान करो। वे कहते हैं, अब हमें क्या करना ? हम तो आपकी शरण आ गए। मैं उनसे पूछा कि जब तुम दुकान करते हो, तब तुम मेरी शरण नहीं छोड़ते। तुम यह नहीं कहते, अब क्या दुकान करें! करो बंद दुकान। जब मेरी शरण आ गए, कर दो दुकान बंद। उन्होंने कहा, वह कैसे हो सकता है! 381 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSC-STAGRANED जिन सूत्र भागः 2 ahmmmam दुकान तुम नहीं छोड़ते, बाजार तुम नहीं छोड़ते, धन तुम नहीं सिर था मूल्यवान। ऐसे ही रख देने का न था। सब जांच-परख छोड़ते। सिर्फ शरण आ गए, ध्यान छोड़ते हो? और ध्यान की; इसलिए गीता का जन्म हुआ। तुमने कभी किया नहीं। छोड़ने को भी तुम्हारे पास है नहीं। तो | लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, आपके चरणों में सिर रख दिया, किसको धोखा दे रहे हो? | अब आप सम्हालें। वे उत्तरदायित्व से बच रहे हैं। वे सोचते हैं कि वे बड़ी ऊंची बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि | महावीर को यह दिखाई पड़ा कि हजारों लोग धर्म के नाम पर हम आपकी शरण आ गए; अब और क्या करना है? | खुद धोखा खा रहे हैं, दूसरों को धोखा दे रहे हैं। तो महावीर ने अगर यह सच हो तो कृष्ण का सूत्र काम कर जाएगा। लेकिन | बहुत जोर दिया-अशरण भावना। किसी की शरण नहीं जाना यह सौ में निन्यानबे मौकों पर सच होता नहीं। इसलिए कृष्ण का | है। महावीर ने कहा, उत्तरदायित्व तुम्हारा है। पाप तुम्हारे, पुण्य सूत्र तुम्हारे लिए धोखे का कारण बन जाता है। तुम अपने को | तुम्हारे, तुम दूसरे के चरणों में कैसे जा सकते हो? दूसरे से कुछ उस आड़ में छिपा लेते हो। तुम कहते हो, अब कृष्ण के सहारे सीखना हो, सीख लेना। कुछ पूछना हो, पूछ लेना। करना तो हैं। अब वे जहां ले जाएंगे, जाएंगे। तुम्हें होगा। साधना तो तुम्हें होगा। मगर इसमें बेईमानी है। अगर यह पूरा हो तो ठीक। फिर तुम तो महावीर कहते हैं, इसे याद रखना-अशरण भावना। बड़ा दीन हो जाओ, दरिद्र हो जाओ, सड़क पर भीख मांगो, तो भी तुम डर लगता है आदमी को अकेले होने में। बड़ा भय लगता है, प्रसन्न हो। तुम कहोगे, उनकी शरण हैं; जहां ले जाएं। यही असुरक्षा मालूम होती है। दिया, यही जरूरी होगा। गरीबी आवश्यक रही होगी। तुम नाजुक कश्ती, नाजुक चप्पू और इस पर तूफान का जोर शिकायत न करोगे। शरणागति में शिकायत नहीं है। शरणागति पार करेगा दरिया को तू अपनी जान-ए-चार तो देख में सब स्वीकार है। बड़ा डर लगता है। नाजुक कश्ती-नाजुक भी कहना ठीक लेकिन आदमी बड़ा बेईमान है। वह मतलब की जो बातें हैं, नहीं, कागज की कश्ती। अब डूबी, तब डूबी। चलाने के पहले खुद करता है। जिन बातों को वह सोचता है, गैर-मतलब हैं, ही पता है कि डूबेगी। करना चाहता नहीं, उनको वह छोड़ता है। वह कहता है, आपकी नाजुक कश्ती, नाजुक चप्पू और इस पर तूफान का जोर । शरण हैं। मोक्ष अब आप सम्हालो। संसार तो हम सम्हाल रहे और चारों तरफ अंधड़ जीवन के, मत्य के. परिवर्तन के हैं, मोक्ष आप सम्हालो। धन तो हम कमाएंगे, अब ध्यान तो क्षणभंगुरता के। आपके ही हाथ में है। बस, आपके चरणों में सिर रख दिया। नाजुक कश्ती, नाजुक चप्पू और इस पर तूफान का जोर सिर में कोई कीमत है ही नहीं। कचरा भरा है। उसको चरणों पार करेगा दरिया को तू... में रख दिया, सोचते हैं कि बहुत बड़ा काम कर दिया। कुछ हो यह सागर तुझसे होगा पार? तो सिर में! घास-फूस भरा है। वे खेत में झूठे आदमी देखे? ...अपनी जान-ए-चार तो देख? खड़े रहते हैं। बड़ी हांडी लगी रहती है। कुर्ता भी बड़ा पहने रहते | थोड़ी अपनी समागे तो देख। हैं। पशु-पक्षियों को डराने के काम आ जाते हैं। बस वैसा ही इसलिए घबड़ाहट होती है। लेकिन महावीर कहते हैं, कोई सिर है। उसको रख देने से भी क्या होगा? और उपाय ही नहीं है। छोटी कश्ती है तो कश्ती को मजबूत कृष्ण ने कहा था, 'सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।' | करो। चप्पू कमजोर हैं तो नए चप्पू बनाओ। तूफान का जोर है किससे कहा था? जिससे कहा था, उसके पास था कुछ। शरण तो तूफान से लड़ने की हिम्मत जगाओ। में रखने को कुछ था। चरणों में न्योछावर करने को कुछ था। सागर बड़ा है माना, लेकिन अगर तुम होश से चलो तो तुम्हारा अर्जन बड़ा बलशाली व्यक्ति था। और ऐसे शाली व्यक्ति था। और ऐसे ही उसने नहीं रख | होश सागरों से बहत बड़ा है। आकाश बड़ा है माना, लेकिन दिया जल्दी। कि कृष्ण ने कहा और उसने रख दिया, उसने कहा, | जिसके पास आत्मा है, उसके लिए आकाश भी छोटा है। अपने जी हुजूर! ठीक कहते हैं। जो हुकुम ! उसने बड़ी जद्दोजहद की। | को जगाओ। 382 | Jan Education International 2010_03 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत महावीर का पूरा जोर आत्मबल पर, स्वयं की संभावना को जन्म, फिर मृत्यु। एक ही चाक। चाक के आरे घूमते रहते हैं। वास्तविकता बनाने पर है। | यह जो जन्म-मरण रूपी संसरण है, यही संसार है। 'अन्यत्व'-चौथी भावना। स्मरण रखो कि तुम कौन हो। इसे याद रखना। यहां हम मरने से तो बचना चाहते हैं, लेकिन जो बाहर दिखाई पड़ रहे हैं, भाई है, बहन है, पत्नी है, पति है, हमें यह खयाल नहीं कि जब तब हम जन्म से नहीं बचना चाहते मित्र है; वे अन्य हैं। उनके साथ अपने मैं को बहुत ज्यादा ग्रसित | तब तक मरने से न बच सकेंगे। यहां हम मृत्यु से तो बचना मत कर लेना। वह धोखा होगा। परिवार मत बसा लेना। यहां | चाहते हैं और जीवन को पकड़ना चाहते हैं। बड़ी मूढ़ता का कृत्य हम अकेले हैं। अकेले आए, अकेले जाएंगे। यहां परिवार तो है। जिसने जीवन को पकड़ा उसने मृत्यु को भी पकड़ लिया। ये सिर्फ हमारी एक कल्पना है, एक धारणा है। दोनों इकट्ठे हैं। एक ही चके के दो आरे हैं। अकेले चूंकि रहने में घबड़ाहट होती है, एक परिवार बना लेते अगर मृत्यु से बचना हो तो जन्म को भी छोड़ देना। अगर मृत्यु हैं। रास्ते पर दो यात्री मिल जाते हैं, हाथ में हाथ डाल लेते हैं। से बचना हो तो जीवन से भी दूर खड़े हो जाना। जीवेषणा दोनों अपरिचित। कहां से आते हैं, पता नहीं। कहां को जाते हैं, छोड़ोगे तो यमदूतों का आना बंद होगा। जीवेषणा के पीछे पता नहीं। छिपी-छिपी मौत आती है। इसलिए महावीर कहते हैं, संसार के दूसरे बाहर हैं; इनसे मैं अन्य हूं। चाक को याद रखना। फिर यह मेरा शरीर भी मुझसे बाहर है। मेरी चेतना इससे भी 'लोक'- छठवीं धारणा। महावीर कहते हैं, यह संसार जो अन्य है। फिर यह मेरा मन भी मुझसे बाहर है। ये विचार भी दिखाई पड़ रहा है, यह तो संसार है ही; इसके पीछे छिपे हुए मुझसे अन्य हैं। ऐसा काटते जाना—इलिमिनेशन। एक-एक संसार भी हैं, उन सभी संसारों का नाम लोक। नर्क है, स्वर्ग है, को छोड़ते जाना, जिससे तुम्हें पता चल जाए कि यह में नहीं हूं। मनुष्य-लोक है। इन तीनों का इकट्ठा नाम लोक। ऐसे हटते-हटते-हटते-हटते....जैसे कोई प्याज को छीलता है; इससे तो बचना ही। लेकिन यह मत सोचना कि इससे बचकर एक छिलका छीला, दूसरा आया। उसको भी छीलो, वह भी और स्वर्ग में पहुंच जाएंगे। कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर मजा छिलका है। ऐसे छीलते-छीलते अखीर में शून्य हाथ लगता है। करेंगे। वह मजा करने की धारणा इसी संसार को बचा लेने का प्याज पूरी समाप्त हो जाती है। छिलके ही छिलके हैं। उपाय है। ऐसा ही अहंकार पूरा समाप्त हो जाता है। छिलके ही छिलके मजा क्या करोगे? कभी सोचा? कल्पवृक्ष के नीचे बैठ गए हैं। और फिर जो शून्य हाथ में लगता है, उसी को महावीर ने तो करोगे क्या? कभी बैठकर शांति से सोचना कि बैठ गए आत्मा कहा है। वह जो सबसे भीतर छिपा हुआ शून्य साक्षी है, कल्पवृक्ष के नीचे, अब क्या करना? तो तुम पाओगे, सारी द्रष्टा होना जिसका एकमात्र गुणधर्म है, वही मैं हूं। मैं कौन हूं संसार की वासनाएं उठनी शुरू हो गईं। कितना धन यह जानने के लिए पहली प्रक्रिया है यह जानना कि मैं कौन नहीं चाहिए—अचानक तुम कहोगे, हो जाए करोड़ रुपये की हूं। गलत के साथ संबंध छोड़ते-छोड़ते एक दिन पता चलता है | बरसात। आ जाएं सजी हुई थालियां भोजन की, कि नाचने लगें ठीक का। कृष्णमूर्ति कहते हैं, असार को पहचान लेना, सार को सुंदर स्त्रियां आसपास, कि मिल जाए सिंहासन चक्रवर्ती का। पहचान लेने की पहली व्यवस्था है। असत्य को समझ लेना तुम जरा बैठकर सोचना। अभी बैठे नहीं हो कल्पवृक्ष के सत्य की तरफ पहला कदम है। क्या गलत है इसे समझ लेना | नीचे, लेकिन सिर्फ कल्पना भी करोगे तो तुम पाओगे, कल्पवृक्ष क्या ठीक है, उसकी तरफ यात्रा बन जाती है। का खयाल आते ही सारा संसार फिर आ गया। पांचवीं भावना-'संसार।' इस संसार को भूलना मत। तो महावीर कहते हैं, संसार से ही नहीं छूटना, संसार के पीछे संसार का अर्थ है महावीर के विचारों में: जन्म-मरण रूप छिपे संसारों से भी छटना है। संसरण; इसीलिए संसार। यह जो चाक है जन्म-मरण | 'अशचि'-सातवीं धारणा। महावीर कहते हैं, जहां-जहां | का-घूमता रहता है, घूमता रहता है-जन्म, फिर मृत्यु; फिर मिश्रण है वहां-वहां अशुद्धि है। 383 ___ 2010_03 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 देखा तुमने! दूधवाला दूध में पानी मिला लाता है, तुम कहते एक झलक कार की, और एक वासना का उठ आना, उमग हो, दूध अशुद्ध है। मगर, अगर दूधवाला कहे कि शुद्ध पानी आना भीतर घट गया। यह आस्रव। मिलाया है, तो अशुद्ध कैसे हो जाएगा? दूध भी शुद्ध था, पानी | आस्रव का अर्थ है: बाहर से चीजों को तुम्हें अशुद्ध करने का भी शुद्ध था, तो दो चीजें शुद्ध होकर मिलती हैं तो और भी शुद्धि मौका देते रहना। बढ़ गई होगी, दोहरी हो गई होगी। दुगुनी हो गई है। कौन कहता | तो जागे रहना। कुछ भी बाहर से निकले, तुम होश रखना, है अशुद्ध है? आस्रव मत होने देना। कार निकल जाए, देखते रहना। कार के लेकिन फिर भी तुम कहोगे, अशुद्ध है। असलियत बात यह निकलने में कोई बाधा नहीं है। सुंदर स्त्री निकल जाए, देखते है, अशुद्धि का अर्थ ही इतना होता है : विजातीय से मिल जाना। रहना। सुंदर पुरुष निकल जाए, देखते रहना। सुंदर पुरुष-स्त्री दूध पानी नहीं है, इसलिए पानी के मिलाने से अशुद्ध हुआ। के निकलने में बाधा नहीं है। जब तक तुम्हारे भीतर छाप न पड़े, दूसरी बात तुमने खयाल नहीं दी क्योंकि पानी मुफ्त मिलता है। जब तक तुम्हारे भीतर संस्कार न हों, जब तक तुम्हारे भीतर कोई नहीं तो दूसरी बात भी सच है। पानी भी अशुद्ध हो गया दूध के तरंग न उठे तक तब कोई हर्जा नहीं है। मिलाने से। क्योंकि पानी का स्वभाव दूध नहीं है। पानी मुफ्त अगर तुम भीतर निस्तरंग रह सको तो बाजार में भी हिमालय मिलता है इसलिए कोई फिक्र नहीं करता। करो पानी को | है। हिमालय पर भी बैठकर अगर तुम निस्तरंग न रह सको तो अशुद्ध, कोई चिंता नहीं करता। दूध को मत करो क्योंकि दूध के | बाजार है। दाम लगते हैं। लेकिन दोनों अशुद्ध हो जाते हैं। दो शुद्ध चीजें | 'संवर'—यह भी महावीर का पारिभाषिक शब्द है। महावीर भी मिलती हैं तो परिणाम अशद्धि होता है। कहते हैं, जो गलत हो सकता है, उसे होने मत देना। और जो महवीर कहते हैं, यहां संसार में सब मिलावट है। यहां सब | ठीक हो रहा है, उसे सम्हालना। उसका संवरण करना। चीज एक-दूसरे से मिली है। खिचड़ी हो गई है। इसलिए सब जैसे तुम ध्यान कर रहे हो, धर्म-ध्यान कर रहे हो, कोई अशुद्ध हैं। तुम्हारी आत्मा मन में घुल गई है। मन शरीर में घुला | निकलाः कार निकली, स्त्री निकली, पुरुष निकला तो है। शरीर बाहर संसार में डूबा है। सब एक-दूसरे को छेदे हैं। आस्रव-इस छाया को भीतर मत पहुंचने देना, दरवाजे पर रोक एक-दूसरे से भिदे पड़े हैं। एक-दूसरे में उलझे हैं। एक-दूसरे से देना—एक। और भीतर जो ध्यान की प्रक्रिया चल रही है, उसे गांठ बंधी है। इसलिए अशुद्धि है। सम्हालना; उसका संवरण करना। तो बाहर से कुछ भीतर न इस अशुद्धि को याद रखना-अशुचि। आए और भीतर से कुछ बाहर न जाए। और इसे याद रखना, कि तुम शुद्ध तो तभी हो, जब बस 'निर्जरा'—और जो भी छोड़ने योग्य है, छूटता हो तो पुरानी केवल तुम हो। जरा कुछ जुड़ा कि अशुद्धि हुई। कोई विचार | आदत के वश पकड़ना मत। जैसे पुराने पत्ते वृक्ष से गिरते हैं तो आया, कोई भाव आया, कोई कल्पना उठी, अशुद्धि हुई। दूध में वृक्ष पकड़ता नहीं। पानी पड़ा, या पानी में दूध पड़ा। आदमी अदभुत है। यहां कचरा भी नहीं छोड़ा जाता। आदमी 'आस्रव'-महावीर का पारिभाषिक शब्द है। आस्रव का | उसको भी सम्हालकर रख लेता है, पता नहीं कब काम पड़े। अर्थ होता है: द्वार पर सम्हलकर बैठना। क्योंकि प्रतिपल तुम्हारे लोग टूटी-फूटी चीजें इकट्ठी करते रहते हैं। घर को कबाड़ बना मन में बाहर के जगत से संस्कार आ रहे हैं, वासनाएं आ रही हैं। लेते हैं इस आशा में, कि पता नहीं कब काम पड़ जाए। तुम बैठे हो राह के किनारे, ध्यान कर रहे हो, एक कार निकल | एक दिन मैंने देखा, मुल्ला नसरुद्दीन एक ही जूता पहने चला गई। कार के निकलते ही, कार का दृश्य आंख में आते ही आ रहा है। मैंने पूछा कि दूसरे का क्या हुआ? उसने कहा, दूसरे तत्क्षण तुम्हारे भीतर कोई सोयी वासना जग गई—ऐसी कार मेरे का कुछ नहीं हुआ। एक रास्ते पर मिल गया। तो मैंने कहा, इस पास हो। शायद तुमने इतने शब्दों में कहा भी नहीं। शायद तुमने | एक का क्या करोगे? उसने कहा, जब एक मिल सकता है तो फिर आंख बंद कर ली, फिर अपनी माला फेरने लगे। लेकिन दूसरा भी मिल सकता है। इसको तो सम्हालकर रख लें। 384] Jair Education International 2010_03 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत आदमी कुछ भी इकट्ठा कर रहा है। यह बाहर ही नहीं हो रहा, धर्म का अर्थ है : जो होना तुम्हारा स्वभाव है। उस स्वभाव से यह भीतर भी हो रहा है। भीतर भी तुम व्यर्थ हो गई चीजों को विपरीत मत होना। उस स्वभाव से विपरीत को पकड़ना मत। पकड़े चले जाते हो। उस स्वभाव से विपरीत को आने मत देना। उस स्वभाव के तो पराने पत्ते वक्ष से छुट ही नहीं पाते। नए पत्तों को आने की अनुकूल को सम्हालना और उस स्वभाव को सदा स्मरण रखना | जगह नहीं, अवकाश नहीं। तुम नए नहीं हो पाते, क्योंकि तुम | कि मैं कौन हूं। भला आज साफ-साफ न भी हो सके कि मैं पराने को जकड़े रहते हो। अतीत को पकड़े रहते हो। परमात्मा हूं, लेकिन याद मत बिसारना, भूलना मत। याद बनाए किसी ने बीस साल पहले गाली दी थी, अब उसे किसलिए ही रखना। आज नहीं उघड़ेगा, कल उघड़ेगा। कल नहीं परसों पकड़े हो? मगर नहीं, उसे तुम पकड़े बैठे हो। शायद वह उघड़ेगा। लेकिन जिसे याद है, वही उघाड़ पाएगा। और जिसे आदमी भी मर चुका। शायद वह आदमी हजार दफे क्षमा भी याद ही नहीं, वह क्या खाक उघाड़ेगा! तुम्हें भला भूल ही गया मांग चुका, लेकिन फिर भी वह गाली पकड़ी है। वह वहां बैठी हो कि धन कहां गड़ा है, लेकिन इतनी याद भी हो कि गड़ा है तो है। उसे तुम किसलिए पकड़े हो? उसे जाने दो। तुम खोजते रहोगे। इस कोने में खोदोगे, उस कोने में खोदोगे, निर्जरा का अर्थ है: जो व्यर्थ हो जाए और छटने लगे और इस कमरे में, उस कमरे में, आंगन में, आंगन के बाहर-खोदते व्यर्थ होकर चीजें अपने आप छूटती हैं। स्वभावतः गिरती हैं। रहोगे। तुम्हें याद हो कि धन गड़ा है। तुम उनको पकड़ मत लेना, रोक मत लेना। सूखे पत्तों को गिर | मैंने सुना है, एक बाप मरा। उसके पांच बेटे थे। पांचों काहिल जाने देना, उड़ जाने देना। | और सुस्त थे। सिर्फ धन में उनकी लोलुपता थी, क्योंकि गुलछर्रे तो तुम ऐसे प्रतिपल नए होते रहोगे। करें। मरते बाप से कहा कि देखो, धन तो मैं बहुत छोड़े जा रहा फिर 'धर्म'-धर्म का अर्थ है स्वभाव। महावीर का धर्म का हूं। वह मैंने सब खेत में गड़ा दिया है। बाप तो मर गया। वे अर्थ रिलीजन या मजहब नहीं है, महावीर का अर्थ है : स्वभाव। पांचों बेटे बाप को मरघट पर किसी तरह जल्दी-जल्दी समाप्त जैसे अग्नि का धर्म है जलाना: जैसे पानी का धर्म है नीचे बहना; करके भागे खेत। खोद डाला पूरा खेत। वहां कुछ गड़ा न था। नीचे की तरफ, गड्ढे की तरफ बहना। जैसे अग्नि का धर्म है ऊपर | लेकिन जब पूरा खेत खुद गया तो उन्होंने कहा, अब बीज भी लपट की तरह उठना, आकाश की तरफ दौड़ना; ऐसे मनुष्य का फेंक ही दो। फसल आयी। खूब फसल आयी। धर्म है परमात्मा होना। उसका स्वभाव है। ऐसा नहीं कि मनुष्य तब उन्हें समझ आयी कि धन वहां सोने-चांदी की तरह नहीं को परमात्मा होना है, मनुष्य परमात्मा है; उघाड़ना है। गड़ा था। उस खोदने में ही धन पैदा हुआ। उस खोदने में ही खेत तो महावीर कहते हैं, धर्म को मत भूलना। | उर्वर हो गया। बीज फेंक दिए। ऐसे वे खेती करनेवाले न थे। लेकिन जैनियों से पूछो, जैन पंडितों से, जैन मुनियों से पूछो; | अलाल थे, काहिल थे। बाप कहता कि खेती करना, जमीन को वे धर्म का अर्थ करेंगे, जैन धर्म। वे कहते हैं, जैन धर्म को याद खोदना, बखर लगाना, वह उनसे होनेवाला नहीं था। वे बाप के रखना। यह बात गलत हो गई। महावीर जैन धर्म की कोई बात मरते ही चादर तानकर सो गए होते। लेकिन धन गड़ा था, इस नहीं कह रहे हैं। यह मजहब की बात ही नहीं है। महावीर जैसे आशा में खोदने चले गए। व्यक्ति मजहब की बातें करते ही नहीं। मजहब जैसे रोग और तुम्हारे भीतर तुम्हें याद बनी रहे कि परमात्मा छिपा है कहीं, तो महावीर जैसे चिकित्सक उनकी बात करें! असंभव। | खोज जारी रहेगी। अगर तुमने यह बात ही विस्मृत कर दी तो महावीर कहते हैं, धर्म याद रखना-सिर्फ धर्म। बुद्ध और खोदोगे क्या? खोजोगे क्या? महावीर दोनों ने धर्म शब्द का बड़ा अदभुत प्रयोग किया है। वह इसलिए महावीर कहते हैं, धर्म को याद रखना। प्रयोग है: सीधा-सरल स्वभाव। जो लाओत्सु की भाषा में | और 'बोधि'-बोधि है अंतिम नियति, कैवल्य, समाधि। ताओ का अर्थ है और जो वेद की भाषा में ऋत का अर्थ है, वही तुम्हारा परमात्मा हो जाना। तुम हो सकते हो, इसे मत भूलना। महावीर और बुद्ध की भाषा में धर्म का अर्थ है। तो दो बातें: धर्म–कि तुम हो। लेकिन उसमें एक खतरा है। 385 2010_03 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कहीं ऐसा न हो कि तुम बिना ही खोदे और मान लो, कि हो। दिशा में हम जाते ही नहीं। यह याद बनी रहे। बिना ही उघाड़े भरोसा कर लो कि ठीक है, जब महावीर कहते हैं इसके परिणाम देखो। सोवियत रूस है; राज्य ने मान लिया तो ठीक कहते होंगे। | कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई मोक्ष नहीं। तो इन पचास वर्षों में इतने से काम नहीं चलेगा। इतना याद रखना कि तुम हो, | एक भी व्यक्ति रूस में समाधि को उपलब्ध नहीं हो सका। यह लेकिन अभी जो तुम हो, उसे भी उघाड़ना है। तुम जो हो, अभी तो बड़ा अहित हो गया। हालांकि मैं यह नहीं कहता हूं कि रूस होना है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। इसे मैं फिर से दोहरा धार्मिक रहता तो जरूरी था कोई समाधि को उपलब्ध हो जाता। दूं। तुम जो हो, अभी होना है। अभी तुम्हें अपने स्वरूप को लेकिन संभावना थी। बीस करोड़ लोगों का मुल्क है। कोई उघाड़ना है। बहुत हजारों लोग समाधि को उपलब्ध हो जाते, ऐसा भी नहीं इसलिए धर्म की याद रखना और बोधि की याद रखना कि | है। मगर एकाध तो हो ही सकता था। वह भी नहीं हुआ। घटना घटती है। संबोधि कल्पना नहीं है, कवियों का अगर सारी दुनिया कम्युनिस्ट हो जाए और नास्तिक हो जाए तो कल्पनाजाल नहीं है। घटा है, यथार्थ है। जीवन का परम यथार्थ बुद्ध, महावीर, कृष्ण, पागल सिद्ध हो जाएंगे। है। बुद्ध और महावीर, कृष्ण और कबीर, नानक और दादू यह तो बात ही दूर ही रही कि हम बुद्धत्व को पाने की चेष्टा इनकी याद का और कोई अर्थ नहीं है। इनकी याद का इतना ही | करेंगे, जिनत्व को पाने की चेष्टा करेंगे; अगर हम जिन हो भी अर्थ है कि इस रास्ते पर कुछ लोग परम अवस्था को उपलब्ध हुए जाएंगे घर के भीतर, तो हम बाहर खबर न करेंगे; नहीं तो लोग हैं। ताकि तुम्हें भरोसा बना रहे। वे गवाहियां हैं। वे प्रमाणपत्र पागलखाने ले जाएंगे। हैं। उनके कारण तुम इस संदेह में पूरी तरह डूब न जाओगे कि रूस में यह हो रहा है। जो व्यक्ति भी राज्य की धारणाओं से कहीं ऐसा तो नहीं है कि ऐसा होता ही नहीं है! तो हम अपना | भिन्न बात कहता है, वह करार दे दिया जाता है कि इसका दिमाग व्यर्थ समय करें, व्यर्थ शक्ति करें। खराब है। उसको तत्क्षण मनोचिकित्सालय ले जाकर इलेक्ट्रिक इन ज्योतिर्मय पुरुषों के कारण तुम अपने अंधेरे को स्वीकार | शाक, इन्सुलिन शाक, दवाइयां पिलाना शुरू कर देते हैं। वह नहीं कर पाते और अपने प्रकाश को तुम कभी-कभी याद करते लाख चिल्लाए। रहते हो। आ ही जाती है याद कहीं न कहीं। इसलिए मस्जिदें अब तुम थोड़ा सोचो, कितना बड़ा अंतर पड़ा है। अच्छा बनीं, मंदिर बने जगत में, गुरुद्वारे बने। वे याददाश्त की जगह किया यहूदियों ने जीसस को सूली तो लगा दी। यह कहा कि यह हैं। जा रहे हो बाजार, रास्ते में मंदिर दिखाई पड़ गया; अगर आदमी गलत है, खतरनाक है। अगर जीसस आज रूस में होते तुममें थोड़ी भी बुद्धि हो तो मंदिर तुम्हें याद करा जाएगा कि | तो सूली न मिलती, किसी पागलखाने में इलेक्ट्रिक शाक बाजार जाओ भला, लेकिन आना मंदिर है। बाजार का चक्कर मिलते, जो कि और भी दुखांत है। क्योंकि सूली तो जीसस को लगाकर आओ, मगर आना मंदिर है। आज नहीं आ सकते नहीं मार पाई, लेकिन पागलखाना तो नष्ट कर देता। भला, लेकिन कल आना जरूर है। कि जीवन की नियति मंदिर जब महावीर कहते हैं, बोधि को स्मरण रखना, भावना करना, में है, दुकान में नहीं है। कि जीवन का परम सौभाग्य राजधानियों तो इसका अर्थ है : बुद्धत्व उपलब्ध हुआ है, बुद्ध हुए हैं, जिन में नहीं है। कि जीवन का परम सौभाग्य ध्यान में है; हुए हैं। आज भी हो सकते हैं, कल भी होते रहेंगे। यह हमारा महत्वाकाक्षा में नहीं हैं, हिंसा में नहीं है, परिग्रह में नहीं है कि | स्वरूप-सिद्ध अधिकार है। जो भी हिम्मत करेगा, जो भी दावा ध्यान, कि धर्म, कि बोधि। करेगा, उसको मिलकर रहेगा। अगर हम न पाते हों. हमारी मगर क्या ऐसी चीजें होती हैं? कमजोरी है। अगर हमें न मिलता हो तो केवल एक खबर अगर तुम्हें याद भूल जाए, तुम अगर यह मान ही लो कि ऐसी मिलती है: हमने चेष्टा नहीं की। हमने श्रम नहीं किया। हमने चीजें होती ही नहीं तो फिर तुम उस दिशा में खोज ही न करोगे, | योग्यता अर्जित नहीं की। तड़फोगे ही न। तुम प्यासे ही न होओगे। जो होता ही नहीं, उस | लेकिन बोधि को पाने जो भी चले, वह स्मरण रखे, बहुत कुछ 386 Jal Education International 2010_03 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत खोना होगा। जैसे हम हैं, वैसे तो हमें मिटना होगा। जो हम हैं, बह रही है हृदय पर केवल अमा वैसे तो हमें विसर्जित होना होगा। मैं अलक्षित हूं यही कवि कह गया है मिलने को मिलेगा बिलआखिर स्नेह-निर्झर बह गया है ऐ अर्श सुकूने-साहिल भी रेत ज्यों तन रह गया है तूफाने-हवादिस से लेकिन यह तन तो रेत जैसा ढह ही जाएगा। यह तो घर है, घास-फूस बच जाए सफीना मुश्किल है की मचिया है। यह तो मिट्टी का बना घर है। यह मिटेगा ही। वह किनारा मिलेगा शांति का-सुकूने-साहिल भी। अंततः | यह नाव तो डूबेगी ही। यह तो हर हाल डूबेगी। जो बचाना मिलेगा। लेकिन चाहते हैं, उनकी भी डूबती है। जो डुबाने-डूबने की फिक्र तूफाने-हवादिस से लेकिन छोड़कर चल पड़ते हैं, उनकी भी डूबती है। नाव तो डबती है. | बच जाए सफीना मुश्किल है लेकिन जिसने नाव को बचाया वह खुद भी डूब जाता है। और लेकिन यह नाव तूफान में बचेगी, यह मुश्किल दिखाई पड़ता जिसने नाव की फिक्र न की, नाव तो डूब जाती है, लेकिन वह | है। मुश्किल ही नहीं है, मैं तो कहता हूं, यह निश्चित है, यह उबर जाता है। नाव तो डूबेगी। तुम बचोगे, नाव डूबेगी। | यहां जो डूबते हैं, वे ही उबरते हैं। यहां जो बचने की चेष्टा नाव यानी तुम्हारा शरीर। नाव यानी तुम्हारा मन। नाव यानी | करते हैं, वे डूबे ही रह जाते हैं। तुम्हारा अहंकार। यह तो नहीं बचेगा। यह तो तूफान में हम न औतार थे न पैगंबर, क्यूं यह अजमत हमें दिलाई गई जाएगा। इसको बचाने की कोशिश की तो तुम उस पार जाने से मौत पाई सलीब पर हमने उम्र वनवास में बिताई गई भी वंचित रह जाओगे। और यह तो फिर भी जाएगा। यह तो ये बड़ी मीठी पंक्तियां हैं। राम को वनवास मिला ठीक, वे फिर भी न बचेगा। यह तो बचाकर भी नहीं बचता। जाना इसका अवतार थे। जीसस को सूली लगी ठीक, वे मसीहा थे। स्वभाव है। और जो बचता है सदा, और जाना जिसका स्वभाव | हम न औतार थे न पैगंबर क्यूं यह अजमत हमें दिलाई गई नहीं है, उसकी तुमने याद नहीं की। उसकी सुरति नहीं जगाई। मौत पाई सलीब पर हमने उम्र वनवास में बिताई गई निराला की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं: __ तुम राम हो या न हो, उम्र तो वनवास में बीतेगी। तुम राम हो स्नेह-निर्झर बह गया है या न हो, सीता तो तुम्हारी चुराई ही जाएगी। तुम जीसस हो या स्नेह-निर्झर बह गया है, न, सली तो लगेगी। वह तो निश्चित है। उसका अवतार और रेत ज्यों तन रह गया है पैगंबर से कुछ लेना नहीं। वह तो जन्म का स्वभाव है कि मृत्यु आम की यह डाल जो सूखी दिखी होगी। वह तो पाने का स्वभाव है कि खोना पड़ेगा। वह तो पत्ते कह रही है अब यहां पिक या शिखी के आने में ही तय हो गया कि सूखेगा और गिरेगा। वसंत नहीं आते, पंक्ति में वह हूं लिखी पतझड़ की तैयारी है। यह तो होगा ही। लेकिन इसे अगर तुम नहीं जिसका अर्थ स्वेच्छा से हो जाने दो-वही फर्क है। वही फर्क है तुममें और जीवन ढह गया है जीसस में; तुममें और राम में। दिए हैं मैंने जगत को फूल-फल राम इसे स्वेच्छा से हो जाने देते हैं। वनवास तो हुआ। वे किया है अपनी प्रभा से चकित चल तैयार हो गए। धनुषबाण लेकर खड़े हो गए घर के बाहर, कि पर अनस्वर था सकल पल्लवित पल चला। एक बार भी ना-नुच न की। यह नहीं कहा कि कैसा ठाठ जीवन का वही, जो ढह गया है अन्याय है। यह कैसा बलात व्यवहार। बाप पर धोखे का शक अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा भी न किया, शिकायत भी न की। श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा वनवास तो सभी को होता है। राम ने स्वीकार किया इसीलिए 387 2010_03 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 अवतार हो गए। सूली तो सभी को लगती है। किसी को खाट पर पड़े-पड़े लगती है, इससे क्या फर्क पड़ता है? खाट भी वैसी ही लकड़ी की बनी है, जैसी सूली बनती है। कहां सूली लगती है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सूली तो लगती है। मौत तो सभी की होती है। जीसस ने स्वीकार कर ली। अंतिम घड़ी में कहा, हे प्रभु! तेरी मर्जी पूरी हो। उसी क्षण पैगंबर हो गए। सभी यहां पैगंबर और अवतार होने को हुए हैं। इससे कम पर राजी मत हो जाना। दुख तो मिलेगा ही। तो फिर इस दुख के साथ थोडा सर्जनात्मक खेल खेल लो। इसे स्वीकार कर लो। इसे आनंद और अहोभाव से उठा लो। मरने को तैयार हो जाओ। अपनी सूली अपने कंधे पर ढोने को तैयार हो जाओ। और तुम पाओगे कि अमृत उपलब्ध हुआ। अमृत मिला ही हुआ है। थोड़ा मृत्यु से तुम ऊपर उठो, तो अमृत के दर्शन हों। हम ऐसे हैं, जैसे कोई आदमी जमीन पर आंख गड़ाये चल रहा हो, और आकाश उपलब्ध है और आंख उठाकर देखता न हो। और कहता हो, आकाश कहां है? जमीन ही जमीन दिखाई पड़ती है। मिट्टी ही मिट्टी दिखाई पड़ती है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर मिट्टी भी है, जमीन भी है, आकाश भी है। आकाश यानी तुम्हारी आत्मा। मिट्टी, जमीन यानी तुम्हारा शरीर। शरीर से थोड़ी आंख उठाओ। शरीर यानी मृत्यु। शरीर से थोड़ी आंख ऊपर उठाओ। आत्मा यानी अमृत, शाश्वत जीवन। उस स्थिति को महावीर ने मुक्ति, मोक्ष कहा है। मोक्ष को पाए बिना जाओ तो आना व्यर्थ हुआ। फिर-फिर भेजे जाओगे। वह पाठ सीखे बिना इस पाठशाला से कोई कभी छूटा नहीं। सीख ही लो। जो सीख जाता है, उसे दुबारा नहीं भेजा जाता है। जरूरत ही न रही। पुनर्जन्म के सिद्धांत का इतना ही अर्थ है कि बिना पाठ सीखे जो गया उसे वापिस स्कूल भेज दिया जाता है—फिर उसी कक्षा में। सीखकर आना ही होगा, ज्ञान की संपदा जगानी ही होगी। तम्हारे भीतर का वेद जब तक गुनगुनाने न लगे, जब तक तुम्हारे भीतर की ऋचाएं प्रगट न हो उठे, तब तक परमात्मा तुम्हारा पीछा नहीं छोड़नेवाला है। आज इतना ही। 3881 2010_03 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education letter For www.jar Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां प्रवचन गोशालक : एक अस्वीकृत तीर्थंकर Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 प्रश्न- सार मक्खली गोशाल के जीवन पर प्रकाश डालने की कृपा करें। महावीर का अशरण-उपदेश और उनका शिष्यों को दीक्षा देनाइनमें क्या अंतर्विरोध नहीं है ? अशरण-भाव और असहाय भाव में क्या भेद है ? Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 हला प्रश्नः मक्खली गोशालक के जीवन के चूंकि उसने कोई दर्शन नहीं बनाया, इसीलिए उसकी कोई १ अनेक प्रसंग जैन शास्त्रों में मिलते हैं, लेकिन परंपरा नहीं बन सकी। लोग तो सुरक्षा चाहते हैं। लोग तो कोई उनका उल्लेख किसी आदर के साथ नहीं किया सिद्धांत चाहते हैं। सत्य की किसको चिंता है? लोग चाहते हैं, गया है। गोशालक को वे कलहप्रिय और उद्धत कहने के साथ कोई सिद्धांत हाथ में आ जाए, जिससे हम जीवन के उलझाव को ही साथ विलक्षण भी बताते हैं। आप तो उसका नाम आदर के किसी भांति सुलझा लें। सुलझे, न सुलझे, हमें भरोसा आ जाए साथ लेते हैं। क्या गोशालक का अपना कोई दर्शन था? और कि सुलझ गया, तो हम निश्चित हो जाएं। रंपरा के मर जाने से जैनियों ने उसके साथ लोग अपनी चिंता मिटाना चाहते हैं। इसलिए गोशालक जैसे अन्याय किया? इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें। | व्यक्ति लोगों को प्रीतिकर नहीं लगते। क्योंकि वे तुम्हारी चिंता | मिटाने का कोई उपाय नहीं करते। वे तो तुमसे कहते हैं, तुम्हारी नक का निश्चित ही एक जीवन-दष्टिकोण था। दर्शन चिंता ही व्यर्थ है। वे कहते हैं. हल कोई नहीं है. चिंतित होना कहना उसे उचित नहीं, क्योंकि शास्त्रबद्ध, सूत्रबद्ध जीवन- व्यर्थ है, यह समझ लो। बस इतना काफी है। प्रणाली बनाने में उसका कोई भरोसा नहीं था। उसकी दृष्टि यही | हम प्रश्न पूछते हैं, हम उत्तर की अपेक्षा करते हैं। हम कहते हैं, थी कि जीवन इतना बड़ा रहस्य है कि दर्शन में समा सके यह | संसार किसने बनाया? यह प्रश्न हमारे भीतर कांटे की तरह संभव नहीं है; जीवन का कोई दर्शन हो सकता है, यह संभव चुभता है। कोई कह देता है, ईश्वर ने बनाया। यद्यपि कुछ हल नहीं है। नहीं होता। क्या हल होगा? कोई अंतर नहीं पड़ता। इसलिए सभी दर्शन किसी न किसी रूप में मनुष्य की फिर अगर तुम पूछना चाहो तो पूछ सकते हो, ईश्वर को कल्पनाएं हैं और जबर्दस्ती जीवन के ऊपर आरोपित किए जाते | किसने बनाया? लेकिन एक तरह की राहत मिलती है कि हैं। जीवन बड़ा है, शब्द बड़े छोटे हैं। सत्य बहुत बड़ा है, सिद्धांत चलो...। वह जो एक भीतर कांटे की तरह चुभता प्रश्न था, बहुत छोटे हैं। सत्य को फांसी लग जाती है सिद्धांतों में डालने हल हुआ। ईश्वर ने बनाया। से। शब्दों में समाने की चेष्टा में ही विराट सत्य मर जाता है। गोशालक जैसे व्यक्ति, जब तुम उनसे पूछो, जगत किसने इसलिए मक्खली गोशाल दार्शनिक तो नहीं है। कोई परंपरा बनाया, तो कंधा बिचका देते हैं। वे कहते हैं, हमें नहीं मालूम बनानेवाला भी नहीं है। पर उसकी एक जीवन-दृष्टि है। दर्शन और किसी को नहीं मालूम। इस फर्क को समझना। मैं उस नहीं कहता, सिर्फ जीवन-दृष्टि है। और जीवन-दृष्टि दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। एक, जो कहते हैं, ईश्वर ने उसकी बड़ी बहुमूल्य है, समझने जैसी है। बनाया; हमें मालूम है। दूसरे, जो कहते हैं, ईश्वर ने नहीं 393 ___JainEducation International 2010_03 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 बनाया; हमें मालूम है। लेकिन उन दोनों में एक बात समान है। कि जानते हैं। जैनों का जो सबसे बड़ा आग्रह है, वह खयाल में दोनों कहते हैं, हमें मालूम है। रखो। वह है कि जैन साधना-पद्धति से गुजरकर जो व्यक्ति गोशालक कहता है, किसको पता? कौन जानता है? कैसे परम स्थिति को पहुंचता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। यह जैनों का कोई जान सकता है? इतना निश्चित है, कभी अगर बनाया हो सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत है-सर्वज्ञ। किसी ने, तो हम तो मौजूद न थे। क्योंकि हम तो बनाने के बाद तो गोशालक से ठीक बिलकुल विपरीत हो गई बात। ही मौजूद हो सकते हैं। हम तो बनाये गए। हम तो मौजूद न थे, गोशालक कहता है जो जानता है, वह तो जानता है कि कुछ भी जब बनाया गया होगा। तो अब उपाय कहां है जानने का, कि नहीं जानता। गोशालक से सुकरात की दोस्ती बन जाती है। किसने बनाया? और अगर किसी ने बनाया तो जिसने बनाया गोशालक से सार्च और कामू की और काफ्का की दोस्ती भी बन वह तो मौजूद ही रहा होगा बनाने के पहले। तो कुछ तो था ही। जाती है। नीत्से भी गोशालक के पास बैठता तो मैत्री अनुभव प्रश्न हल नहीं होता। बनानेवाले को किसने बनाया? करता। लेकिन जैन तो कैसे मैत्री अनुभव कर सकते हैं? यह तो गोशालक कहता है, उत्तर नहीं है, प्रश्न व्यर्थ है। प्रश्न निरर्थक | उनसे ठीक विपरीत है। है। तुम कृपा करो और प्रश्न को गिर जाने दो। तुम जरा देखो कि जैनों का तो आग्रह यही है कि जब कोई व्यक्ति परम तुमने एक ऐसा प्रश्न पूछ लिया है, जिसके कारण तुम झंझट में जागरूकता को उपलब्ध होता है तो वह सर्वज्ञ हो जाता है। सब पड़ोगे। या तो आस्तिक बन जाओगे या नास्तिक बन जाओगे। जानता है। तीनों काल जानता है। जो हुआ, वह जानता है। जो दोनों हालत में तुम जीवन के विराट को इंकार कर दोगे। दोनों | हो रहा है, वह जानता है। जो होगा, वह जानता है। उसके लिए हालत में जीवन का रहस्य टूट जाएगा। तुम बीच में सिद्धांत की कुछ भी अज्ञात नहीं रह जाता। एक दीवाल खड़ी कर लोगे। दोनों हालत में तुम अपने अज्ञान इसका अर्थ हुआ कि जो व्यक्ति जैनों के हिसाब से समाधि को को छिपा लोगे। उपलब्ध होता है, उसके लिए कुछ रहस्य नहीं रह जाता। सब गोशालक कहता है, कुछ पता नहीं बनाया, नहीं बनाया! | रहस्य खुल गया। पोथी पूरी खोलकर देख ली, पढ़ ली।। सच तो यह है, यह भी पक्का नहीं है कि है भी? हो सकता है | गोशालक कहता है, पोथी का पहला पाठ ही पढ़ना असंभव सपना ही हो। है। पोथी खुलती ही नहीं। इसमें पहली लकीर क, ख, ग भी तो गोशालक कोई दर्शन नहीं देता, एक दृष्टि देता है। उत्तर | समझ में नहीं आते। तो सर्वज्ञ का दावा तो व्यर्थ है। सर्वज्ञता तो देखने की एक समझ देता है। इसलिए परंपरा हो नहीं सकती। यहां तो हम उसी को जाननेवाला कहेंगे, जिसने नहीं बनी। और ऐसे व्यक्ति के पीछे कैसे अनुयायी इकट्ठे हों? | जान लिया कि कुछ जानने का उपाय नहीं है। हां, कुछ लोग गोशालक जिंदा था तो इकट्ठे हो गए थे। वह चूंकि यह सर्वज्ञता से बिलकुल विपरीत दृष्टि थी, जैन बड़े उसके व्यक्तित्व की गरिमा रही होगी। उसके उत्तर तो थे ही नहीं नाराज हुए। जैन जितने नाराज गोशालक से हुए, किसी से भी कुछ। कुछ हिम्मतवर लोग उसके साथ हो लिए होंगे। लेकिन | नहीं हुए। वह चमत्कार रहा होगा उसके अपने होने का; जिसको करिश्मा इससे एक बात तो यह भी सिद्ध होती है कि महावीर के सामने. कहते हैं। वह उसका प्रसाद रहा होगा। | विशेष कर महावीर के अनुयायियों के सामने जो सबसे बड़ा इसलिए जैन शास्त्र विरोध भी करते हैं और उसे विलक्षण भी प्रतिद्वंद्वी रहा होगा वह गोशालक था। और भी बड़े विचारक कहते हैं। विलक्षण तो पुरुष था ही। क्योंकि बिना सिद्धांत के, मौजूद थे। बौद्ध ग्रंथों में छह विचारकों के नाम उल्लेख किए गए बिना उत्तर दिए अगर लोग आकर्षित हो गए थे तो आदमी में कुछ हैं-अजित केशकंबल, पूर्णकाश्यप, प्रबुद्ध कात्यायन, संजय जादू तो था ही। वह जादू बौद्धिक नहीं था, वह जादू व्यक्तित्व वेलट्ठीपुत्त, मक्खली गोशाल और निगंठनाथ पुत्त। निगंठनाथ का था, अस्तित्व का था। पुत्त महावीर का नाम है। लेकिन इनमें से किसी का भी विरोध जैन शास्त्र उसके विरोध में हैं, क्योंकि जैन शास्त्र तो जानते हैं जैन शास्त्रों में नहीं है। सिर्फ गोशालक का विरोध है। . 304 2010_03 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर तो एक बात तो निश्चित है कि गोशालक ठीक विपरीत ध्रुव की चरित्र का अर्थ ठीक से समझ लेना। चरित्र का अर्थ होता है: भांति महावीर के सामने खड़ा हुआ होगा। दावा भी उसका है कि अभ्यासजन्य जीवन की शैली। एक आदमी चेष्टा कर-करके, कुछ जाना नहीं जा सकता। अज्ञान का इतना बड़ा समर्थक कभी चेष्टा कर-करके रोज पांच बजे सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठ आता है। कोई हुआ ही नहीं। तो जैनों को सबसे ज्यादा कष्ट इस आदमी अभ्यास बना लेता है। ऐसा जड़ अभ्यास बना लेता है कि किसी से रहा होगा। इसको जैन कहते हैं, उदंड, कलहप्रिय, विवादी। दिन अगर पड़ा भी रहना चाहे बिस्तर पर, तो भी पड़ा नहीं रह यह जैनों की व्याख्या है। यह कहलप्रिय जैनों को मालूम हुआ सकता। पुरानी आदत उसे उठाकर खड़ाकर देती है। होगा। क्योंकि जैन दावा कर रहे थे कि हमारा गुरु सर्वज्ञ है। इसका अर्थ हुआ कि चरित्र केवल अभ्यास है, आदत है। जो और यह आदमी कह रहा था सर्वज्ञ? अल्पज्ञ होना भी संभव व्यक्ति बोधपूर्वक जीता है, वह चरित्र से नहीं जीता, वह बोध से नहीं, अज्ञ होना भी संभव नहीं। जीता है। आदत से नहीं जीता, सहजता से जीता है। आज सुबह _ और इसकी बात में वजन है। इसकी बात में गहराई है। तो यह | अगर उठने का लगता है उसे, आज का ब्रह्ममुहूर्त अगर उसे विवादी मालूम पड़ा होगा। यह उइंड मालूम पड़ा होगा। लेकिन | जगाता है तो जगता है। लेकिन आज की घड़ी अगर सोने जैसी साथ-साथ उन्हें स्वीकार तो करना ही पड़ा कि इसके पास लगती है तो सोता है। विचक्षण प्रतिभा है। प्रतिपल चीजें बदलती रहती हैं। कभी कोई स्वस्थ है, कभी प्रतिभा तो थी। बिना सिद्धांत के लोग आकर्षित हुए। और अस्वस्थ है। कभी वर्षा है, कभी शीत है, कभी ताप है। कभी इस आदमी के पास कोई चरित्र भी नहीं था। यह भी थोड़ा सोच कोई जवान है, कभी कोई बूढ़ा है। कभी कोई रात देर से सोया लेने जैसा है। | है, कभी कोई जल्दी सोया है। कभी दिन में बहुत श्रम किया और गोशालक के पास कोई लोकमान्य चरित्र नहीं था कि कोई कह ज्यादा सोने की जरूरत है। और कभी दिन में उतना श्रम नहीं सके कि इस आदमी की जीवन-व्यवस्था अनुशासन की है, किया, कम सोने से चल जाएगा। सत्य की है, अहिंसा की है, योग की है, ध्यान की है; ऐसा कहने तो जो व्यक्ति बोध से जीता है, वह तो प्रतिपल तय करता है का भी कोई कारण नहीं था। जिसको हम चरित्रहीन कहें, ऐसा कि कैसे जीऊं। जीना प्रतिपल तय होता है। जो व्यक्ति आदत से व्यक्ति है गोशालक। जीता है, वह प्रतिपल तय नहीं करता। तय तो उसने सदा के लिए लेकिन तुम समझ सकते हो, आधुनिक युग में मनोविज्ञान ने कर लिया है। उसने तो लकीर खींच दी है चरित्र की। अब एक बड़ी ऊंची खोज की है, बड़ी गहरी खोज की है कि जो इस उसका अनुगमन करना है। विल्हेम रेक कहता है कि चरित्रवान जगत में सर्वाधिक चरित्रवान लोग होते हैं, वे साधारण अर्थों में व्यक्ति—जिनको हम चरित्रवान कहते हैं—अक्सर मुर्दा चरित्रहीन होते हैं। जीसस भी चरित्रहीन मालूम पड़े लोगों को। व्यक्ति हैं, जो मर चुके। अब तो सिर्फ मरी हुई लाश चल रही इसीलिए तो सूली लगी। सुकरात पर यही तो जुर्म था कि वह है। एक नियम जिंदा हो गया है, आदमी तो मर चुका। आत्मा तो खुद तो भ्रष्ट है ही, दूसरों को भ्रष्ट कर रहा है। उसकी बातें | मर चुकी, सिद्धांत जिंदा हो गया है। प्रभावशाली हैं और दूसरे लोग भी उसकी बातों में आकर भ्रष्ट | गोशालक का कोई चरित्र नहीं है। विल्हेम रेक गोशालक से हो रहे हैं। मिल जाता तो तत्क्षण सिर झुकाकर नमस्कार करता। इस सदी का एक बहुत बड़ा विचारक विल्हेम रेक अमरीका के जैन नाराज हैं। क्योंकि जैनों का तो सारा आधार चरित्र है. कारागृह में मरा। अमरीका में उसे जबर्दस्ती पागल करार दे दिया अभ्यासजन्य। इंच-इंच हिसाब बांधकर चलना है। जरा-सी गया। क्योंकि वह कुछ ऐसी बातें कह रहा था, जो नीतिवादियों | भूल-चूक न हो जाए। सिद्धांत से यहां-वहां चित्त न हो जाए। के बड़े विपरीत थीं। उसके बुनियादी सिद्धांतों में एक था, | सब सम्हालकर लीक पर चलना है। इसलिए जैन मुनि से मुर्दा जिसका गोशालक से मेल हो सकता है। वह कहता था, चरित्र | आदमी तुम दुनिया में दूसरा नहीं खोज सकते। वह बिलकुल केवल उन्हीं के पास होता है, जो मुर्दा होते हैं। मरा हुआ है। उसका कोई भविष्य नहीं है। उसका सिर्फ अतीत RGA ___ 2010_03 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 21 REATORIANDRAMA है। जो उसने तीस.साल पहले तय किया था उसी को दोहरा रहा | वह बहने के पक्ष में था, तैरने के पक्ष में नहीं। संघर्ष के पक्ष में है। वह पुनरुक्ति है। उसके भीतर नए का कोई आविर्भाव नहीं नहीं, समर्पण के पक्ष में। अगर गोशालक को क्रोध हो जाए तो होता। सुबह होती ही नहीं। एक यांत्रिक पुनरुक्ति है, जो वह वह कहता, क्रोध हुआ। मैं क्या करूं? प्रेम हो जाए तो कहता, दोहराये चला जाता है। रोज वही करता है, जो कल भी किया प्रेम हुआ। मैं क्या करूं? गोशालक कोई दायित्व स्वीकार नहीं था, परसों भी किया था। लकीर का फकीर है। करता था। वह कहता था, इतने विराट में मैं एक छोटा-सा गोशालक बड़ा स्वतंत्र है। अनुशासनमुक्त, आदतशून्य कलपुर्जा हूं। कहां जा रहा है यह विराट, मुझे पता नहीं। कहां से व्यक्ति था। अनप्रेडिक्टेबल। उसके बाबत कुछ घोषणा नहीं की। आ रहा है, मुझे पता नहीं। क्यों मेरे भीतर क्रोध होता है इसका जा सकती कि गोशालक कल क्या करेगा। कल ही तय होगा। भी मुझे पता नहीं।। कल आने दो। क्षण-क्षण जीनेवाला था। __इसको थोड़ा खयाल से समझने की कोशिश करना। इसका मेरे लिए तो बहुत मूल्य की बात है यह। गोशालक मेरे लिए अर्थ हुआ, आदमी के किए कुछ भी न होगा। पुरुषार्थ कुछ भी तो मील का पत्थर है मनुष्य-जाति के इतिहास में। इसलिए मैं नहीं है। कृष्ण की गीता से मेल खाएगी यह बात। कृष्ण भी यही सम्मान से उसका नाम लेता हूं। मेरे लिए तो वह उतना ही कह रहे हैं, लेकिन जरा और ढंग से। कृष्ण कहते हैं, ईश्वर कर मूल्यवान है, जितने मूल्यवान महावीर। उनसे रत्तीभर भी कम | रहा है। गोशालक उतनी बात भी बीच में नहीं लाता। वह कहता मूल्य नहीं है। लेकिन अनुयायी महावीर का है, उसको तो बड़ी है, कहां पता है कि ईश्वर है? कौन कर रहा है यह तो मुझे पता अड़चन है। नहीं। इतना पता है कि मेरे किए कुछ भी नहीं हो रहा है। कृष्ण तो जैन शास्त्र गोशालक के संबंध में बड़ी निंदा से भरे हैं। कहते हैं, ईश्वर पर छोड़ दो। गोशालक कहता है, छोड़ दो। ऐसी गालियों से भरे हैं कि कभी-कभी आश्चर्य होता है कि ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। लेकिन इसे ढोने की कोई भी अहिंसा को माननेवाले लोग इतनी गालियां निकाल कैसे सके? जरूरत नहीं है। सब ढोना नासमझी है। करुणा, प्रेम, अहिंसा की बात करनेवाले लोग इतनी क्षुद्रता पर यह गोशालक की दृष्टि अगर सही हो तो अहंकार बिलकुल उतर कैसे आए ? गोशालक बुरा भी रहा हो तो भी ये भले लोग समाप्त हो जाएगा। बचने का उपाय नहीं बचेगा। इतनी गालियां कैसे दे सके? बुरे आदमी को भी इतनी गालियां शायद कृष्ण की गीता का माननेवाला भी किसी पीछे के देना भले आदमी का लक्षण नहीं। अगर विरोध था तो सैद्धांतिक दरवाजे से अहंकार को बचा ले। वह कहे कि ईश्वर मेरा उपयोग विरोध करके पूरा कर लेते। लेकिन विरोध भावात्मक मालूम कर रहा है, में उपकरण हूं। इससे भी अहंकार बच सकता है। पड़ता है, सैद्धांतिक नहीं है। महावीर के मुकाबले, महावीर के क्योंकि मुझे उपकरण चुना है, तुमको तो नहीं चुना। मैं हूं अनुयायियों को लगा होगा, एक ही व्यक्ति खड़ा है प्रखर, जो माध्यम। मैं हूं निक्ति। ठीक विपरीत बात कह रहा है : न कोई चरित्र, न कोई ज्ञान। कृष्ण की बात सुनकर अर्जुन यह तो समझ भी ले कि चलो, मैं और इस सबसे भी कठिन बात, पर बड़ी महत्वपूर्ण, गोशालक | बीच में नहीं आता। लेकिन ईश्वर ने मुझे चुना है धर्म-युद्ध के का जो दृष्टिकोण था वह था, अकर्मण्यतावाद। वह कहता था, | लिए। तो अहंकार नए रूप में खड़ा होगा। दुर्योधन को तो नहीं किए से कुछ भी नहीं होता। वह कहता किए से न पाप होता है, | चुना है। किसी और को तो नहीं चुना है, अर्जुन को चुना है। न किए से पण्य होता है। वह कहता था. करना नासमझी की | परमात्मा का हाथ अर्जन के कंधे पर है। बात है। करने से कभी कुछ हुआ ही नहीं है। जो होना है, वही | यह भी खतरनाक हो सकती है बात। इसका मतलब हुआ, होता है। जो होना था, वही हुआ। जो होना है, वही होगा। वह | मेरी जिम्मेवारी भी न रही, और जो मुझे करना है वह तो मैं करूंगा परम नियतिवादी था। वह कहता था, सब हो रहा है। हमारे | ही। अब ईश्वर का समर्थन और सैंक्शन भी मिल गया। अब किए का कुछ सार नहीं है, इसलिए जीवन से संघर्ष करने का | ईश्वर भी मेरे हाथ में है। अब मैं अपनी बात को सही सिद्ध करने कोई प्रयोजन नहीं है। के लिए ईश्वर का भी सहारा ले लूंगा। और ईश्वर तो मौन है। 396 2010_03 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालक: एक अस्वीकृत तीर्थकर | वह आकर कभी कहता नहीं कि किसको मैंने चुना। महासूर्य हैं, जो रात में तारों की तरह दिखाई पड़ते हैं। फासले के महात्मा गांधी को यह खयाल था कि ईश्वर ने उन्हें उपकरण की कारण छोटे दिखाई पड़ते हैं। हमारे सूरज से करोड़ों गुने बड़े भांति चना है। वह गीता से ही उनको सनक सवार हई। गीता | सरज हैं। और अब तक कोई दो अरब सर्यों का पता चल चका पढ़-पढ़कर ही उनको यह खयाल बैठ गया कि ईश्वर ने उनको है। आगे भी होंगे। यह पृथ्वी हमारी तो कुछ भी नहीं है। इस चुना है; वे माध्यम हैं। लेकिन कौन सिद्ध कर सकता है कि पृथ्वी पर हम और भी नाकुछ हैं। गोडसे को ईश्वर ने नहीं चुना था? गोडसे को भी यही खयाल है। गोशालक यह कहता है, जरा अपना अनुपात तो सोचो। फिर कि वह कर क्या सकता है ? ईश्वर ने चुना है। और तुम सोचते तुम जो करते हुए मालूम पड़ते हो, वह भी प्रकृति ही तुमसे करा हो, जिन्ना को यह खयाल नहीं था? रही है। एक स्त्री निकली तुम्हारे सामने से और तुम्हारे मन में | कौन निर्णय करेगा कि कौन वस्ततः चना गया है? यह तो वासना उठी। यह वासना तमने उठाई? तम कैसे उठाओगे? ईश्वर के बहाने, आदमी जो करना चाह रहा है, उसके लिए होती न, तो उठती कैसे? प्रकृति ने उठाई। प्रकृति ने दी ही हुई ईश्वर की मोहर ले लेता है। है। तुम पैदा इस वासना के साथ हुए हो। गोशालक उतनी भी जगह नहीं छोड़ता। गोशालक कहता है, इसलिए गोशालक की दृष्टि परम स्वीकार की है। वह कहता कोई ईश्वर है, पता नहीं। इतना तय है कि आदमी के पुरुषार्थ से है, जो है, है। बुरा तो बुरा; भला तो भला। न यहां हार का कोई कुछ भी नहीं होता। जो होता है, वही होता है। कभी हो जाता है | उपाय है, न जीत का कोई उपाय है। गोशालक परम भाग्यवादी तो तुम सोचते हो, हम जीत गए। कभी नहीं होता तो तुम सोचते है। और मजा यह है कि भगवान भी नहीं है गोशालक के विचार हो, हम हार गए। लेकिन जो होना था, वही होता है। जब हो में। मार्क्स भी राजी हो जाता गोशालक से। क्योंकि वह भी परम जाता है, तुम अकड़ जाते हो। जब नहीं होता, तुम सिकुड़ जाते भाग्यवादी है। वह कहता है, भगवान तो कोई भी नहीं है। हो। तुम नाहक अकड़ते-सिकुड़ते हो। तुम नाहक जीतते-हारते लेकिन जगत एक नियम से चल रहा है। उसको मार्क्स कहता हो। जो होना है वही होता है। | है, इतिहास का नियम। नाम कुछ भी दो। गोशालक कहता है, इसका अर्थ समझना। अगर यह बात खयाल में बैठ जाए कि इतना तय है आदमी नहीं चला रहा है, चल रहा है। जो होना है वही होता है, तो तुम तत्क्षण तनाव से मुक्त हो गए। यह अकर्मण्यतावाद तो और भी महावीर के विपरीत पड़ता है। ध्यान फलित हो जाएगा। अहंकार से मुक्त हो गए। जब मेरे क्योंकि महावीर का तो सारा बल इस बात पर है कि पुरुषार्थ; किए कुछ होता ही नहीं तो मैं कहां खड़ा हो सकता हूं? कृष्ण तो इसीलिए तो नाम महावीर है। करो, तो पा सकोगे। लड़ोगे, तो कहते हैं, कम से कम तुम निमित्त हो सकते हो। गोशालक जीतोगे। बहे, तो गए। तैरो। धारे के विपरीत तैरो। इंच-इंच कहता है, निमित्त भी नहीं हो सकते। तुम हो ही कहां? लड़ोगे तो ही किसी दिन पहुंचोगे। सिद्धि मुफ्त नहीं मिलती। यह तो ऐसा ही है कि एक हाथी निकलता था, एक पुल के बड़ा गहन संघर्ष करना है। ऊपर से। वजनी हाथी, पुराना जीर्ण-शीर्ण पुल! कंपने लगा महावीर गोशालक के विरोध में रहे हों, ऐसा तो मुझे मालूम पुल। एक मक्खी बैठी थी हाथी के ऊपर। जब वे दोनों पुल पार नहीं होता। महावीर तो गोशालक के विरोध में नहीं हो सकते। कर गए तो उसने कहा, बेटा! मक्खी ने कहा हाथी से, बेटा! लेकिन महावीर का माननेवाला अड़चन में पड़ा होगा। अगर हमने पुल को बुरी तरह हिला दिया। | महावीर सही हैं तो गोशालक गलत होना ही चाहिए। अगर हम तो मक्खी से भी छोटे हैं। इस विराट को जरा सोचो तो! गोशालक सही है तो महावीर गलत हो जाएंगे। इसमें हमारा होना न होना क्या फर्क रखता है? हमारे होने न होने अनुयायी की बुद्धि तो बड़ी छोटी होती है। वह दो विरोधों के से कितना फर्क पड़ता है! आदमी इस पृथ्वी के मुकाबले ही बहुत बीच किसी तरह का समन्वय नहीं देख पाता। महावीर के मार्ग छोटा है। पृथ्वी खुद भी बहुत छोटी है। सूरज साठ हजार गुना से भी आदमी पहुंचता है। गोशालक के मार्ग से भी पहुंच सकता बड़ा है। और सूरज खुद ही बहुत साधारण है। इससे बड़े-बड़े है। महावीर के मार्ग पर संकल्प का आखिरी उपाय करना होता 395 ___ 2010_03 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 जिन सूत्र भाग: 2 है। इस उपाय को करते-करते ही एक दिन संकल्प टूटकर गिर जाता है। अहंकार को निखारना पड़ता है; पवित्र करना पड़ता है । एक ऐसी घड़ी आती है पवित्र होते-होते ही, जैसे कपूर उड़ जाता है, ऐसा अहंकार उड़ जाता है। शुद्ध अहंकार कपूर की तरह उड़ जाता है। जैसे तुम रात दीया जलाते हो तो पहले दीये की ज्योति तेल को जलाती है। फिर तेल चुक जाता है तो बाती को जलाती है । फिर बाती भी चुक जाती है, तो फिर ज्योति भी बुझ जाती है । तो | ज्योति ने पहले तेल को जलाया, फिर बाती को जलाया, फिर जब सब जल गया तो खुद भी बच नहीं सकती। इतनी शुद्ध हो गई कि खो जाती है। महावीर के मार्ग पर अहंकार को शुद्ध करने की प्रक्रिया है । शरीर छूटेगा पहले, फिर मन छूटेगा। फिर एक दिन तुम पाओगे अचानक, तेल भी जल गया, बाती भी जल गई, फिर लपट जो रह गई थी, वह कोरे आकाश में खो गई। । शुद्ध हो - होकर अहंकार कपूर की भांति उड़ जाता है। गोशालक के मार्ग पर शुद्ध करने का कोई सवाल ही नहीं है शुद्ध करने की चेष्टा को गोशालक कहता है, व्यर्थ है । जो है ही नहीं, उसे शुद्ध क्या करना? इतना जान लेना काफी है कि नहीं है। अभी घट सकती है बात। तो जैनों को कठिनाई हुई । गोशालक ने बड़ा गहरा विवाद अनुयायियों के लिए खड़ा कर दिया होगा। इसलिए जैन बड़े नाराज हैं। और चूंकि गोशालक के कोई शास्त्र नहीं हैं, इसलिए और सुविधा हो गई। तुम ऐसा ही समझो कि अगर हिंदुओं के सब शास्त्र खो जाएं और कृष्ण के संबंध में सिर्फ जैनों के शास्त्र बचें तो कृष्ण के संबंध में क्या स्थिति बनेगी ? लोग क्या सोचेंगे? लोग सोचेंगे, आदमी महानारकीय रहा होगा, क्योंकि शास्त्र में लिखा है कि सातवें नर्क में गया। अगर बुद्ध के संबंध में बौद्धों के शास्त्र खो जाएं, सिर्फ हिंदुओं के शास्त्र बचें तो उन शास्त्रों से क्या पता चलेगा ? हिंदू शास्त्र कहते हैं कि परमात्मा ने नर्क बनाया। लेकिन सदियां बीत गईं, कोई पाप करे ही नहीं। नर्क कोई जाए ही नहीं। तो नर्क में बैठे थे जो पहरेदार, और व्यवस्थापक, और मैनेजर, वे थक गए। कोई आता ही नहीं! ऊब गए। उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की, यह 2010_03 नर्क बनाया किसलिए ? न कोई पाप करता, न कोई आता। हमें नाहक अटका रखा है। बंद करो यह दुकान। हमें छुट्टी दो या आदमी भेजो । तो परमात्मा ने कहा, . ठीक है घबड़ाओ मत। मैं जल्दी ही बुद्ध के रूप में अवतार लूंगा और लोगों के मन भ्रष्ट करूंगा। फिर उन्होंने बुद्ध की तरह अवतार लिया, लोगों को भ्रष्ट किया। लोग नर्क जाने लगे। अब तो नर्क में ऐसी भीड़ है कि वहां जगह ही नहीं बची। लोग क्यू लगाए खड़े हैं सदियों से। जगह नहीं मिल रही है अंदर जाने के लिए, इतना धक्कम - धुक्का है। यह सब बुद्ध की कृपा से हुआ ! हिंदू यह भी नहीं कह सके कि बुद्ध भगवान नहीं हैं। यह तो बड़ा झूठ होता। इतने बड़े सत्य को झुठलाना संभव न हुआ। तो मान लिया कि भगवान तो हैं, लेकिन आए हैं पाप करवाने, लोगों को भ्रष्ट करने। तो तरकीब समझे? तरकीब यह हुई कि बुद्ध को स्वीकार कर लिया कि हैं भगवान के रूप ही। दसवें अवतार हैं। और साथ में बात भी बता दी कि कोई इनकी मानना मत, नहीं तो नर्क जाओगे, बुद्ध-धर्म का अनुगमन मत करना। यह भगवान की एक शरारत है। यह भगवान की एक चालबाजी है। यह भगवान का एक षड्यंत्र है । हैं तो भगवत-रूप। जैनों ने भी कृष्ण को नर्क भेजा, सातवें नर्क में डाला। लेकिन थोड़ी बेचैनी लगी होगी। क्योंकि इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति, इतना महिमावान, ऐसा तेजोद्दीप्त! इसको नर्क में डालने में हाथ कंपा होगा। शास्त्र लिखनेवाले को भी डर लगा होगा। उसको भी लगा होगा कि यह थोड़ी ज्यादती हुई जा रही है। तो शास्त्रकारों ने जैन शास्त्रों में लिखा है कि अगली सृष्टि में, जब यह प्रलय होकर सब समाप्त हो जाएगा, फिर से सृष्टि का निर्माण होगा, कृष्ण पहले जैन तीर्थंकर होंगे। इससे राहत हो गई। इधर चांटा मारा, इधर पुचकार लिया। अगर विरोधी काही शास्त्र बचे तो निर्णय करना मुश्किल है। यही असुविधा है गोशालक के लिए। खुद का कोई शास्त्र नहीं है। खुद कुछ लिखा नहीं है। करने को ही जो नहीं मानता था, वह लिखे क्यों? कुछ बोलाचाला होगा। कुछ दिन तक लोगों को याद रही होगी, फिर बिसर गई । शास्त्रों में जहां उल्लेख है— या तो बौद्ध शास्त्रों में उल्लेख है । लेकिन बौद्ध शास्त्रों में सम्मानपूर्वक उल्लेख है । उसका Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थकर कारण भी स्पष्ट है। सब कारण राजनैतिक हैं। बौद्ध शास्त्रों में महावीर तो प्रतिष्ठित थे। तीस साल फासला था। इस प्रतिष्ठित सम्मानपूर्वक उल्लेख है, क्योंकि बौद्ध शास्त्रों का असली संघर्ष आदमी को झगड़े अपने समय के प्रतिष्ठित लोगों से रहे महावीर से है। | होंगे-बुद्ध तो अभी उठ ही रहे थे। बुद्ध की महिमा तो बाद में गोशालक तो मर चका। अब बद्ध और महावीर के बीच तीस सिद्ध हई. जब महावीर जा चके। साल का अंतर है। गोशालक महावीर से उम्र में बड़ा था। लेकिन एक बात सदा स्मरण रखना कि महावीर ने ऐसा कहा इसलिए जब महावीर जवान रहे होंगे और उनके विचार का हो, इसकी कम संभावना है। बुद्ध ने ऐसा मजाक उड़ाया हो प्रभाव फैल रहा होगा, उस समय तक गोशालक की प्रतिष्ठा हो महावीर का, इसकी भी कम संभावना है। ये तो अनुयायियों के चुकी थी। इसलिए महावीर का संघर्ष तो प्रतिष्ठित गोशालक से | द्वारा डाले गए शब्द हैं उनके मुंह में। और शास्त्र बहुत बाद में रहा। प्रतिष्ठित से संघर्ष होता है। | लिखे गए। महावीर ने एक शब्द भी बुद्ध के खिलाफ नहीं बोला। वे बूढ़े | बुद्ध के मरने के पांच सौ साल बाद शास्त्र लिखे गए। महावीर थे। जब बुद्ध की प्रतिष्ठा आनी शुरू हुई तब तक महावीर तो पूरी | के मरने के चार सौ साल बाद शास्त्र लिखे गए। चार सौ साल तरह लोकमान्य हो चुके थे। उन्होंने एक शब्द बुद्ध के खिलाफ | तक अनुयायियों के मस्तिष्क में रहे शास्त्र। उनकी स्मृति में रहे। नहीं बोला। लेकिन महावीर के अनुयायी उल्लेख करते | उन्होंने खूब कांट-छांट की होगी। हैं—ऐसा उल्लेख करते हैं कि गोशालक के संबंध में महावीर ने | जैनों का ही एक वर्ग-दिगंबर-मानता है कि सब जैन बड़ा विरोध किया है। शास्त्र झूठे हैं। क्योंकि चार सौ साल में सब गड़बड़ हो गया। बौद्ध ग्रंथों में महावीर का विरोध है। और निश्चित ही जब जिन्होंने याद रखा, उन्होंने अपना हिसाब जोड़ दिया। और ऐसा महावीर का विरोध है तो अपने शत्रु का शत्रु अपना मित्र हो जाता सच मालूम होता है। कुछ बातें महावीर की रह गई होंगी, कुछ है। तो गोशालक का सम्मानपूर्वक उल्लेख है। महावीर के जुड़ गई होंगी, कुछ छूट गई होंगी। संबंध में तो बहुत मजाक बौद्ध शास्त्रों में है। | इसलिए मैंने जब महावीर के सत्रों पर बोलना शरू किया तो मैं बौद्ध शास्त्र कहते हैं, एक हैं सर्वज्ञ—एक ही थे सर्वज्ञ का सभी सूत्रों पर नहीं बोल रहा हूं। मैंने वे सब सूत्र अलग कर दिए दावा करनेवाले—एक हैं सर्वज्ञ; वे कहते हैं, उन्हें तीनों काल हैं जो महावीर के योग्य नहीं हैं। छोड़ ही दिए मैंने। वे महावीर के का पता है। भविष्य, वर्तमान, अतीत, सब उन्हें मालूम है। लिए अयोग्य हैं। तीनों लोक उन्हें मालूम हैं, लेकिन ऐसी घड़ियां रही हैं कि सुबह | गोशालक को गाली महावीर ने दी हो, यह बात ही अशोभन के अंधेरे में कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ गया। जब कुत्ता भौंका तब है। इसलिए छोड़ ही दी, वह बात ही नहीं उठाई है। कोई कह सर्वज्ञ को पता चला कि अरे! यहां कुत्ता सो रहा है। तीनों लोक | सकता है कि मैं महावीर के साथ ज्यादती कर रहा हूं। सब सूत्रों के ज्ञाता हैं!' पर नहीं बोल रहा हूं। मैंने चुन लिए हैं। 'कभी ऐसा भी हुआ है कि ऐसे दरवाजे पर भीख मांगने खड़े लेकिन मैं कहता हूं, कि मैं ज्यादती नहीं कर रहा हूं। ज्यादती हो गए जहां कोई रहता ही नहीं। जब लोगों ने, पास-पड़ोसियों ने पहले बहुत हो चुकी। मैं गलत को छोड़े दे रहा हूं। जो मुझे कहा, यहां क्या खड़े हैं ? इस घर में कोई रहता नहीं; तब पता लगता है कि महावीर जैसी चेतना को उपलब्ध व्यक्ति के मुंह में चला। तीनों काल का ऐसे उन्हें पता है, और यह भी पता नहीं कि शोभा नहीं देगा, वह मैं छोड़ देता हूं। गोशालक के संबंध में जैन सामने घर में कोई रहता है कि नहीं रहता? वहां भीख मांगने | शास्त्र क्या कहते हैं, सुनकर तुम हैरान होओगे। जैन शास्त्र निंदा, गर्हित निंदा से भरे हैं। और निंदा भी सज्जन, सांस्कृतिक ऐसे बहुत मजाक बौद्ध शास्त्रों में महावीर के लिए हैं। लेकिन चेतना की नहीं है—अत्यंत ओछी, गंदी। गोशालक का कोई विरोध नहीं है। गोशालक का तो सम्मान से एक उल्लेख खयाल में रखने जैसा है। जैन शास्त्र कहते हैं कि उल्लेख है। जैन शास्त्रों में बुद्ध का कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जब गोशालक मरा तो मरते वक्त उसे समझ में आया कि मैंने 399 ___ 2010_03 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 बड़ी भूल की, जो तीर्थंकर महावीर का जीवनभर विरोध महावीर को सहानुभूति से देखो, बुद्ध को सहानुभूति से देखो, किया-मरते वक्त समझ में आया उसको कि मैंने जीवनभर जो | कृष्ण को सहानुभूति से देखो, क्योंकि और समझने का कोई तीर्थंकर महावीर का विरोध किया, बड़ी भूल की। पापी को उपाय नहीं है। वैसे ही कहता हूं, गोशालक को भी सहानुभूति से अपना पाप अनुभव हुआ, पश्चात्ताप हआ। देखो। नकारात्मक नहीं, विधायक दृष्टि से देखो। तो उसने क्या कहा? उसने अपने पास जो दो-चार-दस शिष्य विधायक दृष्टि का यह अर्थ हआ कि अगर मेरे किए कछ भी थे, दो-चार-दस! क्योंकि ज्यादा तो जैन मान नहीं सकते कि रहे | नहीं होता तो तुम्हारी चिंता कहां बचेगी? चिंता तो इसीलिए होंगे। दो-चार-दस जो शिष्य थे, उनसे कहा, सुनो, मैंने | उठती है कि मेरे किए कुछ हो सकता है। मैं कुछ करूंगा तो कुछ जीवनभर जो कहा, वह गलत था। महावीर जो कहते हैं, फर्क हो सकता है, इसलिए मन में तनाव पैदा होता है। इसलिए शत-प्रतिशत ठीक कहते हैं। वही तीर्थंकर हैं। मैं तो एक झठा, अशांति पैदा होती है, चिंता पैदा होती है। धोखेबाज आदमी था। खैर! मैं मर रहा हूं, लेकिन मेरी बात याद और कभी-कभी तुम्हारे मंतव्य में और जगत की गति में रखना। तुम सब अब महावीर के अनुयायी हो जाना। और मैंने कभी-कभी संयोगवशात मेल पड़ जाता है तो तुम अहंकार से जो पाप किया है जीवनभर में, उसके पश्चात्ताप के लिए तुमसे मैं भर जाते हो। कभी अधिक मौकों पर मेल नहीं पड़ता तो तुम दुख कहता हूं, कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी अर्थी मत निकालना, रास्ते और विषाद से भर जाते हो। पर मझे खींचना। मेरे ऊपर थंकना। कत्तों से मेरे ऊपर पेशाब। अगर गोशालक की बात सही है तो न दख का कोई क करवाना। और पूरे नगर में मेरी लाश को सड़क पर खींचते ले न सुख का कोई कारण है। जो होना था, हुआ है। जो हो रहा है, जाना, ताकि सारे देश को पता चला जाए कि गोशालक ने | वही होना है। जो होना है, वही होगा। तुम अपने आप शांत हो पश्चात्ताप कर लिया है। | जाते हो। न कोई तनाव, न कोई चिंता, न कोई दौड़, न कोई ये जैन शास्त्र इस तरह की बात करें, यह थोड़ा विचारणीय है। संघर्ष, न कोई अकड़, न कोई हार, न कोई जीत, न कोई विषाद, गोशालक जैसा व्यक्ति हमारे लिए खो गया है। अब जो न कोई संताप। उल्लेख रह गए हैं, वे विरोधियों के हैं। विरोधियों से कभी भी इस संतापशून्य अवस्था में जिसका तुम्हें अनुभव होगा, निर्णय मत लेना। एक बात पक्की है कि विरोधियों ने जो कहा है, | गोशालक उसी को ध्यान कहता है। वह करने की बात नहीं है; वह तो सही हो ही नहीं सकता। तो बड़ी छानबीन करके तुम्हें जब करना छूट जाता है, तब जो शेष रह जाता है वही ध्यान है। खोजना पड़ेगा। बौद्ध और जैन ग्रंथों में देखकर कुछ बातें जो लेकिन गोशालक ध्यान शब्द का भी उपयोग नहीं करता। साफ होती हैं, उनमें एक बात सबसे महत्वपूर्ण है, वह है: क्योंकि ध्यान शब्द से भी क्रिया का पता चलता है। हम कहते हैं, अकर्मण्यतावाद का सिद्धांत। ध्यान करने जा रहे हैं। गोशालक कहता है, करने से क्या 'प्राणियों में दुख का कोई हेतु नहीं है, न विशुद्धि का कोई हेतु | होगा? और तुमने अगर ध्यान किया होगा तो तुम्हें पता होगा। है। पुरुषार्थ और पराक्रम काम नहीं आते। नियति या भाग्य ही करने से क्या होता है? उछलो-कूदो, शोरगुल मचाओ, या सब कुछ है। जो हुआ, वह होना था। जो होना है, वह होगा। आंख बंद करके बैठो। करने से होता क्या है? हां, कभी-कभी जो हो रहा है, वही हो सकता है। सब कुछ नपा-तुला है। और | ऐसा होता है कि हो जाता है। हो सकता है कि करने के समय ही कर्म से, पाप या पुण्य से कोई भेद नहीं पड़ता है।' | कभी-कभी हो जाए। इसको अगर नकारात्मक दृष्टि से लें तो इसका अर्थ हुआ कि गोशालक कहता है, वह संयोग मात्र है। तुम अगर ध्यान न आदमी को अधार्मिक होने की बड़ी सुविधा दे दी। क्योंकि भी कर रहे होते तो उस वक्त होता। वह यह नहीं कह रहा है कि पाप-पुण्य से कोई फर्क नहीं पड़ता, तो करो जो करना है। तुम ध्यान मत करो। वह इतना ही कह रहा है, तुम्हारी दृष्टि करने लेकिन यह गोशालक को विरोधी की दृष्टि से देखना होगा। | से ऊपर उठे, होने पर जगे। और जिस व्यक्ति को करने का बोझ गोशालक को सहानुभूति से देखो। जैसा मैं तुमसे कहता हूं, उतर गया, जिसने सारी चिंता छोड़ दी अस्तित्व पर, उसका ध्यान 4001 2010_03 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गया। । । तो मुझे तो गोशालक उतना ही बहुमूल्य है, जितने महावीर गोशालक एक तीर्थंकर है। सहज-समाधि उसका योग है सहज-स्वीकार जीवन का उसकी साधना है। नकार नहीं, अस्वीकार नहीं, विरोध नहीं, दमन नहीं। जैसा जीवन आ जाए, उसे वैसा ही आलिंगन कर लेना स्वागत से। यही उसकी जीवन-दृष्टि है। अगर तुम गोशालक का विधायक रूप समझो तो कृष्णमूर्ति से बहुत मिलेगा, मेल खाएगा। लेकिन जैन तो उस विधायक रूप को नहीं समझ सकते थे। विरोधी का हम विधायक रूप देखते ही नहीं । विरोधी में तो हम बुरा - बुरा देखते हैं। अपने में भला-भला देखते हैं, विरोधी में बुरा-बुरा 'देखते हैं। जब तक हमारे मन में यह भाव है कि हमारी अपनी कोई दर्शन-परंपरा है, शास्त्र है, सिद्धांत है, तब तक हम सम्यक रूप से देख ही नहीं सकते। एक जैन मित्र राजस्थान से आए। तो मुझसे कहने लगे, एक जैन मुनि ने कहा, कहां जा रहे हो? वह आदमी तो गोशालक है । मैंने कहा, बात तो उन्होंने ठीक कही । मुझमें कोई खोजना चाहे तो गोशालक को बिलकुल खोज ले सकता है। मैंने उनसे कहा, बात तो उन्होंने ठीक कही । वे बेचारे बड़े परेशान थे। क्योंकि वे भी जैन हैं। और उनको लगा, यह तो बड़ी गाली हो गई। गोशालक कह दिया । मुझसे कहने लगे, आप कुछ कहेंगे नहीं? इसमें आप कोई वक्तव्य दें कि उन्होंने आपको गोशालक कहा। मैंने कहा, गलत तो कहा नहीं। ठीक ही कहते हैं। मुझमें कुछ गोशालक का हिस्सा है। मैं भी मानता हूं, आदमी के किए कुछ होता नहीं। अगर तुमसे करने को भी कहता हूं तो सिर्फ इसलिए कि कर-करके ही तुम जानोगे कि करने से कुछ नहीं होता। बिना कि शायद मन में कोई भाव रह जाए कि कर लेते तो शायद हो जाता । तो मैं कहता हूं, कर लो। करके देख लो। चलो, यह खुजलाहट है, यह भी कर लो। तो तुमसे कहता हूं, ध्यान करो, प्रार्थना करो, पूजा करो। बाकी करने से कभी कुछ हुआ नहीं। कर-करके ही एक दिन तुम्हें अचानक बुद्धि आएगी - अगर बुद्धि है तो जरूर एक दिन आएगी कि अरे! यह मैं क्या कर रहा हूं? मेरे किए तो कुछ भी 2010_03 गोशालक : एक अस्वीकृत तीर्थंकर नहीं होता। उस दिन तुम्हारे ऊपर सदज्ञान उतरा। उस दिन तुम्हारी समाधि पकी । उस दिन फसल काटने के दिन आए। जिस दिन तुमको लगा, मेरे किए भी नहीं होता, उस दिन समर्पण हुआ। अभी तो तुम समर्पण भी करते हो, तो कहते हो कि मैंने समर्पण किया। अब समर्पण भी कोई कर सकता है? अगर तुमने किया, तो समर्पण हुआ ही नहीं । तुम्हारी किए समर्पण होगा ? तो यह तुम्हारा कृत्य रहा । तुम्हारा कृत्य तो तुम किसी भी दिन वापस ले सकते हो। एक दिन तुमने कहा, समर्पण किया, दूसरे दिन तुमने कहा, अच्छा वापस लेते हैं । नहीं करते। तो कोई क्या करेगा ? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम आप पर समर्पण करते हैं। मैंने कहा, जब तक करते हो, तब तक तुम अपने पास ही रखो। क्योंकि यह की हुई चीज झंझट है। यह तो अमानत रही। किसी भी दिन तुम आ गए कि लाओ, वापस दो। हुआ जो किया गया है, वह लौटाना पड़ सकता है। लेकिन जो है, उसे तुम लौटा नहीं सकते। प्रेम होता है। तुम कहते हो, किसी से प्रेम हो गया । तुम्हारे करने जैसा कुछ भी नहीं है। इसलिए जीसस ठीक कहते हैं कि परमात्मा प्रेम जैसा है; होता है, किया नहीं जाता। ध्यान प्रेम जैसा है; होता है, किया नहीं जाता। लेकिन कर-करके जब तक थकोगे न, जब तक तुम ठीक से दौड़ाए न जाओगे, तब तक तुम विश्राम कर ही नहीं सकते। तुम जब थक जाओगे दौड़-दौड़कर, तुम्हारे पैर जब जवाब दे देंगे, तुम्हारा अहंकार जब खुद ही गिर जाएगा, थककर गिर जाएगा कि अब कुछ नहीं होता; तुम बैठ जाओगे, उसी घड़ी कुछ होगा। ऐसा ही बुद्ध को हुआ। शायद बौद्ध शास्त्रों में गोशालक का जो सम्मान से उल्लेख है, इसका एक कारण बुद्ध की समाधि भी रही होगी। क्योंकि बुद्ध ने छह साल तक ऐसा ही किया, जैसा महावीर ने बारह साल तक किया। सब तरह से चेष्टा की। फिर थक गए । कुछ पाया नहीं। तो छह साल के बाद ऊबकर, परेशान होकर छोड़ दिया । और जिस रात छोड़ा, उसी रात समाधि घटी। उसी रात बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। तो शायद गोशालक की बात बुद्ध को समझ में आती रही होगी, कि कहता तो यह आदमी ठीक है। हालांकि बड़ी खतरनाक बात है । अगर नकरात्मक रूप से लें तो बड़ी 401 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सत्र भाग: 2 BELS MSR5 TIMERNAM खतरनाक है। क्योंकि उसका मतलब होगा, तो फिर कुछ करने ऐसा कभी नहीं होता कि जो आदमी एक दफे जेल गया हो, वह की जरूरत नहीं। चोर चोरी करे। हत्यारा हत्या करे। बेईमान फिर न गया हो। वह जेल से बाहर आते से फिर वही कृत्य करता बेईमान रहे। शराबी शराब पीए। करने से तो कुछ होता नहीं। है। हां, अब पहले से ज्यादा कुशलता से करता है। तब तुमने गलत अर्थ ले लिया। शराबी से पूछो, कितनी बार तो मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं, ये तुम्हारे कारागृह लोगों को पाप छोड़ने की कोशिश नहीं कर चुका है। कहां छूटती? और | से रोकते नहीं हैं, पाप का शिक्षण देते हैं। ये विश्वविद्यालय हैं जिसकी छूट गई हो, उससे पूछो कि क्या तेरी कोशिश से छूटी? पाप के। और तुम सोचते हो दंड देने से कुछ होता है। कोड़े अगर वह ईमानदार आदमी हो तो कहेगा, कोशिश तो बहुत की, मारो, भूखा मारो, अंधेरी कोठरियों में बंद करो, इससे कुछ होता न छुटी। जब छूटनी थी, छूट गई। एक दिन ऐसा हुआ कि छूट है। तुम सोचते हो, शायद इससे रुकावट होगी। गई। वह जो कोशिश कर रहा है और थकता है और नहीं इंग्लैंड में ऐसा था सौ साल पहले तक कि जो भी चोर चोरी छूटती...अक्सर तो ऐसा होता है, कोशिश से और पकड़ती है। करता, उसको चौरस्ते पर खड़ा करके कोड़े मारते थे; ताकि पूरा जिसे तुम भुलाने की कोशिश करते हो, उसकी और याद आती गांव देख ले कि चोर की क्या हालत होती है। फिर उनको वह है? भुलाने में भी तो याद ही आती है। करोगे भी क्या? बंद करनी पड़ी प्रथा। क्योंकि पाया गया कि पूरा गांव इकट्ठा हो किसी को भुलाना चाहते हो, उतार देना चाहते हो मन से कि जाता और वहीं जेब कट जाती। एक आदमी को चोरी की वजह अब याद न आए, तकलीफ होती है, कांटा चुभता है याद का; न से कोड़े मारे जा रहे हैं, उसकी चमड़ी उधेड़ी जा रही है, आए याद। लेकिन जब भी तुम सोचते हो न आए याद, तभी तो लहूलुहान हो रहा है और भीड़ उत्सुकता से देख रही है। लोग याद कर ली। न याद करने में याद फिर हो गई। तो यह तो याद ऐसे तन्मय हो जाते देखने में।। बढ़ती चली जाएगी। हां, ऐसा कभी होता है एक दिन कि याद हिंसा जहां हो रही हो, वहां लोगों का बड़ा ध्यान लगता बिसर जाती है, नहीं आती। है—जिसको महावीर अधर्म ध्यान कहते हैं। एकदम लोग तत्पर गोशालक इतना ही कह रहा है कि जीवन में सब सहज हो रहा हो जाते हैं। जिनकी कभी एकाग्रता नहीं सधी, वह भी सध जाती है। यहां तुम चेष्टा को बीच में मत लाओ। है। उसी वक्त जेब कट जाती। और उसकी बात सही है। क्योंकि कितनी अदालतें हैं। कितने आखिर समझ में आया कि यह तो कोई सार नहीं। हम सोचते चोरों को दंड दिए गए, कौन-सी बदलाहट हुई है? चोर बढ़ते हैं, लोगों को शिक्षा मिलेगी। वहीं जेब काटनेवाले मौजूद हैं। वे गए, जैस-जैसे कानन बढ़े। तम कानुन बनाओ, चोर और | इस अवसर को भी नहीं चकते। वकील बढ़ते हैं और कुछ नहीं होता। ज्यादा कानून बनाओ, वह अपराध और दंड की अब तक की जो व्यवस्था रही है, वह और ज्यादा चोर, और ज्यादा वकील। कानून से कुछ रुकता तो बिलकुल व्यर्थ है। उससे हो सकता है, समाज को थोड़ा सुख नहीं। कारागृह बनाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता। मिल जाता हो कि जिसने हमारा नियम तोड़ा उसको हमने सता अब तो मनोवैज्ञानिक पश्चिम में कहने लगे हैं कि कारागृह लिया। हिंसा का थोड़ा मजा आ जाता हो। है तो मूढ़तापूर्ण। खतरनाक हैं, क्योंकि इनसे और चोर निष्णात होकर निकलते हैं। एक आदमी किसी की हत्या करता है, हम नए सिक्खड़ आते हैं, किसी ने किसी की जेब काट ली, पकड़ देते हैं। यह तो बड़े मजे की बात हुई। यही पाप उसने किया। गया। पहुंच गया जेल, छह महीने की सजा हो गई। वहां मिलते यही पाप हम करते हैं और हम कहते हैं, चूंकि तुमने किसी को हैं महागुरु। कोई बीस साल से काट रहे हैं, कोई पंद्रह साल से मारा इसीलिए हम तुम्हें मारेंगे। काट रहे हैं। छह महीने सत्संग हो जाता है। उस सत्संग में वह एक छोटे स्कूल में एक शिक्षक अपने बच्चों से पूछ रहा था कि और मजबूत होकर बाहर आ जाता है। वह सब सीखकर आ | तुम पशुओं को सताते तो नहीं? तुमने व जाता है कि पकड़ा क्यों गया। कहां भूल हो गई? कहां चूक हो सुरक्षा दी? करुणा की? एक लड़के ने हाथ हिलाया। उसने गई? अब कभी न होगी। कहा, हां, एक दफा। एक लड़का कुत्ते को मार रहा था तो मैंने 2010_03 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकः एक अस्वीकृत तीर्थकर उसकी ऐसी मरम्मत की लडके की। कत्ते पर तो दया हो गई। सकता है. गोशालक के साथ तो कोई आड न चलेगी। मगर वस्तुतः कुत्ते पर दया हुई? लड़के की मरम्मत कर दी तुम चकित होओगे जानकर कि महावीर नग्न रहे, गोशालक उसने। वह कुत्ते को मार रहा था, उसने लड़के की मारपीट कर भी नग्न रहा। गोशालक भी दिगंबर था। लेकिन महावीर की दी। अब वह सोच रहा है कि बड़ी करुणा हुई। नग्नता के पीछे कारण था कि जो भी सभ्यता, संस्कृति, संस्कार लेकिन तुम्हारी अदालतें भी यही कर रही हैं, कानून भी यही समाज ने दिया है उसका त्याग। उस सबको छोड़ देना है। कर रहा है। दंड किसी को अपराध से रोक नहीं पाया, न रोक संसार से जो मिला है वह सब छोड़ देना है। वस्त्र भी संसार से पाएगा। चेष्टा से कौन बदलता है? मिले हैं। वस्त्रों के साथ बहुत-सी बातें जुड़ी हैं। वे सब छोड़ तुम कभी अपने जीवन पर विचार तो करो। चालीस-पचास देनी हैं। आदमी को भीतर जाना है, बाहर का सब छोड़ देना है। साल तुम जी लिए हो दुनिया में। कितनी चेष्टा तुमने की है, कोई शरीर ही छोड़ देना है तो वस्त्र तो और भी शरीर के बाहर हैं। बदलाहट हुई है या कि तुम ठीक वैसे के वैसे हो? तब तुम्हें अंतर्मुखी होना है। गोशालक की अंतर्दृष्टि समझ में आएगी। लेकिन इस बदलने । गोशालक भी नग्न था। गोशालक के नग्न होने का कारण की चेष्टा में तुमने चिंता बहुत उठाई, तनाव बहुत झेला। और बिलकुल दूसरा था। वह कहता था नग्न ही आए हैं, नग्न ही गोशालक कहता है, हो सकता है उसी चिंता और तनाव के जाना होगा। तो बीच में यह कपड़ों का उपद्रव क्यों? कारण तुम इतने ज्यादा व्यस्त रहे अपने को बदलने में, कि अगर क्यों? बच्चे जब पैदा हुए थे तो नग्न थे। तो ठीक है, वही विश्व की ऊर्जा तुम्हें बदलने भी आयी होगी तो लौट गई होगी। स्वीकार है। तुम ग्राहक न रहे होओगे। महावीर की नग्नता में अनुशासन मालूम होता है, गोशालक छोड़ो चिंता। छोड़ो अस्तित्व पर। जैसा होता है, उसे चुपचाप | की नग्नता में सहजता मालूम होती है। अगर तुम्हें महावीर नग्न होने दो। तुम एक दफा प्रयोग करके देखो गोशालक का भी। मिल जाएं तो तुम नमस्कार करोगे। क्योंकि महावीर की नग्नता महावीर, बुद्ध और कृष्ण और पतंजलि तो दुनिया में स्वीकृत में योग मालूम होगा, साधना मालूम होगी, तपश्चर्या मालूम तीर्थंकर हैं। गोशालक अस्वीकृत तीर्थंकर है। लेकिन स्वीकृत होगी। गोशालक नग्न मिल जाए तो तुम कहोगे, हिप्पी है। तीर्थंकारों से दुनिया कुछ अच्छी हुई, ऐसा मालूम पड़ता नहीं। क्योंकि गोशालक कहता है, नग्न आए हैं, नग्न जाएंगे। इसलिए कभी-कभी मैं सोचता हूं, जो अस्वीकार हो गए हैं उन | गोशालक यह भी नहीं कहता, इसमें कुछ गौरव है नग्न होने पर भी ध्यान देना जरूरी है। हो सकता है, उनके पास कुछ कुंजी में। वह कहता है तुम्हें कपड़े पहनना ठीक लगता है, चलो हो। जिन्हें हमने स्वीकार किया है, हो सकता है हमने उन्हें ठीक। हमें नंगा रहना ठीक लगता है, यही ठीक। हमें हम रहने इसीलिए स्वीकार किया कि हमारे रोग से उनका कुछ तालमेल | दो, तुम तुम रहो। हम तुम्हें आदेश नहीं देते, तुम कृपा करके हमें बैठता था। हमारा रोग है, कर्ता होने का रोग। आदेश मत दो। महावीर कहते हैं, करो ध्यान, करो तप। जंचती है बात। गोशालक इतना ही कहता है, प्रत्येक अपनी प्रकृति के गोशालक कहता है करने से क्या होगा? बात जंचती नहीं। अनुकूल चले, सहज रहे। महावीर जब कहते हैं करो । करो, तो तम्हें ऐसा लगता है, हां, अपने गोशालक न तो स्वर्ग की बात करता है, न नर्क की। बल में कुछ है, अपने बस में कुछ है। गोशालक ने बड़ा मजाक किया है। पूरा सिद्धांत तो उल्लिखित गोशालक कहता है, किसी के बस में कुछ नहीं। तुम चाहते नहीं है कहीं, लेकिन महावीर कहते हैं, सात नर्क हैं। गोशालक हो, यह आदमी चुप रहे। यह न बोले। क्योंकि यह तुम्हारी से कोई पूछता है, कितने नर्क हैं? वह कहता है, सात सौ। वह असलियत खोल रहा है। यह तुम्हारी दीनता जाहिर कर रहा है। सिर्फ मजाक कर रहा है। वह यह नहीं कह रहा कि सात सौ हैं। महावीर के साथ तो अहंकार बच सकता है, गोशालक के साथ वह यह कह रहा है, पागल हुए हो? न कोई नर्क है, न कोई स्वर्ग | कैसे बचाओगे? महावीर के साथ तो धर्म की आड़ में बच है। बस तुम हो और तुम्हारा चैतन्य है। बाकी सब सिद्धांतों के | 1403 2010_03 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 जिन सूत्र भाग: 2 जाल हैं। वाइजे - सादालोह से कह दो, छोड़ उकबा की बातें इस दुनिया में क्या रक्खा है, उस दुनिया में क्या होगा? वह भोले-भाले धर्मगुरु से कह दो कि छोड़ परलोक की बातें । इस दुनिया ही में कुछ नहीं रक्खा है तो उस दुनिया में क्या होनेवाला है? वाइजे- सादालोह से कह दो, छोड़ उकबा की बातें इस दुनिया में क्या रखा है, उस दुनिया में क्या होगा ? अक्सर जो तुम्हें बताते हैं, उस दुनिया में बहुत कुछ रक्खा है, वे तुम्हें प्रभावित करते हैं क्योंकि तुम्हारे लोभ को जगाते हैं । वे कहते हैं, यहां तो कुछ नहीं है लेकिन वहां है। क्या बाहर भटक रहे हो ? क्या कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर रहे हो ? क्या ठीकरे जोड़ रहे हो? कामिनी- कांचन में कुछ भी नहीं; लेकिन वहां है स्वर्ग में। वे तुम्हारे लोभ को जगाते हैं, तुम्हारे भय को जगाते हैं। वे तुम्हारी बीमारियों को उकसाते हैं। गोशालक जैसे व्यक्ति न तुम्हारे लोभ को उकसाते हैं, न तुम्हारे भय को उकसाते हैं। वे तुम्हें केवल तुम हो जाओ स्वयं, सहज, प्रकृति के साथ चलने लगो, निसर्ग तुम्हारी व्यवस्था हो जाए, इतनी बात कहते हैं। इसलिए बहुत संप्रदाय बन नहीं सकते। तकदीर कुछ ही, काविसे-तदबीर भी तो है तरी के लिबास में तामीर भी तो है जुलमात के हिजाब में तनवीर भी तो है आ मुंतजिर-ए-इस्रते - फर्दे इधर भी आ तकदीर कुछ ही, काविसे- तदबीर भी तो है किस्मत तो थोड़ी है; ज्यादा तो पुरुषार्थ है। तखरीब के लिबास में तामीर भी तो है और विनाश तो है, लेकिन उसमें छिपा निर्माण भी तो है । जुलमात के हिजाब में तनवीर भी तो है अंधेरा है माना, लेकिन बड़ा प्रकाश है। सुबह जल्दी करीब आ रही है। जगत में दुख है माना, लेकिन स्वर्ग में बड़ा सुख भी है। आ मुंतजिर-ए-इस्रते - फर्दे इधर भी आ ओ आगामी कल के सुख ! मेरी तरफ भी दृष्टि दे। आदमी ऐसे जीता है - लोलुपता में, भरोसे में, आशा में। गोशालक जैसे तीर्थंकरों के पास आशा का कोई उपाय नहीं। गोशालक तुम्हें ठीक जैसा है, वैसा ही कह देता है । तुम्हें जरा भी 2010_03 सांत्वना नहीं देता । तुम पूछो आत्मा अमर है ? वह कहेगा, जब तक मरे नहीं, पता कैसे चले ? जब मैं मर जाऊं तब पूछना। अभी तो मैं जिंदा हूं। या तुम मरोगे तब जान लेना। अभी पहले से जानकर भी क्या होगा? और पहले जानने का उपाय भी कहां है ? जानने के पहले जानने का उपाय कहां है? अभी तो जी लो, फिर मौत भी आएगी, देख लेना। होगी अमरता तो मिल जाएगी, न होगी तो नहीं मिलेगी। इसकी चिंता भी क्या करना ? गोशालक ने खूब झकझोर दिया होगा भारत को । इसीलिए जैन शास्त्र बड़े परेशान रहे हैं। उसने सारे सिद्धांतों की बुनियाद उखाड़ दी होगी। उसने आदमी को इतना नैसर्गिक बनने का संदेश दिया कि सिद्धांत, धर्म और शास्त्र और परंपरा का कोई उपाय नहीं रह गया। मैं एक गीत पढ़ता था : हवा हूं हवा मैं वासंती हवा हूं चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया गिरी धम्म से फिर चढ़ी आम ऊपर उसे भी झकोरा किया कान में कू उतरकर भगी मैं हरे खेत पहुंची वहां गेहुंओं में लहर खूब मारी पहर दोपहर क्या अनेकों पहर तक ऐसे व्यक्ति - गोशालक जैसे व्यक्ति – तेज आंधी की तरह आते हैं। हवा हूं हवा मैं वासंती हवा हूं चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया वे आदमी की चेतना को खूब थपथपाते हैं, झकझोर देते हैं। गिरी धम्म से फिर चढ़ी आम ऊपर उसे भी झकोरा किया कान में कू उतरकर भगी मैं हरे खेत पहुंची वहां गेहुओं में लहर खूब मारी पहर दोपहर क्या अनेकों पहर तक ऐसे व्यक्ति धूल-धवांस झाड़ जाते हैं चेतना की । ऐसे व्यक्ति संप्रदाय निर्मित नहीं करते। ऐसे व्यक्तियों का धर्म बड़ा शुद्ध है। ऐसे व्यक्ति ऐसे हैं, जैसे शुद्ध सोना । आभूषण बनाने हों तो कुछ मिलाना पड़ता है सोने में। चौबीस कैरेट सोने के आभूषण नहीं Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर बनते। फिर बीस कैरेट, अठारह कैरेट-कुछ मिलाना पड़ता किए जा सकते हैं। है-तांबा, कुछ और। नहीं तो सोना बहुत नर्म है। जैसे-जैसे लेकिन मैं उनसे कहता हूं, मोक्ष इतना सस्ता नहीं है कि पानी | संप्रदाय बनता है, सोने के आभूषण बनते हैं, वैसे-वैसे अशुद्धि छानने से मिल जाए। मोक्ष इतना सस्ता नहीं है, यह शुभ है। मिलती है। जितना व्यवस्थित संप्रदाय बनता है, उतना ही विकृत नहीं तो जितने लोग पानी छानकर पी रहे हैं, ये मोक्ष में रहेंगे। संप्रदाय हो जाता है। | तुम थोड़ा सोचो। उस मोक्ष में तुम रहना पसंद करोगे, जहां सब जैन संप्रदाय बहुत व्यवस्थित है। छोटा है, लेकिन बहुत पानी छाननेवाले पहुंच गए ? वह बड़ा बेरौनक होगा। वह बड़ा नियोजित है, व्यवस्थित है। एक-एक रेखा साफ है, सीमा पर | उदास होगा। वहां कोई जीवन का उल्लास, आनंद न होगा। बंधी है। द्वार, दरवाजे, आंगन, बागुड़, सब साफ है। जैन | गोशालक बहुत मस्त आदमी था। मस्त फकीर! संप्रदाय गणित जैसा सुस्पष्ट है। और गोशालक जैसे व्यक्ति | नाचता-गाता आदमी था। जैन शास्त्रों में इसलिए भी बड़ा काव्य जैसे हैं-अस्पष्ट, धुंधले, रहस्यपूर्ण। | विरोध है। क्योंकि कभी-कभी ऐसा हो जाता कि गोशालक के फिर हम यहां रास्ता खोज रहे हैं। हम चाहते हैं कोई रास्ता बता | पास महफिल जमी है, नाच रहे लोग। एक गांव में वेश्या ने दे। हमें रास्ता पता नहीं है। गोशालक रास्ते पर मिल जाए तो निमंत्रण दे दिया, और गोशालक वहीं चला गया नाचते हुए। वह कहता है, रास्ता है ही नहीं। क्या खोज रहे हो? इससे हमें अब जैन शास्त्रों में उसका विरोध होना स्वाभाविक है। चैन नहीं होता। हम कहते हैं हटो। हमें रास्ता पूछना है। हम कहते हैं वह मरा-जैन शास्त्र कहते हैं तो एक वेश्या के बेचैन हैं बिना रास्ते के। हम चाहते हैं, जीवन का लक्ष्य क्या है? घर ही टिका हआ था। पता नहीं, यह सच हो या न हो। क्योंकि गोशालक मिल जाए, वह कहता है कोई लक्ष्य है ही नहीं। जैन शास्त्रों की बात मानने का कोई भी कारण नहीं है। मगर यह अलक्ष्य जीवन चल रहा है। कहीं पहुंचना थोड़े ही है! हो भी सकता है। क्योंकि गोशालक जैसे व्यक्ति को पापी में जीवन नृत्य जैसा है, यात्रा जैसा नहीं। इसमें कोई अंतिम और पुण्यात्मा में कोई फर्क नहीं है। गोशालक जैसे व्यक्ति को पड़ाव नहीं है। ही है। हां, बीच में बहुत पड़ाव हैं, वे विश्राम के लिए वेश्या में भी वही परमात्मा नजर आता है-वही शुद्ध, जो हैं। सुबह उठे फिर चल पड़ना है। यह अनंत यात्रा है। पुण्यात्मा में है; कोई भेद नहीं है। मगर इससे हमारे मन में भरोसा नहीं आता। कोई चाहिए, जो भेद ओछी दृष्टियों के हैं। भेद नासमझों के हैं। गोशालक हमें बता दे स्पष्ट कि कहां हम जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? तो निश्चित अभेद में रहा होगा। परमहंस था। निश्चितता हो जाए, भय मिटे। हिसाब बैठ जाए। तो हम क्या करें और क्या न करें। तो क्या करने से रास्ते पर रहेंगे और क्या | दूसरा प्रश्नः महावीर अशरण का उपदेश देते थे और शिष्य करने से रास्ते से बिछुड़ जाएंगे! भी बनाते थे। क्या ये दोनों बातें परस्पर-विरोधी नहीं हैं? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप कुछ मर्यादा क्यों नहीं देते? साफ-साफ अनुशासन क्यों नहीं देते? आप हमें दिखती विरोधी हैं; हैं नहीं। और इस जगत में जो भी सत्पुरुष ठीक-ठीक बता दें क्या हम करें और क्या हम न करें? बस, हुए हैं, वे हमेशा विरोधाभासी दिखाई पड़ेंगे। जीवन फिर हम निपट लेंगे। मगर आप कुछ कहें तो! साफ-साफ सूत्र विरोधाभासी है। तो जो भी इस जीवन को झलकाएगा इसकी | सचाई में, वह भी विरोधाभासी होगा। वे मुझसे चाहते हैं कि मैं उन्हें आश्वासन दे दूं कि इतनी बातें सिर्फ पंडित विरोधाभासी नहीं होते। ज्ञानी सदा विरोधाभासी तुम पूरी करते रहोगे, पानी छानकर पीओगे तो मोक्ष निश्चित है। होंगे। क्योंकि ज्ञानी छांटता नहीं। वह जिंदगी पर कोई ढांचा नहीं मांसाहार न करोगे, मोक्ष निश्चित है। खेती-बाड़ी न करोगे, रोकता। उसके लिए जिंदगी जैसी है, स्वीकार है। वह सिर्फ मोक्ष निश्चित है। तो फिर वे इतने काम करना शुरू कर दें। ये जिंदगी को झलका देता है। फिर जो भी जिंदगी में है, वह सब काम बंद कर दें। यह कोई बहुत कठिन तो नहीं है। ये काम बंद उसमें झलक जाता है। वह दर्पण का काम करता है। 405 ___ 2010_03 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 जिन सूत्र भाग: 2 अब यह बात महावीर कहते हैं, अशरण। किसी की शरण मत जाओ। लेकिन महावीर के पास शिष्य आते हैं। शिष्य कहते हैं, 'सिद्धे शरणं पवज्झामि ।' हे सिद्ध पुरुष ! हम तुम्हारी शरण आते हैं। 'अरिहंते शरणं पवज्झामि ।' हे पहुंचे हुए पुरुष ! हम तुम्हारी शरण आते हैं। महावीर इनको स्वीकार भी करते हैं। तब तो बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। महावीर कहते हैं अशरण ! और ये शरण आनेवाले लोग भी स्वीकार हो जाते हैं। इनकी भी महावीर दीक्षा करते हैं । इनको संन्यस्त करते हैं। इनको सत्य के मार्ग का इंगित करते हैं। । तो विरोध दिखाई पड़ता है, लेकिन सिर्फ दिखाई पड़ता है जब महावीर शिष्य बनाते हैं तो वे इतना ही कह रहे हैं कि मैं तुमसे जरा ऊंचाई पर खड़ा हूं। तुम वृक्ष के नीचे हो, मैं वृक्ष पर खड़ा हूं। यहां से मुझे जरा दूर तक दिखाई पड़ता है। जैसे मैं इस वृक्ष पर चढ़ आया हूं, उतने दूर तक तुम मेरे सूचन का उपयोग कर सकते हो। तुम भी इस वृक्ष पर चढ़ आ सकते हो। तुम रास्ते पर किसी से पूछते हो, नदी का रास्ता कहां है? कोई आदमी बता देता है, तो क्या तुम्हारा गुरु हो गया ? क्या तुम उसकी शरणागति हो गए? तुम उसे धन्यवाद देकर नदी की तरफ चले जाते हो। तुम ऐसा थोड़े ही, कि उसके चरण पकड़ लेते हो कि अब मैं तुम्हें कभी भी न छोडूंगा महाराज ! क्योंकि आपने नदी का रास्ता बताया। वह कहेगा, अगर नदी का रास्ता बताया तो कोई गलती तो नहीं की। जाओ नदी । नदी का रास्ता पूछने में तो हम ऐसी भूल नहीं करते, लेकिन परमात्मा का रास्ता पूछने में अक्सर ऐसी भूल करते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, सुन लो, समझ लो, मैं जो कहता हूं उसे गुन लो। फिर पकड़ो अपनी गैल । जाओ अपनी डगर पर। फिर मेरे पैर पकड़कर मत रुको। मैंने कोई कसूर तो किया नहीं। मुझे क्यों सताते हो? जाओ। जितना मैं जानता हूं, कह दिया। इसका कुछ उपयोग करना हो, कर लो। तो एक तरफ महावीर कहते हैं, अशरण । क्योंकि वे जानते हैं, आदमी बड़ा पागल है। आदमी ऐसा पागल है कि मील के पत्थरों को पकड़कर रुक जाता है। हालांकि मील के पत्थर पर लगा है तीर, कि चलो आगे । जाओ आगे। दिल्ली बहुत दूर है। मगर वह पत्थर 2010_03 पकड़कर छाती से लगाकर बैठा है कि मिल गई दिल्ली। दिल्ली लिखा है पत्थर पर। हालांकि लिखा है, हजार मील दूर कि दो हजार मील दूर । वह उसकी फिकर नहीं कर रहा है। तुम कभी मील के पत्थर के पास बैठकर यह नहीं कहते कि बड़ा विरोधाभास है, दिल्ली लिखा है और दो हजार मील भी लिखा है ! दिल्ली है तो ठीक, पत्थर ठीक। अगर दो हजार मील तो यहां दिल्ली क्यों लिखते हो ? फिर दो हजार मील वहीं लिखना दिल्ली । महावीर कहते हैं, शिष्य बनना एक बात है, शरण जाना दूसरी बात है। शिष्य बनने का अर्थ इतना है, कोई पहुंचा, किसी ने जाना, कोई जागा, उसका लाभ ले लो। कोई बहुत भटका, तब उसे मार्ग मिल गया, तुम उससे थोड़ा समझ लो । मगर रहना अपने पैरों पर । झुको उसके सामने, जो जानता है। लेकिन झुक इसीलिए कि उठकर चलना है। झुके ही मत रह जाना कि फिर पैर पकड़ लिए तो छोड़ेंगे नहीं । तो तुम तो चल ही न पाओगे, तुम किसी चलनेवाले को भी रोक लोगे। शिष्य गुरुओं के द्वारा पहुंचते हैं कि नहीं पता नहीं, बहुत से गुरुओं को डुबाते हैं यह पक्का है। इतने जोर से पकड़ लेते हैं कि न तो खुद जाते हैं, न उसे जाने देते हैं। तो महावीर कहते हैं कि जाग्रत पुरुष से सीखो। वह वृक्ष पर बैठा है, उसे दूर का दृश्य दिखाई पड़ता है । तुम नीचे खड़े हो अंधेरे में, घाटी में। वह पर्वत के शिखर पर खड़ा है। उसकी दृष्टि का विस्तार बड़ा है। उसकी सुन लो, समझ लो । सोचो, विचार कर लो। तुम्हारी बुद्धि उससे राजी हो जाए, तुम्हारा हृदय उसके साथ धड़के, तो फिर चलो। लेकिन ध्यान रखना, चलना तुम्हें ही होगा। इसीलिए कहते हैं, अशरण। किसी और के पैर से तुम न चल सकोगे। चलना तुम्हें ही होगा इस बात पर बार-बार जोर देने के लिए कहते हैं कि मार्ग कोई भी बता दे, नक्शा कोई भी तुम्हें दे चलना तुम्हें ही पड़ेगा। हम साधारण जीवन में सदा सहारा मांगते रहते हैं । कोई पति का सहारा, पत्नी का सहारा, बाप का, बेटे का सहारा, मित्र का सहारा । सहारे के हम आदी हो गए हैं। हम बैसाखियों पर ही चलने के आदी हो गए हैं। तो जब हम धर्म के जीवन में प्रवेश करते हैं, पुरानी आदत कहती है, सहारा! कोई गुरु का सहारा । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गोशालक: एक अस्वीकृत तीर्थकर पर हाय यह सहारे की सतत खोज तुम्हें आत्मवान न बनने देगी। तुम | दिखाई पड़ता है उससे आशा ले लो, उससे श्रद्धा ले लो; लेकिन अपने सहारे कब बनोगे? अपने पैर कब खड़े होओगे? अपनी उसके कारण थककर बैठ मत जाना। यह मत कहना, अब मुझे आंखों से कब देखोगे? अपने कानों से कब सुनोगे? यह सहारे क्या करना! तारा तो है। यह मत कहना महावीर से कि तीर्थंकर की खोज तो तुम्हें पंगु बना दी है। | तो तुम हो, अब मुझे क्या करना ! तुम तो पहुंच गए, अब तुम ही छोटे बच्चे की मां चलाती है। हाथ पकड़कर चलाती है। | मुझे पहुंचा दोगे। लेकिन यह कोई सदा के लिए इंतजाम नहीं है। यह कोई स्थिर | इसलिए महावीर कहते हैं, शरण मत खोजना। शरण खोजने व्यवस्था नहीं है। हाथ पकड़कर चलाती है ताकि उसे भरोसा आ के कारण धर्म भ्रष्ट हआ। जाए कि वह चल सकता है। फिर तो बच्चा खुद ही हाथ छुड़ाने ये जो दुनिया में इतने मंदिर, मस्जिद, इतने गुरुद्वारे, इतनी लगता है। कलह दिखाई पड़ती है, यह शरण की कलह है। तुमने देखो? बच्चा खुद ही कहता है, मत पकड़ो मेरा हाथ। न्याय के हे देवता! कब सिखाओगे मनुष्यों को और जो मां बच्चे के हाथ को जोर से पकड़ती है, वह मां नहीं है। कि आप अपनी वे रक्षा करें और जो बच्चा, जब चलना भी सीख गया तब भी मां का पल्लू त्राण वैसे तो उन्हें हैं मिले लाखों बार पकड़े रहता है, वह कभी प्रौढ़ न हो पाएगा। पर हर बार त्राता ने उन्हें बेच डाला है तो विरोध दिखता है। मां एक दिन कहती है, मेरा हाथ पकड़, न्याय के हे देवता! रोक रक्खो रक्षकों को स्वर्ग में चल। फिर धीरे-धीरे हाथ को सरकाती जाती है। फिर हाथ को | देव, त्राता मानवों का और मत भेजो अलग कर लेती है। फिर बच्चा पकड़ना भी चाहे तो वह दूर हो लोग रोते, त्राण तो हम पा गए जाती है। वह कहती है, अब तू चल। थोड़ी दूर खड़ी हो जाती है खों मर रहे जाकर; कहती है, आ। बच्चा उसकी तरफ आना शुरू करता और वह कहताः । है। एक दफा बच्चे को भरोसा आ जाए कि मेरे पास पैर हैं, मेरे बहुत-सी पक रही हैं कल्पना की पूड़ियां पैर हैं, तो प्रौढ़ता आनी शुरू होती है। मेरे पिता के गेह में सत्य के जगत में भी ऐसा ही है। गुरु थोड़ी दूर तक हाथ | धीरज धरो, फिर पेट भर खाना पकड़कर चला देता है। क्योंकि तुम जन्मों से चले नहीं। तुम लोग कहते भूल ही गए कि तुम्हारे पास पैर हैं। तुम जन्मों से उड़े नहीं, भूल | एक टुकड़ा दे सकते नहीं हमें सामान्य रोटी का ही गए कि तुम्हारे पास पंख हैं। थोड़ी देर उड़ा देता है, थोड़े | हुक्म वह देताः आकाश में तम्हें पंखों का थोड़ा खयाल आ जाता है। फिर तमसे नहीं, बैकुंठ चलकर ही तुम्हें भोजन मिलेगा कहता है, जाओ। दूर अनंत आकाश है, उड़ो। वह पूरा आकाश और वह सामान्य क्यों? तुम्हारा है। दावा करो। अदभुत, अमूल्य, अपूर्व होगा मैंने सोचा था कि दुश्वार है मंजिल अपनी न्याय के हे देवता! कब सिखाओगे मनुष्यों को एक हंसी बाजू-ए-सीमी का सहारा भी तो है कि आप अपनी रक्षा वे स्वयं करे दश्ते-जुल्मात से आखिर को गुजरना है मुझे ...कि अपनी आप वे रक्षा करें। कोई रुखशंदा और ताबीदा सितारा भी तो है महावीर त्राता हैं, लेकिन त्राण के आधार पर तुम्हारे प्राणों को पहले ठीक है। शुरू-शुरू चलते हैं तो किसी रजत बांह का | नष्ट नहीं करना चाहते। सभी सदगुरु यही कहेंगे। सहारा हो, अच्छा। कोई चमकता हुआ सितारा हो, अच्छा। झुको जरूर। झुके बिना कोई सीखता नहीं। दश्ते-जुल्मात से आखिर को गुजरना है मुझे शिष्य बनो जरूर। विनम्र हुए बिना कोई सीखता नहीं। लेकिन अंततः तो अंधेरे से खुद ही गुजरना है। वह दूर जो तारा फैलाओ झोली, लेकिन अपने पैरों का भरोसा मत खो देना। 407 2010_03 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 जिन सूत्र भाग: 2 ऐसा मत सोचना कि बस, त्राता के पैर पकड़ लिए तो त्राण हो सहारे की आकांक्षा थी, वह नहीं मिल रहा है। असहायता नकारात्मक है। अशरणता विधायक है। इसे ऐसा समझो, जैसा मैं निरंतर कहता हूं। एक आदमी अपने कमरे में अकेला बैठा है, अकेलापन अनुभव कर रहा है। अकेलेपन का अर्थ हुआ कि वह चाहता है कोई साथ होता । किसी की याद आ रही है। किसी की मौजूदगी चाहिए। किसी की मौजूदगी नहीं है, अनुपस्थिति खल रही है, तो अकेलापन, लोनलीनेस | गया। ऐसा ईसाइयत मानती है कि जीसस ने सबके पाप हल कर दिए । अब इससे बड़ा झूठ भी कोई हो सकता है ? जीसस को गए दो हजार साल हो गए। अगर जीसस ने सभी के पाप समाप्त कर दिए तो दो हजार साल से फिर क्या हो रहा है दुनिया में? पाप नहीं हो रहे? इन दो हजार सालों में जितने पाप हुए हैं, उतने शायद ईसा के पहले कभी भी न हुए हों। ये दो हजार साल आदमी के दुख, पीड़ा, घावों के, पाप के, घृणा के, हिंसा के, युद्धों के साल हैं। आदमी खूंखार से खूंखार होता चला गया। और ईसाइयत फिर भी दोहराए चली जाती है कि ईसा ने सबको मुक्त कर दिया। यह बड़ी झूठी बात है। मगर इस झूठ के पीछे तर्क है। आदम ने पाप किया था सबके लिए, उसकी वजह से सब पापी हो गए थे! अब कोई किसी दूसरे के पाप से कैसे पापी हो सकता है ? तो जब आदम ने पाप किया, सब पापी हो गए। जीसस ने सभी के लिए पुण्य कर दिया, सब पुण्यात्मा हो गए। अब इतना ही जरूरी है हर आदमी को कि वह ईसाई हो जाए, बस पर्याप्त । यह बड़ी सस्ती बात हो गई। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण मत गहना । चरण छू लेना लेकिन शरण मत गहना । झुकना, शिष्य बनना, दीक्षित होना, सीखना, लेकिन यात्रा तुम्हीं को करनी पड़ेगी । तुम त्राता को त्राण मत समझ लेना । त्राता से सिर्फ इशारे मिलते हैं। चलना पड़ेगा। शास्त्र को सत्य मत समझ लेना और शास्ता को मंजिल मत समझ लेना । इसलिए विरोधी बात कहते मालूम पड़ते हैं। एक तरफ दीक्षा देते हैं, एक तरफ कहते हैं अशरण रहो। आखिरी प्रश्न : अशरण होने और असहाय होने के भावों में क्या भेद है? और क्या दोनों के बीच कुछ समानता भी है ? समानता भी है, भेद भी है। अशरण होने का अर्थ होता है, अपने पैरों पर खड़े होना। असहाय होने का अर्थ होता है, दूसरों के पैरों की आशा थी, वह छूट गई, लेकिन अपने पैरों पर खड़े होने का बल नहीं आया। असहाय होने का अर्थ होता है, अभी 2010_03 और फिर एक आदमी ध्यान में मग्न अकेला बैठा है, उसको अकेलापन नहीं कह सकते - एकांत, अलोननेस । उसे किसी की याद नहीं आ रही है, वह अपनी ही पुलक से भरा है, अपने ही आनंद में लवलीन डूबा है। दोनों अकेले हैं बाहर से देखने पर। लेकिन एक पर की याद से भरा है और एक स्वयं की स्मृति में जगा है। दोनों बड़े भिन्न हैं । ऐसा ही अशरण और असहाय । असहाय का अर्थ है, सहारे की जरूरत है, सहारे की आदत है; और सहारा नहीं मिल रहा है। तो आदमी असहाय मालूम पड़ रहा है। अब डूबा, तब डूबा। क्या करूं, क्या न करूं ? कहां जाऊं ? रास्ते में रुक के दम ले लूं, मेरी आदत नहीं लौटकर वापस चला जाऊं, मेरी फितरत नहीं और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं ऐ गमे-दिल क्या करूं ? ऐ वहशते-दिल क्या करूं? दिल में एक शोला भड़क उठा है आखिर क्या करूं? मेरा पैमाना छलक उठा है आखिर क्या करूं? जख्म सीने में महक उठा है आखिर क्या करूं? ऐ गमे-दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल क्या करूं लौटकर वापिस चला जाऊं मेरी फितरत नहीं रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं लौटकर जा नहीं सकता; जाने का उपाय नहीं । रुक जाऊं, ऐसी आदत नहीं। कोई संगी-साथी मिल जाए ऐसी किस्मत नहीं । ऐ गमे-दिल क्या करूं? ऐ वहशते-दिल क्या करूं? तो फिर आदमी बड़ा असहाय मालूम पड़ता है। जैसे कोई सागर में डूब रहा है । तिनके का भी सहारा नहीं। नाव तो दूर, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P गोशालकः एक अस्वीकृत तीर्थंकर तिनका भी नहीं। डूबने का खतरा है। लेकिन उस खतरे और जोखिम से गुजरे तो असहाय अवस्था तो नकारात्मक है। अशरण अवस्था | बिना कोई परम मंजिल तक पहुंचता नहीं है। तो अशरण। विधायक है। अशरण का अर्थ कि मेरे पास अपने पैर हैं। अब डर यही है कि अशरण का तुम यह अर्थ मत समझ लेना अशरण का अर्थ हुआ कि तैरूंगा, नाव चाही ही नहीं, तिनके का कि किसी से कुछ सीखना ही नहीं है। तैरना तो सीखना है। वह कोई सवाल ही नहीं। किसी तैरनेवाले से सीख लो। जिसको तुमने सागर में तैरते देखा जो अशरण भाव को उपलब्ध हुआ है, उसे तुम नाव बताओ हो, उससे सीख लो। फिर तैरकर ही जाना। फिर तैरनेवाले के भी, तो वह कहेगा कि नहीं, क्षमा करें। धन्यवाद! हम तैरकर | | कंधे का सहारा मत मांगना। निकल जाएंगे। क्योंकि कोई बाहर का सहारा क्या लेना! जब | इसलिए महावीर कहते हैं, शिष्य तो बनो, लेकिन शरण को तैर सकते हैं तो नाव में क्या बैठना! धन्यवाद! बड़ी कृपा, मत गहो। शरणागति नहीं। सीखने के लिए तैयारी रखो, मन को आपने याद किया। लेकिन हम तैरकर चले जाएंगे। बंद मत करो। सीखते ही, जो जान लिया उसका उपयोग करो। अशरण का अर्थ है तैरने पर बल।। जो जान लिया उसके सहारे चलो। और कोई सहारा मत मांगो। असहाय का अर्थ है : खोजते थे नाव, मिलता नहीं तिनका। | अपने सहारे जो चलता है, धीरे-धीरे बलशाली होता जाता है। भ्रम रखने को भी कुछ आसरा नहीं रहा। तो असहाय अवस्था में धीरे-धीरे उसके भीतर से भय गिर जाते हैं, असुरक्षा गिर जाती आदमी रोता है, चीखता-चिल्लाता है, पुकारता है। अक्सर है, शंकाएं गिर जाती है। और एक, जिसको गुरजिएफ ने कहा असहाय अवस्था में आदमी प्रार्थना करने लगता है, पूजा करने है, आत्मिक केंद्रीकरण, क्रिस्टलाइजेशन उपलब्ध होता है। लगता है। भगवान की याद करने लगता है। यह भगवान केवल आत्मश्रद्धा ही अंततः आत्मा को पाने का द्वार बनती है। भय पर आधारित है। आत्मश्रद्धा पर बल देने के लिए महावीर कहते हैं, अशरण अशरण भावना में आदमी में ध्यान जगता है। और अशरण | भावना। लेकिन जिन्होंने आत्मा को पा लिया हो उनसे सीखने भावना में आदमी अपने बल पर इस भांति आश्वस्त हो जाता है, | को बहुत कुछ है। सच तो यह है, जो उनकी शरण गह लेते हैं आत्मविश्वास ऐसा सजग हो जाता है, स्वयं पर श्रद्धा ऐसी गहन उनको सीखने को कुछ भी नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सीखकर हो जाती है कि सागर कितना ही बड़ा हो, ये दो हाथ सागर से क्या करेंगे? अब आप तो हैं। ज्यादा बड़े मालूम होते हैं। आकाश कितना ही बड़ा हो, ये दो मैंने सुना है एक आदमी अंधा था। उसके आठ लड़के थे, पंख सारे आकाश को पार कर लेंगे, ऐसे भरोसे से भरे होते हैं। आठ बहुएं थीं। चिकित्सकों ने कहा कि तुम्हारी आंख ठीक हो जो व्यक्ति अशरण को उपलब्ध हुआ उसे तुम प्रसन्न पाओगे, सकती है, आपरेशन करना होगा। उसने कहा, क्या करेंगे? नाचता हुआ पाओगे। असहाय को तुम दुखी, परेशान, तलाश फायदा क्या है? मेरी पत्नी के पास दो आंखें हैं, मेरे आठ करता हआ पाओगे। फिर कोई सपना मिल जाए, फिर कोई लड़कों के पास सोलह आंखें हैं, मेरी आठ बहुओं के पास सहारा मिल जाए। सोलह आंखें हैं। ऐसी चौतीस आंखें मुझे उपलब्ध हैं। दो न हुईं महावीर कहते हैं, असहाय मत बनना, अशरण बनना। मेरी, क्या फर्क पड़ता है? असहाय अवस्था में तो हम हैं। इसीलिए हम कहीं भी सहारे लेकिन संयोग की बात! जिस दिन उसने यह इंकार किया उसी खोजते हैं—मंदिर में, मस्जिद में, शास्त्र में, पुराण में, कुरान में, रात घर में आग लग गई। वे चौतीस आंखें भागकर बाहर गुरु में। कोई मिल जाए जो हमें कह दे, कि तुम घबड़ाओ मत। निकल गईं। अंधा चिल्लाता रहा, टटोलता रहा रास्ता। लपटों कहीं ताबीज, गंडा मिल जाए, बांध लें और निश्चित हो जाएं। में जल-भुनकर गिरकर मर गया। मरते वक्त एक ही भाव उसके महावीर कहते हैं, सत्य इतना सस्ता नहीं। खोजना होगा। मन में था, अपनी आंख अगर आज होती... ! जो बाहर कीमत चुकानी होगी। भागकर निकल गए-पत्नी, बेटे, बहुएं, उनको याद आयी तैरना होगा इस विराट झंझावात से भरे सागर में। लहरें हैं, | उसकी, लेकिन बाहर जाकर याद आयी। जब अपने प्राण संकट 409 2010_03 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 में पड़े हों तो किसको किसकी याद आती है? इसलिए महावीर कहते हैं. अपनी आंख। आंखवालों से सीख लेना, मगर अपनी आंख के अतिरिक्त किसी और की आंख को अपना सहारा मत बनाना। अपनी आंख जब तक न मिल जाए, सीखना, साधना; लेकिन चेष्टा यही रखना कि अपनी आंख मिल जाए। अपनी आंख से ही कोई सत्य का दर्शन कर पाता है। सत्य के साक्षात के लिए स्वयं की आंख के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। आज इतना ही। 14101 2010_03 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_06 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 इक्कीसवां प्रवचन छह पथिक और छह लेश्याएं Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 सूत्र कहाणीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य । लेस्साणं णिद्देसा, छच्चेव हवंति णियमेण । । १३४।। कहाणीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई बहुसो । । १३५।। तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहुसो । । १३६ ।। पहिया जे छ प्पुरिसा, परिभट्टारण्णमज्झदेसम्हि। फलभरियरुक्खमेगं, पेक्खित्ता ते विचिंतंति ।। णिम्मूलखंधसाहु-वसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाई | खाउं फलाई इदि, जं मणेण वयणं हवे कम्मं । । १३७ ।। www.ainelibrary.org Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के सूत्रः की रात जैसा। जिस पर कृष्ण लेश्या पड़ी है, उसे अपनी आत्मा ज लेश्याएं छह प्रकार की हैं : कृष्णलेश्या, नील का कोई पता नहीं चलता। इतने अंधेरे में दबे हैं प्राण, कि प्राण लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या (पीत लेश्या), हो भी सकते हैं, इसका भी भरोसा नहीं आता। स्वयं ही पता नहीं पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या।' चलती आत्मा तो दूसरे को तो पता कैसे चलेगी? 'कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्याएं हमारा युग कृष्ण लेश्या का युग है। लोग अमावस में जी रहे हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता है।' हैं। पूर्णिमा खो गई है। पूर्णिमा तो दूर, दूज का चांद भी कहीं 'पीत (तेज), पद्म और शुक्ल; ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं | दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए आत्मा पर भरोसा नहीं आता। हैं। इनके कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है।' भरोसा आए भी कैसे? पर्दा इतना काला है कि भीतर प्रकाश _ 'छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर वे भटक गए। भूख का स्रोत छिपा है, इसकी प्रतीति कैसे हो? जब तुम दूसरे को भी सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई देखते हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। स्वयं को देखते हो, दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। वे मन ही मन विचार तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को जड़मूल से काटकर उसके दर्पण के सामने खड़े होकर तुम अपने को देखते हो, वह फल खाए जाएं। दूसरे ने सोचा, केवल स्कंध ही काटा जाए। तुम्हारा होना नहीं है; तुम्हारी देह की छाया है। न तुम्हें अपना तीसरे ने विचार किया कि शाखा को तोड़ना ठीक रहेगा। चौथा | पता चलता है, न दूसरों की आत्मा का कोई बोध होता है। सोचने लगा कि उपशाखा ही तोड़ी जाए। पांचवां चाहता था कि कृष्ण लेश्या उठे, तो ही आत्मदर्शन हो सकते हैं। फल ही तोड़े जाएं। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर फल जब ऐसी महावीर ने छह पर्दो की बात कही है—कृष्ण लेश्या, फिर नीचे गिरें तभी चुनकर खाए जाएं।' नील लेश्या, फिर कापोत लेश्या...क्रमशः अंधेरा कम होता 'इन छह पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म, क्रमशः छहों | जाता है। लेश्याओं के उदाहरण हैं।' कृष्ण के बाद नील। अंधेरा अब भी है, लेकिन नीलिमा जैसा लेश्या महावीर की विचार-पद्धति का पारिभाषिक शब्द है। है। फिर कापोत-कबूतर जैसा है। आकाश के रंग जैसा है। उसका अर्थ होता है। मन, वचन, काया की काषाययुक्त __ जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं, वैसे-वैसे भीतर की झलक स्पष्ट होने वृत्तियां। मनुष्य की आत्मा बहुत-से पों में छिपी है। ये छह लगती है। लेकिन एक बात खयाल रखना। महावीर कहते हैं, लेश्याएं छह पर्दे हैं। शुभ्र लेश्या भी पर्दा है। वह अंतिम लेश्या है। जब तक रंग हैं, पहला पर्दा है: कृष्ण लेश्या। बड़ा अंधकार, काला, अमावस तब तक पर्दा है। जब तक रंग हैं, तब तक राग है। 4151 2010_03 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 राग शब्द का अर्थ रंग होता है। लगा देते हैं। चाक को जोर से घुमाते हैं तो सातों रंग खो जाते हैं, विराग शब्द का अर्थ, रंग के बाहर हो जाना होता है। सफेद रंग रह जाता है। सफेद रंग सातों रंगों का जोड़ है। या वीतराग शब्द का अर्थ होता है, रंग का अतिक्रमण कर जाना। सातों रंग सफेद रंग से ही जन्मते हैं। अब तुम पर कोई रंग न रहा। क्योंकि जब तक रंग है, तब तक इंद्रधनुष पैदा होता है हवा में लटके हुए जलकणों के कारण। स्वभाव दबा रहेगा। तब तुम्हारे ऊपर कुछ और पड़ा है। चाहे | जलकण लटका है हवा में, सूरज की किरण निकलती है, टूट सफेद ही क्यों न हो, शुभ्र ही क्यों न हो। | जाती है सात हिस्सों में। सूरज की किरण सफेद है। हम तो काली अंधेरी रात में दबे हैं। महावीर पूर्णिमा को भी | लेकिन महावीर कहते हैं, सफेद के भी पार जाना है। अधर्म के कहते हैं, कि वह भी पूर्ण अनुभूति नहीं है। अमावस तो छोड़नी | तो पार जाना ही है, धर्म के भी पार जाना है। अधर्म तो बांध ही ही है, पूर्णिमा भी छोड़ देनी है। कृष्ण लेश्या तो जाए ही, शुक्ल | लेता है, धर्म भी बांध लेता है। धर्म का उपयोग करो अधर्म से लेश्या भी जाए। कृष्ण पक्ष तो विदा हो ही, शुक्ल पक्ष भी विदा | मुक्त होने के लिए। कांटे को कांटे से निकाल लो, फिर दोनों हो। तुम पर कोई पर्दा ही न रह जाए। तुम बेपर्दा हो जाओ। कांटों को फेंक देना। फिर दूसरे कांटे को भी सम्हालकर रखने इसलिए महावीर नग्न रहे। वह नग्न सचक है। ऐसी ही की कोई जरूरत नहीं है। बीमारी है औषधि ले लो। बीमारी आत्मा भी भीतर नग्न हो, तभी उसका अहसास शुरू होता है। समाप्त हो, औषधि को भी कचरे-घर में डाल आना। फिर और जब अपनी आत्मा का पता चले तो औरों की आत्मा का पता | | बीमारी के बाद औषधि को छाती से लगाए मत घूमना। वह चलता है। जितना गहरा हम अपने भीतर देखते हैं, उतना ही केवल इलाज थी। उसका उपयोग संक्रमण के लिए था। गहरा हम दूसरे के भीतर देखते हैं। जैसे-जैसे शुभ लेश्याओं का जन्म होता है, जैसे-जैसे आदमी हमें तो अभी मनुष्यों में भी आत्मा है, इसका भरोसा नहीं | श्वेत की तरफ बढ़ता है, वैसे-वैसे दृष्टि की गहराई बढ़ती है। होता। ज्यादा से ज्यादा अनमान...होनी चाहिए। है, ऐसी कोई वैसे-वैसे दसरों में भी परमात्मा की झलक मिलती है। प्रामाणिकता नहीं मालूम होती। अंदाज करते हैं-होगी। श्वेत लेश्या की आखिरी घड़ी में जब पूर्णिमा का प्रकाश जैसा तर्कयुक्त मालूम पड़ती है कि होनी चाहिए। लेकिन वस्तुतः है, भीतर हो जाता है तो पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ता है। इसी ऐसा कोई अस्तित्वगत हमारे पास प्रमाण नहीं है। अपने भीतर अनुभव से महावीर की अहिंसा का जन्म हुआ। ही प्रमाण नहीं मिलता, दूसरे के भीतर कैसे मिले? | महावीर जो कहानी कहे हैं...महावीर ने बहुत कम बोध महावीर कहते हैं, जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं, वैसे-वैसे तुम्हें दूसरे कथाओं का उपयोग किया है। उन बहुत कम बोध कथाओं में में आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। ऐसी घड़ी आती है, जब एक यह हैः । पत्थर में भी आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। 'छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर भटक गए। भूख तेजो लेश्या से क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू होता है। पहली तीन लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। लेश्याएं अधर्म की, बाद की तीन लेश्याएं धर्म की-तेजो, पद्म फल खाने की इच्छा हुई। मन ही मन विचार करने लगे। पहले ने और शुक्ल। तेजो लेश्या के साथ ही तुम्हारे भीतर पहली झलकें | सोचा, पेड़ को जड़मूल से काटकर इसके फल खाए जाएं।' आनी शुरू होती हैं। महावीर कहते हैं, यह कृष्ण लेश्या में दबा हुआ आदमी है। ये रंगों के आधार पर पर्दो के नाम रखे महावीर ने। यह जीवन यह अपने छोटे-से सुख के लिए, क्षणभंगुर सुख के का इंद्रधनुष है। है तो रंग एक ही। वैज्ञानिक उसे कहते हैं श्वेत। लिए...भूख थोड़ी देर के लिए मिटेगी, फिर लौट आएगी। भूख बाकी सब रंग श्वेत रंग के ही खंड हैं। | सदा के लिए तो मिटती नहीं। लेकिन यह पूरे वृक्ष को मिटा देने इसलिए प्रिज्म के कांच के टुकड़े से जब सूरज की किरण को आतुर है। इसे वृक्ष की भी आत्मा है, वृक्ष को भी भूख लगती गुजरती है तो सात रंगों में बंट जाती है। या तुमने कभी स्कूल में है, प्यास लगती है, वृक्ष को भी सुख और दुख होता है, इसकी बच्चों के समझाने के लिए देखा हो तो एक चाक पर सात रंग कोई प्रतीति नहीं है। 416 2010_03 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह पथिक और छह लेश्याएं यह आदमी अंधा है, जिसे वृक्ष में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा तुम अंधे हो क्योंकि कृष्ण लेश्या की तुम अब तक सम्हाल है। सिर्फ अपनी भूख को तृप्त करने का उपाय दिखाई पड़ रहा करते रहे। उसे खाद दिया, पानी दिया। उस पर्दे में कभी छेद भी है। और अपनी भूख की तृप्ति के लिए, जो फिर लौट आनेवाली हुआ तो जल्दी से तुमने रफू किया, सुधार लिया। तुम जब-जब है, कोई शाश्वत तृप्ति हो जानेवाली नहीं है, वह इस वृक्ष को | दूसरे पर नाराज होते हो, तब-तब तुम खयाल करना, किसी | जड़मल से काट देने के लिए उत्सुक हो गया। यह आदमी अर्थों में वह तम्हारे कृष्ण लेश्या के पर्दे पर चोट कर रहा है। बिलकुल अंधा है। ऐसे आदमी तुम्हें सब तरफ मिलेंगे। ऐसा तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है, तुम नाराज हो जाते हो। आदमी तुम्हें स्वयं के भीतर भी मिलेगा। कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था। अमरीका में टेक्सास प्रांत के कितनी बार नहीं तुमने अपने छोटे-से सुख के लिए दूसरे को लोग बड़े अभद्र, हिंसक समझे जाते हैं। एक सिनेमागृह में एक विनष्ट तक कर देने की योजना नहीं बना ली। कितनी बार, जो टेक्सास प्रांत का आदमी अपनी बंदूक सम्हाले इंटरवल के बाद मिलनेवाला था वह ना-कुछ था, लेकिन तुमने दूसरे की हत्या | वापस लौटा। बाहर गया होगा। अपनी सीट पर उसने किसी कर दी; कम से कम हत्या का विचार किया। जमीन के लिए, दो आदमी को बैठे देखा। उसने पूछा-टेक्सास के आदमी इंच जमीन के लिए; धन के लिए, पद के लिए, तुमने प्रतिस्पर्धा ने—कि महानुभाव! आपको पता है, यह सीट मेरी है। वह जो की। दूसरे की गर्दन को काट देना चाहा। इसकी बिलकुल भी | आदमी बैठा था, मजाक में ही कहा, थी आपकी। अब तो मैं चिंता न की, कि जो मिलेगा वह ना-कुछ है। और जो तुम बैठा हूं। सीट किसी की होती है? विनष्ट कर रहे हो, उसे बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं। तुम एक बस, उसने बंदूक तानी और गोली मार दी। भीड़ इकट्ठी हो गई जीवन की समाप्ति कर रहे हो। एक परम घटना के विनाश का | और उसने लोगों से कहा कि इसी तरह के लोगों के कारण कारण बन रहे हो। एक दीया बुझा रहे हो। एक तुम जैसा ही टेक्सास के लोग बदनाम हैं। प्राणवंत, तुम जैसा ही परमात्मा को सम्हाले हुए कोई चल रहा है, पर बहुत बार तुम्हारे मन में भी—चाहे तुमने गोली न मारी हो, वसर को विनष्ट कर रहे हो। और तम्हें कछ भी यह कहानी अतिशयोक्तिपर्ण मालम होती है. लेकिन बहत बार मिलनेवाला नहीं। तुम्हें जो मिलेगा, वह थोड़ी-सी क्षणभंगुर की गोली मार देने का मन तो हो ही गया है। बहुत छोटी बातों तृप्ति है। घड़ीभर बाद फिर भूख लग आएगी। | पर—कि कोई तुम्हारी सीट पर बैठ गया है-गोली मार देने का कृष्ण लेश्या से भरा आदमी महत हिंसा से भरा होता है। जब मन तो हो ही गया है। भी तुम्हारे मन में अपने सुख के लिए दूसरे को दुख देने तक की महावीर कहते हैं, मन भी हो गया तो बात हो गई। तैयारी हो जाए तो तत्क्षण समझ लेना, कृष्ण लेश्या में दबे हो। इस कहानी में वे यह नहीं कह रहे हैं कि पहले आदमी ने वृक्ष पर्दा पड़ा। इस पर्दे को अगर तुम बार-बार भोजन दिए जाओगे तोड़ा; सिर्फ सोचा। तो यह मजबूत होता चला जाएगा। | '...भूख लगी, फल खाने की इच्छा हुई, वे मन ही मन जागना। जब ऐसा मौका आए कि अपने छोटे सुख के लिए विचार करने लगे।' । दसरे को दख देने का खयाल उठे. तब सम्हलना। तब अपने ऐसा कछ किया नहीं है अभी: ऐसी भाव-तरंग आयी, ऐसा हाथ को खींच लेना। क्योंकि असली सवाल यह नहीं है कि | विचार आया। लेकिन महावीर कहते हैं, विचार आ गया तो बात तमने दूसरे को दुख दिया या नहीं दिया: असली सवाल यह है हो गई। जहां तक तुम्हारा संबंध है, हो गई। जहां तक वृक्ष का | कि दूसरे को दुख देने में तुमने अपनी कृष्ण लेश्या पर पानी | संबंध है, अभी नहीं हुई; लेकिन तुम्हारा संबंध है, वहां तक तो सींचा। उसकी जड़ों को मजबूत किया। उसी में तुम्हारा | हो गई। आत्मतत्व खो गया है। उसी में खो गया जीवन का अभिप्राय। जब तुम ने सोचा किसी को मार डालें, ऐसी मन में एक उसी से पता नहीं चलता कि जीवन में कुछ अर्थ भी है ? पता नहीं | कल्पना भी उठ गई तो बात हो गई। दूसरा अभी मारा नहीं गया। चलता कौन हूँ मैं? कहां जा रहा हूं? क्यों जा रहा हूं? अपराध अभी नहीं हुआ, पाप हो गया। 417 ___ 2010_03 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भाग: 2 aanimamalinilaianimlanawwamanawanRail MHI पाप और अपराध में यही फर्क है। पाप का अर्थ है, तुम्हें जो मिल गए हैं। करना था, वह भीतर तुमने कर लिया। अभी दूसरे तक उसके | सोवियत रूस में किरलियान फोटोग्राफी के विकास ने बड़ी परिणाम नहीं पहुंचे। परिणाम पहुंच जाएं तो अपराध भी हो | हैरानी की बात खोज निकाली है कि जो तुम्हारे भीतर चेतना की जाएगा। अदालत अपराध को पकडती है. पाप को नहीं पकड | दशा होती है, ठीक वैसा आभामंडल तुम्हारे मस्तिष्क के सकती। पाप तो मन के भीतर है। अपराध तो तब है, जब मन | आसपास होता है। और किरलियान की खोज महावीर से बड़ी का विष बाहर पहुंच गया और उसके परिणाम शुरू हो गए। और मेल खाती है। जिस व्यक्ति के जीवन में हिंसा के भाव सरलता बाह्य जगत में तरंगें उठने लगीं। तब पुलिस पकड़ सकती है। से उठते हैं, उसके चेहरे के पास एक काला वर्तुल...। तब अदालत पकड़ सकती है। - संतों के चित्रों में तुमने प्रभामंडल बना देखा है, ऑरा बना देखा कानून तुम्हें तब पकड़ता है, जब पाप अपराध बन जाता है। है। वह एकदम कवि की कल्पना नहीं है-अब तो नहीं है। लेकिन महावीर कहते हैं, धर्म के लिए उतनी देर तक रुकना किरलियान की खोज के बाद तो वह कवि की कल्पना बड़ा सत्य आवश्यक नहीं है। जीवन की परम अदालत में तो हो ही गई साबित हुई। किरलियान की खोज ने तो यह सिद्ध किया कि जो बात। तुमने सोचा कि हो गई। नहीं किया, क्योंकि करने में कैमरा हजारों साल बाद पकड़ पाया, वह कवि की सूक्ष्म मनीषा बाधाएं हैं, कठिनाइयां हैं, सीमाएं हैं। करना महंगा सौदा हो | ने बहुत पहले पकड़ लिया था। ऋषियों की मनीषा ने बहुत पहले सकता है। सोच-विचार करके तुम रुक गए। होशियार आदमी | देख लिया था। हो, चालाक आदमी हो, मुस्कुराकर गुजर गए, लेकिन भीतर जब तुम्हारी दृष्टि साफ होने लगती है तो जब तुम्हारे पास कोई सोच लिया गोली मार दूं। पर जहां तक धर्म का संबंध है, बात आता है, तो तत्क्षण तुम्हें उसके चेहरे के आसपास विशिष्ट रंगों हो गई: क्योंकि तुम्हारी कृष्ण लेश्या मजबत हो गई। के झलकाव दिखाई पड़ते हैं। अगर हिंसक व्यक्ति है, लोभी कृष्ण लेश्या को मजबूत करना पाप है।। व्यक्ति है, क्रोधी व्यक्ति है, मद-मत्सर, अहंकार से भरा व्यक्ति कृष्ण लेश्या को क्षीण करना पुण्य है। है तो उसके चेहरे के आसपास एक काला वर्तुल होता है। शुक्ल लेश्या को मजबूत करना पुण्य है। और शुक्ल लेश्या | अब तो इसके फोटोग्राफ भी लिए जा सकते हैं। क्योंकि के भी पार उठ जाना, पाप और पुण्य दोनों के पार चले जाना | किरलियान ने जो सूक्ष्मतम कैमरे विकसित किए हैं, उन्होंने मुक्ति है, निर्वाण है। चमत्कार कर दिया। और ऐसा वर्तुल लोभी, हिंसक, अहंकारी, जब तुम्हारे मन में पाप का विचार उठता है, तब तुम दूसरे का क्रोधी के आसपास होता है, और ठीक ऐसा ही वर्तुल जब नुकसान करना चाहते हो—अपने छोटे-मोटे लाभ के लिए। आदमी मरने के करीब होता है, तब भी होता है। वह भी पक्का नहीं है कि होगा। लेकिन यह संभव कैसे हो पाता जो आदमी मरने के करीब है, किरलियान कहता है, छह महीने है? दुनिया में इतने युद्ध, इतनी हिंसा, इतनी हत्याएं, इतनी पहले अब घोषणा की जा सकती है कि यह आदमी मर जाएगा। आत्महत्याएं, छोटी-छोटी बात पर कलह, यह संभव कैसे हो क्योंकि छह महीने पहले उसके चेहरे के आसपास मृत्यु घटना पाता है? क्या लोग बिलकुल अंधे हैं? क्या लोगों को शुरू हो जाती है। जो छह महीने बाद उसके हृदय में घटेगी, वह बिलकुल पता नहीं चलता कि वे क्या कर रहे हैं? क्या लोगों को उसके आभामंडल में पहले घट जाती है। मूल्यों का कोई भी बोध नहीं है? इन दोनों का जोड़ खयाल में लेने जैसा है। इसका अर्थ हुआ, बोध हो नहीं सकता इस काले पर्दे के कारण, जो आंख पर पड़ा जो काला मंडल है हिंसा का, अहंकार का, क्रोध का, मत्सर का, है। महावीर कहते हैं, तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ आंख पर पर्दा है। मद का, वही मृत्यु का मंडल भी है। इसका अर्थ हुआ, जो काले बुर्का ओढ़े हुए हो-काला बुर्का; कृष्ण लेश्या का। मंडल के साथ जी रहा है, वह जी ही नहीं रहा। वह किसी अर्थ में हमारे छोटे-छोटे कृत्य में हमारी लेश्या प्रगट होती है। तुम उसे मरा हुआ है। उसके जीवन का उन्मेष पूरा नहीं होगा। उसके छिपा नहीं सकते। और अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार भी जीवन की लहर, तरंग, पूरी नहीं होगी-दबी-दबी, 4181 2010_03 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmm | छह पथिक और छह लेश्याएं कटी-कटी, टूटी-टूटी। जैसे जीते भी वह मुर्दे की तरह ही ढोता कोंपल पेड़ों पर पायल नई बजाती है रहा अपनी लाश को। कभी जीया नहीं नाचकर। कभी उसके लेकिन कृष्ण लेश्या में दबे हुए आदमी के जीवन में ऐसा कभी जीवन में वसंत नहीं आया। कभी नई कोंपलें नहीं फूटीं। पुराना नहीं होता। वसंत आता ही नहीं। कोयल कूकती ही नहीं। ही होता रहा। जन्म के बाद बस मरता ही रहा। कोपलें पायल नहीं बजातीं। ऐसा आदमी नाममात्र को जीता काला पर्दा पड़ा हो आदमी के चित्त पर तो जीवन संभव भी है—मिनिमम। श्वास लेता है कहना चाहिए, जीता है कहना नहीं है। जीवन की किरण हृदय तक पहुंच पाए, इसके लिए ठीक नहीं। गुजार देता है कहना चाहिए। खुले द्वार चाहिए। और जीवन का उल्लास तुम्हें भी उल्लसित अगर तुम नाचे नहीं, गाए नहीं, गुनगुनाए नहीं, अगर आनंद कर सके और जीवन का नृत्य तुम्हें भी छू पाए इसके लिए बीच में का उत्सव तुम्हारे ऊपर नहीं बरसा तो कहीं चूक हो रही है। कृष्ण कोई भी पर्दा नहीं चाहिए। बेपर्दा होना है। लेश्या को पहचानना। जिन अंतर्शत्रुओं की सारे शास्त्रों में चर्चा तम जब बिलकल नग्न, खले आकाश को अपने भीतर है, वे सभी कष्ण लेश्या को मजबत करते हैं। निमंत्रण देते हो, तभी परमात्मा भी तुम्हारे भीतर आता है। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक टैक्सी में बैठा हुआ पहाड़ इसका होश रखो। तुम दूसरे की हानि नहीं करते हो, हानि तो से नीचे उतर रहा था। ढलान से उतरते हुए अचानक टैक्सी का अंततः तुम्हारी है। तुम अगर किसी को मार भी डालो तो उसका ब्रेक खराब हो गया और गाड़ी अत्यंत वेग से दौड़ने लगी। तो कुछ भी नहीं बिगड़ता है। क्योंकि यहां जीवन का तो कोई नियंत्रण के बाहर हो गई गाड़ी। अंत नहीं है। ज्यादा से ज्यादा पुराना शरीर चला गया, नया मिल ड्राइवर घबड़ाया और उसने पूछा कि बड़े मियां, गाड़ी का ब्रेक जाएगा। जीवन की यात्रा तो अनंत है। तुम मारकर भी किसी की फेल हो गया। अब मैं क्या करूं? मुल्ला ने कहा, सबसे पहले कोई हानि नहीं कर पाते हो। लेकिन बिना मारे भी अगर मारने मीटर बंद करो। फिर जो चाहे करना। का विचार उठा तो तुमने अपनी बड़ी हानि कर ली। __ एक आदमी है, जिसका चित्त सदा लोभ में लगा हुआ है। महावीर कहते हैं, हर हत्या आत्यंतिक अर्थों में आत्महत्या है। कहते हैं मुल्ला को एक दफा डाकुओं ने पकड़ लिया। छाती पर दूसरे को कौन कब मार पाया? अपने को ही आदमी मारता बंदूक लगा दी और कहा कि दे दो, जो भी तुम्हारे पास है। अगर रहता है। मारते रहने का अर्थ हुआः जी नहीं पता। जीने के मार्ग नहीं दिया तो मरने के लिए तैयार हो जाओ। मुल्ला ने कहा, जरा में इतनी बाधाएं खड़ी कर लेता है...और हम सबको इसका पता सोचने भी तो दो। देर लगती देखकर डाकू बोले, जल्दी करो। भी चलता है। यह कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, जो महावीर कह रहे सोचना क्या है? या मरने को तैयार हो जाओ, या तुम्हारे पास है हैं। ये जीवन के सीधे-सीधे गणित हैं। यह तुम्हें भी पता चलता जो, दे दो। मुल्ला ने कहा, तो फिर मार ही डालो क्योंकि जो मैंने है कि तुम जितने क्रोधी हो, उतने कम जी पाते हो। क्रोध जीने दे इकट्ठा किया है वह बुढ़ापे के लिए इकट्ठा किया है। तुम मार ही तब न! तुम जितने हिंसक हो उतना ही जीना मुश्किल हो जाता डालो। इस धन के बिना मैं जी ना सकूँगा। इस धन के बिना है। हिंसा के साथ जीवन की प्रफुल्लता घटे कैसे? तुम जितने मरना बेहतर है। ज्यादा लोभी हो, उतने ही सिकुड़ते जाते हो; फैल नहीं पाते। ऐसी अतिशयोक्ति तो कम घटती है। तुम सोचोगे, अगर फैलाव के लिए थोड़ी दान की क्षमता चाहिए। फैलाव के लिए तुम्हारी छाती पर कोई बंदूक लगा दे तो तुम तो ऐसा न करोगे। देने की हिम्मत चाहिए, बांटने का साहस चाहिए। तुम कृपण की | तुम कहोगे कि ले जा, जो ले जाना है। मुझे छोड़ दे। लेकिन भांति इकट्ठा करते चले जाते हो। तिजोड़ी तुम्हारी भरती चली | छोटी-छोटी मात्रा में रोज तुम यही कर रहे हो, जो मुल्ला ने जाती है, तुम तो खाली के खाली रह जाते हो। इकट्ठा किया है। जब भी धन और जीवन में चुनाव होता है, तुम आता है इक रोज मधुवन में जब वसंत धन चुनते हो, जीवन नहीं चुनते। इसलिए मुल्ला की कहानी को तृण-तृण हंस उठता, कली-कली खिल जाती है अतिशयोक्ति मत समझना। अगर दस रुपये बचते हों, थोड़ा कोयल के स्वर में भर जाती है नई कक जीवन खोता हो तो तम दस रुपये बचाते हो। शायद भीतर एक 419 ___ 2010_03 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 हिसाब है कि जीवन तो मुफ्त में मिला है। कुछ खर्च तो करना पाना नहीं है। जिसने जीवन से कुछ और पाने की कोशिश की, पड़ा नहीं है। धन तो बड़ी मुश्किल से मिलता है। बड़े श्रम से | उसकी कृष्ण लेश्या कभी कटेगी नहीं। मिलता है। तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि तम जैन मंदिरों में बैठे जैन मनि अपने भीतर चिंतन की इन प्रक्रियाओं को पकड़ना। इन्हीं के हैं, उनको भी गौर से देखना, तुम कृष्ण लेश्या से भरे पाओगे। ताने-बाने से कृष्ण लेश्या बनती है। | उन्होंने संसार छोड़ा है लोभ के कारण; लोभ से मुक्त होकर मुल्ला का बेटा उससे पूछ रहा था कि पिताजी, मैं दुविधा में | नहीं। जैन मुनि समझाते हैं अपने श्रावकों को कि संसार में क्या हूं। दांतों का डाक्टर बनूं या कानों का? मुल्ला ने कहा, इसमें | रखा है ? अरे स्वर्ग खोजो। धन में क्या रखा है ? पुण्य खोजो। दविधा की बात क्या है? दांतों के डाक्टर बनो। क्योंकि व्यक्ति | यह धन तो कल खो जाएगा. पण्य कभी न खोएगा। के कान तो केवल दो होते हैं, दांत बत्तीस होते हैं। __ इस तर्क का अर्थ समझते हो? इसका अर्थ हुआ कि मुनि ऐसा अगर भीतर लोभ हो तो हर तरफ लोभ छाया डालेगा। तुम्हारे धन खोज रहे हैं, जो कभी नहीं खोता। और तुम ऐसा धन खोज सभी निर्णय, तुम्हारे सभी वक्तव्य, तुम्हारा उठना-बैठना, सब रहे हो, जो खो जाता है। तो मुनि तुमसे ज्यादा लोभी हैं। तुम तो लोभ से परिचालित होगा। क्षणभंगुर में भी प्रसन्न हो, मुनि शाश्वत धन खोज रहे हैं। लेकिन तमने कभी देखा कि चौबीस घंटे में तुम कुछ एकाध कृत्य भी दुकानदारी न गई। मन का गणित न गया। अगर उपवास भी कर करते हो, जो लोभ से मुक्त हो? लोग तो ध्यान भी करते हैं, तो रहे हैं, तप भी कर रहे हैं, ध्यान भी कर रहे हैं तो उपयोगिता लगी वे पहले पूछते हैं, मिलेगा क्या? प्रार्थना भी करते हैं तो पूछते हैं, है। ध्यान से आत्मा मिलेगी, कि ध्यान से परमात्मा मिलेगा। लाभ क्या होगा? परमात्मा के मंदिर में भी जाते हैं तो वे दुकान | मैं तुमसे कहता हूं, ध्यान से सिर्फ ध्यान मिलता है। प्रेम से में ही जाते हैं लाभ! तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा है, जो सिर्फ प्रेम मिलता है। और ध्यान जब पूरी तरह बरसता है तो उसी उपयोगिताशून्य हो? जिसकी कोई उपयोगिता न हो, लेकिन वर्षा की एक व्याख्या परमात्मा है। परमात्मा कुछ और नहीं है, मौज से तुम करते हो? जिसका मूल्य आंतरिक हो? जो ध्यान से मिलता है। उपयोगिता-शून्य, बाजार के बाहर, कोयल गनगनाती, या पक्षी वक्षों में टी-वी-ट-ट करते लोभ-लाभ की वत्ति के बाहर, मद-मत्सर के बाहर, तम जब रहते, या वृक्षों में फूल खिलते, या आकाश में तारे हैं, या पहाड़ों | किसी क्षण में भी सहज आनंद से जीते हो, उसी क्षण में जो घटता से झरने फूटते हैं—कहां प्रयोजन है ? कहां उपयोगिता है? तुम है, वही परमात्मा है। कहो मोक्ष, कहो निर्वाण, कहो समाधि, किसी झरने से पछो कि क्या लाभ है, त बहता ही रहता है? कैवल्य। जो मर्जी नाम दो, क्योंकि उसका कोई नाम नहीं। फायदा क्या है नासमझ ! इसमें सार क्या है? लेकिन तुम्हें अपने प्रतिपल में विचार करना होगा, देखना होगा, यह पूरी प्रकृति निस्सार है मनुष्य के अर्थों में। क्योंकि इसमें से | कहां-कहां कृष्ण लेश्या को तुम मजबूत करते हो। कहीं रुपये तो निकलते नहीं। आदमी तो उतना ही करता है, लेश्याएं छह प्रकार की हैं। कृष्ण, नील, कापोत, ये तीन जिसका उपयोग हो, युटीलिटी हो। लेकिन ध्यान रखना, अगर अधर्म लेश्याएं महावीर ने कहीं। तुम उतना ही करते हो जिसका उपयोग है तो तुम मशीन हो गए, पतंजलि के हिसाब में...पतंजलि ने मनुष्य के सात चक्रों का आदमी न रहे। तुम मुर्दा हो गए। तुम्हारी उपयोगिता हो गई, वर्णन किया। ये तीन लेश्याएं महावीर की और पतंजलि के तीन लेकिन जीवन का कोई गहन आनंद न रहा। निम्न चक्र एक ही अर्थ रखते हैं। ये एक ही तथ्य को प्रगट करने सभी आनंद उपयोगिता मुक्त हैं। और जब तुम उपयोगिता की दो व्यवस्थाएं हैं। मुक्त होओगे, तभी तुम आनंद के जगत में प्रवेश करोगे। जिसको पतंजलि मलाधार कहता है—जो व्यक्ति मलाधार में उल्लास का कोई मूल्य थोड़े ही है! उल्लास अपने आप में जीता है, वह कृष्ण लेश्या में जीता है। मूलाधार में जीनेवाला मूल्यवान है। उल्लास किसी और चीज का साधन थोड़े ही है; | व्यक्ति अंधकार में जीता है, अमावस में जीता है। अपने आप में साध्य है। जीवन स्वयं साध्य है। इससे कुछ और छठवां चक्र है, आज्ञाचक्र। जो व्यक्ति आज्ञाचक्र में पहुंच 1420 2010_03 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह पथिक और छह लेश्याएं ५पहुआ। जाता है, वह ठीक वहीं पहुंच गया, जो महावीर की परिभाषा में | हो रहा है मेहरबां मुझ पर वह रश्के-सदबहार शुक्ल लेश्या में पहुंचता है। तृतीय नेत्र खुल गया। पूर्णिमा हुई। खिल रही है फिर मेरे दिल की कली कल रात से पूरा चांद निकला। उनका जलवा ख्वाब में पुर-कैफ मझको कर गया और जिसको पतंजलि सहस्रार कहता है-सहस्रदल कमल, आंख में आई हुई है नींद-सी कल रात से सातवां चक्र, वही महावीर के लिए वीतराग स्थिति है। रंग-राग किस कदर है उनसे मिलने की खुशी कल रात से सब गया। सब लेश्याएं गईं। कृष्ण लेश्या तो गई ही, श्वेत जिंदगी में आ गई है ताजगी कल रात से लेश्या भी गई। काले पर्दे तो उठ ही गए, सफेद पर्दे भी उठ गए। आलमे-वहशत था तारी हर तरफ कल रात तक पर्दे ही न रहे। हर दरो-दीवार में है दिलकशी कल रात से परमात्मा बेपर्दा हुआ, नग्न हुआ, दिगंबर हुआ। आकाश के | बन गया है दिल का हर अरमान एक बज्मे-निशात अतिरिक्त और कोई ओढ़नी न रही, ऐसा निर्दोष हुआ। नगमाजन है अर्स साजे-जिंदगी कल रात से तो जो छह चक्र हैं पतंजलि के, वे ही छह लेश्याएं हैं महावीर साधारण प्रेम में जो कल तक मौत थी, वह आज जिंदगी की। पहले तीन चक्र सांसारिक हैं। अधिकतर लोग पहले तीन मालूम पड़ने लगती है। कल तक जहां साज टूटा पड़ा था, आज चक्रों में ही जीते और मर जाते हैं। चौथा, पांचवां और छठवां झनझना उठता है। चक्र धर्म में प्रवेश है। चौथा चक्र है हृदय, पांचवां कंठ, छठवां जैसे ही हृदय पर चोट लगती है, वैसे ही तम्हारे जीवन में दीप्ति आज्ञा। हृदय से धर्म की शुरुआत होती है। हृदय यानी प्रेम। का जन्म होता है। सांसारिक प्रेम में तो यह चोट ऐसी है कि जैसे हृदय यानी करुणा। हृदय यानी दया। हृदय के अंकुरण के साथ एक बड़े विराट हृदय में जरा-सा एक कोना रोशन हुआ हो। जब ही धर्म की शुरुआत होती है। जिसको हृदय चक्र कहा है यह कोना कोना नहीं रह जाता, और तुम्हारा पूरा हृदय रोशन पतंजलि के शास्त्र में, वही तेजो लेश्या है। हृदयवान व्यक्ति के होता है तो उसी को महावीर अहिंसा कहते हैं। उसी को बुद्ध जीवन में एक तेज प्रगट होता है। | करुणा कहते हैं। उसको जीसस ने प्रेम कहा है। या भक्तों ने, तुमने प्रेमी का चेहरा दमकता देखा होगा। जब तुम कभी किसी नारद ने प्रार्थना कहा है। के प्रेम में होते हो तो तुम्हारे चेहरे पर एक नई ही आभा प्रगट हो जब तुम्हारा पूरा हृदय आंदोलित हो उठता है प्रेम से तो तुम्हारे जाती है। चेहरा तुम्हारा, कल भी तुम्हारा था, आज तुम्हारा जीवन में तेजो लेश्या का जन्म हुआ। लेकिन महावीर उसको भी किसी से प्रेम हआ तत्क्षण तुम्हारे चेहरे पर एक रौनक आ जाती लेश्या ही कहते हैं, यह खयाल रखना। महावीर कहते हैं, वह है, जो कभी न थी—एक दीप्ति। तुम ज्यादा जीवंत हो उठते हो। भी बंधन ही है—धर्म का सही, सुंदर है सही, शुभ है सही, जैसे किसी ने तुम्हारी बुझते-बुझते दीये की ज्योति को उकसा लेकिन भूल मत जाना कि बंधन है। फिर उसके बाद पद्म लेश्या दिया। राख जम गई थी, किसी ने झाड़ दी और तुम्हारा अंगारा और शुक्ल लेश्या। क्रमशः और सुंदरतर होता जाता जीवन। फिर दमक उठा। शुक्ल लेश्या-योग की तृतीय आंख, या तंत्र का शिवनेत्र, साधारण प्रेम में ऐसा हो जाता है तो जिस प्रेम की महावीर और महावीर की शुक्ल लेश्या है। जैसे तुम्हारे भीतर इन छह के बीच पतंजलि बात करते हैं, उसकी तो बात ही क्या कहनी! अमावस और पूर्णिमा का अंतर है। जब तुम्हारे जीवन की ऊर्जा एक स्त्री के प्रेम में तुम पड़ जाओ, एक मित्र के प्रेम में पड़ | आज्ञाचक्र पर आकर ठहरती है तो तुम्हारा सारा अंतर्लोक एक जाओ, एक रौनक आ जाती है। तेजो लेश्या! एक स्वर्णिम प्रभा से मंडित हो जाता है। एक प्रकाश फैल जाता है। तुम दमक आ जाती है। पहली दफा जागरूक होते हो। तुम पहली दफा ध्यान को कल एक कविता पढ़ रहा था। प्रेम की कविता है। उपलब्ध होते हो। इस तगैयुर के लिए उनको दुआ देता हूं मैं इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा। आज्ञाचक्र का अर्थ मौत थी कल रात तक, जिंदगी कल रात से है कि इस घड़ी में तुम जो कहोगे, कहते ही हो जाएगा। तुम्हारी 421 2010_03 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 NeSTER आज्ञा तुम्हारे व्यक्तित्व के लिए सहज स्वीकृत हो जाएगी। इतनी पहली दफा गुलामी के बाहर होते हो। तुम्हारी आज्ञा चलती है जागरूकता में जो भी कहा जाएगा, जो भी निर्णय लिया जाएगा, | तुम्हारे ऊपर। महावीर का शब्द भी बड़ा सुंदर है: शुक्ल। वह तत्क्षण पूरा होने लगेगा। क्योंकि अब कोई विरोधी नहीं पूर्णिमा हो गई। सब अंधेरा गया। कोना-कोना जाग्रत हो उठा। रहा। अब तुम एक-सूत्र हुए, एक-जुट हुए। अब तुम्हारे भीतर अगर आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा से हम समझना चाहें तो दो आंखें न रहीं, एक आंख हुई। दो थीं तो द्वंद्व था। एक कुछ पहले तीन चक्र, जिसको फ्रायड कांशस माइंड कहता है, चेतन कहती, दूसरी कुछ कहती। यही अर्थ है उस प्रतीक का-तृतीय मन कहता है, उसके हैं। दूसरे तीन चक्र, जिनको महावीर धर्म नेत्र का। अब एक आंख हुई। तुम एक-दृष्टि हुए। लेश्या कहते हैं, अनकांशस माइंड के, अचेतन मन के हैं। और जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, जब तक तुम्हारी दो आंखें | सातवीं स्थिति सुपरकांशस माइंड की है, अति-चेतन मन की। एक आंख न बन जाए, तब तक तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न जो व्यक्ति तीन चक्रों में ही जीता, वह ऊपर-ऊपर जीता है। जैसे कर सकोगे। कोई व्यक्ति अपने घर के बाहर पोर्च में जीता हो। वहीं दो का अर्थ है, भीतर खंड-खंड बंटे हैं हम। एक मन कुछ टीन-टप्पर बांधकर रहने लगा है। पूरा महल खाली पड़ा है। कहता, दूसरा मन कुछ कहता। एक मन कहता है, अभी तो भोग पूरा महल उसका है, जन्मसिद्ध उसका अधिकार है, लेकिन लो। एक मन कहता है, क्या रखा भोगने में? छोड़ो। एक मन स्मरण नहीं रहा। वह भीतर जाना भूल गया है। याद खो गई। कहता है, मंदिर चलो-प्रार्थना की पावनता। दूसरा मन कहता विस्मरण हो गया है। है, व्यर्थ समय खराब होगा। घंटेभर में कुछ रुपये कमा लेंगे। तो जो व्यक्ति पहले तीन चक्रों में ही जी लेते हैं, उन्हें अपने ही बाजार ही चलो। प्रार्थना बूढ़ों के लिए है, अंत में कर लेंगे। मरते पूरे महल का कोई पता नहीं चल पाता। जो व्यक्ति अपने भीतर वक्त कर लेंगे। इतनी जल्दी क्या है? अभी कोई मरे नहीं जाते। प्रवेश करते हैं और छठवें चक्र तक पहुंचते हैं, उन्हें अपने महल तुमने खयाल किया? कि मन कभी भी निर्णीत नहीं होता। में निवास मिलता है। पहले तीन चक्र थोड़े-से रोशन हैं। बाकी अनिर्णय मन का स्वभाव है। छोटी-छोटी बातों में अनिर्णीत | तीन चक्र अभी बिलकुल अंधेरे में पड़े हैं। इसीलिए फ्रायड होता है। कौन-सा कपड़ा आज पहनना है, इसी के लिए मन उनको अनकांशस कहता है; अचेतन कहता है। लेकिन वे अनिर्णीत हो जाता है। किस फिल्म को देखने जाना, इसीलिए अचेतन इसीलिए हैं कि तुम वहां नहीं गए। तुम्हारे जाते ही चेतन अनिर्णीत हो जाता है। जाना कि नहीं जाना इसी के लिए आदमी हो जाएंगे। तुम जहां गए वहीं चेतना पहुंच जाती है। तुम्हारी सोचने लगता है, डांवाडोल होने लगता है; जैसे तुम्हारे भीतर दो दृष्टि जहां पड़ी, वहीं चैतन्य का जन्म हो जाता है। तुम वहां गए आदमी हैं, एक नहीं। नहीं इसलिए। आज्ञाचक्र पर आकर तुम्हारा द्वंद्व समाप्त होता है, तुम एक ऐसा समझो, चौदह साल तक बच्चा बड़ा होता है। तब तक बनते हो। इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा क्योंकि तुम उसका काम-केंद्र अचेतन रहता है। ऐसा कम से कम अतीत में पहली दफा स्वामी बनते, मालिक बनते। जब तक आज्ञाचक्र न | तो रहता था। अब जरा मुश्किल है। क्योंकि काम-चेतना के खुल जाए तब तक कोई अपना मालिक नहीं। | शोषण करने के लिए इतने लोग आतुर हैं कि छोटे बच्चों की मैंने तुम्हें स्वामी कहा है, तुम्हें संन्यास दिया है। तुम स्वामी मेरे काम-चेतना भी परिपक्व हुए बिना जाग्रत हो जाती है। कहने से हो नहीं गए। यह तो सिर्फ दिशा-निर्देश किया है। यह एक बड़ी हैरानी की घटना अमरीका में घट रही है। लड़कियां तो तुम्हारे भीतर आकांक्षा का बीज डाला है। यह तो तुम्हारी दो साल पहले मासिक धर्म से ग्रस्त होने लगी हैं। चौदह साल में अभीप्सा जगाई है। यह तो तम्हें एक दष्टि और दिशा दी है। यह होती थीं, अब वे बारह साल में होने लगी हैं। मालम होता है कि तो तुम्हारे लिए बोध दिया है कि यह तुम्हें होना है। इससे होने के चारों तरफ का दबाव, वासना का ज्वार चारों तरफ-फिल्म हो. पहले रुकना मत, जब तक कि स्वामी न हो जाओ। टेलीविजन हो, रेडियो हो, पोस्टर हो, अखबार हो; और सब तो ठीक, आज्ञाचक्र बड़ा सुंदर शब्द है। वहां आकर तुम तरफ की हवा और सब तरफ छिछला प्रदर्शन शायद मनुष्य की 422 2010_03 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह पथिक और छह लेश्याएं प्रकृति पर दबाव डाल रहा है। दो साल उम्र गिर जाना नीचे, बड़ी पाने योग्य था, बस उसी से वंचित रह जाओगे। हैरानी की बात है। बायोलाजिस्ट बड़े चकित हैं कि यह कैसे पीड़ा मिली जनम के द्वारा हुआ! अगर ऐसा जारी रहा तो शायद कुछ दिनों में और उम्र गिर | अपयश पाया नदी किनारे जाएगी। शायद सात वर्ष के छोटे-छोटे बच्चे कामातुर हो इतना कुछ मिल गया एक बस उठेंगे। ये बेमौसम के फल होंगे और इनके जीवन में बड़ी तुम्हीं नहीं मिले जीवन में कठिनाई खड़ी होगी। हुई दोस्ती ऐसी दुख से लेकिन साधारणतः चौदह साल की उम्र तक कामवासना का हर मुश्किल बन गई रुबाई केंद्र सोया पड़ा रहता है, अचेतन रहता है। चौदह साल की उम्र इतना प्यार जलन कर बैठी में चैतन्य बनता है। और जैसे ही चेतना काम-केंद्र पर जाती है। क्वांरी ही मर गई जुनाई तो काम-केंद्र फिर अचेतन नहीं रह जाता। फिर सारा मन उसी | बगिया में न पपीहा बोला के आसपास घूमने लगता है। अक्सर लोग पहले केंद्र के पास | द्वार न कोई उतरा डोला ही समाप्त हो जाते हैं। अक्सर लोग इस पहले केंद्र पर ही जीते हैं। सारा दिन कट गया बीनते और मर जाते हैं। बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी कामलोलुप ही जीता कांटे उलझे हुए वसन में है। चाहे कहता न हो, मन ही मन में छुपाकर रखता हो; इससे पीड़ा मिली जनम के द्वारा कछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन चित्त में कामवासना ही चलती अपयश पाया नदी किनारे रहती है। यह बड़ी दुर्दिन की घटना है, दुर्भाग्य की घटना है। इतना कुछ मिल गया एक बस इसका मतलब हुआ, महल अपरिचित रह गया। तुम्हीं नहीं मिले जीवन में जैसे-जैसे तुम चैतन्य को भीतर प्रवेश करवाते हो, जैसे-जैसे | और एक चूक जाए, सब चूक गया। वह एक, जिसको भक्त तुम अपने और उपेक्षित अंगों पर रोशनी डालते हो, वैसे-वैसे प्रीतम कहते हैं, उसी को महावीर परमात्मा कहते हैं। वह प्यारा तुम पाते हो, नई-नई संभावनाओं का आविर्भाव होता है। तुम्हारे भीतर ही बैठा है। लेकिन तुम भीतर जाओ तो मिलन हो। महावीर कहते हैं, छठवें केंद्र पर शुक्ल लेश्या पूर्ण होती है। तुम अपने बाहर ही बाहर भटक रहे हो। और तुमने ऐसे पर्दे टांग पूर्णिमा की चांदनी फैल जाती है तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व पर। रखे हैं कि भीतर की याद ही भूल गई है। काले पर्दे ही दिखाई पूर्णिमा की चांदनी फैल जाने के लिए तुम्हें अंतर्यात्रा पर जाना पड़ते हैं। लगता है, भीतर कुछ और है नहीं। होगा। और जो पर्दे तुम्हें बाहर रोकते हैं, उन्हें धीरे-धीरे छोड़ना मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमने पढ़ा कबीर को, पढ़ा होगा। नानक को; तो वे सभी कहते हैं कि भीतर जाने से प्रकाश होता कृष्ण, नील, कापोत, इन्हें छोड़ो। है। हम तो जाते हैं तो सिवाय अंधकार के कुछ नहीं दिखाई लोभ, मोह, घणा, क्रोध, अहंकार. ईर्ष्या छोडो। प्रेम, दया, | पडता। वह कष्ण लेश्या जब तक न हटेगी, काला पर्दा पड़ा सहानुभूति जगाओ। परिग्रह छोड़ो, अपरिग्रह जगाओ। रहेगा। तुम जाओगे भीतर तो तुम काला ही पाओगे। अक्सर कृपणता छोडो, बंटना सीखो। मांगो मत, दो। और अंतर्यात्रा | तुम भीतर आंख बंद करोगे, तो या तो विचारों का ही ऊहापोह शुरू होगी। | मचा रहेगा। या अगर कभी क्षणभर को विचारों से छुटकारा चीजों को मत पकड़ो। चीजों का मूल्य नहीं है। चीजों को मिला तो अंधेरी रात, अमावस! घबड़ाकर तुम बाहर निकल अपना मालिक मत बनने दो, चीजों के मालिक रहो। उपयोग | आओगे। करो साधन की तरह; साध्य मत बनाओ। तो धीरे-धीरे पर्दे | और अंधेरे से हमें डर लगता है। अंधेरा हम पैदा करते हैं और टूटते हैं। | अंधेरे से हमें डर लगता है। अंधेरा हम जीवनभर बनाते हैं और अगर ऐसा न किया तो जीवन में सब तो पा लोगे, लेकिन जो अंधेरे से हमें डर लगता है। तो जैसे ही अंधेरा दिखा, फिर भागे 1423 ___ 2010_03 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 बाहर, फिर खोल दी आंख। लेना जरूरी नहीं है। मुझसे लोग कहते हैं कि जब भीतर का अंधेरा दिखाई पड़ता है | तुमने आदमी देखे, जो कीड़े-मकोड़ों जैसे हैं, या नहीं देखे? तो बड़ी घबड़ाहट होती है। डर लगता है कहीं मर न जाएं, कहीं तुमने आदमी देखे, जिन्हें देखकर आदमी की याद बिलकुल नहीं खो न जाएं। यह कैसा अंधेरा है! आती? जिन्हें देखकर जानवरों का स्मरण होता है। तुमने ईसाई फकीरों ने तो उसको नाम ही दिया है। डार्क नाइट आफ आदमी देखे, जिनका व्यक्तित्व अभी मनुष्य की सीमा को छूता द सोल। जिसको महावीर कृष्ण लेश्या कहते हैं, वही है। ईसाई | ही नहीं; मनुष्य के क्षितिज को छूता ही नहीं? जिनके नीचे के फकीर कहते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की तरफ पशु-पक्षी अभी भी सक्रिय हैं। देह मनुष्य की है, लेकिन मन जाता है तो एक बड़ी अंधेरी रात से गुजरना पड़ता है। वह अंधेरी अभी बहुत पिछड़ा हुआ है; बहुत पीछे का है। रात हमारी बनाई हुई है; हमीं को मिटानी पड़ेगी। दूसरा कोई उसे तुम कभी आंख बंद करके देखो, तुम पाओगे, मन बंदर की मिटा भी नहीं सकता। साहस करके, दुस्साहस करके हमें उस भांति है। जब तक मन शांत न हो जाए, तब तक तुम यह मत पर्दे को चीर डालना होगा। समझना कि वृक्ष से उतर आए तो उतर आए। डार्विन ठीक ही कठिन नहीं है क्योंकि उसका ताना-बाना बहुत साफ है। कहता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। लेकिन एक जगह लोभ, माया, मोह, मद, इनसे ही बना है। इनको तुम क्षीण करो, भूल करता है वह यह–अभी पैदा कहां हुआ है? कभी-कभी वह काली चादर अपने आप क्षीण होने लगेगी। उसके ताने-बाने कोई होता है। कुछ बंदर झाड़ों से नीचे उतर आए हैं। कुछ बंदर उखड़ जाएंगे। जगह-जगह छेद हो जाएंगे। जगह-जगह छेद से झाड़ों पर बैठे हैं, लेकिन बंदरपन सभी के भीतर है। तुम्हें नील लेश्या का दर्शन होने लगेगा। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध वस्तुतः मनुष्य होता है, जिस व्यक्ति की कृष्ण लेश्या गिरती है, उसे भीतर नीले जब मन का बंदर नहीं रह जाता। अभी तुम देखो, मन के बंदर आकाश का दर्शन होगा। बड़ा शांत! जैसे कोई गहरी नदी हो को तुम मुंह बिचकाते, इस झाड़ से उस झाड़ पर छलांग लगाते, और नीली मालूम पड़ती हो। इस शाखा से उस शाखा पर डोलते हुए पाओगे। तुम बंदर को फिर जो उसके भी पार जाएगा, उसके लिए महावीर कहते हैं, | भी इतना बेचैन न पाओगे, जितना तुम मन को बेचैन पाओगे। कापोत लेश्या। तब और भी हलका नीलापन; गहरा नहीं। ऐसे | डार्विन तो बड़ी बाहर की शोध करके इस नतीजे पर पहुंचा; क्रमशः पर्ते टूटती जाती हैं। अगर भीतर जरा उसने झांका होता तो इतनी बाहर की शोध करने '...तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या, इनमें पहली तीन की जरूरत न थी। आदमी बंदर से निश्चित आया है। आदमी अशुभ हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता है।' | अभी भी बंदर है। और इस भीतर के बंदर से छुटकारा जब तक यह भी समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस सूत्र की व्याख्या | न पाया जाए तब तक मनुष्य का जन्म नहीं होता। मनुष्य की देह बड़ी अन्यथा की जाती रही है। वह व्याख्या ठीक है, लेकिन एक बात है; मनुष्य का चित्त बड़ी और बात है। बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। महावीर का यह सूत्र है : 'कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों व्याख्या की जाती रही है कि इन तीन लेश्याओं में जो उलझा अधर्म या अशुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव बड़ी दुर्गतियों में हुआ है, वह नर्क जाएगा; दुर्गति में पड़ेगा। पशु-पक्षी हो उत्पन्न होता है।' जाएगा, कीड़ा-मकोड़ा हो जाएगा। यह व्याख्या गलत नहीं है, तो तुम यह मत सोचना कि भविष्य में कभी दुर्गति होगी। जिस लेकिन बड़ी महत्वपूर्ण भी नहीं है। क्षण जो लेश्या तुम्हें पकड़ती है, उसी क्षण दुर्गति हो जाती है। असली व्याख्या ः जो व्यक्ति इन लेश्याओं में उलझेगा उसकी दुर्गति उधार नहीं है कि फिर कभी होगी। दुर्गति अभी हो जाती बड़ी दुर्गति होती है। वह कभी भविष्य में, किसी दूसरे जन्म में है। जब तुम क्रोध से भरते हो, तब दुर्गति हो जाती है। जब तुम | कीड़ा-मकोड़ा बनेगा, ऐसा नहीं है। वह यहीं कीड़ा-मकोड़ा बन अहंकार से भरते हो तब दुर्गति हो जाती है। जाता है। कीड़ा-मकोड़ा बनने के लिए कीड़े-मकोड़े की.देह दुर्गति प्रतिपल हो रही है। 1424 2010_03 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEW BAAREEWANATION छह पथिक और छह लश्याएं इस पर मैं जोर देना चाहता हूं। क्योंकि इस बात ने कि कभी आदमी परिचित होता, पहचाना होता, जाना-माना होता। मरने के बाद होगा, लोगों को बड़ा निश्चित बना दिया है। लोग मैंने सुना है, एक बस में एक हिंदू और पचास मुसलमान यात्रा सोचते हैं, देखेंगे जब होगा तब देखेंगे। आदमी की सोचने की कर रहे थे। बस उलट गई, सब मर गए। किसी ने किसी को सीमा है। कहा कि सुना तुमने? बस उलट गई। पचास मुसलमान और जैसे कोई तुमसे कहे कि आज शाम तुम मर जाओगे, तो तुम एक हिंदू मर गए। उस आदमी ने कहा, अरे, बेचारा आदमी! बहुत घबड़ा जाओगे। वह कहे कि सात दिन बाद मरोगे तो तुम हिंदू रहा होगा वह; उसने कहा, बेचारा आदमी। हिंदू के लिए उतने न घबड़ाओगे। तुम कहोगे, सात दिन? देखेंगे। सात | पीड़ा हुई, बाकी पचास मुसलमान के लिए कोई...। दिन...कोई अभी आज तो मर नहीं रहे। कोई कहे, सात साल | तुमको भी नहीं लगता, जब पचास मुसलमान मर जाएं तो कुछ बाद मरोगे तो कुछ चोट न मालूम पड़ेगी। कोई कहेगा, सत्तर चोट नहीं मालूम पड़ती। मुसलमान थे, बात खतम हो गई। साल बाद मरोगे। तुम कहोगे, छोड़ो भी! सात सौ साल बाद | मुसलमान सुनता है, हिंदू मर गए, कुछ अंतर नहीं पड़ता। हिंदू कोई कहे तो...। थे। जैसे हिंदुओं में कोई प्राण नहीं, कोई जीवन नहीं। कोई मृत्यु वक्तव्य तो वही है कि मर जाओगे। लेकिन जैसे-जैसे समय हिंदू की भी होती है कहीं! अच्छा हुआ मर गए। मुसलमान बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे तुम्हारी चिंता क्षीण होती चली मरता है तो पीड़ा होती है मुसलमान को। जाती है। जो निकट मालूम पड़ता है...।। तुमने कभी खयाल किया। एक आदमी मर जाए तुम्हारे पड़ोस हिरोशिमा में एक लाख आदमी मर गए एक साथ, तो भी में तो पीड़ित हो जाते हो तुम। फिर पता चलता कि कहीं अफ्रीका दुनिया में ऐसा नहीं हुआ कि दुख की लहर फैल गई हो। लोगों ने में हजार आदमी मर गए, कि बांगला देश में दस हजार आदमी पढ़ लिया अखबार में, सुन लिया, लेकिन कोई चोट न हुई। मर गए। एक आदमी का मरना पड़ोस में तुम्हें पीड़ित कर देता सीमा के बाहर हो गई बात।। है। दस हजार आदमी बांगला देश में मरते हैं, तुम अखबार पढ़ । __ आदमी की बड़ी छोटी-सी सीमा है। उसकी रोशनी बड़ी लेते हो; कुछ भी नहीं होता। टिमटिमाती हुई थोड़ी-सी सीमा पर पड़ती है। उसके पार फिर क्या मामला है? इससे क्या फर्क पडता है. तम्हारे पडोस में कछ अंतर नहीं पड़ता। मरे, एक मील पर मरे कि हजार मील पर मरे! लेकिन सीमा है तो तुमने जो व्याख्या सुनी है अब तब कि मरने के बाद, अगर तुम्हारी। तुम्हारी पत्नी मर जाए तो ज्यादा पीड़ा होती है। पड़ोसी तुम गलत लेश्याओं के साथ ग्रसित रहे तो दुर्गति होगी, नर्क में की पत्नी मर जाए तो उतनी पीड़ा नहीं होती। जरा दूर है। चाहे पड़ोगे। मरने के बाद नर्क में पड़ोगे? तुम्हें कोई फिक्र नहीं होती, एक घर का ही फासला हो, मगर फासला हो गया। किसी और | इसकी कोई चोट ही नहीं पड़ती। की पत्नी मरी। मैं तुमसे कहता हूं, इस व्याख्या ने आदमी का बड़ा नुकसान जैसे तम्हारे चित्त से दूरी होती जाती है, वैसे-वैसे तुम्हारी चिंता, | कर दिया। यह व्याख्या सही है। अगर जीवनभर गलत तुम्हारी बेचैनी कम होती जाती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि | लेश्याओं का संबंध रहा तो तुम्हारा अगला जीवन इन्हीं गलत मनुष्य के मन की बड़ी सीमाएं हैं। एक आदमी मरे और हजार | भित्तियों पर खड़ा होगा। तो दुर्गति तो होनेवाली है। लेकिन मैं आदमी मरें, तो दोनों खबरें सुनकर तुम्हें हजार गुना दुख नहीं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि तुम टालो मत। दुर्गति अभी भी होता, जब हजार आदमी मरते हैं। खयाल किया? एक आदमी | हो रही है, इसीलिए कल भी होगी, परसों भी होगी। जो अभी हो मर गया, हजार आदमी मर गए, दस हजार आदमी मर रही है, उसको अभी देखने की कोशिश करो। कहीं ऐसा न हो गए...दस हजार आदमी मरे सुनकर क्या तुम्हें दस हजार गुना | कि मौत के बाद सोचकर तुम टाल ही दो। दुख होता है? संभावना तो यह है कि शायद उतना भी न हो, | 'पीत, पद्म, शुक्ल, ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके जितना एक आदमी के मरने से होता था-अगर वह एक | कारण जीव विविध संगतियों में उत्पन्न होता है।' 14251 2010_03 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 299 और वही सुगति के लिए भी याद रखना। मैं स्वर्ग और नर्क अब फल खाने हैं और पूरे वृक्ष को पीड़ से काटने बैठ गए। को वर्तमान में खींच लाना चाहता हूं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कोई...अनावश्यक है। कि स्वर्ग और नर्क यहीं हैं। इसका तुम यह मतलब मत समझना | बहुत लोग, अधिक लोग यही कर रहे हैं। तुम्हें कितना भोजन कि आगे नहीं हैं। लेकिन जो भी आगे है, वह यहां भी है। और चाहिए? कितना कपड़ा चाहिए? कितना छप्पर चाहिए? तुम उसे यहां देख लो तो ही आगे सम्हाल सकोगे। अगर तुमने | लेकिन तुम इकट्ठा किए जा रहे हो। कोई सीमा ही नहीं है। ऐसी यहां न देखा तो तुम आगे भी न सम्हाल सकोगे। जगह लोग पहुंच जाते हैं धन इकट्ठा करने की, कि उनको समझ तमने कभी देखा। कोई बीमार है और तुम एक फूल जाकर में भी आता है कि अब करके और करेंगे क्या? क्योंकि धन से उसको भेंट कर आए। उस क्षण में तुमने अपने भीतर झांककर जो मिल सकता था, मिल गया। अब तो अतिरिक्त धन इकट्ठा देखा? तुम्हारी प्रतिमा उज्ज्वल हो जाती है तुम्हारी ही आंखों में। हो रहा है, फिर भी किए चले जाते हैं। जैसे एक नशा है। इस हलके हो जाते हो तुम। किसी को गाली दे दी, किसी का धन का क्या करेंगे अब, यह कोई सवाल भी नहीं है। जो भी इस अपमान कर दिया, उसके बाद तुमने देखा? तुम्हारी प्रतिमा दुनिया में धन से खरीदा जा सकता था, वह सब मिल गया है। तुम्हारी ही आंखों में धूल-धूसरित हो जाती है। तुम नीचे गिर | अच्छा मकान है, अच्छी कार है, अच्छा बगीचा है, अच्छा जाते हो। तुम तड़फते हो।। भोजन, अच्छे कपड़े हैं; अब और क्या चाहिए? लेकिन दौड़ नर्क और स्वर्ग प्रतिपल घटता है। तो जब भी तुम सुखी | जारी रहती है। अनुभव करो, जानना कि सुख स्वर्ग है। जब भी दुखी अनुभव जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की सीमा नहीं मानता वह करो, जानना कि दुख नर्क है। जब भी दुखी अनुभव करो, | सदा दुखी रहता है। और जो अपनी आवश्यकताओं की सीमा जानना कि तुमने अधर्म लेश्याओं के साथ संबंध जोड़ा होगा, पहचान लेता है, उसके जीवन में सुख का अवतरण शुरू हो अन्यथा दुख होता नहीं। और जब भी सुखी समझो तो जानना | जाता है। आवश्यकता की सीमा को पहचान लेना सुख की कि तुमने शुभ लेश्याओं के साथ संबंध जोड़ा, धर्म के साथ पहली व्यवस्था है। और आवश्यकता की सीमा को ही न संबंध जोड़ा; अन्यथा सुख होता नहीं।। पहचाने जो, वह तो सुखी हो ही नहीं सकता। उसके पास कितना सुख परिणाम है शुभ भाव का। दुख परिणाम है अशुभ भाव ही हो, वह दुखी रहेगा। जितना होगा, उतना ज्यादा दुखी होगा; का। तुम्हारे ही भाव हैं, तुम्हीं पर परिणाम आते हैं। क्योंकि और ज्यादा की मांग बढ़ती जाएगी। यह जो महावीर ने छोटी-सी बोधकथा कही है : पहले ने सोचा पेड़ को जड़मूल से काटकर, दूसरे ने कहा 'पहले ने सोचा, पेड़ को जड़मूल से काटकर उसके सारे फल केवल स्कंध ही काटा जाए। तीसरे ने कहा, इतने की क्या खा जाएं...।' इसे अपने भूख की चिंता है, लेकिन पेड़ के जरूरत? शाखा को तोड़ने से चल जाएगा। चौथे ने कहा, जीवन की कोई भी नहीं। उपशाखा ही तोड़ना काफी है। पांचवें ने कहा, पागल हए हो? 'दूसरे ने कहा, केवल स्कंध ही काटा जाए...।' पूरे वृक्ष को | शाखा, उपशाखा, स्कंध, वृक्ष को करना क्या है? फल ही तोड़ क्यों नष्ट करें? स्कंध काटने पर फिर अंकुरित हो जाएगा। फिर | लिए जाएं। वृक्ष पैदा हो जाएगा। भूख लगी है, फल की जरूरत है। भूख के लिए फल चाहिए। लेकिन इस दूसरे को भी सोच में न आया कि स्कंध भी क्यों शाखाएं, प्रशाखाएं क्यों तोड़ी जाएं? काटा जाए? फल काटने के लिए स्कंध काटना जरूरी कहां छठे ने कहा, बैठे; पके फल हैं, गिरेंगे। तोड़ने की जरूरत नहीं है? तुमने देखा जीवन में? जहां सुई की जरूरत होती है, तुम है। छीनना भी क्या? तलवार लिए घूमते हो। और जो काम सुई से हो सकता है, वह और ध्यान रखना, अस्तित्व इतना दे रहा है बिना मांगे और तलवार से हो ही नहीं सकता। अक्सर तो ऐसा होगा कि सूई से | बिना छीने, कि जो छीनने में पड़ जाता है वह भूल ही जाता है जो काम होता था, तलवार के कारण उसमें बाधा पड़ जाएगी। | जीवन का एक परम गुण, कि यहां प्रसाद बंट रहा है। यहां मिल 426 2010_03 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही रहा है। तुम झपट्टा मारने में सिर्फ ओछे सिद्ध होते हो। जीवन का कुछ रहस्य ऐसा है कि यहां बिना मांगे... सब मिल ही रहा है । जीवन मिल गया तो अब और क्या चाहिए? और भी मिल जाएगा। जब जीवन बिना मांगे मिल गया... । तुमने कभी मांगा था जीवन ? सोचा इस पर ? कहीं तुम हाथ जोड़कर याचक की तरह खड़े हुए थे कि जीवन दे दो मुझे? जीवन मिल गया। जब जीवन मिल गया तो और क्या है, जो नहीं मिल सकेगा? थोड़ी प्रतीक्षा चाहिए। तो छठे ने कहा, हम बैठ जाएं। पके फल लगे हैं, हवा के झोंके आएंगे। फिर वृक्ष को भी तो दया होगी। फिर वृक्ष भी तो समझेगा कि हम भूखे हैं । फिर वृक्ष भी तो चाहता है कि कोई उसके फलों को चखे और प्रसन्न हो, आनंदित हो । नहीं तो वृक्ष की भी प्रसन्नता कहां है ? कवि के पास गीत हो तो गुनगुनाकर तुम्हें सुनाना चाहता है । तुम ताली बजाओ इसकी प्रतीक्षा करता है। संगीतज्ञ वीणा बजाना चाहता है । तुम्हारी आंखें आह्लाद से भर जाएं तो वह प्रफुल्लित होगा। फूलों की गंध बिखरती है और हवाओं पर सवार हो जाती है, दूर-दूर की यात्रा पर निकल जाती है कि कोई नासापुट प्रतीक्षा करते होंगे। वृक्षों के फल जब पक जाते हैं तो शाखाएं अपने आप नीचे झुक जाती हैं, ताकि कोई राहगीर आए तो शाखाएं बहुत दूर न हों । फिर जब फल पक जाते हैं तो अपने से गिरने लगते हैं। जो पक गया वह अपने से गिर आता है। महावीर यह कह रहे हैं, भरोसा करो, श्रद्धा करो। तुम जिस जीवन से आए हो उसी से वृक्ष भी आया। तुम दोनों जुड़े हो कहीं भीतर गहरे में। तुम्हारी भूख तुम्हारी ही भूख नहीं है, वृक्ष को भी पीड़ा होगी। तुम जरा भूखे होकर इस वृक्ष के नीच बैठ तो जाओ । इस सत्य को भी अब आधुनिक मनोविज्ञान ने बड़े प्रमाण दिए हैं। न्यूयार्क में एक वैज्ञानिक वृक्षों पर प्रयोग कर रहा था - — वृक्षों के संवेगों पर, भावनाओं पर । वह बड़ा हैरान हो गया। पहले किसी ने सोचा भी नहीं था कि वृक्षों में संवेग हो सकते हैं। महावीर के बाद जगदीशचंद्र बसु तक बात ही भूल गई थी। फिर जगदीशचंद्र बसु ने थोड़ी बात उठाई कि वृक्षों में जीवन लेकिन बसु भी धीरे-धीरे विस्मृत हो गए। विज्ञान से यह बात ही 2010_03 छह पथिक और छह लेश्याएं खो गई। इसकी चर्चा ही बंद हो गई। अभी अमरीका में फिर पुनः एक नया उदभव हुआ, आकस्मिक हुआ। दुनिया की बहुत-सी खोजें आकस्मिक हुई हैं। जो वैज्ञानिक काम कर रहा था वह किसी और दृष्टि से काम कर रहा था। लेकिन खोज में उसको यह अनुभव हुआ कि वृक्षों में कुछ संवेदनाएं मालूम होती हैं। तो उसने वृक्षों में महीन तार जोड़े और यंत्र बनाए देखने के लिए, कि वृक्ष भी कुछ अनुभव करते हैं ? तो 'तुम अगर वृक्ष के पास जाओ कुल्हाड़ी लेकर, तो तुम्हें कुल्हाड़ी लेकर आता देखकर वृक्ष कंप जाता है। अगर तुम मारने के विचार से जा रहे हो, वृक्ष को काटने के विचार से जा रहे हो तो बहुत भयभीत हो जाता है। अब तो यंत्र हैं, जो तार से खबर दे देते हैं। नीचे ग्राफ बन जाता है, कि वृक्ष कंप रहा है, घबड़ा रहा है, बहुत बेचैन है, तुम कुल्हाड़ी लेकर आ रहे हो। लेकिन अगर तुम कुल्हाड़ी लेकर जा रहे हो, और काटने का इरादा नहीं है, सिर्फ गुजर रहे हो वहां से तो वृक्ष बिलकुल नहीं कंपता । वृक्ष के भीतर कोई परेशानी नहीं होती । यह तो बड़ी हैरानी की बात है। इसका मतलब यह हुआ कि तुम्हारे भीतर जो काटने का भाव है, वह वृक्ष को संवादित हो जाता है। फिर जिस आदमी ने वृक्ष काटे हैं पहले, वह बिना कुल्हाड़ी के भी निकलता है तो वृक्ष कंप जाता है। क्योंकि उसकी दुष्टता जाहिर है। उसकी दुश्मनी जाहिर है । लेकिन जिस आदमी ने कभी वृक्ष नहीं काटे हैं, पानी दिया है पौधों को, जब वह पास से आता है तो वृक्ष प्रफुल्लता से भर जाता है। उसके भी ग्राफ बन जाते हैं कि कब वह प्रफुल्ल है, कब वह परेशान है। और वैज्ञानिक अदभुत आश्चर्यजनक निष्कर्षों पर पहुंचे हैं कि एक वृक्ष को काटो तो सारे वृक्ष बगीचे के कंप जाते हैं, पीड़ित हो जाते हैं । और एक वृक्ष को पानी दो तो बाकी वृक्ष भी प्रसन्न हो जाते हैं— जैसे एक समुदाय है। इससे भी गहरी बात जो पता चली है, वह यह कि एक वृक्ष के पास बैठकर तुम एक कबूतर को मरोड़कर मार डालो, तो वृक्ष कंप जाता है। जैसे कबूतरों से भी बड़ा जोड़ है, संबंध है। जैसे सारी चीजें जुड़ी हैं, संयुक्त हैं। होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि हम एक ही अस्तित्व की 427 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 तरंगें हैं। सागर तो एक है, हम उसकी ही लहरें हैं। एक लहर पर जाकर खड़े हो गए और कहा कि भोजन दो, तो जबर्दस्ती है। वृक्ष बन गई, एक लहर पशु बन गई, एक लहर मनुष्य बन गई, न देना हो उसे तो? इंकार करे तो बेइज्जती होती है, अपमान लेकिन हम सब भीतर जुड़े हैं। हम सब जीवन के ही अंग हैं। होता है। बेमन से दे तो लेने का मजा ही चला गया। तो महावीर कहते हैं, छठवां कहता है, बैठे। वह श्वेत लेश्या तो महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया। सिर्फ महावीर ने को उपलब्ध व्यक्ति है। उसके भीतर चंद्रमा की चांदनी फैल गई किया पृथ्वी पर। दो-दो महीने, महीने-महीनेभर के उपवास के है। वह होश से भरा व्यक्ति है। वह कहता है, काटने-पीटने की बाद गांव में जाते और अगर न मिलता तो वे प्रसन्नता से वापस जरूरत ही नहीं है। छीनने-झपटने की बात ही गलत है। जहां लौट आते। जीवन मुफ्त मिला है, वहां भोजन न मिलेगा? ___ इसमें कुछ विषाद भी न था, शिकायत भी न थी। वे कहते. तो जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को, देखो खेत में लगे हुए | ठीक है। आज भोजन की जरूरत न होगी। जब प्रकृति आज देने लिली के फूलों को; न तो ये श्रम करते हैं, न ये दुकान करते हैं, न | को तैयार नहीं है तो साफ है कि मेरे मन का ही खयाल होगा कि ये बाजार करते। फिर भी कोई अनजान, अपरिचित इनकी सब | भूख लगी है। अगर भूख लगी ही होती तो कहीं न कहीं, कहीं न जरूरतें पूरी कर जाता है। और देखो तो जरा इनके सौंदर्य को। कहीं प्रकृति में कंपन होता। कोई न कोई उपाय बनता। सम्राट सोलोमन भी अपनी सारी सजावट के साथ इतना सुंदर न एक दफा उन्होंने नियम ले लिया कि कोई राजकुमारी लोहे की था, जितने ये खेत के किनारे लगे लिली के फूल हैं। तुम इन जैसे जंजीरों में बंधी...अब राजकुमारी और लोहे की जंजीरों में हो जाओ: जीसस ने अपने शिष्यों से कहा। बंधी!-निमंत्रण देगी; द्वार पर कोई गाय खड़ी, उसके सींग में महावीर तो इस तरह जीए हैं। महावीर तो जब उन्हें भूख लगती | गुड़ लगा; तो स्वीकार करूंगा। कई दिन आए और गए, पूरा तो गांव में आ जाते। कैसे यह पक्का हो कि मैंने मांगा नहीं? तो | नगर परेशान हो गया। क्योंकि पूरा नगर देख रहा है कि उन्होंने वे सुबह ही जब ध्यान में होते तब निर्णय कर लेते कि आज किसी| कुछ व्रत लिया है, पूरा नहीं हो रहा है। हम भोजन भी नहीं दे पा द्वार के सामने कोई स्त्री अपने बच्चे को कंधे पर लिए खड़ी होगी रहे हैं। लोग रो रहे हैं, पीड़ित हैं, परेशान हैं। वे रोज आते हैं, और यदि निवेदन करेगी कि आप हमारे घर भोजन कर लें. तो मैं उसी प्रसन्नचित्त-भाव से, उसी आह्लाद से, चक्कर लगाकर गांव भोजन करूंगा। कोई स्त्री अगर कंधे पर बच्चे को लिए खड़ी | का वापस चले जाते हैं। ऐसा कई दिन हुआ। फिर एक दिन वह होगी तो! एक पैर बाहर निकला होगा देहली के, एक पैर भीतर घटना भी घट गई। वह जो बिलकुल अकल्पित मालूम पड़ती है होगा तो! | कि कभी कैसे घटेगी, वह भी घट गई। ऐसा ध्यान में तय कर लेते, फिर वे गांव में जाते। अगर ऐसी | एक बैलगाड़ी में गुड़ लदा जाता था। और कोई गाय पीछे से कोई युवती बच्चे को लिए हुए एक पैर देहली के बाहर, एक | उस गुड़ को खाने के लिए बढ़ी तो उसके सींग में गुड़ लग गया। खड़ी हो और निवेदन करे कि हे महामनि। आप कहां जा | वह गाय वहां खड़ी थी गड़ चबाती। सींग में गड़ लगा। और रहे हैं? सौभाग्य हमारा। हमारे घर को धन्य करें, भोजन ग्रहण | | बाप नाराज हो गया था तो अपनी बेटी को उसने हथकड़ियां कर लें। तो वे भोजन ग्रहण कर लेते। अगर ऐसा न होता तो वे | डलवाकर कारागृह में बंद कर दिया था। सींखचों के पार पूरे गांव का चक्कर लगाकर वापस चले आते। कई लोग रास्ते | राजकुमारी लोहे की जंजीरों में पड़ी थी। गाय सींग पर गुड़ लगाए में उनको कहते भी, कि भोजन ग्रहण कर लें, तो भी वे न करते। खड़ी थी। तो महावीर ने भोजन स्वीकार किया। क्योंकि जो उन्होंने स्वयं सुबह बांध लिया था नियम, उससे | महावीर कहते हैं, जब जरूरत होगी, मिलेगा। मांगो मत। अन्यथा नहीं। | मांगकर व्यर्थ दीन मत बनो। उस नियम का अर्थ था, महावीर कहते कि अगर प्रकृति को इसलिए श्वेत लेश्या का वे कह रहे हैं, छठवें ने कहा, चुप भी देना होगा तो वह नियम पूरा करेगी। अगर नहीं देना होगा तो हम | रहो। शांति से बैठो भी। वृक्ष से फल टपकेंगे। पके फल झपटेंगे नहीं। मांगने में तो झपटना हो जाएगा। किसी के दरवाजे चुनकर क्यों न खाए जाएं? 428 2010_03 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NITION छह पथिक और छह लेश्याएं जो तोड़ा जाए वह कच्चा होगा। जो कच्चा हो वह अभी खाने | यद्यपि जो छठवें तक पहुंच जाता है, उसे सातवें तक जाने में योग्य नहीं। जो अपने से गिर जाए वही पका होगा। वही खाने | कठिनाई नहीं होती। जिसने अंधेरी रातों के पर्दे उठा दिए, वह योग्य भी होगा। जो अपने से मिल जाए वही खाने योग्य है। फिर आखिरी झीने-से पारदर्शी सफेद पर्दे को उठाने में क्या प्रकृति दे रही है हजार-हजार ढंगों से। अगर आदमी झपटे न, अड़चन पाएगा? वह कहेगा, अब अंधेरा भी हटा दिया, अब तो भी मिलता है। पक्षियों को मिलता है, पशुओं को मिलता है, प्रकाश भी हटा देते हैं। अब तो हम जो हैं, जैसा है, उसे वैसा ही वृक्षों को मिलता है। देखा? वृक्ष तो कहीं जाते-आते भी नहीं। देख लेना चाहते हैं-निपट नग्न, उसकी सहज स्वभाव की जड़ जमाए एक ही जगह खड़े हैं। तो भी क्या कमी है? कुछ अवस्था में। तमसे कम हरे हैं? कुछ तुमसे कम ताजे हैं? कुछ तुमसे कम इन चित्त की दशाओं को हम छिपाने की कोशिश करते हैं। इन्हें जीवंत हैं? खूब हरे हैं। खूब जीवंत हैं। जमीन में जड़ें रोपे खड़े मिटाने की कोशिश करें। छिपाने से पाखंड पैदा होता है। छिपाने हैं। कहीं जाते भी नहीं। आने-जाने की चिंता भी नहीं करते। से कुछ छिपता भी नहीं। तुम लाख छिपाओ, पता चल ही जाता वहीं आना पड़ता है परमात्मा को देने। वहीं प्रकृति को लाना | है। तुमने कभी इस पर खयाल किया? इस पर निरीक्षण पडता है। वहीं बादल आकर बरस जाते हैं। वहीं जमीन | किया? तम जो-जो छिपाते हो. तम्हें लगता हो तमने छिपा हजार-हजार ढंगों से भोजन को जमा देती है। वहीं सूरज की लिया, लेकिन सभी को पता चल जाता है। | किरणें आ जाती हैं। वहीं हवा के झोंके प्राणवायु ले आते हैं। मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी से कह रहा था कि मैं जब वृक्षों तक के लिए यह हो रहा है तो आदमी की अश्रद्धा एक घंटे में वापिस आने का प्रयत्न करूंगा। यदि न आया तो खूब है, अदभुत है। यह होगा ही। लेकिन श्वेत लेश्या के जन्म शाम तक आ जाऊंगा। और अगर शाम तक भी न आ पाया तो के बाद ही ऐसी महत श्रद्धा का जन्म होता है कि सब होता है। समझ लेना कि मुझे अकस्मात बाहर जाना पड़ गया। वैसे अगर सब होगा ही, इस परम श्रद्धा से ही आदमी आस्तिक बनता है। मैं बाहर गया तो चपरासी से चिट्ठी जरूर भिजवा दूंगा। मुल्ला और महावीर कहते हैं कि ये छहों भी लेश्याएं हैं, छठवीं भी। | की पत्नी ने कहा, चपरासी को तकलीफ मत देना, मैंने चिट्ठी इनके पार वीतराग की, अरिहंत की अवस्था है। उस अरिहंत की | तुम्हारी जेब से निकाल ली है। अवस्था में तो कोई पर्दा नहीं रहा। शुभ्र पर्दा भी नहीं रहा। वह चिट्ठी तो लिखकर रखे ही हुए है! यह तो सब बातचीत '...इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म कमशः छहों कर रहे हैं। छिपाने के उपाय कर रहे हैं। लेश्याओं के उदाहरण हैं।' ___ हम जो भीतर हैं, उसकी एक अनिवार्य उदघोषणा होती रहती छठवीं लेश्या को अभी लक्ष्य बनाओ। श्वेत लेश्या को लक्ष्य है। अक्सर तो जिसे हम छिपाते हैं, हमारे छिपाने के कारण ही बनाओ। चांदनी में थोड़े आगे बढ़ो। चलो, चांद की थोड़ी यात्रा वह प्रगट हो जाता है। तुम देखो कोशिश करके। जिसे तुम करें। पूर्णिमा को भीतर उदित होने दो। छिपाओगे, तुम पाओगे, दूसरों को कुछ संकेत मिलने लगे। हिंदू संस्कृति का सारा सार इस सूत्र में है : एक पुलिसवाले ने मुल्ला नसरुद्दीन को रोककर कहा-वह सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्त निरामयः | अपनी कार में कहीं जा रहा है कि तुम्हारा लाइसेंस देखें जरा सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत। | मल्ला ने कहा, बड़ी हैरानी की बात है। लेकिन हवलदार साहब. सब सुखी हों, रोगरहित हों, कल्याण को प्राप्त हों। कोई दुख मैंने तो कोई नियम तोड़ा भी नहीं। लाइसेंस दिखाने की क्या का भागी न हो। जरूरत है? यह श्वेत लेश्या में जीनेवाले आदमी की दशा है। इसके पार उस हवलदार ने कहा, महानुभाव! तुम इतनी सावधानी से तो कहा नहीं जा सकता। इसके पार तो अवर्णनीय है, | मोटर चला रहे हो कि मुझे शक हो गया। सावधानी से चलाते ही अनिर्वचनीय का लोक है। इसके पार तो शब्द नहीं जाते। छठवें | वे लोग हैं, जिनके पास लाइसेंस नहीं। तक शब्द जाते हैं, इसलिए छठवें तक महावीर ने बात कर दी। तुम जो-जो छिपाने की चेष्टा करते हो, किसी बेबूझ ढंग से वह 1429 ___ 2010_03 . Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 प्रगट होने लगता है। तुम क्रोध छिपाना चाहते हो, तुम्हारे चारों | किसका क्या बिगाड़ रहे थे? किसी से कुछ लेना-देना न था। तरफ क्रोध की छाया पड़ने लगती है। तुम लोभ छिपाना चाहते | अपनी मौज में मस्त। दीवाने ढंग के आदमी थे। रहने देते इस हो, वह तुम्हारे चारों तरफ उसकी छाया पड़ने लगती है। तुम्हारे | दीवाने को। कौन किसका क्या बिगाड़ रहा था? किसी का कुछ छिपाए कुछ भी छिपेगा नहीं।। नकसान नहीं था। लेकिन जो आदमी इसके करीब आया उसे लाख बैठे कोई छुप-छुप के कमींगाहों में बेचैनी हुई। खून खुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग तुमने कहानी सुनी? अकबर ने अपने दरबारियों से कहा, यह साजिशें लाख उढ़ाती रहें जुलमत की नकाब लकीर मैं खींच देता हूं। इसे बिना छुए छोटा कर दो। वे नहीं लेकर हर बूंद निकलती है हथेली पे चिराग कुछ कर पाए। बीरबल उठा, उसने एक बड़ी लकीर उसके पास तुम किसी की हत्या करो, लाख छिपाने की कोशिश करो, | खींच दी। वह लकीर छोटी हुई बिना छुए। एक-एक बूंद चिराग लेकर तुम्हारी खबर देने लगती है। तुम | महावीर या बद्ध के पास जब तम खड़े होते हो, अचानक तम | चोरी करो, तुम लाख छिपाने की कोशिश करो, तुम्हारी आंखें, | छोटे हो गए। बड़ी लकीर खिंच गई। तुम नाराज होते हो। तम्हारे हाथ-पैर, तम्हारा उठना-बैठना, सब तुम्हारे चोर होने की | तुम्हारी नाराजगी तुम्हारे इस दीनभाव से मने खबर देने लगते हैं। वह तो तुम अंधों के बीच रहते हो, इसलिए | मुझे छोटा किया। कुछ किया नहीं किसी ने। तुम्हें छुआ भी शायद लोगों को पता नहीं चलता। क्योंकि वे खुद, खुद को | नहीं। लेकिन अब महावीर भी क्या करें, उनकी बड़ी लकीर है। छिपाने में लगे हैं, तुम्हारी फिक्र किसको है? तुम चोरों के बीच | मजबूरी है। तुम पास आते हो, तुम्हारी छोटी लकीर! तुम छोटे | रहते हो, इसलिए तुम्हारी चोरी शायद थोड़ी-बहत छिप भी जाती | मालम पड़ते हो।। है, पता नहीं चलता। कहते हैं, ऊंट पहाड़ों के पास जाने से डरते हैं। डरते हों, इसीलिए लोग संतों के पास जाने से डरते हैं। इसीलिए लोगों क्योंकि तब तक पहाड़ नहीं होता तब तक वे पहाड़ होते हैं। जब ने संतों का सदा ही बहिष्कार किया। कभी उनको पत्थर मारे, पहाड़ के पास जाते हैं, तब पता चलता है, अरे। हम और कछ कभी जहर पिलाया, कभी सूली लगा दी। इसके पीछे कोई बहुत भी नहीं। मगर ऊंट इतने नासमझ नहीं हैं कि पहाड़ों को सूली पर महत्वपूर्ण कारण है। इतने लोग नाराज क्यों थे? जीसस से लटका दें। कि पहाड़ों को जहर पिला दें। मगर आदमी बड़ा नाराजगी का कारण क्या था? सीधा-सादा आदमी! रहा होगा पागल है। थोड़ा झक्की। बाकी किसी का कोई नुकसान तो कर नहीं रहा हम नाराज रहे सुकरात पर, जीसस पर, बुद्ध पर, महावीर था। इसके लोग पीछे क्यों पड़ गए? इसको मार डालने की पर। हमारी नाराजगी का कारण है। हमारे अंधेरे पर्दे, हमारी इतनी क्या आतुरता? अंधेरी शकलें, हमारे घाव भरे हुए चित्त, हमारी बहती मवाद, कुछ अड़चन थी। यह आदमी एक चलता-फिरता आईना हमारी सड़ांध, सब उनके सामने आकर खलने लगती है। वहां | था। जो आदमी इसके सामने आया, उसे अपनी शक्ल दिखाई छिपाना मुश्किल हो जाता है। उनके सामने हम आकर बेपर्दा पड़ी। नाराजगी आती है आईने पर। लोग अगर आईने में होने लगते हैं। और वे हमसे कहते हैं, बेपर्दा हो जाओ। तो एक देखकर उन्हें पता चले कि कुरूप हैं तो आईने को तोड़ देते हैं। दिन ऐसी घड़ी भी आएगी, जब सब पर्दे गिर जाएंगे, तब तुम क्योंकि वे कहते हैं, यह आईना हमें कुरूप बनाए दे रहा है। पाओगे कि तुम्हारे भीतर वह छिपा है, जो सदा कुंआरा है; जो लोग जीसस पर नाराज हो गए। क्योंकि इस जीसस की सदा पवित्र है; जिसको रुग्ण होने का कोई उपाय नहीं और मौजूदगी में जो-जो उन्होंने छिपाया था, वह उदघोषित होने | जिसके अशुद्ध होने की कोई संभावना नहीं। लगा। इस आदमी की मौजूदगी में छिपाना मुश्किल था। लेकिन उस तक जाने के लिए, बड़ी बीमारियां हमने पाल रखी महावीर को लोगों ने खूब पत्थर मारे, खूब परेशान किया। | हैं, उनको गिराना होगा। उन बीमारियों को हमने बड़े गांवों से भगाया। कहीं टिकने न दिया। क्या अड़चन? महावीर | साज-संवारकर रखा है। बड़ा आगंन छवा, लिपा पुताकर रखा 1430 | Jair Education International 2010_03 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Hawa छह पथिक और छह लेश्याएं SumimiliaHINDIRAT R AINMENT है। उनके लिए हमने बड़ी सुविधा जुटाकर रखी है, क्योंकि अब तक जो दावे किए हैं, वे सब छोड़ देने होंगे। बीमारियों को हमने मित्र समझा है। | संसार के ऊपर तुमने जो दावे किए हैं, उनको छोड़ देना महावीर कहते हैं, आत्मा ही शत्रु है अपनी, आत्मा ही मित्र। संन्यास है। संसार को छोड़ देना संन्यास नहीं है, संसार के ऊपर अगर शत्रुओं को बसाने लगे अपने पास-क्रोध, मान, लोभ, किए गए दावों को छोड़ देना संन्यास है। और इन दावों को माया, मोह-तो आत्मा अपनी ही शत्रु हो जाती है। मित्रों को छोड़कर कुछ खोता नहीं। क्योंकि इन दावों से कुछ मिलता बसाने लगे तो मित्र हो जाती है। | नहीं। इन दावों को छोड़कर ही कुछ मिलता है। क्योंकि इन दावे महावीर की जो ऊंचाई है, वह तुम्हारी भी है। जीसस की जो के कारण ही कुछ छिपा है और ढका पड़ा है। पवित्रता है, वह तुम्हारी भी है। कृष्ण का जो आनंद है, वह जो तुम्हारा है उसे पाने की दिशा में बढ़ो। और जो तुम्हारा नहीं तुम्हारा भी है। लेकिन तुम्हें दावा करना होगा। और इस दावे के है, जानो कि तुम्हारा नहीं है। न धन तुम्हारा है, न पद तुम्हारा है, लिए तुम्हें छोटे दावे छोड़ने होंगे। तुम्हें क्षुद्र के दावे छोड़ने होंगे, न प्रतिष्ठा तुम्हारी है। जो भी बाहर मिल सकता है उसमें कुछ भी अगर विराट का दावा करना है। तुम्हें जमीन से आंखें उठानी तुम्हारा नहीं है। तुम आए खाली हाथ, तुम जाओगे खाली हाथ। होंगी, अगर आकाश के मालिक बनना है। तुम इस बात को जिस दिन समझ लोगे कि खाली हाथ आना, उसकी ऊंचाई के सन्मख हिमगिरि नगण्य खाली हाथ जाना; थोड़े दिन बीच में हाथ का भर लेना संसार से, उसकी नीचाई के सन्मुख नीचा पाताल कुछ सार नहीं रखता है। उसी दिन तुम उसकी तलाश में निकल उसकी असीमता के सन्मुख आकाश क्षुद्र पड़ोगे, जो तुम्हारे भीतर है जन्म के पूर्व; और जो तुम्हारे भीतर उसकी विराटता के सन्मुख अति क्षुद्र काल होगा मृत्यु के बाद। और जो तुम्हारे भीतर बह रहा है अभी भी, है आंख उसकी वर्षा ही करती बादल से इस क्षण भी। इस क्षण भी तुम भीतर मुड़ो तो उसी सागर से है उसकी ही मुस्कान थिरकती फूलों पर मिलन हो जाता है। संगीत उसी का गूंज रहा है कोयल में महावीर की व्याख्या में ये छह पर्दे तुम हटा दो, ये छह चक्र तुम हैं बिंधे उसी के स्वप्न नुकीले सूलों पर तोड़ दो और तुम्हारी ऊर्जा सातवें चक्र में प्रविष्ट हो जाए तो सौंदर्य सकल यह उसका ही प्रतिबिंब रूप तुम्हारे भीतर उस कमल का जन्म होगा, जो जल में रहकर भी है स्वर्ग उसी की सुंदरतम कल्पना नीड़ जल को छूता नहीं। है नर्क उसी की ग्लानि घृणा का गेह ग्राम उस पवित्रता को जो नहीं खोजता, वही अधार्मिक है। उस जग की हलचल उसके ही मन की भाव-भीड़ पवित्रता की जो खोज में निकलता है, वही धार्मिक है। शब्दों में वह अणु में बंदी होकर भी है मुक्त सदा बहुत मत उलझना। उस पवित्रता को कुछ लोग परमात्मा कहते वह जल में रहकर भी जल से है बहुत दूर हैं, कहें, सुंदर शब्द है। कुछ लोग उस पवित्रता को आत्मा कहते जलकर भी ज्वाला में न राख बनता है वह हैं, कहें; सुंदर शब्द है। कुछ लोग उसे आत्मा भी नहीं कहना पाषाणों में दबकर भी होता नहीं चूर चाहते, परमात्मा भी नहीं कहना चाहते, शून्य कहते हैं; बड़ा वह विराट, वह निरंतर शुद्ध, वह शाश्वत शुद्ध, वह सदा सुंदर शब्द है। पवित्र तुम्हारा स्वभाव है। लेकिन हटाओ पर्दे। कहो ब्रह्म, कहो शून्य, लेकिन एक बात स्मरण रखो कि जो वह अणु में बंदी होकर भी है मुक्त सदा बाहर है, वह तुम्हारा नहीं है। जो भीतर है, जो तुम हो, बस वही वह जल में रहकर भी जल से है बहुत दूर केवल तुम्हारा है। और शेष सब पर्दे गिरा दो। तो इस शुद्धतम जलकर भी ज्वाला में न राख बनता है वह की प्रतीति सच्चिदानंद से भर जाती है। पाषाणों में दबकर भी होता नहीं चूर सच्चिदानंद होकर भी हम भिखारी बने हैं। एक झूठा सपना पर उसकी घोषणा के पहले, उस पर दावा करने के पहले तुमने देख रहे हैं। व्यर्थ मांग रहे हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। 431 2010_03 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 खोज रहे हैं उसे, जो हमारे भीतर ही पड़ा है। उसकी तलाश कर रहे हैं...। तुमने कभी देखा? कभी-कभी हो जाता है। आदमी चश्मा लगाए चश्मा खोजने लगता है। भूल ही जाता है कि चश्मा तो आंख पर चढ़ा है। भूल ही जाता है कि उसी चश्मे से मैं चश्मे को खोज रहा हूं। ऐसे मौके तुम्हें भी आए होंगे। इस जीवन में कुछ ऐसा ही घटा है। जो है, भूल गया है। सिर्फ विस्मरण हुआ है, उसे हमने खोया नहीं है। मात्र स्मरण पर्याप्त है। स्मरण मात्र से उसे पाया जा सकता है। धर्म है—खोज नहीं, पुनर्योज। पाए हुए की खोज; मिले हुए की खोज। जो प्राप्त है उसकी प्राप्ति का उपाय। लेकिन इन छह पर्यों से लड़ना होगा। कठिन नहीं है लड़ाई। क्योंकि हमारे ही सहयोग से पर्दे खड़े हैं। सहयोग के हटते ही गिरने शुरू हो जाते हैं। आज इतना ही। _432 Jan Education International 2010_03 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern 03 For www.jal Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवां प्रवचन पिया का गांव Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थापा प्रश्न-सार न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे चली रे, चली रे, मेरी नाव चली रे कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली मैंने कहा पिया के गांव चली रे momsungwwse Me जैन दर्शन कहता है कि इस आरे में मोक्ष संभव नहीं है। तो फिर मोक्ष यहीं और अभी है, इस धारणा को पकड़ लेना क्या आत्मवंचना नहीं है? m STATER N MPAN ACC ANCHO कार REER C. . . DP 2010_03 www jainelibrary.org Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न: मैं जब प्रथम-प्रथम आपको मिली थी है, बेहोशी और होश के बीच में लटका है। आदमी त्रिशंक की तब कुछ भी तो पता नहीं था। न मालूम आपने स्थिति में है। और आदमी की स्थिति में से पार होने के दो ही कहां से कहां चला दिया! एकांत अब प्रीतिकर | उपाय हैं—या तो गिर जाओ वापस बेहोशी में, जो कि असंभव लगता है। अब तो न कहीं जाना है, न आना। न कुछ होना है है। हो जाओ पश-पक्षी पुनः, जो कि असंभव है। क्योंकि और न कुछ जानना है। बहुत कुछ पाया, जिसके योग्य न थी। विकास की किसी भी स्थिति से वापस नहीं लौटा जा सकता है। बस, अब तो अलविदा और प्रणाम। जो जान लिया, जान लिया। उसे फिर अनजाना नहीं किया जा न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे सकता। जहां तक आ गए हैं, यह तो हो सकता है आगे न जाएं, चली रे चली रे मेरी नाव चली रे लेकिन पीछे नहीं जा सकते। अटके रह जा सकते हैं। और वही कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली अटकाव बेचैनी और अशांति बनता है। मैंने कहा पिया के गांव चली रे और दो ही उपाय हैं: या तो पूरी बेहोशी हो, कि यह भी न पता चले कि मैं कौन हूं? कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। पता का साधारणतः किसी को भी पता नहीं है कि कहां जा रहे हैं। जा | भी पता न चले। बेहोशी की भी याद न आए। थोड़ी-सी भी रहे हैं जरूर। गति से जा रहे हैं, शक्ति से जा रहे हैं, लेकिन होश की किरण न हो। स्पष्ट नहीं है कि कहां जा रहे हैं। कहां से आ रहे हैं, इसका भी ऐसी आदमी चेष्टा करता है। शराब पीकर कभी चेष्टा करता कुछ पता नहीं है। | है कि भूल जाएं सब। वह चेष्टा फिर से पशु हो जाने की चेष्टा कहां से आना, कहां से जाना तो दूर की बातें हैं, यह भी ठीक है। कभी धन की दौड़ में, कभी पद की दौड़ में वे भी शराबें पता नहीं है कि कौन हैं। कौन है यह जो तुम्हारे भीतर चल रहा, हैं; उनमें कभी आदमी अपने को भुला लेना चाहता है, लेकिन जी रहा, सुख भोग रहा, दुख भोग रहा, चिंतित होता है, ध्यान | भूल नहीं पाता। शराब कितनी देर साथ देगी? सुबह फिर करता है-कौन छिपा है तुम्हारे भीतर? स्मरण वापस लौट आता है—और भी प्रगाढ़ होकर, और भी मनुष्य की स्थिति बड़ी विक्षिप्त है। पशु-पक्षियों की स्थिति भी चुभता हुआ, और भी धार लेकर। बेहतर है। उन्हें भी पता नहीं कि कौन हैं, कहां जा रहे हैं। मनुष्य | पद की दौड़, धन की दौड़, यश की दौड़ एक न एक दिन टूटती की विडंबना यह है कि उसे इतना पता है कि पता नहीं कौन है! है। वह नशा भी एक दिन उखड़ता है। एक दिन पद पर पहुंचकर इतना पता है कि पता नहीं कहां जा रहे हैं। पता चलता है, कहां पहुंचे? चले बहुत, पहुंचे कहीं भी नहीं। पश-पक्षी ऐसे चल रहे हैं, जैसे बेहोश। आदमी होश में नहीं धन जोड़कर एक दिन पता चलता है कि जो जोड़ लिया, वह 2010_03 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भाग : 2 - बाहर का बाहर पड़ा रह जाएगा। और हम भीतर तो खाली के किसलिए आए हो। तम्हें भी साफ नहीं होता. क्या घटेगा? खाली रह गए। यह जोड़ कुछ जोड़ न हुआ। यह धन अपना न | तुम्हें भी साफ नहीं होता कि तुम्हें मैं कहां ले चलूंगा? हो भी नहीं हो सका तो 'धन' कैसे हो सकेगा? मौत छीन लेगी, जो छिन | सकता साफ। क्योंकि पता तो हमें उसी का होता है. जो हो जाएगा उसे धन क्या कहना? जो छिन जाएगा वह विपत्ति हो | चुका। जो नहीं हुआ है उसका तुम्हें पता नहीं होता। सकती है, संपत्ति नहीं। सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि जो तुम्हारा भविष्य है वह एक विकल्प है कि आदमी लौट जाए, जो कि हो नहीं सकता। उसका अतीत है। जो तुम्हें अभी होना है, उसके लिए हो चुका। झूठा विकल्प है। भ्रामक विकल्प है। रास्ता वहां से जाता नहीं, इसे समझ लेना। सदगुरु का बस इतना ही अर्थ है कि जो सिर्फ दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ता है क्योंकि हम वहां से तुम्हारा भविष्य है, वह उसका अतीत है। वह स्वयं तो अपने होकर आए हैं। | अतीत में नहीं जा सकता, लेकिन तुम्हें तुम्हारे भविष्य की झलक तुम्हें पता है जो बीत गया कल, उसका। जो बीत गया परसों, दे सकता है। वह उस रास्ते से गुजर चुका, जिससे तुम्हें अभी उसका। यद्यपि लौट नहीं सकते वहां। जिसका पता है वहां लौट गुजरना है। वह हो चुका फूल, तुम अभी बीज हो। बीज को पता नहीं सकते। जाना तो पड़ेगा उस कल में, जिसका अभी पता नहीं भी कैसे हो सकता है? है। जाना पड़ेगा भविष्य में, अनजान में। जो जाना-माना है | ठीक पूछा है कि 'मैं जब प्रथम-प्रथम आपको मिली थी तब अतीत, वहां लौटा नहीं जा सकता। समय को पीछे की तरफ | कुछ भी तो पता नहीं था।' लौटाया नहीं जा सकता। घड़ी के कांटे पीछे की तरफ चलाए | अगर कुछ पता होता तो पहली तो बात, मुझसे मिलना नहीं जा सकते। घड़ी के चला लो, जीवन के नहीं चलाए जा मुश्किल हो जाता। क्योंकि जिनको पता है, वे यहां आते नहीं। सकते। मगर परिचय उससे है, जो बीत गया। परिचय उससे है, जिनको पता है, उनका दंभ उन्हें यहां न आने देगा। उनका ज्ञान जो अब कभी न होगा। और उससे कोई परिचय नहीं है, जो होने | ही बाधा है। पता ही होता, तब तो ठीक था। पता भी नहीं है, जा रहा है। | सिर्फ भ्रांति है कि पता है। गीता पढ़ ली है, करान पढ़ लिया है, पशता मनुष्यता का अतीत है, परिचित है। इसलिए तो आदमी | धम्मपद पढ़ लिया है, महावीर के वचन कंठस्थ कर लिए हैं। शराब पी लेता है। इसलिए तो पद, धन की दौड़ में लग जाता | पता बिलकुल नहीं है। महावीर को पता रहा होगा, महावीर के है। भलाने के हजार उपाय खोज लेता। फिर शराब हो, कि | वचन याद कर लेने से तुम्हें पता नहीं हो जाएगा। कृष्ण को । संभोग हो, कि संगीत हो, कहीं भी भुलाने का उपाय आदमी जब मालूम रहा होगा, लेकिन गीता कंठस्थ होने से तुम्हें मालूम नहीं खोजता है कि अपने होश की छोटी-सी किरण को डुबा दूं; यह हो जाएगा। छोटा-सा दीया भी बझ जाए, गहन अंधकार हो जाए, तो कम से तम्हारा जीवंत अनुभव होगा तो ही कम द्वंद्व तो मिटे! अंधेरा ही बचे। अंधेरे का ही अद्वैत सही, इसलिए शास्त्र ज्ञान दे सकता है। और ज्ञान बाधा बन सकता लेकिन अद्वैत तो हो जाए। एक तो बचे! दो की दुविधा तो न है। बोध तो केवल शास्ता से मिलता है, शास्त्र से नहीं। शास्ता रहे। पर यह हो नहीं पाता। लाख बुझाओ इस किरण को, यह का अर्थ है, जीवित शास्त्र। जिसको हुआ है ऐसे किसी आदमी बुझेगी नहीं। | को खोज लेना। उसके माध्यम से ही शास्त्रों का अर्थ और तो दूसरा उपाय है और दूसरा ही केवल उपाय है कि पूरे | अभिप्राय तुम्हारे लिए खुलेगा। जागरूक हो जाओ। जैसे पूरी बेहोशी में एक सुख है क्योंकि | और ऐसा आदमी खोजना हो तो पहली शर्त है कि अपने ज्ञान अखंड रूप से अद्वैत है, अंधेरे का है। वैसे ही पूरे होश में | की भ्रांति छोड़ देना। गुरु से मिलना हो ही नहीं सकता, अगर महाआनंद है, महासुख है; वह भी अखंड एकता का है। कोई शिष्य को थोड़ा भी खयाल हो कि मुझे मालूम है। जितना मालूम अंधेरा न बचा। भीतर सारा अंधकार समाप्त हो गया। है उतनी ही दीवाल रहेगी। उतनी ही ओट रहेगी। शिष्य का अर्थ तो जब तुम मेरे पास आते हो तो तुम्हें भी साफ नहीं होता ही है इस बात की घोषणा, कि मुझे मालूम नहीं। इस बात की 1438 2010_03 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पिया का गांव पिया का गांव घोषणा, कि मैं अज्ञानी हूं। है, थोड़ा सुधारकर मांग लोगे। जो सुख तुम्हें पहले मिले हैं, जब तुम अज्ञानी किसी के समक्ष अपने को स्वीकार कर लेते | थोड़ी तरमीम, संशोधन करके मांग लोगे। हो तो क्रांति के लिए तत्पर हो गए, तैयार हो गए। अहंकार तुमने अभिनव को कैसे मांगोगे? जो तुमने जाना ही नहीं, जीया ही हटाकर रख दिया। नहीं, उसे कैसे मांगोगे? प्रश्न पूछा है तरु ने। खतरा था; क्योंकि पंडितों का सत्संग इसलिए जो जानता है, थोड़ा-सा भी जानता है, थोड़ा-सा भी उसने किया है मुझसे पहले। साधु-संन्यासियों के पास गई है। समझता है, वह अड़चन में पड़ जाता है। उसकी प्रार्थना कलुषित स्वामियों के प्रवचन सुने हैं। खतरा था। ज्ञान उसके पास था। हो जाती है। उसकी पूजा में उसके ज्ञान की छाया पड़ जाती है। लेकिन उसने हिम्मत की और अज्ञानी होने के लिए राजी हुई। | उसकी पूजा की शुभ्रता उसके ज्ञान की कालिमा से दब जाती है। उसी हिम्मत से घटना घटी। __ तो जब तुम मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना करो तो कुछ डर था कि वह अपने ज्ञान को पकड़ लेती। जो सुना-समझा मांगना मत। क्योंकि तुम जो मांगोगे, वह गलत होगा। तुम जो था उसे पकड़ लेती तो मुझसे मिलना न हो पाता।। मांगोगे वह गलत ही हो सकता है। काश! तुम्हें ठीक का ही पता मेरे पास भी रहकर बहुत हैं, जो मुझसे वंचित रह जाएंगे। होता तो मंदिर जाने की जरूरत ही न होती। अगर ज्ञान की जरा भी दीवाल रही तो मैं यहां चिल्लाता रहूंगा, तुम्हें ठीक का पता नहीं है। इसलिए तुम्हारी मांग में ही भूल आवाज तुम तक पहुंचेगी नहीं। मैं रोज-रोज तुम्हें समझाता होगी। तुम वही मांगोगे, जो तुम पहले मांगते रहे हो। तुम रहूंगा, तुम रोज-रोज चूकते रहोगे। मैं रोज-रोज दोहराता रहूंगा फिर-फिर दोहराकर उसी रास्ते से घूमते रहोगे, जिस पर तुम और तुम बहरे...और बहरे होते जाओगे। ज्ञान कान में भरा हो | पहले घूमते रहे हो। तुम कोल्हू के बैल की तरह चलते रहोगे। तो कान सनने में असमर्थ हो जाते हैं। ज्ञान आंख में भरा हो तो इसलिए अगर थोड़ी समझ हो तो मांगना मत। झोली फैलाकर आंख देखने में असमर्थ हो जाती है। खड़े हो जाना, मांगना मत। हृदय खोलकर खड़े हो जाना, अज्ञान को स्वीकार करने में एक निर्दोषता है। मांगना मत। यह मत कहना कि यह दे, वह दे। इतना ही कठिन था। तरु को पता था। बहुत-सी बातें पता थीं। और कहना : झोली खुली है। तू देगा तो हम स्वीकार करेंगे आनंद से, बहुत मुश्किल होता है कि जो तुम्हें पता है, उसे हटाकर रख अहोभाव से। तू नहीं देगा तो हम समझेंगे, यही तेरा देना है। तू देना। उसे ही मैं त्याग कहता हूं। धन, पद, प्रतिष्ठा, इनका झोली खाली रखेगा तो हम समझेंगे, यही हमारी झोली का भरा त्याग कुछ भी नहीं है, ज्ञान का त्याग ही वास्तविक त्याग है। होना है। खालीपन से ही तूने हमारी झोली भरी है। त चाहता है, क्योंकि ज्ञान से जितना अहंकार भरता है, उतना किसी चीज से हम खालीपन में जीएं। तो हम नाचेंगे, गुनगुनाएंगे, आनंदित नहीं भरता। ज्ञान जैसी अकड़ देता है, रीढ़ को जैसा सख्त, | होंगे; मांगेंगे नहीं।। पथरीला कर देता है, वैसी कोई चीज नहीं करती। ___ ध्यान रखना, जिसने प्रार्थना में मांगा, उसकी प्रार्थना तो खराब छोड़ सकी तो पाने का रास्ता बना। झक सकी तो भरने का ही हो गई। उस मांगने के कारण प्रार्थना तो प्रार्थना ही न रही। उपाय हुआ। प्रार्थना में आदमी अपने को देता है, मांगता नहीं। पूछा है : 'न मालूम आपने कहां से कहां चला दिया। तो जो मेरे पास आए हैं और जिनको खयाल है कि कुछ मिल क्योंकि जो वह सोचकर आयी होगी, उस तरफ तो मैं नहीं ले जाए; और जिनकी जितनी स्पष्ट धारणा है कुछ पाने की, उतनी गया। क्योंकि तम जो सोचकर आते हो, वह तो गलत ही है। ही अड़चन है। तो बार-बार उनके मन में यही अपेक्षा गूंजती 'तुम' सोचकर आते हो, तुम्हारा सोचना तुम्हारे अतीत का ही रहती है-अभी तक मिला नहीं, अभी तक मिला नहीं। और जो प्रतिफलन होता है। अन्यथा हो भी नहीं सकता। तुम जो मिल रहा है, वह उन्हें दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उनकी आंख सोचकर आते हो, वह तुम्हारी अतीत की ही कुछ पुनरावृत्ति होता | में उनकी मांग भरी है। वे अपनी ही मांग को दोहराए चले जा रहे || है। जो तुमने जाना है, उसी को तो मांगोगे। जो तुमने पहले जाना हैं। मांग अंधा कर देती है। 1439 2010_03 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 जिन सूत्र भाग: 2 तरु ने कुछ मांगा नहीं । जो उसे मैंने कहा, उसने किया है। कहा, गीता पढ़ तो गीता पढ़ी। कहा, उपनिषद पढ़ तो उपनिषद पढ़ा। कहा, चल जिन सूत्र पढ़ तो जिन सूत्र पढ़े। कहा, धम्मपद पढ़ तो धम्मपद पढ़ा। कहा, भजन गा भजन गाए। जो उसे कहा, उसने किया है। मांगा उसने कुछ नहीं । जो करने को कहा है, उसे इंकार नहीं किया। उसने सरलता से मेरे हाथों में अपने को छोड़ा। उसके परिणाम होने स्वाभाविक हैं। उसके महत परिणाम होते हैं। तो यह संभव हो सका कि जिसका उसे खयाल भी नहीं रहा होगा, जो वह कभी सपने में भी मांग नहीं सकती थी, उस तरफ यात्रा शुरू हुई। जब तुम अपने अतीत से कुछ भी दोहराना नहीं चाहते, तो अभिनव का पदार्पण होता है। परमात्मा सदा नया है। सत्य सदा नया है। सत्य इतना नया है कि उसकी कोई धारणा भी नहीं की जा सकती। और एक बार तुम्हें सत्य के इस नयेपन का अनुभव हो जाए तो तुम सब मांग छोड़ देते हो। तब एक नई प्रतीति होनी शुरू होती है कि इतना मिल रहा है और हम याचक बने हैं ! हमने यह भूल हो गई। फिर तुम जो मांगते हो, अगर मिल जाए तो भी धन्यवाद पैदा नहीं होता। क्योंकि जो तुमने मांगा है, तुम सोचते हो, तुमने अर्जित किया। लोग मांगने में भी अगर कई दिन तक मांगते रहें तो धीरे-धीरे अधिकारी हो जाते हैं। वे सोचने लगते हैं, हमने इतनी प्रार्थना की इसलिए मिला। प्रार्थना की इसलिए ! भिखमंगा भी जब सड़क पर आधा घंटे मांगता रहता है और तुम देते हो तो धन्यवाद थोड़े ही देता है ! वह जानता है कि आधा घंटे चीखे - चिल्लाए, श्रम किया। और अगर तुम रोज-रोज देने गो तो धन्यवाद देना तो दूर, अगर तुम किसी दिन न दोगे तो वह नाराज होगा। रथचाइल्ड के संबंध में मैंने सुना है - यहूदी धनपति — एक भिखमंगे को वह रोज हर महीने पहली तारीख को सौ डालर देता था। वह भिखमंगा उसे जंच गया। एक दिन बगीचे में उसी बेंच पर आकर बैठ गया था। दया आ गई। कोई रथचाइल्ड के पास कमी न थी । उसने कहा कि तू सौ डालर हर महीने एक तारीख को आकर ले जाया कर । वह भिखमंगा इस तरह से उसके दफ्तर में आने लगा, जैसे लोग अपनी तनख्वाह लेने जाते हैं। अगर 2010_03 दस-पांच मिनट भी उसको रुकना पड़ता तो वह नाराज हो जाता, चीख-पुकार मचाने लगता । कोई दस साल तक ऐसा चला । एक दिन आया लेने तो जो क्लर्क उसे देता था - और भी भिखमंगों को रथचाइल्ड बांटता था। बहुत धन उसने बांटा — उसने कहा कि इस तारीख से अब तुम्हें पचास डालर ही मिल सकेंगे। उसने पूछा, क्यों? सदा मुझे सौ मिलते रहे। सालों से मिलते रहे। यह फर्क कैसा ! उस क्लर्क ने कहा कि ऐसा करें, मालिक का धंधा बहुत लाभ में नहीं चल रहा है। और उनकी लड़की की शादी हो रही है। और उस लड़की की शादी में बहुत खर्च है। तो उन्होंने सभी दान आधा कर दिया है। वह तो एकदम टेबल पीटने लगा। उसने कहा बुलाओ रथचाइल्ड को, कहां है ! मेरे पैसे पर अपनी लड़की की शादी? एक गरीब आदमी का पैसा काटकर लड़की की शादी में मजा, गुलछर्रे उड़ाएगा? बुलाओ, कहां है! रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं गया और मुझे बड़ी हंसी आयी। लेकिन मुझे एक बात समझ में आयी कि यही तो मैं परमात्मा के साथ करता रहा हूं। यही तो हम सबने परमात्मा के साथ किया है। जो मिला है उसका हम धन्यवाद नहीं देते। उस दस साल में उसने कभी एक दिन धन्यवाद न दिया। लेकिन पचास डालर कम हुए वह नाराज था, शिकायत थी। और आगबबूला हो गया। उसके पचास डालर काटे जा रहे हैं? अगर तुमने मांगा तो पहली तो बात, मिलेगा नहीं । और शुभ है कि नहीं मिलता क्योंकि तुम जो भी मांगते हो, गलत मांगते हो। तुम सही मांग ही नहीं सकते। तुम गलत हो । गलत से गलत मांग ही उठ सकती है। नीम में केवल नीम की निबोरियां ही लग सकती हैं, आम के सुस्वादु फलों के लगने की कोई संभावना नहीं है । जो तुम्हारी जड़ में नहीं है, वह तुम्हारे फल में न हो सकेगा। तुम गलत हो तो तुम जो मांगोगे वह गलत होगा। तो पहली तो बात – मिलेगा नहीं। और शुभ है कि नहीं मिलता । परमात्मा की बड़ी अनुकंपा है कि तुम जो मांगते हो, वह नहीं मिलता। इसे कभी सोचना बैठकर कि तुमने जो-जो मांगा था अगर मिल जाता तो कैसी मुसीबत में पड़ते ! लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि मिल जाता है । तो जो Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिया का गांव मिल जाए तो भी धन्यवाद पैदा नहीं होता, कृतज्ञता पैदा नहीं आभा होती है। होती, और जिस प्रार्थना का परिणाम कृतज्ञता न हो, वह प्रार्थना भाषाकोश में तो दोनों शब्दों का एक ही अर्थ लिखा है, लेकिन प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना का पहला स्वाद भी कृतज्ञता है और जीवन के कोश में बड़ा भेद है। इसलिए भाषाकोश पर बहुत मत अंतिम स्वाद भी कृतज्ञता है। एक गहरा अनुग्रह का भाव! जाना। भाषा को बहुत जाननेवाले लोग अक्सर जीवन से वंचित तो जिस प्रार्थना के पीछे अनुग्रह का स्वाद छूट जाए, समझ रह जाते हैं। अगर तुम भाषाकोश में देखोगे, डिक्शनरी में देखोगे लेना कि प्रार्थना ठीक थी; पहुंच गई परमात्मा के हृदय तक। पूरी तो एकांत, एकाकी, अकेला, सबका एक ही अर्थ है। भाषाकोश हुई या नहीं, यह सवाल नहीं है। अगर अनुग्रह का भाव पैदा कर की तो अंधेर नगरी है। वहां तो सभी चीज एक भाव बिक रही गई तो पूरी हो गई। | है। 'अंधेर नगरी बेबूझ राजा, टके सेर भाजी, टके सेर तो जो मेरे पास आए हैं, अगर उनकी कुछ मांग है, तो एक तो खाजा।' सभी एक भाव बिक रहा है। मांग बाधा बनेगी। मुझसे मिलन न हो पाएगा। अगर मिल भी जीवन का कोश बड़ा अलग है। फासले बड़े सूक्ष्म हैं। गए, उनकी मांग पूरी भी हो गई तो कृतज्ञता पैदा न होगी। महावीर एकांत में होते हैं; तुम जब होते हो, अकेले होते हो। तुम असंभव है। और अगर कृतज्ञता पैदा न हुई तो आस्तिकता पैदा | जब होते हो तब तुम सोचते होते हो कि दूसरे को कहां खोज लूं! नहीं होती। - पत्नी को, पति को, मित्र को, बेटे को, पिता को, भाई को, समाज परमात्मा को चाहे भूल जाओ, कृतज्ञता को मत भूलना। को-दूसरे को कैसे खोज लूं? सच तो यह है कि जब तक क्योंकि कृतज्ञता का संचित जोड़ ही परमात्मा है। जितने तुम दूसरा मौजूद होता है, तब तक तुम्हें दूसरे की याद ही नहीं आती। अनुग्रह के भाव से भरते जाते हो, उतना ही तुम्हारे परमात्मा का | दूसरे की याद ही तब आती है, जब तुम अकेले होते हो। मंदिर निर्मित होता चला जाता है। तुम्हारे अकेले में बड़ी भीड़ खड़ी होती है। भाषाकोश '...न मालूम आपने कहां से कहां चला दिया। एकांत अब बनानेवाले को वह भीड़ दिखाई नहीं पड़ती क्योंकि वह भीड़ तो प्रीतिकर लगता है।' एकांत प्रीतिकर लगे तो प्रार्थना शुरू हुई। सूक्ष्म है और मन की है। तुम जाकर पहाड़ पर बैठ जाओ। तुम हमें एकांत प्रीतिकर क्यों नहीं लगता? एकांत को हम कहते अकेले न जाओगे। अकेले दिखाई पड़ोगे, तुम्हारे भीतर एक हैं, अकेलापन, लोनलीनेस। एकांत को हम एकांत थोड़े ही भीड़ चल रही है। कहत हैं! अलोननेस थोड़े ही कहते हैं! एकांत को हम कहते हैं, जब बायजीद अपने गुरु के पास पहली दफा गया और उसने अकेलापन। अकेलेपन में लगता है, दूसरे की कमी है। दूसरा जाकर चरणों में सिर झकाया और कहा कि मैं आ गया हं सब होना चाहिए था, और है नहीं। अकेलेपन का अर्थ है शिकायत। छोड़कर अकेला तुम्हारे चरणों में। गुरु ने कहा, बकवास बंद। अकेलेपन का अर्थ है कि अभाव अनुभव हो रहा है दूसरे की भीड़ को बाहर छोड़कर आ। उसने लौटकर पीछे दिखा कि कोई मौजूदगी का। जब तुम कहते हो अकेलापन लग रहा है, तो क्या आ तो नहीं गया पीछे? कोई भी न था। उस मस्जिद में गुरु अर्थ हुआ इसका? इसका अर्थ हुआ कि दूसरा अनुपस्थित है, अकेला बैठा था। उसने चारों तरफ देखा। गुरु ने कहा, उसकी अनुपस्थिति खल रही है। यहां-वहां मत देख। आंख बंद कर; वहां देख। अकेलापन नकारात्मक है: एकांत विधायक है। घबड़ाकर उसने आंख बंद की, निश्चित ही वहां भीड़ खड़ी एकांत का अर्थ है, अपने होने में आनंद आ रहा है। अकेलेपन | थी। जिस पत्नी को रोते छोड़ आया था, वह अभी भी रो रही का अर्थ है, दूसरे के न होने में दुख मालूम हो रहा है। दूसरे की थी। जिन बच्चों को विदा कर आया था, माफी मांग आया था अनपस्थिति चभ रही है। एकांत का अर्थ है, अपने होने में रस कि मझे जाने दो, वे अब भी बिसरते खड़े थे। जिन मित्रों से कह बह रहा है। आया था गांव के बाहर आकर कि अब मेरे पीछे मत आओ, जब अकेला आदमी कमरे में बैठा हो तो उदासी से घिरा होता अब मुझे अकेला छोड़ दो, वे साथ ही चले आए थे। बाहर से तो है। और जब एकांत में बैठा हो तो उसके चारों तरफ आनंद की नहीं, भीतर आ गए थे। भीतर भीड़ थी। बायजीद को दिखा कि 1441 ___ 2010_03 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 गुरु ने ठीक कहा। भीड़ तो मैं साथ ले आया हूं और कहता हूं, मैं तो अगर एकांत में आनंद आने लगा, एकांत में सुगंध आने अकेला आया हूं! | लगी, एकांत में धूप जलने लगी, एकांत में रस बहने लगा तो अकेला होना तो बड़ी उपलब्धि है। मगर उस अकेलेपन का शुभ लक्षण है। उसका अर्थ है, अब अकेले में भी अकेलापन अर्थ होता है एकांत। जब तुम्हें अकेले में आनंद आने लगे तो | नहीं है। अब अकेले में भी कुछ भरापन है। अब अकेला भी एकांत बरसा। अकेले में आनंद कब आता है? अकेले में खालीपन नहीं है, अनुपस्थिति नहीं है। बल्कि किसी की आनंद तभी आता है, जब परमात्मा की थोड़ी झलक मिलने अप्रगट, अदृश्य उपस्थिति का अनुभव होने लगा है। लगे; नहीं तो नहीं आता। अकेले में आनंद तभी आता है, जब 'एकांत अब प्रीतिकर लगता है...।' वस्तुतः तुम अकेले नहीं होते हो, परमात्मा तुम्हें घेरे होता है। ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, तभी शुरू होती है जब एकांत प्रसिद्ध ईसाई फकीर स्त्री हुई-थेरेसा। एक दिन उसने गांव प्रीतिकर लगने लगता है। में घोषणा की कि मैं एक बड़ा चर्च बनाने जा रही हूं। लोग हंसने ...अब न कहीं जाना है न आना; न कुछ होना है, न कुछ लगे। वह भिखमंगी थी। उसके पास कुछ भी न था। लोगों ने जानना!' अब कोई जरूरत भी नहीं। जाना-आना, पूछा, तेरे पास है क्या? चर्च बनाएगी कैसे? चर्च ऐसे कोई जानना-होना, सब दौड़ है। सब बाहर ले जाती है। जब कोई आकाश से नहीं बनता। और तू, सुना है कि सोचती है, दुनिया अपने भीतर डूबने लगे तो न कुछ जानने को बचता, न कुछ होने का सबसे सुंदर चर्च बन जाए! कोई खजाना मिल गया है तुझे? | को बचता। सब दौड़ गई। आदमी घर लौट आया। विश्राम का उसने खीसे से दो पैसे निकाले और उसने कहा कि ये मेरे पास क्षण आया। विराम आया। ने लगे। उन्होंने कहा कि हमें शक तो सदा से था इस विराम की हमें कोई अनभति नहीं है. इसलिए खतरा भी कि तू पागल है। दो पैसे में चर्च? उसने कहा, ये दो पैसे, मैं है। खतरा यह है कि मन सोचने लगे, क्या कर रहे हो और + ईश्वर। उसको क्यों भूले जाते हो? वह जो मुझे चारों बैठे-बैठे? कुछ तो करो। मन की पुरानी आदतें प्रबल हैं। तरफ से घेरा है, उसे भी जोड़ में रखो। अकेले दो पैसे और संस्कार गहन हैं। वह फिर उधेड़-बुन पैदा कर सकता है। थेरेसा से तो चर्च नहीं बन सकता, यह सच है। लेकिन थेरेसा, इसलिए सावधान रहना। दो पैसे और + ईश्वर; चर्च बनेगा या नहीं, यह कहो। पागल मैं | विराम तो स्वीकार कर लेना, विश्राम तो करना, लेकिन हूं, या पागल तुम हो? विश्रांति को असावधानी मत बनने देना। अगर विश्रांति में लेकिन उन लोगों की बात भी ठीक थी। उनका गणित | | असावधानी आ जाए तो मन के खेल बड़े प्राचीन हैं। मन फिर साफ-सुथरा था। उन्हें तो दो पैसे, और गरीब औरत थेरेसा | कुछ खेल निकाल ले सकता है। क्योंकि मन सदा व्यस्त रहना दिखाई पड़ रही थी। वह जो परमात्मा उसे घेरे था, वह तो केवल | चाहता है। मन चाहता है, कुछ करते रहो, कुछ होते रहो, कुछ | उसे ही दिखाई पड़ रहा था। चर्च बना। और कहते हैं, दुनिया का पाते रहो। मन तो भिखारी का पात्र है, जो कभी भरता नहीं। कुछ सुंदरतम चर्च बना। उस जगह, जहां थेरेसा ने वे दो पैसे लोगों | न कुछ डालते रहो...डालते रहो, पात्र खाली का खाली रहता को दिखाए थे, वह चर्च प्रमाण की तरह खड़ा है कि अगर | है। मन तो याचक है। परमात्मा का साथ हो तो तुम अकेले नहीं हो। और जब कहीं नहीं जाना, कुछ भी नहीं होना, शांत बैठे हैं तो अकेले होकर अकेले नहीं हो, अगर परमात्मा का साथ हो। मन बड़ा बेचैन होगा। सावधानी रखना। नहीं तो मन बने हए अगर परमात्मा का साथ न हो तो तुम भीड़ में भी अकेले हो। | एकांत को खंडित कर सकता है। जरा-सी हवा की लहर शांत मित्र हैं, प्रियजन हैं, संबंधी हैं, सगे हैं। कभी खयाल किया, | झील को फिर लहरों से भर देती है। जरा-सा झोंका दीये की लेकिन कहीं अकेलापन मिटता है? कंधे से कंधे लगे हैं। भीड़ | ज्योति को फिर कंपा जाता है। मन का जरा-सा झोंका अब यह में, जमात में खडे हो. लेकिन अकेले हो। आदमी भीड में भी हो | खतरनाक हो सकता है। तो अकेला है। भक्त अकेला भी हो तो अकेला नहीं है। इसलिए महावीर ने कहा है, कि जब ध्यान भी सध जाए, यहां 14421 | JainEducation International 2010_03 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिया का गांव तक कि शुक्ल ध्यान की भी जरूरत न रह जाए तो भी बारह | कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली भावनाओं को करते रहना। महावीर कह रहे हैं, जब समाधि भी मैंने कहा पिया के गांव चली रे' उपलब्ध हो जाए तो भी जल्दी मत करना क्योंकि मन के धोखे दूसरों को तो दिखाई भी नहीं पड़ता। इसलिए कोई कहता है, बड़े पुराने हैं। कहां छिपा बैठा हो। कहां अचेतन की किसी गर्त यहां चली, कोई कहता है, वहां चली। कोई कहता है पागल हो | में, गुहा में बैठा हो। कहां भीतर कोई जगह बना ली हो और वहां गई है तरु। कोई कहता है दिमाग फिर गया, दीवानी हो गई। से धीरे-धीरे फिर उपद्रव की शुरुआत कर दे। फिर वहां से कोई कहता है पहले बड़ी बुद्धिमान थी; बुद्धि गंवाई। पहले बड़ी अंकुरित हो जाए। समझदार थी, सब समझ-बूझ खोई। लोकलाज गंवाई। तुमने देखा? घास-पात हम उखाड़कर फेंक देते हैं, मैदान तो कोई तो कुछ कहेगा, कोई कुछ कहेगा। उस समय भीतर साफ हो जाता है। लगता है, सब ठीक हो गया। इतनी जल्दी यह याद रखना ही—'मैंने कहा पिया के गांव चली रे।' क्योंकि मत सोच लेना। बीज पड़े होंगे पिछले वर्ष के। वर्षा आएगी, उस पिया को अगर जरा भी विस्मरण किया तो लोगों की बातें फिर घास-पात पैदा हो जाएगा। माली कहते हैं कि एक साल सार्थक मालूम पड़ सकती हैं। क्योंकि लोग जो कह रहे हैं, वह घास-पात पैदा हो जाए तो बारह साल उखाड़ने में लगते हैं। वही कह रहे हैं, जो तुमने भी अतीत में सोचा होता। तो लोग जो मिल जाते हैं भूमि में, उनका पता भी नहीं चलता। कह रहे हैं उससे मिलते-जुलते भाव कहीं गहन में तुम्हारे भी पड़े और यह आश्चर्य की बात है, यहां अगर फूल बोने हों तो खाद | हैं। जब कोई कहता है किसी को, कि क्या पागल हो गए? तो दो, पानी दो, सम्हालो, तब भी पक्का नहीं कि पैदा होंगे। और उसके कहने का थोड़े ही परिणाम होता है! अगर वह आदमी घास-पात उखाड़ो, हटाओ, जलाओ; फिर वर्षा होती है, न चिंतित हो जाता है तो परिणाम इसलिए होता है कि वह भी खाद की जरूरत, न माली की जरूरत, न सूरज की जरूरतः सोचता है कि पता नहीं, पागल हो ही न गया होऊ! घास-पात फिर पैदा हो जाता है। कल ही मुझे एक पत्र मिला। एक दंपति संन्यास लेकर गए। उतार पर चीजें अपने आप हो जाती हैं, चढ़ाव पर कठिनाई है। भोले लोग हैं, पहाड़ से आए थे। पहाड़ का भोलापन है। दोनों उतार पर आदमी दौड़ता चला जाता है। चढ़ाव पर दौड़ना बड़ी मस्ती में गए। लेकिन जब इतनी मस्ती में गए तो गांव के मुश्किल हो जाता है। चढ़ाव में श्रम है। लोगों ने सोचा कि दिमाग खराब हो गया। और दोनों का तो जो भी ऊर्ध्वगामी यात्राएं हैं, उनमें श्रम है। अधोगामी साथ-साथ हो गया। रिश्तेदारों ने जबर्दस्ती इलाज करवाना शुरू यात्राओं में कोई श्रम नहीं है। ध्यान को सम्हालो, कर दिया। कल मुझे पत्र मिला कि हम अस्पताल में पड़े हैं। हम सम्हाल-सम्हाल छूट-छूट जाता है। काम को दबाओ, हटाओ, हंसते हैं तो लोग कहते हैं, शांत रहो, हंसो मत। हंसने की बात मिटाओ, मिटाते-मिटाते भी उभर आता है। घास-पात की तरह क्या है? इंजेक्शन लगाए जा रहे हैं, ट्रेन्क्विलाइजर दिए जा रहे है। क्रोध को मिटाओ. मिटते-मिटते भी कब उभर पड़ेगा कुछ हैं। हम कहते हैं, हमें तो वैसी ही नींद मस्ती की आ रही है। हम पक्का पता नहीं। करुणा को साधो, साधते-साधते भी कब हाथ तो प्रसन्न हैं, हम नाच-गा रहे हैं, हम कुछ पागल नहीं हैं। से छूट जाएगी कुछ पता नहीं। लेकिन गांव में कोई मानने को तैयार नहीं है। जितना हम इससे यह नतीजा लेना कि जो चीज बिना सम्हाले सम्हल जाती | समझाते हैं कि हम पागल नहीं हैं तो वे कहते हैं, ऐसा तो सभी हो, उससे जरा सावधान रहना। वह घास-पात होने का डर है। पागल कहते हैं। कोई पागल कभी मानता है? तुम चुप रहो। जो सम्हाल-सम्हालकर छूट-छूट जाती हो, उसके लिए परी| हम जानते हैं। चेष्टा करना क्योंकि वहीं खजाना छिपा है। वहीं स्वर्ण-भंडार तो उन्होंने पूछा है, कि अब तो हमें भी शक होने लगा, कहीं है। वहीं जीवन की ऊर्ध्वयात्रा है, उर्ध्वगमन है, तीर्थयात्रा है। यही लोग ठीक न हों। तो अब करना क्या है? 'न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे हमारा भी अतीत इन्हीं तर्कों में जीया है। हमारे भी देखने के चली रे चली रे नाव चली रे ढंग जन्मों-जन्मों तक ऐसे ही रहे हैं। तो जब कोई कहने लगा 443 2010_03 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सुत्र भाग 2 वन यहां चली, कोई कहने लगा वहां चली, तो भीतर याद रखना नहीं सकता भ्रम से। बहुत मुश्किल हो जाता है कि पिया के गांव चली है। क्योंकि इस | इसलिए तो हमने ब्रह्म की परिभाषा में अंतिम बात कही पिया से तो मुलाकात बड़ी नई है। और ये जो लोग कह रहे हैं है-सच्चिदानंद। आनंद आखिरी बात है। सत, चित, यहां चली, वहां चली, इनसे बड़े पुराने संबंध हैं। इनकी भाषा तो | आनंद-आखिरी बात है। जहां से तुम्हें आनंद मिल रहा हो, जानी-मानी है, इस पिया की भाषा तो जानी-मानी नहीं है। फिर दुनिया कुछ भी कहे, तुम फिक्र मत करना। तुम अपने यह पिया का गांव है भी या नहीं? जिसको दिखाई पड़ने आनंद को ही कसौटी मानना, तो ही पहुंच पाओगे पिया के गांव लगता है, उसको भी शक आता है। जिनको नहीं दिखाई पड़ता | तक। नहीं तो बीच में हजार बाधाएं हैं। सारी दुनिया तुम्हें इस उनका शक तो बिलकुल स्वाभाविक है। जिसको पिया का गांव | तरफ खींचेगी। साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता है, उसके मंदिर के कलश धूप और सारी दुनिया का इस तरफ खींचना भी अकारण नहीं है। में चमकते दिखाई पड़ने लगते हैं, उसको भी शक होता है कि जब किसी एक व्यक्ति को पिया का गांव दिखाई पड़ता है तो वह कहीं मैं कल्पना तो नहीं कर रहा? क्योंकि वे कलश दूसरों को | बाकी सारे लागों के लिए चिंता का कारण हो जाता है। अगर वह दिखाए नहीं जा सकते। यह कठिनाई है। सही है तो हम सब गलत हैं। जो कहता है, मुझे परमात्मा के पति को दिखाई पड़े तो अपनी पत्नी को भी नहीं दिखला | दर्शन हुए, अगर वह सही है तो बाकी इन चार अरब लोगों का सकता। पत्नी कहती है, अगर वे कलश हैं और पिया का गांव है | क्या? अगर बुद्ध सही हैं तो इन चार अरब बुद्धओं का क्या? तो हमें भी तो दिखाई पड़े। पांच पंचों को दिखाई पड़े तो सत्य है। ये गलत होंगे ही। बुद्धओं को यह बात जंचती नहीं। यह पसंद तुमको दिखाई पड़ने से क्या होता है ? तुम कोई कल्पना के जाल | नहीं पड़ती। कौन अपने को बुद्ध मानना चाहता है ? ये चार में पड़ गए हो। तुम्हें कुछ बुद्धि-भ्रम हुआ है। तुम्हारी बुद्धि, अरब भीड़ की तरह इकट्ठे हो जाते हैं। ये कहते हैं बुद्ध को कुछ तुम्हारा विवेक, तुम्हारे तर्कना की क्षमता क्षीण हुई। तुम किस | भ्रम हुआ होगा। सम्मोहन में पड़ गए हो? जो किसी को नहीं दिखाई पड़ता वह | इसलिए तो जीसस को सूली लग जाती है। सुकरात को जहर तुम्हें दिखाई पड़ रहा है? पिला देते हैं। बुद्ध और महावीर को पत्थर मारे जाते हैं। यह तो जिस व्यक्ति को पिया का गांव दिखाई भी पड़ता है, वह भी अकारण नहीं है, इसके पीछे बड़ा गहरा कारण है। कारण यह है इस जगत में बड़ा अकेला हो जाता है। और यह जगत तो बड़ा | कि अगर तुम सही हो, तो हम गलत हैं। और यह बात मानना लोकतांत्रिक है। यहां तो सत्य का निर्णय भीड़ से होता है। यहां कि हम गलत हैं...और हम ज्यादा हैं, तुम अकेले हो। तुम तो कितने लोग मानते हैं इससे तय होता है कि सत्य है या नहीं! कभी-कभी होते हो। तुम अपवाद-रूप हो, हम नियम हैं। मोगे, जिस दिन तुम्हें पिया का गांव दिखाई। इसलिए मनोवैज्ञानिक तो पागलों को, बुद्धों को, एक ही गणना पड़ना शुरू होगा। उस दिन तुम इतने अकेले हो जाओगे कि तुम्हें में गिनते हैं। दोनों को एबनार्मल कहते हैं। दोनों सामान्य नहीं हैं, खुद ही संदेह पैदा होना शुरू होगा कि पता नहीं, कहीं कोई भ्रांति | कुछ गड़बड़ हैं। पागल को भी एबनार्मल कहते हैं, बुद्ध को भी, तो नहीं हो रही है? मैं किसी भ्रम का शिकार तो नहीं है? उस | महावीर को भी. कष्ण को भी। सामान्य नहीं हैं। कुछ चूके, वक्त याद रखना, बड़ा श्रम मांगता है, बड़ी श्रद्धा मांगता है। इधर-उधर हैं। नियम नहीं हैं, अपवाद हैं। इसे स्मरण रखना। इसे मन में निरंतर दोहराते रहना। इसकी अगर मनोवैज्ञानिकों का बस चले तो वे बुद्धों को भी चिकित्सा बहुत फिकर मत करना कि लोग क्या कहते हैं। एक ही कसौटी | करके ठीक कर देना चाहेंगे। ऐसा हो रहा है। पश्चिम के है-अगर तुम्हें आनंद मिल रहा हो तो तुम फिकर ही मत करना पागलखानों में ऐसे कुछ लोग आज बंद हैं, जो अतीत के दिनों में कि भ्रम है कि सत्य! क्योंकि आनंद लक्ष्य है। मैं तुमसे यह बुद्ध हो गए होते। जिनको बड़ा सम्मान मिलता; कबीर और कहना चाहता हूं कि अगर भ्रम से भी आनंद मिल रहा हो तो तुम दादू और नानक हो गए होते, वे आज पागलखानों में बंद हैं। वह सत्य को फेंक देना कूड़ाघर में, कचरे में। क्योंकि आनंद मिल ही | तो बुद्ध-महावीर ने बड़ा अच्छा किया, जल्दी निकल गए। आज 1444 Jair Education International 2010_03 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ी कठिनाई में पड़ते । सुगमता से निकल गए। 1 पश्चिम में तो अभी भी किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें सिद्ध किया जाता है कि जीसस का दिमाग खराब था — न्यूरोटिक और अगर तुम मनोवैज्ञानिक की बात पढ़ो तो बात समझ में तुम्हें भी आएगी। क्योंकि यह आदमी आकाश की तरफ देखता है और कहता है, हे पिता ! — कौन पिता ? इससे पूछो कि कौन पिता? कहां है? तो यह आकाश की तरफ हाथ बताता है। किसी को नहीं दिखाई पड़ते। तुम सब सिर उठाओ, किसी को कोई पिता नहीं दिखाई पड़ते। तो इस एक आदमी की आंख पर भरोसा करें? हम सबकी आंखों पर संदेह करें? और अगर हम यह मान लें कि यह ठीक है तो हम गलत हैं। तो फिर हम ठीक होने के लिए क्या करें? क्या उपाय करें? उससे बड़ी बेचैनी पैदा होगी। उससे बड़ी घबड़ाहट पैदा होगी। अगर बुद्ध मापदंड हैं, महावीर मापदंड हैं तो हम एबनार्मल हैं। तो हम ठीक-ठीक मापदंड पर, कसौटी पर नहीं उतर रहे हैं। तो हमारे जीवन में वैसे ही तो चिंता बहुत है, और चिंता बढ़ जाएगी। और इतने लोगों को कैसे स्वस्थ करियेगा ? इससे ज्यादा सुगम और सीधी बात मालूम यह पड़ती है कि यह एक आदमी कुछ विकृत हो गया है। यह कुछ असामान्य है। अगर लोग भले होते हैं तो इसे स्वीकार कर लेते हैं कि ठीक है, तुम भी रहो, कोई हर्जा नहीं । अगर लोग और भी भले हुए तो कहते हैं, तुम अवतार हो, तीर्थंकर हो; हम तुम्हारी पूजा करेंगे, मगर गड़बड़ मत करो। हम माने लेते हैं कि तुम भगवान हो । सदा-सदा तुम्हारी याद रखेंगे, लेकिन दखलंदाजी नहीं । तुम बैठो मंदिर की इस वेदी पर। हम पूजा कर जाएंगे, पाठ कर जाएंगे, लेकिन बाजार में मत आओ। हमारे जीवन को नाहक अस्त-व्यस्त मत करो। हम साधारणजन हैं, तुम अवतारी पुरुष हो। कहां तुम कहां हम ! हम तो हमीं जैसे होंगे। तुम्हारे जैसा कभी कोई हुआ है ? तुम तो एक ईश्वर का अवतरण हो इस पृथ्वी पर हम साधारण मनुष्यों को साधारणता से जीने दो । अगर लोग भले होते हैं तो ऐसा करते हैं। अगर लोग जरा और तेज-तर्रार होते हैं तो वे कहते हैं, बंद करो बकवास ! तुम्हारा दिमाग खराब है। सूली पर लटका देंगे, जहर पिला देंगे। तुम पागल हो । 2010_03 पिया का गांव लेकिन बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति की मौजूदगी से बेचैनी पैदा होती है। और वह बेचैनी यह है कि दो में से एक ही ठीक हो सकता है। या तो हमारी दृष्टि ठीक है या इनका दर्शन ठीक है। और यह स्वाभाविक मालूम पड़ता है कि हमारी दृष्टि ठीक हो, क्योंकि हमारी भीड़ है। हम सदियों में भरे पड़े हैं। बुद्ध - महावीर कभी-कभी पुच्छल तारे की तरह निकल जाते हैं – आए, गए ! लेकिन रात के जो स्थायी तारे हैं उनका भरोसा करो। ये बुद्ध-महावीर तो ऐसे हैं कि बिजली चमक गई । अब बिजली चमकने में बैठकर किताब पढ़ सकते हो ? कि दुकान का हिसाब लगा सकते हो ? कि खाता-बही लिख सकते हो ? किस काम के हैं? काम तो दीये से ही चलाना पड़ता है। बिजली चमकती होगी, होगी बहुत बड़ी; और बड़ी महिमाशाली होगी, लेकिन इसका उपयोग क्या है ? तो जब तुम्हारे जीवन में कभी पहली झलकें आनी शुरू होंगी तो बड़ा खतरा पैदा होता है। खतरा यह कि तुम्हारा अतीत भी कहता है भूल मत जाना, कल्पना में मत पड़ जाना। और भी लोग कहते हैं— 'कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली।' तुम्हारा अतीत भी कहेगा कहां जा रहे हो ? क्या कर रहे हो ? सम्हलो! सम्हालो ! 'मैंने कहा पिया के गांव चली रे' इसे सतत स्मरण रखना। इसे महामंत्र बना लेना । कसौटी क्या है पिया के गांव की ? कसौटी सिर्फ एक है कि तुम्हारा आनंद भाव बढ़ता जाए, तुम्हारी मगनता बढ़ती जाए, तुम्हारी एकता बढ़ती जाए, तुम्हारा मन और तुम्हारा हृदय दो न रह जाएं एक हो जाएं; तुम्हारा विचार और तुम्हारा भाव इकट्ठा हो जाए, तुम्हारे भीतर निर्द्वद्वता बढ़ती जाए। है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं वह दिन गए कि अपना दिल जिगर से जुदा था प्रेम का एक तीर, जिसमें हृदय और मन दोनों जुड़ गए हैं। एक ही तीर दोनों को छेद गया है। है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं वह दिन गए कि अपना दिल जिगर से जुदा था अगर तुम्हें ऐसा अनुभव होता हो कि यह पिया के गांव के करीब आने से तुम्हारे भीतर के खंड एक दूसरे में गिरकर अखंड बन रहे हैं, टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ व्यक्तित्व अखंड बन रहा 445 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भाग 2 है, तो तुम फिक्र मत करना। सारी दुनिया एक तरफ हो तो भी | श्रद्धा बढ़ती हो, और जिससे भी तुम्हें लगता हो, जीवन का चिंता मत करना। | असत हट रहा है और सत बढ़ रहा है, फिर तुम चिंता मत और इस अखंडता से ही आनंद का रस बहता है। जितने तुम करना। फिर तुम बिलकुल अकेले हो तो भी सही हो। खंडित, उतने दुखी। जितने तुम अखंड, उतनी ही रसधार बहती और खयाल रहे, दुनिया में सत्य भीड़ के पास नहीं होता, है। उस आनंद का भरोसा करना। और आनंद बढ़ता जाए, तो कभी-कभी अकेले व्यक्तियों के पास होता है-कभी-कभी! सारी दुनिया कहे तुम पागल हो तो स्वीकार कर लेना कि हम दुर्भाग्य है लेकिन ऐसा ही है। कभी-कभी कोई एकाध विलक्षण पागल हैं। लेकिन हम आनंदित हैं। तुम दुनिया का दुख, चिंता, व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होता है। भीड़ तो भेड़-चाल चलती और परेशानी मत चुनना क्योंकि दुनिया कहती है कि वास्तविकता है। भीड़ तो लकीर की फकीर होती है। भीड़ तो दूसरे जहां जा कुछ और है। तुम आनंद को ही वास्तविकता समझना। रहे हैं वहीं चलती है।। सच्चिदानंद की परिभाषा भले नहीं। वेदांत ने खब शास्त्र मल्ला नसरुद्दीन मस्जिद में नमाज पढने गया था। जब वह लिखे सच्चिदानंद पर, मगर किसी ने भी यह फिक्र नहीं की, कि नमाज पढ़ने बैठा तो उसका कुर्ता, पीछे से एक कोना उठा हुआ सच्चिदानंद का मौलिक अर्थ क्या होगा! ये केवल भगवान के था, धोती में उलझा होगा तो पीछे के आदमी ने कुर्ता खींचकर गुण नहीं हैं, यह साधक की कसौटी भी है। जैसे-जैसे तुम्हारे ठीक कर दिया। मुल्ला ने सोचा कि शायद कुर्ता खींचना इस भीतर सत बढ़े-सत का अर्थ होता है अखंड बनो। तुम्हारी मस्जिद का रिवाज है। तो उसने अपने सामनेवाले आदमी का बीइंग तुम्हारी आत्मा बने। जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर चित बढ़े, कुर्ता खींचा। उस आदमी ने पूछा, क्यों जी! किसलिए कुर्ता तुम्हारा चैतन्य बढ़े, बेहोशी घटे, और जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर खींचते हो? उसने कहा, मेरे पीछेवाले से पूछो। मुझे कुछ पता आनंद बढ़े...। नहीं। मैं तो समझा कि यहां का रिवाज है। ये परमात्मा के ही गुण नहीं हैं, ये साधक के रास्ते के लिए तुम न मालूम कितने लोगों के कुर्ते खींच रहे हो! क्योंकि मापदंड हैं, कसौटी हैं। जैसे सुनार सोने को कसने के लिए एक तुम्हारा कुर्ता खींच दिया गया है। तुम सोचते हो, यहां का रिवाज पत्थर रखता है, उस पर कसता रहता है। कसकर देख लेता है, है। तुम सौ में से निन्यानबे काम ऐसे कर रहे हो जो कि तुम देखते सोना है या नहीं। तुम सच्चिदानंद के पत्थर पर कसकर देखते हो दूसरे कर रहे हैं। किसी ने कहा, फलां फिल्म अच्छी चल रही रहना। कोई भी अनुभव हो! आनंद देता हो, चैतन्य बढ़ता हो, | है-चले! खीच दिया किसी ने कुतो। खड़े हैं क्यू में, खीच रहे सत्य बढ़ता हो, तुम्हारे जीवन का अस्तित्व मजबूत होता हो, बल हैं दूसरों का कुर्ता। आता हो, आत्मा सघन होती हो, तुम ज्यादा केंद्रित होते हो, फिर तुम अपनी बुद्धि से कभी जीयोगे? फैशन ऐसे बदलते रहते फिक्र छोड़ देना। हैं। जीवन के ढंग ऐसे बदलते रहते हैं। बस चल पड़ती है एक उपनिषद के ऋषियों की बड़ी प्रसिद्ध प्रार्थना है : बात। कोई चला दे! उसका सतत प्रचार करता रहे, चल पड़ती 'असतो मा सदगमय। है। पकड़ा दे। इसीलिए तो विज्ञापन का इतना प्रभाव हो गया तमसो मा ज्योतिर्गमय। दुनिया में। पश्चिम के विकसित मुल्कों में जो चीज बाजार में दस मृत्योर्माअमृतं गमय।' साल बाद आएगी, दस साल पहले विज्ञापन शुरू हो जाता है। असत से सत का ओर। वह जो भ्रामक है, प्रतीति मात्र है, अभी वह चीज आयी भी नहीं बाजार में। आएगी भी कभी, यह आभास मात्र है, उससे उसकी ओर-जो भ्रामक नहीं, प्रतीति | भी पक्का नहीं। दस साल बाद का क्या पक्का है? लेकिन दस नहीं, आभास मात्र नहीं। अंधकार से ज्योति की ओर। और साल पहले बाजार में काम शुरू हो जाता है, विज्ञापन शुरू हो मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो, हे प्रभ! जाता है। क्योंकि पहले बाजार पैदा करना पड़ता है। तो तम्हारे भीतर जिससे भी ज्योति बढती हो. अंधेरा कम होता बाजार तम कैसे पैदा करते हो? पराने अर्थशास्त्री कहते थे कि | हो; और जिससे भी मृत्यु का भय कम होता हो और अमृत की जहां-जहां मांग होती है वहां-वहां पूर्ति होती है। जब लोगों की 1446 2010_03 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिया का गांव जरूरत होती है तो कोई न कोई पूर्ति करनेवाला पैदा हो जाता है। जन्मता खूब, मरता खूब, पहुंचता कहीं नहीं। धक्कम-धुक्के ही अब हालत बदल गई। अब तो पहले मांग पैदा करो। मांग हो खाता रहता है। धीरे-धीरे धक्का-धुक्के की ऐसी आदत हो या न हो इसकी फिक्र ही छोड़ो। अब तो ऐसा है, पूर्ति है तो मांग | जाती है कि वह चैन से बैठ ही नहीं सकता अकेला, जब तक पैदा की जा सकती है। | भीड़ में न पड़ जाए। जब भीड़ उसे पीसने लगती है सब तरफ अमरीका में आज से दस साल पहले तक वे कहते थे, जिस | से, तभी उसको लगता है जीवित है। आदमी के पास कार नहीं, वह भी कोई आदमी है? अब सब सत्य का मार्ग अकेले का मार्ग है। वह एकांत का मार्ग है। आदमियों के पास कार हो गई। अब क्या करना? क्योंकि कार भीतर जाना है। जो भी चीज बाहर ले जाती है, वह तुम्हें अपने से की फैक्ट्रियां चल रही हैं, उनको चलना ही है। तो अब हर दूर ले जाएगी। जो भी तुम्हारे मन में किसी वासना और तृष्णा को आदमी के पास कम से कम दो कार होनी चाहिए। ऐसा तीन पैदा करती है, वह तुम्हें अपने घर से दूर ले जाएगी। साल पहले तक वे कहते थे कि जिस आदमी के घर में दो कार को तो शुभ है कि ऐसा भाव जगे, कि न अब कुछ पाना है, न कुछ रखने का गैरेज नहीं है वह भी कोई आदमी है! वह भी बात बदल होना है, न कुछ जानना है। इसी गहन भाव में डूबो। डूबकर गई क्योंकि फैक्ट्रियों को तो चलना ही है। अब लोगों के पास अपने ही भीतर जो सब पाने का पाना है, वह पा लिया जाता है। दो-दो कारें भी हो गईं। अब वे कहते हैं चार कार का गैरेज होना जो सब जानने का जानना है, वह जान लिया जाता है। जो सब चाहिए। नए साल के विज्ञापन कह रहे हैं कि चार कार का गैरेज होने का होना है वह हो लिया जाता है। होना चाहिए। चार कार नहीं हैं? तुम भी कोई आदमी हो? तीन आ जाओ कि अब खल्वते-गम खल्वते-गम है हों तो बेचैनी मालूम होगी; चार होनी चाहिए। अब तो दिल के धड़कने की भी आवाज नहीं है हर आदमी के पास कम से कम दो मकान होने चाहिए-एक इन पंक्तियों का अर्थ है कि अब तो केवल दुख का एकाकीपन शहर में, एक जंगल में, या पहाड़ पर, या समुद्र के किनारे। है, अकेलापन है। अब तो दिल भी नहीं धड़कता। अब आ विज्ञापन जोर से करते रहो, लोगों के मन पकड़ लिए जाते हैं। | जाओ! लोगों के मन चलने लगते हैं। बस उनके दिमाग में दोहराते रहो यह निश्चित ही किसी पार्थिव प्रेम के लिए कही गई होंगी। कि ऐसा होना चाहिए। जितना दोहराओ, उतने ही असत्य सत्य आ जाओ कि अब खल्वते-गम खल्वते-गम है मालूम होने लगते हैं। जिनको तुम सत्य मानते हो वे केवल | कि अब तो केवल उदासी और दुख का अकेलापन ही बचा दोहराए गए असत्य हैं। है। अब तो इतना भी कोई साथ देने को नहीं है। अपना दिल भी जब उपनिषद के ऋषि कहते हैं, 'असतो मा सदगमय', तो वे नहीं धड़कता। वह भी साथी न रहा। ऐसा गहन अकेलापन हो यह कह रहे हैं कि ये सत्य तो जो बाहर से सुनाई पड़ रहे हैं, बहुत गया है। अब दिल के धड़कने की भी आवाज नहीं है। सुन लिए। इनसे तो कुछ सत्य मिलता नहीं; अब तो हमें | लेकिन जो परमात्मा की तरफ जा रहा है, जो पिया के घर की वास्तविक सत्य की तरफ ले चलो। ये तो दोहराए हुए झूठ हैं। तरफ जा रहा है, उसका एकाकीपन खल्वते-गम नहीं है। उसका काफी दिनों से दोहराए जा रहे हैं, लोगों को भरोसा आ गया है। एकाकीपन बड़ा आनंदमग्न, अहोभाव से परिपूर्ण है। नाचता तुम जरा अपने जीवन की व्यवस्था और शैली का विश्लेषण हुआ, खिला हुआ है, सुगंधित है। करना। क्यों ऐसे कपड़े पहने हुए हो? क्यों एक खास मार्के की भक्त भगवान को यह नहीं कहता कि मैं बड़ा उदास हूं, बड़ा सिगरेट पीते हो? क्यों एक खास ढंग से चलते-उठते-बैठते दुखी हूं, आ जाओ। दुख में भी क्या बुलाना! भक्त कहता है, | हो? विश्लेषण करोगे तो तुम पाओगे, तुम सिर्फ अनुकरण कर अब देखो कैसा नाच रहा। देखो कैसा गनगना रहा है। देखो | रहे हो। और जो अनुकरण कर रहा है, वह परमात्मा तक कभी कैसे फूल खिले हैं, अब तो आ जाओ! कैसा मस्त हूं! कैसा नहीं पहुंचता। वह भीड़ में धक्के-मुक्के खूब खाता है। तुम्हें पीकर मगन हो रहा हूं! दूर से ही तुम्हें देख रहा हूं और मस्ती इसी धक्कम-धुक्की को भारतीयों ने कहा है आवागमन। में डूबा जा रहा हूं। अब तो आ जाओ। 447 ___ 2010_03 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 भक्त का एकाकीपन बड़ा आनंदमग्न है। वहां भी दिल के प्रेम की बड़ी अनूठी दुनिया है। वहां भक्त देने को गया है। धड़कने की आवाज नहीं है। आनंद में डूब जाती है दिल के वहां भक्त अपने को न्योछावर करने को गया है। लेकिन तुम धड़कने की आवाज। सब आवाजें आनंद में डूब जाती हैं। प्रेम अपने को दे तभी सकते हो, जब तुम हो। और तुम न्योछावर के सागर में सब डूब जाता है। तभी कर सकते हो, जब तुम्हारे पास कुछ हो। तुम्हारे पास सख ध्यान रखना, परमात्मा को कभी दुख में मत बुलाना। दुख में के फल हों तो ही तुम उसके चरणों में चढ़ा सकोगे। वक्षों के तो सभी बुलाते हैं, इसीलिए तो आता नहीं। दुख भी कोई मौका फूलों को तोड़कर कब तक अपने को धोखा दोगे? ये फूल है बुलाने का? दुख में सभी याद करते हैं, रोते हैं, बिसूरते हैं कि उसके चरणों में चढ़े ही हुए हैं। उनको वृक्ष से तोड़कर तुम उसके आ जाओ, इतना दुखी हो रहा हूं। लेकिन दुख कोई आने की चरणों से छीन लेते हो। चढ़ाते नहीं, मार डालते हो। जिंदा थे, घड़ी ही नहीं है। वसंत में बुलाना, सुख में बुलाना। और तुम मार डाले। जीवंत थे, हवाओं में नाच रहे थे, तुमने तोड़कर नाच पाओगे वह चला आ रहा है। जैसे तुम नाच रहे हो, वैसा ही छीन लिया। अभी और खिलते, खिलना छीन लिया। तुमने नाचता वह भी चला आ रहा है। | परमात्मा के चरणों से हटा लिया और गए और किसी मंदिर की सुख में ही मिलन होता है। तुम जितने सुखी हो जाओ उतना मुर्दा पत्थर की मूर्ति पर जाकर चढ़ा आए। खूब धोखा दे रहे हो! मिलन आसान हो जाएगा। परमात्मा भी दुखियों से बचता है, किसको धोखा दे रहे हो? खयाल रखना। दुख दूरी है। कौन किसके दुख में साथ खड़ा अपने आनंद के फूल जब चढ़ाओगे, तो ही उसके चरणों पर होता है? लेकिन लोग दुख में ही उसे बुलाते हैं। दुख की चढ़ते हैं। और तब किसी मंदिर में जाने की जरूरत नहीं। तुम आवाज उस तक नहीं पहुंचती। पहुंचनी भी नहीं चाहिए क्योंकि जहां हो, उसके चरण तुम्हें खोजते हुए वहीं आ जाते हैं। तुम्हारे दुख की आवाज बेईमान है। तुम परमात्मा को थोड़े ही बुला रहे हाथ बस फूलों से भरे हों, उसके चरण तुम्हें खोजते हुए निश्चित हो! तुम सुख को बुला रहे हो। तुम कहते हो इतना दुखी हूं। आ ही आ जाते हैं। जा, तो थोड़ा सुखी हो जाऊं। तुम्हारी प्रतीक्षा सुख की है। जब तुम सुख में परमात्मा को बुलाते हो तो तुम परमात्मा को ही दूसरा प्रश्न : जैन दर्शन कहता है कि इस आरे में मोक्ष संभव बुलाते हो, क्योंकि सुख तो आ ही गया है। जब कोई सुख में | नहीं है। बार-बार मेरी समकीत का वमन या उपशम होने का प्रार्थना करता है तो उसकी कोई मांग नहीं होती। उसकी प्रार्थना | क्या यही कारण तो नहीं है? मोक्ष यहीं और अभी है इस मांग-मुक्त होती है। क्योंकि मांगने को क्या है? जब दुख में | धारणा को पकड़ लेना क्या एक आत्मवंचना नहीं है? प्रार्थना करते हो तो क्षुद्र मांगें उठती हैं। भक्त तो कहता है जैन दर्शन क्या कहता है इसका कोई मूल्य नहीं है। जिन क्या तू जो कहे तो दिल भी दूं, जान भी , जिगर भी दूं कहते हैं इसका मूल्य है। जैन दर्शन तो पंडितों ने निर्मित किया। गो मैं गदाए-इश्क हूं मुझको न बेनवां समझ पंडित तो बड़ी तरकीबें खोजता है। एक तरकीब सदा से पंडित यद्यपि मैं प्रेम का भिखारी हूं, लेकिन मुझे कंगाल मत | की रही। वह सदा यह कहता है कि जो अतीत में संभव था, वह समझना। भक्त भगवान से कहता है। माना कि तेरे द्वार पर | अब संभव नहीं है। भीख मांगने के लिए खड़ा हूं लेकिन मुझे कंगाल मत समझना। मुसलमान कहते हैं-मुसलमान पंडित—कि पैगंबर अब तू जो कहे तो दिल भी दूं, जान भी दूं, जिगर भी दूं नहीं होंगे। जो मोहम्मद के लिए संभव था, वह अब किसी और गो मैं गदाए-इश्क हूं के लिए संभव नहीं है। -प्रेम का भिखारी हूं। अगर ऐसा ही है तो परमात्मा बड़ा कृपण मालूम होता है, बड़ा मुझको न बेनवां समझ कंजूस मालूम होता है। एक मोहम्मद को पैदा करके चुक गया? -लेकिन मुझे कंगाल मत समझ; देने को आया हूं। बहुत बांझ मालूम होता है। और अन्यायी भी मालूम होता है। 1448 2010_03 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि किसी काल में पैदा किया और अब नहीं करता । यह बात व्यर्थ मालूम होती है। इसके पीछे कारण कुछ और है। मुसलमान पंडित नहीं चाहता कि अब किसी और को मोहम्मद स्वीकार करे, किसी और को पैगंबर स्वीकार करे। क्योंकि एक ही पैगंबर काफी अस्त-व्यस्त कर गया। उसी को सम्हाल- सम्हालकर व्यवस्थित करने में इतना समय लग गया, तब तो उस पर कब्जा कर पाए। तब तो उसको बांधकर, जंजीरों में डालकर मस्जिद में कैद कर पाए। कुरान की पोथी में बंद कर पाए बामुश्किल । अब फिर कोई निकल आए, फिर सब गड़बड़ हो जाए। पंडित बड़ी मुश्किल से व्यवस्था जुटा पाता है। ईसाई कहते हैं कि जीसस अकेले बेटे हैं परमात्मा के । कोई दूसरा बेटा नहीं - इकलौते बेटे ! और बाकी ये सब लोग क्या हैं ? यह सारा अस्तित्व फिर क्या है, अगर जीसस अकेले बेटे हैं? यह सारा अस्तित्व उसी से पैदा हुआ है। वह बाप सिर्फ जीसस का नहीं हो सकता, सभी का है। समानरूपेण सभी का है। और जीसस निरंतर दोहराते रहे कि जो मेरा पिता है वह तुम्हारा भी पिता है। लेकिन ईसाई पंडित दोहरता है कि नहीं, इकलौते | बेटे । क्यों? क्योंकि बामुश्किल वह इंतजाम जमा पाया दो हजार साल में। दो हजार साल में जीसस को मिटाने में वह सफल हो पाया। लीप-पोत डाला उसने सब । जो भी क्रांति की संभावना थी, सब समाप्त कर दी। दो हजार साल लग गए इस एक आदमी के अंगार को बुझाने में या राख से ढांकने में। अब फिर कोई अंगार हो जाए, फिर कोई उदघोषणा कर दे, फिर झंझट पैदा हो। यहूदियों ने इसीलिए जीसस को मारा कि इस आदमी ने उपद्रव खड़ा कर दिया। जाग्रत पुरुष विद्रोही होगा ही । जाग्रत पुरुष ऐसी बातें कहेगा ही, जो अंधों के समाज को बेचैन करेंगी। जाग्रत पुरुष इस तरह की जीवन दिशा देगा ही, जिससे भीड़-भड़क्का में चलनेवाले | लोग बड़ी दुविधा में पड़ेंगे, अब क्या करें! क्योंकि जाग्रत पुरुष विकल्प देता है । और जाग्रत पुरुष एक | वैकल्पिक समाज भी देता है। वह कहता है, यही एकमात्र मार्ग नहीं है, जिस पर तुम चल रहे हो। यह तो कोई मार्ग ही नहीं है। और जाग्रत पुरुष का बल, उसकी चुंबकीय शक्ति सब चीजों को अस्त-व्यस्त कर जाती है। जहां-जहां तुमने घरले बना रखे थे, 2010_03 पिया का गांव वह सब गिरा देता है। जहां-जहां तुमने तरकीबें निकाल रखी थीं, उन सब तरकीबों के प्राण खींच लेता है। जहां-जहां तुमने धोखे बना रखे थे, उन सब धोखों को उघाड़कर नग्न कर देता है। वह तुम्हारी सारी आत्मवंचना तोड़ देता है। तो ईसाई ठीक ही कहते हैं कि आखिरी...! बस अब बहुत हो गया। अब और दुबारा नहीं। जैन कहते हैं, महावीर चौबीसवें तीर्थंकर - बस खतम ! अब आगे नहीं । यह रोक लेने की प्रवृत्ति करीब-करीब दुनिया के सभी धर्मों में है। लेकिन समय से मोक्ष का क्या संबंध? इतना मैं मानता हूं कि कुछ समय होते हैं, तब मोक्ष थोड़ा आसान; और कुछ समय होते हैं, तब थोड़ा कठिन । लेकिन असंभव कभी भी नहीं। कुछ समय निश्चित होते हैं, जब मोक्ष थोड़ा आसान है। हर चीज के लिए यह सही है। वर्षा में वृक्षों का बढ़ना आसान है। गर्मी में थोड़ा कठिन हो जाता है, लेकिन असंभव नहीं । अगर पानी सींचने की व्यवस्था की तो गर्मी में भी बढ़ेंगे। ऐसे ही बढ़ेंगे। कोई बाधा नहीं है। मनुष्य की जीवन-यात्रा में भी ऐसे बहुत-से पल आते हैं, जब मोक्ष आसान हो जाता है। खासकर उन क्षणों में, जब बुद्ध या महावीर जैसा व्यक्ति मोक्ष को उपलब्ध होता है, तो वह द्वार खोलकर खड़ा हो जाता है। उस वक्त जिनकी थोड़ी भी हिम्मत होती है, साहस होता है, वे मोक्ष की यात्रा पर गतिमान हो जाते हैं। अगर महावीर जैसे व्यक्ति की मौजूदगी में भी तुम्हारे भीतर साहस पैदा नहीं होता तो जब महावीर जैसा व्यक्ति तुम्हें न मिलेगा, तब तुममें साहस पैदा होगा इसकी आशा करना कठिन है। तब तुम धारे के साथ बह सकते हो। महावीर एक लहर की तरह हैं। हवा जा रही है दूसरे किनारे की तरफ, तुम नाव में पाल बांध दो और छोड़ दो; पतवार भी नहीं चलानी पड़ती। तो अनुकूल समय होते हैं, प्रतिकूल समय होते हैं, यह बात सच है। अनुकूल देश होते हैं, प्रतिकूल देश होते हैं। अनुकूल उम्र होती है, प्रतिकूल उम्र होती है। सुअवसर होते हैं, जिनका कोई उपयोग कर ले तो जल्दी घटना घट जाए। कठिन अवसर होते हैं। लेकिन असंभव है इस आरे में किसी व्यक्ति का मोक्ष पाना, यह बात फिजूल है। क्योंकि परमात्मा के लिए सब समय समान हैं। और तुम जानकर चकित होओगे, यह धारणा सभी कालों में रही है। जीसस को यहूदियों ने कहा कि तुम पा नहीं 449 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 लिए हो। महावीर को सभी ने थोड़े ही तीर्थंकर स्वीकार कर में क्यों ले जाना? अगर समाधि बार-बार चूक जाती है तो भूल लिया था। बहुत थोड़े-से लोगों ने स्वीकार किया था। अधिक ने खोजो। कहीं चूक कर रहे हो, उसे खोजो। कुछ रूपांतरण तो यही कहा कि सब बकवास है। बुद्ध को सभी ने थोड़े ही | करो। मार्ग खोजो, अगर बीहड़ में खो गए हो। स्वीकार किया था। अधिक तो हंसे और अधिक ने कहा कि सब । लेकिन जो आदमी जंगल में खो गया हो, वह कहने लगे, इस बातचीत है, सब कल्पना का जाल है, कविता है। पंचम काल में कहीं मार्ग मिलता है ? बैठ जाए। तो शायद मार्ग इस समय में भी घटना घट सकती है। इस समय में भी मोक्ष दो वक्षों के पार ही हो. जरा-सी झाडी की ओट में पडा हो तो भी को उपलब्ध व्यक्ति हैं। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि मोक्ष को चूक जाएगा। उपलब्ध व्यक्ति न हों। कभी कम, कभी ज्यादा, यह बात सच और इस तरह के खतरनाक तर्क स्वयंसिद्ध हो जाते हैं। जब है। कभी हजारों की संख्या में भी एक साथ, कभी उंगलियों पर वह बैठ जाएगा और चलेगा नहीं, मार्ग खोजेगा नहीं, कहेगा कि गिने जा सकें। पंचम काल में कहीं हो सकता है? कलियुग में कोई मोक्ष को आज उंगलियों पर गिने जा सकें इतने ही व्यक्ति मोक्ष को गया है? ये बातें होती थीं पहले, सतयुग में। अब कहां? यह उपलब्ध हैं। लेकिन मार्ग रुका नहीं। संकरा भला हो, चलने में तो अंधेरे का समय है। अब कहां? यह तो भटकने का, पाप का थोड़ा दुर्गम भी हो। युग है। अब कहां? लेकिन जिसने पूछा है, उसके पूछने का क्या कारण होगा? ऐसा सोचकर बैठ गया तो फिर होगा नहीं। और जब होगा | पूछा है : 'जैन दर्शन कहता है इस आरे में मोक्ष संभव नहीं है।' | नहीं तो वह सोचेगा, निश्चित ही जो मैं सोचता था, जो मैंने सुना अगर मोक्ष भी समय पर निर्भर हो तो क्या खाक मोक्ष रहा। था कि इस आरे में मोक्ष नहीं होता, बिलकुल ठीक है। शत मोक्ष का मतलब है स्वतंत्रता। अगर स्वतंत्रता भी शर्तबंद हो कि प्रतिशत ठीक है। जैसे-जैसे वह यह सोचता जाएगा, वैसे-वैसे कभी हो सकती है और कभी नहीं हो सकती तो मोक्ष भी बंधन ही | मिलना असंभव होता जाएगा। यह तो दुष्टचक्र हो जाएगा। हो गया। मोक्ष का तो अर्थ ही इतना है कि जब भी जो पाना चाहे, | नहीं, मैं तुमसे कहता हूं ऐसा कोई काल नहीं है, ऐसा कोई उसे मिलेगा। पाना चाहनेवाला होना चाहिए। पाने की अदम्य | समय नहीं है, जब मोक्ष संभव न हो। हां, ऐसा हो सकता है चाह होनी चाहिए। कभी कठिन, कभी सरल। कठिन और सरल भी मोक्ष के कारण 'बार-बार मेरी समकीत का उपशम या वमन होने का क्या नहीं, लोगों की मनोदशाओं के कारण।। यही तो कारण नहीं है?' कोई युग होता है, बड़ा आत्यंतिक रूप से भौतिकवादी होता जरा भी नहीं। जिसने पछा है वह कह रहा है कि मेरा ध्यान है। लोग मानते ही नहीं कि जीवन के बाद कोई जीवन है। लोग बार-बार चूक जाता है, मेरी समाधि बार-बार छूट जाती है, मानते ही नहीं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु है। लोग मानते ही नहीं इसका कारण यही तो नहीं? तो तरकीब खोज रहे हो तुम, कि कि परमात्मा है। तो स्वभावतः कठिन हो जाता है। आरे में तरकीब मिल जाए, समय में तरकीब मिल जाए। यह जब लोग मानते हैं और श्रद्धा का वातावरण होता है कि आत्मा पंचम काल, कलियुग, इसमें कहीं मोक्ष हुआ है? तो तुमको है, परमात्मा है और खोजना है...। तुम्हारे घर में अगर तुम मान राहत मिल गई। तुमने कहा, तो फिर हमारी कोई गलती नहीं है। ही लो कि खजाना नहीं है तो खोज बंद हो जाती है। मिलने की हम तो ध्यान ठीक ही साध रहे थे। अब समय ही प्रतिकूल है तो संभावना कम हो जाती है। खजाना अपने आप ही निकल आए हम क्या कर सकते हैं? तो बात अलग; अन्यथा मिलेगा कैसे? कभी भूल-चूक से गिर नहीं, इस तरह अपना दायित्व समय पर मत छोड़ो। क्योंकि पड़ो खजाने पर, बात अलग, अन्यथा मिलेगा कैसे? लेकिन जो अगर समय पर तुमने दायित्व छोड़ दिया तो जो संभव था वह | मानता है कि खजाना है, वह खोजता है। मान्यता से खोज फिर निश्चित ही असंभव हो जाएगा। अगर समाधि चूक-चूक निकल आती है। खोज से संभावना सुगम हो जाती है। जाती है तो कहीं तुम्हारी भूल है। सीधी-सी बात को इतने जाल | मैं तुमसे कहता हूं, मोक्ष संभव है। क्योंकि मोक्ष तुम्हारी 450 2010_03 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिया का गांव आत्यंतिक दशा है। इसका समय से कुछ लेना-देना नहीं। मोक्ष ही नहीं; क्योंकि दूसरे पंडितों ने उनको समझाया है कि इस आरे तुम्हारा ही स्वभाव है, इसे उघाड़ने की जरूरत है। मोक्ष तुम में संभव ही नहीं है। लेकर ही आए हो। थोड़े पर्दे पड़े हैं। पर्दे हटाने हैं। यह तो बड़ा उपद्रव का जाल है। एक आदमी किनारे बैठा है तो इस तरह की झूठी बातों में मत पड़ना। हालांकि इस तरह और कहता है, यह नदी अथाह है। इसमें कोई थाह ले ही नहीं की झूठी बातें पकड़ने का बड़ा रस है मन को। क्योंकि तब झंझट | सकता। उससे तुम पूछोगे, तुमने ली? मिटी, श्रम मिटा, साधना गई। अब कोई जरूरत न रही। अब | तुमने कोशिश की? कम से कम तुम डुबकी लगाए? वह तुम जो करना है करो। इस आरे में मोक्ष होता नहीं। | कहता है, डुबकी लगाने से सार क्या है? हमसे पहले कोई बैठा तम्हारी समाधि अगर चक रही है तो तम्हारी समाधि में भल | था, वह कह गया यह अथाह है। उससे पछा था कि डबकी है। अगर दो और दो पांच हो रहे हैं तो फिर से गणित करो। या | लगाई थी? उसके गुरु उसको बता गए थे कि डुबकी व्यर्थ है। दो और दो तीन ही रह जाते हैं, फिर से जोड़ो। यह कहकर मत | मैं तुमसे कहता हूं, वही आदमी हकदार है कहने का जिसने बैठ जाओ कि होगा नहीं। | डुबकी लगाई हो। और बड़े मजे की बात यह है, जिसने भी तो जिनने भी तुम्हें ऐसा समझाया है कि होगा नहीं, वे धर्म के | डुबकी लगाई, उसने पा ही लिया। किनारे पर बैठनेवाले लोग दुश्मन हैं। क्योंकि धर्म की इससे बड़ी दुश्मनी क्या होगी कि कोई | पाने के श्रम से बचना चाहते हैं, लेकिन यह भी नहीं मानना समझा दे कि अब मोक्ष असंभव है? वह तो तुम्हें हताश कर चाहते कि हम काहिल हैं, सुस्त हैं, अलाल हैं, तामसी हैं। समय देगा। वह तो तुम्हारे भीतर से आशा का सारा दीया बुझा देगा। पर दोष टाल देते हैं। समय ही खराब है। इस समय में इस नदी वह तो तुमसे सारी किरण छीन लेगा, उत्साह छीन लेगा। की थाह नहीं मिल सकती। नदी की थाह है तो कभी भी मिल पूछा है : 'मोक्ष यहीं और अभी, इस धारणा को पकड़ लेना | सकती है। डुबकी लगानेवाला चाहिए। क्या एक आत्मवंचना नहीं है?' | मैं तुमसे कहता हूं, मिल सकता है; क्योंकि मिला है। अगर आत्मवंचना इस धारणा को पकड़ना है कि मोक्ष अभी नहीं हो चूक होती हो तो अपनी चूक सुधारो। सकता। अभी और यहीं हो सकता है, इससे तो कोई हानि | मैं तो तुमसे कहता हूं, ईश्वर अगर न भी हो तो भी फिक्र मत होनेवाली नहीं है। नहीं हुआ तो नहीं हुआ। हो गया तो द्वार खुले करो। खोजो। होना जरूरी नहीं है खोज के लिए, है ऐसी आस्था स्वर्ग के। भर जरूरी है। खोजो। अगर नहीं होगा तो पता चल जाएगा, अगर खजाना घर में दबा पड़ा है, मैं कहता हूं, खोजो। अगर नहीं है। लेकिन उस पता चलने में भी तुम्हारे जीवन में बड़ा नहीं मिला तो भी क्या खोया? खोजने में थोड़े हाथ-पैर मजबूत आविर्भाव हो जाएगा चैतन्य का। ही हो जाएंगे, और कुछ भी न होगा। अगर मिल गया तो मिला। खुदा न सही आदमी का ख्वाब सही लेकिन तम अगर बैठे रहे और न खोजा तो पड़ा भी रहे खजाना, कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए तो भी नहीं मिलेगा। क्या फिक्र करनी कि ईश्वर नहीं है। न सही। चलो, आदमी __ मैं तुमसे कहता हूं: जीवन को सदा विधायक दृष्टि से देखो, | का सपना सही। नकारात्मक दृष्टि से नहीं। खोजकर देखो। मुझे खोजकर मिला | कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए। है, इसीलिए तुम्हें भी मिल सकता है। मैं तुम्हारा समसामयिक कोई सुंदर सपना तो सही! उस सुंदर सपने के सहारे तुम सुंदर हूं। तुम्हारे सामने बैठा हूं। उसी समय में, उसी जगह में, जहां हो जाओगे-चाहे सपना हो या न हो। उस सुंदर सपने को तुम हो। | देखते-देखते तुम सुंदर हो जाओगे-चाहे कोई खुदा हो न हो। जो पंडित तुमसे कह रहे हैं कि इस आरे में संभव नहीं है, उनसे फूलों की तलाश करनेवाला फूलों जैसा हो जाता है। क्योंकि पूछो, क्या तुमने पूरी कोशिश कर ली? क्या तुमने आखिरी हम जो खोजते हैं वैसे हो जाते हैं। सुगंध का खोजी सुगंध से भर कोशिश कर ली? तो तुम अकसर पाओगे उन्होंने कोशिश की जाता है। सत्य का खोजी, सत्य हो या न हो, सत्य हो जाता है। 1451 2010_03 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 जिन सूत्र भाग: 2 हम जो खोजते हैं वही हो जाते हैं। तुम कभी गौर से देखो। धन खोजनेवाले आदमी को तुम गौर से देखो। उसकी शक्ल पर वैसी ही भावदशा बन जाती है जैसी रुपयों पर होती है— वैसी ही घिसी-पिटी, चली चलाई, हजार हाथ में गुजरी, घिनौनी । कंजूस आदमी के चेहरे को देखो। वैसा ही चेहरा लगने लगता है। जैसा घिसा-पिसा रुपया । कई हाथों से चल-चलकर चिकना हो गया । तेल-सा बहता मालूम होता है चेहरे से । कामी आदमी को देखो। तो उसकी आंखों में एक कामना का ज्वर, एक बुखार, एक उत्ताप । परमात्मा के खोजी को देखो, परमात्मा है या नहीं छोड़ो। क्योंकि बिना खोजे पता भी कैसे चलेगा कि है या नहीं — छोड़ो। लेकिन परमात्मा के खोजी को देखो। परमात्मा न हो, परमात्मा खोजी तो हैं; उनको देखो । परमात्मा हो या न हो, वे धीरे-धीरे परमात्म-रूप हो जाते हैं। खुदा न सही आदमी का ख्वाब सही कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए और कल पर मत टालो क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं । जो करना है आज कर लो। जो करना है अभी कर लो। क्योंकि | अभी के तुम मालिक हो । कल के तुम मालिक नहीं। यही समय तुम्हें मिला है। बंधन चाहो तो हो सकता है। मोक्ष चाहो तो हो सकता है। अब यह बड़े मजे की बात है। बंधन तो पहले भी होता था, बंधन अब भी होता है। मोक्ष पहले ही होता था, मोक्ष अब नहीं होता । यह तर्क जरा जंचता नहीं। बीमारी पहले भी होती थी, स्वास्थ्य पहले भी होता था, बीमारी अब भी होती है, स्वास्थ्य अब नहीं होता। जो आदमी बीमार हो सकता है, वह स्वस्थ क्यों नहीं हो सकता? और जिस आदमी के हाथ में जंजीरें पड़ सकती हैं, वह जंजीरें क्यों नहीं तोड़ सकता ? जब कारागृह के भीतर आने का उपाय है तो जिस दरवाजे से भीतर आया जाता है, उसी से तो बाहर भी जाया जाता है। जब कारागृह के भीतर आ गए तो एक बात पक्की है कि बाहर भी जाया जा सकता है। मगर वे ही लोग जा पाएंगे, जो आज का उपयोग कर लेंगे। घूंघट में शर्मानेवाली यह निशिगंधा 2010_03 संभव है कल बोले भी तो स्वीकार न हो यह भी मुमकिन है, कल रूठने-मनाने को यह रात न हो, यह बात न हो, यह प्यार न हो हरेक भक्ति के साथ चल रही विरक्ति हरेक राग का आंचल पकड़े है विराग खिड़की पर ऐसे ही फिर न घटा अंगड़ाएगी करना है तो तुम ब्याह सपन का अभी करो यह समय दुबारा लौट नहीं आएगा भरना है तो मांग मिलन की अभी भरो जिसने गाया है, शायद सांसारिक प्रेम के लिए गाया है, लेकिन परमात्मा के प्रेम के लिए भी बात इतनी ही सही है। करना है तो तुम ब्याह सपन का अभी करो यह समय दुबारा लौट नहीं आएगा भरना है तो मांग मिलन की अभी भरो अभी के अतिरिक्त कोई और 'कभी' है भी नहीं। कभी पर टाला तो सदा के लिए टाला। कहा 'कल', तो फिर कभी संभव न हो सकेगा। यही समय है तुम्हारे पास । पंचम काल कहो, कलियुग कहो, भ्रष्ट, पतित, पापी — मगर यही समय है तुम्हारे पास। इससे अन्यथा तुम्हारे पास कोई काल है नहीं । कीचड़ में ही पड़े हो माना; लेकिन कमल कीचड़ में ही पैदा होते हैं। कीचड़ को दोष मत देते रहो, कमल होने की चेष्टा करो। और ध्यान रखो, महावीर के समय में सभी महावीर न थे। सभी कीचड़ कमल नहीं हो गए थे। और आज भी सभी कीचड़ कीचड़ नहीं हैं। आज भी कीचड़ में कोई कमल खिला है। लेकिन अगर तुमने एक बार यह मान लिया कि आज हो ही नहीं सकता तो महावीर भी तुम्हारे सामने खड़े हो जाएं, तुम कहोगे किसी ने स्वांग भरा है। महावीर हो ही नहीं सकते। मगर यह तुम्हारी दृष्टि महावीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती, तुम्हीं को नुकसान पहुंचाती है। अगर महावीर नहीं हो सकते तो फिर तुम गए । फिर तुम्हारा कोई भविष्य नहीं । फिर तुम किसलिए हो ? फिर तुम्हारा कोई अभिप्राय नहीं । जगत में मुक्ति संभव न हो, जिस समय में मुक्ति संभव न हो, उस समय में मरने के अतिरिक्त फिर और क्या होगा ? जीवन है तो दो ही संभावनाएं हैं: मौत या मोक्ष। अगर मोक्ष हो ही नहीं सकता तो फिर जीवन का एक ही अर्थ रह Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया – मरना, मृत्यु। तो उठे रोज, खाए-पीए रोज, सोए रोज - सारी तैयारी की, बस मरने के लिए? अंततः मरे ! तो सार क्या है? दो दिन पहले मरे तो हर्ज क्या ? दो साल पहले मरे तो हर्ज क्या? और पैदा ही न होते तो क्या हर्ज था ? या पैदा होते मर गए तो क्या रोना! अगर मौत ही होनी है, कुछ और हो ही नहीं सकता, तो फिर जीवन का कोई अर्थ नहीं है । मोक्ष हो सकता है इसीलिए अर्थ है । मस्ती में गाते हुए मर्द धूप में बैठे बालों में कंघी करती हुई नारियां तितलियों के पीछे दौड़ते हुए बच्चे फुलवारियों में फूल चुनती हुई सुकुमारियां ये सब के सब ईश्वर हैं क्योंकि जैसे ईसा और राम आए थे, ये भी उसी प्रकार आए हैं और ईश्वर की कुछ थोड़ी विभूति अपने साथ लाए हैं तो उपदेशको ! आओ हम ईमानदार बनें और मानवता को डराएं नहीं, बल्कि यह कहें कि जिस सरोवर का जल पीकर तुम पछताते हो। उस तालाब का पानी हमने भी पीया है और जैसे तुम हंस-हंसकर रोते और रो-रोकर हंसते हो इसी तरह हंसी और रुदन से भरा जीवन हमने भी जीया है गनीमत है कि हर पापी का भविष्य है। जैसे हर संत का अतीत होता है आदमी घबड़ाकर व्यर्थ रोता है मैं दानव से छोटा नहीं, न वामन से बड़ा हूं सभी मनुष्य एक ही मनुष्य हैं सबके साथ मैं आलिंगन में खड़ा हूं वह जो हारकर बैठ गया उसके भीतर मेरी ही हार है वह जो जीतकर आ रहा है उसकी जय में मेरी ही जय-जयकार है। महावीर तुम्हारी ही जीत हैं। राम तुम्हारी ही विजय यात्रा हैं। रावण तुम्हारी ही हार है। जीसस तुम्हारी ही बजती हुई वीणा, जुदास तुम्हारा ही टूटा हुआ तार है। दोनों तुम्हारी संभावना हैं - राम और रावण । और तुम पर 2010_03 पिया का गांव निर्भर है। एक बात खयाल रखना - अत्यंत महत्वपूर्ण — कि राम बनो तो चेष्टा करनी पड़ेगी, रावण बिना चेष्टा के बन सकते हो । रावण बनने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती। रावण बिना मेहनत के आदमी बन जाता है। जो कुछ भी न बनेगा वह रावण बन जाएगा। रावण के भीतर राम सोया है। राम के भीतर रावण जाग गया है। बस इतना ही भेद है। अगर सोए हो तो मैं कहता हूं, जागना भी हो सकता है। समय, युग की व्यर्थ बातें मत उठाओ। अपनी भूलें स्वीकार करो। ऐसे बहाने मत खोजो । यह आत्मवंचना है । ये बड़ी तर्कयुक्त तरकीबें हैं अहंकार को बचा लेने की, सुरक्षा की। सीधा-सीधा देखो। जहां गलती मालूम पड़ती हो उसे सुधारो । जहां नीचे का खिंचाव मालूम पड़ता है उसे तोड़ो। जहां ऊपर उठने में कठिनाई मालूम पड़ती है उसका अभ्यास करो। धीरे-धीरे इंच-इंच चलकर मोक्ष निर्मित होता है। बूंद-बूंद गिरकर सागर भरता है। आज इतना ही। 453 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 03. € Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AKKAP तेईसवां प्रवचन षट पर्दो की ओट में 2010_03 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंडो ण मुंचइ वेरं, भंडणसीलो य धरमदयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स।।१३८।। मंदो बुद्धिविहीणो, णिव्विणाणी य विसयलोलो य। लक्खणमेयं भणियं, समासदो णीललेस्सस्स।।१३९।। रूसइ णिंदइ अन्ने, दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो। ण गणइ कज्जाकज्जं, लक्खणमेयं तु काउस्स।।१४०।। जाणइ कज्जाकज्जं, सेयमसेयं च सव्वसमपासी। दयदाणरदो य मिदू, लक्खणमेयं तु तेउस्स।।१४१।। चागी भद्दो चोक्खो, अज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि। साहुगुरुपूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स।।१४२।। ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसिं। णत्थि य रायद्दोसा, णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स।।१४३।। Hal - ___ 2010_03 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म नुष्य जैसा है, अपने ही कारण है। मनुष्य जैसा है, बुद्ध ने धम्मपद के वचनों का प्रारंभ किया है: तम जो हो वह 1 वह अपने ही निर्माण से वैसा है। अतीत में सोचे हुए विचारों का परिणाम है। तुम जो होओगे, वह महावीर की दृष्टि में मनुष्य का उत्तरदायित्व चरम | आज सोचे गए विचारों का फल होगा। मनुष्य जैसा सोचता है, है। दख है तो तम कारण हो। सख है तो तम कारण हो। बंधे हो वैसा हो जाता है। तो तुमने बंधना चाहा है। मुक्त होना चाहो, मुक्त हो जाओगे। संसार विचार की एक प्रक्रिया है; मोक्ष, निर्विचार की शांति कोई मनुष्य को बांधता नहीं, कोई मनुष्य को मुक्त नहीं करता। है। संसार गांठ है विचारों की। तुम सोचना बंद कर दो-गांठ मनुष्य की अपनी वृत्तियां ही बांधती हैं, अपने राग-द्वेष ही बांधते | अपने-आप पिघल जाती है, बह जाती है। तुम सहयोग न दो, हैं, अपने विचार ही बांधते हैं। तुम्हारा साथ न रहे, तो जंजीरें अपने-आप स्वप्नवत विलीन हो एक अर्थ में गहन दायित्व है मनुष्य का, क्योंकि जिम्मेवारी | जाती हैं। किसी और पर फेंकी नहीं जा सकती। इन सूत्रों में इसी तरफ इंगित है। जैसा पहले कहा कि मनुष्य के महावीर के विचार में परमात्मा की कोई जगह नहीं है। इसलिए ऊपर सात पर्दे हैं। अब महावीर एक-एक पर्दे की तुम किसी और पर दोष न फेंक सकोगे। महावीर ने दोष फेंकने विचार-शंखला के संबंध में इशारे करते हैं। के सारे उपाय छीन लिए हैं। सारा दोष तुम्हारा है। लेकिन इससे 'स्वभाव की प्रचंडता, रौद्रता, वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू हताश होने का कोई कारण नहीं है। इससे निराश हो जाने की | वृत्ति, धर्म और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नहीं कोई वजह नहीं है। मानना, ये कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं।' । चूंकि सारा दोष तुम्हारा है, इसलिए तुम्हारी मालकियत की इन तानों-बानों से बना है पहला पर्दा : अंधेरे का पर्दा। अंधेरा उदघोषणा हो रही है। तुम चाहो तो इसी क्षण जंजीरें गिर सकती | अगर तुम्हारे बाहर होता तो कोई बाहर से रोशनी भी ला सकता हैं। तुम उन्हें पकड़े हो, जंजीरों ने तुम्हें नहीं पकड़ा है। और था। तुम घर में बैठे हो अंधेरे में, पड़ोसी भी दीया ला सकता है। किसी और ने तुम्हें कारागृह में नहीं डाला है, तुम अपनी मर्जी से लेकिन जीवन में जो अंधेरा है, वह कुछ ऐसा है कि तुम उसे प्रविष्ट हुए हो। तुमने कारागृह को घर समझा है। तुमने कांटों निर्मित कर रहे हो। वह तुम्हारे बाहर नहीं तुम्हारे भीतर उसकी को फूल समझा है। जड़ें हैं; इसलिए कोई भी दीया लाकर तुम्हें दे नहीं सकता, जब ओल्ड टेस्टामेंट में, पुरानी बाइबिल में सोलोमन का प्रसिद्ध | तक कि तुम अंधेरे की जड़ों को न तोड़ डालो। . वचन है : 'ऐज ए मैन थिंकेथ सो ही बिकम्स।' जैसा आदमी | जड़ें हैं: स्वभाव की प्रचंडता। सोचता, वैसा हो जाता है। बहुत लोग हैं, जो क्रुद्ध ही जीते हैं। कुछ लोग हैं, जिन्हें 459 2010_03 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कभी-कभी क्रोध होता है। कुछ लोग हैं, क्रोध जिनका स्वभाव कर लेते हैं। है। जिनसे तुम अक्रोध की आशा ही नहीं कर सकते। जिनके | महावीर कहते हैं ऐसा व्यक्ति, जिसने क्रोध को अपनी सहज संबंध में तुम निश्चित रह सकते हो कि वे कोई न कोई कारण | आदत बना लिया हो, कृष्ण लेश्या में दबा रहेगा-क्रोध, क्रोध करने का खोज ही लेंगे। देखनेवाले चकित होते हैं कि जहां | रौद्रता, दुष्टता! कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता था, वहां भी लोग कारण खोज | राह से तुम चले जा रहे हो, एक कुत्ता दिखाई पड़ जाता है, तुम लेते हैं। उठाकर पत्थर ही मार देते हो। कुछ लेना-देना न था। कुत्ता मैंने सुना है, एक पति-पत्नी में निरंतर झगड़ा होता रहता था। अपनी राह जाता, तुम अपनी राह जाते थे। तुम राह से निकल रहे | पत्नी मनोवैज्ञानिक के पास गई और मनोवैज्ञानिक ने कहा कि हो, वृक्ष फूले हैं, तुम फूल ही तोड़ते चले जाते हो। क्षणभर बाद | कुछ झगड़े को हटाने के उपाय करो। बनाया है तो बन गया है। तुम उनको फेंक देते हो रास्ते पर; लेकिन जैसे दुष्टता तुम्हारे अब पति का जन्मदिन आता हो-कब आता है? । भीतर है। उसने कहा, कल ही उनका जन्मदिन है। तो उसने कहा, इस और ध्यान रखना, जो दुष्टता आदत का हिस्सा है, वही मौके को अवसर समझो। कुछ उनके लिए खरीदकर लाओ, असली खतरनाक बात है। जो दुष्टता कभी-कभार हो जाती है, कुछ भेंट करो। कुछ प्रेम की तरफ हाथ बढ़ाओ। प्रेम की ताली वह कोई बहुत बड़ा प्रश्न नहीं है, मानवीय है। कोई किसी क्षण में एक हाथ से तो बजती नहीं। तुम्हारा हाथ बढ़े तो शायद पति भी नाराज हो जाता है, क्रुद्ध हो जाता है, कभी किसी क्षण में दुष्ट भी उत्सुक हो। हो जाता है। वह क्षम्य है। उससे कृष्ण लेश्या नहीं बनती। कृष्ण पत्नी को बात जंची। बाजार से दो टाई खरीद लायी। दूसरे लेश्या बनती है, गलत वृत्तियों का ऐसा अभ्यास हो गया हो, कि दिन पति को भेंट की। पति बड़ा प्रसन्न हुआ। ऐसा कभी हुआ न जहां कोई भी कारण न हो वहां भी वृत्ति अपने ही अभ्यास के था। पत्नी कुछ लायी हो खरीदकर, इसकी कल्पना भी नहीं कर कारण, कारण खोज लेती हो। तो फिर तुम अपने अंधेरे को पानी सकता था। मनोवैज्ञानिक का सत्संग लाभ कर रहा है। प्रसन्न | सींच रहे हो, खाद दे रहे हो। फिर यह अंधेरा और बड़ा होता हुआ। इतना प्रसन्न हुआ कि उसने कहा कि आज अब भोजन चला जाएगा। मत बना। आज हम नगर के श्रेष्ठतम होटल में चलते हैं। मैं | 'स्वभाव की प्रचंडता...।' अभी तैयार हुआ। इसे थोड़ा खयाल रखना। ऐसी कोई वृत्ति आदत मत बनने वह भागा। स्नान किया, कपड़े बदले, पत्नी दो टाई ले आयी देना। कभी क्रोध आ जाए तो बहत परेशान होने की जरूरत नहीं थी, उसमें से एक टाई पहनकर बाहर आया। पत्नी ने देखा और है। मनुष्य कमजोर है। असली प्रश्न तो तब है, जब कि क्रोध कहा, अच्छा, तो दूसरी टाई पसंद नहीं आयी! तुम्हारे घर में बस जाए; नीड़ बसाकर बस जाए। अब आदमी एक ही टाई पहन सकता है एक समय में। दो ही क्रोधी आदमी अकेला भी बैठा हो तो भी क्रोधी होता है। तुम टाई तो एक साथ नहीं बांधे जा सकते। अब कोई भी टाई उसकी आंख में क्रोध देखोगे। चलेगा तो क्रोध से चलेगा। पहनकर आता पति...विवाद शुरू हो गया। यह बात पत्नी को बैठेगा तो क्रोध से बैठेगा। क्रोध उसकी छाया है, उसका सत्संग नाराज कर गई कि दूसरी टाई पसंद नहीं आयी। मैं इतनी मेहनत है। वह जो भी करेगा, क्रोध से करेगा। दरवाजा खोलेगा तो से, इतने भाव से, इतने प्रेम से खरीदकर लायी हूं। | क्रोध से खोलेगा। जूते उतारेगा तो क्रोध से उतारेगा। कुछ लोग हैं जिनके लिए क्रोध एक भावावेश होता | सूफी फकीर बोकोजू से कोई मिलने आया। उसने जोर से है-अधिक लोग। किसी ने गाली दी, क्रुद्ध हो गए। दरवाजे को धक्का दिया। क्रोधी आदमी रहा होगा, कृष्ण लेश्या लेकिन कुछ लोग हैं, जो क्रुद्ध ही रहते हैं। किसी के गाली देने का आदमी रहा होगा। फिर जूते उतारकर फेंके। बोकोजू के पास न देने का सवाल नहीं है। वे गालियां खोज लेते हैं। जहां न हो | आकर बोला, शांति की आकांक्षा करता हूं। कोई ध्यान का मार्ग गाली, वहां भी खोज लेते हैं। जहां न हो गाली, वहां भी व्याख्या | दें। बोकोजू ने कहा, यह बकवास पीछे। पहले जाकर दरवाजे से 460/ 2010_03 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घट पर्दो की ओट में क्षमा मांगो, जूते को सिर झुकाकर नमस्कार करो। पडेगा। कभी-कभी किसी की आंखों में जागति की चमक उस आदमी ने कहा, क्या मतलब ? दरवाजे से क्षमा? जूते से दिखाई पड़ेगी, अन्यथा अंधेरा है। चल रहे हैं, जगे हुए हैं, फिर नमस्कार ? ये तो मृत चीजें हैं, जड़ चीजें हैं। इनसे क्या क्षमा भी सोये हुए हैं। और क्या नमस्कार! ऐसा पहले दूसरों का निरीक्षण करना और फिर जो तुम्हें दूसरों बोकोजू ने कहा, क्रोध करते वक्त न सोचा कि जड़ चीजों पर के निरीक्षण में दिखाई पड़े, धीरे-धीरे अपने पर लागू करना। क्रोध कर रहे हो? जूते को जब क्रोध से फेंका, तब न सोचा कि | फिर खुद चलते हुए, बैठते हुए, उठते हुए देखना कि तुम किन्हीं जूते पर क्या क्रोध करना! दरवाजे को जब धक्का दिया, बेहूदगी भाव-दशाओं में बहुत लिप्त तो नहीं हो गए हो! कहीं ऐसा तो और अशिष्टता की, तब न सोचा। जाओ वापस, अन्यथा मेरे नहीं है कि तुम क्रोध से भरे जीने लगे हो, रोष से भरे जीने लगे पास आने की कोई सुविधा नहीं है। मैं तुमसे बात ही तब | हो, हिंसा तुम्हारी अंतर्भूमि बन गई है, दुष्टता तुम्हारा स्वभाव करूंगा, जब तुम दरवाजे से क्षमा मांगकर आ जाओ। | बन गई है! अब यह जो आदमी है, कृष्ण लेश्या से दबा होगा। ऐसा नहीं __ अगर यह दिखाई पड़े तो एक बड़ी महत्वपूर्ण अनुभूति हुई : कि उसने जानकर कोई क्रोध किया। क्रोध उसका अंग बन गया कृष्ण लेश्या पहचान में आयी। और जिसे मिटाना हो उसे है। वह क्रोध से ही दरवाजा खोल सकता है। पहचान लेना जरूरी है। जिससे मुक्त होना हो, उसे आर-पार तुम भी लोगों को ध्यानपूर्वक देखोगे तो तुम्हें दिखाई पड़ने देख लेना जरूरी है। लगेगा। पहले औरों को देखना. क्योंकि औरों के संबंध में सत्य 'स्वभाव की प्रचंडता, वैर की मजबूत गांठ...।' को जानना सरल होता है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं। दूसरे ऐसे लोग हैं, जो जन्म-जन्म तक वैर की गांठ बांधकर रखते की बात है। तुम दूर खड़े होकर देख लेते हो। लोगों को जरा गौर | हैं। जो भूलते ही नहीं। जो और सब भूल जाते हैं, वैर नहीं से देखना। कभी रास्ते के किनारे बैठ जाना किसी वृक्ष के नीचे, भूलते। ऐसा भी होता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वैर चलता है। बाप चलते लोगों को देखना। देखना कि कौन आदमी क्रोध से चल मर जाता है तो अपने बेटे को शिक्षण दे जाता है कि पड़ोसी से रहा है। कौन आदमी प्रेम से चल रहा है। कौन आदमी झगड़ते रहना। अपनी पुश्तैनी दुश्मनी है। आनंदभाव से चल रहा है। और तुम पाओगे, हर स्थिति में पुश्तैनी दुश्मनी का क्या मतलब हो सकता है? लड़े कोई और भाव-भंगिमा अलग है। | थे, जारी कोई और रखे हैं। शुरू किसी ने किया था, वे कभी के प्रेम से चलनेवाले की चाल में एक संगीत होगा। कोई अदृश्य मर चुके होंगे दादे-परदादे; लेकिन पुश्तैनी दुश्मनी है, जारी रखे पायल बजती होगी। हृदय में कोई गहन आनंद की वर्षा होती हुए हैं। होगी। क्रोध से चलनेवाला आदमी जैसे कांटों में चुभा पड़ा है। ऐसा तो कम होता है, लेकिन बीस साल पहले किसी ने तुम्हें पीड़ा से जलता हुआ, आग की लपटों में झुलसता चल रहा है। गाली दे दी थी, वह तुम अभी भी याद रखे हो। गालियां मुश्किल राह वही, लोग अलग-अलग हैं। से भूलती हैं। जिस आदमी ने तुम्हारे साथ निन्यानबे उपकार जिन रास्तों पर तुम चलते हो, उन्हीं पर बुद्ध और महावीर चले किए हों, वह भी अगर एक गाली दे दे तो निन्यानबे उपकार भूल हैं। जिन वृक्षों के नीचे से तुम गुजरे हो, उन्हीं के नीचे से बुद्ध जाते हैं, वह एक अपमान याद रह जाता है। और महावीर गजरे हैं। लेकिन तम एक ही दनिया में नहीं चले। तम कभी अपने पीछे लौटकर विचार करते हो, क्या याद रह और एक ही रास्तों पर नहीं गुजरे। क्योंकि असली में तो तुम क्या गया? तुम अचानक चकित हो जाओगे। सिर्फ जलते हुए हो, इससे तुम्हारी दुनिया निर्मित होती है। अंगारे याद रह गए। तुम कभी पीछे लौटकर देखना कि कौन-सी ऐसा पहले दूसरों को देखना। कुछ लोग मूर्छित मालूम | याददाश्तें तुम्हारे घर में बड़ा गहरा घर किए बैठी हैं। तुम बहुत पड़ेंगे। चले जा रहे हैं, लेकिन जैसे किसी नशे में हैं। हैरान होओगे। कभी कोई छोटी-सी बात...तीस साल हो गए, कभी-कभी कोई आदमी, कोई छोटा बच्चा जाग्रत मालूम किसी आदमी ने तुम पर व्यंग्य से हंस दिया था, वह अभी भी 1461 ___ 2010_03 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भाग : 2 SHE हंसी उसकी सुनाई पड़ती है। तीस साल में लाखों-अरबों बच्चे को गतिमान करना है। बहुत दफा नाराज भी होना है, बहुत अनुभव हुए हैं। लेकिन वह अंगारा अब भी कहीं घाव की तरह दफे डांटना-डपटना भी है। वे घाव भीतर रह जाते हैं। बैठा है। अभी भी हरा है। अभी भी पीड़ा होती है। अभी भी तुम अक्सर ऐसा होता है कि जब बेटे जवान हो जाते हैं, उस आदमी से बदला लेना चाहोगे। छोटी-छोटी बातें याद रह शक्तिशाली हो जाते हैं और मां और बाप बूढ़े होने लगते हैं, तब जाती हैं। क्षुद्र बातें याद रह जाती हैं। जीवन के अनंत उपकार बदला शुरू होता है। तब पहिया पूरा घूम गया। पहले बच्चे थे भूल जाते हैं। तुम, कमजोर थे, तुम कुछ कर न सके, सहा; फिर मां-बाप गरजिएफ कहता था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने माता-पिता बच्चे हो जाते हैं, बूढ़े हो जाते हैं, कमजोर हो जाते हैं। तुम से किसी न किसी दिन समझौता करना होता है। और जो व्यक्ति शक्तिशाली हो जाते हो। फिर तुम सताना शुरू कर देते हो। अपने माता-पिता को क्षमा न कर सके वह कभी ध्यान में प्रविष्ट मां-बाप के पास भी हमारा क्रोध, हमारा वैर-भाव गांठ की नहीं हो सकता। तरह बना रहता है तो औरों की तो बात ही क्या! और महावीर तुम तो कहोगे, माता-पिता को क्षमा ? लेकिन गुरजिएफ बड़ी | कहते हैं कि यह वैर की गांठ जितनी गहरी होगी, उतना ही तुम्हारा गहरी बात कह रहा है। कृष्ण लेश्या का पर्दा सघन होगा। स्वाभाविक है कि जिन माता-पिता ने तुम्हें बड़ा किया, कई | मुल्ला नसरुद्दीन एक बस में यात्रा कर रहा था। बस के अंदर दफा तुम पर नाराज हुए होंगे। तुम्हारे हित में हुए होंगे। कई बार एक कतार में खुद बैठा, दूसरी तरफ उसकी पत्नी बैठी थी। और मारा, डांटा-डपटा होगा, अगर वह चुभन अभी शेष रह गई है | दूसरी कतार में एक अपरिचित महिला यात्री। हवा के झोंके से और अगर तुम अपने मां-बाप से भी रसपूर्ण रिश्ता नहीं बना पाए उस युवती का आंचल लहरा-लहराकर मुल्ला के पैर को हो, तो और किससे बना पाओगे? झाड़ता-पोंछता। जब बस के मुड़ने पर उस महिला का हाथ गरजिएफ कहता है, मां-बाप का आदर जिसके मन में आ मुल्ला के पैर पर पड़ गया तो उसने अपनी पत्नी के कान में कहा, गया वह साधु होने लगा। मुझे गौतम बुद्ध समझ रही है। थोड़ी देर बाद जब बस के झटके पूरब की सारी संस्कृति कहती है मां और पिता के आदर के से चप्पल सहित उसका पैर मुल्ला के पैर में लगा तो पत्नी ने लिए। क्यों? तुम शायद इस तरह कभी सोचे नहीं, लेकिन मुल्ला के कान में कहा, सावधान! अब आपकी असलियत मनोविज्ञान इसी तरह सोचता है। जब संस्कृति इतना जोर देती है पहचान गई है। | कि माता-पिता का आदर करो, तो इसका अर्थ ही यह है कि आदमी वैर की गांठ बांधता है संसार से, उसका आधारभूत अगर जोर न दिया जाए तो तुम अनादर करोगे। जोर केवल खबर कारण क्या है? आधारभूत कारण है कि आदमी अपने को तो दे रहा है कि अगर तुम्हें छोड़ दिया जाए तुम पर, तो तुम अनादर गौतम बुद्ध समझता है, इसलिए अपेक्षा करता है। बड़ी अपेक्षा करोगे। पश्चिम में मनोविश्लेषण ने बड़ी खोजें की हैं। उनमें करता है कि सारा संसार उसके चरणों में झके। और जब लोग सबसे बड़ी खोज यह है कि जितने भी लोग मानसिक रूप से उसके चरणों में झुकना तो दूर रहा, उसका अपमान करते हैं; बीमार होते हैं वे किसी न किसी तरह अपनी मां से नाराज हैं। चरणों में झुकना तो दूर रहा, अपेक्षा पूरी करना तो दूर रहा, अगर सारे मनोविश्लेषण को एक शब्द में दोहराना हो और उसकी उपेक्षा करते हैं; चरणों में झुकना तो दूर रहा, ऐसी सारी मानसिक बीमारियों को एक शब्द में लाना हो तो वह-मां स्थितियां पैदा करते हैं कि उसे उनके चरणों में झुकना पड़े तो घाव से नाराजगी। खड़े होते हैं, वैर की गांठ बंधती है। हर आदमी छोटा था, बच्चा था, कमजोर था। उस कमजोरी अहंकार के कारण वैर की गांठ बंधती है। और अहंकार कृष्ण के क्षण में असहाय था, किसी पर निर्भर था। मां और पिता पर लेश्या का आधार है। जितना अहंकार होगा, उतनी वैर की गांठ | निर्भर था। और मां और बाप को बच्चे को बड़ा करना है, कई होगी। तुमने अगर अपने को बहुत कुछ समझा तो वैर की गांठे बातें गलत हैं, जिनसे रोकना है। कई बातें सही हैं, जिनकी तरफ | बहुत हो जाएंगी। क्योंकि कोई तुम्हारी अपेक्षा पूरी करने को नहीं खम 462 Jal Education International 2010_03 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। लोग अपने अहंकार के लिए जी रहे हैं । तुम्हारे अहंकार की तृप्ति करने को कौन जी रहा है ? लोग तुम्हारे अहंकार से संघर्ष कर रहे हैं। तुम जितने अहंकारी हो, लोग उतना तुम्हें नीचे दिखाने की चेष्टा करेंगे। क्योंकि तुम्हारे नीचे दिखाए जाने में ही उनका ऊंचा होना निर्भर है। तुम भी तो लोगों के साथ यही कर रहे हो कि उनको नीचा दिखाओ। तो वही आदमी वैर की गांठ नहीं बांधेगा जिसके पास कोई अहंकार नहीं है। लाओत्सु कहता है, मुझे तुम हरा न सकोगे क्योंकि मैं हारा हुआ हूं। मेरी जीत की कोई आकांक्षा नहीं है। तुम मुझे हटा न सकोगे मेरी जगह से क्योंकि मैं अंत में ही खड़ा हुआ हूं। इसके पीछे अब और कोई जगह ही नहीं है। लाओत्सु यह कह रहा है, जो विनम्र है उसके साथ किसी की शत्रुता नहीं होगी। और अगर किसी की शत्रुता होगी भी, तो वह जो शत्रुता बना रहा है उसकी समस्या है, विनम्र की समस्या नहीं है। किसी की दी गई गाली तुम्हें चुभती है क्योंकि तुम अहंकार को सजाए बैठे हो। तुमने अहंकार का कांच का महल बना रखा है। किसी ने जरा-सा कंकड़ फेंका कि तुम्हारे दर्पण टूट-फूट जाते हैं। अहंकार बड़ा नाजुक है। जरा-सी चोट से डगमगाता है, टूटता है, कंपता है। तो फिर वैर की गांठ बनती जाती है। तुम मित्र किन्हें कहते हो? तुम मित्र उन्हें कहते हो जो तुम्हारे अहंकार की परिपूर्ति करते हैं। इसलिए तो चापलूसी का दुनिया में इतना प्रभाव है। अगर तुम किसी की चापलूसी करो, खुशामद करो, तो तुम अतिशयोक्ति करो तो भी जिसकी तुम खुशामद करते हो, वह मान लेता है कि तुम ठीक कह रहे हो । वस्तुतः वह सोचता है कि तुम्हीं पहले आदमी हो जिसने उन्हें पहचाना। वह तो सदा से यही मानता था कि मैं एक महापुरुष हूं। कोई उसको पहचान नहीं पा रहा था, तुम मिल गए उसे पहचाननेवाले । जिसकी तुम खुशामद करो, तुम कभी चकित होना; तुम अतिशयोक्ति करते हो, अंधे को कमलनयन कहते हो, असुंदर को सौंदर्य की प्रतिमा बताते हो, अज्ञानी को ज्ञान का अवतार कहते हो और तुम्हें भी चकित होना पड़ता होगा कि वह मान लेता | है । यह तो उसने माना ही हुआ था। तुम पहली दफा पहचाननेवाले मिले। कोई दूसरा पहचान नहीं पाया। खुशामद | इसीलिए कारगर होती है। 2010_03 षट पर्दों की ओट में अगर वह आदमी विनम्र हो और असलियत को जानता हो तो तुम खुशामद से उसे प्रसन्न न कर पाओगे । जिस आदमी को तुम खुशामद से प्रसन्न कर लो, सम्हलकर रहना । यह आदमी वैर की गांठ भी बांधेगा। जो खुशामद से प्रसन्न होगा, वह अपमान से नाराज होगा। जो झूठी खुशामद से प्रसन्न हो जाता है, वह अवास्तविक अपमान से भी नाराज हो जाएगा; तथ्यहीन अपमान से भी नाराज हो जाएगा। विनम्र व्यक्ति को न तो खुशामद से प्रसन्न किया जा सकता है और न अपमान से नाराज किया जा सकता है। विनम्र व्यक्ति तुम्हारी नियंत्रण - शक्ति के बाहर हो जाता है। वह स्वयं अपना मालिक होने लगता है। कृष्ण लेश्या में दबा हुआ आदमी गुलाम है। बड़ा गुलाम है। उसके ऊपर बटन लगे हैं, जो भी चाहो तुम दबा दो, बस वह वैसे ही व्यवहार करता है। जरा अपमान कर दो कि वह आग-बबूला गया। बटन दबा दो कि वह सौ डिग्री पर उबलने लगा, भाप बनने लगा। दूसरा बटन दबा दो, वह प्रसन्न हो गया, आनंदित हो गया। तुम जो कहो, करने को राजी है । जान देने को राजी हो जाए तुम्हारे लिए। इसका अर्थ हुआ कि कृष्ण लेश्या से भरा हुआ आदमी प्रतिक्रिया से जीता है। तुम उससे कुछ भी करवा ले सकते हो। विनम्र व्यक्ति अपने बोध से जीता है, प्रतिक्रिया से नहीं । 'स्वभाव की प्रचंडता और वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू वृत्ति... ।' संसार में इतने झगड़े नहीं हैं जितने दिखाई पड़ते हैं । जितने दिखाई पड़ते हैं वे झगड़ालू वृत्ति के कारण हैं। लोग झगड़ने को तत्पर ही खड़े हैं। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कब मिले अवसर । लोग बिना झगड़े बेचैन हो रहे हैं। लोग निमंत्रण दे रहे हैं कि आ बैल, मुझे सींग मार। क्योंकि जब तक बैल सींग नहीं मारता, उन्हें उनके अस्तित्व का बोध नहीं होता । लड़ने में ही उन्हें पता चलता है कि हम हैं। जब जीवन में कठिनाई होती है, संघर्ष होता है, तभी उन्हें पता चलता है कि हम भी कुछ हैं। सिद्ध करने का मौका मिलता है। इसे समझना । जिस व्यक्ति को अपनी आत्मा की कोई झलक नहीं मिली, वह हमेशा झगड़ने को तैयार होगा। क्योंकि झगड़ने उसे थोड़ा आत्मभाव पैदा होता है। झगड़ने में ही लगता है, 463 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 मैं भी हूं। और तो कोई उसे उपाय नहीं दिखाई पड़ता सिद्ध करने जब तुम कुछ विनाश करते हो, तब तुम्हें अपने होने का पता का। कैसे सिद्ध करे कि मैं भी हूं? | चलता है। स्कूल में विद्यार्थी खिड़कियों के कांच फोड़ आते हैं, एक आदमी ने अमरीका में सात हत्याएं की एक घंटे के कालेज में उपद्रव खड़े कर देते हैं। इससे उनको पता चलता है भीतर। अपरिचित, अनजान आदमियों पर गोली दाग दी। उनमें कि हम भी हैं। अपने बल का पता चलता है। कुछ तो ऐसे थे, जिनको उसने कभी देखा ही नहीं था पहले। दो | बल को जानने के दो उपाय हैं: या तो कुछ निर्माण करो, या तो ऐसे थे, जिनको उसने गोली मारते वक्त भी नहीं देखा क्योंकि | कुछ मिटाओ। तीसरा कोई उपाय नहीं है। तो जो व्यक्ति मिटाने वे पीठ किए खड़े थे समुद्र के तट पर, उसने पीछे से गोली मार में बल का अनुभव करता है, वह कृष्ण लेश्या में दबा रह दी। अदालत में जब पूछा गया, ऐसा उसने क्यों किया? क्या जाएगा। सजन में बल का अनुभव करो। कुछ बनाओ। कुछ वह विक्षिप्त है? तो उसने कहा, मैं विक्षिप्त नहीं हूं। मुझे सिद्ध तोड़ो मत। क्योंकि तोड़ना तो कोई भी कर सकता है, पागल कर करने का कोई मौका ही नहीं मिल रहा है कि मैं भी हूं। मैं | सकता है। तोड़ना तो कोई बुद्धिमत्ता की अपेक्षा नहीं रखता। अखबार में पहले पेज पर अपना नाम और अपनी तस्वीर छपी | कुछ बनाओ। एक गीत बनाओ, एक मूर्ति बनाओ, एक वृक्ष देखना चाहता था, वह मैंने देख ली। अब तुम मुझे सूली पर भी लगाओ, पौधा रोपो। जब उस पौधे में फूल आएंगे तब तुम्हें चढ़ा दो, तो मैं तृप्त मरूंगा। मैं ऐसे ही नहीं जा रहा हूं, नाम आत्मवान होने का पता चलेगा। देखी है माली की प्रसन्नता, जब करके जा रहा हूं। उसके फूल खिल जाते हैं? देखा है मूर्तिकार का आनंद, जब लोग कहते हैं बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा ही। उसकी मूर्ति बन जाती है? देखा है कवि का प्रफुल्ल भाव, जब तुम्हें अपनी आत्मा का पता कब चलता है? जब तुम किसी के कविता के फल खिल जाते हैं? साथ संघर्ष में जूझ जाते हो। उस संघर्ष की स्थिति में तुम्हारी | कुछ बनाओ। दुनिया में सृजनात्मक लोग बहुत कम हैं। और आत्मा में त्वरा आती है। तुम्हें लगता है, मैं भी हूं। मेरे कारण | हर आदमी ऊर्जा लेकर पैदा हुआ है। तुम्हारी ऊर्जा अगर सृजन कुछ हो रहा है। की तरफ न गई तो विध्वंस की तरफ जाएगी। इसे तुम खयाल कहते हैं अडोल्फ हिटलर कलाविद होना चाहता था। उसने करके देखो। जीवन में चारों तरफ आंख फैलाकर देखो। जो एक कला, चित्रकला सीखने के लिए आवेदन किया था, लेकिन लोग कुछ बनाने में लगे हैं, तुम उन्हें झगड़ालू न पाओगे। तुम विश्वविद्यालय ने उसे स्वीकार न किया। वह जीवन के अंत उन्हें बड़ा विनम्र, उदारमना, सरल, सौम्य, आर्जव से भरे, मार्दव समय तक भी कागजों पर चित्र बनाता रहा। लेकिन वह बड़ा से भरे हुए पाओगे-मृदु, कोमल...जो लोग भी कुछ बनाने में रुष्ट हो गया, जब उसे विश्वविद्यालय ने इंकार कर दिया। लगे हैं। जो लोग भी मिटाने में लगे जाते हैं, तुम उन्हें बड़े मनुष्य बड़ा अदभुत है। वह कुछ सृजन करना चाहता था, | झगड़ालू पाओगे। वे हर चीज पर झगड़ने को और विवाद करने लेकिन किया उसने विनाश। मनोवैज्ञानिक सोचते हैं कि अगर | को तत्पर हैं। उसे कला-विश्वविद्यालय में जगह मिल गई होती तो शायद एक बड़ी अदभुत घटना घटती है। तुम राजनीति के क्षेत्र में दुनिया में दूसरा महायुद्ध न होता। वह अगर सृजन में संलग्न हो देख सकते हो। जो लोग सत्ता में पहुंच जाते हैं, सत्ता में पहुंचते गया होता तो उसकी शक्ति सृजनात्मक हो गई होती। उसने सुंदर ही उनके पास बनाने की ताकत आ जाती है। कुछ बना सकते चित्र बनाये होते, रंग भरे होते, गीत गुनगुनाए होते। वह दुनिया | हैं। अगर उनमें थोड़ी भी बनाने की क्षमता हो तो उनकी ऊर्जा को थोड़ा सुंदर करके छोड़ जाता। वह इतिहास में अपना नाम | सृजनात्मक होने लगती है। | छोड़ना चाहता था। लेकिन जब सृजनात्मक मार्ग न मिला तो ये वे ही लोग हैं, जो सत्ता में जब नहीं थे तो विध्वंसात्मक थे। उसकी सारी ऊर्जा विध्वंसात्मक हो गई। जब इनके हाथ में सत्ता नहीं थी तो हड़ताल, बगावत, षड्यंत्र, तुम खयाल रखना; जब तुम झगड़ालू वृत्ति से भरते हो, तब ट्रेनों को गिराना, लोगों को उभाड़ना, झगड़ाना-झगड़ालू वृत्ति तुम किसी तरह चोर रास्ते से आत्मा का अनुभव करने चले हो। | के लोग थे; ये वे ही लोग हैं। इन्हीं को तुम सत्ता में बिठाल दो, 464 Jal Education International 2010_03 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___षट पर्दो की ओट में - | ये तत्क्षण हड़तालों के खिलाफ हो जाते हैं। ये तत्क्षण तोड़-फोड़ मनोवैज्ञानिक इसका अध्ययन कर रहे थे। उस आदमी से पछा के विरोध में हो जाते हैं। तोड़-फोड़ के कारण ही पहुंचे वहां गया कि जब बूढ़ी औरत रास्ते पर कार का धक्का खाकर गिरी तो तक। तोड़-फोड़ से ही पहुंचे वहां तक। सभी क्रांतिकारी सत्ता में | क्या यह उचित नहीं था कि पहले तुम उस बूढ़ी स्त्री को पहुंचते से ही क्रांति का साथ छोड़ देते हैं। अस्पताल पहुंचाते, बजाय इस आदमी के पीछे जाकर तीन मील क्या हो जाता है? इन आदमियों में इतना परिवर्तन कैसे हो दूर जाकर इसकी मारपीट करने के? क्योंकि वह बूढ़ी मर गई। जाता है? समझने योग्य है। क्योंकि ऊर्जा एक ही तरफ बह अगर वह अस्पताल पहुंचाई गई होती तो बच जाती। उस सकती है। सत्ता में पहुंचते से ही लोगों की क्रांति समाप्त हो जाती आदमी ने कहा, यह तो मुझे खयाल ही नहीं आया। मुझे तो है। तब वे कुछ और ही बात करने लगते हैं—देश के निर्माण | पहला खयाल यह आया कि इस आदमी को दंड देना जरूरी है। की, शांति की, सुख की। ये वे ही लोग हैं जो कुछ दिन पहले | यह आदमी लोगों से कहेगा कि मैं दयाभाव से भरा आदमी हूं, स्वतंत्रता की बात करते. सख की नहीं। देश के निर्माण की बात लेकिन यह आदमी दयाभाव से भरा नहीं है। अगर किसी एक नहीं करते, गति की प्रगति की बात करते: नए की बात करते। स्त्री पर कोई गंडा हमला कर देता है तो जो आदमी उस गंडे से यही व्यक्ति जो कल पुराने को मिटाने को तत्पर थे, सत्ता में आते जूझने लगते हैं, वे भी गुंडे जैसे ही गुंडे हैं। उनको भी उस स्त्री से से ही पुराने को सम्हालने में तत्पर हो जाते हैं। यह अनूठी घटना | कुछ मतलब नहीं है। झगड़ालू वृत्ति के हैं। हालांकि वे कहेंगे कि है। लेनिन और स्टैलिन जैसे ही सत्ता में पहुंचते हैं, ये क्रांति के दयाभाव से प्रेरित होकर, सदभाव से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसा दुश्मन हो जाते हैं। ये उन लोगों को, जो अब भी क्रांति में लगे हैं, किया। लेकिन वे सदभाव की सिर्फ आड़ ले रहे हैं। और वह उनको नष्ट करने लगते हैं। उनको जेलों में फेंकने लगते हैं। मामला ऐसा है कि समाज भी उनका साथ देगा। तो उनका ऐसा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर भी घटता है। तुम जरा कोशिश | गुंडागर्दी करने का बड़ा सुविधापूर्ण मौका है। मगर ये आदमी करके देखना! तुम किसी चीज के बनाने में उत्सुक हो गुंडों जैसे ही गुंडे हैं। ये गुंडे ही हैं। इनमें कुछ फर्क नहीं है। जाओ-कोई छोटी-सी चीज! बांसुरी बजाने में उत्सुक हो असली सवाल तो उस स्त्री को बचाने का था, वह तो एक जाओ, और तुम पाओगे, तुम्हारी झगड़ालू वृत्ति कम हो गई। तरफ हो गया। स्त्री से तो कुछ लेना-देना नहीं है। इनको एक क्योंकि ऊर्जा अब बांसुरी से भी तो बहेगी। जो ऊर्जा बांसुरी से मौका मिल गया अपना क्रोध, अपनी हिंसा प्रगट करने का। बहेगी, वह झगड़े के लिए अब उपलब्ध न रहेगी। महावीर ने | महावीर कहते हैं, 'धर्म और दया से शून्यता...।' इसीलिए अहिंसा पर इतना जोर दिया। तो कभी-कभी ऐसा भी होता है, गलत तरह के लोग भी दया 'वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू वृत्ति, धर्म और दया से की आड़ में हिंसा को ही चलाते हैं। कोई चिल्लाता है इस्लाम शून्यता...।' | खतरे में कोई कहता है हिंदू धर्म खतरे में; और जो उस नाम से ऐसे व्यक्तियों के मन में दया का भाव नहीं उठता। अभी चलता है वह गुंडागर्दी अमरीका में एक विश्वविद्यालय ने इस बात का अध्ययन करने जो धर्म पे बीती देख चुके, ईमां पे जो गुजरी देख चुके की कोशिश की, कि जो लोग रास्ते पर कभी किसी की हत्या कर इस राम और रहीम की दुनिया में इंसान का जीना मुश्किल है देते हैं या कार से किसी को धक्का मारकर गिरा देते हैं, उस घड़ी चाहे धर्म हों-हिंदू, मुसलमान, ईसाई; चाहे नए धर्म कुछ लोग त्राता की तरह आ जाते हैं। एक आदमी ने एक बूढ़ी | हों—कम्युनिज्म, समाजवाद, फासिज्म; लेकिन सबके पीछे को कार से धक्का मारा और वह धक्का मारकर कार लेकर ऐसा मालूम पड़ता है दया तो केवल बहाना है, असली मतलब भागा। एक आदमी, जो दुकान में खरीद-फरोख्त कर रहा था, । नी मोटर साइकिल पर सवार हआ। उस कार स्टैलिन जब सत्ता में आया रूस में. तो आया तो इसी कारण के पीछे लग गया। कोई तीन मील दूर जाकर उसने पकड़ा और कि गरीबों की हिमायत करनी है। लेकिन सत्ता में आने के बाद उस आदमी की पिटाई की। लाखों गरीबों को मार डाला। जो मारे गए वे अधिकतर गरीब थे, 14651 2010_03 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः जिनके लिए सत्ता में आने की आकांक्षा थी। क्या हुआ? गरीबों पहले तो ये कभी दिखाई नहीं पड़े थे। अपनी-अपनी बाइबिल के हित के लिए गरीबों को मारा! लिए बैठे हैं, बड़े भावमुग्ध। मगर यह भावमुग्धता, यह हाथ में तुमने कभी खयाल किया? अपने भीतर भी निरीक्षण किया? | बाइबिल, सब झूठी है। प्रयोजन कुछ और है। तुम अपने बच्चे को कहते हो, चुप हो जाओ। वह चुप नहीं | तुम मंदिर जाओ तो खयाल रखना, किसलिए गए। तुम कभी होता, तुम उसको डांटते-डपटते हो, मारते हो। और तुम कहते दया भी करो तो खयाल रखना कि किसलिए की। अपने भीतर | यही हो कि तेरे हित के लिए मार रहे हैं। तुझे शिष्टाचार सिखा खोज जारी रखना। रास्ते पर भिखमंगा हाथ फैलाकर खड़ा हो रहे हैं। लेकिन तुमने भीतर गौर किया? वस्तुतः तुम शिष्टाचार | जाता है, तुम दो पैसे डाल देते हो। दया से डाले, जरूरी नहीं है। सिखाना चाहते हो या तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी गई इसलिए तुम | शायद इसलिए डाले हों कि और लोग देख रहे थे। दो पैसा नाराज हो? डालकर दानी बनने जैसी सस्ती बात और क्या हो सकती है? आदमी अच्छी बातों की आड़ में अपनी बरी बातों को छिपाता शायद कहीं भिखारी फजीहत खड़ी न कर दे, ज्यादा शोरगुल न है। अच्छे लिबास में, साधु-संतों के लिबास में भी गुंडे निकलते मचा दे। कहीं लोगों को यह पता न चल जाए कि तुम दो पैसे भी हैं। साधु लिबास में भी डाकू निकलते हैं। और यह सबने किया न दे सके। हद्द कंजूस हो! तो दे दिए। या छुटकारा पाने के लिए है। थोड़ी साफ आंख हो तो तुम देख लोगे, कि कारण कुछ और दे दिए, कि झंझट मिटे। अपने भीतर देखना। तुम्हारी दया के | | था, वजह कुछ और थी, बहाना तुमने कुछ और खोजा। बहाना भीतर भी जरूरी नहीं कि दया हो। तुम्हारी प्रार्थना के भीतर भी कुछ अच्छा खोजा, जिसकी आड़ में बुराई चल सके। जरूरी नहीं कि प्रार्थना हो। और जो भीतर नहीं है उसके बाहर 'धर्म और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नहीं होने से कुछ अर्थ नहीं है। मानना, ये कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं।' इसलिए महावीर कहते हैं, 'धर्म और दया से शून्यता।' तुम अपनी दया में भी विचार करना और अपने धर्म में भी दिखावा हो सकता है लेकिन भीतर सब सूनापन होगा। विचार करना। तुम मंदिर भी जा सकते हो। जाने का कारण __ 'दुष्टता, समझाने से भी नहीं मानना...।' मंदिर जाना बिलकुल न हो, कुछ और हो सकता है। तुमने कई दफे खयाल किया? किसी से तुम विवाद में पड़ ऐसा हुआ, लंदन के एक चर्च में इंग्लैंड की रानी आने को थी। जाते हो, तुम्हें दिखाई भी पड़ने लगता है कि दूसरा ठीक है, फिर तो सैकड़ों फोन आए पादरी के पास। सुबह से ही फोनों का | भी अहंकार मानने नहीं देता। और तुम चीखते-चिल्लाते हो कि आना शुरू हो गया कि हमने सुना है रानी आ रही है। कब | अंधेरे के बाहर कैसे आएं ? और तुम रोते-गिड़गिड़ाते हो कि हे पहुंचेगी? हम भी आना चाहते हैं। जो कभी चर्च न आए प्रभु! अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चल। असत से सत की तरफ थे...। उस पादरी को बड़ी हंसी आयी। उसने फोन पर सभी को ले चल। मृत्यु से अमृत की तरफ ले चल। लेकिन तुम इसके एक बात कही कि रानी आएगी कि नहीं पक्का नहीं। क्या लिए रास्ता तो बनाते नहीं। कितनी बार नहीं विवाद में केवल भरोसा! राजा-रानियों का क्या भरोसा। लेकिन अगर तुम आना | अहंकार ही कारण होता है। अन्यथा तम्हें दिखाई पड़ना शुरू हो चाहते हो तो स्वागत है। एक बात पक्की है, परमात्मा रहेगा। | जाता है दूसरा ठीक है, मान लो। लेकिन कैसे मान लो? रानी आए या न आए। पर लोगों ने कहा, ठीक है, परमात्मा तो पराजय स्वीकार नहीं होती। ठीक है, मगर रानी अगर आ रही हो तो ठीक-ठीक कह दें, तो | जब दो व्यक्ति लड़ते हैं, विवाद करते हैं तो जरूरी नहीं है कि हम आ जाएं। कब आ रही है? यह सत्य के लिए विवाद हो रहा हो। यह विवाद होता है मेरे रानी आयी तो चर्च भरा था; खचाखच भरा था। बाहर तक सत्य के लिए। और जहां मेरा महत्वपूर्ण है, वहां सत्य तो होता भीड़ थी। रानी ने पादरी को कहा कि तुम्हारे चर्च में काफी भीड़ ही नहीं। हम कहते हैं, मैं कैसे गलत हो सकता हूं? इसको हम है। लोग बड़े धार्मिक मालूम होते हैं इस हिस्से के। उस पादरी ने तरकीब से, पीछे के दरवाजे से सिद्ध करना चाहते हैं कि जो भी कहा, पहली दफा यह मुझको भी दिखाई पड़ रही है भीड़। इसके| हम कहते हैं वह ठीक है। 466 Jal Education International 2010_03 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में - Maithi मैंने सुना है चार मेंढक, वर्षा में बाढ़-आयी एक नदी पर डूबने की गति तो सारी दुनिया को पता है। तीनों ही ठीक हो और तीनों को थे। एक लक्कड़ बहता आ गया, वे उस पर सवार हो गए। ही गलत भी। क्योंकि तुम छोटे-से सत्य को बहुत बड़ा करके बड़े प्रसन्न हुए। लक्कड़ बहने लगा। बाढ़ थी तेज, नदी भागी कह रहे हो। तुम खंड सत्य को अखंड करने की चेष्टा कर रहे जा रही है सागर की तरफ। पहले मेंढक ने कहा, यह लक्कड़ हो। अंश सत्य को सिद्ध कर रहे हो कि वही पूरा सत्य है। संसार का श्रेष्ठतम लक्कड़ है। देखो तो कितना जीवंत और | महावीर जैसा रहा होगा यह मेंढक–स्यातवादी। उसने कहा, गतिवान ! कैसा बहा जाता है। लक्कड़ तो बहुत देखे, मगर ऐसा | तुम तीनों ही ठीक हो। साधु-चरित्र रहा होगा यह मेंढक। श्वेत प्राणवान लक्कड़ कभी नहीं देखा। न कभी हुआ, न कभी | लेश्या को उपलब्ध रहा होगा यह मेंढक। उसने कहा तुम तीनों होगा। दूसरे ने कहा, लक्कड़ नहीं बह रहा है महानुभाव! नदी ही ठीक हो और तीनों गलत भी। गलत इसलिए कि तुम अंश वाद छिड़ गया। दूसरे ने कहा, लक्कड़ तो और | को पूरा सिद्ध कर रहे हो। और सही इसलिए कि तुम्हारी तीनों लक्कड़ों जैसा ही है। कुछ विशिष्टता इसमें नहीं है। जरा गौर से की बातों में सत्य की कोई झलक है। तो देखो। बह रही है नदी। नदी के बहने के कारण लक्कड़ भी तीनों बहुत नाराज हो गए। यह बात तो तीनों के बर्दाश्त के बह रहा है। | बाहर हो गई। क्योंकि उनमें से कोई भी यह मानने को राजी नहीं तीसरे ने कहा, न लक्कड़ बहता, न नदी; विवाद फिजूल है। था कि उसका वक्तव्य पूर्ण सत्य नहीं है। और न ही उनमें से कोई तुम दोनों अंधे हो। तुम आधा-आधा देख रहे हो। तुम अधूरा यह बात मानने को राजी था कि उसके विराधी के वक्तव्य में भी देख रहे हो। आंखें साफ चाहिए तो असली बात तुम्हें समझ में सत्य का अंश हो सकता है। आ जाए—जैसा कि सभी धर्मशास्त्रों ने कही है—कि सब | और तब एक चमत्कारों का चमत्कार घटित हुआ। मेंढकों में प्रवाह तो मनुष्य के मन में हैं। सब गति मन की है। सब शायद ऐसा न होता रहा हो, मनुष्य में सदा होता रहा है। लेकिन दौड़-धूप मन की है। ऐसा मैं देखता हूं कि न तो नदी का सवाल उस दिन मेंढकों में भी हुआ। वे तीनों इकट्ठे हो गए और चौथे को है, न लक्कड़ का, यह मन में बह रही विचारों की धारा है, धक्का देकर लक्कड़ से बाढ़ में गिरा दिया। उन्होंने कहा, बड़े जिससे जीवन में परिवर्तन दिखाई पड़ता है। मन ठहर जाए, सब आए साधु बने! बड़े ज्ञानी होने का दावा कर रहे हैं। वे तीनों ठहर जाता है। शास्त्रों में खोजो तो तुम्हें पता चलेगा। इकट्ठे हो गए। उन्होंने अपना विवाद छुड़ा दिया, छोड़ दिया विवाद चलने लगा। कोई निर्णय तो करीब आता दिखाई न विवाद क्योंकि यह उन तीनों को ही दुश्मन मालूम पड़ा। और पड़ा। आखिर तीनों को खयाल आया कि चौथा चुप बैठा है। एक बात में वे राजी हो गए कि यह तो कम से कम गलत है; चौथा मेंढक चुप बैठा था। कुछ बोला ही नहीं था। सबकी सुन बाकी निर्णय हम पीछे कर लेंगे। रहा था, गुन रहा था, लेकिन बोला कुछ भी नहीं था। उन तीनों ने यही अवस्था महावीर के साथ हुई। और सारे दर्शनों के दावे कहा कि अब कुछ निर्णय तो होता नहीं। निर्णय होने का उपाय हैं, महावीर का कोई दावा नहीं है। इसलिए महावीर किसी को भी नहीं। भी रुचे नहीं। महावीर ने कहा, वेदांत भी ठीक है, सांख्य भी इसलिए तो संसार में विवाद सदियों से चलते रहे हैं, सनातन ठीक है, वैशेषिक भी ठीक है, मीमांसा भी ठीक है, लेकिन सभी चलते रहे हैं। कुछ निर्णय नहीं होता। नास्तिक-आस्तिक के | अंश सत्य हैं। यह बात किसी को जंची नहीं। इसलिए एक बहुत बीच क्या निर्णय हुआ? जैन-हिंदू के बीच क्या निर्णय हुआ? महत्वपूर्ण विचार-दर्शन महावीर ने दिया, लेकिन अनुयायी वे | मुसलमान-ईसाई के बीच क्या निर्णय हुआ? निर्णय तो कभी ज्यादा न खोज पाए। क्योंकि सभी नाराज हो गए। वेदांती भी होते ही नहीं। नाराज हुआ। उसने कहा, अंश सत्य? हमारा और अंश तो उन तीनों ने कहा कि आप चुप हैं। आप कुछ कहें। उस सत्य? सांख्य भी नाराज हुआ कि हमारा और अंश सत्य? चौथे मेंढक ने कहा, विवाद का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि तम अहंकार को बड़ी चोटें लगीं। तीनों ही ठीक हो। नदी भी बह रही है, लक्कड़ भी बह रहा, मन | महावीर जैसा अंधेरे में फेंक दिया और कोई व्यक्तित्व इतिहास 467 2010_03 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 में खोजना मुश्किल है। महावीर के विरोध में सभी इकट्ठे हो तो परमात्मा की है। अगर अंधेरा है तो मेरा है। ऐसा जिसने गए। यह बहुत चमत्कार की बात है। समझा, उसका कृष्ण लेश्या का पर्दा टिक नहीं सकता, अपने जैन शास्त्रों के खिलाफ भारत के सभी शास्त्र हैं। वे सभी | आप गिर जाता है। उसके आधार न रहे, सहारे न रहे। उनका खंडन करते हैं। क्योंकि यह जो बात है, यह बात किसी के | 'मंदता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषय लोलुपता, ये संक्षेप अहंकार को टिकने नहीं देती। आदमी कहता है या तो मैं पूरा में नील लेश्या के लक्षण हैं।' लत है। और पुरा गलत देखें कौन सिद्ध करता फिर कृष्ण लेश्या के पीछे छिपा हआ नीला पर्दा है। अंधेरे के है! मेरे रहते कोई सिद्ध न कर पाएगा। और जब तक तुम ही पार गहरी नीलिमा का पर्दा है। देखने को राजी न हो, सत्य तो दिखाया नहीं जा सकता। इसलिए | 'मंदता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषय लोलुपता...।' तुम विवाद में पड़े रह सकते हो। कुछ न कुछ हम मांग ही रहे हैं-लोलुप। हम बिना मांगे महावीर कहते हैं, समझने से भी, समझाने से भी न मानना, क्षणभर को नहीं हैं। हम बिना मांगे रहते ही नहीं हैं। हमारा दिखाई भी पड़ने लगे तो झुठलाना, आंख को भी झुठलाना, मांगना चलता है दिन-रात, अहर्निश। हम भिखमंगे हैं। हम अंतर्दष्टि खलने लगे तो भी पत्थर अटकाना, कृष्ण लेश्या को एक क्षण को भी अपने सम्राट होने में थिर नहीं होते। मजबूत करने के उपाय हैं। ठीक इनके विपरीत चलो, कृष्ण तुमने कभी देखा? कभी भी क्षणभर को अगर मांग बंद हो लेश्या अपने आप उखड़ जाती है। जड़ें टूट जाती हैं। पर्दा गिर जाए तो एक अपूर्व उल्लास आ जाता है। उस घड़ी में तुम याचक जाता है। नहीं होते। उस घड़ी में समाधि के करीब सरकने लगते हो। जैसे शिखरों से ऊपर उठने देती न हाय लघुता आपी ही मांग आयी कि फिर याचक हुए, फिर छोटे हुए। या तुमने यह मिट्टी पर झुकने देता है देव, नहीं अभिमान हमें देखा कि जब भी तुम किसी से कुछ मांगते हो तो भीतर कुछ तो न तो हम शिखरों के साथ एक होने का दावा कर पाते हैं। । | सिकुड़ जाता है? जब तुम किसी को कुछ देते हो, भीतर कुछ शिखरों से ऊपर उठने देती न हाय लघुता आपी फैल जाता है? देने का मजा, मांगने की पीड़ा तुम्हें अनुभव नहीं आदमी की सीमा है। आदमी लघु है, अंश है। विराट का बड़ा हुई? किसी से कुछ मांगकर देखो। तुम उस मांगने के खयाल से छोटा-सा आणविक कण है। ही छोटे होने लगते हो, संकीर्ण होने लगते हो। तुम्हारी सीमा शिखरों से ऊपर उठने देती न हाय लघुता आपी सिकड़ने लगती है। तम बंद होने लगते हो। भय पकड़ने लगता और अड़चन दूसरी है और भी, और भी बड़ी है। देगा, नहीं देगा? मिलेगा, नहीं मिलेगा? अगर मिला भी मिट्टी पर झुकने देता है देव, नहीं अभिमान हमें | तो भी मांगने में तुम छोटे और दीन तो हो ही गए। और अहंकार दे दिया है, झुक भी नहीं सकते। उठ भी नहीं | इसलिए एक और बहुत आश्चर्यजनक घटना है कि जिससे भी सकते क्योंकि सीमा है। झुक भी नहीं सकते क्योंकि अहंकार है। तुम्हें कुछ मिलता है, उसे तुम कभी क्षमा नहीं कर पाते। धन्यवाद इन दोनों के बिबूचन में जो पड़ा है, जो जीवन के सीधे-सीधे सत्य | तो दूर, तुम किसी से मांगने गए कि दस रुपये चाहिए अगर वह को स्वीकार नहीं करता कि अहंकार का दावा गलत है। आत्मा दे दे तो तुम उसे कभी क्षमा नहीं कर पाते। भीतर गहरे में तुम का दावा सही है, अहंकार का दावा गलत है। | नाराज रहते हो। उस आदमी ने तुम्हें छोटा कर दिया। उसने हाथ फर्क क्या है दावों में? अहंकार यह कह रहा है कि मैं पृथक ऊपर कर लिया, तुम्हारा हाथ नीचे हो गया। और अपने बल से सर्वशक्तिमान हूं। आत्मा यह कहती है इसलिए सूफी कहते हैं, नेकी कर और कुएं में डाल। अच्छा साथ-साथ, सबके संग, सबके साथ एक इस विराट की मैं भी करना लेकिन उसकी घोषणा मत होने देना। उसको जल्दी से कुएं एक छोटी तरंग हूं। अगर मुझमें कोई शक्ति है तो वह विराट की में डाल देना, नहीं तो तुम्हें कोई क्षमा न कर सकेगा। क्योंकि है। अगर मुझमें कोई निर्बलता है, वह मेरी है। अगर भूल-चूक जिसके साथ तुम अच्छा करोगे, वहीं साथ-साथ एक घटना और है, मेरी है। अगर कुछ सत्य है तो विराट का है। अगर रोशनी है घट रही है कि तुमने उसे छोटा कर दिया। और कोई क्षमा नहीं 468 2010_03 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि षट पर्दो की ओट में करता किसी को छोटा करने के कारण। है—विषय लोलुपता। वह कुछ न कुछ मांगता ही रहता है। सहायता करना, लेकिन इस तरह करना कि जिसकी तुम उसकी लोलुपता उसके पर्दे को मजबूत करती है। सहायता करो, उसे पता भी न चले कि सहायता की गई। इस 'अज्ञान, बुद्धिहीनता, मंदता...।' तरह करना कि उसे लगे कि देनेवाला वही है, लेनेवाले तुम हो। मंदता ः मिडियोक्रिटी, बड़े लोगों के ऊपर छाती पर पत्थर की इस तरह देना कि देनेवाले को देनेवाले की अकड़ न पकड़े और | तरह बैठी है। कोई भी मंद होने को पैदा नहीं हुआ है। परमात्मा लेनेवाले को पता ही न चले कि किसी ने उसे दिया है। तो असाधारण और अद्वितीय चेतनाएं ही पैदा करता है। अगर पश्चिम का एक बहुत बड़ा धनपति मारगन जब मरा, तो मरने मंद हो तो तुम अपने कारण हो। मंद हो तो तुमने अपने को के पहले उसे किसी ने पूछा कि तुमने इतनी अटूट धनराशि इकट्ठी निखारा नहीं। मंद हो तो तुम ऐसे हीरे हो जिसको साफ नहीं की है और तुम्हारे नीचे हजारों बड़ी प्रतिभा के और बुद्धिमान किया गया है, जिस पर पालिश नहीं किया गया। अनगढ़ पड़े लोग काम करते थे। तुमने इतने-इतने बुद्धिमानों का कैसे हो। और कोई और तो तुम पर निखार ला नहीं सकता, तुम्ही ला उपयोग किया? उसने कहा, राज छोटा-सा है। मैंने कभी उन्हें सकते हो। तो जो तुम हो उससे तृप्त मत हो जाना।। ऐसा अनुभव नहीं होने दिया कि मैं उन पर कोई अहसान कर रहा | अब खयाल रखना, लोग अतृप्त हैं, उससे जो उनके पास है; हूं। और मैंने कभी ऐसा भी अनुभव नहीं होने दिया कि वे मेरी | अपने से तो लोग बिलकुल तृप्त हैं। उनको बड़ी कार चाहिए, बात मानकर कोई काम कर रहे हैं। मेरी सदा यह चेष्टा रही कि यह अतृप्ति है, बड़ा मकान चाहिए, यह अतृप्ति है। तिजोड़ी में उनको सदा यह लगता रहे कि वे ही मुझ पर अहसान कर रहे हैं | और धन चाहिए, यह अप्ति है। लेकिन अपने से तप्त हैं कि जो और उनकी बातें मानकर मैं चल रहा है। | हैं, वह बिलकुल ठीक हैं। तो मंद ही रहेंगे। वह आदमी बडा कशल था। उसको अगर कोई काम भी अपने से अतप्त होना, और जो मिला है उससे तप्त होना। करवाना होता तो अपने बीस मित्रों को इकट्ठा कर लेता। उनसे छोटा मकान भी काम दे देगा। कार न हुई तो भी चल जाएगा। कहता कि यह समस्या आ गई है, अब हल खोजना है। खुद तिजोड़ी में बहुत न धन हुआ तो भी पर्याप्त है। वस्तुओं से तृप्त चुपचाप बैठा रहता। अब बीस आदमी जहां इकट्ठे हों, बीस हल होना और चैतन्य से तृप्त मत होना; नहीं तो तुम मंद रह आते। उनमें से जो हल उसका अपना होता, वह उसको स्वीकार जाओगे। चैतन्य को तो घिसते ही रहना। उसको किसी भी क्षण कर लेता। लेकिन अपनी तरफ से वह कभी न कहता कि यह, ऐसा मत सोचना कि आखिरी घड़ी आ गई। उसमें और निखार व है। वह चप बैठा रहता। वह सझाव को आने आ सकते हैं। उसमें बड़े अनंत निखार छिपे हैं। उसमें इतने देता। ठीक समय की प्रतीक्षा करता। कोई न कोई उस सुझाव निखार छिपे हैं कि तुम्हारा चैतन्य एक दिन सच्चिदानंद परमात्मा को देगा ही। या अगर ठीक सुझाव न आता, कुछ हेर-फेर से हो सकता है। आता, तो वह थोड़ी तरमीम करता, वह थोड़े संशोधन पेश मगर बड़ी चमत्कार की बात है। लोग अपने से बिलकुल तृप्त करता, लेकिन वह भी सुझाव की तरह; आज्ञा की तरह नहीं। हैं। इतने ज्यादा तृप्त हैं कि अगर तुम कहो भी उनसे तो वे कहेंगे, उसने बड़े-बड़े लोगों से काम लिया। क्या कह रहे हैं? मुझमें और परिष्कार! मैं तो परिष्कृत हूं ही, मरते वक्त वह कहकर गया कि मेरी कब्र पर एक पत्थर लगा अगर कुछ अड़चन है तो थोड़ी चीजें कम हैं, वे बढ़ जाएं। देना कि यहां एक आदमी सोता है, जिसने अपने से ज्यादा | लेकिन चीजें बढ़ने से तुम्हारा चैतन्य बढ़ेगा? तुम अगर बुद्ध हो बुद्धिमान लोगों से काम लेने की कुशलता दिखाई। उसने कहा तो गरीब होकर बुद्ध रहोगे, अमीर होकर बुद्धू रहोगे। तुम अगर कि मेरे सारे इतने विराट धन को इकट्ठा कर लेने का राज इतना है बुद्ध हो तो लंगोटी लगाकर बुद्ध रहोगे, सिंहासन पर बैठकर कि मैंने कभी किसी को अनुभव नहीं होने दिया कि वह मुझसे बुद्ध रहोगे। छोटा है। बुद्धिमान आदमी वस्तुओं में शक्ति व्यय नहीं करता। यह जो नील लेश्या से भरा हुआ आदमी है, याचक होता बुद्धिमान आदमी सारी शक्ति चैतन्य की जागृति में लगाता है। 1469 ___ 2010_03 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 महावीर कहते हैं, 'मंदता, बुद्धिहीनता, अज्ञान।' एक दौड़ हुई जिसमें पहले नंबर पर मैं रहा, दूसरे नंबर पर एक कोई अज्ञानी होने को पैदा नहीं हुआ है, लेकिन अधिकतर लोग सिपाही और तीसरे नंबर पर वह, जिसका यह कटोरा है। अज्ञानी जीते हैं, अज्ञानी मरते हैं। उसका कारण है कि कोई यह छीना-झपटी है। वस्तुओं के जगत में तो बड़ी छीना-झपटी स्वीकार ही नहीं करता कि मैं अज्ञानी हूं। लोग तो मानकर चलते है। तुम अपने कटोरे पर गौर करना, वह बहुत हाथों में रह चुका हैं कि वे ज्ञानी हैं। जब तुम पहले से मान ही लिए कि तुम ज्ञानी है। तुम्हारा कटोरा तुम्हारा नहीं है। तुम नहीं थे, तब भी था। तुम हो तो तुमने अज्ञानी होने की कसम खा ली। अब तुम कभी ज्ञानी नहीं रहोगे, तब भी होगा। तुम्हारा कटोरा बड़ा झूठा है। न न हो सकोगे। सीलबंद! अब तुम अज्ञानी ही रहोगे। तमने प्रण | मालम कितने लोगों के हाथों में रह चका है। छीना-झपटी चल कर लिया कि हमको अज्ञानी ही रहना है। रही है। कटोरा हाथ बदलता रहता है। एक हाथ से दूसरे हाथ, ज्ञान की तरफ जिसे जाना है, उसे स्वीकार करना पड़ेगा कि दूसरे से तीसरे हाथ; हाथवाले आते हैं, चले जाते हैं, कटोरा अभी मैं अज्ञानी हूं और इस अज्ञान को आत्यंतिक मानने का कोई चलता रहता है। यह कटोरे की यात्रा है। कारण नहीं है; इसमें निखार हो सकते हैं। जैसे बीमार आदमी एक तुम्हारे भीतर की चेतना है, जो कुंआरी है, जूठी नहीं। उसे इलाज करता है तो स्वस्थ हो जाता है। दुर्बल आदमी व्यायाम | जगाओ। उससे ही तृप्ति मिलेगी। ये कटोरों को जितनी देर तुम करता है तो शक्तिशाली हो जाता है। ऐसे ही अज्ञान किसी की | सम्हाले रहोगे...और जैसा तुमने दूसरों से छीन लिया है, कोई न स्थिति नहीं है। तुमने अभ्यास नहीं किया, तुमने श्रम नहीं किया | कोई तुमसे छीन ले जाएगा। यह ज्यादा देर तुम्हारे हाथ में भी ज्ञान के लिए। तुम क्षुद्र बातों की छीना-झपटी में लगे रहे और रहनेवाला नहीं है। यह कटोरे की आदत नहीं है। यह संभव भी विराट से चूकते रहे। नहीं है, क्योंकि यहां इतने लोग छीनने के लिए उत्सुक हैं। यहां और मजा यह है कि विराट के लिए कोई छीना-झपटी नहीं | तो सिर्फ एक चीज तुम्हारे हाथ में रह जाती है, वह तुम्हारे चैतन्य करनी थी। कोई प्रतियोगिता ही नहीं है वहां। तम अकेले हो। की बात है। उसे कोई नहीं छीनता। उसे कोई छीनना भी चाहे तो तुम्हें अगर अपनी बुद्धि पर निखार लाने हैं, अगर तुम्हें अपनी छीन नहीं सकता। उसे मौत भी नहीं छीन सकती। बुद्धि में हीरे जड़ने हैं तो कोई झगड़ा नहीं है, कोई से झगड़ा नहीं महावीर जब कहते हैं अज्ञान, तो उनका अर्थ है, जो व्यक्ति है। क्योंकि यहां किसी को मतलब ही नहीं है बुद्धि से। तुम्हें ऐसी चीजों को जुटाने में लगा है जिन्हें मौत छीन लेगी, वह अगर प्रतिभा को जगाना है तो कोई से तुम्हारा कोई झगड़ा नहीं, अज्ञानी है। जो व्यक्ति ऐसी चीज की खोज में लगा है, जिसे कोई स्पर्धा नहीं है, किसी को लेना-देना नहीं है। लेकिन अगर | मृत्यु भी न छीनेगी, वही ज्ञानी है, वही बुद्धिमान है। जो सार को तुम्हें तिजोड़ी बड़ी करनी है तो करोड़ों लोग स्पर्धी हैं। खोज रहा, वही बुद्धिमान है। जो स्वयं को खोज रहा, वही मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक रात गए अपने घर लौटा। | बुद्धिमान है। और आते ही उसने अपनी पत्नी के हाथों में सोने का एक कटोरा 'जल्दी जो रुष्ट हो जाता है, दूसरों की निंदा करता है, दोष रख दिया। पत्नी उसकी यह भेंट देखकर प्रसन्न भी हुई और लगाता है, अति शोकाकुल होता है, अत्यंत भयभीत होता है, ये आश्चर्यचकित भी। क्योंकि मुल्ला कुछ काम तो करता नहीं। कापोत लेश्या के लक्षण हैं।' सोने का कटोरा ले कहां से आया है? थोड़ी डरी भी। कटोरा तीसरा ः जल्दी रुष्ट हो जाना, दूसरों की निंदा करना, दोष लाने के विषय में जब पत्नी ने उससे प्रश्न किया जो वह बोला, | लगाना, अति शोकाकुल होना, अत्यंत भयभीत होना। इसे मैंने एक दौड़ में जीता है। दौड़ में? पत्नी को और भी | भयभीत हम सभी हैं—अकारण। क्योंकि जो होना है, होगा। आश्चर्य हुआ क्योंकि मुल्ला और दौड़े! बैठ जाए तो उठता | उससे भय का कोई अर्थ नहीं। जैसे मौत होनी है, होगी। उससे मश्किल से है, उठ जाए तो चलता मश्किल से है...दौड़े। लेट भय क्या? निश्चित है। होगी ही। भयभीत होओ या न होओ, जाए तो बैठता मुश्किल से, दौड़े! दौड़ में? पत्नी को और भी होगी ही। देह जराजीर्ण होनी है, होगी। बुढ़ापा आना है, आएगा आश्चर्य हुआ। कैसी दौड़? मुल्ला ने कहा, अजी, अभी-अभी ही। उससे भयभीत क्या होना है, जो होना ही है? लेकिन हम 2010_03 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में बड़े भयभीत हैं। सही हैं तो भी निर्भय, आस्तिक सही हैं तो भी निर्भय। हम जीवन के तथ्यों से भयभीत हैं। हम जीवन के तथ्यों को __इसको ही मैं कहता हूं परम आस्तिकता। इस आदमी ने देख झुठलाना चाहते हैं। हम चाहते हैं सब बूढ़े हुए, हम न हों। सब ली बात। इस आदमी को विवेक उपलब्ध हुआ। इस आदमी के मरें, हम न मरें, जीवन हमारे लिए अपवाद कर दे। तो हम कंप पास दृष्टि है, अंतर्दृष्टि है, आंख है। रहे हैं। और हम जानते भी हैं गहरे में कि यह होनेवाला नहीं है। तुम जरा जीवन में देखना। तुम कहते हो कि कल दिवाला न अपवाद कभी कोई हुआ नहीं इसलिए डर भी लगा है। पैर निकल जाए, इससे भयभीत हो रहे हैं। या तो निकलेगा, या नहीं जमाकर खड़े हैं, जानते हुए कि पैर उखड़ेंगे। निकलेगा। निकल गया तो क्या करना है? झंझट मिटी। इस भय के कारण हम क्या-क्या कर रहे हैं, थोड़ा सोचो। इस निकल ही गया। नहीं निकला तो परेशान क्यों हो रहे हो? भय के कारण हम धन इकट्ठा करते हैं कि शायद धन से थोड़ा महावीर कहते हैं, जो होगा, होगा; तुम नाहक कंपे जा रहे हो। बल आ जाए। इस भय के कारण हम प्रतिष्ठा इकट्ठी करते हैं कि तुम्हारे कंपने से होने में तो कोई फर्क पड़ता नहीं। तो कम से कम शायद नाम-धाम लोक में ख्यात हो जाए तो कुछ सहारा मिल कंपन तो छोड़ो। जाए। भय के कारण हम पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं। इस भय तीसरी लेश्या है अधर्म की। इसलिए भय से जो भगवान भय से हम भगवान को निर्मित करते हैं। सोचते हैं, शायद किसी की पूजा करते हैं, वे धर्म में प्रविष्ट नहीं होते। वे अभी अधर्म की का सहारा नहीं, अदृश्य का सहारा मिल जाए। मगर जो आदमी | सीमा में ही हैं। चौथी लेश्या से धर्म शुरू होता है। पास जा रहा है. वह जा ही न सकेगा। ये जो भयभीत लोग हैं. ये जल्दी रुष्ट हो जाते हैं। भयभीत महावीर ने कहा, अभय पहला चरण है। अभय का अर्थ आदमी शांत रह ही नहीं सकता। उसके भीतर ही कंपन जारी है। हुआ, जो नहीं होनेवाला है, वह नहीं होगा; उसका तो भय करना वह रुष्ट होने को तत्पर है। वह छोटी-छोटी बातों से दुखी होता क्या? जो होनेवाला है, वह होगा; उसका भय करना क्या? है। बड़ी क्षुद्र बातों से दुखी होता है। सुकरात मरता था; तो उसके एक शिष्य ने पूछा कि आप तुमने कभी सोचा, कैसी छोटी-छोटी बातें तुम्हें दुखी कर जाती भयभीत नहीं मालूम होते। जहर घोंटा जा रहा है, जल्दी ही हैं! अति क्षुद्र बातें। तुम सोचो तो खुद ही हंसोगे। पत्नी को प्याला भरकर आपके पास आ जाएगा। छह बजे आपको प्याला चाय लाने में पांच मिनट देरी हो गई कि बस तुम रुष्ट हो गए। पी लेना है। आप मरने को तत्पर बैठे हैं। आप भयभीत नहीं | और ऐसे रुष्ट हो गए कि शायद रोष दिनभर रहे। मालूम होते। सुकरात ने क्या कहा? सुकरात ने कहा, मैंने | लोग कहते हैं, बिस्तर के गलत कोने से उतर गए। गलत से सोचा कि या तो प्याला पीकर मैं मर ही जाऊंगा, कुछ बचेगा ही भी उतर गए हो तो उतर गए, खतम हुआ। मगर अब नहीं, तो भय क्या? भय करने को ही कोई न बचेगा। और या, दिनभर...वह जो बिस्तर के गलत कोने से उतर गए हैं, वह दूसरी संभावना है कि जैसा लोग कहते हैं, आत्मा अमर है। दिनभर पीछा कर रहा है। किसी आदमी ने नमस्कार न किया कि जहर का प्याला पीकर शरीर ही हटेगा, आत्मा बचेगी; तो फिर दिनभर छाया की तरह कांटा चुभता रहता है। कोई आदमी भय क्या? बचूंगा ही। देखकर हंस दिया, रुष्ट हो गए। सुकरात कह रहा है, दो ही तो विकल्प हैं कि या तो बिलकुल ऐसे छुई-मुई, ऐसे दीन होकर संभव नहीं है कि तुम कभी मिट जाऊंगा। मिट जाऊंगा तो क्या भय? भयभीत होने के आत्मवान हो सको। जरा देखो भी तो, किन बातों पर रुष्ट हो रहे लिए कोई कारण ही नहीं। कोई भय करनेवाला ही नहीं। बात ही हो। इन बातों में कुछ सार भी है? समाप्त हो गई। कहानी का ही अंत हो गया। तो में निश्चित हूं। अगर तुम गौर से देखोगे तो सौ में से निन्यानबे तो तुम असार और अगर बच गया जैसा आत्मज्ञानी कहते हैं तो भय की पाओगे, जिनमें रुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। और एक जो क्या जरूरत? तुम सार की पाओगे, उसके साथ तुम पाओगे कि अगर तुम रुष्ट या तो नास्तिक सही होंगे, या आस्तिक सही होंगे। नास्तिक हो जाओ तो बिगड़ जाएगी बात। वह जो सार की बात है, अगर 2010_03 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 रुष्ट न हुए तो ही सम्हल पाएगी। और बोकोजू कहता है, वही बात उसके जीवन को तो जो व्यर्थ की बातें हैं उनके कारण हम रुष्ट होते हैं. अपने को बदलनेवाली बन गई। जो चीज टट गई. उसने सोचा. समय आ बिगाड़ते हैं। और जो सार्थक बातें हैं, रुष्ट होकर उन बातों को | गया था। जो साथी छूट गए। उसने सोचा, समय आ गया था। बिगाड़ लेते हैं। जो प्रियजन चल बसे, उसने सोचा, समय आ गया था। कोई क्रोध में कब कौन आदमी सम्यक व्यवहार कर पाया? रुष्ट | नाराज हो गया तो उसने समझा, समय आ गया था। बोकोजू ने होकर आदमी तो मदांध हो जाता है। उस अंधेपन में कौन ठीक | कहा कि यह बात मेरे लिए सूत्र बन गई। यह अहर्निश मेरे मन में चल पाया? जितनी कठिन समस्या हो सामने, उतनी ही शांत रहने लगा कि वही होता है, जिसका समय आ गया था। चित्त की अवस्था चाहिए. तो ही तम उसे हल कर पाओगे। धीरे-धीरे-धीरे कोई भी चीज फिर शोकाकल न करती। लोग कहते हैं बड़ी समस्या में उलझा हआ हूं इसलिए बड़ा | '...अति शोकाकुल होना, अत्यंत भयभीत होना, ये कापोत बेचैन हूं। बेचैन हो तो समस्या सुलझेगी कैसे? सुलझाएगा | लेश्या के लक्षण हैं।' कौन? यह तो तुम बड़ा उलटा कर रहे हो। जब कोई समस्या न | हिंदू शास्त्रों में वचन है : 'साहसे श्री वसति।' साहस में श्री हो तब बेचैन हो लेना, कोई हर्जा नहीं। जब समस्या हो तब तो | बसती है, श्रेय बसता, श्रेयस बसता-अभय में। बड़े चैन में हो जाओ। तब तो बड़े शांत हो जाओ क्योंकि हल | __जीवन को साहस से पकड़ो। ये कंपते हुए हाथ बंद करो। ये तुम्हें करना है। शांत हृदय से हल आ सकेगा। हाथ व्यर्थ कंप रहे हैं। इन हाथों के कंपने के कारण तुम जीवन पर 'दोष लगाना, निंदा करना, अति शोकाकुल हो जाना...।' पकड़ ही नहीं उठा पाते। तुम जीवन को सम्हाल ही नहीं पाते। छोटी-छोटी चीजों पर-फाउंटेनपेन ठीक नहीं चल रहा, | तुम्हारे भय के कारण ही यह चेतना की लौ कंपती जाती है। ये खर्र-खर्र की आवाज कर रहा है, शोकाकुल हो गए। अपने झकोरे तुम्हारे भय से आते हैं, किसी और पवन से नहीं। व्यवहार को जांचते रहो, देखते रहो।। और जब तक तुम इन तीन पर्दो के पार न हो जाओ तब तक बोकोजू झेन फकीर हुआ; वह जब अपने गुरु के पास था, | तुम्हें सुकून, शांति का कोई अनुभव न होगा। छोटा बच्चा था, उसका काम था गुरु का कमरा साफ करना। सुकून-ए-दिल जहाने-बेस-ओ-कम में ढूंढने वाले कमरा साफ कर रहा था कि गुरु के पास एक बड़ी बहुमूल्य मूर्ति यहां हर चीज मिलती है सुकून-ए-दिल नहीं मिलता थी, बड़ी बहुमूल्य मूर्ति थी बुद्ध की, वह गिर गई। वह चकनाचूर यहां हृदय की शांति नहीं मिलती-इस संसार में। और यह हो गई। वह बहुत घबड़ाया। गुरु को उस मूर्ति से बड़ा लगाव जो संसार तुम जानते हो, इन तीन पर्यों में निर्मित है: कृष्ण है। वह रोज़ दो फूल उस मूर्ति के चरणों में चढ़ा जाता है। और लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या। इनके पार धर्म का सदियों पुरानी मूर्ति है। गुरु के गुरु के पास थी, और गुरु के गुरु जगत शुरू होता है। के पास थी। और पीढी दर पीढी वसीयत की तरह मिली है। यह 'त्याग, कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, क्या हो गया? सबके प्रति समभाव, दया, दान में प्रवत्ति. ये पीत या तेजो लेश्या वह घबड़ा ही रहा था कि तभी गुरु कमरे में आ गया। तो उसने के लक्षण हैं।' मूर्ति अपने दोनों हाथों के पीछे छिपा ली और उसने गुरु से कहा, 'कार्य-अकार्य का ज्ञान'-क्या करने योग्य है, क्या करने एक बात पूछनी है। जब कोई आदमी मरता है तो क्यों मरता है? | योग्य नहीं है। जो भी करते हो सोचकर करो, तो उसके गुरु ने कहा, उसका समय आ गया। तो उसने कहा कि जो न करने से चल जाए उसे करो मत। जिसके किए चल ही न यह आपकी मूर्ति का समय आ गया था। सके, उसी को करो। संरक्षित करो अपनी ऊर्जा को, व्यर्थ मत गुरु हंसा और उसने कहा, जो तू मुझे समझा रहा है, अपने गंवाओ। इस ऊर्जा से हीरे खरीदे जा सकते हैं, तुम जीवन में याद रखना। क्योंकि तेरे जीवन में बहुत मूर्तियों का कंकड़-पत्थरों पर गंवा रहे हो। समय आएगा। जब टूटे तो याद रखना, समय आ गया था। कार्य-अकार्य का ज्ञान'—क्या है करने योग्य ? जिससे 2010_03 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद बढ़े वह करने योग्य है। जिससे सत्य की प्रतीति बढ़े वह करने योग्य है। जिससे अंधेरा बढ़े, दुख बढ़े, असत्य बढ़े, वह करने योग्य नहीं है। तो सोचो। सोचकर, सम्हलकर चलो। थोड़ी सावधानी, थोड़े सावचेत बनो। चौबीस घंटे में तुम इतनी बातें कर रहे हो कि अगर तुम गौर से देखोगे तो पाओगे, उनमें से नब्बे प्रतिशत तो करने योग्य ही नहीं हैं। कितनी बातें तुम लोगों से कहते हो, न कहते तो क्या हर्ज था ? और उन कहने के कारण कितनी झंझटों में पड़ जाते हो । इंगलैंड के बड़े विचारक एच. जी. वेल्स ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अगर लोग चुप रहें तो दुनिया में से निन्यानबे प्रतिशत झगड़े समाप्त हो जाएं। बोलने से झगड़े खड़े होते हैं। बोले कि फंसे। कुछ कहा कि उलझे । चुप रह जाओ। टेलिग्राफिक होना चाहिए आदमी को । जैसे तार करने गए हैं दफ्तर में पोस्ट आफिस के, एक-एक पैसे के दाम हैं; एक एक पंक्ति के, एक-एक शब्द के दाम हैं। तो आदमी सोच-सोचकर निकालता है कि दस शब्द में काम चल जाए। उतना ही बोलो, जितना बोलने से काम चल जाए । उतना ही चलो, जितना चलने से काम चल जाए। उतने ही संबंध बनाओ, जितनों से काम चल जाए। तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, जीवन में एक संयम अवतरित होने लगा । 'कार्य - अकार्य का ज्ञान, श्रेय अश्रेय का विवेक, सबके प्रति समभाव, दया, दान में प्रवृत्ति, ये तेजोलेश्या के लक्षण हैं।' छीनने-झपटने की प्रवृत्ति, विषय- लोलुपता संसार को बनाती है। देने की वृत्ति, दान की, बांटने की वृत्ति धर्म को निर्माण करती है। लोभ अगर संसार की जड़ है तो दान धर्म की | जैसे ही तुम देते हो, कई घटनाएं घटती हैं। एक देने के कारण वस्तुओं पर तुम्हारा मोह क्षीण होता है। दोः देने के कारण तुम्हारा प्रेम विकसित होता है। तीन देने के कारण दूसरा व्यक्ति मूल्यवान बनता है । छोटी-सी भी चीज किसी को दे दो, उस क्षण में तुमने दूसरे को मूल्य दिया। इसलिए तो भेंट का इतना मूल्य है। चाहे कोई चार पैसे का रूमाल ही किसी को दे जाए, पैसे का कोई सवाल नहीं है। लेकिन जब कोई किसी को कुछ चीज भेंट में दे आता है तो | उसका मूल्य स्वीकार कर रहा है कि तुम मेरे लिए मूल्यवान हो । 2010_03 षट पर्दों की ओट में कि मैं तुम्हारे लिए कुछ देने को उत्सुक और तत्पर हूं। कि तुम्हें कुछ देकर मैं आनंदित होता हूं। जो व्यक्ति दूसरों से लेकर ही आनंदित होता है, वह केवल सुख ही जानता है, आनंद नहीं जानता। और सब सुख के पीछे दुख छिपा है। क्योंकि जब तुम दूसरों से छीनते हो, तुम दूसरों को छीनने के लिए निमंत्रण दे रहे हो। तुम शत्रुता खड़ी करते हो, जब तुम छीनते हो । जब तुम देते हो, तब तुम मित्रता खड़ी करते हो । देने में आनंद है, और आनंद के पीछे कोई दुख नहीं है। महावीर कहते हैं, समभाव । चीजों को एक दृष्टि देखना। अगर गौर से देखो तो गुलाब का फूल भी मिट्टी है । चंपा का फूल भी, चमेली का फूल भी, आदमी की देह भी, आकाश में खड़े हुए ये वृक्ष भी, हिमालय के शिखर भी, सभी मिट्टी के खेल हैं। सभी एक ही ऊर्जा के खिलौने हैं। अगर तुम धीरे-धीरे देखना शुरू करो तो तुम पाओगे, सारा जीवन एक की ही अनेक-अनेक रूपों में अभिव्यक्ति है। एक की अभिव्यक्ति – तो समता पैदा होती है। जानता हूं राह पर दो दिन रहेंगे फूल आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल रात भर ही के लिए है आंख में सपना आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं फूल और धूल में फर्क क्या है ? जो फूल है, कल धूल था । जो फूल है, कल फिर धूल हो जाएगा। जो अभी धूल है, कल फूल पर नाचेगी, सुगंध बनेगी, रंग-रूप बनेगी। धूल और फूल में फर्क क्या है ? मित्र और शत्रु में फर्क क्या है? जो मित्र था वह शत्रु हो जाता है। जो शत्रु था, वह मित्र हो जाता है। जीवन और मृत्यु में फर्क क्या है? जीवन मृत्यु बनता रहता है, मृत्यु नए जीवन का रूप धरती रहती है। रोज दिन रात बनता है, रात दिन बनती है; फिर भी तुम देखते नहीं । जानता हूं राह पर दो दिन रहेंगे फूल आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल रात भर ही के लिए है आंख में सपना आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं 473 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmas - जिन सूत्र भाग: 2 धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं मालिक हुए। जब तक त्याग करने की क्षमता न थी, तब तक तब एक समभाव पैदा होता है। तब न कोई अपना है, न पराया | गुलाम थे। है। तब कोई न मित्र है, न शत्रु है। तब न किसी से सुख है, न 'त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता...।' दुख है। तब सब सम है। और जैसे-जैसे बाहर समभाव पैदा बाहर से हजार घटनाएं घट रही हैं। कोई गाली दे जाता है, होता है, भीतर समता पैदा होती है। असली मूल्य तो समता का कोई सम्मान कर जाता है; कोई सफलता का संदेश ले आता है, है, सम्यकत्व का है, समाधि का है। कोई विफलता का; लेकिन तुम भीतर भद्र रह सको। तुम्हारी ये सभी एक ही धातु से बने हैं-सम। सम्यकत्व हो, समाधि भद्रता अकलुषित रहे। तुम्हारी समता को कोई डिगा न पाए। हो, संबोधि हो, समता हो, समभाव हो, समत्व हो, सब एक ही | तुम्हारे भीतर परिणाम तुम्हारी मालकियत में रहें। तुम्हारा कोई धातु से बने हैं—सम। सम पैदा हो जाए। चीजों के भेद | मालिक न हो सके। तो विफलता को सफलता को एक-सा देख महत्वपर्ण न रह जाएं, चीजों का अभेद दिखाई पड़ने लगे। रूप | लेना। सुख का सुसमाचार आए कि दुख की खबर आए, | महत्वपूर्ण न रह जाएं, रूप के भीतर छिपा अरूप पहचान में | एक-सा देख लेना। तुम्हारा परिणाम अभद्र न हो पाए। तुम्हारे आने लगे। परिणाम में जरा भी डांवांडोलपन न हो। सोने के हजारों गहने रखे हैं, गहना दिखाई पड़े तो भूल हो रही 'व्यवहार में प्रामाणिकता...।' है। सब गहनों के भीतर सोना दिखाई पड़ने लगे तो तुम ठीक और तुम जो भी करो, वही करो, जो तुम करना चाहते थे। दिशा पर लगने लगे। तुम्हारा भीतर और बाहर एक जैसा हो। तुम्हारे चेहरे पर नकाब न 'कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति | हो। तुम्हारे चेहरे पर मुखौटे न हों। तुम सीधे-साफ, नग्न; तुम समभाव, दया, दान में प्रवृत्ति, ये पीत या तेजो लेश्या के लक्षण | जैसे हो वैसे ही; चाहे कोई भी परिणाम हो, तम अपने को छिपाओ न। दिल तो सबको मेरी सरकार से मिल जाते हैं प्रामाणिकता बड़ा बहमुल्य शब्द है। जिसको पश्चिम के दर्द जब तक न मिले दिल नहीं होने पाते अस्तित्ववादी आथेन्टीसिटी कहते हैं, वही महावीर की और जब तक तुम्हारे मन में दया का दर्द न उठे, तब तक तुम्हारे प्रामाणिकता है। पास दिल है नहीं। धड़कने को दिल मत समझ लेना, जब तक हम तो अक्सर...अक्सर चौबीस घंटे में तेईस घंटे कि दूसरे के दर्द में न धड़के। जब तक सिर्फ धड़कता है, तब तक अप्रामाणिक होते हैं। एक घंटा हम प्रामाणिक होते हैं, जब हम सिर्फ फेफड़ा है, फुफ्फस है, जब दूसरे के लिए धड़कने लगे, गहरी नींद में होते हैं; उसका कोई मतलब नहीं। अन्यथा हम करुणा और प्रेम से धड़कने लगे. तभी दिल है। कुछ कहते, कुछ सोचते, कुछ बतलाते। गिरगिट की तरह हमारा 'त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता, | रंग बदलता। हम जैसा मौका देखते, तत्क्षण वैसा रंग धर लेते। कार्य में ऋजुता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों अवसरवादिता प्रामाणिकता के विपरीत है। हमारा अपना कोई की सेवापूजा में तत्परता, ये पद्म लेश्या के लक्षण हैं।' । | स्वर नहीं, कोई आत्मा नहीं। जैसा दूसरा आदमी हम देखते, 'त्यागशीलता'– छोड़ने की क्षमता। पकड़ने की आदत तो वैसा ही हम व्यवहार कर लेते हैं। हम समय के अनुसार चलते, सभी की है। धन्यभागी हैं वे, जो छोड़ने की क्षमता रखते हैं। जो आत्मा के अनुसार नहीं। छोड़ने की क्षमता रखते हैं, वे ही मालिक हैं। जब तक तुम कोई | प्रामाणिकता का अर्थ है: हमारे भीतर अपना बल पैदा हुआ। चीज छोड़ नहीं सकते, तुम उसके मालिक नहीं। जब तक तुम | अब हम अपने बल से जीते हैं। कष्ट झेलना पड़े तो झेल लेते हैं, सिर्फ पकड़ सकते हो, तब तक तुम गुलाम हो। लेकिन सत्य को नहीं खोते। यह विरोधाभासी लगेगा। लेकिन यह परम सत्यों में एक है कि 'सत्यं वद। धर्मं चर।' हिंदू शास्त्र कहते हैं, सत्य बोले और जब तुम किसी चीज का त्याग कर देते हो, उसी दिन तुम उसके धर्म में चले। जैसा हो वैसा कहे। परिणाम की चिंता छोड़ दें। 2010_03 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में परिणाम का हिसाब न रखे। निष्कपट छोटे बच्चे जैसा हो जाए। तुम्हें यह खयाल ही नहीं है कि तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही अपराधी र के बीच कोई द्वंद्व न रहे। एक धारा बहे। पड़ा है। तुम्हारा अपराधी अंधेरे में हो तो ही तुम अपराधी को उस एक धारा के बहने में ही योग उपलब्ध होता है। उस एक क्षमा नहीं करते। और जो अंधेरे में है उसे तुम मिटा न सकोगे। धारा के बहने में ही तुम पहली दफा खंड-खंड नहीं रह जाते, जिसने अपनी शक्ल ठीक से देखी, उसने सारे जगत की शक्लें अखंड बनते हो। तुम्हारे सारे खंड एक महासंगीत में सम्मिलित ठीक से देख लीं। अब वह नाराज नहीं है। अब वह समझ होते हैं। तुम्हारे सारे स्वर एक-दूसरे के विपरीत नहीं रह जाते; सकता है। उन सबके बीच एक संगति, एक संगीत का जन्म होता है। 'साधु गुरुजनों की सेवा...।' 'कार्य में ऋजुता...।' और जहां भी तुम्हें दिखाई पड़े कोई भलाई, कोई भला पुरुष, सरलता, सीधापन। कुछ लोग एढ़े-टेढ़े चलते हैं। उनको कोई जाग्रत पुरुष, कहीं जरा-सी भी झलक दिखाई पड़े तो जाना हो पश्चिम तो पहले पूरब की तरफ जाते हैं। उनको आना महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की खोज में चल हो घर तो पहले बाजार की तरफ जाते हैं। कुछ लोग इरछे-तिरछे रहा है, वह वहां सेवा करने को तत्पर होगा। क्योंकि उस सत्संग चलते हैं। उनकी इरछा-तिरछा चलना आदत हो गई है। से ही आखिरी घटना घटेगी। उस सत्संग से ही तुम्हारे भीतर, तुम भी बहुत बार यही करते हो। किसी से चार पैसे उधार लेने | भीतर जाने की समझ जगेगी। हैं तो तुम सीधे नहीं मांग लेते। तुम पहले कुछ और चालें चलते जो जाग गए हैं, उनके पास बैठकर उनके जागने को पकड़ना हो। पहले तुम भूमिका बनाते हो, फिर भूमिका के पीछे से तुम सीखना चाहिए। जो जाग गए हों, उनकी सेवा करके विनम्रता से धीरे-धीरे जाल फैलाते हो। फिर आखिर में चार पैसे मांगते हो। प्रतीक्षा करनी चाहिए उस अवसर की, जहां उनकी ऊर्जा और सीधा-सीधा...महावीर कहते हैं, व्यवहार में, कार्य में तुम्हारी ऊर्जा में कोई तालमेल बैठ जाएगा। जहां उनकी लहर के ऋजुता! सीधी रेखा। दो बिंदुओं के बीच जो सबसे निकटतम साथ गठबंधन बांधकर तुम भी अंतर्यात्रा पर निकल जाओगे। की दूरी है, वह है सीधी रेखा। ऐसे आड़े-तिरछे चलकर बड़ी | जो तुमसे आगे हों, उनका हाथ पकड़ लेने की चेष्टा करनी लंबी यात्रा होती है। और उस यात्रा में बड़ी ऊर्जा व्यय होती है। चाहिए। और गुरुजनों का हाथ पकड़ना हो तो एक ही उपाय है; 'अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता...।' | उसको महावीर सेवा-पूजा कहते हैं। क्योंकि जो भी अपराधी है, ध्यान रखना, वह भी मनुष्य | अब यह बड़ी विचार की जरूरत है इस संबंध में, क्योंकि है तुम्हारे जैसा; तुम्हारी ही कमियों और सीमाओं से भरा | ईसाइयत के प्रभाव के बाद सेवा का अर्थ ही बदल गया। जब हुआ। तो जिस व्यक्ति ने अपने को पहचाना है, वह दूसरे को | जैन साधु के पास जाता है तो उससे पूछो कहां जा रहा है? वह क्षमा करने को सदा तत्पर होगा। क्योंकि वह देखेगा, दूसरे में जो कहता है, साधु की सेवा करने। ईसाइयत के प्रभाव के बाद सेवा हो रहा है, वह मुझमें हो चुका है। दूसरे में जो हो रहा है, वह | का अर्थ हो गया है। कोढ़ी की सेवा, बीमार की सेवा, मलेरिया मुझमें भी हो सकता है। ठीक-ठीक अपने को जाननेवाला है, प्लेग है, हैजा फैला है, तो सेवा। ईसाइयत ने सेवा का बड़ा व्यक्ति सारे मनुष्यों को जान लिया। | साधारण अर्थ लिया है। जिसकी कहीं कोई पीड़ा है, जिसको हम | वह चोर को भी क्षमा कर सकेगा क्योंकि वह जानता है, चोर दया कहते हैं, उसको ईसाइयत सेवा कहते हैं। दया तुम उसकी अपने भीतर भी छिपा है। वह क्रोधी को भी क्षमा कर सकता है तरफ जाते हो, जो तुमसे पीछे है। क्योंकि वह जानता है, क्रोध अपने भीतर भी कहां मिट गया है? - महावीर सेवा कहते हैं उसकी तरफ जाने को, जो तुमसे आगे और जैसे-जैसे तुम अपराधी को क्षमा करने लगते हो, तुम्हारी | है; जो तुमसे ज्यादा स्वस्थतर है। तुम कोढ़ी हो, वह स्वस्थ है। अपराध की क्षमता कम होने लगती है। अगर तुम अपराधी को तुम बीमार हो, वह स्वस्थ है। तुम सोए हो, वह जागा है। तुम क्षमा नहीं करते तो तुम्हारी अपराध की क्षमता कम नहीं होगी। अंधेरे में पड़े हो, वह रोशनी में खड़ा है। सेवा उसकी, जो हमसे क्योंकि अपराधी को क्षमा न करना एक ही हालत में संभव है कि आगे है। दया उसकी, जो हमसे पीछे हो। क्योंकि सेवा में 475 ___ 2010_03 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः 2 पकड़ने पड़ेंगे चरण। दया में देना होगा, जो हमारे पास है। और | हिला दिया; तो झूठ हो गया। यह तुम्हें दिखाई पड़े। सेवा में पाने की तत्परता रखनी होगी, जो दुसरा हमें दे सकता सत्य पक्षपात से निर्णीत नहीं होता, दर्शन से निर्णीत होता है। है। सेवा स्वीकार करने की दशा है। अंग्रेजी में वैसा कोई शब्द किसी धारणा को लेकर सत्य के पास गए कि चूक गए। नहीं है। सर्विस से वह बात पता नहीं चलती, सर्विस से तो दया निर्धारणा से जाना। ही पता चलती है। "भोगों की आकांक्षा न करना...।' तो तुम साधारणतः सोच ही नहीं सकते कि परम स्वस्थ सांसारिक विषय लोलुपता को तो छोड़ आए बहुत पीछे। आदमी...महावीर खड़े हैं, उनकी सेवा के लिए जा रहे हो, वहां | छठवीं स्थिति में इस आखिरी पर्दे में भोग की इच्छा छोड़नी है। क्या जरूरत है? किसी गरीब की, किसी बीमार की, किसी रुग्ण | निश्चित ही महावीर का प्रयोजन है, स्वर्ग में भोग की इच्छा, की सेवा करो। महावीर को सेवा की क्या जरूरत है? वे तो पुण्य के द्वारा भोग की इच्छा। क्योंकि विषय लोलुपता को तो पहुंच गए। वहां तो अब कोई रोग नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई बहुत पीछे छोड़ आए। वे तो कृष्ण और नील लेश्याओं के हिस्से दुख-दारिद्रय नहीं, उनकी सेवा के लिए क्या जा रहे हो? थे। अब भोग की लिप्सा न करना। परलोक में कुछ मांगना लेकिन जैन परंपरा में, पूरब की परंपरा में सेवा का अर्थ है: नहीं। जिसको मिल गया उसके पास जाना: उसके चरण दाबने. उसके । 'सबमें समदर्शी रहना...।' सामने झुकना, उसकी पूजा करनी। इसलिए सेवा और पूजा पहले कहा, समभाव; अब कहा समदर्शी। समभाव का अर्थ समानार्थी हैं। सिर्फ पूजा भी कही जा सकती थी, लेकिन पूजा | है, भावना। अभी घटना घटी नहीं है, तुम चेष्टा कर रहे हो। तुम मंदिर की मूर्ति की हो सकती है, सेवा नहीं हो सकती। जीवित प्रयास कर रहे हो, साध रहे हो। समदर्शी का अर्थ है : घटना घट गुरु की सेवा और पूजा दोनों हो सकती है। वहां सेवा और पूजा गई। अब तुम्हें दिखाई पड़ने लगा। सम्मिलित है। समभाव साधते-साधते समदर्शी की अवस्था आती है। पहले इससे एक बहुत अनूठी दृष्टि पूरब की साफ होती है। पूरब तो देख-देखकर, चेष्टा कर-करके साधना होगा कि सभी में एक कहता है, दीन और दुखी पर दया करो, आनंद-अमृत को | का ही विस्तार है। मिट्टी का ही खेल है धूल और फूल दोनों में। उपलब्ध की सेवा करो। जो तुम्हें पाना है, उस तरफ सेवा से झुके | मगर ऐसा अभी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा तुमने सुना हुए जाओ। जो तुम्हें मिल गया है, वह दूसरे को दे दो, दया | गुरुजनों से। ऐसा तुमने शास्त्र में सुना। ऐसा तुमने सत्संग में करो। दया में दान है। सेवा में झोली फैलाना है। सीखा। इसकी तुम चेष्टा करते हो। जब चेष्टा करते हो, तब ये पद्म लेश्या के लक्षण हैं। क्षणभर को लगता भी है कि ठीक है, धूल और फूल एक है। 'पक्षपात न करना, भोगों की आकांक्षा न करना, सबमें | लेकिन फिर चेष्टा भली. भटके, फिर फल, फल दिखाई पड़ने समदर्शी रहना, राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना, ये शुक्ल | लगता है, धूल धूल दिखाई पड़ने लगती है। चेष्टा करने से कभी लेश्या के लक्षण हैं।' क्षणभर को झलक मिलती है, फिर खो-खो जाती है। और अंतिम लेश्या, शुक्ल लेश्या। समदर्शी का अर्थ है, जो गुरुजनों ने कहा, वह अब तुम्हें स्वयं 'पक्षपात न करना'-सत्य जैसा हो, वैसा ही स्वीकार दिखाई पड़ता है। तुम्हारी दृष्टि पैदा हो गई। करना; पूर्व पक्षपातों के आधार पर नहीं। | 'राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना...।' अब मैं जो यह कह रहा हूं, महावीर के सूत्रों का अर्थ कर रहा न तो किसी को अपना मानना, न किसी को पराया मानना। न हं, यहां जो जैन बैठे होंगे, वे कहेंगे, बिलकुल ठीक है। लेकिन इस संसार से किसी तरह का सुख मिल सकता है—प्रणय की यह बिलकुल ठीक तुम्हें दिखाई पड़ रहा है या सिर्फ पुराने आकांक्षा, कि इस संसार से किसी भी तरह का सुख संभव है, पक्षपात के कारण? इसकी संभावना को भी स्वीकार न करना। संभावना मात्र का क्योंकि ये महावीर के सूत्र हैं और तुम जैन हो, इसलिए सिर गिर जाना। ये शुक्ल लेश्या के लक्षण हैं। 476 Jair Education International 2010_03 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में इन एक-एक पर्दो को पार करते चलना है। बहुत दफा भटकोगे, गिरोगे, फिर उठ-उठ आना। एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के सांस मेरी सिसकती रही उम्र भर भेस भाए न जाने तुझे कौन-सा इसलिए रोज कपड़े बदलता रहा किस जगह कब कहां हाथ तू थाम ले इसलिए रोज गिरता-सम्हलता रहा इस द्वार क्यों न जाऊं उस द्वार क्यों न जाऊं घर पा गया तुम्हारा मैं घर बदल-बदल कर खोज जारी रखनी है। भटकाव होगा, गिरना होगा। उठ आना, सम्हल जाना। बहुत बार वस्त्र बदलने पड़ेंगे। लेकिन धीरे-धीरे. धीरे-धीरे भीतर के बोध सजग होते जाते हैं। और तम ठीक उस वस्त्र में हो जाते हो, जिस वस्त्र में उस प्रीतम से मिलना हो सकता है, उस भीतर के अंतर्जगत में प्रवेश हो सकता है। वह वेष तो सत्य का है, ऋजुता का है, समदर्शन का है। सत्यं वद। धर्म चर। आज इतना ही। 477 2010_03 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern 03 For www.ja Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां प्रवचन आज लहरों में निमंत्रण Ear Private Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERE REET प्रश्न-सार जैन मानते हैं कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं। जाग्रत पुरुषों के बाबत बताए जाने पर भी वे उनकी ओर उन्मुख क्यों नहीं होते? - STATE NIPREET आपका विरोध करनेवाले लोग यदि आपमें उत्सुकता लेने लगें तो हम संन्यासियों को क्या करना चाहिए? महावीर की तरह आप भी अंधविश्वासों पर प्रहार करके सदधर्म का तीर्थ बना रहे हैं; फिर भी अंधश्रद्धालुओं में जाग क्यों नहीं आती? मुझे गरज किसी से न वास्ता मुझे काम अपने ही काम से तेरी जिक्र से, तेरी फिक्र से तेरी याद से, तेरे नाम से मन की आवाज कौन-सी है और हृदय की कौन-सी? कृष्ण का भाव करते-करते गोपीभाव में लीन होना और नाचते-नाचते आपके सन्मुख हो जाना—यह क्या है? R R 2010_03 www.jainelibrarorg Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्न : जैन मानते हैं कि जिन- शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं, इसलिए दूसरे शासन में नहीं जाना चाहिए। जाग्रत व सिद्ध पुरुषों के बाबत बताए जाने पर भी वे उनकी ओर उन्मुख नहीं होते। क्या उन्हें सन्मार्ग पर लाना संभव नहीं है ? पहली बात मानते तो ठीक ही हैं वे, कि जिन - शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं। लेकिन वे जानते नहीं कि जिन - शासन क्या है। जिसे वे जिन - शासन समझते हैं, वह जिन - शासन नहीं है। उनकी मान्यता में भ्रांति नहीं है। जिन - शासन का इतना ही अर्थ हुआ : जाग्रत पुरुषों का, जीते हुए पुरुषों का शासन । जो स्वयं जागा हो, उस साथ ही होने में सार है; सोए हुओं के साथ होने में सार नहीं । तो मान्यता तो बिलकुल ठीक है। अब कठिनाई यह है कि जागे हुओं को कैसे जानें, कौन जागा हुआ है ? तो सस्ता उपाय यह है कि जिसे परंपरा से लोग मानते रहे हैं जागा हुआ, उसे मान लो और उसी के साथ बंधे रहो। परंपरा से ज्यादा सोयी हुई कोई बात हो सकती है ? महावीर जागे थे। जिसको तुम जैन कहते हो, यह अगर महावीर के समय में होता तो महावीर को न मानता । तब यह पार्श्वनाथ को मानता, क्योंकि पार्श्वनाथ के पीछे ढाई सौ साल की परंपरा थी । और महावीर के समय में विवाद खड़ा हो गया था। पार्श्वनाथ को माननेवाले लोग महावीर के विरोध में थे। उसी विरोध से तो दिगंबर और श्वेतांबरों का जन्म हुआ । 2010_03 श्वेतांबर वे लोग हैं, जिन्होंने पार्श्वनाथ को माना और महावीर को इनकार करने की वृत्ति रखी । वह विरोध अब भी कायम है। ढाई हजार साल हो गए, लेकिन श्वेतांबर की जो मान्यता है, वह अभी भी पार्श्वनाथ से प्रभावित है। पार्श्वनाथ जाग्रत पुरुष थे। लेकिन जो पार्श्वनाथ की आंखों में आंखें डालकर देखे उनके लिए जाग्रत पुरुष थे। पार्श्वनाथ के समय में अगर ये जैन होते तो पार्श्वनाथ को न मानते; ये आदिनाथ को मानते । आदमी अतीत को मानता है । और जाग्रत पुरुष हो सकता है केवल वर्तमान में । महावीर मिल जाएं तो कुछ और खोजने की जरूरत नहीं है। आदिनाथ मिल जाएं तो कुछ खोजने की और जरूरत नहीं। लेकिन आदिनाथ अतीत में तो मिलेंगे नहीं । अतीत तो जा चुका। खोजना तो आज होगा। इसलिए एक अनिवार्य दुविधा खड़ी होती है। जो आदमी परंपरा को मानता है, वह जिन - शासन को नहीं मान सकता। क्योंकि जिन का अर्थ हुआ : जागा हुआ, जीवंत व्यक्ति । परंपरा को माननेवाला, परंपरा को मानने के कारण ही वर्तमान के जाग्रत पुरुषों से वंचित रह जाता है। और ऐसा कुछ जैन ही कर रहे होते तो भी ठीक था। सभी ऐसा कर रहे हैं। हिंदू कृष्ण को मानते हैं। जब कृष्ण मौजूद थे तो बड़ी अड़चन थी। हिंदू राम को मानते हैं। जब राम मौजूद थे तो अड़चन थी । जाग्रत पुरुष जब मौजूद होता है तो बड़ी कठिनाई है। कठिनाई यह है कि अगर तुम उसे मानो तो तुम्हें बदलना पड़े। बदलाहट 483 , Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 मी की झंझट है। तुम्हें अपना सारा जीवन रूपांतरित करना पड़े। | की, जो है; तुम उस वृक्ष की छाया में नहीं बैठते जो कभी था। मानने का और क्या अर्थ होता है? चरण छू आए, सिर झुका | पागल होओगे तुम अगर उस वृक्ष की छाया में बैठोगे। न वृक्ष आए, इससे क्या होगा? | है, न छाया है। धप से जलोगे। अगर प्यास लगती है तो तम इसलिए मुर्दा पुरुषों को मानने में सुविधा होती है। वे तुम्हें उस सरोवर के पास जाते हो, जो अभी है। तुम उस. सरोवर के बदल नहीं सकते। उनके साथ कोई जोखिम नहीं है—मरे पास नहीं जाते, जो कभी था। रहा होगा। बड़ा सुंदर था। पुराणों महावीर क्या करेंगे तुम्हारा? जा चुके महावीर क्या करेंगे में उल्लेख है लेकिन उससे प्यास तो न बुझेगी। भूख लगती है, तुम्हारा? जहां बिठाओगे वहां बैठेंगे, जहां उठाओगे वहां तो तुम अभी ताजा भोजन खोजते हो।। उठेंगे। जो पूजा लगा दोगे वही स्वीकार करेंगे। न लगाओगे तो जो भूख और प्यास के संबंध में सही है, वही सत्य के संबंध में बैठे रहेंगे। भूखे बैठे रहेंगे। फूल न चढ़ाओगे तो क्या करेंगे? | भी सही है। सत्य खोजो अभी। जाओ किसी सरोवर के पास, अतीत के महापुरुष जा चुके। अब तो राख के ढेर रह गए। जो अभी हो। खतरा यह है कि शायद तुम इस सरोवर के पास उनके साथ बड़ी सुविधा है। तुम बदलते नहीं। तुम जैसे हो वैसे भी जाओगे, लेकिन जब यह जा चुका होगा। तुम्हारी बुद्धि इतनी ही रहते हो। वस्तुतः तुम अपने महापुरुष को अपने ढंग से बदल मंद है कि जब तक तुम्हारी समझ में आ पाता, तब तक जिन पुरुष लेते हो। विदा हो जाते हैं। घसिट-घसिटकर बामुश्किल तुम्हारी अकल केवल मरे हुओं के साथ कर सकते हो। जिंदा में घुस पाती है बात कि अरे! लेकिन जब तक तुम अरे कहते हो पुरुष, जिंदा जाग्रत व्यक्ति को, जिंदा सिद्ध को तम नहीं बदल तब तक विदाई हो गई। सकोगे। वह तुम्हें बदलेगा। जब तुम उसके पास जाओगे तो तुम बुद्ध एक गांव से गुजरे तीस सालों तक। कहते हैं मिटोगे, नए होओगे। वह तुम्हारी मृत्यु बनेगा और नया जीवन करीब-करीब पंद्रह बार उस गांव से गुजरे। और एक आदमी भी। उसके माध्यम से तुम एक नए आलोक को उपलब्ध तीस सालों से चाहता था कि उनके दर्शन कर ले न कर पाया। होओगे। लेकिन अंधेरे की दुनिया छोड़नी पड़ेगी। बहुत कुछ कभी दुकान पर ग्राहक थे और न जा पाया। कभी लड़की की खोना पड़ेगा, तब तुम कुछ पा सकोगे। शादी थी और न जा पाया। कभी बीमार था, कभी पत्नी से बात तो बिलकुल ठीक है कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी झगड़ा हो गया। कभी जा रहा था और रास्ते में कोई पुराना शासन मिथ्या हैं। लेकिन मानने का कारण, मानने की मूल वृत्ति | परिचित मित्र मिल गया तो फिर घर लौट आया। कभी घर बड़ी खतरनाक है। सत्य बातों को भी हम गलत कारणों से मान मेहमान आ गए तब उनको छोड़कर कैसे जाए? । सकते हैं। हम इतने गलत हैं कि ठीक बातें भी हमारे हाथ में ऐसे हजार बहाने मिलते रहे और बुद्ध आते रहे और जाते पड़ते-पड़ते गलत हो जाती हैं। हम ऐसे गंदे हैं कि अमृत भी हम रहे-तीस साल। एक दिन अचानक गांव में खबर आयी कि पर बरसे तो जहर हो जाता है। आखिर हमारी प्याली में ही बुद्ध आज शरीर छोड़ रहे हैं, तब वह भागा। बुद्ध ने अपने भरेगा। हमारी प्याली की गंदगी उसे रूपांतरित करती है। भिक्षुओं से पूछा उस सुबह, कुछ पूछना तो नहीं है? क्योंकि सत्य के खोजी को अभी खोजना होगा। गुरु अभी हो सकता अब विदा की वेला आ गई। अब मैं जाऊंगा। कहा होगा, मेरी | है। कल के गुरु काम नहीं आएंगे। बीते कल के गुरु काम नहीं नाव लग गई किनारे, अब मैं जाता हूं दूसरी तरफ। कुछ और तो | आएंगे। आनेवाले कल के गुरु भी काम नहीं आएंगे। पूछना नहीं है ? कोई आखिरी बात? आज-जीवन आज है। भिक्षु तो रोने लगे। इतना दिया था बुद्ध ने। बिना पूछे दिया तम महावीर के समय में जी कैसे सकते हो? तुम महावीर के | था। पछा था तो दिया था. न पछा था तो दिया था। पळने को साथ चल कैसे सकते हो? तुम महावीर की छाया में हो कैसे | कुछ बचा न था। और ऐसी दुख की घड़ी में, जब वे विदा हो रहे सकते हो? वह वृक्ष न रहा। अगर आज तुम्हें भरी दुपहरी में | हों, किसको प्रश्न उठे? ऐसी दुख की घड़ी में मन तो बंद हो सिर से पसीना बहने लगता है तो तुम छाया खोजते हो किसी वृक्ष जाता है, हृदय रोने लगता है। आंसू बहने लगे। उन्होंने कहा, 1484 2010_03 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माज लहरों में निमंत्रण हमें कुछ पूछना नहीं है। जितना दिया है उसे भी अगर हम कर कह रहे हों, उनका कोई मूल्य नहीं है। उनका आदेश मानकर मत पाए, उसका अंश भी कर पाए तो बस काफी है। तुमने सागर | चल पड़ना, अन्यथा भटकोगे। अंधे अंधों को और भटका देंगे। उंड्रेला है अमृत का, अगर हम एक बूंद भी पी पाए तो बस अंधों का सहारा पकड़कर मत चलना। अंधे तो गिरेंगे, तुम भी पर्याप्त हो जाएगी। गिरोगे। अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़त। बुद्ध ने तीन बार पूछा, जैसी उनकी आदत थी। फिर से पूछा इतना ही अर्थ है जिन-शासन को स्वीकार करने का कि जहां कि किसी को कुछ पूछना हो। फिर से पूछा कि किसी को कुछ जिनत्व दिखाई पड़े, जहां कोई जाग्रत और जीता हुआ व्यक्ति पूछना हो। जब किसी ने कुछ न कहा तो उन्होंने कहा, | दिखाई पड़े, जहां तुम्हारे प्राण कहने लगें कि हां, संभावना यहां अलविदा। वे वृक्ष के पीछे चले गए। उन्होंने आंख बंद कर ली है, जहां सुबह होती दिखाई पड़े, जहां सूरज ऊगता दिखाई पड़े, और वे देह को छोड़ने लगे। उन्होंने देह छोड़ दी। भीतर धारणा | वहां झुक जाना; उस शासन को स्वीकार कर लेना। की कि देह से अलग हो जाऊं, अलग हो गए। तो बात तो ठीक ही है। मैं यह नहीं कह रहा हूं लेकिन कि जो मन को छोड़ रहे थे, तभी वह आदमी भागा हुआ गांव से उसको मानते हैं वे ठीक हैं। बात तो ठीक है, बात को माननेवाले पहुंचा। और वह चिल्लाया कि बुद्ध कहां हैं? मुझे मिलने दो, | गलत हैं। कहते तो हैं, जिन-शासन एकमात्र सत्य है और बाकी मुझे जाने दो, मुझे कुछ पूछना है। सब मिथ्या। लेकिन मानते शास्त्र को हैं, जिन को थोड़े ही! भिक्षुओं ने कहा, बड़ी देर लगाई। तीस साल तुम्हारे गांव से | मानते परंपरा को हैं, जिन को थोड़े ही! मानते पंडित को हैं, गुजरे। और अनेक बार हम तक ऐसी खबर भी आयी कि तुम पंडित की व्याख्या को मानते हैं। आना चाहते हो लेकिन तुम कभी आए नहीं। जाग्रत पुरुष का सीधा दर्शन तो जलानेवाला है। वहां तो कुछ उसने कहा, करूं क्या, कभी मेहमान आ गए, कभी पत्नी | छूटेगा, मिटेगा, गिरेगा, बदलेगा। वहां तो तुम अस्तव्यस्त बीमार पड़ गई। कभी दुकान पर ग्राहक ज्यादा थे। कभी आया | होओगे। तुम, तुम ही न रह सकोगे। वहां तो तुम आग से भी था तो रास्ते में कोई मित्र मिल गया कई वर्षों का, तो फिर घर गुजरोगे। आग से गुजरे बिना कोई शुद्ध कुंदन बनता भी नहीं। लौट गया। हजार कारण आ गए, मैं न आ पाया। लेकिन मुझे वहां तो तुम पीटे जाओगे, मिटाए जाओगे, रचे जाओगे। बिना रोको मत। कहां हैं बुद्ध? विध्वंस के सृजन होता भी नहीं। वहां तो जैसे कुम्हार मिट्टी को भिक्षुओं ने कहा, अब असंभव है। हम तो उन्हें विदा भी दे | रौंदता है, ऐसे रौदे जाओगे। बिना रौंदे तुम्हारे जीवन का घट चुके। अब तो वे अपनी ज्योति को समेटने में लगे हैं। बनता भी नहीं। वहां तो तुम चाक पर चढ़ाए जाओगे। लेकिन कहते हैं, बुद्ध ने आंखें खोलीं और उन्होंने कहा, अभी सम्हालेगा भी गुरु, थपकारे भी देगा, मारेगा भी, पीटेगा भी, मैं जीवित हूं और वह आदमी आ गया! चलो देर सही, अबेर | जगाएगा भी। सही, आ तो गया। मेरे नाम पर यह लांछन न रह जाए कि मैं जीवित गुरु के पास होने का अर्थ हुआ, तुम्हें नींद छोड़नी अभी सांस ले रहा था और कोई आदमी द्वार से प्यासा चला पड़ेगी। इसलिए मुर्दा गुरुओं को छाती से लगाए पड़े रहने में गया। कहां है? उसे बुलाओ। वह क्या पूछना चाहता है? ह क्या पूछना चाहता है? बड़ी सुविधा है। मर्तिय को पूजने में बड़ी सुविधा है। वह आदमी फिर भी जल्दी पहुंच गया। और भी उस गांव में और भी बड़े मजे की बात है कि जो कहते हैं कि 'जिन-शासन लोंग रहे होंगे, जो फिर भी न पहुंचे। आदमी बड़ा मंदबुद्धि है। | के अतिरिक्त सब मिथ्या है। उन्हें यह भी पता नहीं कि जिनों ने मंदबुद्धि ही रोग है। न तो जैन का सवाल है, न हिंदू का, न क्या कहा है। उन्हें यह भी पता नहीं कि जिन-शासन का मौलिक मुसलमान का; मंदबुद्धि...। सूत्र यही है कि सभी में कुछ न कुछ सत्य का अंश है। मंदबुद्धि जड़ चीजों को पकड़ लेता है। अब इतना सुंदर विचार तब आदमी की मंदबुद्धि पर बड़ी हैरानी होती है। यह तो है कि जिन-शासन के अतिरिक्त सब मिथ्या है। इसका अर्थ विरोधाभास हो गया। समस्त जिन पुरुषों ने—महावीर ने, बुद्ध हुआ, जाग्रत पुरुष जो कहे उसके अतिरिक्त सोए हुए आदमी जो | ने, कृष्ण ने, सभी ने कहा है कि मैं ही ठीक हूं ऐसी धारणा 2010_03 . Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 -- -- अहंकार की घोषणा है। और महावीर ने तो बहुत आग्रहपूर्वक और सीधा कर लेंगे, बिलकुल सीधा कर लेंगे, रेखाबद्ध कर के कहा है कि जरा भी आग्रह रखा कि मैं ही ठीक हं. तो तम गलत डालेंगे: इससे कछ फर्क न पडेगा। हो गए। दूसरे में भी ठीक को देखने की क्षमता चाहिए। कोई फर्क न पड़ेगा। पानी का माध्यम ही लकड़ी को तिरछा कर इस पृथ्वी पर कोई भी बिलकुल गलत तो हो ही नहीं सकता। जाता है। लकड़ी तिरछी होती नहीं, दिखाई पड़ने लगती है, इस जगत में पूर्णता जैसी कोई चीज होती ही नहीं। बिलकुल | तिरछी हो गई। गलत का तो अर्थ हुआ, एक आदमी गलती में पूर्ण हो गया। भाषा का माध्यम अनुभव को तिरछा कर देता है। इसलिए मुल्ला नसरुद्दीन पर कोई नाराज हो गया और उसने कहा कि भाषा में आकर कोई भी सत्य पूर्ण नहीं रह जाता। और असत्य तम, तम पर्ण मर्ख हो। मल्ला ने कहा, ठहरो। इस जगत में पर्ण तो कभी भी परा नहीं है। इसलिए जो भी हम कहते हैं, कभी कोई होता ही नहीं। तुम मेरी खुशामद मत करो। तुम मेरी | आधा-आधा है। स्तुति मत करो। इस जगत में पूर्ण कभी कोई होता ही नहीं। यहां | यही तो जिन-शास्त्र है, यही तो जिन-देशना है कि जो भी हम सब अधूरा है। | कहते हैं, आधा-आधा है। सभी दृष्टियां हैं, दर्शन कोई भी पूर्ण मूर्ख खोजना ही असंभव है। पूर्ण गलत आदमी भी नहीं। दर्शन तो अनुभव है। खोजना असंभव है। अगर पूर्ण गलत होता तो जी ही नहीं सकता। तुम खुद ही सोचो; सुबह हुई, वृक्षों के पार क्षितिज पर सूरज | था। जी रहा है तो कहीं न कहीं सत्य के सहारे ही जीएगा। जीवन निकला. पक्षियों ने गीत गाए गनगन मचाई, मोर नाचे, रंगीन सत्य के साथ है। किरण भला हो, न हो सूरज सत्य का। | बादल फैले, तुमने देखा-दर्शन। अब तुमसे कोई कहे वर्णन छोटी-मोटी क्षीण धारा हो, न हो बाढ़ आयी हुई नदी, मगर होगी करो उसका। तो तुम जो भी वर्णन करोगे, तुम पाओगे बहुत कुछ जरूर। जी रहा है, जीवन है, तो जीवन असत्य के साथ तो हो शेष रह गया है, जो नहीं कहा जा सकता। तुम लाख रंगों का नहीं सकता। कहीं न कहीं सत्य से जुड़ा होगा। कहीं न कहीं वर्णन करो, सुननेवाले पर तुम वही प्रभाव थोड़े ही पैदा कर परमात्मा अभी भी उसमें बह रहा होगा। पाओगे, जो तुम पर पैदा हुआ था सुबह के सूरज को ऊगते | महावीर ने तो कहा है, सभी में सत्य है। इसी से तो उनका देखकर। तुम बड़े से बड़े कवि होओ, तो भी तम पाओगे, हाथ स्यातवाद पैदा हुआ, अनेकांतवाद पैदा हुआ। महावीर ने कहा है कंपते हैं, बड़े से बड़े कवि को भी लगता है कि हम सिर्फ तुतलाते कि जो-जो भी तुम्हें बिलकुल भी गलत लगता हो, उसकी दृष्टि हैं। तो जितना बड़ा कवि होता है उतना ही साफ लगता है कि हम में भी खोजोगे तो कछ न कछ तो अंश पाओगे सत्य का। पर्ण सिर्फ ततलाते हैं। छोटे-मोटे कवियों को लगत चाहे सत्य न हो, पूर्ण असत्य भी नहीं हो सकता। और महावीर दिया। उनके पास कहने को कुछ है नहीं। जिसके पास जितना ने तो कहा है, पूर्ण सत्य को कहने का कोई उपाय ही नहीं है। बड़ा दर्शन है उतनी ही भाषा की असमर्थता मालूम होती है। | इसलिए दो बातेंः जितनी दष्टियां हैं, सभी अंश सत्य हैं और रवींद्रनाथ ने मरते क्षण कहा कि हे प्रभ। यह भी त क्या कर पूर्ण सत्य को अब तक किसी ने कहा नहीं; कहा जा सकता | रहा है? अब, जब कि मैं थोड़ा गाने में कुशल हुआ जा रहा था, नहीं। कहते से ही अपूर्ण हो जाता है। वाणी में लाते ही अधूरा हो | तू मुझे विदा करने लगा? जाता है। अनभव में हो सकता है पूर्ण, अभिव्यक्ति में अपूर्ण हो एक बढा मित्र पास बैठा था. उसने कहा, क्या कह रहे हो जाता है। लाख सम्हालकर कहो, कहने के माध्यम में ही अपूर्ण तुम? कुशल हो रहे थे? तुम महाकवि हो। हो जाता है। रवींद्रनाथ ने कहा, दूसरे कहते होंगे। मेरी पीड़ा मैं जानता हूं। जैसे तम एक लकड़ी को पानी में डालो-सीधी लकड़ी को, | अगर तुम मुझसे पूछते हो तो मैं इतना ही कह सकता हूं कि मैंने पानी में तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। लाख सम्हालकर डालो, | अभी तक जो गीत गाए, वे ऐसे ही हैं जैसे संगीतज्ञ संगीत शुरू इससे कोई संबंध नहीं है। पानी का माध्यम तिरछापन पैदा करता करने के पहले साज को बिठाता है। वीणाकार तार खींच-खींच है। तुम कहो कि हम और सम्हालकर डालेंगे। हम लकड़ी को कर देखता है, ठीक है? तबलाबाज तबला बजा-बजाकर 486 __ JanEducation International 2010_03 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज लहरों में निमंत्रण ठोंक-ठोंककर देखता है, ठीक है? सच हो जाए। अगर न लटकाओ तो वह झूठ है। अब करो रवींद्रनाथ ने कहा कि अभी तक जो मैंने गाए. वे केवल साज क्या? अगर उसको फांसी पर लटका दो तो एक सच्चे आदमी को संवारने जैसे थे। अभी असली गीत शुरू कहां हुआ था? को फांसी हो गई। अगर उसको फांसी पर न लटकाओ, तो एक असली गीत तो अपने साथ ही ले जा रहा हूं। झूठा आदमी पहले ही दिन छूटा जा रहा है। सम्राट ने अपना सिर जितना बड़ा कवि होगा उतना ही असमर्थ पाएगा। जितना | ठोंक लिया। नसरुद्दीन ने कहा कि सत्य और असत्य का निर्णय बड़ा अनुभव होगा उतना ही प्रगट करना मुश्किल हो जाएगा। इतना आसान नहीं। हटाओ फांसी वगैरह। कौन जानता है कौन छोटे-मोटे अनुभव प्रगट नहीं होते। तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए, सत्य बोल रहा है, कौन असत्य बोल रहा है! कौन जानता है भाषा असमर्थ हो जाती है। क्या कहो? कैसे कहो? क्या सत्य है, क्या असत्य है। तो जिन्होंने सत्य को जाना, इतने विराट में डबे, लौटकर जो भी सत्य और असत्य बड़ी नाजुक बातें हैं। वे कहते हैं, सभी अधूरा है। इसलिए महावीर ने कहा, जो भी महावीर ने अगर कोई भी बात सिखाई है तो इतनी ही बात दृष्टियां हैं, सभी दृष्टियां हैं। सभी में सत्य का अंश है। सिखाई है कि दूसरे को अत्यंत हार्दिकता से समझने की कोशिश जैन कहता है कि महावीर के अतिरिक्त सभी मिथ्या है। करना। तुम्हारे लिए इतनी ही खोज काफी है कि उसमें कुछ भी लेकिन इसका अर्थ क्या हुआ? अगर महावीर सही हैं तो सभी सत्य हो तो खोज लेना। असत्य से तुम्हें लेना-देना क्या है? । में सत्य है। और अगर सभी मिथ्या हैं यह सही है, तो महावीर एक आदमी जंगल में भटक गया हो, राह खोजते-खोजते मिथ्या हो गए। सूरज ढल गया हो, अंधेरा घिर गया हो, पैर काटों से चुभे हों, यह तुम ऐसा समझो, कहते हैं एक सम्राट ने-जो बड़ा झाड़ियों ने कपड़े फाड़ दिए हों, राह न सूझती हो, उसे दूर एक खूखार आदमी था-कहा कि इस गांव में जो भी असत्य बोलेगा झोपड़े से दीया जलता हुआ दिखाई पड़ता है। उस झोपड़े के चारों उसे सूली पर लटका देंगे। और उसने कहा कि सिखावन के तौर तरफ अंधेरा है, जरा-सी रोशनी है। वह रोशनी देख लेता है, पर, नगर का बड़ा द्वार जब सुबह खुलेगा, तो वहां जल्लाद अंधेरा छोड़ देता है। वह यह थोड़े ही कहता है कि इतने अंधेरे में मौजूद रहेंगे फांसी लगाकर। और जो भी आदमी आएंगे उनसे | रोशनी कहां हो सकती है? वह अंधेरा देखकर बैठ थोड़े ही जाता पूछेगे। अगर उनमें से कोई भी असत्य बोला तो तत्क्षण सूली पर है। वह जो टिमटिमाती दीये की रोशनी है, उसको देखता; अंधेरे लटका देंगे, ताकि पूरा गांव रोज सुबह देख ले कि असत्य को नहीं देखता। वह कहता, धन्यभाग! कोई है। पास ही कोई बोलनेवाले की क्या हालत होती है। | है। मिल गई राह, चला चलूं। पहुंच ही जाऊंगा। घबड़ाने की मुल्ला नसरुद्दीन उसके दरबार में था, उसने कहा अच्छा, तो कोई बात नहीं। कल फिर दरवाजे पर मिलेंगे। उस सम्राट ने कहा, तुम्हारा जब कोई आदमी कुछ कहे तो तुम उसमें दीये की टिमटिमाती मतलब? उसने कहा, कल वहीं तुम भी मौजूद रहना। हम रोशनी भी देखना। वही देखना। जितना सत्य का अंश है उतना असत्य बोलेंगे और तुम हमें फांसी पर लगाकर देख लेना। देख लेना। तुम्हें असत्य से लेना-देना क्या है? हंसा तो मोती सम्राट बड़ा नाराज हुआ। उसने बड़ा इंतजाम किया कि यह चुगे। तुम अपने मोती-मोती चुन लेना, कंकड़ छोड़ देना। आदमी चाहता क्या है! और सुबह जब दरवाजा खुला, सम्राट लेकिन तुम कंकड़ों ही कंकड़ों पर चोंच मारते हो। तुम मोती मौजूद था, और वजीर मौजूद थे, पूरे दरबारी मौजूद थे, फांसी का चुनने में उत्सुक नहीं हो। तुम तो यही सिद्ध करने में उत्सुक हो तख्ता मौजूद था, जल्लाद मौजूद थे। और मुल्ला अपने गधे पर कि मोती तो बस हमारे ही घर होते हैं और सब जगह कंकड़ होते सवार दरवाजे के भीतर प्रविष्ट हुआ। हैं। तुम अंधेरे में ही आंख गड़ाए बैठे हो। तुम रोशनी को देखना सम्राट ने कहा, 'कहां जा रहे हो नसरुद्दीन?' ही नहीं चाहते। नसरुद्दीन ने कहा, 'फांसी के तख्ते पर लटकने जा रहा हूं।' जिन-शासन का मौलिक आधार यही है-सत्य सब कहीं है। अब बड़ी मुश्किल हो गई। अगर उसको लटकाओ तो वह अनंत रूपों में प्रगट होता है। अनेकांत का अर्थ होता है सत्य के ___ 2010_03 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 जिन सूत्र भाग: 2 अनेक पहलू हैं। सत्य एकांत नहीं है। जो कहता है, मैं ही सत्य, वह यह कहने से ही असत्य हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कहना, 'मैं भी सत्य ।' 'मैं ही सत्य'-असत्य हो गया। मैं भी सत्य और भी सत्य हैं। लेकिन अहंकार दावा करता है, 'मैं ही सत्य ।' 'भी' पर अहंकार का जोर नहीं है, 'ही' पर जोर है। महावीर का जोर 'भी' पर है। इसलिए महावीर तो कहते हैं कि वह व्यक्ति भी, जो तुम्हारे बिलकुल विपरीत बोल रहा हो, उसकी भी बात ध्यानपूर्वक सुनना । उसमें भी कुछ सत्य होगा । अंश तो होगा ही, कुछ तो होगा ही। यहां पापी से पापी व्यक्ति में थोड़ा संतत्व होता है और यहां संत से संत व्यक्ति में थोड़ा पापी होता है। यहां कोई पूर्ण तो होता नहीं। इसलिए तो हम कहते हैं इस देश में कि जो पूर्ण गया, दुबारा नहीं आता। पूर्ण होते से ही फिर दुबारा आने का उपाय नहीं। यहां तो आना हो तो थोड़ी अपूर्णता रखनी होती है। जैन कहते हैं—जैन दर्शन; बड़ा महत्वपूर्ण दर्शन है - वह कहता है, तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध करना पड़ता है। वह भी पाप है। तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध करना पड़ता है। दूसरों पर करुणा की वासना रखनी पड़ती है तो ही कोई तीर्थंकर हो सकता है, नहीं तो तीर्थंकर भी नहीं हो सकता। दूसरों की सहायता करूं, इतनी वासना तो बचानी ही पड़ती है। नहीं तो तीर्थंकर भी कैसे होगा ? इसलिए सभी सिद्ध पुरुष तीर्थंकर नहीं होते । अनेक सिद्ध पुरुष तो सिद्ध होते ही विलीन हो जाते हैं महाशून्य में। थोड़े-से सिद्ध पुरुष तीर्थंकर होते हैं। वे, वे ही सिद्ध पुरुष हैं, जिनकी सिद्धि में थोड़ी-सी वासना भी जुड़ी है अभी, कि दूसरों की सहायता करूंगा। जिनको अभी इतना और भाव बचा है, वे तीर्थंकर की तरह पैदा होते हैं। शुभ है कि इतनी वासना कुछ लोग बचाते हैं, अन्यथा जगत बड़ा अंधेरे से भर जाए। ‘जैन मानते हैं कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी शासन मिथ्या हैं।' बिलकुल ठीक मानते हैं और बिलकुल गलत कारणों से मानते हैं। सोए होते हैं। शास्त्र तो बस शास्त्र हैं । किताब किताब है। किताब में कुछ भी नहीं होता । खोजो कहीं जीवित व्यक्ति को । किसी को खोजो, जिसके पास तुम्हारी आंखें आकाश की तरफ उठने लगें; जिसकी अभीप्सा तुम्हें भी संक्रामक रूप से पकड़ ले; जिसके बवंडर में तुम भी थोड़े उड़ने लगो । '... जाग्रत व सिद्ध पुरुषों के बाबत बताए जाने पर भी वे उनकी ओर उन्मुख नहीं होते।' दुनिया में सबसे कठिन बात वही है : जाग्रत पुरुषों की तरफ उन्मुख होना। उसका मतलब है, अपने से विमुख होना । जाग्रत पुरुष के सन्मुख होने का एक ही उपाय है, अपने से विमुख होना। जो अपनी तरफ पीठ करे, वही जाग्रत पुरुष की तरफ मुंह कर सकता है। अगर तुम विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करो तो कोई खतरा नहीं है। एक न एक दिन साहस भी इकट्ठा हो जाएगा। लेकिन आदमी अपने अहंकार को बचाता है। वह यह नहीं कहा यह मेरी कमजोरी है कि मैं शास्त्र देख रहा हूं। वह अपनी कमजोरी को भी आभूषणों से अलंकृत करता है, शृंगार करता है । वह कहता है, यही सत्य है, इसलिए कहां, कौन सिद्ध पुरुष ? कहीं कोई सिद्ध पुरुष नहीं। पंचम काल में होते ही नहीं । हो चुके वक्त ! जा चुका समय, जब सिद्ध पुरुष होते थे ! वह महावीर के साथ ही बंद हो गया । महावीर के बाद हम व्यर्थ ही जी रहे हैं। महावीर के बाद कुछ घट ही नहीं रहा । इतिहास 'इसलिए दूसरे शासन में जाना नहीं चाहिए।' जिनपुरुष मिल रुक गया वहीं । महावीर के बाद दुनिया रही ही नहीं है। महावीर जाएं तो जाने की जरूरत भी नहीं है। क्या मरे, सब मर गया। महावीर क्या गए, सब गया। सब मत अटके रहना। शास्त्र न तो जागे होते हैं, न संभावना, सत्य को पाने की सारी सुविधा, सब चली गई। जैन शास्त्र 2010_03 कुछ लेकिन अगर अभी तुम उतनी हिम्मत नहीं कर पाओ तो आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो यह होता है कि तुम इसी में अकड़ अनुभव करते हो । जानना चाहिए कि मैं अभी दीन-हीन । अभी मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं कि सूरज की तरफ सीधी आंखें करके देखूं । अभी तो मैं सूरज की तस्वीरें ही शास्त्र में बनी हैं, उन्हीं को देख पाता हूं। अभी तो उन्हीं तस्वीरों में मन को लुभाता हूं। मेरी हिम्मत नहीं। मैं कमजोर हूं। अभी मेरा बल नहीं। इतना साहस नहीं इस यात्रा पर निकलने का । अभियान पर जाने का दुस्साहस अभी मुझसे होता नहीं। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । यह भी कोई बात हुई ? यह तो बड़ी खतरनाक धारणा हुई इस धारणा का अर्थ तो बड़ी हताशा होगा । तब हमारे हाथ में | कुल इतना ही है कि हम महावीरों की स्तुति करते रहें, स्वयं महावीर न बनें। इसलिए तुम जब उन्हें सिद्ध पुरुषों की बात कहोगे, वे राजी न होंगे। तुम शायद सोचते हो कि तुम बड़ी सरल-सी बात कह रहे हो कि देखो! कोई सिद्ध पुरुष है, कोई जाग्रत पुरुष है, आओ, सुनो, समझो, बैठो पास; थोड़ा सत्संग करो। चलो थोड़ी सेवा करें। तुम सोचते हो, सीधा-सा निमंत्रण दे रहे हो। यह निमंत्रण इतना सीधा नहीं है। यह निमंत्रण खतरनाक है। क्योंकि वह आदमी अगर आ जाए तो फिर वही न हो सकेगा, जो था । वह अपनी सुरक्षा कर रहा है। और दूसरी बात ध्यान रखना, दूसरे के बताए कोई कभी आता नहीं। तुम यह चिंता छोड़ो। इसमें समय खराब भी मत करो। जिसको जब आना है, तभी आता है। जिसकी प्यास जब पक जाती है तभी आता है। तुम किसी को खींच-तानकर लाना मत। तुम जितनी खींच-तान करोगे, उतने ही वह सुरक्षा के उपाय करेगा। तुम जितना सिद्ध करने की कोशिश करोगे कि चलो, कोई जाग्रत पुरुष है, वह उतना ही सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि नहीं, जाग्रत नहीं है । सब पाखंड है। सब धोखाधड़ी है। सब षड्यंत्र है, जालसाजी है। तुम यह कोशिश ही मत करो। तुम आ गए, इतना बहुत । तुम बदलो । सारी शक्ति तुम अपनी बदलाहट में लगा दो। तुम्हारी बदलाहट ही शायद, जिन्हें तुम लाना चाहते हो, उन्हें आकर्षित करे तो करे । तुम्हारी आंखों में आ गई नई चमक, तुम्हारे चेहरे पर आ गई नई दीप्ति, तुम्हारे पैरों में आ गया नया संगीत का स्वर, तुममें उतर आया माधुर्य, मार्दव, शायद किसी को बुला लाए तो बुला लाए। तुम्हारे जीवन में अगर थोड़ी मधुरिमा फैल जाए, थोड़ा स्वाद तुम्हारा बदल जाए तो जो तुम्हारे निकट हैं, जिन्हें तुम स्वभावतः चाहते हो आएं, जागें, वे भी मार्ग को पाएं, उनके जीवन में भी फूल खिलें ... । तुम्हारी आकांक्षा तो ठीक है, लेकिन जल्दबाजी मत करना । तुम लाने की कोशिश ही मत करना। तुम तो चुपचाप अपने को बदलने में लगे रहो। तुम्हारी बदलाहट जैसे-जैसे सघन होगी वैसे-वैसे वे उत्सुक होंगे। और दूसरा कोई उपाय नहीं है। 2010_03 आज लहरों में निमंत्रण अगर तुम उन्हें मेरे पास लाना चाहते हो तो एक ही उपाय है— तुम्हारे जीवन में किसी तरह मेरी खबर उन्हें मिलनी चाहिए; तुम्हारे शब्दों में नहीं । तुम्हारे कहने से वे न सुनेंगे। तुम्हारे होने को सुनेंगे। तुम्हारे भीतर गूंजने लगे नाद, तो शायद... फिर भी मैं कहता शायद, कोई जरूरी नहीं है। क्योंकि ऐसे बज्र-बधिर लोग हैं कि तुम्हारे भीतर घंटनाद गूंजता रहे, उन्हें कुछ भी सुनाई न पड़ेगा। ऐसे अंधे लोग हैं कि तुम बदल भी जाओ, उन्हें कोई दीप्ति न दिखाई पड़ेगी। तुम उनकी फिक्र छोड़ो। तुम उनकी चिंता मत करो। | तुम लिए प्रार्थना करो जरूर, लेकिन उन्हें समझाओ मत। उनके तुम जब ध्यान करके उठो तो उनके लिए प्रार्थना करो। जब तुम ध्यान करके उठो तब उन पर भी प्रभु की अनुकंपा हो, वे भी सत्य की तरफ उन्मुख हों, उनमें भी जाग आए ऐसी प्रार्थना करो, बस । तुम प्रभु को समझाओ कि उन्हें जगाए। तुम सीधे जगाने मत चले जाना । बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा है कि हर प्रार्थना, हर ध्यान करुणा पर पूरा होना चाहिए। जो तुम्हें हुआ है वह सारे जगत को हो, ऐसी भावना से ही ध्यान को पूरा करना । जो तुम्हें मिला है। वह सबको मिले, ऐसी भावना से ही ध्यान के बाहर आना । इसका परिणाम होगा। तर्क से, विचार से तुम सिद्ध न कर पाओगे। अक्सर तो ऐसा होगा, अगर तुमने तर्क किया तो शायद वे तुम्हें डांवांडोल कर दें, बजाय इसके कि तुम उन्हें समझा पाओ। क्योंकि बात कुछ ऐसी है कि तर्क से समझाई नहीं जा सकती, लेकिन तर्क से खंडित की जा सकती है। तुमने अगर मेरे निकट कुछ पाया तो तुम उसे तर्क से समझा न सकोगे। हां, कोई भी उसे तर्क से खंडित कर सकता है। भी फूल है गुलाब का खिला; तुम कहते हो, परम सुंदर है । कोई सिद्ध कर सकता है कि नहीं है सुंदर । तुम सिद्ध न कर पाओगे कि सुंदर है। सीधी-सी बात, कि गुलाब का सुंदर फूल, तुम सिद्ध कैसे करेगे कि सुंदर है? सौंदर्य की क्या कसौटी है, क्या मापदंड है? क्या आधार है घोषणा का, कि सुंदर है ? दार्शनिक सदियों से चिंतन करते रहे। अब तक तय नहीं कर पाए कि सौंदर्य की परिभाषा क्या है ? किस चीज को सुंदर कहें ? और कोई भी सिद्ध कर सकता है कि सुंदर नहीं है। सिर्फ घोषणा भर कर दे कि नहीं है सुंदर। कहां है सुंदर ? क्या है इसमें 489 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DELHI _ जिन सूत्र भागः2 सौंदर्य ? लाल रंग में रखा क्या है? पंखुड़ियां ही खुल गई तो हैं, कितने दरवाजे हैं! और बड़े करता जाऊंगा। उन पर पहरेदार | रखा क्या है? अरे सुगंध ही सही! तो सुगंध में भी रखा क्या है? | बिठाते जाऊंगा। बहुत मुश्किल कर देना है आना। तो ही लोग कोई भी आदमी असिद्ध कर सकता है बड़ी आसानी से। | आ पाएंगे। नास्तिक होना बड़ा आसान है। आस्तिक होना बड़ा कठिन है। तुम लाने की चेष्टा करना ही नहीं। तुम सिर्फ प्रार्थना करना। क्योंकि आस्तिक कुछ ऐसी बातों पर श्रद्धा कर रहा है, जो सिद्ध तुम्हारे ध्यान के बाद-जिनको भी तुम चाहते हो कि वे कभी नहीं की जा सकतीं। आस्तिक बड़ा हिम्मतवर है। वह ऐसे रास्तों यहां आ जाएं-ध्यान के बाद उनकी सूरत का स्मरण करना, पर जा रहा है, जिनके लिए ठीक-ठीक शब्द, तर्क, प्रमाण जुटाने और प्रार्थना करना कि कभी उनका भी सदभाग्य उदय हो। बस, असंभव हैं। चुपचाप, एकांत, मौन में तुम्हारी की गई प्रार्थना रेशम के पतले इसलिए तुम खयाल रखना, तुम व्यर्थ की झंझट में पड़ना ही धागों की तरह उन्हें बांध लेगी, ले आएगी। मत। तुम बदलते जाओ, तुम्हारी आस्तिकता धीरे-धीरे प्रगट मोटे रस्से तर्क के मत बांधना। उनमें तुम जिसको बांधते हो होने लगे तुम्हारे जीवन में, तुम्हारे व्यवहार से। वही शायद उन्हें उसको लगता है, यह तो बंधन हुआ जा रहा है, हथकड़ी डली जा | ले आए तो ले आए और कोई उपाय नहीं है। रही है। कहां जा रहे हो? अपनी स्वतंत्रता गंवाना है? पागल ....क्या उन्हें सन्मार्ग पर लाना संभव नहीं है?' | होना है? लाने की कोशिश की तो मुश्किल है। वे और अकड़ जाएंगे। प्रेम के कच्चे धागे पर्याप्त हैं। वे प्रार्थना में बंध जाते हैं। वे और जिद्द बांध जाएंगे। क्योंकि लाने की कोशिश में उनको सदगुरु के पास होना समर्पण के अतिरिक्त संभव नहीं है। लगता है तुम उन्हें हराने चले? लाने की कोशिश में उनको सदगुरु के पास होना कोई तर्क की निष्पत्ति, निष्कर्ष नहीं है। तर्क लगता है तुम उनके ऊपर विजय की घोषणा कर रहे? तुम उन्हें की हार और पराजय है। सदगुरु के पास होना बुद्धि का पराजित करने में उत्सुक हो? लाने की चेष्टा में लगता है कि खिलवाड़ नहीं है, हृदय का आविर्भाव, हृदय की अभिव्यंजना तुम्हारा कोई स्वार्थ होगा। है। जो सब तरह से मिटने को तैयार है वही केवल आ पाता है। नहीं, यह बात ही मत करना। वे अगर बहत उत्सक भी हों तो तम, जिसे मैंने किया याद भी टालना। कहना कि ले चलेंगे, जब कभी सुविधा होगी। ऐसी जिससे बंधी मेरी प्रीति जल्दी भी क्या है? तुम हजार बहाने करना कि बहुत कठिन है ले कौन तुम अज्ञात वय-कुल-शील मेरे मीत? चलना। मिलाना बड़ा मुश्किल है। तो शायद...। कर्म की बाधा नहीं तुम लोग बड़ी उलटी खोपड़ी के हैं। अगर उनको कहो मिलाना | तुम नहीं प्रवृत्ति से उपरांत बहुत मुश्किल है तो वे तुम्हारे पीछे पड़ेंगे कि मिला दो, एक दफा कब तुम्हारे हित थमा संघर्ष मेरा? तो मिला दो। कि ले चलना बहुत कठिन है। वे तमसे कहेंगे, कि रुका मेरा काम कभी एक दफा तो ले चलो। तुम उनसे कहो कि चलो, ले चलते तुम्हें धारे हृदय में हैं, तो वे हटेंगे। मैं खुले हाथों सदा दूंगा बाह्य का जो देय आदमी का मन बड़े विपरीत ढंग से चलता है। निषेध करो तो . न ही गिरने तक कहूंगा, तनिक ठहरूं निमंत्रण; निमंत्रण दो तो सोचता है, मतलब क्या है? कोई | क्योंकि मेरा चुक गया पाथेय स्वार्थ होगा। कोई छिपी बात होगी। यह आदमी इतना उत्सुक तुम, जिसे मैंने किया याद क्यों है वहां ले जाने में? जेब तो नहीं काट लेगा रास्ते में! कोई जिससे बंधी मेरी प्रीत तरकीब लगा रहा है। कहीं फंसाने ले जा रहा है। कौन तुम अज्ञात वय-कुल-शील मेरे मीत? नहीं, तुम यह कोशिश ही बंद कर दो। इसलिए तो मैं ऐसी | सदगुरु तो बिलकुल अज्ञात है। जो दिखाई पड़ता है, वह थोड़े कोशिश कर रहा हूं कि यहां मुश्किल से ही लोग आ पाएं। देखते ही! जो तुम्हारे देखने के पार रह जाता है वही। जो सुनाई पड़ता 4900 Jan Education International 2010_03 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है वह थोड़े ही! जो मौन में प्रतीत होता है वही । जिसे तुम देख हो वह तो केवल रूप है, आकार है। जो उस रूप और आकर में छिपा निराकार है । अज्ञात वय-कुल- शील मेरे मीत! ऐसी मित्रता बांधनी बड़ी मुश्किल है। क्योंकि न कुल का पता, न वय का पता । कहां ले जाओगे ? कहां ले चले? कुछ भी पता नहीं । अज्ञात की यात्रा है। जिसे मैंने किया याद तुम, जिससे बंधी मेरी प्रीति और यह बंधन प्रेम का है। यह तर्क का नहीं है। तुम अगर मेरे पास हो और किसी भांति मुझसे बंध गए हो, तो यह बंधन हृदय का है। यह अकारण है। तुम्हें प्रेम हो गया। और जब तक किसी प्रेम न हो जाए, तब तक पास होने की कोई सुविधा नहीं है। तुम, जिसे मैंने किया याद जिससे बंधी मेरी प्रीति कौन तुम अज्ञात वय-कुल- शील मेरे मीत? कर्म की बाधा नहीं तुम तुम नहीं प्रवृत्ति से उपरांत सदगुरु तुम्हें प्रवृत्ति से उपरांत थोड़े ही करता है! सदगुरु तुम्हें तोड़ता थोड़े ही तुम्हारे संसार से ! तुम्हारे संसार में ही तुम्हें नए होने का ढंग देता है। कर्म की बाधा नहीं तुम सदगुरु तुम्हें यह थोड़े ही कहता है, कि छोड़ो-छाड़ो, भागो! भगोड़ा थोड़े ही बनाता! सदगुरु तुम्हें जगाता। वह कहता, ' नहीं, जागो । भागो कर्म की बाधा नहीं तुम तुम नहीं प्रवृत्ति से उपरांत कब तुम्हारे हित थमा संघर्ष मेरा ? रुका मेरा काम तुम्हें धारे हृदय में मैं खुले हाथों सदा दूंगा बाह्य का जो देय न ही गिरने तक कहूंगा, तनिक ठहरूं क्योंकि मेरा चुक गया पाथेय सदगुरु के साथ जाना एक अंतहीन संघर्ष पर जाना है। जहां धीरे-धीरे सब खो जाएगा । पाथेय भी खो जाएगा । कुछ भी न 2010_03 आज लहरों में निमंत्रण ग। तुम भी खो जाओगे । और अंत तक अगर तुमने यह हिम्मत रखी, कि तुमने नहीं कहा कि रुको, ठहरो, यह मैं खोया जा रहा हूं, तो ही तुम पहुंच पाओगे। मिटकर ही कोई पहुंचता है। मरकर ही कोई पाता है। इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि लोग डरते हैं। डरने के कारण अपने आसपास विचार की बागुड़ खड़ी करते हैं। डरने के कारण मुर्दा मंदिरों में, मस्जिदों में पूजा कर लेते हैं। ऐसे मन को समझा लेते हैं कि हम भी धार्मिक हैं। शास्त्र को लेकर बैठ जाते हैं। पढ़ लेते हैं, गुनगुना लेते हैं, पाठ कर लेते हैं। ऐसे मन को भ्रांति दे लेते हैं कि हम कुछ ऐसे ही जीवन नहीं गंवा रहे हैं। गीता पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं, जिन सूत्र पढ़ते हैं । लेकिन तुम जो पढ़ोगे वह तुम्हारा ही अर्थ होगा। महावीर का अर्थ तो तुम महावीर होकर ही जान सकते हो। और कोई उपाय नहीं ! क्योंकि शब्द तो बाहर से आ जाते हैं। अर्थ कहां से लाओगे ? अर्थ तो भीतर से आएगा। इसीलिए तो एक तरफ कहते हो, जिन शासन ही सत्य है । और दूसरी तरफ कहे चले जाते हो, कि और सब मिथ्या है। जिन - शासन का अर्थ ही यही होता है कि यहां पूर्ण मिथ्या कोई भी नहीं ! मिथ्या में भी सत्य है छिपा । तुम मिथ्या - मिथ्या को छोड़ देना। असार असार को त्याग देना, सार-सार को ग्रहण कर लेना। हंसा तो मोती चुगै-चुन लेना मोती । कंकड़-पत्थर तुम्हें क्या लेना-देना? दूसरा प्रश्न : पिछले वर्ष के भीतर आश्रम से बाहर के एक वातावरण में काफी परिवर्तन हुआ है। पहले जो लोग आपके विरोध में बोलते थे, अब वैसा बोलने में न केवल हिचकते हैं बल्कि आपमें उत्सुक भी होने लगे हैं। और चाहते हैं कि कैसे आपके सान्निध्य का लाभ लें? क्या यह संक्रमण की अवस्था है ? और कृपया उपदेश दें कि हम संन्यासियों को इस अवस्था में क्या करना उचित है ? तुम उनकी तरफ ध्यान ही मत देना। तुम उन्हें टालना । वे कहें कि ले चलो, तुम कहना बड़ा कठिन है। तुम जल्दी मत करना | उन्हें आने दो अपने से । ऐसा ही होता है। तीन सीढ़ियां आदमी का चित्त पूरी करता है। 491 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - HAR जिन सूत्र भाग : 2 HEAL पहली—विरोध की। और उस तरफ से कुछ भी उत्तर नहीं आता, कोई प्रतिक्रिया नहीं शुभ लक्षण है कि पहली सीढ़ी पर तो चढ़े। उपेक्षा तो नहीं है। होती। तो कहीं ऐसा तो नहीं है...उसे संदेह पैदा होना शुरू होता उपेक्षा खतरनाक है। मेरे पास वे लोग कभी न आ पाएंगे, है। अपने पर संदेह होना शुरू होता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिनकी मेरी तरफ उपेक्षा है। अगर विरोध कर रहे हैं तो चल हम व्यर्थ ही विरोध कर रहे हैं या हमारा विरोध गलत है! पड़े। कहां जाएंगे। रस लेने लगे। मेरी तरफ ध्यान उनका पड़ने यह सीढ़ी आदमी खुद ही पार कर सकता है। दूसरे जबर्दस्ती लगा। मित्रता बनने लगी। तुम फिन छोड़ो। किसी को चढ़ा नहीं सकते। वह दूसरे पर खड़ा हो जाता है। अब तुम उन्हें विरोध करने दो। विरोध का मतलब ही इतना है कि उसकी जिज्ञासा उठनी शुरू होती है। कुतूहल पैदा होता है कि उन्हें मुझमें खतरा दिखाई पड़ने लगा। विरोध का मतलब ही जाएं, जरा पास से देखें, मामला क्या है! हमारा विरोध सही है | इतना है कि उन्हें मुझमें आकर्षण मालूम होने लगा। अन्यथा या गलत है ? कौन किसका विरोध करता है? क्या लेना-देना है ? विरोध हम | अपने पर संदेह आ गया तो मुझ पर श्रद्धा की तरफ एक कदम उसी का करते हैं, जहां खतरा है, जहां बुलावा है। जहां लगता है और उठा। मुझ पर श्रद्धा आने के पहले अपने पर संदेह आना कि अगर विरोध नहीं किया तो खिंचे चले जाएंगे। जरूरी है। इसलिए तो मैं कहता हूं, मेरी तरफ उन्मुख होने के तो रुक रहे हैं। रुकने के लिए विरोध कर रहे हैं। विरोध वे मेरा लिए अपने से विमुख होना जरूरी है। नहीं कर रहे हैं। अपने आकर्षण के लिए बाधा खड़ी करने के अब यह दूसरी सीढ़ी में लोग...काफी लोग हैं। तुम उनको लिए कर रहे हैं। शुभ लक्षण है। इससे चिंतित होने की कोई भी अभी खींचने की कोशिश मत करना, अन्यथा वे फिर पहली जरूरत नहीं है। सीढ़ी पर उतर जाएंगे। अगर तुमने खींचा तो उन्हें फिर अपने पर मेरे पास कभी-कभी संन्यासी आ जाते हैं। वे कहते हैं, फलां भरोसा आ जाएगा कि अरे, हम भी कहां जाल में फंसे जाते थे! आदमी आपका बड़ा विरोध करता है, जाएं, उसे समझाएं? मैंने वे फिर पहली सीढ़ी पर खड़े होकर विरोध करने लगेंगे। तम कहा, पागल हुए हो? किसी तरह वह उत्सुक हुआ, अब तुम फिक्र ही मत करना। उसे समझाने जा रहे हो। बामुश्किल तो उत्सुक हुआ है मुझमें मेरे संन्यासी को तो ऐसे जीना चाहिए जैसे संसार में कोई और और तुम अब समझाने की कोशिश कर रहे हो? ये चाहते हैं कि है ही नहीं। मैं हूं और तुम हो। मेरे और तुम्हारे बीच संसार है। समझा-बुझा दें, विरोध न करे। विरोध न करे तो वह मुझसे टूट तुम विस्मरण कर दो इस सब को कि कौन क्या कह रहा है. कौन गया। जुड़ गया, तुम फिक्र मत करो। उसका विरोध ही उसे आना चाह रहा है, कौन उत्सुक हुआ, कौन विरोध कर रहा है। खींच लाएगा। यह तो चलता ही रहेगा। कुछ लोग पहली सीढ़ी पर रहेंगे, कुछ विरोध भी मित्रता का एक ढंग है। विरोध भी आकर्षण का एक लोग दूसरी सीढ़ी पर रहेंगे। रूप है। जब विरोध धीरे-धीरे, धीरे-धीरे करते-करते व्यर्थ हो तुम जब कोई ध्यान ही न दोगे, तब उन्हें और भी हैरानी होगी। जाता है...क्योंकि विरोध से कुछ भी मिलता तो नहीं। कब तक | तब उन्हें तुम पर भी कुतूहल पैदा होगा। मेरी तो बात ही उनके खींचोगे? आदमी आकाश पर कब तक थूकता रहेगा? क्योंकि मन से दूर रहेगी, तुम भी कुतूहल जगाने लगे। वे तुममें भी सब थूका हुआ अपने ही चेहरे पर वापस पड़ जाता है। इसमें उत्सुक हो जाएंगे। और जब वे तुममें उत्सुक होंगे तभी उनके सार क्या है? आज नहीं कल दिखाई पड़ेगा, यह मैं क्या कर रहा आने का रास्ता बनता है। हूं? इसमें कुछ सार नहीं। व्यर्थ भौंक रहा हूं। व्यर्थ तो पहली सीढ़ी: विरोध की। दूसरी सीढ़ी : जिज्ञासा की, चीख-चिल्ला रहा हूं। कुतूहल की। और तीसरी सीढ़ी : श्रद्धा की। मेरी तरफ से न तो कोई उत्तर है, न समझाने की कोई कोशिश | | जिसने विरोध किया वह मेरे लिए श्रद्धा की तरफ चल पड़ा। है। तो वह आदमी धीरे-धीरे दूसरी सीढ़ी पर चढ़ता है। तब वह उसे पता न हो—मैं प्रसन्न होता हूं कि चलो, विरोध तो किया। उत्सुक होता है कि मामला क्या है? हम विरोध किए जा रहे हैं अब जल्दी कुतूहल भी होगा, उत्सुकता जगेगी। फिर कभी श्रद्धा 492 2010_03 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O आज लहरों में निमंत्रण FRI भी आ जाएगी। जब पहला कदम उठा लिया तो तीसरा भी उठ करता है। ही जाएगा। कम से कम आदमी चला तो। एक-एक पैर वह आदमी बैलगाड़ी में चलता था, तुम फिएट कार में चलते चलकर आदमी हजार मील की यात्रा कर लेता है। यह तो केवल हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? वह आदमी जमीन पर बैठकर तीन कदम का मामला है। खाना खाता था, तुम टेबल-कुर्सी पर खाते हो, इससे क्या फर्क मगर तुम जल्दबाजी मत करना। तुम्हारे कारण बहुत बार पड़ता है? वह आदमी हाथ से खाना खाता था, तुम बहुत-से लोग मेरे पास नहीं आ पाते। और तुम पूरी चेष्टा करते चम्मच-कांटे से खाते हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? भीतर हो लाने की। कभी तुम उनको खींच-खांचकर ले भी आते हो तो तुम्हारी अंतरात्मा तो ठीक वैसी की वैसी है, जैसी उस आदमी की वे अकड़े बैठे रहते हैं। यहां मैं देख लेता हूं उनको कि वह अकड़ा | थी। आदमी वैसा का वैसा है। आदमी का अब कोई विकास कौन आदमी बैठा हुआ है। वह रक्षा करता रहता है अपनी। वह नहीं हो रहा है। प्रकृति जहां तक ले आ सकती थी, ले आयी। यह सिद्ध करने में लगा है कि तुम गलत हो। वह तुमसे झगड़े में | अब आदमी को विकास अपने हाथ में लेना होगा, तो विकास लगा है। उसे मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह मुझे सुनता भी होगा। अब क्रांति होगी, विकास नहीं होगा। अब तो वे ही नहीं है, या कुछ का कुछ सुन लेता है, ताकि बाहर जाकर वह लोग, जो अपने जीवन की प्रक्रिया को समझकर उठना चाहेंगे, कह सके कि हमने पहले ही कहा था कि कहां गलत आदमी में | अतिक्रमण करना चाहेंगे, उठेंगे। तुम उलझे हो! और हमारा भी समय खराब करवाया। तो बीस सदी पहले भी उठे, अब भी उठ सकते हैं। जिनको नहीं, तुम किसी को लाना ही मत। तुम आते जाओ। तुम्हारे | नहीं उठना, नहीं उठना चाहते, वे बीस सदी पहले सोए थे, अब आने से जो पगडंडी बन रही है, वह बहुत लोगों के लिए रास्ता | भी सोते रहेंगे। और तुम जबर्दस्ती किसी की नींद तोड़ने की बनेगी। बस तुम आते जाओ। तुम आते-जाते रहो। तुम्हारे | कोशिश मत करना, क्योंकि वह नाराज होगा। फिर हमें हक भी आने-जाने से जो जंगल में रास्ता बन रहा है उस रास्ते पर बहुत क्या है? कोई सोना चाहता है तो कम से कम इतनी स्वतंत्रता तो लोग आएंगे। होनी ही चाहिए कि सोता रहे। तुम बैंडबाजे लेकर रामधुन मत मगर तुम खींचकर किसी को कभी मत लाना। आदमी पशु | मचा देना चार बजे रात माइक लगाकर, ताकि सभी लोग जगें थोडे ही है कि गले में डाल दिया रस्सा और खींच लिया। आदमी ब्रह्ममहर्त में। वे सब गाली देंगे। तमको देंगे, राम को भी देंगे, अपनी मौज से आए तो ही आता है। आदमी नाचता हआ आए कि कहां के दुष्ट! सोने नहीं देते। तो ही आता है। जबर्दस्ती धर्म को लाने का कोई उपाय ही नहीं है। अगर कोई सो रहा हो तो आहिस्ता से चुपचाप निकलना, ताकि कहीं जग न तीसरा प्रश्नः पच्चीस सौ वर्ष पहले महावीर ने प्रचलित जाए। उसको नींद लेने का हक है। आदमी को भटकने का हक अंधविश्वासों पर प्रहार करके सदधर्म का तीर्थ बनाया। आज है। यह आदमी की स्वतंत्रता है कि वह संसार में रहना चाहे तो आप भी उसी दिशा में गमन कर रहे हैं, फिर भी अंधश्रद्धालुओं रहे। जब तक रहना चाहे, तब तक रहे। में जाग नहीं आ रही। बीसवीं सदी में भी लोग इतने कायर क्यों परमात्मा भी बाधा नहीं डालता। प्रकृति को बनाए कितना हैं? और उनमें मिथ्या गरुओं का इतना आकर्षण क्यों है? समय हुआ होगा अगर कभी किसी ने बनाई। वह भी थक गया होगा कि लोग अभी तक भटक ही रहे हैं। अब इनको बुला जागने का कोई संबंध सदी से नहीं है, समय से नहीं है। ही लो। कि जाकर पकड़ लाओ एक-एक को। मगर नहीं, आदमी सदा जैसा है। मकान बदल गए, रास्ते बदल गए, कपड़े परमात्मा स्वतंत्रता देता है। अनंत काल तक तुम स्वतंत्र हो।। बदल गए, आदमी की आत्मा थोड़े ही बदल गई है। और यही मजा है, महिमा है कि स्वतंत्रता के कारण ही एक आदमी वैसा ही क्रोध करता है, वैसा ही प्रेम करता है, वैसी ही दिन तुम इस संसार से मुक्त होना चाहते हो। ईर्ष्या करता है, द्वेष करता है। जैसा तब करता था, वैसा अब | तुम अगर अभी नींद से ऊबे नहीं, तो तुम्हें जगाने से भी क्या 493 ___ 2010_03 www.jainelibra y.org Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 होगा? तुम फिर करवट लेकर सो जाओगे। तुम अगर नींद से ...मिथ्या गुरुजनों का इतना आकर्षण क्यों है?' अभी ऊबे नहीं और सपनों में तुम्हें रस है तो कोई तुम्हें जबर्दस्ती सदा से रहा है। बड़े गहरे कारण हैं। क्योंकि मिथ्या गुरु एक बिठा भी दे तो तुम बैठकर ही आंखें बंद करके सो जाओगे और तो तुम्हें मिटाता नहीं, तुम्हें सजाता है, संवारता है। मिथ्या गुरु नींद लेने लगोगे। तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति नहीं लाता, तुम्हारे जीवन में थोड़ी नहीं, जबर्दस्ती कोई उपाय नहीं है। यह करना ही मत। और सुविधा लाता है। तुम बीमार हो तो मिथ्या गुरु कहता है, इसकी चिंता भी मत लेना। तुम जग जाओ, इतना काफी है। घबड़ाओ मत। यह देखो चमत्कार से राख हाथ से गिर रही है, और तुम अपने ध्यान को इस तरह बांटो भी मत। | इसको सम्हाल लो। ठीक हो जाओगे। 'बीसवीं सदी में भी लोग इतने कायर क्यों हैं?' वह तुम्हारी बीमारी ठीक करता है। होती है बीमारी ठीक कि आदमी सदा से कायर है। और स्वभावतः कायर है क्योंकि नहीं यह दूसरी बात है। मगर कम से कम तुम्हें भरोसा तो देता मौत सदा खड़ी है सामने। आदमी डरे न तो क्या करे? मौत है। चलो तीन महीने तक तो भरोसा रहेगा कि तीन महीने बाद डराती है। प्रेम डराता है क्योंकि प्रेम भी मौत है। गुरु डराता है ठीक हो जाएगी। और नहीं हुई तो कोई हर्जा नहीं। हो गई तो क्योंकि गुरु भी मौत है। घबड़ाहट होती है। बड़ा लाभ है। दया करो आदमी पर। सब तरफ से मौत घेरे हुए है। जहां तुम बैठ जाओ बाजार में और बांटने लगो राख। सौ मरीज जाता है. वहीं मांग है कि मिटो। तो अपने को बचाने की चेष्टा आएंगे, पचास तो ठीक होंगे ही। सभी तो मर जानेवाले नहीं हैं। कर रहा है। कमजोर, असहाय आदमी! और सबसे बड़ी मौत जो पचास ठीक हो जाएंगे, वे तुम्हारा गुणगान करेंगे कि महापुरुष सदगुरु के पास घटती है। वहां अहंकार बिलकुल ही विसर्जित है, सत्य साईंबाबा है। ये रहे सत्य साईंबाबा! ठीक हो गए। जो होता है, राख हो जाता है। | ठीक नहीं हुए वे किसी दूसरे सत्य साईंबाबा को खोजेंगे। जो तो स्वाभाविक है डर। आदमी सदा से कायर है क्योंकि मौत | ठीक हो गए वही तुम्हारे इर्द-गिर्द इकट्ठे होने लगेंगे। वे गुणगान सदा से मौजूद है। कोई ऐसा थोड़े ही है कि पहले मौजूद थी, करेंगे। और उनके गुणगान का भी कारण है, वे ठीक हो गए। वे बीसवीं सदी में मौजूद नहीं है। कोई सदियों से थोड़े ही फर्क झूठ भी नहीं कह रहे। पड़ता है। अब मजा यह है कि आदमी की सौ बीमारियों में से पचास जीवन के वास्तविक प्रश्न सदा वही के वही हैं। ऊपर की | बीमारियां झूठ हैं। हैं ही नहीं; सिर्फ उसे खयाल है। इसलिए छोटी-मोटी बातें बदलती हैं। आधारभूत नियम नहीं बदलते। | झूठी दवाइयां भी काम आती हैं। बीमारियां ही झूठ हैं तो झूठी आज से दो हजार साल पहले तुम्हारे गांव में जिसके पास | दवाइयां काम आ जाती हैं। डाक्टर पानी का इंजेक्शन दे देता है, बढ़िया बैलगाड़ी होती, दूर तक भागनेवाले छकड़े होते, शानदार | तुम बिलकुल ठीक हो जाते हो। घोड़ा होता, उससे तुम्हारी ईर्ष्या थी। अब तुम्हारी ईर्ष्या उससे है, कभी तुमने खयाल किया? डाक्टर तुम्हें देखने आता है, नब्ज जिसके पास फिएट कार है। बात वही की वही है। इससे क्या वगैरह देखता है, स्टेथस्कोप सीने पर लगाता है, उसी बीच तुम फर्क पड़ता है कि घोड़े से ईर्ष्या थी, कि अब कार से ईर्ष्या है! ठीक होने लगते हो। तुमने खयाल किया इस बात का? पर कल हो सकता है हवाई जहाज लोगों के पास हो जाएंगे। हर डाक्टर जरा बड़ा होना चाहिए और फीस काफी होनी चाहिए। आदमी अपनी छत पर अपना हवाई जहाज रख लेगा। तब तुम्हें मुफ्त आ जाए डाक्टर, तो फायदा नहीं होता। जितनी ज्यादा उससे ईर्ष्या होगी कि जिसके पास हवाई जहाज है, वह कुछ मजा फीस ले, उतना फायदा होता है। फीस दवा से भी ज्यादा काम लूट रहा है, मैं चूका जा रहा हूं। करती है। क्योंकि उतना बड़ा डाक्टर! अब तुम्हें बीमार रहने की लेकिन ईर्ष्या तो वही है। जीवन को ठीक से देखो तो समय से | सुविधा ही नहीं रह जाती। इतना बड़ा प्रामाणिक डाक्टर आया, कोई अंतर नहीं पड़ता, अंतर तो सिर्फ ध्यान से पड़ता है। नहीं तो ठीक होना निश्चित ही है। उस ठीक होने की धारणा से तुम ठीक हम एक ही चाक में कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहते हैं। होते हो। 494 2010_03 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज लहरों में निमंत्रण । जब तुम देखते हो कि हजारों लोग कह रहे हैं कि फलाने बाबा चमत्कार हो जाए। आदमी दुख की अवस्था में सब तरह की की राख से ठीक हो गए, तो तुम भी धक्कम-धुक्का खाकर भीड़ | बातों पर भरोसा करने लगता है। होशियार से होशियार में इकट्ठे हो जाते हो। राख तुम्हें मिल गई-मिलते ही तुम ठीक करने लगता है। होने लगते हो। तुम्हारी बीमारी झूठ। और उसी झूठी बीमारी को | और वे वैज्ञानिकों के सामने बंगलोर विश्वविद्यालय के, ठीक करने में तुम लगे हो इसलिए मिथ्या गुरु को खोजते हो। अपना प्रदर्शन बताने को राजी नहीं हैं क्योंकि डर है कि पकड़े अभी बंगलोर विश्वविद्यालय ने सत्य साईंबाबा को पत्र लिखा जाएंगे। क्योंकि यह भभूत, और ये घड़ियां और ये ताबीज, यह कि हम खोज करना चाहते हैं। वे जवाब भी नहीं देते पत्रों का। सब मदारीगिरी है। इससे कुछ लेना-देना धर्म का नहीं है। उल्टे उन्होंने यह वक्तव्य दिया कि तुम अपना काम करो, हम | लेकिन एक बात मैं बंगलोर विश्वविद्यालय के कुलपति को सपना काम करें। बीच में बाधा क्यों डालते हो? यह तो ऐसा | कहना चाहता है कि अगर तुम ठीक कमेटी बनाना चाहते हो हआ कि चोर भी कहने लगे कि हम अपना काम करते हैं, | निरीक्षण के लिए तो वैज्ञानिक योग्य आदमी नहीं है। क्योंकि साहकार अपना काम करें, बीच में बाधा क्यों डालते हो? जो वैज्ञानिकों को मदारीगिरी का कोई भी पता नहीं है। उस कमेटी में मेडिकल कालेज से पढ़कर आया छह साल, वह भी तख्ती कम से कम दो मदारी जरूर रखो। गोगिया पाशा, के. लाल, लगाकर बैठा है, उसके सामने बड़ा तख्ता लगा है। कोई इनको रखो। नहीं तो तुम न पकड़ पाओगे। पश्चिम में कई दफा | नीम-हकीम बैठ जाए, वह कहे, तुम अपना काम करो, अपना यह हो गया। मदारी को ही नहीं पकड़ सकते। काम हम करें, बीच में बाधा क्यों डालते हो? । क्योंकि आखिर...वैज्ञानिक का लेना-देना क्या है मदारी से? बाधा डालनी पड़ेगी। क्योंकि सत्य साईंबाबा के कारण हजारों वैज्ञानिक को पता क्या है तरकीबों का ? वैज्ञानिक सरलतम लोग लोग मर रहे हैं, जिनका इलाज हो सकता था। जिनको लाभ हो हैं दुनिया के। सीधे-सादे लोग हैं, गणित की दुनिया में जीते रहा है, उनको तो लाभ किसी भी चीज से हो जाता। लेकिन हैं—दो और दो चार। वैज्ञानिक को लूटना जितना आसान है, हजारों लोग मर रहे हैं। कोई कैंसर का आदमी पहुंच जाता है | उतना किसी को भी लूटना आसान नहीं है। और वैज्ञानिक को और वे कहते हैं, बस ठीक हो जाओगे। तो वह आपरेशन नहीं | जितनी आसानी से धोखा दिया जा सकता है, किसी को भी नहीं करवाता, इलाज नहीं करवाता क्योंकि अब...ठीक हो जाएगा। | दिया जा सकता। वह मर जाता है। और मजा यह है कि जब तम वैज्ञानिक को धोखा दे दो, तो तम्हें यह तो खतरनाक बात है। यह तो इसमें और हत्या करने में प्रमाण मिल गया कि देखो, वैज्ञानिकों ने भी कह दिया। मगर | फर्क ही नहीं है। मैं तम्हारी आकर छाती में छरा भोंक दं, तो तुम वैज्ञानिक का मतलब क्या है? मरोगे। और तुम मेरे पास कैंसर लेकर आए और मैंने कहा, यह तो ऐसा हआ कि जैसे एक दांत का डाक्टर है, और तुम बिलकुल फिक्र मत करो। यह राख ले जाओ, सब ठीक हो आंख का डाक्टर कुछ गड़बड़ कर रहा है, उसके निरीक्षण के जाएगा। और तुम मर गए तीन महीने बाद। हालांकि कोई लिए दांत के डाक्टर को लगा दो।. अदालत मुझे पकड़ेगी नहीं, लेकिन पकड़ना चाहिए। क्योंकि | इससे लेना-देना कुछ नहीं है। आंख के संबंध में वह कुछ मरे तुम मेरे कारण। यह छुरा मैंने मारा। बड़ी तरकीब से मारा, जानता नहीं है। आंख के डाक्टर को पकड़ना हो कि ठीक है कि | राख की आड़ में मारा। गलत, तो आंख के डाक्टर होने चाहिए। तो यह तो कहना गलत है साईंबाबा का, कि किसी को हमारे | तो इतना भर मेरा कहना है कि उनकी कमेटी में अभी ठीक काम में बाधा डालने का क्या कारण? लाखों लोग तुम मार रहे | आदमी नहीं हैं। कमेटी में कोई फिलासफी का हो, खराब कर रहे हो। उनकी जिंदगी बरबाद कर रहे हो। मगर लेना-देना है फिलासफी के प्रोफेसर को? भोले-भाले लोग हैं। वे लाखों लोग आए चले जा रहे हैं क्योंकि उनको आशा है कि नहीं तो फिलासफी के प्रोफेसर बनते? इस भरी दुनिया में यह शायद ठीक हो जाएं। शायद कोई रास्ता मिल जाए। शायद कोई | गधापन करते? कोई तर्कशास्त्र के प्रोफेसर हैं; उनको क्या 4951 ___ 2010_03 www.jainelibra y.org Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 लेना-देना! या कोई संस्कृत का ज्ञाता है; उसे क्या लेना-देना डाक्टर को अपनी सीमा पता है। डाक्टर को पता है कि हम सब है? न! गोगिया पाशा, के. लाल इनको रखो। ये फौरन पकड़ | उपाय करें, फिर भी कभी आदमी मर जाता है। लेंगे। क्योंकि जो साईंबाबा कर रहे हैं, वह ये सब कर रहे हैं। जीवन के रहस्य डाक्टर के ज्ञान से ज्यादा बड़े हैं। और उनसे बहुत बेहतर कर रहे हैं। बिना इनको रखे वह कमेटी अधूरी कभी-कभी हम कोई भी उपाय न करें तो भी आदमी बच जाता है। और साईंबाबा प्रदर्शन करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने जो है। जीवन और मृत्यु, हम जो जानते हैं उतने पर समाप्त नहीं हैं। वक्तव्य दिया उसमें यह कहा कि मैं तो यह सब चमत्कार तो डाक्टर तो झिझकता है। वह कहता है, हम कोशिश इसलिए कर रहा हूं कि लोगों में धर्म की श्रद्धा बढ़े। करेंगे। हम कुछ भी उठा न रखेंगे। लेकिन फिर भी बात तो तो मैं उनसे कहना चाहता हूं कि अगर धर्म की श्रद्धा बढ़ाने के परमात्मा के हाथ में है। हो गए ठीक तो ठीक। क्योंकि अंततः तो लिए ही कर रहे हो तो इससे अच्छा मौका क्या होगा? इस वही ठीक करेगा तो हो जाओगे। अगर बचने की जीवन-ऊर्जा कमेटी को निरीक्षण कर लेने दो। अगर इस कमेटी ने प्रमाण दे होगी भीतर, तो ठीक हो जाओगे। हम तो सहारे दे सकते हैं। दिया कि तम सही हो, तो बड़ी श्रद्धा बढ़ेगी। और अगर इस | शायद थोड़ा बहुत सहारा बन जाए। कमेटी ने सिद्ध कर दिया कि तुम गलत हो तो इस गलत के | इससे भरोसा नहीं आता। जो कैंसर से मर रहा है वह आधार पर सही श्रद्धा बढ़ कैसे सकती है? | प्रामाणिक रूप से सुनना चाहता है कि निश्चित तुम ठीक हो हर हालत में लाभ होगा। इससे बचो मत। इससे भागो मत। जाओगे। इस कहने से ठीक होगा या नहीं होगा, यह सवाल नहीं लेकिन वे घबड़ा रहे होंगे। घबड़ाहट स्वाभाविक है। साधारण है। यह सुनने से उसको राहत मिलती है, सांत्वना मिलती है। मदारी जो कर रहे हैं वही वे कर रहे हैं। लेकिन साधारण मदारी साईंबाबा के पास जाता है, वे कहते हैं बिलकुल ठीक हो ईमानदार है। वह कहता है, हाथ की तरकीब है। ये जो धार्मिक जाओगे। कोई घबड़ाने की जरूरत नहीं है। मदारी हैं, ये कहते हैं यह सिद्धि है। और फिर अगर साधारण डब्बे में से राख निकालकर दें तो सिद्धि वगैरह कुछ भी नहीं है। लेकिन आदमी इस जाल में ज्यादा परिणाम नहीं मालूम होता। हवा में हाथ घुमाकर राख पड़ता है। पड़ता इसलिए है कि आदमी बड़ा असहाय है। अब निकाल दी। इससे उस कैंसर से घबड़ाए हुआ आदमी को लगता किसी को कैंसर हो गया। अब वह घबड़ाया, कि मरे! अब है कि है तो आदमी चमत्कारी। हवा से राख निकाल देता है। बचने की कोई आशा न रही। अगर वह डाक्टर के पास जाता है | कहीं हवा से राख नहीं निकलती। सब राख छिपी हुई है, वहां तो डाक्टर भी कोई धोखेबाज तो नहीं है। वह महावीर की भाषा | से निकलती है। लेकिन उस आदमी को तो दिखाई पड़ता है कि बोलता है डाक्टर। वह कहता है, स्यात ठीक हो जाओ। कोई | हवा से निकाल दी। तो जो आदमी इतना चमत्कारी है उसके निर्णय तो नहीं है, गारंटी तो नहीं है कि हम तुम्हें ठीक कर देंगे। | वचन में भरोसा करने जैसा है। यह आदमी भरोसा कर लेता है। हम कोई....हमारे हाथ में कोई जीवन-मृत्यु तो नहीं है। डाक्टर | इसको सांत्वना मिल गई। कहता है, हम उपाय करेंगे। जो भी श्रेष्ठतम हो सकता है, हम | अब इसने अगर भरोसा कर लिया तो सांत्वना तो जरूर मिल करेंगे। कभी-कभी लोग बच भी जाते हैं, कभी-कभी लोग नहीं गई, लेकिन सांत्वना से थोड़े ही कैंसर ठीक होता है। यह भी बचते। | मरेगा। हालांकि सुखपूर्वक मरेगा। तीन महीने परेशान नहीं तो डाक्टर तो महावीर की भाषा बोल रहा है। वह कहता है, होगा, लेकिन मरेगा। साईंबाबा के कारण इसका मरना निश्चित शायद ठीक हो जाओ। हम कोई उपाय न छोड़ेंगे। लेकिन मरीज हो गया। डाक्टर के साथ संभावना थी, बच भी जाता। न भी घबडाता है कि स्यात...? जब डाक्टर कह रहा है स्यात. तब बचता, लेकिन बचने की भी पचास प्रतिशत संभावना थी। तो बड़ी मुश्किल हो गई। डाक्टर से तो निश्चय सुनने आए थे सत्य साईंबाबा के साथ सौ प्रतिशत बचने की आशा और सौ कि निश्चित ठीक हो जाओगे। कोई डाक्टर ऐसा नहीं कह प्रतिशत न बचने की स्थिति है। अगर बच गया तो तभी बच सकता, क्योंकि कोई डाक्टर इतना बेईमान नहीं हो सकता। सकता है, जब कैंसर झूठा रहा हो। अगर झूठा कैंसर था तो 1496 2010_03 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज लहरों में निमंत्रण डाक्टर तो बचा ही लेता। उसमें कोई अड़चन ही न थी। इसलिए छुटकारा हो जाता है। लाभ कुछ भी नहीं हो रहा। अगर खयाल भर था...। कभी-कभी झूठे खयाल हो जाते हैं। किसी आदमी को पेट में चौथा प्रश्न: मुझे गरज किसी से न वास्ता गैस बनती है। गैस के भर जाने से हृदय की धड़कन बढ़ जाती मझे काम अपने ही काम से है। वह सोचता है, हार्ट-अटैक हो गया। कुछ मालूम नहीं है। तेरे जिक्र से, तेरी फिक्र से एनिमा काफी होगा। और न भी एनिमा ले तो भी पेट की गैस तेरी याद से, तेरे नाम से निकल जाएगी। तो यह आदमी तो ठीक हो जाएगा। कुछ लोगों को बिलकुल काल्पनिक और मानसिक बीमारियां ऐसा हो जाए, ऐसी बन पड़े बात तो जीवन में जो पाने योग्य होती हैं। वे सोचते हैं तो हो जाती हैं। भाव कर लेते हैं तो हो | जाती हैं। वस्तुतः नहीं हैं। तो कोई भी उनको भरोसा दिला दे कि तेरे जिक्र से, तेरी फिक्र से ठीक हो जाएगा, तो ठीक हो जाते हैं। इसलिए दुनिया में बहुत तेरी याद से, तेरे नाम से धोखाधड़ी की सुविधा है, चलती है। परमात्मा ऐसा तुम्हें घेर ले उठने-बैठने में, सोने जागने में। मिथ्या गुरु की तलाश में तुम जाते हो क्योंकि तलाश अभी जिसे तुम देखो, उसमें वही दिखाई पड़े। जो तुम करो, उसमें उसी मिथ्या चीजों की है। शरीर ठीक भी हो गया तो क्या फर्क पड़ने की सेवा हो, तो पा लिया जीवन का गंतव्य। वाला है? मरोगे! चार दिन पहले मरे कि चार दिन बाद मरे, फिर तुम्हें कहीं और जाने की जरूरत नहीं। तुमने यहीं पा लिया क्या फर्क पड़ता है? मुकदमा जीत गए तो भी मरोगे। जीते-हारे उसे। उसकी याद उसके आने का ढंग है। उसका जिक्र उसके कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मुकदमा जीतना चाहते हो। उतर आने की व्यवस्था है। तुमने सीढ़ियां लगा दीं। तुमने मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, बस आप आशीर्वाद दे पलक-पांवडे बिछा दिए। तम याद करे जाओ, वह आ ही दें। मैं कहता हूं किसलिए? वे कहते, आपको तो सब पता ही जाएगा। तुम थको मत। तुम अथक याद किए जाओ। है। आप तो आशीर्वाद दे दें। तुम बोलो भी तो, कि किसलिए? रिंदों के लिए मंजिले-राहत है यहीं वे कहते हैं, मुकदमा है अदालत में। मैंने कहा, तुम मुझे फंसा रहे | मयखाना-ए-पुर-कैफ मसर्रत है यहीं हो। चोरी तुम करो, फंसो तुम, आशीर्वाद मेरा। मेरा इसमें क्या पीकर तो जरा सैर-ए-जहां की कर ऐ शेख हाथ है? तू ढूंढता है जिसको वह जन्नत है यहीं पर वे कहते हैं, और गुरुओं के पास जाते हैं, वे तो आशीर्वाद दे रिंदों के लिए मंजिले-राहत है यहीं—पियक्कड़ों के लिए कहीं देते हैं। वे तो पूछते ही नहीं। वे वे जानें। मैं तुम्हें ऐसा आशीर्वाद और जाने की जरूरत नहीं है। जिन्होंने उसके प्याले को पीना नहीं दे सकता। मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि अगर तुमने सीख लिया, उसका जिक्र, उसकी फिक्र, उसका नाम। जिन्होंने चोरी की हो तो जरूर तुमको सजा मिले। अगर न की हो तो तुम उसकी शराब ढाल ली उन्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं। निश्चित छूट जाओ, ऐसी मेरी शुभकामना। मैं आशीर्वाद यह रिंदों के लिए मंजिले-राहत है यहीं नहीं दे सकता कि तुम मुकदमा जीत जाओगे। क्योंकि यह तो उनके पास खुद मंजिल चली आती है। उठकर एक कदम भी बात ही गलत हो गई। ये तो चोर भी चोर हए और साधु भी उनके नहीं चलना पड़ता। साथ सम्मिलित हुए। परमात्मा को खोजना नहीं पड़ता, परमात्मा उन्हें खोजता आता मिथ्या गुरु की इसलिए तलाश चलती है क्योंकि मिथ्या गुरु | है। बस, याद भर तुम ठीक से कर पाओ। तुम्हारी याद बीज बन कोई खास काम पूरा कर रहा है, जो कि सदगुरु नहीं कर सकता। जाती है। अंकुरित होता है परमात्मा, फूल खिलते हैं मोक्ष के। तो जब तुम्हारे भीतर से व्यर्थ की चीजों का आकर्षण जाएगा, मयखाना-ए-पुर-कैफ मसर्रत है यहीं व्यर्थ की वासना गिरेगी, उसी क्षण व्यर्थ के गुरुओं से भी उनकी मधुशाला भी यहीं है। मधुशाला का आनंद भी यहीं है। 497 ___ 2010_03 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 पीकर तो जरा सैर-ए-जहां की कर ऐ शेख हटाकर रख दो। मंदिर-मस्जिद को भूलो। फिर जहां तुमने जिक्र हे धर्मगुरु ! जरा पीकर, मतवाला होकर, मस्त होकर, नाचता, किया उसका और जहां उसकी याद की, वहीं मंदिर है। फिर तुम दीवाना होकर जरा दुनिया की सैर कर। चलोगे तो तीर्थ बनने लगेंगे। तुम्हारे कदम-कदम पर तीर्थ बनने तू ढूंढता है जिसको वह जन्नत है यहीं लगेंगे। लेकिन यह हो जाए। यह आसान नहीं है। वह स्वर्ग यहीं है। वह मतवाले के पैर-पैर पर है। जहां मस्त ऐसा ही आशीर्वाद मैं दे सकता है। ऐसा आशीर्वाद मांगो तो बैठ गए वहीं स्वर्ग है। काश! यह हो जाए। उसका ध्यान ही | कुछ मांगा। यह हो सकता है लेकिन होना आसान नहीं है। यह तब आता है, उसकी याद ही तब आती है, जब उसने किसी तरह जगत में सबसे ज्यादा दुर्गम है। क्योंकि हमारा मन ऐसा आदी हो तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ा दिया। गया है व्यर्थ की बातों को याद करने का, कि बैठते हैं परमात्मा फिर तेरे कूचे को जाता है खयाल को याद करने, न मालूम और और, न मालूम क्या-क्या याद आ दिले-गुमगस्ता मगर याद आया। जाता है। मेरा ध्यान फिर तेरी गली की तरफ खिंच रहा है। लगता है मुझे इसलिए मेरी दृष्टि में तो रास्ता ऐसा है कि तुम परमात्मा की फिर मेरे दिल की स्मति हो आयी। | याद को, और और चीजों की याद को, दुश्मन मत समझना, उसकी पुकार तुम्हारी ही अंतर्तम की पुकार है। अगर तुम्हें | अन्यथा मुश्किल में पड़ोगे। तुम तो ऐसा करना कि सभी चीजों उसकी याद आने लगी तो अपनी ही याद आ रही है। वह कोई को परमात्मा ही मान लेना। तो पत्नी की भी याद आए तो तुम पराया थोड़े ही है! वह कोई दूसरा थोड़े ही है, दूजा थोड़े ही है! | याद रखना कि परमात्मा की ही याद आ रही है। आखिर वह भी फिर तेरे कूचे को जाता है खयाल तो परमात्मा का ही रूप है। अपने बेटे की भी याद आए तो याद दिले-गुमगस्ता मगर याद आया रखना, परमात्मा की ही याद आ रही है। जब तक उसकी याद नहीं, तब तक तुम्हें अपनी भी याद नहीं तम बेटे में और परमात्मा में, पत्नी में और परमात्मा में, पति होगी। में, परमात्मा में किसी तरह का संघर्ष खड़ा मत करना। अन्यथा फिर बेखुदी में भूल गया राहे-कूए-यार मुश्किल में पड़ोगे। तुम्हें तो जो भी याद आए उसी में तुम जाता वगरना एक दिन अपनी खबर को मैं परमात्मा की याद को मान लेना। धीरे-धीरे तुम पाओगे, सब बेहोशी में मंजिल का पता ही भूल गए। प्रेमी का घर ही भूल विरोध समाप्त हो गए। जो शक्ल दिखाई पड़ेगी उसमें तुम उसी की ज्योति देख पाओगे, किसी भी आंख में झांको, तुम्हें उस फिर बेखुदी में भूल गया राहे-कूए-यार आंख में उसी का प्रतिबिंब मिलेगा। झीलें हजार हैं, चांद एक उस प्रीतम का निवास कहां? बेहोशी में यही याद न रहा। है। सभी झीलों में उस चांद का प्रतिबिंब बनता है। बहुत रूप में ध्यान के अभाव में यह भी स्मृति न रही। परमात्मा प्रगट हुआ है। उसने बहुत रंग धरे हैं। उसने बहुत वेश जाता वगरना एक दिन अपनी खबर को मैं | धरे हैं। वही है। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं। अन्यथा अपनी खबर को एक न एक दिन जाता। क्योंकि जो इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम सांसारिक याद और पहुंचा वह अपने पास पहुंचा। जो परमात्मा से परमात्मा की याद को संघर्ष में जुटा दो। उस संघर्ष में पड़े कि तुम मिला वह अपने से मिला। इसीलिए तो महावीर कहते हैं, टूट जाओगे। और तुम बहुत बुरी तरह हारोगे और पराजित हो आत्मा ही परमात्मा है.--'अप्पा सो परमप्पा।' जाओगे। और तमहीमा म ही अगर हार गए तो परमात्मा की विजय कैसे इस धुन को गूंजने दो। इस गीत को भीतर गुनगुन करने दो। होगी? इसलिए तुम झगड़े में मत पड़ना। द्वंद्व में मत पड़ना। यह तुम्हारी हृदय की धड़कन-धड़कन में बस जाए। तुम तो एक चेष्टा शुरू करो...वृक्ष दिखाई पड़े, तो देखो वृक्ष श्वास-श्वास को इसी में डुबा लो, पग जाओ इसी रस में। को, पहचानो परमात्मा को। फूल हाथ में आए, गौर से देखना। फिर कुछ और करना नहीं है। फिर सब शास्त्र एक तरफ | जरा गहरे देखना। तुम उसे छिपा हुआ पाओगे ही। वह है ही तो 2010_03 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज लहरों में निमंत्रण ऐसे कैसे होगा कि न पाओगे? पत्थर भी पड़ा दिखाई पड़े, और जाता है। वे सब जुड़े हैं। हृदय तो कहीं नहीं ले जाता। वहीं थोड़े ज्यादा गौर से देखना। फूल में जरा जल्दी दिख जाएगा, छोड़ देता है जहां तुम सदा से हो। न मंदिर, न वेश्या; न धन, न पत्थर में जरा और गहरे छिपा है। मगर छिपा तो है ही। धर्म; न भोग, न त्याग। ऐसी अपनी आंख को निखारते चलो। ऐसी अपनी दष्टि को । इसलिए तो महावीर कहते हैं धर्म-अधर्म दोनों के पार जाना साफ करते चलो। | है। पाप-पुण्य दोनों के पार जाना है। तुम सोचते हो पाप की आवाज मन की और पुण्य की हृदय पांचवां प्रश्न : मन की आवाज कौन-सी है और हृदय की | की? नहीं, दोनों मन की ही हैं। सब आवाजें मन की हैं। मन आवाज कौन-सी है? जानने की कसौटी क्या है? कृपया व्यर्थ ही ऊहापोह में लगा रहता है। समझाएं। कुछ कटी हिम्मते-सवाल में उम्र कुछ उम्मीदे-जवाब में गुजरी मन की ही सब आवाजें हैं, हृदय की कोई आवाज नहीं। जहां और ऐसे ही मन समय को गंवाता रहता है। इधर पूछता, इधर आवाजें खो जाती हैं, वहां हृदय है। खोजता है। उत्तर भी बना लेता, फिर उत्तर में से दस नए प्रश्न मौन है हृदय की आवाज। बना लेता। फिर प्रश्नों में से दस उत्तर खड़े कर लेता। ऐसा शून्य है हृदय का स्वर। बुनता जाता मकड़ी का जाला। अपने में से ही निकाल-निकाल इसलिए झंझट बिलकुल नहीं है। तुम सोचते हो, कोई आवाज | कर जाले को बुनता चला जाता है। मगर यह सब मन का ही हृदय की और कोई मन की; तो तुम बड़ी गलती में पड़े जा रहे | खेल है। हो। सब आवाजें मन की हैं। यह मन ही है। __ तुम पूछते हो हृदय की आवाज कौन-सी? हृदय की कोई धन को भी मन ही पकड़ना चाहता है और धन को मन ही | आवाज नहीं। जब सब आवाज तिरोहित हो जाती है तो जो त्यागना चाहता है। मन बड़ा जटिल है। एक तरफ कहता है, | सन्नाटा शेष रह जाता है, वही हृदय का है। उस सन्नाटे में ही तुम्हें पकड़ लो, लूट लो मजे। दूसरी तरफ कहता है क्या रक्खा? | दिखाई पड़ेगा, दर्शन होगा। उस शून्य में ही पूर्ण का अवतरण सब असार है। होता है। पर दोनों मन हैं। एक तरफ कहता है दौड़ लो। चार दिन मिले जिंदगी के, कुछ पा लो पद। दूसरी तरफ से कहता है, क्या रखा | आखिरी प्रश्न: आपने एक दिन कहा था कि इधर तुम कृष्ण है पदों में? जो पहुंच गए उनको तो देखो। हुए कि उधर रास सजा। मैं इस बात पर झूम तो उठा था, मन अपने से ही एकालप करता रहता है, मोनोलाग करता | लेकिन जब कृष्ण का भाव करना चाहा तो मुझमें गोपियों का रहता है। एक तरफ से जवाब देता है, एक तरफ से उत्तर खड़ा | भाव भर गया। और इस भाव ने मुझे और भी आह्लाद से भर करता है। पर दोनों आवाजें मन की हैं। दिया। जैसे कृष्ण के आगे रास-मंडल रचाया था, वैसे ही यास कहती है कुछ, तमन्ना कुछ आपके सन्मुख होने लगा। किंतु आपके रास सजाने का भाव किसकी बातों का एतबार आए क्या था? फिर धीरे-धीरे तुम्हें जो-जो समझाया गया है कि शुभ है, सत्य है, अगर मन वही कहता है तो तुम सोचते हो, यह हृदय की | यही था, जो हुआ। जो हुआ, बिलकुल यही था। आवाज है। जब मन कहता है वेश्या के घर चलो तो तुम कहते | कृष्ण के साथ रास रचाना हो तो गोपी बनना ही पड़ेगा। गोपी हो, यह मन की, इंद्रियों की, शरीर की। और जब मन कहता है | बन-बनकर एक दिन कृष्ण भी बन जाओगे, लेकिन गोपी बनने मंदिर चलो, तुम कहते हो, यह आत्मा की, हृदय की। से गुजरना ही पड़ेगा। गोपी बनना कृष्ण होने के रास्ते पर पड़ाव गलती बात है। जो वेश्या के घर ले जाता है वही मंदिर भी ले | है। जो गोपी बनने को तैयार नहीं वह कृष्ण कभी न बन पाएगा। 4991 2010_03 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 जिन सूत्र भाग: 2 ऐसे गोपी नाचते-नाचते-नाचते पास आती जाएगी। मंडल छोटा होता जाएगा। नाच तीव्र होता जाएगा । गोपी धीरे-धीरे खोती जाएगी, लीन होती जाएगी। मंडल और छोटा होता जाएगा। रास और सघन हो उठेगा। मध्यरात्रि आ जाएगी। चांद सिर पर होगा। नाचते-नाचते-नाचते-नाचते गोपी कृष्ण में लीन हो जाएगी। कृष्ण हो उठेगी। मंडल तब बिलकुल समाप्त गया। पूर्ण हुआ। मिलन हुआ । पुराणों में कथा है। राधा के नाम का कोई उल्लेख नहीं है शास्त्रों में – पुराने शास्त्रों में। सिर्फ इतना ही उल्लेख है कि कृष्ण के पास एक गोपी ऐसी भी थी, जो छाया जैसी थी । उसका कोई नाम नहीं है। वह छाया की तरह उनके पीछे लगी रहती थी। छाया की तरह... यही तो राधा होने का ढंग है। अच्छा किया कि नाम नहीं लिया। नाम तो बाद में दिया, बहुत बाद में- -मध्ययुग में। कवियों ने नाम दिया क्योंकि कवि को बिना नाम दिए न चलेगा। नाम लेकिन बड़ा प्यारा दिया। प्रतीकात्मक है राधा । धारा के विपरीत - राधा । धारा को उल्टा कर लो तो राधा । जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ बहने लगे तो राधा हो गई। मूलस्रोत की तरफ बहने लगे तो गोपी भाव का जन्म हुआ। जब अपना नाम भी भूल जाए तो राधा का जन्म हुआ। जब अपना अलग होने का कोई खयाल ही न रह गया, कृष्ण की छाया बन गए। जहां जाने लगे वे... छाया क्या करे? छोड़ भी नहीं सकती पीछा। छुड़ाना भी चाहें कृष्ण, तो भी पीछा नहीं छोड़ती। जब कृष्ण मथुरा से द्वारका चले गए तो और सब तो छूट गए होंगे, सिर्फ राधा साथ गई होगी। छाया साथ गई होगी। छाया को तो छोड़ोगे कैसे? रास गहन होता है तो पहले गोपी का जन्म होता है। फिर गोपी धीरे-धीरे छाया जाती है। गोपी की पार्थिवता खो जाती है। सिर्फ प्रकाशरूप रह जाती है । अस्तित्व मात्र । और तब किसी भी क्षण पतिंगा ले लेगा आखिरी छलांग शमा में डूब जाएगा और एक हो जाएगा। यही मेरा मतलब था, जो हुआ। गोपियों का भाव भर गया, गोपी होने की धारणा बनी - बस, कृष्ण की तरफ पहला कदम उठा । गोपी की आकांक्षा क्या है ? हजारों गोपियां हैं। कृष्ण की 2010_03 कथा मधुर है । परमात्मा एक है, खोजी अनंत हैं। मंजिल एक है, रास्ते बहुत हैं। रास्तों पर चलनेवाले यात्री बहुत हैं। कृष्ण एक हैं। सोलह हजार गोपियां हैं। सोलह हजार तो सिर्फ प्रतीक हैं, हजारों गोपियां हैं। लेकिन हजारों गोपियों को एक कृष्ण ने लुभा लिया। कोई वैमनस्य भी नहीं है । कोई ईर्ष्या भी नहीं है। प्रत्येक गोपी कृष्ण से सीधे जुड़ गई। दूसरी गोपी की कोई चिंता भी नहीं है। प्रत्येक गोपी को ऐसा लगने लगा, कृष्ण उसी के साथ नाच रहे हैं। तुमने ऐसे चित्र देखे होंगे, जिसमें कृष्ण अनेक रूप ले लिये हैं । सब गोपियों के साथ नाच रहे हैं। परमात्मा जब तुम्हें मिलेगा, तो 'तुम्हें' मिलेगा। यह कोई सार्वजनिक चीज नहीं होगी। यह बिलकुल निजी और वैयक्तिक होगी। जब परमात्मा तुम्हें मिलेगा तब यह परमात्मा बिलकुल तुम्हारा होगा । यह तुम्हारी आत्मा होगा। मगर इससे मिलने के लिए गोपी की भावदशा चाहिए। तुझे न देख सकूं मैं तो कुछ मलाल नहीं यही बहुत है कि तू मुझको देख सकता है दार्शनिक तो कहता है, मुझे परमात्मा को देखना है। इसलिए तो हम दर्शनशास्त्र कहते हैं दार्शनिक की खोज को— देखने की चेष्टा । भक्त कहता है, मैं तुझे न देख सकूं तो कुछ मलाल नहीं। तुझे न देख सकूं मैं तो कुछ मलाल नहीं यही बहुत है कि तू मुझको देख सकता है यह क्या कम है कि तेरी आंख मुझ पर पड़ रही है ? हो गई बात । मैं अंधा हूं, मैं नासमझ हूं, मैं भटका हूं, फिक्र छोड़-तो कोई मलाल नहीं। तेरी दृष्टि मुझ पर पड़ रही है, बस बहु जैसे सूरज निकला, अंधा न देख सके सूरज को, इससे क्या फर्क पड़ता है ? सूरज तो अंधे को नहाए जा रहा है। सूरज की तो किरण - किरण अंधे को नहाए जा रही है। दार्शनिक और भक्त का यही भेद है। ज्ञानी कहता है, परमात्मा को देखना है । भक्त कहता है, परमात्मा मुझे देख ले। अब तुम्हें एक रहस्य की बात खयाल में ले लेनी चाहिए। गोपी का अर्थ होता है स्त्रैण चित्त । स्त्री का चित्त चाहता है प्रेमी उसे देख ले। पुरुष का चित्त चाहता है प्रेयसी को देखे । प्रेयसी चाहती है पुरुष देख ले। इसलिए तुम्हें बड़ी हैरानी होगी। मनोवैज्ञानिक बड़े चिंतन में Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़े रहते हैं कि पुरुष की बड़ी आकांक्षा होती है अपनी प्रेयसी के शरीर को नग्न, उसके पूरे सौंदर्य में अनढंका देख लेने की । लेकिन स्त्री कभी चेष्टा नहीं करती पुरुष के शरीर को नग्न देखने की। उसकी कोई उत्सुकता ही नहीं होती। इसीलिए तो नंगी स्त्रियों की तस्वीरें बहुत बिकती हैं, नंगे पुरुषों की नहीं बिकतीं। नहीं तो स्त्रियां भी उतनी ही हैं, वे भी तस्वीरें खरीदतीं । इसलिए फिल्मों में नग्न स्त्री का नृत्य तो खूब दिखाई पड़ता है; नंगा पुरुष नाचे तो लोग कहेंगे, बंद करो, यह क्या बकवास लगा रखी है? नग्न पुरुष में स्त्री की कोई आकांक्षा नहीं है। जब तुम किसी स्त्री को प्रेम से आलिंगन में भरोगे तो तुम चकित होओगे, तुम्हारी आंख खुली होगी, स्त्री की आंख बंद हो जाती है। गहरे प्रेम के क्षण में स्त्री सदा आंख बंद कर लेती है। स्त्रैण | चित्त चाहता है कि उसका प्रेमी उसे देख ले, बस काफी । गोपी काही अर्थ होता है कि परमात्मा मुझे देख ले, बस काफी है। तुझे देख सकूं मैं तो कुछ मलाल नहीं यही बहुत है कि तू मुझको देख सकता है परमात्मा के प्रेम में स्त्रैण - चित्तता की जरूरत है। प्रेम में ही स्त्रैण-चित्तता की जरूरत है। पुरुष का प्रेम नाममात्र को प्रेम है। प्रेम तो स्त्री का ही होता है। पुरुष के लिए हजार कामों में प्रेम एक कम है। स्त्री के लिए प्रेम ही बस एकमात्र काम है। स्त्री के सब काम प्रेम से निकलते हैं। वह खाना पकाएगी, बुहारी लगाएगी, तुम्हारे कपड़े पर बटन टांक देगी, तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी। उसका सारा काम.. .. तुम्हारे बच्चे, उनकी देखभाल करेगी। तुम्हारे घर, तुम्हारे बगीचे को संवारेगी। उसकी सारी चिंता उसके प्रेम से निकलती है । उसका सारा काम उसके प्रेम से निकलता है। पुरुष को और हजार काम हैं। अक्सर पुरुष को ऐसा लगता है कि प्रेम के कारण मेरे काम में बाधा पड़ती है। इसलिए बहुत कामी- धामी जो पुरुष होते हैं, वे प्रेम में पड़ते ही नहीं। जिनको दुकान ठीक से चलानी है, वे प्रेम को हटा देते हैं कि हटाओ, बंद करो। दुकान में बाधा पड़ती है। जिसको राजनीति में उतरना है, वह प्रेम को हटा देता है— हटाओ ! प्रेम से बाधा पड़ती है। जिसको वैज्ञानिक बनना है वह प्रेम को हटा देता है - हटाओ ! जिसको ध्यानी बनना है वह प्रेम को हटा देता है - हटाओ, ध्यान में बाधा पड़ती है। 2010_03 आज लहरों में निमंत्रण ऐसा लगता है कि पुरुष को और हजार काम हैं, जो प्रेम से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। वह प्रेम को हटा देता है और काम करने को । स्त्री के लिए और कोई काम ही नहीं है। अगर प्रेम न हो तो स्त्री एकदम अकेली रह जाती है। कुछ काम नहीं सूझता, क्या करे! काम निकलता ही नहीं । स्त्रैण-चित्त का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे लिए प्रेम ही ध्यान हो । गोपी बनने का यही अर्थ है कि तुम्हारी दृष्टि में प्रेम ही एकमात्र काम रह जाए। और सब प्रेम से निकले। फिर तुम्हें हर तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। तुम पहले... परमात्मा तुम्हें देखने लगे, इस आकांक्षा को जगाओ। फिर तुम्हें परमात्मा हर तरफ दिखाई पड़ने लगेगा। जिस दिन परमात्मा ने तुम्हें देख लिया उसी दिन तुम उसे देख पाओगे। भक्त और ज्ञानी के रास्तों का यही फर्क है। भक्त कहता है प्रभु, मैं नाच रहा हूं, तू देख ले। कोई बात नहीं कि मैं तुझे देखूं, मगर मैं नाच रहा हूं, तेरी आंख इधर पड़ जाए। बस, जरा तेरी आंख पड़ जाए, पर्याप्त पुरस्कार हो गया। तूने देख लिया, जीत गए हम; सार्थक हो गए। बला-ए-जां हैं गालिब उसकी हर बात इबारत क्या, इशारत क्या, अदा क्या बात, संकेत, भावभंगिमा... बांकेबिहारी की बात-बात बड़ी प्यारी है। बात-बात बला मेरी जान की लेकिन इसका सूत्र खुलता है तुम्हारे नृत्य से, गीत से, तुम्हारे हृदय को खोलने से । तुम पुकारो परमात्मा को कि तू मुझे देख ले; बस पर्याप्त है। जिस दिन उसकी आंख तुम पर पड़ी उसी दिन तुम्हारी आंख पैदा हो जाएगी। उसकी आंख की चोट तुम्हारी आंख को खोल देगी। ज्ञानी कहता है, पहले हम परमात्मा को देखेंगे। उसकी यात्रा भिन्न है। वह कहता है, पहले हम आंख पैदा करेंगे जिससे परमात्मा दिख जाए। जब हम परमात्मा को देखेंगे तभी वह हमारी तरफ देखेगा। भक्त कहता है पहले वह हमारी तरफ देख ले, फिर हमने न भी देखा तो भी हर्ज क्या है? उसने देख लिया। दोनों हालत से घटना घट जाती है । मेरी बात सुनकर प्रश्नकर्ता को गोपीभाव जगा; तो इससे साफ समझ लेना चाहिए कि भक्ति उसके लिए मार्ग होगी। और यह 501 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 भाव जगा है तो इसको लेकर मत बैठे रहना। इस निमंत्रण को उसी के आसपास तारे नाच रहे हैं। उसी के आसपास पृथ्वी, स्वीकार करो और चलो यात्रा पर। ग्रह, उपग्रह नाच रहे हैं। उसका रास चल ही रहा है। इस सारे आज अपने स्वप्न को मैं सच बनाना चाहता हूं जीवन-नृत्य का वही केंद्र है। दूर की इस कल्पना के पास जाना चाहता हूं तुम भी रास में सम्मिलित हो जाओ। चाहता हूं तैर जाना सामने अम्बुधि पड़ा जो कुछ विभा उस पार की इस पार लाना चाहता हूं आज इतना ही। स्वर्ग में भी स्वप्नभू पर देख उनसे दूर ही था किंतु पाऊंगा नहीं कर आज अपने पर नियंत्रण तीर पर कैसे रुकू मैं आज लहरों में निमंत्रण प्रभु की पुकार आयी तुम्हारी तरफ। तुममें जो गोपी का भाव जगा है यह बिना कृष्ण के पुकारे जग ही नहीं सकता है। तीर पर कैसे रुकू मैं आज लहरों में निमंत्रण अब रुको मत। अब नाचो। अब स्वयं ही लहर बनो। लहर का निमंत्रण मिल गया, अब नाचो। जमने दो रास। होओ उन्मत्त। होओ मदमत्त। पागल बनो। स्त्रैण बनो। छाया बनो उसकी। मंडल को करो छोटा। नाचते-नाचते-नाचते-नाचते एक दिन उसमें प्रवेश हो जाएगा। नृत्य करते-करते ही प्रवेश हो जाता है। इधर तुम मिटे कि उधर प्रवेश हुआ। शुभ घड़ी आयी; उसे खो मत जाने देना। मैं ब असद फक्र-ए-जुहाद से कहता हूं मजाज मुझको हासिल सफें-बेअते-खैयाम अभी अत्यंत गौरव से, संयमियों से, योगियों से मैं कहता हूं कि मुझे खैयाम की शिष्यता की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। मैं ब असद फक्र-ए-जुहाद से कहता हूं मजाज संयमियों से. योगियों से. ज्ञान के खोजियों से मैं बड़े गौरव के साथ कहता हूंमुझको हासिल सफें-बेअते-खैयाम अभी मुझे खैयाम की मधुशाला में शिष्यता की प्रतिष्ठा मिल गई है। मुझे बेहोशी का, मदहोशी का, प्रभु की मदिरा पीने का निमंत्रण मिल गया है। फिर संयमी बड़ा फीका है। भक्त के आगे संयमी बड़ा फीका है। फिर संयमी तो मरुस्थल जैसा है, भक्त वसंत में वृक्षों पर फूल खिल गए ऐसा। भक्त झरने जैसा है। तो जिसको भक्ति की लहर उठ रही हो वह रुके न; चल पड़े। रास में सम्मिलित हो जाओ। और उसका रास चल ही रहा है। 502 2010_03 EE Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 83 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां प्रवचन चौदह गुणस्थान 2010_03 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ofinAOCA पापा । HINDI जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं। जीवा ते गुणसण्णा, णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं।।१४४।। मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। विरदो पमत्त इयरो, अपुत्व अणियट्टि सुहुमो य।। उवसंत खीणमोहो, सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य । चोद्दस गुणट्ठाणाणि य, कमेण सिद्धा य णायव्वा।।१४५।। ON 5025 । MAADHAN AMERIMAR 2010_03 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज के सूत्र महावीर की साधना पद्धति में अत्यंत अयोगिकेवलीजिन, ये क्रमशः चौदह जीव-समास या गुणस्थान आ विशिष्ट है। साधक की यात्रा में जैसा सूक्ष्म पड़ावों हैं। सिद्ध जीव गुणस्थानातीत होते हैं।" का विभाजन महावीर ने किया है, वैसा किसी और ने कभी नहीं किया। राह का पूरा नक्शा, रास्ते पर पड़नेवाले पड़ाव, मील के किनारे लगे पत्थर, सभी की ठीक-ठीक सूचना है। यह तभी संभव है, जब कोई गुजरा हो, पहुंचा हो। यह केवल विचार कर लेने से, दार्शनिक चिंतन से संभव नहीं है। और फिर हजारों वर्षों में और जो लोग सिद्धत्व को उपलब्ध हुए, उन सबने भी गवाही दी है कि महावीर का वक्तव्य साधक से लेकर सिद्ध की मंजिल तक अत्यंत सूक्ष्म रूप से सही है। महावीर की भाषा में साधक चौदह गुणस्थानों से गुजरता है। एक-एक गुणस्थान को ठीक से समझना आवश्यक है । कहीं न कहीं तुम भी खड़े होओगे इसी रास्ते पर अपनी जगह ठीक से पहचान लो, तो कैसी यात्रा करनी, कहां से यात्रा करनी, किस तरफ जाना - सुगम हो जाता है। 'मोहनीय कर्मों के उदय आदि ( उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि) से होनेवाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिन ने गुण या गुणस्थान की संज्ञा दी है। अर्थात सम्यकत्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएं, श्रेणियां, भूमिकाएं गुणस्थान कहलाती हैं।' 'मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यकदृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, संयोगिकेवलीजिन, 2010_03 पहला स्थान है : मिथ्यात्व | जैसा है उसे वैसा न देखने को महावीर मिथ्यात्व कहते हैं । जैसा है उससे अन्यथा देखने को महावीर मिथ्यात्व कहते हैं। जैसा है उसे देखने में एक ही बाधा है— हमारा अहंकार । सत्य को देखना हो तो अपनी सारी अस्मिता को एक तरफ हटाकर रख देना जरूरी है। अगर तुमने कहा कि मेरा सत्य ही सत्य होगा तो तुम मिथ्यात्व में ही जीयोगे । सत्य मेरा और तेरा नहीं है। सत्य तो बस सत्य है। मेरे तेरे के विशेषण सत्य को मिथ्या कर जाते हैं। अक्सर ऐसा होता है, जब तुम कहते हो कि जो मैं कह रहा हूं वही सत्य है तो तुम्हारा जोर सत्य पर नहीं होता। चूंकि तुम कह रहे हो इसलिए सत्य होना चाहिए। तुम्हारे कहने से थोड़ी ही कोई बात सत्य होती है। सत्य से मेल खा जाए तो सत्य होती है। तुम्हारे होने से सत्य नहीं होती। इसलिए जो व्यक्ति अपने मैं को उतारकर रख देगा और सत्य के साथ जाने को राजी होगा, वही पहला कदम उठा पाता है। अन्यथा लोग पहले कदम पर ही अटके रह जाते हैं। अधिक लोग मिथ्यात्व में ही जीते हैं। तुम्हें भी बहुत बार ऐसा मौका आ जाता होगा, जब तुम्हें थोड़ी झलक भी मिलती है कि तुम जो कह रहे हो वह ठीक नहीं, लेकिन कैसे करें स्वीकार ? बेइज्जती है, अपमान है, प्रतिष्ठा गिरती है। तो तुम जिद्द किए जाते हो। तुम झूठ को भी सच किए 507 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः - - जाते हो। | कि क्या मैं धूम्रपान करते समय प्रार्थना कर सकता हूं? उन्होंने आस्कर वाइल्ड ने कहा है कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं। कहा, निश्चित। दुनिया दो विभागों में विभाजित है। एक वे लोग, जो कहते हैं 'धूम्रपान करते समय प्रार्थना कर सकता हूं?' कौन मना सत्य को हमारे साथ खड़ा होना होगा। हम जहां खड़े हों, सत्य | करेगा? लेकिन 'प्रार्थना करते समय धूम्रपान कर सकता हूं?' को वहां खड़ा होना होगा। ये मिथ्यात्व-दृष्टि लोग हैं। कौन हां भरेगा? पर बात जरा-सी फर्क की है, पर बड़े फर्क की दूसरे लोग, जो कहते हैं सत्य जहां होगा हम वहां खड़े हो है। जमीन-आसमान का फासला हो जाता है। जाएंगे। ये सम्यक-दृष्टि लोग हैं। जरा-सा ही फर्क है। शब्दों महावीर कहते हैं, सत्य के पक्ष में खड़े होना; सत्य को अपने को यहां-वहां रख दो। सत्य को मेरे साथ खड़ा होना होगा, या मैं पक्ष में खड़ा मत करना। तुम्हारे पक्ष में होने के कारण ही सत्य सत्य के साथ खड़ा होऊंगा। शब्दों में तो बड़ा थोड़ा फर्क है, असत्य हो जाता है। तुम असत्य हो। तुम्हारा जहर सत्य को भी लेकिन अस्तित्व में बड़ा गहरा फर्क हो जाता है। जहरीला कर देगा। तुम अपनी छाया सत्य पर मत डालना। तुम जमीन-आसमान जैसा फर्क हो जाता है। अपनी गंदगी सत्य पर मत डालना। तुम सत्य के साथ हो लेना जोशुआ लियेमेन ने लिखा है कि जब वह युवा था और अपने लेकिन सत्य को अपने पीछे चलने की जबर्दस्ती मत करना। गुरु के आश्रम में था तो रोज दो घंटे के लिए आश्रम के बगीचे में वहां हिंसा हो जाती है। जब तुम सत्य को अपने पीछे घसीटते घूमने और ध्यान करने का समय मिलता था। घूमने और प्रार्थना हो, सत्य मर जाता है। सत्य जीता है स्वतंत्रता में। करने का समय मिलता था। खुली प्रकृति में प्रार्थना के पंख तो तुम भूलकर भी यह चेष्टा मत करना कि मैं जो कहूं वह लगाकर उड़ने के लिए सुविधा मिलती थी। एक और युवक सत्य हो। तुम यह चेष्टा जरूर करना कि जो सत्य हो वही मैं उसका मित्र था, वे दोनों साथ ही साथ घूमते थे। दोनों को कहूं। अंतर जरा-सा है; अंतर बहुत बड़ा भी है। हम सबके मन | सिगरेट पीने की लत थी, लेकिन संकोच होता था, कि गुरु से में यह दंभ होता ही है कि जो मैं कहता हूं वह सत्य होना ही पछे बिना आश्रम में धम्रपान कैसे करें। तो उन्होंने कहा, पछ ही चाहिए। मैंने कहा। क्यों न लें? और गुरु इतना सरल है, इतना सीधा है कि शायद मैंने देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर में दो गुल्लक रखे हुए ही इनकार करे। | है। मैंने पूछा यह किसलिए? तो वह कहता है कि मैं एक में | उन्होंने पूछा। दूसरे दिन लियेमेन जब पहंचा तो उसने देखा, असली सिक्के डालता है, दूसरे में नकली सिक्के। हर साल | | उसका साथी धूम्रपान कर रहा है। वह बहुत हैरान हुआ। उसने खोलता हूं। तो मैंने कहा, अब की बार तुम जब खोलो तो मैं कहा, क्या तुमने पूछा नहीं? मैंने तो पूछा, लेकिन मेरे पूछते ही मौजूद रहूंगा। उसने खोला, गुल्लक तोड़े, तो सब सिक्के हीं। तुमने मालूम होता है पछा नहीं, या जिसमें वह नकली सिक्के डालता, उसी गल्लक में निकले। कि पूछकर भी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो? उस युवक ने असली सिक्केवाला गुल्लक तो खाली निकला। मैंने कहा, कहा, आश्चर्य! मैंने तो पूछा और उन्होंने कहा कि बिलकुल मामला क्या है? क्या सभी सिक्के नकली हैं? उसने कहा कि ठीक है, पीयो। जो हमने नहीं ढाला वह असली कैसे हो सकता है? अगर ये ही लियेमेन ने कहा कि मेरी समझ में नहीं आता कि हम दोनों को | सिक्के मैंने ढाले होते अपने घर में, तो सब असली गुल्लक में इतने विपरीत उत्तर क्यों दिए गए? उस दूसरे युवक ने कहा, होते। दूसरों के ढाले सिक्के असली हो कैसे सकते हैं? सब पहले यह कहो, तुमने पूछा क्या था? लियेमेन ने कहा, मैंने पूछा नकली हैं। था कि क्या मैं प्रार्थना करते समय धूम्रपान कर सकता हूं? दूसरे जो कहते हैं, दूसरों के कहने के कारण ही तुम कहने उन्होंने कहा, नहीं, कभी नहीं। और लियेमेन ने पूछा उस युवक लगते हो असत्य। तुम जो कहते हो, तुम्हारे कहने के कारण ही से, तुमने क्या पूछा था? कहने लगते हो सत्य। उस युवक ने कहा कि बस, बात साफ हो गई। मैंने पूछा था | सत्य की यह पूजा न हुई। सत्य का तो यह बहुत अपमान - 508 2010_03 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गणस्थान KA हुआ। सत्य तुमसे बड़ा है। तुम सत्य से बड़े होने की चेष्टा दूसरी सीढ़ी पर कदम केवल उन्हीं का बढ़ता है, जो अपने मैं को करोगे, मिथ्यात्व होगा। | सत्य और असत्य का निर्णायक सूत्र नहीं बनाते। जो कहते हैं, मैं इसलिए महावीर कहते हैं, साधक का पहला कदम और पहला | निर्णायक नहीं हूं। पड़ाव, जहां हम सब हैं, यहां से शुरू होता है। यात्रा शुरू भी हो सत्य है तो है। चाहे मेरा दुश्मन ही घोषणा कर रहा हो। सत्य सकती है, ना भी हो। अगर हम यही जोर दिए चले जाएं कि मेरे | है तो है। और चाहे मैं ही घोषणा करूं. अगर असत्य है तो पक्षपात सही हैं, मेरी धारणाएं सही हैं, मेरे शास्त्र सही हैं, मेरे असत्य है। मेरी घोषणा से असत्य सत्य नहीं होता। तीर्थंकर सही हैं, मेरे अवतार सही हैं, मेरे गुरु सही हैं; और | पहला गुणस्थान : मिथ्यात्व। यहां सारा संसार इसी गुणस्थान सबके भीतर कारण केवल इतना ही है कि वे मेरे हैं, इसलिए सही | में जीता है। हैं। और तो कोई कारण नहीं है। इसलिए तो छोटी-छोटी बात पर विवाद हो जाता है। क्षुद्र । तुम जैन घर में पैदा हुए तो तुम कहते हो, जैन धर्म सही है। तुम बातों पर विवाद हो जाता है। तुम कभी देखते हो? निरीक्षण अगर हिंदू घर में पैदा होते तो यही तुम हिंदू धर्म के संबंध में करते हो? कैसी छोटी बातों पर लड़ उठते हो! पति-पत्नी हैं, कहते। तुम अगर मुसलमान घर में पैदा होते तो यही तम इस्लाम भाई-भाई हैं, बाप-बेटे हैं, मित्र-मित्र हैं, जरा-जरा सी बात पर के संबंध में कहते। कलह हो जाती है। तो न तो तुम्हें इस्लाम से कुछ मतलब है, न जैन से, न हिंदू से। कलह का कारण? कारण बताने जैसा भी नहीं लगता। अगर तुम जहां पैदा हुए वहीं सत्य को भी पैदा होना चाहिए। जैसे कोई पूछे पति-पत्नी से लड़ते वक्त, कि कारण क्या है? तो वे तुम्हारे होने में सत्य का कोई ठेका है! भी संकोच करते हैं कि कारण कुछ भी नहीं है। मगर होना तो तुम्हें बचपन से कुरान पढ़ाई गई, तुमने कुरान को अपना मान चाहिए कलह चल रही है। लिया तो कुरान सत्य है। गीता पढ़ाई गई तो गीता सत्य है। कारण बड़े छोटे हैं, लेकिन कारणों के पीछे छिपा हुआ बड़ा लेकिन सत्य इतना सस्ता तो नहीं। सत्य को तो खोजना पड़ता अहंकार है। छोटे कारण, और बड़ा अहंकार पीछे छिपा हुआ है। ऐसे मुफ्त तो मिलता नहीं। सत्य संस्कार से नहीं मिलता, न है। पत्नी कहती है, जो मैंने कहा वही सत्य है, वैसा ही होना समाज से मिलता है। समाज से तो पक्षपात मिलते हैं, पूर्वाग्रह चाहिए; अन्यथा हो ही नहीं सकता। पति कहता है, जो मैंने कहा | मिलते हैं, मुर्दा धारणाएं मिलती हैं, थोथे शब्द मिलते हैं, उधार, वही सत्य है। वैसा ही होना चाहिए। बासे सिद्धांत मिलते हैं। लेकिन तुम्हारे अहंकार के आभूषण बन और दोनों सोचते हैं कि सत्य के लिए आग्रह कर रहे हैं। दोनों जाते हैं वही। सोचते हैं सत्याग्रह कर रहे हैं। लेकिन आग्रह मात्र असत्य का जब हिंदू कहता है कि हिंदू धर्म सही, तो वह यह कह रहा है मैं होता है। सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। इसलिए सत्याग्रह सही। मेरे कारण हिंदू धर्म सही। जब तुम कहते हो, भारतभूमि बिलकुल थोथा शब्द है। सत्य का कोई आग्रह नहीं होता, पवित्र भूमि, पुण्य भूमि; तो तुम क्या कह रहे हो? इतना ही कह निवेदन होता है। आग्रह तो अहंकार का होता है। दावा तो रहे हो कि तुम जैसे पवित्र महापुरुष भारत में पैदा हुए तो भारत अहंकार का होता है। पवित्र होना ही चाहिए। और क्या कह रहे हो? तुम पोलैंड में हम सत्य के नाम पर अपने अहंकार का साम्राज्य फैलाते हैं। पैदा होते कि चीन में, तो तुम यही वहां भी कहते। तुम यही कहते बाप बेटे से कहता है, कि ऐसा ही है। और अगर बेटा पूछे कि पोलैंड पवित्र भूमि है। स्वर्ग अगर कहीं है तो बस यहीं है। क्यों? तो कहता है, उलटकर जवाब मत दो। मैं बाप हूं। मैं आदमी का अहंकार ऐसा है कि वह जिस चीज से अपने अहंकार जानता हूं। जिंदगी ऐसे ही धूप में नहीं पकाई है। ये बाल अनुभव को जुड़ा हुआ पाता है उसी की गुण-गरिमा गाने लगता है। से सफेद हुए हैं। जब तुम भी बड़े होओगे, तब जानोगे। तुम्हारे तो महावीर कहते हैं, अगर तुम यही करते रहे तो मिथ्या-दृष्टि बाप ने भी तुमसे कहा होगा। तुम बड़े हो गए, जाना कुछ? बड़े ही बने रहोगे। तुम पहली सीढ़ी पर ही अटके रह जाओगे। होकर इतना ही पता चला कि न बाप को पता था, न तुमको पता 50g ___ 2010_03 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 जिन सूत्र भाग: 2 है। लेकिन यही तुम अपने बेटे से कह रहे हो कि बड़े हो जाओगे तब जानोगे । क्या जान लिया बड़े होकर ? कौन-सा सत्य, कौन-सी संपदा हाथ लगी ? लेकिन बाप का अहंकार कैसे मान ले कि बेटा भी ठीक कह सकता है? पति का अहंकार कैसे मान ले कि पत्नी ठीक कह सकती है ? पत्नी का अहंकार कैसे मान ले कि पति ठीक कह सकता है ? अहंकारों का संघर्ष है। सत्यों का कोई संघर्ष नहीं है। तो दुनिया में जो इतना धर्मों का विवाद है, शास्त्रार्थ है, यह सब अहंकारों का शास्त्रार्थ है, इससे धर्म का कोई लेना-देना नहीं । धर्म तो विनम्र आदमी की खोज है, जो कहता है मुझे पता नहीं । पता ही होता तो मैं खोजता क्या ? खोजने को क्या था? मुझे पता नहीं । अज्ञानी हूं। खोज पर निकला हूं। टटोलता हूं। कोई भी बता दे कि सत्य क्या है, तो सुनूंगा, समझंगा, सदभाव से ग्रहण करूंगा, जांचूंगा, परखूंगा। शायद हो, शायद न हो। अनुभव तय करेगा कि क्या है। सत्य का खोजी विवादी नहीं होता। सत्यार्थी संवादी होता है, सारा लाभ है, उसी में सारी प्रतिष्ठा है। विवादी नहीं । महावीर कहते हैं, - पहला गुणस्थान : मिथ्यात्व | जैसा है उसे वैसा न देखना। जैसा है वैसा दिखाई भी पड़े तो भी पर्दे डाल रखना । जैसा है वैसा अनुभव में भी आने लगे तो अनुभव को भी झुठलाना । न्यस्त स्वार्थ हैं हमारे । तुम अगर न्यस्त स्वार्थों की ओट से ही देख रहे हो तो फिर बड़ी अड़चन है। सत्य साईंबाबा ने कल बंगलोर विश्वविद्यालय के कुलपति और उनकी कमेटी को जो उत्तर दिया, उसमें उन्होंने कहा, कि कुत्तों के भौंकने से चांद-तारे गिर नहीं जाते। अब थोड़ा सोचने जैसा जरूरी है कि कुत्तों के भौंकने से चांद-तारे आकर ऐसा कहते भी नहीं कि भौंकते रहो, हम गिरेंगे नहीं। इतना कह दिया तो चांद-तारे भौंक गए। इतना कह दिया तो चांद-तारे गिर गए। फिर तय कौन करे कि चांद-तारे कौन हैं और कुत्ते कौन हैं ? सत्य साईंबाबा का यह वक्तव्य थोथे अहंकार का वक्तव्य है। एक तरफ चिल्लाए चले जाते हैं कि सभी के भीतर ब्रह्म का वास है। एक तरफ कहे चले जाते हैं कि सभी के भीतर भगवत्ता विराजमान है । और जहां चोट अहंकार पर पड़नी शुरू होती है वहां तत्क्षण कहने लगते हैं कि कुत्तों के भौंकने से चांद-तारे नहीं गिरेंगे। ये कुत्तों में भगवान नहीं है? कुत्ते यानी कुलपति बंगलोर के! इनमें भगवान नहीं है ? 2010_03 यह उत्तर न हुआ। कुलपति ज्यादा साधु चरित्र मालूम होते हैं। सीधा-सा निवेदन किया है कि आप जो चमत्कार करते हैं, ये चमत्कार हैं या केवल मदारीगिरी है ? इसे हम जानने के लिए आपके निकट आना चाहते हैं। और आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें सत्य को खोजने में सहयोगी बनें। इसमें कोई कुत्ता भौंका नहीं किसी पर। सत्य के खोजी को तत्क्षण स्वीकार करना चाहिए । अगर सत्य है तो भय क्या ? अगर कुलपति और उनके आठ-दस मित्र आकर सत्य साईंबाबा के चमत्कार देखने को उत्सुक हुए शुभ है । हर्ज कहां है? लेकिन हर्ज मालूम होगा क्योंकि न्यस्त स्वार्थ है, वेस्टेड इंटरेस्ट है। वह चमत्कार इत्यादि कुछ भी नहीं है, मदारीगिरी है। और मदारीगिरी भी अति साधारण कोटि की है। सड़क पर चलते मदारी जो करते हैं वैसी है। कोई भी मदारी कर सकता है, कोई भी व्यवसायी जादूगर कर सकता है; वैसी है। लेकिन उसी में अगर एक बार यह सिद्ध हो गया कि यह राख शून्य से नहीं उतरती । कहीं शरीर के किसी हिस्से में छिपी रहती है, वहां से उतरती है। एक बार यह सिद्ध हो गया कि ये स्विस घड़ियां जो प्रगट होती हैं, स्विजरलैंड से नहीं आतीं, स्मगलरों से खरीदी जाती हैं। एक बार यह सिद्ध हो गया तो सत्य साईंबाबा की कोई स्थिति नहीं रह जाती। उसी पर तो सारा बल है। तो नाराजगी पैदा होती है। अन्यथा निमंत्रण शुभ था । स्वीकार कर लेना था । धन्यवाद देना था कि उत्सुक हुए, चलो अच्छा है। विश्वविद्यालय में उत्सुक होते हैं तो बहुत अच्छा है। सुशिक्षित, सुसंस्कृत लोग धर्म की तरफ खोज करने निकलते हैं, बहुत अच्छा है। आओ, समझो। खोजें । सत्य का खोजी तो सहयोग देगा। लेकिन सत्य की यह खोज नहीं है। सत्य साईंबाबा का वक्तव्य असत्य साईंबाबा का वक्तव्य है। यह इसमें सत्यता बिलकुल नहीं है। और फिर इसमें छिपा क्रोध है, गाली-गलौज है। कुत्ते ... ! यह बात ही बेहूदी हो गई। अपने वक्तव्य में उन्होंने इसी तरह की बातें कही हैं, जो सब गाली-गलौज हैं - कि चींटी समुद्र की थाह लेने चली है। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान कौन समुद्र है, कौन चींटी है? ज्ञानी तो कहते हैं, चींटी भी समुद्र है। दो कौड़ी के न रह जाएंगे। कुत्ते भी भौंकेंगे नहीं फिर। रास्ते है। क्योंकि ज्ञानी तो कहते हैं, बूंद में भी सागर छिपा है। लेकिन से निकल जाएंगे देखते कि कोई कुत्ता भौंके तो! लेकिन कुत्ते भी निर्णय कौन कर रहा है कि कौन चींटी और कौन समुद्र है? चलो | इधर-उधर मुंह कर लेंगे। कोई चींटी थाह लेने न आएगी। तो चींटी ही सही, समुद्र की थाह लेने चली तो साथ दो। बाधा क्या भय है। खड़ी करनी? सीढ़ियां लगाओ, नाव तैराओ। चींटी कम से मिथ्यात्व हम सबके भीतर संभव है। जहां भी अहंकार जुड़ा कम इतनी आकांक्षा से भरी यही बहत है। कि मिथ्यात्व संभव है। महावीर कहते हैं, मिथ्यात्व हमारी लेकिन समुद्र इतना भयभीत क्यों है? चींटी थाह लेने चली | सामान्य स्थिति है। जिसको हम अज्ञानी कहते हैं उसी को इससे समद्र डर क्यों रहा है? डर यही होगा कि चींटी थाह ले महावीर मिथ्यात्वी कहते हैं। सकती है। समुद्र बड़ा छिछला मालूम होता है। शायद समुद्र हो दूसरा चरण : जिस व्यक्ति ने मिथ्यात्व से थोड़ी ऊपर आंख ही न, केवल धोखा है। तो क्रोध उपजता है। उठाई, ठीक-ठीक श्रद्धान किया, यथार्थ धर्म में रुचि ली, अधर्म | मिथ्यात्व दृष्टि से भरा हआ आदमी, विवाद को तत्पर, लड़ने में अरुचि की। मिथ्यात्व से भरा व्यक्ति धर्म में अरुचि प्रगट को उत्सुक, क्रोध सहज, अभिशाप देने को तैयार। करता है, अधर्म में रुचि लेता है। हालांकि वह बहाने कई ये सत्य साईंबाबा कहते हैं कि शिरडी के साईंबाबा के अवतार खोजता है, तर्क कई खोजता है। ना तो नहीं चाहिए, दर्वासा मनि के होंगे। अवतार तो रामकष्ण ने कहा है कि एक आदमी काली का बड़ा भक्त था जरूर किसी के होंगे, क्योंकि यहां सभी अवतार हैं। लेकिन इनमें | और महीने-पंद्रह दिन में काली के द्वार में जाकर बकरे कटवा कौन कुत्ता है, कौन चींटी है, कौन सागर, कौन चांद-तारा है? देता था। फिर अचानक उसने पूजा बंद कर दी। तो रामकृष्ण ने हर एक सोच लेता है अपने को ही कि चांद-तारा है, बाकी सब उससे पूछा, क्या हुआ भक्ति का? तुम तो बड़े भक्त थे और कुत्ते हैं। बड़े बकरे कटवाते थे। उसने कहा, अब दांत ही न रहे। इसको भौंकने की तरह क्यों लिया? यह जरूरी तो नहीं है कि कोई काली के लिए थोड़े ही बकरे कटवाता है! काली तो बंगलोर का विश्वविद्यालय सत्य साईंबाबा को उखाडने के लिए बहाना है। उस आदमी के दांत गिर गए, खराब हो गए और दांत उत्सुक हो। और अगर सत्य है तो उखड़ेगा कैसे? सत्य है तो निकलवाने पड़े। तो अब मांसाहार करने की सुविधा न रही। तो प्रगट होगा। स्वीकार करो। बस पूजा-पत्री बंद! तम्हारी घबडाहट ही तम्हें असत्य किए दे रही है। बचाव क्या | खयाल करना, तुम जब मंदिर में पूजा करने बेठे हो तो पूजा कर करना है? उघाड़ दो। नग्न खड़े होकर चमत्कार दिखा दो। एक रहे हो या पूजा के बहाने कुछ और कर रहे हो? तुम अगर बार तय हो जाए तो लाभ ही होगा। साधु-सत्संग में भी गए हो तो सत्य की खोज में गए हो कि वहां एक तरफ सत्य साईबाबा कहते हैं कि मैं सत्य की सेवा करना भी संसार का ही कछ खोजने पहंच गए हो? तम अक्सर तो चाहता हूं। धर्म में लोगों की श्रद्धा बढ़ाना चाहता हूं। लेकिन पाओगे कि तुम्हारी रुचि धर्म में नहीं है, अधर्म में है। अधर्म से इससे और शुभ अवसर क्या मिलेगा कि लोग खुद कहते हैं कि मतलब है। जिससे तुम सत्य तक न पहुंचो और भटक जाओ। हम प्रमाण खोजने आते हैं। प्रमाणित करो। सिद्ध हो जाएगा कि | धर्म से अर्थ है जिससे तुम सत्य तक पहुंच जाओ। चमत्कार सच्चे हैं, झूठे नहीं हैं तो बड़ी श्रद्धा बढ़ेगी। ये बंगलोर चमत्कारी व्यक्ति के पास लोग इकट्ठे हो जाते हैं क्योंकि विश्वविद्यालय के कुलपति और उनकी कमेटी के लोग, ये भी चमत्कारी व्यक्ति के पास आशा बंधती है कि शायद मुकदमा तुम्हारे भक्त हो जाएंगे। इनसे इतने घबड़ा क्या गए हो? जीत जाएं, शायद जिस स्त्री को भगाने का सोच रहे हों, उसमें लेकिन असत्य में आग्रह होता है क्योंकि असत्य में न्यस्त | सफलता मिल जाए, शायद लाटरी खुल जाए, शायद स्वार्थ होते हैं। अगर यह बात खुल जाए, अगर यह पोल खल जाए, इलेक्शन जीत जाएं, प्रधानमंत्री हो जाएं। जाए तो सत्य साईंबाबा का सारा का सारा व्यक्तित्व गिर जाता । इसलिए दिल्ली में जितने राजनेता हैं, सबको सत्य साईंबाबा 1511 2010_03 . Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 जिन सूत्र भाग: 2 के भक्त पाओगे। जैसे ही कोई राजनेता पद से उतरता है कि तत्क्षण सत्संग में लग जाता है। तत्क्षण गुरुओं की खोज में निकल पड़ता है। फिर इलेक्शन जीतना, फिर चुनाव लड़ना फिर किसी का आशीर्वाद चाहिए। यह रुचि धर्म की रुचि नहीं है। यह रुचि मौलिक रूप से अधार्मिक हैं। । महावीर कहते हैं इससे उठो, तो पहला कदम उठा। दूसरा चरण, दूसरा गुणस्थान है : सासादन। महावीर कहते हैं इतनी जल्दी, एकदम से न उठ जाओगे। उठते-उठते उठोगे । बहुत बार तो निकल आओगे इसके बाहर, और फिर-फिर खींचने का मन हो जाएगा। फिर-फिर पुरानी आदतें वापस बुला लेंगी। सासादन का अर्थ होता है, जो व्यक्ति मिथ्यात्व के बाहर निकलने की चेष्टा में संलग्न है लेकिन पुरानी आदतों के कारण, पुराने कर्मोदय के कारण वापस खींच लिया जाता है। फिर-फिर पुराने राग में रस आने लगता है। क्षणभर को भी सही, बार-बार फिर सोचने लगता है उन्हीं दिनों की बात; जब धन था, पद था, प्रतिष्ठा थी । दिवास्वप्न देखने लगता है। सासादन का अर्थ है, व्यक्ति मिथ्यात्व के बाहर निकला तो; लेकिन अभी मिथ्यात्व की सूक्ष्म तरंगें उठती हैं । फिर-फिर मूर्च्छा के क्षण में वापस संसार के सपने देखने लगता है। मिथ्यात्व - अभिमुख हो जाता है, यद्यपि साक्षात मिथ्यात्व में प्रवेश नहीं करता । तो सासादन का अर्थ हुआ : सपने संसार के देखता है, यद्यपि बाहर से संसार से अपने को रोक लिया है। जैसे कोई आदमी घर छोड़कर त्यागी हो गया। मंदिर में बैठा ध्यान कर रहा है, माला हाथ में है । और सब भूल गया मंदिर और माला, पत्नी की याद आ गई — तो सासादन। मिथ्यात्व से विरत होने की चेष्टा की है। श्रम किया है, मंदिर तक चला आया है, माला हाथ में ले ली, प्रार्थना में लीन है, लेकिन क्षणभर को | प्रार्थना खो गई, मंदिर खो गया, माला खो गई, पत्नी सामने खड़ी हो गई। किसी और को दिखाई न पड़ेगी यह स्थिति । यह प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही निरीक्षण करनी होगी। बहुत बार सासादन की घटना घटती है। यहां भी तुम मेरे पास बैठे हो, सुनते-सुनते अचानक घड़ी देखने लगते हो - सासादन! घड़ी देखी, मतलब कि कहीं 2010_03 अदालत जाना है, कि दफ्तर जाना है; कि संसार की याद आ गई। कई बार तो तुम घड़ी किसी कारण से भी नहीं देखते, सिर्फ पुरानी देखने की आदत देखते हो। कितना समय हो गया। कितना समय खो गया । इतनी देर संसार में कुछ कर लेते। इतनी देर गंवा दी। एक लहर मन में आ गई। यह भी स्वाभाविक है। छूटते छूटते चीजें छूटती हैं। छोड़ते-छोड़ते घटना घटती है । बार-बार पुरानी आदतें पकड़ती हैं। पुराने राग, पुराने रंग, पुरानी स्मृतियां, पुराने सुख फिर-फिर आह्वान देते हैं, फिर-फिर बुलाते हैं, फिर-फिर निमंत्रण भेजते हैं। सासादन दूसरा गुणस्थान है। जो हममें से मिथ्यात्व से ऊपर उठने की चेष्टा में लगते हैं उनकी दशा सासादन की है। पहले से बेहतर। कम कम चलो बाहर से ही सही, छोड़ा तो ! बाहर से छोड़ा तो भीतर से भी छूटेगा। इतना होश तो आया कि अहंकार का आग्रह न रखेंगे। लेकिन बेहोशी के क्षण आते हैं। उन बेहोशी के क्षणों का नाम सासादन है। तुमने तय कर लिया, अब क्रोध न करेंगे। और किसी आदमी का पैर बाजार की भीड़ में तुम्हारे पैर पर पड़ गया। उसक में तुम भूल ही गए कि तुमने तय कर लिया था अब क्रोध न करेंगे । याद ही न आयी। क्रोध हो ही गया। या न भी हुआ, उस आदमी से तुमने कुछ न भी कहा, तो भी तुम्हारे भीतर क्रोध झलक गया। एक क्षण को भीतर लपट उठ गई । तो पहले मिथ्यात्व से मुक्त होना है, फिर सासादन के भी पार जाना है। तीसरी अवस्था है : मिश्र । सम्यकत्व एवं मिथ्यात्व की मिश्रित स्थिति । कुछ-कुछ सत्य की झलक बनने लगती है। कुछ-कुछ सत्य का अवतरण होने लगता है और कुछ-कुछ अतीत संस्कारों के कारण असत्य का अंधेरा भी घिरा रहता है। जैसे दीया जलाते हो, छोटा-सा टिमटिमाता दीया । एक कोने में रोशनी भी हो जाती है, बाकी कमरा अंधेरा भी बना रहता है— मिश्र, खिचड़ी अवस्था । सम्यकत्व एवं मिथ्यात्व की मिश्रित अवस्था; दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद जैसी। ऐसा जैन शास्त्र दृष्टांत लेते हैं- दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद जैसी । जो सासादन के पार जाता है उसकी मिश्र अवस्था बनती है। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान बहुत लोग मिश्र अवस्था में होते हैं। निन्यानबे प्रतिशत तो भी वैराग्य का जन्म नहीं हो रहा है। में जीते हैं. फिर बाकी तेरह गण-स्थान तो एक प्रतिशत कम से कम एक बात तो साफ है कि वे अपने को साफ देख पा के हैं। इनमें से भी बहुत-से सासादन में ही डोलते रहते रहे हैं; जो कि काफी बहुमूल्य है। दृष्टि तो साफ है। दृष्टि साफ हैं–त्रिशंकु की भांति। उनमें से कुछ मिश्र तक आते हैं। दोनों है तो आचार भी उसके पीछे-पीछे चला आएगा। दृष्टि ही साफ चीजें भीतर होती हैं। सीमारेखा भी साफ होती है, लेकिन दोनों न हो तो आचरण के जन्मने का उपाय ही नहीं। साथ-साथ होती हैं। धर्म-बोध भी होता है, अधर्म में रस भी लेकिन दृष्टि ही साफ किए मत बैठे रहना। क्योंकि जो अभी होता है। पता भी होता है कि क्या ठीक है, और फिर भी गलत के साफ है, कल धुंधली हो सकती है। अगर आचरण में न लाई गई बंधन नहीं छूटते। तो ज्यादा देर साफ न रहेगी। दृष्टि जब मिले तो तत्क्षण साहस महावीर बहुत वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ रहे हैं। वे तुम्हारे करके उसको आचरण में लाना क्योंकि दृष्टि के क्षण बड़े कम चित्त का एक-एक स्पष्ट विश्लेषण कर रहे हैं ताकि तुम पहचान हैं। कभी-कभी बिजली कौंध जाती है और रास्ता दिखाई पड़ता लो कहां तुम हो, और फिर किस तरफ जाना है। है। उस क्षण में चल पड़ना, ऐसे खड़े मत रह जाना। क्योंकि चौथा गुणस्थान है: अविरत सम्यकदृष्टि। साधक की चतुर्थ बिजली अभी कौंधी, सदा न कौंधेगी। कल कौंधेगी कि न भूमि; जिसमें बोध हो जाने पर भी भोगों अथवा हिंसा आदि पापों कौंधेगी क्या पता! जो पहली झलकें आती हैं, वे बिजली की के प्रति विरक्त भाव जाग्रत नहीं हो पाता। कौंध की तरह हैं, उन कौंध का उपयोग कर लेना। उपयोग करने बोध भी हो जाता है, एक दृष्टि भी मिल जाती है। ठीक-ठीक से बिजली और कौंधेगी। चल पड़े तो दृष्टि और निखरेगी। समझ में आ जाता है, क्या करने योग्य है, क्या न करने योग्य है, | करने से ही दृष्टि का निखार होता है। सिर्फ सोचते रहने से लेकिन अभी निर्णय नहीं होता। राग, लोभ, मोह, हिंसा, | धारणाएं साफ हो जाती हैं, लेकिन जीवन उलझा का उलझा रह अहंकार के प्रति अभी वैराग्य का जन्म नहीं होता। ऐसा नहीं | जाता है। होता कि अब छोड़ ही दें। दिखता है कि ठीक क्या है, लेकिन जो | दृष्टि के साफ होने का मामला ऐसा है कि तुम एक पाकशास्त्र दिखता है वह आचरण नहीं बन पाता। प्रतीति होती है. लिए बैठे हो और भखे हो। और पाकशास्त्र में सब लिखा है। साफ-साफ प्रतीति होती है कि सत्य बोलें। सत्य ही शुभ है। रत्ती-रत्ती ब्यौरा दिया है कैसे भोजन बनाना। भोजन की सामग्री लेकिन असत्य का पूर्ण त्याग कर दें, इतना साहस नहीं जुट भी मौजूद है। आटा मौजूद है, पानी मौजूद है, नमक मौजूद है, पाता। यह जानना कि क्या सत्य है, एक बात है; और सत्यमय चूल्हा जला हुआ है। तुम पाकशास्त्र लिए बैठे हो। इससे भूख हो जाना बिलकुल दूसरी बात है। यह पहचान लेना कि ठीक मिटेगी नहीं। इससे कुछ हल न होगा। रास्ता कौन-सा है एक बात है, फिर उस पर चल पड़ना बिलकुल बहुत लोग शास्त्र लिए बैठे हैं। शास्त्र की चर्चा में लीन हैं। दूसरी बात है। जनम-जनम गंवाते हैं लेकिन कभी उसका उपयोग नहीं करते। अविरत सम्यकदृष्टि का अर्थ है: जो खड़ा हो गया। पुराने | भूखे के भूखे रह जाते हैं। फिर भूख भी नहीं मिटती, तो रास्ते पर जा भी नहीं रहा है, नए का दर्शन भी होने लगा है लेकिन धीरे-धीरे भूख विस्मृत होने लगती है। ठिठका खड़ा है। नए पर जा नहीं पाता क्योंकि नए पर जाना हो यह काफी मूल्यवान है। इस सूचन को खयाल में रखना। तो पुराने का परिपूर्ण त्याग चाहिए। तुम दोनों एक साथ नहीं | अगर तुम उपवास करो तो तीन-चार दिन के बाद भूख लगनी सम्हाल सकते। एक को छोड़ना होगा। बंद हो जाती है। तीन दिन सताती है। रोज-रोज तुम्हारे द्वार पर इसमें से तम अपने भीतर बहत बार ऐसा ही पाओगे। मेरे पास दस्तक देती है। तम सनते ही नहीं तो धीरे-धीरे शरीर राजी हो लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमें पता है कि क्रोध बुरा है। पता है | जाता है कि ठीक है, शायद तुमने आत्महत्या ही का तय कर कि कामवासना रोग है। पता है कि लोभ से कुछ न मिला, न लिया है, तो ठीक है। शरीर भी क्या करेगा? धीरे-धीरे, मिलेगा। पता है खाली हाथ आए हैं, खाली हाथ जाएंगे। फिर धीरे-धीरे भूख भूल जाती है। जो लोग लंबे उपवास करते हैं, ____ 2010_03 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जिन सूत्र भागः2 - और भाव उनको एक अड़चन होती है उपवास तोड़ने में, अब कैसे भोजन देशविरत का अर्थ होता है, जिसने अपने जीवन में अब सीमा ग्रहण करें? क्योंकि शरीर भूल ही गया। बहुत देर तक भूखे बनानी शुरू की। जिसने अपने जीवन को परिधि देनी शुरू की। बैठे-बैठे, शास्त्र लिए-लिए भूख विस्मृत हो जाती है। जिसने अपने जीवन में जो व्यर्थ है उसे हटाना, जो सार्थक है उसे | बहत लोगों की परमात्मा की भूख मर गई है। इतने दिन लाना शुरू किया। जिसने कहा, अब मैं यूं ही ऊलजलूल, | परमात्मा से उपवास किया है, मर ही जाएगी। परमात्मा की भूख असंगत न जीयूंगा। कभी बायें गए, कभी दायें गए, कभी दक्षिण मर गई हो तो बड़ी कठिनाई हो जाती है। ऐसे ही लोग कहते हैं | गए, कभी पूरब गए, कभी पश्चिम गए, ऐसे चल-चलकर कहीं कि परमात्मा मर गया। मरी है उनकी भख। लेकिन ठीक ही कोई पहंचेगा? सब दिशाओं में दौडते रहे तो विक्षिप्तता आएगी। कहते हैं। जिसकी भूख मर गई उसका भोजन भी मर गया। देशविरत का अर्थ होता है दिशा तय हुई, देश तय हुआ, सीमा भोजन तो तभी तक रसपूर्ण है जब तक भूख है। भूख में रस है बांधी, संयम में उतरे। अब जो करने योग्य है वही करेंगे, जो | भोजन का। भूख न लगी हो, सुस्वाद से सुस्वादु भोजन रखा रहे करने योग्य नहीं है, नहीं करेंगे। अब कर्तव्य में ही रस होगा, | | तो भी मन में कोई तरंग नहीं आती। अगर भूख बिलकुल मर गई अकर्तव्य में धीरे-धीरे विरसता को लाएंगे। सीमा दी जीवन को, | हो तो भोजन भोजन जैसा भी मालूम न पड़ेगा। भोजन भोजन | दिशा दी। और सारी ऊर्जा एक दिशा में डाली। के कारण। भख की व्याख्या है। अन्यथा जैसे शरीर, मन, वचन–तीनों असंयमी के सभी दिशाओं में भोजन भोजन जैसा न लगेगा। भागते रहते हैं। संयमी और असंयमी में इतना ही फर्क है कि परमात्मा नहीं मर गया है, अनेक लोगों की भूख मर गई है। असंयमी सभी दिशाओं में एक साथ भागता रहता है, इसलिए मरने का कारण यही है कि भूख को जिलाने के लिए भी | उथला रह जाता है। भोजन चाहिए। भूख भी भूखी रहे तो मर जाती है। जैसे कि किसी तालाब को तुम सभी दिशाओं में खोल दो, कुछ करो। जो दृष्टि मिले उसके अनुसार दो पग चलो। जो सभी दिशाओं में पानी बह जाए, तो जहां बड़ी गहराई थी और अनुभव में आए उसे थोड़ा आचरण में डालो। नीला जल दिखाई पड़ता था, वहां सब छिछला पानी हो जाएगा। जो तुम्हें दिखाई पड़े कि ठीक है, बस इसको मानकर सैद्धांतिक अगर बहुत फैल जाए तो कीचड़ ही रह जाएगी। तालाब तो खो रूप से मत बैठे रहो, अन्यथा ज्यादा देर दिखाई भी न पड़ेगा। ही जाएगा। फिर धुंध छा जाएगी। फिर मन धुएं से घिर जाएगा। थोड़े चलो। संयम का अर्थ है, संरक्षित ऊर्जा। महावीर का पारिभाषिक थोड़े आगे बढ़ो। जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे वैसे-वैसे ज्यादा स्पष्ट शब्द है-देशविरत। सीमा बनाई, देश बनाया। हर कहीं न दर्शन होंगे। | भागते रहे। अपने जीवन को संयत किया, संग्रहीत किया। तो महावीर कहते हैं अविरत सम्यकदृष्टि : चतुर्थ भूमि। इसमें अपनी ऊर्जा को एक जगह भरा तो गहराई आनी शुरू होती है। बोध तो हो जाता है, होने लगता है लेकिन भोगों और हिंसा आदि | | असंयमी आदमी छिछला होता है। आवाज बहुत करता है, पापों से विरति का भाव जाग्रत नहीं होता। जैसा छिछला जल करता है। जहां छिछली नदी होती है वहां पांचवां गुणस्थान ः देशविरत। अब संयम का क्षेत्र शुरू | बड़ा शोरगुल मचता है। कंकड़-पत्थरों पर दौड़ती है, बड़ा हुआ। अब जो तुम्हें दिखाई पड़ता है उसे तुम आचरण में उतारने शोरगुल मचाती है। नदी जितनी गहरी होती है उतना ही शोरगुल लगे। बहुत ज्यादा जानने की जरूरत नहीं है। थोड़ा जानो, कम हो जाता है। गहरी नदी पता ही नहीं चलता कि बहती भी है लेकिन उस थोडे को उतारो। हजार मील लंबे शास्त्र का कोई कि नहीं बहती? गति बड़ी शांत हो जाती है। सार नहीं, इंचभर शास्त्र-लेकिन उतारो, चलो। चलने से रास्ते देशविरतः संयम, सीमा का बांधना, कर्म और विचार को | तय होते हैं। बैठे-बैठे सोचने से कोई रास्ते तय नहीं होते। परिधि देना। इसे तुम थोड़ा सोचना। विचार करनेवाले कहीं भी नहीं पहुंचते। अस्तित्वगत है पहुंचना, | तुम जो विचार करते हो उसमें से निन्यानबे प्रतिशत न करो तो विचारगत नहीं। बौद्धिक नहीं है, जीवनगत है। चलेगा। उसमें से निन्यानबे प्रतिशत सिर्फ व्यर्थ है, शुद्ध कचरा 514 Jair Education International 2010_03 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, कचरा मात्र । उसमें कुछ भी और नहीं है लेकिन तुम्हारी ऊर्जा तो व्यय होती ही है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी अपनी ऊर्जा का पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा उपयोग ही नहीं कर पाता । पचासी प्रतिशत ऐसे ही खो जाती है। जिनके जीवन में तुम्हें कुछ घटनाएं घटती दिखाई पड़ती हैं, कोई आइंस्टीन, कोई फ्रायड, जो जीवन में बड़े सत्यों की खोज कर लाते हैं— चाहे विज्ञान के, चाहे मन के, चाहे धर्म के उनमें और तुममें फर्क क्या है? ऊर्जा सबको बराबर मिली है, समतौल में मिली है, लेकिन तुम ऊर्जा को ऐसे | ही बहाते रहते हो । एक वैज्ञानिक अपनी ऊर्जा को संयमित कर लेता है । वह सोचता तो अपनी ही विज्ञान की बात सोचता है। सपना भी देखता है तो अपने ही विज्ञान का सपना देखता है। मैडम क्यूरी को नोबेल प्राइज मिली सपने के कारण। जो हल किया सूत्र, वह उसने सपने में किया। जाग्रत रूप से तो वह तीन साल से हल कर रही थी, वह हल नहीं होता था। लेकिन सोते-जागते एक ही उधेड़-बुन थी। बस जगत में एक ही काम था उस सूत्र को हल करना । गणित का कोई सवाल था, जो अटका रहा था तीन साल से। जिस रात हल हुआ, उस रात वह सोयी, सोचते-सोचते-सोचते-सोचते उसी प्रश्न के मनन में, मंथन में डूबी सो गई। लगता है सपने में हल हुआ। नींद में मालूम होता है, उठी। उत्तर उसे मिल गया तो जाकर वह टेबल पर लिख भी आयी। वापस सो गई आकर । सुबह जब आंख खुली तो उसे याद भी न रहा । सपना याद न रहा, उठना याद न रहा, लेकिन जब वह अपने टेबल पर गई तो चकित हुई। उत्तर लिखा था । हस्ताक्षर भी उसी के थे। कमरे में दूसरा था भी नहीं। और दूसरा कोई होता भी तो भी हल नहीं कर सकता था। मैडम क्यूरी नहीं कर पा रही थी तीन साल से तब उसे धीरे-धीरे याद आयी कि रात सपना...। सपने के फिर ब्यौरे का पता चला, फिर उसे स्मरण आया कि सपने में ही उसने देखा कि वह उठी भी थी। समझा था कि सपने का ही अंग है उठना भी । और टेबल पर लिखना भी सपने जैसा मालूम हुआ था। तब सारी बात साफ हो गई। वैज्ञानिक अपनी सारी ऊर्जा को एक ही दिशा में लगा देता है। तभी तो प्रकृति के गहन सत्यों को खोज के लाता है। डुबकी 2010_03 चौदह गुणस्थान गहरी लगाता है। ऐसे ही जल के ऊपर सतह पर नहीं तैरता रहता, डुबकी मारता है। गहरे में जाता है। सारी ऊर्जा एक ही दांव पर लगाता है। ऐसा ही ध्यानी भी - महावीर, या बुद्ध, या कृष्ण, या पतंजलि गहरी डूब लेते हैं तो हीरे-मोती बीन लाते हैं। हमारे पास भी उतनी ही ऊर्जा है। ऊर्जा की मात्रा में जरा भी फर्क नहीं। जितनी महावीर को मिली उतनी तुम्हें मिली है। प्रकृति सबको बराबर देती है, मगर सभी बराबर उपयोग नहीं करते। जीसस एक कहानी कहते थे। एक बाप के तीन बेटे थे। तीनों योग्य थे, बुद्धिशाली थे। और बाप तय न कर पाता था कि किसको अपना उत्तराधिकारी बना जाए। बड़ा धन था, बड़ी जमीन थी, बड़ा वैभव था। बाप चिंतित था, किसको चुने | फिर उसने एक उपाय खोजा। उसने एक बोरे भर फूलों के बीज तीनों बेटों में बांट दिए और कहा कि मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं। जो बीज मैं तुम्हें दे जा रहा हूं, सम्हालकर रखना। इन पर बहुत कुछ निर्भर है। तुम्हारा भविष्य इन्हीं पर निर्भर है। इन्हीं के माध्यम से मैं अपने उत्तराधिकारी को चुनूंगा । इसलिए किसी भूल-चूक में मत रहना। मैं लौटकर आऊंगा तो बीज वापस चाहिए। बाप चला गया। पहले बेटे ने सोचा कि बड़ी झंझट है। बीज घर में रखें, चूहे खा जाएं, सड़ जाएं, बच्चे इधर-उधर फेंक दें। तो बेहतर यह है कि बाजार में बेच देना चाहिए। पैसे पास में रख लेंगे सम्हालकर। जब बाप आएगा, फिर बीज खरीद लेंगे, दे देंगे। सीधी गणित की बात थी । दूसरे बेटे ने सोचा कि बाप ने कहा है बीज वापस लौटाना, तो वह यही बीज चाहता होगा। कहीं बाजार में बेचें, दूसरे बीज फिर बाद में खरीदें और बाप कहे, ये तो वे बीज नहीं हैं। तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। तो उसने तिजोड़ी में बंद करके ताला बंद कर दिया । चाबी सम्हालकर रख ली कि जो दिए हैं, वही लौटा देंगे। झंझट में पड़ना क्यों ? तीसरे बेटे ने सोचा कि बीज बाजार में बेच दें तो वही बीज तो होंगे नहीं, जो पिता दे गए। धोखा होगा । तिजोड़ी में बंद करना ? पिता पता नहीं कब आएं-छह महीने, सालभर, साल। तिजोड़ी में बीज अगर सड़ गए तो राख रह जाएगी। तो उसने सोचा बेहतर है, इन्हें बो दो। उसने बीज बो दिए। 515 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 | जब सालभर बाद पिता वापस लौटा तो पहले बेटे ने लाकर ऊर्जा को एक दांव पर लगाया। जिसकी ऊर्जा तीर बनी और बाजार से तत्क्षण बीज वापस लौटा दिए। लेकिन बाप ने कहा, लक्ष्य की तरफ जिसने अपनी प्रत्यंचा को साधा। देशविरतः ये वे बीज नहीं हैं, जो मैंने तुम्हें दिए थे। शर्त यही थी कि वही लक्ष्य दिया, दिशा दी, मर्यादा बांधी। जो व्यर्थ करता नहीं, व्यर्थ लौटाने हैं। दूसरा बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने जल्दी से तिजोड़ी बोलता नहीं, व्यर्थ सोचता नहीं। जिसका सारा जीवन एक खोली। जिन बीजों से बड़े सुगंध वाले फूल पैदा होते थे वे सब संगति है। और प्रत्येक कदम दूसरे कदम से जुड़ा है। और सड़ गए थे। उनसे सिर्फ दुर्गंध आ रही थी। बाप ने कहा, मैंने जिसके जीवन में एक मर्यादा है। तुम्हें बीज दिए थे। ये तो बीज न रहे, राख हो गई। बीज का तो अगर नदी बनना हो तो किनारा चाहिए। तो सागर तक पहुंच अर्थ है, जिसमें पौधा पैदा हो सके। क्या इनमें पौधा पैदा हो सकोगे। अगर किनारे छोड़कर बहने लगे, मर्यादा टूट गई तो सकता है? और मैंने तुम्हें सुगंध की संभावना दी थी, और तुम सागर तक कभी न पहुंच सकोगे। किसी मरुस्थल में खो दुर्गंध लौटा रहे हो। मैंने तुम्हें जीते-जागते बीज दिए थे, तुम मुझे जाओगे। सागर तक पहुंचने के लिए नदी को किनारे में बंधे मुर्दा राख लौटा रहे हो? यह शर्त पूरी न हुई। रहना जरूरी है। तीसरे बेटे से पूछा। बाप बड़ा चिंतित भी हुआ कि क्या तीनों देशविरत का अर्थ है, किनारों में बंधा हुआ व्यक्तित्व। अयोग्य सिद्ध होंगे? तीसरे बेटे ने कहा, मैं मुश्किल में हूं। जो छठवां गुणस्थान है: प्रमत्तविरत। संयम के साथ-साथ मंद बीज आप दे गए थे वे मैंने बो दिए। उनकी जगह करोड़ गुने बीज रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। संयम तो आ गया, अनुशासन हो गए हैं। क्योंकि मैंने सोचा जितना पिता दे गए हैं, उतना भी | आ गया, लेकिन जन्मों-जन्मों तक जो हमने राग किया है, मोह क्या लौटाना! उतना ही लौटाना तो कोई योग्यता न होगी। किया है, लोभ किया है, उसकी मंद छाया रहती है। एकदम बाजार में मैं बेच न सका क्योंकि ये वे बीज दूसरे होंगे। दूसरे मेरे | चली नहीं जाती। हम उसके ऊपर उठ आते हैं, लेकिन हमारे भी बीज हैं लेकिन आप जो बीज दे गए थे, उनकी ही संतान हैं; अचेतन में दबी मंद छाया रहती है। हम ऊपर से क्रोध नहीं भी उन्हीं का सिलसिला है. उन्हीं की शंखला है। लेकिन जितने आप करते तो भी क्रोध की तरंगें भीतर अचेतन में उठती रहती हैं। हम दे गए थे, मैं उतने ही लौटाने में असमर्थ हूं क्योंकि मैंने कभी | लोभ नहीं भी करते। हम नियंत्रण कर लेते हैं, लेकिन भीतर गिनती नहीं की। करोड़ गुने हो गए हैं। आप सब ले लें। अचेतन लोभ के संदेश भेजता है। बाप पीछे गया भवन में। दूर-दूर तक फूल ही फूल खिले थे। कहते हैं भर्तृहरि ने सब राज्य छोड़ दिया, वे जंगल में जाकर बीज ही बीज भरे थे। बाप ने कहा, तुम जीत गए। तुम मेरे बैठ गए। बड़े अनूठे व्यक्ति थे। पहले लिखा शृंगार उत्तराधिकारी हो। क्योंकि वही बेटा योग्य है, जो संपदा को शतक-जीवन के भोग का काव्य। जीवन के भोग की जैसी पदा को जीवित रखे. जो संपदा को फैलाए जो स्तति हो सकती है वैसी भर्तहरि ने की। कोई और फिर कभी संपदा को और मूल्यवान करे। | उनके साथ मुकाबला न कर पाया। कोई और उन्हें पीछे न कर हम सभी को बराबर ऊर्जा मिली है, बराबर बीज मिले हैं। पाया। फिर लिखा वैराग्य शतक। पहले राग की स्तुति की, फिर कोई महावीर उसे खिला देता है, परमात्म-स्थिति उपलब्ध हो वैराग्य की स्तुति की। अक्सर ऐसा होता है, जो राग को ठीक से जाती है। कोई बुद्ध कमल बन जाता है। और हम ऐसे ही जीएगा, वह किसी न किसी दिन वैराग्य को उपलब्ध हो जाएगा। सिकड़े-सिकड़े या तो बाजार में बिक जाते हैं-अधिक तो हम जो शंगार शतक से ठीक से गुजरेगा, वह वैराग्य शतक को बाजार में बिक जाते हैं या तिजोडियों में सड़ जाते हैं। जो कर्मठ हैं उपलब्ध होगा। | बहुत, वे बाजार में बिक जाते हैं, जो सुस्त, काहिल हैं वे भर्तृहरि ने सब छोड़ दिया, वे जंगल में बैठे-सब बड़ा तिजोड़ियों में सड़ जाते हैं। लेकिन जीवन की इस ऊर्जा का साम्राज्य, धन-वैभव, मणि-माणिक्य। अचानक आंख खुली, फैलाव हमसे नहीं हो पाता। दो घुड़सवार सामने की ही पगडंडी पर घोड़ों को दौड़ाते हुए महावीर कहते हैं : देशविरत का अर्थ है, जिसने अपनी सारी आए। आंख खुल गई। ध्यान में बैठ थे, ध्यान टूट गया। देखा, 516 Jal Education International 2010_03 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान ONARRATE सामने एक बड़ा बहुमूल्य हीरा पड़ा है रास्ते में। उठे नहीं, मन भर्तृहरि ने आंखें बंद कर लीं। वे मुस्कुराए होंगे कि हद्द हो गई! उठ गया। गए नहीं हीरा उठाने को, मन ने उठा लिया। एक हीरा अपनी जगह पड़ा है। दो आदमी आए और चले गए। झलक भीतर कौंध गई कि उठा लूं। ऐसा नहीं कि शब्द भी बने। सब हीरे पड़े रह जाते हैं। सब जो यहां मूल्यवान मालूम पड़ता ऐसा भी जरूरी नहीं है कि ऐसा सोचा कि उठा लेना चाहिए। | है, पड़ा रह जाता है। हम आते हैं और चले जाते हैं। और नहीं, बस एक झलक कौंध गई, एक कंपन भाव का हो गया, अक्सर हम एक-दूसरे की छाती में छुरे भोंक जाते हैं। हम उसके उठा लूं। सजग हो गए, झकझोर दिया अपने को कि अरे! इतना लिए बड़े दुख दे जाते हैं, बड़े दुख उठा जाते हैं, जो हमारा कभी सब छोड़कर आया, इससे बड़े बहुमूल्य हीरे छोड़कर आया तब नहीं हो पाता। जो हमारा हो नहीं सकता है। मन में यह वासना न उठी और आज अचानक यह उठ गई? सातवाः अप्रमत्तविरत। सप्तम भूमि, जहां किसी प्रकार का चेतन से तम छोड़ दो, अचेतन इतनी जल्दी नहीं छट जाता। भी प्रमाद प्रगट नहीं होता। इतनी हलकी झलक भी जहां नहीं रह सम्हलकर बैठ गए, लेकिन एक बात तो खयाल में आ गई कि जाती। प्रगट नहीं होती। किसी तरह की अभिव्यक्ति नहीं अभी भीतर सूक्ष्म राग पड़े हैं। बड़े गहरे में होंगे। उनकी आवाज होती। सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति भी शून्य हो जाती है मूर्छा की, भी अब मन तक नहीं पहुंचती, लेकिन मौजूद हैं, तलघरे में पड़े अहंकार की, प्रमाद की। हैं। ऊपर तुम्हारे बैठकखाने तक उनकी कोई खबर भी नहीं आती इसी अवस्था में कोई व्यक्ति साधु बनता है। इस अवस्था में भी तुम्हारा ही तुम्हारे ही बैठकखाने के नीचे है। | आकर ही साधुता का आविर्भाव होता है। चौदह गुणस्थानों में जिसको मनोवैज्ञानिक अनकांशस कहते हैं, अचेतन मन कहते यह सातवां है। मध्य में आकर खड़े हो गए। आधी यात्रा पूरी हैं, महावीर उसी स्थिति की बात कर रहे हैं, प्रमत्तविरत। संयम हुई। जिसने सातवें को पा लिया हो वही साधु है। के साथ-साथ मंद रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। अभी अक्सर जिनको तुम साधु कहते हो वे सातवें तक पहुंचे हुए बेहोशी है। होश ऊपर-ऊपर है। जैसे बर्फ की चट्टान पानी में लोग नहीं होते। उनमें से कुछ तो पहले में ही अटके होते हैं। तैरती है तो एक हिस्सा ऊपर होता है, नौ हिस्से नीचे पानी में डूबी उनमें से कुछ दूसरे में अटके होते हैं। सातवें तक पहुंचना भी होती है। | कठिन मालूम होता है। क्योंकि सातवें का अर्थ है, भीतर दीया तो होश ऊपर-ऊपर है बर्फ की चट्टान की तरह। नौ हिस्सा | पूरी तरह जल गया, अब कोई अंधकार नहीं है। अब कोई बेहोशी नीचे है। दिखाई नहीं पड़ती किसी को, लेकिन स्वयं अभिव्यक्ति नहीं होती किसी राग की। व्यक्ति को समझ में आती है। और जितना होश बढ़ता है उतनी आठवांः अपूर्वकरण। साधक की अष्टम भूमि, जिसमें ही ज्यादा समझ में आती है। शायद तुम बैठे होते भर्तृहरि की प्रविष्ट होने पर जीवों के परिणाम प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व होते जगह तो तुम्हें पता भी न चलता। लेकिन बड़ी निर्मल आत्मा रही हैं। सातवें में व्यक्ति साधु बन जाता है। आठवें में घटनाएं होगी। शब्द भी न बना, और लहर पकड़ में आ गई कि भाव हो घटनी शुरू होती हैं। सातवें तक साधना है, आठवें से अनुभव गया। थोड़ा-सा मैं कंप गया हूं। कोई भी न पहचान पाता। आने शुरू होते हैं। सातवें तक तैयारी है, आठवें से प्रसाद सूक्ष्म से सूक्ष्म यंत्र भी शायद न पकड़ पाते कि कंपन हुआ है। बरसना शुरू होता है। क्योंकि कंपन बड़ा ना के बराबर था। जैसे शून्य में जरा-सी प्रतिपल अपूर्व-अपूर्व अनुभव होते हैं, जैसे कभी न हुए थे। लहर उठी। लेकिन भर्तहरि पहचान गए। | ऐसी सुगंधे आसपास डोलने लगती हैं जैसी कभी जानी न थीं। वे जो दो घुड़सवार आए, उन दोनों की नजर भी एक साथ उस | ऐसी मधुरिमा कंठ में घुलने लगती है जैसी कभी जानी न थी। सलवारें निकाली और दोनों ने कहा, पहले ऐसे जीवन की पुलक अनुभव होती है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं हो नजर मेरी पड़ी है। भर्तृहरि बैठे देख रहे हैं। एक क्षण भी न लगा, सकती। अमृत का स्वाद मिलता। वे तलवारें एक-दूसरे की छाती में चुभ गईं। हीरा अपनी जगह सातवें तक तैयारी है। पात्र तैयार हुआ। आठवें में वर्षा शुरू | पड़ा रहा. जहां दो जिंदा आदमी थे वहां दो लाशें गिर गईं। होती है। कबीर कहते हैं, बादल गहन-गंभीर होकर घिर गए। 2010_03 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 अमृत बरस रहा है। दादू कहते हैं, हजार-हजार सूरज निकल प्रतिक्षण मरते हो और प्रतिक्षण जन्मते हो। जैसे पुराना मर जाता आए ऐसी रोशनी है, कि अंधेरे को खोजो भी तो कहीं मिलता है हर क्षण और नए का आविर्भाव होता है। जैसे प्रतिपल पुराने नहीं। मीरा कहती है, पद धुंघरू बांध नाची। की धूल उड़ जाती है और तुम्हारा दर्पण फिर नया हो जाता है। ये आठवें की घटनाएं हैं-अपूर्वकरण। यहां अनूठे संगीत जिसको बौद्धों ने क्षण-क्षण जीना कहा है, वह अपूर्वकरण की का जन्म होता है। यही घड़ी है जहां झेन फकीर कहते हैं, एक | स्थिति है। जिसको कृष्णमूर्ति कहते हैं, मरो अतीत के प्रति, हाथ की ताली बजती है। अपूर्व-जो हो नहीं सकता ऐसा होता ताकि भविष्य का जन्म हो सके। छोड़ो अतीत को, पकड़ो मत, है। जो कभी हुआ नहीं ऐसा होता है। जिसको कहा नहीं जा | ताकि अपूर्व घट सके सकता ऐसा होता है। जिसको बताने का कोई उपाय नहीं। गूंगे यह अपूर्वकरण ध्यान का पहला स्वाद है। यहां से तुम दूसरे का गुड़। गूंगे केरी सरकरा। लोक में प्रविष्ट हुए। यहां से दूसरी दुनिया शुरू हुई। ऐसा इस घड़ी में आदमी बड़े आनंद में लीन होने लगता है। और | समझो, अपूर्वकरण है, जैसा कि कोई यात्री नाव में बैठे नदी के प्रतिपल नया-नया होता जाता है। द्वार के बाद द्वार खुलते चले इस किनारे से और नाव चले, तो मध्य तक तो पुराना किनारा ही जाते हैं, पर्दे के बाद पर्दे उठते चले जाते हैं। सात तक तुम साधो, दिखाई पड़ता रहता है—सातवें तक। नए किनारे का पता नहीं आठ के बाद घटता है। चलता। दूसरा किनारा अभी धुंध में छिपा है दूर। आठवें से, अपर्वकरण : नाम भी महावीर ने ठीक दिया। पहले जैसा नहीं पराना किनारा तो दिखाई पड़ना बंद होने लगता है, नया किनारा हुआ, कभी नहीं हुआ। और जब तुम्हें पहली दफा होता है तभी | दिखाई पड़ना शुरू होता है। आठवें से पुराना तो धुंध में छिप तुम्हें भरोसा भी आता है। कि महावीर हुए होंगे कि बुद्ध हुए जाता और नए का आविर्भाव होता है। आठवां, साधु के जीवन होंगे, कि कबीर ठीक कहते हैं। तुम गवाही बनते हो। आठवें पर में आत्मा का जन्म है। आठवां, अंधेरे में प्रकाश का अवतरण तुम्हारी गवाही पैदा होती है। आठवें के पहले तुम जो सिर है। आठवां, मरुस्थल में अमृत की वर्षा है-अपूर्वकरण। हिलाते हो वह बहुत सार्थक नहीं है। आठवें के पहले तुम कहते और फिर ऐसा नहीं है कि वही-वही अनुभव रोज दोहरता है, | हो हां, ठीक लगती है बात। बस, वह लगती ही है। तर्क से प्रतिपल नया होता जाता है। जैसे-जैसे तम दसरे किनारे के लगती होगी, संस्कार से लगती होगी। बार-बार सुनी है, | करीब होने लगते और चीजें स्पष्ट होने लगती हैं, हर घड़ी गहन पुनरुक्ति से लगती होगी। या तुम्हारे भीतर वासना है, आकांक्षा | से गहन, सघन से सघन प्रतीति आनंद की होती चली जाती है। है कि ऐसा घटे, इसलिए तम मान लेते होओगे कि हां, घटता है। नौवाः अनिवत्तिकरण। साधक की नवम भमि में, जिसमें लेकिन आठवें पर पता चलता है। आठवें पर तुम दस्तखत समान समवर्ती सभी साधकों के परिणाम समान हो जाते हैं और कर सकते हो कि हां, महावीर हुए, कि बुद्ध हुए, कि जीसस प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुनी विशुद्धता को प्राप्त होते हैं। कहा है, ठीक कहा है। क्योंकि अब अनिवत्तिकरण नौवीं साधक की भमि है। यह समझने जैसी है। तुम्हारे अनुभव में आ रही बात। अब अस्तित्वगत प्रमाण मिल | इस स्थिति में लोगों के व्यक्तित्व समाप्त हो जाते हैं, व्यक्तिगत रहा है। भेद समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में आकर सभी साधक एक अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है, आत्मा है। जैसे हो जाते हैं। उनकी समान दशा हो जाती है। इस समय तक अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है कि परमात्मा है। व्यक्तित्व की छाया रहती है। कोई स्त्री है, कोई पुरुष है, कोई अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है, समाधि है। बुद्धिमान है, कोई बहुत बौद्धिक है, कोई संगीत में कुशल है, इसके पहले सब तर्कजाल है। इसके बाद ही अनुभव के स्रोत कोई गणित में कशल है, कोई कलाकार है, कोई कछ है। खुलने शुरू होते हैं। __ आठवें तक भेद बने रहते हैं। नौवें से अभेद शुरू होता है। इस प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व। तब कुछ भी जीवन में जड़ता जैसी | समय, जो भी साधक नौवें में पहुंचता है उसके व्यक्तित्व की नहीं रह जाती। यंत्रवत कुछ भी नहीं रह जाता। जैसे तुम खोल गिर जाती है। जैसे सांप सरक जाता है पुरानी चमड़ी को 5181 Jal Education International 2010_03 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REPANA चौदह गणस्थान - छोड़कर, पुरानी खोल को छोड़कर। यहां से अव्यक्तिगत जीवन | है, अपना रेडियो है, अपनी पसंद का फर्निचर है, अपने ढंग के शुरू होता है। यहां से तुम्हारा कोई भेद किसी से नहीं रह जाता। पर्दे हैं। न तुम स्त्री, न तुम पुरुष; न तुम गोरे, न तुम काले; न तुम सुंदर, फिर तुम दोनों ऐसा करो कि धीरे-धीरे चीजों को बाहर न तुम असुंदर; न तुम महत्वपूर्ण, न तुम महत्वहीन। इस निकालते जाओ। जब कमरे दोनों खाली हो जाएंगे तो बड़े समान अवस्था में सभी समान हो जाते हैं। हो जाएंगे। क्योंकि भेद पर्दे का था। पर्दे अलग हो गए। भेद और ध्यान रखना, यह अभी केवल नौवीं अवस्था है। नौवीं कुर्सी-टेबल का था, कुर्सी-टेबल अलग हो गई। भेद चित्रों का अवस्था में व्यक्ति को समता के बोध का जन्म होता है। तब वह था, चित्र दीवाल से अलग हो गए। भेद रेडियो-टेलिविजन का सबमें एक का ही वास देखता है। उनमें भी जो सोए हैं, वह उस था, वे भी अलग हो गए। अब दोनों कमरे खाली रह गए, काफी एक को ही देखना शुरू कर देता है, जो उसके भीतर जग गया एक जैसे हो गए। क्योंकि दोनों कमरे केवल कमरे रह गए। है। अब फर्क सोने और जगने का होगा, लेकिन अब और कोई दोनों के भीतर शुद्धता है, शून्यता है। दोनों में अवकाश है। फर्क नहीं है। इस घड़ी में न तो साधु जैन रह जाता है, न हिंदू, न जैसे-जैसे चीजें खाली होती हैं तुम्हारे भीतर से, वैसे-वैसे मुसलमान। रह ही नहीं सकता। इस घड़ी में न तो अवकाश, आकाश उपलब्ध होता है। आकाश समान है। मंदिर-मस्जिद में कोई फर्क रह जाता, न गुरुद्वारा में, गिरजाघर में भराव के कारण भेद है। एक किताब कुरान है, एक किताब कोई फर्क रह जाता। इस घड़ी में जिन्होंने भी जाना है वे सभी एक | बाइबल है। दोनों में से स्याही के अक्षर छांटकर बाहर निकाल ही वक्तव्य को देते मालूम पड़ते हैं। भाषा होगी अलग, कथन लो, कोरे कागज रह गए। फिर फर्क करना मुश्किल हो जाएगा, अलग नहीं। कथ्य होगा अलग, कथन अलग नहीं। कथा होगी कौन कुरान है और कौन बाइबल है। कोरी किताबें बस कोरी भिन्न-भिन्न, लेकिन जो कहा जा रहा है वह एक ही है। किताबें हैं। कौन कुरान, कौन बाइबल? नौवीं अवस्था में व्यक्ति धर्मों के विशेषणों के पार हो जाता है। सूफियों की एक बड़ी प्रसिद्ध किताब है, जिसमें कुछ भी लिखा देह की भिन्नता के पार हो जाता है, मन की विशिष्टताओं के पार हुआ नहीं है। उसको वे कहते हैं, 'द बुक आफ द बुक।' हो जाता है। सामान्य का जन्म होता है, या सार्वलौकिक। किताबों की किताब। खाली है। सूफी फकीर उसको खूब पढ़ते साधक की नवम भूमि, जिसमें समान समवर्ती सभी साधकों हैं, वही पढ़ने जैसी है। उसमें कुछ लिखा नहीं है। सूफी फकीर के परिणाम समान हो जाते हैं और प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुनी बैठ जाते हैं, सुबह से खाली किताब खोलकर पढ़ने लगते हैं। विशुद्धता को प्राप्त होते हैं। और इसी क्षण से विशुद्धता बढ़नी चेष्टा यह है कि इसी खाली किताब जैसे खाली हो जाएं। शुरू होती है। महावीर जिसको नौवीं भूमि कहते हैं, वही है 'द बुक आफ द समता के बाद है विशुद्धता। बुक'। वही है किताबों की किताब। वहां साधक शून्यता को इसलिए जो अभी कह रहा हो कि मैं जैन मुनि हूं, वह अभी उपलब्ध होता है। कहीं भटक रहा है विशेषण में। जो कहता हो मैं हिंदू संन्यासी हूं, दसवां गुणस्थान ः सूक्ष्मसाम्पराय। जहां सब कषाय क्षीण हो वह अभी कहीं भटक रहा है विशेषण में। जो कहता हो मैं ईसाई जाने पर भी लोभ या राग की कोई सूक्ष्म छाया शेष रहती है। हूं, वह भटक रहा कहीं विशेषण में। अब यह जरा समझने जैसा है। नौवें पर सब शून्य हो गया। विशेषण छट जाते हैं। क्योंकि भीतर जिसका अनभव होता है | दसवें में महावीर कहते हैं, जहां सब कषायें क्षीण हो गईं, फिर भी वह बिलकुल एक-रस है। इसीलिए शुद्धता बढ़ती है। | राग की कोई सूक्ष्म छाया शेष रहती है। ऐसा समझो कि तुम्हारा कमरा है, बैठकघर है तुम्हारा, तुम्हारा | तुम्हारे कमरे तो समान हो गए, लेकिन तुम्हारे तलघरों का फर्निचर है, दीवाल पर तुम्हारी तस्वीरें हैं, तुम्हारी घड़ी है, तुम्हारा | क्या? तुम्हारा चेतन मन तो बिलकुल समान हो गया। जहां तक फूलदान है, तुम्हारा रेडियो-टेलीविजन है। फिर किसी दूसरे का, | | तुम्हारा बोध जाता है वहां तक तो सब समान हो गया, लेकिन पड़ोसी का बैठकघर है, उसकी अपनी तस्वीरें हैं, अपना फूलदान अनंत-अनंत जन्मों में जो कर्मों की सूक्ष्म रेखाएं तुम्हारे भीतर मा 519 ___ 2010_03 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 RER पड़ी हैं, उनका क्या? हैं, क्योंकि उनका सूक्ष्म भाव वहां लटका रह जाता है। सदियां तुमने कभी देखा? पानी को बहा दो फर्श पर, धूप आती है, बीत जाती हैं। जब कभी तुम ऐसी जगह जाकर खड़े हो जाओगे, पानी उड़ जाता है लेकिन एक सूखी रेखा रह जाती है। वह जहां कभी कोई संत बैठा था और समाधि को उपलब्ध हुआ था, दिखाई भी नहीं पड़ती। साधारणतः कोई उसको देख भी नहीं तो वह जगह अब भी उस गीत को गुनगुना रही है; तुम्हें चाहे पाएगा, जहां से पानी बहा था। अब वहां पानी बिलकुल नहीं पता भी न चले। लेकिन पता तुम्हें भी चल जाता है। तुम्हें भी है। अब पानी का नाममात्र भी नहीं बचा, लेकिन एक सूखी रेखा कभी-कभी लगता है, किसी स्थान पर बैठकर बड़ी शांति रह गई है। अगर तुम पानी फिर ढालो तो बहुत संभावना है कि मिलती है। किसी स्थान पर बैठकर एकदम तुम अशांत होने उसी सूखी रेखा को पकड़कर पानी बहेगा। क्योंकि वह सूखी लगते हो। किसी वृक्ष के नीचे बैठकर बड़ा अहोभाव पैदा होता रेखा सुगम होगी। है। किसी घर में जाते ही कुछ भय लगता है। किसी घर में तुम कर्म सूखी रेखाएं हैं। जहां तुमने बहुत-बहुत कर्म किए थे, | कभी गए भी नहीं, बाहर से ही निकलते हो, लेकिन मालूम होता क्रोध बहुत बार किया था, क्रोध तो छोड़ दिया, क्रोध का फर्निचर है कोई बुला रहा, निमंत्रण है-आओ। कोई तुम्हें पाहुना बनाना तो बाहर फेंक दिया; लोभ बहुत बार किया, लोभ भी छोड़ चाहता है। कोई कहता है, पधारो जी। कोई कह नहीं रहा, दिया, लेकिन अनंत कालों में अनंत लोभ के जो परिणाम हुए थे, | लेकिन घर की स्थिति, घर के सूक्ष्म कंपन...। और तुम्हारी जीवनधारा से जो लोभ बहा था, उसकी सूखी रेखाएं तो महावीर कहते हैं, दसवीं स्थिति है : सूक्ष्मसाम्पराय। अति रह गई हैं। वे तुम्हें दिखाई भी नहीं पड़तीं। वे नौवीं अवस्था में | सूक्ष्म। दिखाई नहीं पड़ेंगे; अदृश्य लेखन हैं। वे नौवें को ही पहुंचे व्यक्ति को ही दिखाई पड़नी शुरू होती हैं। वे इतनी सूक्ष्म | दिखाई पड़ेंगे, जो इस अवस्था में आ गया है, जहां अब सब | हैं, हैं ही नहीं, लेकिन हैं। समान है। सब विशेषण गिर गए, सब रूप-रंग-आकृतियां गिर जैसे तुम्हारा कमरा खाली कर दिया, पड़ोसी का भी कमरा गईं, उसी को दिखाई पड़ेगा। जन्मों-जन्मों में जो-जो किया गया खाली कर दिया, लेकिन फिर भी तुम्हारे कमरे में एक खास बात | है उसकी सूक्ष्म तरंगें भीतर शेष रह गई हैं। होगी, जो पड़ोसी के कमरे में न होगी। तुम इतने दिन तक इस जहां सब कषायें क्षीण हो जाने पर भी लोभ या राग की कोई कमरे में रहे, तुम्हारी बास इस कमरे में होगी। तुम्हारा होने का | सूक्ष्म छाया शेष रहती है। ढंग इस कमरे में होगा। तुम्हारी उपस्थिति इस कमरे में होगी। ग्यारहवीं अवस्था है: उपशांतमोह। साधक की ग्यारहवीं तुम इतने दिन तक इस कमरे में रहे, तुम्हारी आदतें, तुम्हारे भूमि, जिसमें कषायों का उपशमन हो जाने से वह कुछ काल के मनोवेग, तुम्हारी वासनाएं इस कमरे में उठीं और फैलीं, वे इस लिए अत्यंत शांत हो जाता है। कमरे में होंगी। ऐसी अवस्था—जैन शास्त्रों में जो उदाहरण दिया जाता है वह तुमने अगर इस कमरे में किसी की हत्या कर दी थी तो उस | ठीक है-ऐसी है, जैसे कि किसी नदी से, छोटे झरने से हत्या की घटना इस कमरे पर बड़ी स्पष्ट रूप से लिखी है। बैलगाड़ियां गुजर गईं। उनके गुजरने से जमीन में जमी मिट्टी, अदृश्य है लिखावट, कोई उसे पढ़ न पाएगा, लेकिन लिखी है। कूड़ा-कर्कट, सूखे पत्ते, सब ऊपर उठ आये। झरना गंदा हो जिस कमरे में किसी की हत्या हुई हो, उस कमरे में तुम अगर | गया। फिर बैलगाड़ियां चली गईं दूर, धीरे-धीरे पत्ते फिर बैठ जाकर सोओगे तो रात ठीक से सो न पाओगे। वर्षों पहले हुई गए, धूल फिर बैठ गई तलहटी में, झरना फिर स्वच्छ और साफ होगी हत्या, लेकिन कोई चीख-पुकार अभी भी दीवाल की कणों | हो गया। से लटकी रह गई है। कोई सूक्ष्म भाव अभी भी भटकता रह गया | तो ऊपर तो बिलकुल स्वच्छ और साफ हो गया है। पी लो, है। उसी को तो हम प्रेतात्मा कहते हैं। कोई सूक्ष्म भाव लटका इतना स्वच्छ है। लेकिन अगर जरा हिलाया तो नीचे पर जो बैठी रह गया है। धूल है, वह फिर उठ आएगी। कूड़ा-कर्कट बैठा है नीचे। इसलिए जहां संत बैठे हैं, जहां संत चले हैं वहां तीर्थ बन जाते | सम्हालकर चुल्लू भरना, अन्यथा फिर उठ आएगा। 5200 2010_03 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह गुणस्थान - यह जो ग्यारहवीं अवस्था है, यह है उपशांतमोह। मोह शांत | हो गया है। जिनः जाग गया है। केवल-ज्ञान की उपलब्धि, हो गया। जैसे धूल, कूड़ा-कर्कट झरने में नीचे बैठ गया; | परमात्मा या भगवान की संज्ञा। लेकिन मिट नहीं गया है। बहुत सम्हल-सम्हलकर चलना | महावीर कहते हैं, इस तेरहवीं अवस्था में व्यक्ति भगवान की होगा। इस अवस्था में व्यक्ति को ऐसे चलना होता है, जैसे कोई | स्थिति में है लेकिन अभी काया से जुड़ा है। अभी देह से संबंध गर्भिणी स्त्री चलती है। एक गर्भ है; पेट में एक नया जीवन है। | है। सब समाप्त हो गया, लेकिन अभी देह से मुक्ति नहीं हुई है। सम्हलकर चलती है, कहीं गिर न जाए, फिसल न जाए। अभी देह के भीतर है। जैसे-जैसे गर्भ बड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे सावधानी ऐसा समझो कि तुम जेलखाने में बंद हो और खबर आ गई। बरतनी होती है। इस ग्यारहवीं अवस्था में हम आखिरी अवस्था | जेलर ने आकर कहा कि खड़े हो जाओ, छुटकारे का समय आ के बहुत करीब आ गए। समझो कि सात महीने पूरे हुए गर्भ के; | गया। तुम्हारी मुक्ति का क्षण आ गया। जंजीरें खोल दी गईं, तुम कि आठवां महीना लग गया; कि अब नौवां महीना करीब आ चल पड़े जेलर के साथ दरवाजे की तरफ, लेकिन अभी तुम रहा है। अब बड़ी सावधानी की जरूरत है। दरवाजे के भीतर हो। एक अर्थ में मुक्त हो गए। हो ही गए उस सावधानी पर जोर देने के लिए ही इसको महावीर ने मुक्त। अब कुछ बचा नहीं। जंजीरें भी छूट गईं, मुक्ति का उपशांतमोह कहा है। बैठ गई तलहटी में धुल, उठ सकती है। आदेश भी आ गया, द्वार की तरफ चल भी पड़े, लेकिन अभी भी निश्चित होकर मत बैठ जाना। अभी अंत नहीं आ गया। बड़ी कारागृह में हो। अब कोई कारण नहीं कि तुम रहोगे कारागृह में सुखद अवस्था है, बड़ी शांति की अवस्था है। कुछ क्षण में तो लेकिन हो अभी भी। ऐसा लगेगा कि सिद्ध हो गए। कुछ फर्क नहीं है सिद्ध में और महावीर कहते हैं, इस अवस्था में व्यक्ति को भगवान या इस अवस्था में, जहां तक पानी की स्वच्छता का संबंध है। फर्क | परमात्मा की संज्ञा उपलब्ध होती है। इतना ही है कि सिद्ध का पानी अब तुम कितना ही उछलो-कूदो, फिर चौदहवीं अवस्था है : अयोगिकेवलीजिन। अयोगी यानी गंदा नहीं हो सकता। यह अभी गंदा हो सकता है। अगर किनारे | जब शरीर से भी संबंध छूट गया, तब तुम कारागृह के बाहर हो से बैठकर देखो तो दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। | गए। जरा-सा फर्क है; शायद इंचभर का। एक क्षणभर पहले उपशांतमोह की अवस्था का व्यक्ति ठीक सिद्ध जैसा मालूम तुम कारागृह के भीतर थे, एक क्षण के बाद कारागृह के बाहर हो होगा। साधारणतः बाहर से लोग फर्क भी नहीं कर सकते, मगर गए। बहत बड़ा भेद नहीं है। इसलिए महावीर कहते हैं, तेरहवीं वह स्वयं फर्क कर सकता है। अभी विकृति उठ सकती है। अवस्था में व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है। सब अभी सांप आखिरी बार फन उठा सकता है। व्यावहारिक अर्थों में वह भगवत्ता को उपलब्ध हो गया। बारहवीं अवस्था है: क्षीणमोह, कषायों का समूल नाश। अब जरा-सी बात रह गई है कि अभी कारागह के दरवाजे के पार नहीं ऐसा नहीं कि झरने में नीचे कचरा बैठा है, कचरा झरने से समाप्त | हुआ है। कर दिया गया। जब बिलकल शद्ध हो गया है। अयोगिकेवलीजिनः साधक की अंतिम भूमि। जिसमें मन, फिर भी महावीर अभी इसको बारहवीं अवस्था कहते हैं। वचन, काया की समस्त चेष्टाएं शांत होकर शैलेशी स्थिति प्राप्त महावीर का गणित बहुत साफ है। होती है। तेरहवीं अवस्था हैः संयोगिकेवलीजिन। महावीर कहते हैं अब डिग नहीं सकता। तेरहवीं अवस्था तक थोड़ा-सा खतरा सब ठीक हो गया, लेकिन अभी देह से संबंध है। अभी देह से | है। जेलर का मन बदल जाए, कोई दुर्घटना हो जाए, वह जो द्वार संयोग है। सब समाप्त हो गया, लेकिन अभी जो चैतन्य जागा | पर खड़ा पहरेदार है चाबी घर भूल आया हो; कि चाबी लगे न, है, वह अभी देह में है। अभी देह से जुड़ा है। | कि चाबी खराब हो गई हो, कि ताला अटक जाए। अभी भीतर संयोगी, केवली, जिन-तीन शब्द हैं। संयोगी : संयोगी का है, बिलकुल चल पड़ा है बाहर होने के लिए, लेकिन अभी देह से अर्थ है, अभी देह से संबंध है। केवली : केवलज्ञान को उपलब्ध | जुड़ा है। चौदहवीं अवस्था में देह से संबंध पूर्ण रूप से छूट 5211 ___ 2010_03 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 जिन सूत्र भाग: 2 गया। तो शैलेशी अवस्था । यह चौदहवीं अवस्था भी साधक की आखिरी अवस्था है। इन चौदहों के जो आगे चला गया, उसको सिद्ध कहते हैं । तो सिद्ध की अवस्था गुणातीत है— गुणस्थान - मुक्त | सिद्ध परिभाषा के बाहर है। जो हिंदू शास्त्रों में ब्रह्म की परिभाषा है, वही जैन शास्त्रों में सिद्ध की परिभाषा है— सच्चिदानंदरूप । चूंकि ब्रह्म का तो कोई शब्द जैनों के पास नहीं है— सिद्ध । क्योंकि जैनों की तो सारी खोज स्वयं की खोज है। तेरहवीं अवस्था से व्यक्ति भगवान की अवस्था को उपलब्ध होता है । भगवत्ता अनुभव हो जाती है, कि जीवन भगवतस्वरूप है। लेकिन एक आखिरी बात रह जाती है— देह का पर्दा । चौदहवें पर वह पर्दा भी गिर जाता। फिर पंद्रहवीं में क्या होता है? पंद्रहवें पर यात्रा समाप्त हो गई। उसके पार कुछ भी नहीं है। उसको पंद्रहवां भी नहीं कहते । चौदह गुणस्थान हैं, पंद्रहवीं अवस्था तुम्हारा स्वभाव है। चौदह को पार करके कोई स्वयं को उपलब्ध होता है। महावीर के इस गणित को स्मरण रखना। इसमें तत्क्षण तुम्हें समझ में आ सकेगा कि तुम कहां खड़े हो । और पता चल जाए कि मैं कहां हूं तो ही यात्रा सुगमता से होती है। तुम हो तो पहली अवस्था में, और सोच रहे हो सातवीं अवस्था में, तो तुम चल न पाओगे। चलोगे तो पहली से ही चलना पड़ेगा। जहां हो वहीं से यात्रा शुरू होगी। तुम जहां नहीं हो वहां से यात्रा शुरू नहीं हो सकती। इसलिए ठीक-ठीक अपने को पहचानना । और मैं कहता हूं कि महावीर के अतिरिक्त किसी व्यक्ति ने कभी भी इतना सूक्ष्म तौलने का उपाय नहीं दिया है। यहां एक-एक बात साफ कर दी गई है। अड़चन न होगी। तुम अपने को ठीक-ठीक जांच पाओगे, कहां हो। और तुम कहां हो यह जानना अत्यंत जरूरी है, तो ही तुम वहां पहुंच सकोगे जहां पहुंचना है। अगर स्मरणपूर्वक इस यात्रापथ का उपयोग किया, इस यात्रामार्ग-निर्देश का उपयोग किया तो किसी न किसी क्षण में वह अपूर्व, विलक्षण, अलौकिक घटना घटती है, जब तुम अपने घर आ जाते हो। आज इतना ही। 2010_03 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education inte FOR WWW Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां प्रवचन प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में क्या भिन्नता है, इसे समझाने की कृपा करें। क्या तेरहवें गुणस्थान को उपलब्ध होकर भी उससे च्युत हुआ जा सकता है? क्या प्रेम के मार्ग पर भी कोई सीढ़ियां होती हैं ? रजनीश एशो आमी तोमार बोइरागी मी पूना गेला, आमी काशी गेलाम लाओ लाओ संगे डुगडुगी 2010_03 देह की वृद्धावस्था, मन में आशंका, मरने की पूरी तैयारी, वापसी का भी भय नहीं - लेकिन दुबारा भगवान तो मिलेंगे नहीं! रजनीश महाराज को नमस्कार कैसे करें जब तक कि भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए ? Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H . हला प्रश्नः बारहवें और तेरहवें गुणस्थानः | जैसा है। तेरहवां गुणस्थान पूर्ण जैसा है। बौद्धों ने निर्वाण की जो क्षीणमोह और सयोगिकेवलीजिन में क्या भिन्नता परिभाषा की है, वह बारहवें गुणस्थान की ही परिभाषा है।। है इसे स्पष्ट करने की कृपा करें। इसलिए जैन दृष्टि में अभी और थोड़े आगे जाना है। शून्य तो हो गए, अभी पूर्ण नहीं हुए। मोह तो गया, राग गया लेकिन यह प्रश्न स्वाभाविक है। जैन शास्त्रों में इस संबंध में बड़ा | अभी वीतरागता नहीं उतरी। तुम तैयार हो गए, मेहमान अभी ऊहापोह है। क्योंकि दोनों अवस्थाएं करीब-करीब एक जैसी | नहीं आया। तुमने घर सजा लिया, द्वार-दरवाजों पर बंदनवार मालूम पड़ती हैं। | बांध दिए, स्वागतम लटका दिया, दीये जला लिए, धूप-दीप बारहवीं अवस्था में समस्त मोह, माया शून्य हो जाती है। कुछ बाल ली। तुम तैयार हो गए, मेहमान अभी नहीं आया। शेष बचता नहीं। और कुछ होने की संभावना भी न रही। सब | बारहवें में तुम्हारी तैयारी पूरी हो गई। अब तुमसे कुछ और बाधाएं गिर गईं, सब अवरोध समाप्त हुए। फिर तेरहवीं | नहीं मांगा जा सकता, तुम जो कर सकते थे, जो मनुष्य के लिए अस्वस्था में, तेरहवें गणस्थान में सत्र केवल इतना ही कहते हैं, संभव था, वह हो गया। अब उतरेगा कोई। प्रकाश का सयोगिकेवलीजिन। केवलज्ञान उपलब्ध होता है. जिनत्व | अवतरण होगा। पात्र तैयार हो गया, अमत की अब वर्षा होगी। उपलब्ध होता है। इसे तुम ऐसा मत सोचना कि इन दोनों के बीच समय का कोई लेकिन जब सभी मोह क्षीण हो गए, जब सभी बाधाएं हट गईं, फासला है। इन दोनों के बीच 'एम्फेसिस', जोर का फासला जब अंधकार जाता रहा तो फिर दोनों में फर्क क्या है? दोनों में है। तुम यह मत सोचना कि बारहवां घट गया तो तेरहवें के घटने देह है, इसलिए सयोगी से कोई फर्क नहीं पड़ता। बात थोड़ी में अब कुछ समय लगेगा। युगपत हो सकता है। यह विश्लेषण बारीक है और नाजुक है। ऐसा समझना, कभी तुम बीमार पड़े, तो इसलिए है ताकि तुम्हें सीढ़ी-सीढ़ी बात समझ में आ जाए। चिकित्सा हुई। सारी बीमारियां चली गईं तो भी जरूरी नहीं कि ऐसा भी हो सकता है, बीमारी गई और तुम स्वस्थ हो गए, तुम स्वस्थ हो गए। अभी दौड़ न सकोगे, अभी श्रम न कर | लेकिन बीमारी का जाना ही स्वस्थ हो जाना नहीं है। बीमारी का सकोगे। चिकित्सक कहेगा कुछ देर आराम करो। बीमारी तो जाना स्वस्थ होने के लिए अनिवार्य चरण है। लेकिन बीमारी का गई, लेकिन स्वास्थ्य का आविर्भाव होने दो। न होना ही स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं है। स्वास्थ्य कुछ विधायक बारहवां गुणस्थान नकारात्मक है। तेरहवां गुणस्थान विधायक है। ऐसा नहीं है कि जब तुम स्वस्थ होते हो तो तुम इतना ही कह है। बारहवें गुणस्थान में जो कूड़ा-कर्कट था, वह गया। व्यर्थ सकते हो कि मेरे सिर में कोई दर्द नहीं है, पेट में कोई दर्द नहीं है, हटा। लेकिन सार्थक को उतरने दो। बारहवां गुणस्थान शून्य कहीं कांटा नहीं चुभता; इतना ही कह सकोगे? कि कैंसर नहीं 527 2010_03 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 है, टी. बी. नहीं है। स्वास्थ्य की बस इतनी ही व्याख्या कर चित्त की दशा है। क्या छोड़ा यह मूल्यवान नहीं है, छोड़कर जो सकोगे? या कहोगे कि कुछ अपूर्व मुझे भरे है, कुछ लहरा रहा | मिलता है वही मूल्यवान है। जो मिलता है, उसे छोड़ने से नहीं है। कुछ मेरे रोएं-रोएं में कंप रहा है, जो सिरदर्द का अभाव ही | नापा जा सकता। नहीं है, जो किसी अनूठी ऊर्जा की मौजूदगी है। किसी परम या ऐसा समझो कि एक आदमी ने एक पैसा चुरा लिया और शक्ति का मेरे भीतर निवास है। | दूसरे आदमी ने करोड़ रुपये चुरा लिए। क्या करोड़ रुपये स्वास्थ्य विधायक है। इसलिए पूरब में जो स्वास्थ्य का विज्ञान | चुरानेवाला बड़ा चोर है? एक पैसा चुरानेवाला छोटा चोर है। है उसे हमने आयुर्वेद कहा है। पश्चिम का शब्द मेडिसिन, | तो फिर तुम समझे नहीं। मेडिकल साइंस बहुत दरिद्र है। मेडिसिन का मतलब होता है | चोरी तो बराबर है। एक पैसे की हो कि करोड़ रुपये की हो। सिर्फ औषधि। पश्चिम ने चुना मेडिकल साइंस-औषधि का चोरी में कोई मात्रा से फर्क नहीं पड़ता। एक आदमी ने एक पैसे विज्ञान: क्योंकि उनकी दष्टि में स्वास्थ्य का अर्थ है. बीमारी का | की चोरी छोड़ी। एक पैसा रास्ते पर पड़ा था, वह पड़ा रहा और न हो जाना। | निकल गया। और एक आदमी के रास्ते पर करोड़ रुपये पड़े थे, पूरब ने चुना आयुर्वेद : आयु का विज्ञान, जीवन का विज्ञान। | उसने करोड़ रुपये की चोरी छोड़ी। चोरी की संभावना थी, न सिर्फ औषधि नहीं है आयुर्वेद, औषधि से कुछ ज्यादा है। की। इन दोनों में कौन-सा बड़ा अचोर है? दोनों अचोर हैं। औषधि से तो इतना ही मालूम होता है, दर्द न रहा। लेकिन दर्द न अचौर्य चित्त की एक विधायक दशा है। रहने का अर्थ, आनंद हो गया? दर्द रहता तो आनंद में बाधा बारहवां गुणस्थान कहता है संसार नहीं हुआ, समाप्त हुआ। पड़ती जरूर, दर्द न रहा तो आनंद के लाने में सुविधा हो गई जैसे तुम किसी देश की सीमा पार करते हो, तो जो इस देश की जरूर; लेकिन दर्द का न होना ही आनंद की परिभाषा है? सीमा है, समाप्त होता है देश, वही दूसरे देश की शुरुआत है। बौद्ध बारहवें गुणस्थान को निर्वाण की परिभाषा मानते हैं, तो सीमा पर जो तख्ती लगी होती है, एक तरफ लिखा होता इसलिए वे आनंद की बात नहीं करते। वे कहते हैं, परम है-भारत समाप्त। दूसरी तरफ लिखा होगा है-चीन शुरू। अवस्था-दुख-निरोध। निर्वाण यानी दुख-निरोध; दुख न बारहवां गुणस्थान इस तरफ की खबर देता है-'संसार रहेगा। इससे आगे बात नहीं करते। उनसे पूछो, दुख न रहेगा समाप्त'; तेरहवां गुणस्थान उस तरफ की खबर देता यह भी कोई बात हुई ? रहेगा क्या फिर? होगा क्या फिर? है—'मोक्ष शुरू।' दोनों एक ही तख्ती पर होंगे। तख्ती की संसार न रहेगा, समझ में आ गया, लेकिन क्या मोक्ष की बस एक तरफ लिखा है-'संसार समाप्त'; दूसरी तरफ लिखा है इतनी ही परिभाषा है? फिर मोक्ष अपने आप में क्या है? अगर 'मोक्ष प्रारंभ।' दोनों में रत्तीमात्र फासला नहीं दिखाई पड़ता, पर संसार से ही परिभाषा हो सकती हो मोक्ष की, तो मोक्ष बड़ा लचर फासला बड़ा है। दोनों की सीमारेखा एक ही है। इसलिए जैन हुआ, बड़ा कमजोर हुआ, दीन हुआ, दरिद्र हुआ। जिसकी | शास्त्रों में भी खूब चिंतन चला है कि फर्क क्या है? परिभाषा भी संसार से ही करनी होती हो...। __ मेरे देखे बारहवां गुणस्थान इतना ही कहता है कि जो छोड़ने ऐसा समझो कि एक आदमी अमीर है, वह धन का त्याग कर योग्य था, छूट गया; जो मिटने योग्य था, मिट गया; जो व्यर्थ दे; और एक आदमी गरीब है, उसके पास बहुत कुछ नहीं है, था, असार था, उससे मुक्ति हुई। तेरहवां गुणस्थान कहता है: झोपड़ा है। वह अपने झोपड़े का त्याग कर दे। क्या तुम कहोगे वहीं रुकना नहीं हुआ, जो मिलने योग्य था, मिला; जो पाने कि अमीर का त्याग गरीब के त्याग से बड़ा है? योग्य था, बरसा। मेहमान घर आ गया। अगर त्याग धन का ही छोड़ना है तब तो निश्चित ही अमीर का | जैन सूत्रों में भी बात साफ है। बारहवें सूत्र की परिभाषा हैत्याग गरीब के त्याग से बड़ा है। क्योंकि गरीब ने झोपड़ा छोड़ा, णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणदय-समचित्तो। अमीर ने महल छोड़ा। खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं।। लेकिन त्याग धन का छोड़ना ही नहीं है। त्याग एक विधायक | 'संपूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त 528 2010_03 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं जो अंधेरे में भटकते हैं। जो रोशनी मुझे मिली है, जब तक उन तक न पहुंचा दूं तब तक मैं प्रवेश न करूंगा। यह तेरहवें गुणस्थान में रुक जाने की बात है। इसका अर्थ ‘निर्मल हो गया’—नकारात्मक है। शुद्ध हो गया, अशुद्धि हुआ, जो व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो गया है, वह कहता है गई। तेरहवें गुणस्थान की परिभाषा है: थोड़ी देर और अभी इस देह में रहूंगा। क्योंकि इस देह से ही केवलणाणदिवायर-किरणकलावप्पणासि अण्णाणो । उनके साथ संबंध बना सकता हूं, जो अभी देह को ही अपना होना समझते हैं। इस देह से ही कोई संवाद हो सकता है उनके साथ, जिन्होंने देह में ही अपने प्राणों को आरोपित कर लिया है; जो देह के साथ तादात्म्य रूप हो गए हैं। देह में रुक जाने की आकांक्षा को जैनों ने तीर्थंकर कर्मबंध कहा है । जो तेरहवीं अवस्था में रुक जाता है करुणावश, कि पीछे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, सम्यकत्व, समाधि, अनंत सुख, चलते लोगों को थोड़ी सहायता पहुंचा सकूं, जो मुझे मिला है वह अनंत वीर्य, ये उपलब्धि की सूचनाएं हैं- क्या मिला ! बट भी सकूं जो मैंने पाया है उसे और भी पा सकें। संसार गया, मोक्ष मिला। इसलिए महावीर कहते हैं, तेरहवें गुणस्थान में आए हुए व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता, परमात्मा कहा जा सकता है। स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की भांति निर्मल हो गया है, ऐसे पुरुषों को वीतरागदेव ने क्षीणमोह या क्षीणकषाय कहा है।' णवकेवललुग्गमं पावियरपरमप्पववएसो।। 'केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान-अधंकार सर्वथा नष्ट हो गया, तथा जो सम्यकत्व, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य को उपलब्ध हुए वे सयोगिकेवलीजिन कहलाते हैं।' दूसरा प्रश्न: क्या तेरहवें गुणस्थान को उपलब्ध होकर भी कोई उससे च्युत हो सकता है, क्या कोई अब तक हुआ है ? नहीं, तेरहवें गुणस्थान तक पहुंचकर कोई कभी च्युत नहीं हुआ, न हो सकता है। तो फिर सवाल उठता है कि चौदहवें गुणस्थान की क्या जरूरत है? जब तेरहवें से वापसी हो ही नहीं सकती, जब तेरहवें से गिरना हो ही नहीं सकता, तो फिर तेरहवें और चौदहवें का फासला क्या ? तेरहवें गुणस्थान से कोई च्युत नहीं होता, लेकिन कोई चाहे तो तेरहवें गुणस्थान पर रुक सकता है। महाकरुणावान पुरुष रुक गए हैं। तेरहवें गुणस्थान पर जो रुक गए हैं, उनके लिए ठीक-ठीक शब्द बौद्धों के पास है; वह शब्द है 'बोधिसत्व' । जिन्होंने कहा, हम चौदहवें में प्रवेश न करेंगे। क्योंकि हम अगर चौदहवें में प्रवेश कर गए तो शरीर छूट जाएगा। शरीर छूट जाएगा तो हम किसी के काम न आ सकेंगे। संबंध टूट जाएंगे। बौद्धों में कथा है कि बुद्ध जब स्वर्ग या मोक्ष के द्वार पर पहुंचे, द्वार खुला तो वे खड़े रह गए। द्वारपाल ने कहा, आप प्रवेश करें । बुद्ध ने कहा कि नहीं, अभी नहीं। अभी बहुत हैं मेरे पीछे, 2010_03 ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। अगर तेरहवीं गुणअवस्था में किसी व्यक्ति ने चेष्टा न की तो वह अपने आप चौदहवीं में सरक जाएगा। तेरहवीं अवस्था से चौदहवीं में जाना ऐसा है, जैसे कि बड़ी कोई ढलान पर उतर रहा हो, या नदी की गहन धार में बहा जाता हो जहां पैर जमाकर खड़ा होना मुश्किल हो जाए। इसलिए जगत में तेरहवीं अवस्था को जैसे ही लोग उपलब्ध होते हैं, तत्क्षण चौदहवीं अवस्था में प्रवेश हो जाते हैं - या थोड़ी देर अबेर । ज्यादा देर रुक नहीं पाते। कुछ बलशाली लोग ज्ञान के बाद भी अज्ञान के संसार में पैरों को टेककर खड़े रहे हैं। उन बलशाली पुरुषों के कारण ही संसार एकदम अंधेरा नहीं है, उसमें कहीं-कहीं दीये टिमटिमाते हैं— कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई महावीर, कोई जरथुस्त्र, कोई मोहम्मद । कहीं थोड़े-थोड़े दीये टिमटिमाते हैं । यह इन बलशाली पुरुषों का... । संसार से छूटना बड़ा कठिन है; लेकिन उससे भी बड़ी कठिन बात है, संसार से छूटकर थोड़ी देर संसार में रुक जाना। अति कठिन बात है। संसार से छूटना ही पहले अति कठिन बात है, फिर जब छूटने की घड़ी आ जाए तो उस समय याद किसको रहती है ? तुम दुख में ही जीए और अचानक महल आ गया, सब सुखों का द्वार खुल गया, तुम रुक पाओगे, तुम दौड़कर महल में प्रवेश कर जाओगे। तुम कहोगे, जन्मों-जन्मों से जिसको खोजा है वह 529 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 सामने खड़ा है। मंजिल सामने तो खड़ी है, अब कैसा रुकना!। प्रत्येक जीवन-ऊर्जा किसी न किसी दिन तेरहवें गुणस्थान में तुम एक क्षण भी रुक न पाओगे। आएगी-देर-अबेर। भटकोगे...कितना भटकोगे? किसी न तो तेरहवीं अवस्था से कोई गिरता तो नहीं यह सच है, लेकिन | किसी दिन पीड़ा से थके-हारे, टूटे घर आओगे। उस तेरहवें तेरहवीं अवस्था में कोई रुक सकता है। कठिन है, अति दुर्गम है, | गुणस्थान में भगवत्ता उपलब्ध होगी। लेकिन हुआ है। तेरहवीं अवस्था में जो रुक गए हैं, वे ही | यह जो भगवान की तेरहवीं अवस्था है, इससे कोई च्युत तो अवतारी पुरुष हैं। | नहीं हो सकता। च्यत होना होता ही नहीं। लेकिन कोई चाहे तो जैन परिभाषा में अवतार परमात्मा के घर से नहीं आता। | रुक सकता है। चौदहवीं अवस्था को आने से रोक सकता है। इसलिए अवतार शब्द का उपयोग जैन नहीं करते। अवतार शब्द | बड़ी प्रगाढ़ करुणा करनी पड़े। करुणा को ऐसी प्रगाढ़ता से का ही मतलब है : उतरे; अवतरित हो ऊपर से आए। जैन | करना पड़े कि वह करीब-करीब वासना बन जाए। सांसारिक परिभाषा में तो सभी नीचे से ऊपर की तरफ जाते हैं। ऊर्ध्वगमन | आदमी जैसे वासना से बंधा है और संसार से नहीं छूटता, ऐसे है जगत में, अधोगमन नहीं है। अवतार का मतलब तो हुआ, | तेरहवें गुणस्थान में पहुंचा हुआ व्यक्ति करुणा की जंजीरें ढालता अधोगमन। अवतार का तो मतलब हुआ, असीम सीमा में | है: करुणा से बंधता है। रुकता है कि किसी तरह थोड़ा साथ, उतरा, विराट क्षुद्र हुआ, महत छोटा बना, आकाश आंगन बना, | थोड़ा संग, थोड़ी पुकार दे सके। उसकी नाव आ लगी, उस पार असीम ने सीमा में अपने को बांधा। जाने का निमंत्रण आ पहुंचा, फिर भी वह हजार उपाय करता है अवतरण तो अधोगमन हआ। यह तो पतन हआ। जिसको कि इस किनारे पर थोड़ी देर रुक जाए। हिंदू अवतार कहते हैं, उसको जैन मानता है कि यह तो पतन है। अलग-अलग सदगुरुओं ने अलग-अलग उपाय किए हैं, तो उसकी बात में भी बल है। पतन तो है ही। जैसे परमात्मा | कैसे इस किनारे पर थोड़ी देर और रुक जाएं कि तुमसे थोड़ी बात तो हो नहीं सकता। परमात्मा च्यत हो ही नहीं | हो सके, कि तुम्हें थोड़ा संदेश दिया जा सके कि तुम्हारी नींद को सकता। इसलिए जैन कहते हैं सिर्फ ऊर्ध्वगमन होता है, सिर्फ थोड़ा हिलाया जा सके कि तुम्हारे स्वप्न थोड़े तोड़े जा सकें। उत्क्रांति होती है, सिर्फ विकास होता है। पीछे कोई जाता ही नहीं, | अपने आप रुकना नहीं होता। अपने आप तो तेरहवें गुणस्थान आगे ही जाना है। जाना मात्र आगे की तरफ है। हम ऊपर ही | से चौदहवां गुणस्थान सहज घट जाता है। जैसे बड़ी चिकनी उठते हैं। भूमि हो और तुम खिसक जाओ, रपट जाओ। बड़ी रपटीली इसलिए तेरहवीं अवस्था में पहंचा हुआ व्यक्ति अवतारी पुरुष | भूमि हो और ढलान हो। तेरहवें से चौदहवां इतने करीब है, और है। आया है लंबी यात्रा पार करके। जन्मों-जन्मों में बारह | इतना आकर्षक है, इतना मोहक है कि कौन रुकना चाहेगा? । अवस्थाएं पूरी की हैं, तेरहवीं पर आया, भगवान हुआ। फिर रुकना कठिन भी है। इसलिए जैन कहते हैं, हजारों लोग यह भगवान का अर्थ भी समझ लेना। हिंदू सोचते हैं, भगवान केवलज्ञान को उपलब्ध होते हैं, कभी कोई एकाध तीर्थंकर हो का अर्थ, जिसने संसार बनाया। पाता है। तीर्थंकर का अर्थ है, जो तेरहवें में रुकता-बलपूर्वक, जैनों में भगवान का वैसा अर्थ नहीं है। संसार को तो किसी ने | चेष्टापूर्वक। बनाया नहीं। कोई स्रष्टा तो नहीं है। लेकिन जिसने अपने को | चौदहवें का अर्थ है. शरीर से संबंध का टट जाना। जो तेरहवें बना लिया, वह भगवान। इन बारह सीढ़ियों से गुजरकर जो | में हुआ है, उससे कुछ ज्यादा नहीं होता चौदहवें में। जो तेरहवें में तेरहवीं पर आ गया, वही भगवान। | है, उससे चौदहवें में कुछ कम हो जाता है बस, ज्यादा नहीं इसलिए भगवान एकवाची भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक होता। तेरहवें तक शरीर का साथ है, चौदहवें में शुद्ध आत्मा रह भगवान है। जितनी आत्माएं हैं उतने भगवान के होने की जाती है, शरीर से संबंध छूट जाता है। संभावना है। अनंत भगवान के होने की संभावना है। हिंदू कहते हैं भगवान अनंत हैं, जैन कहते हैं अनंत हैं भगवान। तीसरा प्रश्न : महावीर ने वैराग्य और ध्यान के मार्ग को 5301 Jair Education International 2010_03 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गणस्थान नहीं चौदह सीढ़ियों में बांटा है। क्या प्रेम के मार्ग की भी ऐसी कोई । मैंने स्वीकार कर लीं। अब मेरी तरफ से इनको बांधकर गंगा में व्याख्या है? कृपया इस पर कुछ कहें। डाल आओ। उस आदमी ने पोटली बांधी बड़े बेमन से। हजार बार सोचने प्रेम को बांटने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि प्रेम छलांग है। लगा कि यह क्या हआ। मगर अब कुछ कह भी न सका। भेंट ज्ञान क्रमिक है, प्रेम छलांग है। ज्ञान इंच-इंच चलता, कर दीं। और यह आदमी पागल है। यह कह रहा है, गंगा में कदम-कदम चलता। प्रेम इंच-इंच नहीं चलता, कदम-कदम | फेंक आ। गया बेमन से। बड़ी देर लगा दी, आया नहीं तो नहीं चलता। रामकृष्ण ने कहा, जरा पता तो लगओ। वह गंगा पहुंचा कि घर ज्ञान बडा होशियार है. प्रेम बडा पागल है। इसलिए ये जो भाग गया? वह है कहां अब तक लौटा नहीं। गणस्थान हैं, ज्ञान के साधक के लिए हैं। भक्ति के मार्ग पर कोई | भेजा देखने को, तो देखा कि वह गंगा के किनारे पर गुणस्थान नहीं हैं। बैठकर...बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है। वह पहले पटकभक्त जानता नहीं विभाजन को। भक्त जानता ही नहीं कोटियों पटककर खनखना-खनखनाकर गिनती कर रहा है। एक-एक को। भक्त जानता ही नहीं विश्लेषण को। भक्त की पहचान तो गिनकर फेंक रहा है। किसी ने खबर दी रामकृष्ण को। वे गए संश्लेषण से है-सिन्थेसिस। भक्त की तो पहचान चीजों को और उन्होंने कहा, पागल! जोड़ना हो तो गिनती करनी पड़ती है, जहां-जहां भेद हो वहां अभेद देखने की है।। फेंकने के लिए क्या गिनती कर रहा है? अरे! नौ सौ निन्यानबे ज्ञानी की सारी चेष्टा जहां अभेद भी हो, वहां भेद पहचानने की हुईं तो भी चलेगा। एक हजार एक हुईं तो भी चलेगा। बांध है। महावीर ने तो अपने पूरे शास्त्र को भेद-विज्ञान कहा है। पोटली, इकट्ठी फेंक ! यह क्या गिनती कर रहा है? कहा कि यह भेद को पहचानने की कला है। पहचानना है कि वह पुरानी आदत रही होगी–जोड़नेवाले की आदत, गिनती शरीर क्या है, आत्मा क्या है। पहचानना है कि संसार क्या है, करने की। वह पुराने हिसाब से जैसे अपनी दुकान पर बैठकर मोक्ष क्या है। एक-एक चीज पहचानते जाना है। एक-एक | खनखनाकर देखता होगा। असली है कि नकली है, वह अभी चीज का ठीक-ठीक ब्यौरा और ठीक-ठीक विश्लेषण करना है। भी कर रहा है। अब पूरी प्रक्रिया उलटी हो गई। ठीक विश्लेषण करने से ही कोई मुक्त अवस्था को उपलब्ध होता | प्रेम तो डूबना जानता है। है। ज्ञान का खोजी विश्लेषण करता है। विश्लेषण उसकी विधि | यह कौन आया रहजन की तरह है। वह कैटेगरीज बनाता है, कोटियां बनाता है। उसका ढंग जो दिल की बस्ती लूट गया वैज्ञानिक है। आराम का दामन चाक हुआ भक्त, प्रेमी कोटियां तोड़ता है। सब कोटियां को गड्डमड्ड कर | तसकीन का रिश्ता टूट गया देता है। दीवाना है, पागल है। पागलों ने कहीं हिसाब लगाए? - यह कौन आया रहजन की तरह तो यह तो पूछो ही मत, कि क्या भक्ति के मार्ग पर भी, प्रेम के जो दिल की बस्ती लूट गया मार्ग पर भी इसी तरह की कोटियां हो सकती हैं, विभाजन हो । डाकू की तरह आता है परमात्मा। इसलिए तो हिंदू परमात्मा सकता है ? संभव नहीं है। | को हरि कहते हैं। हरि यानी लुटेराः हर ले जाए जो; झपट ले। एक आदमी धन इकट्ठा करता है तो धीरे-धीरे करता है। लुटेरा रहजन की तरह आ जाए–डाकू। जो लूट ले। आता है, लूटकर ले जाता है इकट्ठा। यह कौन आया रहजन की तरह रामकृष्ण के पास एक आदमी हजार सोने की मोहरें लेकर जो दिल की बस्ती ल. आया। कहा, स्वीकार कर लें। रामकृष्ण ने कहा, अब तुम तो प्रेम कुछ तुम्हारे बस में थोड़े ही है। ध्यान तुम्हारे बस में है। ले आए तो चलो स्वीकार कर लिया। लेकिन मैं क्या करूंगा। ज्ञान तुम्हारे बस में है। त्याग, तपश्चर्या तुम्हारे बस में है, प्रेम तुमने तो अपना बोझा छुड़ाया, मुझ पर डाल दिया। ऐसा करो, तुम्हारे बस में थोड़े ही है। किसी अज्ञात क्षण में, किसी अनजानी 531] ___ 2010_03 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 घड़ी में, किसी सौभाग्य की घड़ी में आ जाता है कोई और लट ले जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना जाता है। किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे आराम का दामन चाक हुआ और दिल तो हर जगह तेरी प्रार्थना करता रहा, तेरी पूजा में प्रेम के पहले आदमी आराम से जीता है। प्रेम के बाद फिर | लीन रहा। दिल तो पूजा में डूबा ही है। वहां तो जल ही रहा आराम नहीं। प्रेम के पहले तो आदमी जानता ही नहीं कि पीड़ा दीया। वहां तो धूप उठ ही रही। वहां तो वेदी सजी है। क्या है। प्रेम के बाद ही जानता है कि पीडा क्या है। क्योंकि प्रेम जो बद्धि में बहत बरी तरह खो गा में जलता है, पिघलता है, गलता है, मिटता है। विचारों के जंगल में, जंजाल में, उनके लिए ज्ञान का रास्ता है। आराम का दामन चाक हुआ इसलिए जैन शास्त्र अत्यंत बौद्धिक हैं, रूखे हैं। गणित की तसकीन का रिश्ता टूट गया | तरह हैं। आइंस्टीन की किताब पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, एक से प्रेम के पहले जिंदगी बड़ी धीमी-धीमी चलती है, धीरज से हैं। न्यूटन को पढ़ो कि अरिस्टोटल को पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, चलती है। कहीं कोई दौड़, छलांग नहीं। आदमी सावधानी से एक से हैं। | चलता है। प्रेम के बाद मस्ती पकड़ लेती है। फिर कहां धीरज? | बहुत बार कई जैनों ने मेरे पास आकर कहा है कि कभी आप फिर कहां धैर्य! फिर कैसा आराम। कुंदकुंद पर बोलें। कई दफे उनकी बात सुनकर मैं भी कुंदकंद की बुद्धि तो बड़ा सोच-विचारकर कहीं झुकती है। हृदय झुका ही किताब उलटाकर देखता हूं, फिर बंद कर देता हूं। बिलकुल हुआ है। अगर इसे तुम ठीक से समझ सको तो ऐसा समझना, रूखा-सूखा है। मैं भी चेष्टा करके कविता उसमें डाल न हृदय तो तुम्हारा अभी भी भक्ति में डूबा हुआ है। तुम्हारा अपने | सकूँगा। बड़ी अड़चन होगी। काव्य है ही नहीं। रसधार बहती हृदय से संबंध छूट गया है। तुम अपनी बुद्धि में समा गए। ही नहीं। सीधा-सीधा गणित का हिसाब है-दो और दो चार। अपनी खोपड़ी में निवास कर लिया है। वहीं रह गए। अटक जैन शास्त्र पैदा ही तब हुए, जब भारत एक बड़ी बौद्धिक क्रांति गए वहीं। उलझ गए वहीं। से गुजर रहा था। सारा देश बड़े चिंतन में लीन था। सदियों के हृदय तो अब भी प्रार्थना कर रहा है। हृदय तो अभी भी नमाज चिंतन के बाद निष्कर्ष लिए जा रहे थे। ऐसा भारत में ही था ऐसा पढ़ रहा है। हृदय तो अभी भी डूबा है। हृदय का होना ही नहीं, सारी दुनिया में एक महत ऊर्जा उठी थी। भारत में बुद्ध थे, परमात्मा में है। महावीर थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, वे जो बुद्धि में भटक गए हैं और जिनको हृदय का रास्ता नहीं | निगंठनाथपुत्त महावीर थे। यूनान में थेलीस, सुकरात, प्लेटो, मिलता, उनके लिए चौदह गुणस्थान हैं। जिनको हृदय करीब है अरिस्टोटल। ईरान में जरथुस्त्र। चीन में कन्फ्यूसियस, और जिन्हें कोई अड़चन नहीं, जो सरलता से हृदय में उतर सकते | लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु।। हैं, उनके लिए कोई गुणस्थान नहीं, कोई भेद-विभाजन नहीं। सारी दुनिया में एक बड़ी तीव्र उत्क्रांति हो रही थी। सब तरफ उनके लिए न कोई शास्त्र है, न कोई साधना है। हवा गर्म थी। विचार कसे जा रहे थे। विचार, तर्क, चिंतन, जवानी मोहब्बत, वफा नाउम्मीदी | मनन अपनी आखिरी कसौटी छ रहा था, आखिरी ऊंचाई छ रहा यह है मुख्तसर-सा हमारा फसाना | था। उस उत्तुंग क्षण में जिन-सूत्र रचे गए। वे उस दिन की पूरी किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे खबर लाते हैं, उस दिन का पूरा वातावरण, उस दिन की परी हवा जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना और मौसम उनमें छिपा हुआ है। बुद्धि ढूंढ़ती ही रही कि कहां है वह जगह, जहां सिर झुकाऊं। | भक्त बड़े और ढंग से जीता है। भक्त का मार्ग स्त्रैण है। जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना इसीलिए जैन तो मानते ही नहीं कि स्त्री का मोक्ष हो सकता है। देहली ढूंढ़ती ही रही कि कहां सिर को रखू, कहां माथा टेकू? उस मानने में बड़ा विचार है। कहां मंदिर? कहां मस्जिद? एक बात निश्चित है, जैन शास्त्र में स्त्री का मोक्ष नहीं हो 532 | Jan Education International 2010_03 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं सकता। स्त्री का हो सकता है कि नहीं इस पर पूरा, किसी को अगर जैनों ने मल्लीबाई को मल्लीनाथ कहा, तो ठीक ऐसे ही कोई दावा नहीं कहने का; लेकिन इतनी बात पक्की है कि जेन | चैतन्य महाप्रभु को चैतन्यबाई कहा जा सकता है। वह स्त्रैण शास्त्र से तो नहीं हो सकता। क्योंकि जैन शास्त्र से स्त्री का मेल चित्त है। वह गौरांग का नाचता हुआ रूप!-जैसे राधा हो ही नहीं बैठ सकता। वह उनमें हृदय है ही नहीं। उसमें तो सभी गए। किसी ने ऐसी हिम्मत नहीं की। क्योंकि स्त्री को पुरुष पुरुषों का भी बैठ जाए मेल, यह भी कठिन मालूम होता है। बनाना तो आसान मालूम होता है। कहते हैं, 'खूब लड़ी मर्दानी तो जैन शास्त्रं ठीक ही कहते हैं कि स्त्री का मोक्ष नहीं हो वह तो झांसीवाली रानी थी। लेकिन किसी पुरुष को नामर्द सकता। क्योंकि जैन शास्त्र पुरुष मन की खोज है-तर्क, कहो तो झगड़ा खड़ा हो जाता है। चिंतन, मनन। प्रेम की खोज नहीं है। इसलिए एक बड़ी अनूठी पुरुषों की दुनिया है यह। यहां स्त्री को अगर पुरुष कहो तो घटना घटी। जैनों का एक तीर्थंकर-तेईसवां—एक तीर्थंकर मालूम होता है, प्रशंसा कर रहे हो। और अगर पुरुष को स्त्री स्त्री थी। नाम है मल्लीबाई। लेकिन जैनों ने मल्लीबाई को कहो तो लगता है निंदा हो गई। चूंकि पुरुष ने ही सारे मापदंड मल्लीबाई लिखना भी पसंद न किया। वे उसको मल्लीनाथ तय किए हैं। लिखते हैं। वह थी तो स्त्री, लेकिन बना दिया पुरुष। वे मानते | लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, यह बात गलत है। अगर मल्लीबाई नहीं कि मल्लीबाई स्त्री थी। वे कहते हैं, मल्लीनाथ। और मुझे मल्लीनाथ कही जा सकती है तो क्यों नहीं चैतन्य को चैतन्यबाई भी लगता है, वे ठीक कहते हैं। वह चाहे देखने में स्त्री रही हो, कहो? ज्यादा उचित होगा। ठीक-ठीक खबर मिलेगी। भीतर से पुरुष ही रही होगी। इसलिए नाम बदला तो ठीक ही | तो तुम ऊपर शरीर को आईने में देखकर तय मत कर लेना, किया। मल्लीबाई मल्लीनाथ ही रही होगी। हृदय तो नहीं रहा भीतर खोजबीन करना। अगर तुम हृदय की तरफ झुके हो तो तुम होगा। इसलिए बात तो ठीक ही लगती है। स्त्रैण हो। अगर तुम बुद्धि की तरफ झुके हो तो तुम पुरुष हो। जो पुरुष का चित्त तो तर्क की धार है, गणित का हिसाब है, विज्ञान मनोवैज्ञानिक मापदंड है वह हृदय और बुद्धि के बीच तय होगा। का फैलाव है। विश्लेषण उसका द्वार है। स्त्री का चित्त अलग हृदय का रास्ता सुगम है। और हृदय का रास्ता अत्यंत ढंग से धड़कता। हृदय, प्रेम, रस-'रसो वै सः'। स्त्री के उल्लासपूर्ण है। वहां कोई खंड, कोटियां, विभाजन नहीं हैं। लिए परमात्मा रस-रूप है, कृष्ण-रूप है। सत्य यानी प्रीतम। इसलिए महावीर तो कहते हैं, मेरी दृष्टि भेद-विज्ञान की है। सत्य यानी सिर्फ गणित का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं। सत्य यानी और भक्त कहते हैं, हमारी दृष्टि अभेद-विज्ञान की है। हम एक जहां हृदय झुक जाए। को ही देखते हैं। अनेक में भी एक को ही देखते हैं। हमें एक ही किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे दिखाई पड़ता है। सभी रूप उसके मालूम होते हैं। सभी नाम जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना उसके मालूम होते हैं। रूप के कारण भक्त धोखे में नहीं पड़ता। हृदय झकता ही रहा। जहां गया वहीं अपने प्रीतम को खोज आकति के कारण धोखे में नहीं पड़ता। वह सभी आकतियों में लिया। और बुद्धि खोजती ही रही कि वह जगह कहां है, जहां मैं छिपे निराकार को देख लेता है। झुकू? बुद्धि खोज-खोजकर जगह नहीं पाती कि कहां झुकू और भक्ति को मैं कहता हूं, वह एक छलांग है। इसलिए और हृदय को बिना खोजे जगह मिल जाती है। हृदय की एक | भक्ति तो एक क्षण में भी घट सकती है। ज्ञान के लिए सदियां छलांग है। लग जाती हैं। तुम्हारी मर्जी! ज्ञान से भी लोग पहुंचते हैं। और जब मैं कह रहा हूं स्त्री-चित्त, तो तुम यह मत सोचना कि कुछ हैं, जो सीधी तरह से कान पकड़ना जानते ही नहीं। करोगे म तुम्हारे लिए नहीं। और तुम ऐसा भी मत भी क्या? वे चक्कर लगाकर, हाथ से सिर के पीछे से घूमकर सोचना कि तुम स्त्री हो तो जिन-सूत्र तुम्हारे लिए नहीं है। शरीर कान पकड़ते हैं। कुछ को अपने घर भी आना हो तो वे पहले से स्त्री और पुरुष होना एक बात है, चित्त से स्त्री और पुरुष होना सारी दुनिया का चक्कर लगाकर फिर घर आते हैं। अगर तुम बिलकुल दूसरी बात है। चलते ही रहो, चलते ही रहो तो जमीन गोल है, एक दिन अपने 5331 ___ 2010_03 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 साली घर आ जाओगे चलते-चलते-चलते। रोकने का कोई कारण नहीं। मैंने सुना है एक आदमी भागा जा रहा था। राह किनारे बैठे | लेकिन अपने भीतर ठीक से जांच कर लेना। भक्त के लिए तो एक बूढ़े से पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है ? सभी लोग दिल्ली | भगवान चुपचाप आ जाता है। अचानक आ जाता है। जा रहे हैं तो वह भी जा रहा होगा। एक बुखार है, दिल्ली चलो। एक दिन चुपचाप अपने आप उस बूढ़े ने कहा, जिस तरफ तुम भागे जा रहे हो, अगर उसी | __ यानी बिन बुलाए तुम चले आए तरफ भागे गए तो बहुत दूर है क्योंकि दिल्ली पीछे छूट गई। मुझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर अगर तुम इसी दिशा में भागे चले जाओ तो पहुंचोगे जरूर एक इसकी प्रतीक्षा में कि दोनों हाथ फैलाकर दिन दिल्ली, लेकिन सारी दुनिया का चक्कर लगाकर पहुंचोगे। तुम्हें उल्लास से खींचा हजारों मील की यात्रा है। अगर लौट पड़ो तो दिल्ली बिलकुल सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा पीछे है। आठ मील पीछे छोड़ आए हो। एक दिन चुपचाप अपने आप अगर बुद्धि की तरफ से गए तो बड़ी लंबी यात्रा है। पृथ्वी भी यानी बिन बुलाए तुम चले आए इतनी बड़ी नहीं है। क्योंकि बुद्धि के फैलाव का कोई अंत ही नहीं भक्त तो सिर्फ प्रतीक्षा करता है। कहां जाए खोजने? कहां है है। बुद्धि का आकाश बहुत बड़ा है। परमात्मा या कहां परमात्मा नहीं है? कहां खोजने जाए? या तो मैंने सुना है कि शिव अपने बेटों के साथ खेल रहे | सब जगह है या कहीं नहीं है। कहां खोजने जाए? परमात्मा की हैं-कार्तिकेय और गणेश। और ऐसे ही खेल में उन्होंने कहा कोई दिशा तो नहीं। भक्त सिर्फ प्रतीक्षा करना जानता है। रोता कि तुम मानते हो कि मैं ही यह सारी सृष्टि हूं? तो मेरे भक्त को | है, प्रार्थना करता है, आंसू गिराता है। मेरी परिक्रमा कैसी करनी चाहिए, तुम बताओ। तो कार्तिकेय तो एक दिन चुपचाप अपने आप बड़े बुद्धिमान रहे होंगे, ज्ञानी रहे होंगे। चले सारी सृष्टि का यानी बिन बुलाए तुम चले आए चक्कर लगाने। शिव की परिक्रमा करनी है। और शिव यानी भक्त तो कहता है हम बलाएं भी किस जबान से? किस जबा सारी सृष्टि। सब में व्याप्त परमात्मा। पता नहीं अभी तक लौटे से? किन ओंठों से लें तेरा नाम? ओंठ हमारे झूठे हैं। और भी कि नहीं कार्तिकेय। कहानी कुछ कहती नहीं। गणेश ने उनसे हम और बहुत नाम ले चुके हैं। कैसे पुकारें तुझे? हमारी ज्यादा होशियारी की। वजनी शरीर, हाथी की सूंड! अब इतनी सब पुकार बड़ी छोटी है, क्षीण है। कहां खो जाएगी इस विराट बड़ी पृथ्वी का चक्कर क्या? उन्होंने शिव का चक्कर लगाकर | में, पता भी न चलेगा। जल्दी से वहीं बैठ गए। हो गई! सृष्टि की परिक्रमा हो गई। एक दिन चुपचाप अपने आप अगर शिव ही समाए हैं सारी सृष्टि में तो अब सारी सृष्टि की यानी बिन बुलाए तुम चले आए परिक्रमा क्या करनी! शिव की कर ली तो सारी सृष्टि की हो मझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर गई। कार्तिकेय ने सोचा ठीक उलटा। वह भी ठीक है, वह भी इसकी प्रतीक्षा में... तर्क ठीक है। कि जब सारी सृष्टि में समाए हैं तो सारी सृष्टि की __ और भक्त कहता है, वे जो बीत गईं जीवन की घड़ियां, बस जब परिक्रमा होगी तभी तो परिक्रमा हो पाएगी। एक रात थी, जो प्रतीक्षा में बीत गई। बुद्धि यानी कार्तिकेय। हृदय यानी गणेश। हृदय से तो अभी कि दोनों हाथ फैलाकर घट सकता है। ऐसा एक चक्कर मारा शिव का और बैठ गए कि | तुम्हें उल्लास से खींचा हो गई बात पूरी। सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा लेकिन बुद्धि से बहुत लंबी यात्रा है-अनंत काल। जो क्षण भक्त को भगवान मिलता है। भक्त को भगवान स्वयं खोजता में हो जाता है, वह शायद अनंत काल में ही हो पाए। तुम पर है। ज्ञानी सत्य की खोज करता है। भक्त को भगवान खोजता | निर्भर है। किन्हीं-किन्हीं को यात्रा का ही सुख आता है तो उन्हें है। भक्त कहीं जाता-आता नहीं। किन्हीं सीढ़ियों पर यात्रा नहीं 534 Jai Education International 2010_03 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं करता...। नहीं हैं अभी। ऊर्जा से भरे खड़े हैं। एक क्षण, एक-एक क्षण पीड़ ऐसी कि घटा छायी है सूचना की प्रतीक्षा है, और दौड़ पड़ेंगे। दौड़े नहीं हैं अभी, ठंडी यह सांस की पुरवाई है लेकिन ऊर्जा से भरे खड़े हैं। तुझको मालूम क्या है आज यहां ऐसी ही दशा भक्त की है। खोजने नहीं जाता लेकिन आलस्य बरखा बादल के बिना आयी है में नहीं है। बड़ी त्वरा से भरा है। वर्षा हो जाती है बादल के बिना आए। उसका अमृत-घट भर एक गीत कल मैं पढ़ रहा था। है तो इस संसार के प्रेम का गीत जाता है। बादल भी नहीं उमड़ते-घमडते और वर्षा हो जाती है। लेकिन प्रेम इस संसार का हो कि उस संसार का, बहत भेद नहीं अतर्व्य है भक्त का मिलन परमात्मा से। ज्ञानी का तो तर्क है। देखती हीन दर्पण रहो प्राण तम ज्ञानी का तो बिलकुल साफ-साफ है। रत्ती-रत्ती का उत्तर है। प्यार का महूरत निकल जाएगा ज्ञानी अर्जित करता है। भक्त के लिए भगवान प्रसाद-रूप है। कौन शृंगार पूरा यहां कर सका भक्त कहता है, मेरे किए मिलेगा यह संभव ही नहीं है। मेरे किए सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी ही तो चूक रहा है। मेरे कारण ही तो बाधा पड़ रही है। भक्त | हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा अपनी बाधा हटा लेता है। बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी ज्ञानी जिस दिन पाता है, उस दिन किसी को धन्यवाद देने की हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन भी जरूरत नहीं है। क्योंकि उसने अर्जित किया है। इसलिए पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां महावीर की संस्कृति का नाम पड़ गया है श्रमण संस्कृति। श्रम कांच से ही ना नजरें मिलाती रहो से पाया है, चेष्टा से पाया है, पुरुषार्थ से पाया है। बिंब को मूक प्रतिबिंब छल जाएगा भक्त तो कहता है, भगवान प्रसाद-रूप मिला है। मैंने पाया, | देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम ऐसी बात ही गलत है। प्यार का यह महूरत निकल जाएगा ज्ञानी तो कहता है, जब तक मैं पूर्ण न हो जाऊं तब तक कैसे भक्त कहता है, हम तो अपूर्ण हैं। कब तक सजते-संवरते सत्य मिलेगा? इसलिए ज्ञानी अपने को पूर्ण करने में लगता है। | रहें? तुम हमें ऐसे ही स्वीकार कर लो। हम कभी पूर्ण हो पाएंगे ज्ञानी की साधना है, भक्त की तो सिर्फ प्रार्थना है। भक्त कहता इसकी संभावना भी नहीं। लेकिन हमारा प्रेम पूर्ण है। हम अपूर्ण है, पूर्ण और मैं? होनेवाला नहीं। मिलोगे तो अपूर्ण में ही मिलन होंगे, हमारी चाह पूर्ण है। हमारी चाहत देखो। होगा। मर्जी हो तो जैसा हूं, ऐसा ही स्वीकार कर लो। मुझसे यह कौन शृंगार पूरा यहां कर सका सधेगा न, कि मैं पूर्ण हो सकूँ। सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी तो ज्ञान में एक खतरा है कि अहंकार बच जाए। भक्ति में हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा अहंकार का खतरा नहीं है। भक्ति का खतरा दसरा है कि बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी आलस्य का नाम भक्ति बन जाए। ज्ञान में आलस्य का खतरा हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन नहीं है। दोनों के खतरे हैं, दोनों के लाभ हैं। ज्ञानी का खतरा है पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां कि अहंकारी हो जाए कि मैंने अर्जित किया। भक्त का खतरा है कांच से ही नजरें ना मिलाती रहो कि आलस्य प्रतीक्षा बन जाए। आलस्य प्रतीक्षा नहीं है। प्रतीक्षा बिंब को मक प्रतिबिंब छल जाएगा बड़ी सक्रिय चित्त की दशा है, सक्रिय और निष्क्रिय एक साथ। भक्त कहता है, जो अभी मिल सकता है उसे कल पर मत बड़ी तीव्र प्यास की दशा है। टालो। जो इसी क्षण घट सकता है, उसे कल पर मत टालो। मत तुमने कभी देखा? ओलंपिक के चित्र देखे होंगे। दौड़ के लिए कहो कि हम तैयार होंगे। हम सीमित हैं। हमारी सीमाएं हैं। हम प्रतियोगी खड़े होते हैं रेखा पर। सीटी बजने की प्रतीक्षा है। दौड़े | अपूर्ण हैं। हमारी चाहत पूर्ण हो सकती है, हमारी अभीप्सा पूर्ण 535 ___ 2010_03 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 हो सकती है, लेकिन हम पर्ण नहीं हो सकते। हैं, उन्हें वहीं वृंदावन के दर्शन हो जाएंगे। यहां फर्क तुम समझने की कोशिश करना। ज्ञानी कहता है, हंसी तो आएगी। क्योंकि तब पता चलेगा कि हम अकारण ही चाहत छोड़ो और पूर्ण बनो। भक्त कहता है, चाहत को पूर्ण परेशान थे। हंसी अपने पर आएगी। हंसी औरों पर भी आएगी, करो; तुम्हारी पूर्णता-अपूर्णता की चिंता न करो। दोनों विपरीत, जो अभी भी परेशान हैं। हंसी आएगी इस सारे खेल पर।। लेकिन पहुंच जाते हैं एक ही शिखर पर। इसीलिए तो भक्तों ने कहा है कि यह जगत लीला है। यह खेल है। इसे बहुत गंभीरता से मत लो। गंभीरता ज्ञानी का मार्ग चौथा प्रश्न : रजनीश एशो आमी तोमार बोइरागी है; सरलता, उत्फुल्लता भक्त का। आमी पूना गेलाम, आमी काशी गेलाम हंसी तो आएगी क्योंकि फिर जो कहने योग्य मालूम पड़ेगा उसे लाओ री लाओ संगे डुगडुगी कह भी न सकोगे। हंसकर ही कहा जा सकता है या रोकर कहा बहुत हंसी आती है। अब तो डुगडुगी के सिवा कुछ बचा जा सकता है। वाणी बड़ी छोटी पड़ जाती है। डुगडुगी बजाकर नहीं है। ही कहा जा सकता है। शब-ए-वस्ल की क्या कहूं दास्तां डुगडुगी ही बच जाए तो सब बच गया। डुगडुगी खो जाए तो | जबां थक गई, गुफ्तगू रह गई सब खो गया। तुम डुगडुगी हो जाओ तो सब हो गया। उस मिलन की रात की कहानी क्या कहूं? कैसे कहूं? आह्लाद! नृत्य! तुम्हारे भीतर के स्वर नाचने लगें, गुनगुनाने जबां थक गई, गुफ्तगू रह गई। लगें, तो निश्चित ही फिर हंसी के योग्य ही है सब-सब कहते-कहते जबान तो थक गई लेकिन जो कहना चाहते थे, खोजबीन, सब दौड़धूप। वह नहीं कहा जा सका। बजाओ डुगडुगी! उससे ही कहो। भक्त तो उत्सव में मानता है। भक्त तो उत्सव को ही पूजा और नाचो! ले लो एकतारा हाथ में। और जो तुम्हें नाचकर मिलेगा, प्रार्थना बनाता है। यह जगत एक महोत्सव है। इसमें तुम नाहक वह किसी शास्त्र से किसी को कभी नहीं मिला। उदास-उदास बैठे हो। सम्मिलित हो जाओ। सब थिरक रहा है, | नृत्य का अर्थ है, गीत का अर्थ है, उत्सव का अर्थ है कि तुमने तुम भी थिरको। सब नाच रहा है। देखो चांद-तारे, देखो वृक्ष, पैर से पैर मिलाए अस्तित्व के साथ। तुम ऐसे किनारे पर न खड़े पशु-पक्षी, देखो हवाएं, अकाश में घिरे बादल, ये बूंदों की रहे राह के। जा रही थी यात्रा, रथोत्सव हो रहा था, तुम भी टिपटिप! सब नाच रहा है। यहां थिर कोई भी नहीं है। सब | सम्मिलित हुए। नाचता जा रहा है अस्तित्व प्रतिपल। तुम क्यों फुदक रहे हैं। सिर्फ आदमी उदास है। | बैठे किनारे? कैसे उदास? कैसे हताश? डुगडुगी बनो। बजो। बांसुरी बनो। फूटने दो स्वर कोः । उठो! लौटाओ अपनी थिरक! इस नाचते हुए रासमंडल में झरनों की तरह, चांद-तारों की तरह। नाचो, इस महत नृत्य में सम्मिलित हो जाओ। खो जाओगे उस नृत्य में। तुम न बचोगे। सम्मिलित हो जाओ। डुगडुगी बजेगी तो तुम न बचोगे। तब जरूर हंसी आएगी। हंसी आएगी, नाहक इतने दिन उदास __ भक्त खोने की तैयारी रखता। ज्ञानी अपने को बचाता, रहे। नाहक इतने दिन रोए। नाहक इतने दिन वंचित रहे। जो निखारता। भक्त अपने को डुबाता और खोता। मिला ही था, उसके साथ नाच क्यों न सके? रास हो ही रहा है। मिलते ही किसी के खो गए हम यह ब्रह्मांड रास की एक प्रक्रिया है। जागे जो नसीब सो गए हम तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता? बांसुरी कभी बंद नहीं हई, बज ही | जब वस्तुतः भाग्य जागता है, जब वस्तुतः वर्षा होती है, जब | रही है। तुम बहरे हुए हो। अंधे हुए हो। नाच हो ही रहा है। | वस्तुतः अमृत के द्वार मिलते हैं तो तुम नहीं बचते। कोई आज ऐसा नहीं था कि कुछ कभी वृंदावन में हुआ था, अब नहीं हो रहा तक परमात्मा से मिला थोड़े ही! मिलने के पहले ही खो जाता है। परमात्मा नाच ही रहा है। जिनके पास आंखें हैं, वे जहां भी है। मिलने की पहली शर्त खो जाना है। 536 Jan Education International 2010_03 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं : मिलते ही किसी के खो गए हम हम सीखते हैं। संदेह बाहर से उधार मिलता है। अगर तुम्हारे जागे जो नसीब सो गए हम . मन में प्रश्न हैं तो फिर तुम्हें ज्ञान के रास्ते पर थोड़ी यात्रा करनी भक्त के लिए प्रतिपल प्रतीक्षा का है। वह राह देख ही रहा है। । होगी। अगर कोई प्रश्न नहीं हैं जीवन में, और तुम्हारे मन में कब आ जाएंगे उसके प्रीतम, कहा नहीं जा सकता। संदेह सहज नहीं उठता, आदत गहरी नहीं हुई संदेह की तो फिर आज आएंगे वो गीतों को जरा चुप कर दो कोई भी अड़चन नहीं है। तुम इसी क्षण परमात्मा के मंदिर में चांद को नभ से उतारो और द्वारे धर दो प्रविष्ट हो सकते हो। द्वार-दरवाजे बंद भी नहीं हैं। चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो पांचवां प्रश्नः ऐसा लगता है कि अब थोड़ी-सी आयु ही चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को बची है। न जाने कौन कब इस शरीर को समाप्त कर दे। इससे आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो मन में एक उतावलापन रहता है कि जो करना है, शीघ्रता से भक्त, भगवान है या नहीं ऐसी जिज्ञासा ही नहीं करता। करूं; अन्यथा बिना कुछ पाए ही चला जाना होगा। भय या भगवान आ ही रहा है। भक्त को प्रश्न ही नहीं उठा है भगवान के अड़चन बिलकुल नहीं लगती। हर क्षण जाने को तैयार हूं। होने न होने का। दुबारा आने से भी डर नहीं लगता। परंतु एक भय, एक जिसको प्रश्न उठ गया, वह श्रद्धा न कर पाएगा। अड़चन अवश्य सताती है कि उस समय आप गुरु भगवान तो हम भक्त की तरह पैदा होते हैं, फिर विनष्ट हो जाते हैं। इसे नहीं उपलब्ध होंगे। क्या मेरा उतावलापन उचित है? मैं क्या थोड़ा समझने की कोशिश करना। प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह कर सकता हूं? हर प्रकार से तैयार ही होकर आया हूं। पैदा होता है। होना ही चाहिए क्योंकि स्त्री के गर्भ से पैदा होता है। हृदय के पास धड़कता हुआ पैदा होता है। होना ही चाहिए | ओमप्रकाश सरस्वती ने पूछा है। मैं जानता हूं, वे पूरी तरह प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह पैदा-श्रद्धा से भरा, तैयार होकर आए हैं। वे कुछ भी खोने को तैयार हैं, कुछ भी देने स्वीकार-भाव से। 'हां' हर बच्चे का स्वर है। धीरे-धीरे 'ना' को तैयार हैं। और उसी कारण बाधा है। सीखता है, नहीं सीखता है, नकार सीखता है, नास्तिकता हृदय उनका भक्त का है, ज्ञानी का नहीं है। अगर ज्ञानी का सीखता है। उनका स्वभाव होता तो सब कुछ देने की यह तैयारी उन्हें नास्तिकता सीखी जाती है, आस्तिकता हमारा स्वभाव है। गुणस्थानों की सीढ़ियों पर चढ़ा देती। लेकिन बुद्धि उनका नास्तिकता हम बाहर से सीख लेते हैं। जीवन के कड़वे-मीठे स्वभाव नहीं है, हृदय उनका स्वभाव है। इसलिए सब देने की अनुभव, जीवन की धोखाधड़ी हमें नास्तिकता के लिए तत्पर कर यह तैयारी ही बाधा है। इसे भी छोड़ो। उसका ही है, देना क्या देती है। संदेह हम सीखते हैं। श्रद्धा हम लेकर आते हैं। है? समर्पण भी क्या करना है? उसकी ही वस्तुएं उसे देते हुए नास्तिक कोई पैदा नहीं होता, नास्तिक निर्मित होते हैं। आस्तिक शर्म खाओ। पैदा होते हैं। आस्तिक हमारा स्वभाव है।। यह बात ही भूलो कि कुछ देना है। यह बात ही भूलो कि कुछ छोटा बच्चा 'नहीं' कहना जानता ही नहीं। कुछ भी कहो, | करना है। यह पूछो ही मत कि मैं क्या करूं? उतावलापन है ? 'हां' कहता है। अभी उसने 'नहीं' सीखी नहीं है। अभी जीवन उतावलेपन को उतावलापन मत कहो। वह शब्द गलत है। उसे ने उसे इतना दुख नहीं दिया कि वह नहीं कहे। अभी इनकार उसे | प्रतीक्षा कहो, त्वरित प्रतीक्षा कहो, त्वरा से भरी प्रतीक्षा कहो, आया नहीं। अभी किसी ने धोखाधड़ी नहीं की। अभी किसी ने अभीप्सा कहो। उतावलापन गलत व्याख्या है। वंचना नहीं की। किसी ने जेब नहीं काटी। किसी ने उसे सताया | निश्चित ही भक्त को भी एक अधैर्य होता है कि पता नहीं कब नहीं। अभी वह ना कहे कैसे? | मिलन होगा। लेकिन उसके अधैर्य में एक सौंदर्य है। वह अधैर्य आस्तिकता स्वाभाविक है। भक्ति हम लेकर आते हैं। संदेह में भी शांति से जीता है। वह जानता है कि मिलना तो होगा: 5.371 2010_03 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 चाहता है जल्दी हो जाए। की तरह। गाओ! इसलिए नहीं कि गाने से उसे रिझाना है। उतावलेपन में धीरज नहीं है, सिर्फ अधैर्य है। अभीप्सा में | गाओ इसलिए, कि उसने तुम्हें रिझा लिया है। अब गाओगे न तो अधैर्य भी है और धीरज भी है। अभीप्सा बड़ी पैराडाक्सिकल, करोगे क्या? बड़ी विरोधाभासी स्थिति है। एक तरफ वह जानता है, मिलना इस फर्क को खयाल में ले लेना। भक्त साधन की तरह नहीं तो होना ही है। वह तो निश्चित है। वह बात तो हो ही गई। | कुछ करता, साध्य की तरह करता है। परम आह्लाद से भरकर उसमें कुछ सोचना नहीं है। करता है क्योंकि जो घटना है, वह घट ही चुका है। जो होना है दूसरी तरफ वह कहता है, अब जल्दी हो जाए। अब और देर वह हो ही चुका है। उसे रंचमात्र भी संदेह नहीं है। अनंत काल न लगाओ। अब कब से पलक-पांवड़े बिछाकर बैठा हूं। अब में भी अगर परमात्मा से मिलना होगा तो इसी क्षण मिलना हो आ भी जाओ। और भीतर वह जानता है कि ऐसी जल्दी भी क्या गया है। इस श्रद्धा में ही मिलना हो गया है कि अनंत काल में है? आओगे तो तुम निश्चित ही। मिलना हो जाएगा। भक्त की मनोदशा बड़ी विरोधाभासी है। जो मिला ही हुआ है। नारद स्वर्ग जा रहे हैं। और एक वृक्ष के नीचे उन्होंने एक बूढ़े उसे, उसके लिए तड़फता है। जिसका मिलना बिलकुल संन्यासी को बैठे देखा, तप में लीन माला जप रहा है। सुनिश्चित है, उसके लिए तड़फता है। जटा-जूटधारी! अग्नि को जला रखा है। धूप घनी, दुपहर तेज, उतावलापन मत कहो। कभी-कभी गलत शब्द खतरनाक हो वह और आग में तप रहा है। पसीने से लथपथ। नारद को सकता है। उतावलेपन में एक तरह का तनाव है। अभीप्सा में देखकर उसने कहा कि सुनो, जाते हो प्रभु की तरफ, पूछ लेना, तनाव नहीं है। प्यास कहो, पुकार कहो। उतावलापन मत | जरा पक्का करके आना, मेरी मुक्ति कब तक होगी? तीन जन्मों कहो। उतावलापन बुद्धि का शब्द है। और ओमप्रकाश से कोशिश कर रहा हूं। आखिर हर चीज की हद्द होती है। बुद्धिमान आदमी नहीं, हृदयवान आदमी हैं। चेष्टा करनेवाले का मन ऐसा ही होता है, व्यवसायी का होता हृदयवान शब्द का लोग उपयोग ही नहीं करते। किसी को है। नारद ने कहा जरूर पछ आऊंगा। उसके ही दो कदम आगे कहो बुद्धिमान नहीं, तो वह नाराज हो जाए। क्योंकि एक ही चलकर दूसरे वृक्ष के नीचे, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे एक मतलब होता है, बुद्धिमान नहीं है यानी बुद्ध। दूसरी बात ही हम युवा संन्यासी नाच रहा था। रहा होगा कोई प्राचीन बाउल : भूल गए हैं कि कोई हृदयवान भी हो सकता है। एकतारा लिए, डुगडुगी बांधे। थाप दे रहा डुगडुगी पर, एकतारा ओमप्रकाश हृदय के केंद्र के करीब हैं। घटेगी घटना। घटनी | बजा रहा, नाच रहा। युवा है। अभी बिलकुल ताजा और नया ही है। लेकिन तुम्हारी तरफ से कोई तैयारी की जरूरत नहीं है। है। अभी तो दिन भी संन्यास के न थे। और न तुम्हारे पास कोई उपाय है कि तुम कुछ कर सको। तड़पो, नारद ने कहा-मजाक में ही कहा कि तम्हें भी तो नहीं रोओ, नाचो। लेकिन यह भी उसे पाने के साधन की तरह नहीं। पूछना है कि कितनी देर लगेगी? वह कुछ बोला ही नहीं। वह क्योंकि साधन की तरह सोचना ही बाजार की भाषा है, प्रेम की अपने नाच में लीन था। उसने नारद को देखा ही नहीं। उस घड़ी भाषा नहीं। तो नारायण भी खड़े होते तो वह न देखता। फर्सत किसे? नारद नाचो, क्योंकि श्रद्धा है। नाचो, क्योंकि वह आता ही होगा। चले गए। दूसरे दिन जब वापस लौटे तो उन्होंने उस बूढ़े को नाचो, क्योंकि वह आ ही रहा है, रास्ते पर ही है। नाचो, कि दूर कहा कि मैंने पूछा, उन्होंने कहा कि तीन जन्म और लग जाएंगे। उसके रथ के पहियों की आवाज सुनाई ही पड़ने लगी है। कितने बूढ़ा बड़ा नाराज हो गया। उसने माला आग में फेंक दी। उसने ही दूर-दिगंत में, आकाश में बादलों के पास होती है गड़गड़ाहट कहा, भाड़ में जाए यह सब! तीन जन्म से तड़फ रहा हूं, अब लेकिन वह चल पड़ा। वह अनंत काल से तुम्हारी तरफ चल ही | तीन जन्म और लगेंगे? यह क्या अंधेर है? अन्याय हो रहा है। रहा है। नारद तो चौंके। थोड़े डरे भी। उस युवक के पास जाकर कहा नाचो! उसने तुम्हें चुन लिया है—साधन की तरह नहीं, साध्य कि भई! नाराज मत हो जाना—वह नाच रहा है—मैंने पूछा -538 2010_03 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं था। अब तो मैं कहने में भी डरता हूं। क्योंकि उन्होंने कहा है कि और यह उतावलेपन को तो बिलकुल भूल जाओ। अधैर्य वह युवक, वह जिस वृक्ष के नीचे नाच रहा है, उस वृक्ष में जितने पकड़ो, लेकिन धीरज के साथ। पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे लग जाएंगे। दिन जो निकला तो पुकारों ने परेशान किया ऐसा सुना था उस युवक ने, कि वह एकदम पागल हो गया | रात आयी तो सितारों ने परेशान किया मस्ती में और दीवाना होकर थिरकने लगा। नारद ने कहा, समझे गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई कि नहीं समझे? मतलब समझे कि नहीं? जितने इस वृक्ष में गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया पत्ते हैं इतने जन्म! उसने कहा, जीत लिया, पा लिया, हो ही गई | यह उतावलापन संसार का है। धन मिल जाए, पद मिल जाए, बात। जमीन पर कितने पत्ते हैं। सिर्फ इतने ही पत्ते? खतम! यह उतावलापन सांसारिक है। पहुंच गए। गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हई कहते हैं वह उसी क्षण मुक्त हो गया। ऐसा धीरज, ऐसी अटूट गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया श्रद्धा, ऐसा सरल भाव, ऐसी प्रेम से, चाहत से भरी अब बहार आ गई है। जरा देखो तो! मगर तुम पुरानी खिजां आंख...उसी क्षण! पता नहीं उस बूढ़े का क्या हुआ! मैं नहीं की आदत, पुरानी पतझड़ की आदत परेशान होने की बनाए बैठे सोचता कि वह तीन जन्मों में भी मुक्त हुआ होगा क्योंकि वह हो। यह पुरानी छाया है तुम्हारे अनुभव की। इसे छोड़ो। चारों वक्तव्य नारायण ने माला फेंकने के पहले दिया था। वह बूढ़ा | तरफ वसंत मौजूद है। कहीं न कहीं अब भी तपश्चर्या कर रहा होगा। अगर मैं कुछ हूं तो वसंत का संदेशवाहक हूं। यह वसंत मौजूद अक्सर तुम माला जपते लोगों का चेहरा देखो तो उस बूढ़े का है। यह बहार आ ही गई है। जरा आंख बंद करो तो भीतर चेहरा थोड़ा तुम्हें समझ में आएगा। बैठे हैं। खोल-खोलकर दिखाई पड़े। जरा आंख ठीक से खोलो तो बाहर दिखाई पड़े। आंख देख लेते हैं, बड़ी देर हो गई अभी तक। तपश्चर्या, | अब परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं। जो ऊर्जा परेशानी उपवास करते लोगों के चेहरे को गौर से देखो तो उस बूढ़े की | बन रही है, उसी ऊर्जा को आनंद बनाओ। थोड़ी पहचान तुम्हें हो जाएगी। नहीं ओमप्रकाश के लिए वैसा होने की कोई जरूरत नहीं है। आखिरी प्रश्न: कल आपने कहा कि उत्तर गीता से मिला हो लो एकतारा हाथ में, ले लो डुग्गी, नाचो। हो ही गया है। करना | तो कृष्ण महाराज को नमस्कार करना। माना कि कृष्ण से क्या है और? परमात्मा को हमने कभी खोया नहीं है, सिर्फ मिलना संभव नहीं, कोई याददाश्त भी नहीं, लेकिन कृपया भ्रांति है खो देने की। नाचने में भ्रांति झड़ जाती है। गीत बताएं कि रजनीश महाराज को कैसे नमस्कार करें, जब तक कि गुनगुनाने में भ्रांति गिर जाती है। उल्लास, उत्सव में राख उतर भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए! जाती है, अंगारा निकल आता है। रही बात कि-'उस समय आप गुरु-भगवान तो नहीं जब तक भीतर का रजनीश उभरकर न आए तब तक नमन उपलब्ध होंगे।' | करो; जब उभरकर आ जाए तब नमस्कार कर लेना। नमन और अगर मुझसे संबंध जुड़ गया तो मैं सदा उपलब्ध हूं। संबंध नमस्कार में कोई बहुत फासला थोड़े ही है! नमन जरा लंबा कर जुड़ने की बात है। जिनका नहीं जुड़ा उन्हें अभी भी उपलब्ध नहीं दिया साष्टांग, तो नमस्कार! हूं। वे यहां भी बैठे होंगे। जिनसे नहीं जुड़ाव हुआ, उन्हें अभी कृष्ण महाराज को नमस्कार करने को कहा क्योंकि कहीं ऐसा न भी उपलब्ध नहीं हूं। जिनसे जुड़ गया उन्हें सदा उपलब्ध हूं। हो कि तुम्हारे भीतर का कृष्ण तुम्हारे बाहर की कृष्ण की धारणा में ओमप्रकाश से जोड़ बन रहा है। तो घबड़ाओ मत। अहोभाव दबा रह जाए। कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुम्हारे सत्य को उभरने से भरो। जोड़ बन गया तो यह जोड़ शाश्वत है। यह टूटता न दे। कहीं ऐसा न हो कि उधार ज्ञान तुम्हारी मौलिक प्रतिभा को नहीं। इसके टूटने का कोई उपाय नहीं है। ' प्रगट न होने दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम सूचनाओं को ही ज्ञान 539 2010_03 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 जिन सूत्र भाग: 2 | समझते हुए जीयो और मर जाओ; और तुम्हें अपनी कोई जीवंत उस दिन तुम जल्दी न करोगे हाथ छुड़ाने की। अनुभूति न हो । जमाले - इश्क में दीवाना हो गया हूं मैं यह किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूं मैं? प्रेम में कैसा पागलपन गया! जमाले - इश्क में दीवाना हो गया हूं मैं मेरी बात तुम सुन रहे हो। अगर मेरी बात को संगृहीत करने लगे तो खतरा है। सुनो मेरी, गुनो अपनी समझो, संग्रह म करो। याददाश्त भरने से कुछ भी न होगा। स्मृति के पात्र में तुमने, जो-जो मैंने तुमसे कहा, इकट्ठा भी कर लिया तो दो कौड़ी का है। उससे कुछ लाभ नहीं । तुम्हारा बोध जगे। जो मैं कह रहा हूं उसे समझो, उससे जागो। कोई परीक्षा थोड़ी ही देनी है कहीं कि तुमने जो मुझसे सुना, वह याद रहा कि नहीं रहा। प्रेम में ऐसी दीवानगी भी आती है कि प्रेमी से ही हाथ छुड़ाकर भागने के लिए आदमी तत्पर हो जाता है। जमाले - इश्क में दीवाना हो गया हूं मैं यह किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूं मैं एक मित्र एक दिन आए, वे कहने लगे, बड़ी मुश्किल है। रोज आपको सुनता हूं लेकिन घर जाते-जाते भूल जाता हूं। तो अगर मैं नोट लेने लगूं तो कोई हर्ज तो नहीं ? तो नोट लेकर भी क्या करोगे ? अगर नोट लिया तो नोट बुक का मोक्ष हो जाएगा, तुम्हारा कैसे होगा ? तो याद तो नोट बुक को रहेगा। तुमको तो रहेगा नहीं । - और याद रखने की जरूरत क्या है? मैंने उनसे पूछा, याद रखकर करोगे क्या? समझ लो, बात हो गई । सार-सार रह जाएगा। फूल तो विदा हो जाएंगे, सुगंध रह जाएगी। पहचानना भी मुश्किल होगा, किस फूल से मिली थी। लेकिन उस सुगंध के साथ-साथ तुम्हारे भीतर की सुगंध भी उठ आएगी। उस सुगंध का हाथ पकड़कर तुम्हारी सुगंध भी लहराने लगेगी। तो एक दिन तो गुरु को नमस्कार करना ही है। नमन से शुरू करना, नमस्कार से विदा देनी । इसे याद रखना। इसे भूलना मत । कृष्ण से उतना खतरा नहीं है, जितना तुम्हारे लिए मुझसे खतरा है। क्योंकि कृष्ण से तुम्हारा कोई लगाव ही नहीं । जिनका लगाव है, वे तो मेरे पास आते भी नहीं। तो कृष्ण को तो तुम बड़े मजे से नमस्कार कर सकते हो। असली कठिनाई तो मुझे नमस्कार करने में आएगी । लेकिन नमस्कार करने के पहले नमन का अभ्यास करना होगा । नमन ही लंबा होकर नमस्कार बनता है। झुको ! तुम अगर झुके तो तुम्हारे भीतर कोई जगेगा। तुम अगर अकड़े रहे तो | तुम्हारे भीतर कोई झुका रहेगा। तुम झुको तो तुम्हारे भीतर कोई खड़ा हो जाएगा। बाहर का गुरु तो केवल थोड़ी देर का साथ है ताकि भीतर का गुरु जग जाए। और जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाता है, 2010_03 तुम छुड़ाओ मत। जल्दी मत करो। मैं खुद ही चुपचाप हाथ अलग कर लूंगा। तुम जरा तैयार हो जाओ, तुम पकड़ना भी चाहोगे तो मैं पकड़ने न दूंगा। क्योंकि अगर मैंने तुम्हें पकड़ने दिया तो मैं तुम्हारा दुश्मन हुआ, मित्र न हुआ। कल्याणमित्र तो वही है, जो तुम्हें तुम्हारा बोध दे जाए और हट जाए बीच से। जो तुम्हें परमात्मा के द्वार तक पहुंचा जाए, फिर तुम लौटकर उसे खोजो तो मिले भी न। मगर ऐसा सदगुरु कभी खोता नहीं, क्योंकि तुम उसे अपने अंतर्तम में विराजमान पाओगे। तब तुम अचानक पहचानोगे एक दिन, जो बाहर से बोला था, वह भीतर की ही आवाज थी । जिसने बाहर से पुकारा था वह भीतर से ही उठी पुकार थी। वह जो बाहर दिखाई पड़ा था वह अपने ही अंतर्तम की छवि थी । बाहर जिसके दर्शन हुए थे, वह अपना ही भविष्य रूप धरकर आया था । घबड़ाओ मत। अभी तो तुम भुलाने की कोशिश करोगे तो भुला न सकोगे। जब तक जाग नहीं गए तब तक भुलाना संभव भी नहीं, उचित भी नहीं। संभव हो तो भी उचित नहीं । किस-किस उन्वां से भुलाना उसे चाहा था रविश किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया जब तक तुम जाग ही नहीं गए हो, जब तक तुम अपने प्रीतम स्वयं ही नहीं बन गए हो, तब तक तुम भुला भी न सकोगे कृष्ण को, या महावीर को, या मोहम्मद का । किस-किस उन्वां से भुलाना उसे चाहा था रविश किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया भुलाने की जल्दी भी मत करो। जागने की फिक्र करो । भुलाने पर जोर मत दो, जागने पर जोर दो। इधर तुम जागे, कि एक अर्थ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम के कोई गणस्थान नहीं में तुम भूल जाओगे गुरु को और एक गहरे अर्थ में पहली दफे तुम उसे पाओगे। अपने ही भीतर विराजमान पाओगे। तुम्हारे ही सिंहासन पर विराजमान पाओगे। तुम्हारी ही आत्मा जैसा विराजमान पाओगे। अचानक तुम पाओगे, गुरु और शिष्य दो नहीं थे। मैं तुम्हारी ही संभावना हूं। जो तुम हो सकते हो, उसकी ही खबर हूं। लेकिन छुड़ाने की कोई जल्दी नहीं है। जल्दी छुड़ाने में तो तुम अटके रह जाओगे। लाभ भी न होगा। छूटना तो हो ही जाएगा। सीख लो। जाग लो। तुम हो जाओ। मां अपने छोटे बच्चे को चलना सिखाती है। हाथ पकड़कर सिखाती है। हालांकि बच्चा हाथ छोड़ना चाहता है। क्योंकि बच्चे के अहंकार को चोट लगती है कि कोई और मेरा हाथ पकड़कर चलाए। लेकिन मां पकड़ती है। माना कि बच्चे के अहंकार को चोट लगती है, लेकिन अभी उसे उस पर छोड़ा भी नहीं जा सकता है। अभी तो तुम छुड़ाओगे भी तो मैं न छोडूंगा। अभी भी तुम भागोगे तो मैं तुम्हारा पीछा करूंगा। तुम कहीं भी निकल जाओ, मैं छाया की तरह तुम्हें सताऊंगा। अभी तो उपाय नहीं है। तो मां पकड़ती है बच्चे का हाथ। फिर एक दिन बच्चा चलने लगता है, तो चुपचाप हाथ को छुड़ाती है—फिर चाहे बच्चा पकड़ना भी चाहे। क्योंकि अब बच्चे को भी समझदारी आ गई है इतनी कि मां के हाथ में हाथ हो तो ज्यादा सुरक्षित। अनुभव ने सिखा दिया। कई दफे गिरा है, घुटने टूट गए हैं, अब अनुभव ने सिखा दिया है कि यह हाथ पकड़े ही रहूं। लेकिन अब मां छुड़ाती है। यही तो जीवन का विरोधाभास है। एक दिन पकड़ना पड़ता है, एक दिन छुड़ाना पड़ता है। जिस सीढ़ी से चढ़ते हो उसे छोड़ना पड़ता है। जिस नाव से दूसरे किनारे जाते हो, उससे उतरना पड़ता है। इसलिए अभी नमन करो, फिर नमस्कार भी हो जाएगा। तुम न करोगे तो मैं कर लूंगा। आज इतना ही। 5411 __ 2010_03 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 03 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईसवां प्रवचन पंडितमरण सुमरण है 2010_03 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ । संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो । । १४६ ।। 2010_03 धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं । तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं । । १४७।। इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि । तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ । । १४८।। इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो। खिप्पं सो मरणाणं, काहि अंतं अनंताणं । । १४९ ।। चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पासं इह मन्त्रमाणो । लाभंतरे जीविय वूहइत्ता, पच्चा परिण्णाय मलावधंसी । । १५० ।। तस्स ण कप्पदि भत्त-पइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो । सो मरणं पत्थितो, होदि हु सामण्णणिव्विण्णो । । १५१ । । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा वन की सबसे बड़ी पहेली स्वयं जीवन में नहीं है, एक किताब की शुरुआत इस वचन से की है कि 'मेरे देखे या जीवन की सबसे बड़ी पहेली मृत्यु में है। और दर्शनशास्त्र की सबसे बड़ी समस्या आत्मघात है।' जिसने मृत्यु को न जाना वह जीवन से अपरिचित | महावीर से पूछो, बुद्ध से पूछो, तो वे कहेंगे, मृत्यु। कामू रह जाता है। जीवन को जानने की कंजी मत्य में है। कहता है आत्मघात। करीब पहुंचा, लेकिन चूक गया। छोटे बच्चों की कहानियां तुमने पढ़ी होंगी। कोई राजा है या मृत्यु और आत्मघात में बड़ा फर्क है। आत्मघात का अर्थ रानी है, उसके जीवन की कुंजी किसी तोते में बंद है या किसी हुआ, जीवन ने अतृप्त किया। जीवन से जो सुख मांगा था, न मैना में बंद है। तोते को मरोड़ दो, राजा मर जाता है। राजा को मिला। जो मूल्य खोजे थे, वे न पाए जा सके। जो आशा की थी, मारने में लगे रहो, राजा नहीं मरता। वह टूटी। जो इंद्रधनुष बांधे थे कल्पनाओं के, वे सब बिखर जीवन को सुलझाने में लगे रहो, जीवन नहीं सुलझता। जीवन | | गए। उस हताशा में आदमी अपने को मिटा लेता है। का सुलझाव मृत्यु में है। ऐसी मिटाने की जो वृत्ति है, यह जीवन का अंतिम शिखर नहीं इसलिए जगत में जो बड़े मनीषी हुए, उन्होंने मृत्यु को समझने | है। यह संगीत की आखिरी ऊंचाई नहीं है, यह तो वीणा का टूट की चेष्टा की है। साधारणजन मृत्यु से बचते हैं, भागते हैं। | जाना है। परिणाम में जीवन से वंचित रह जाते हैं। इस विरोधाभास को आत्मघात दूसरा छोर है; जीवन से भी नीचा। मृत्यु आत्मघात जितना ठीक से पहचान लो, उतना उपयोगी है। के बिलकुल विपरीत है—जीवन की आखिरी ऊंचाई, जीवन का मृत्यु से भागना मत। जो मृत्यु से भागा, वह जीवन से ही भाग | गौरीशंकर। मृत्यु अर्जित करनी पड़ती है। मृत्यु के लिए साधना रहा है। क्योंकि मृत्यु जीवन की पूर्णाहुति है। मृत्यु है जीवन का | करनी पड़ती है। मृत्यु को सम्हालना पड़ता है। जो अति कुशल आत्यंतिक स्वर। जीवन मृत्यु पर समाप्त होता, पूरा होता। मृत्यु है, वही केवल ठीक-ठीक मृत्यु को उपलब्ध हो पाता है। और है फल। जीवन है यात्रा, मृत्यु है मंजिल। ठीक मृत्यु ही न मिली तो जीवन हाथ से बह गया। फिर तुम थोड़ा सोचो, मंजिल से बचने लगो तो यात्रा कैसे होगी? और | पाठशाला में तो रहे, लेकिन पाठ न आया। तुम विद्यालय से गए अंतिम से बचने लगो तो प्रथम से ही बचना शुरू हो जाएगा। | तो लेकिन उत्तीर्ण न हुए। मौत से जो डरा, मौत से जो भागा, उसके ऊपर जीवन की वर्षा इसलिए पूरब कहता है, जो उत्तीर्ण न होंगे उन्हें बार-बार भेज नहीं होती। वह जीवन से अछता रह जाता है। इसलिए कायर से दिया जाएगा। उचित है। जीवन से अगर मत्य का पाठ सीख ज्यादा दयनीय इस जगत में कोई और नहीं है। लिया तो फिर आना नहीं है। जो होशपूर्वक, आनंदपूर्वक, पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक आल्बेर कामू ने अपनी उल्लासपूर्वक मरता है उसकी फिर वापसी नहीं है। यही तो 2010_03 www.jainelibrary org Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 ANS पुनर्जन्म का पूरा सिद्धांत है। बने। अभी तो शरीर साध्य है। तुम भोजन जीने के लिए थोड़े ही तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। लेकिन तुम चाहते हो, | करते हो। तुम जीते ही भोजन करने के लिए हो। तुम कपड़े थोड़े वापसी न हो ताकि फिर-फिर न मरना पड़े। वापसी उसकी नहीं ही शरीर को बचाने के लिए पहनते हो। तुम शरीर को कपड़े होती, जो मरना सीख लेता है। जो इस भांति मर जाता है कि पहनने के लिए बचाए रहते हो। अभी तो शरीर ऐसा लगता है, मरने को फिर कुछ और बचता ही नहीं, तो दुबारा मौत नहीं जैसे गंतव्य है। इसके पार कुछ भी नहीं। होती। तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। क्योंकि वापसी होगी महावीर कहते हैं, शरीर है नाव। अर्थ हुआ, शरीर से पार तो फिर मौत होगी। तुम मौत से डरे हो। जो वस्तुतः वापसी नहीं जाना है। शरीर है नाव। बैठना है, उतरना भी है, शरीर संक्रमण चाहता वह मौत से डरता नहीं, मौत का आलिंगन करता है। है। नाव में बैठने के पहले भी यात्री था। नाव में बैठा है तब भी आज के सूत्र मौत के संबंध में हैं। ये चरम सूत्र हैं। इन पर है। नाव से उतर जाएगा तब भी होगा। नाव ही यात्री नहीं है। एक-एक सूत्र को बहुत ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना। तुम शरीर में आए उसके पहले भी थे, अभी भी हो; शरीर से | क्योंकि ये तुम्हारे विपरीत भी हैं। उतरोगे जिस दिन मौत में, तब भी होओगे। मौत तो दूसरा तुम अगर यहां आए तो जीवन की तलाश में आए हो। लोग किनारा है। जन्म है यह किनारा, मृत्यु है वह किनारा; शरीर है महावीर के पास गए तो जीवन की तलाश में गए थे। जीवन में नाव। और संसार है सागर। हार रहे थे तो तरकीबें खोजने गए थे, कैसे जीत जाएं। लेकिन | लेकिन अधिक लोग संसार को सागर की तरह नहीं देख पाते। सदगुरु तो मृत्यु का सूत्र देता है। जब तक तुम्हारा शरीर ही नाव नहीं, तो तुम संसार को सागर की उस परम मृत्यु को हमने अलग-अलग नाम दिए हैं। पतंजलि तरह न देख पाओगे। तुम इसी किनारे पर अटके रहते हो। तुम कहते हैं, समाधि। इसीलिए तो जब कोई संन्यासी मरता है तो सागर में उतरते ही नहीं। सागर में तो वही उतरता है जो मृत्यु की उसकी कब्र को हम समाधि कहते हैं। अर्थ हुआ कि उसका | तरफ स्वयं, स्वेच्छा से अग्रसर होने लगा। मृत्यु यानी वह दूसरा ध्यान और उसकी मृत्यु एक ही जगह पहुंच गए। साधारण | किनारा। तुम तो डर के कारण इस किनारे को पकड़कर रुके रहते आदमी मरता है तो उसकी कब्र को हम समाधि नहीं कहते, कब्र हो। तुम तो सब आयोजन करते हो कि किसी तरह यह किनारा न ही कहते हैं; मकबरा कहते हैं। समाधि नहीं कहते क्योंकि यह छूट जाए। तुम तो नाव में होकर भी यात्रा नहीं करते। आदमी अभी फिर-फिर पैदा होगा। अभी समाधि नहीं मिली, इसलिए संसार कभी-कभी तो तुम कहते भी हो, संसारसागर, अभी आखिरी मृत्यु नहीं मिली। भवसागर। मगर तुम महावीर और बद्ध के वचन उधार ले रहे समाधि का अर्थ है आत्यंतिक मृत्य-आखिरी, चरम। अब हो। बैठे किनारे पर हो, बातें सागर की कर रहे हो। सागर का न कोई जन्म होगा, न मौत होगी। पाठ सीख लिया। यह व्यक्ति तुम्हें कोई पता नहीं। सागर में तो वही उतरता है, जीवन उसी के विद्यालय से वापिस घर की तरफ लौटने लगा। यह घर में लिए सागर बनता है, जिसने पहले शरीर को नाव समझा और जो स्वीकृत हो जाएगा। उत्तीर्ण हुआ। प्रमाणपत्र लेकर जा रहा है। मौत के किनारे की तरफ अग्रसर हुआ। ये सूत्र तुम्हारे विपरीत होंगे। इसलिए और भी गौर से समझोगे हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते तो ही समझ पाओगे। पहला सूत्र : इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। कवि ने कहा है, एक नाव भी, छोटी-सी नाव ही हमने तेरे संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।। सागर में छोड़ी थी कि तेरा सागर एकदम नाराज हो गया। 'शरीर है नाव। जीव है नाविक। यह संसार है समुद्र, जिसे | एकदम तूफान उठने लगे, लहरें उठने लगीं, आंधियां, बवंडर महर्षिजन तर जाते हैं।' | आ गए। शरीर तो हमारे पास भी है लेकिन शरीर नाव नहीं है। 'शरीर | हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते नाव है' का अर्थ होता है, शरीर शरीर से श्रेष्ठतर के लिए साधन कुछ बड़ा किया भी न था। जरा-सी एक नाव छोड़ी थी। 548 2010_03 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितमरण सुमरण है इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा 'शरीर को नाव, जीव को नाविक कहा। यह संसार समुद्र है, और तेरा दरिया बड़ा नाराज हो गया। जिससे महर्षिजन तर जाते हैं।' जो व्यक्ति नाव उतारेगा उसी को दरिये की नाराजगी पता और जो उस किनारे को छू लेता है, वही महर्षि है। जो चलेगी। किनारे पर बैठे-बैठे दरिया का पता ही नहीं चलता। जीते-जी मर जाता है वही महर्षि है। जो शरीर की नाव को खेकर सागर का अनुभव तो माझी को होता है। जिसने अपनी | उस पार पहुंच जाता है...। छोटी-सी डोंगी को इस विराट सागर में उतार दिया....और पहंचते तो तम भी हो. बड़े बेमन से। पहंचते तो तम भी हो. कितनी ही बड़ी नाव हो, छोटी ही है। क्योंकि सागर बड़ा विराट घसीटे जाते हो तब। इसलिए तो मृत्यु की एक बड़ी दुखांत है। जिसने तूफान और आंधियों से भरे इस सागर में अपनी नाव धारणा लोगों के मन में है—यमदूत, काले-कलूटे, भयावने, को उतार दिया, किसी ऐसे किनारे की तलाश में जो यहां से भैंसों पर सवार; घसीटते हैं। दिखाई भी नहीं पड़ता। __यह बात बेहूदी है। यह तुम्हारे भय की खबर देती है। यह मृत्यु इसलिए नदी नहीं कहते संसार को, सागर कहते हैं। दूसरा का चित्रण तुमने अपने भय के पर्दे से किया है। तुम भयभीत हो नदी। दसरा किनारा दिखाई ही नहीं | इसलिए भैंसे. काले-कलटे. यमदत...। लेकिन महर्षिजनों से पड़ता। है तो निश्चित। इसीलिए तो हमें मौत दिखाई नहीं | पूछो। जिनकी आंख निर्मल है, उनसे पूछो। और उनकी बात ही पड़ती। है तो निश्चित। इस जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त और | सच होगी क्योंकि उनकी आंख निर्मल है। वे कहते हैं, मृत्यु में कुछ भी निश्चित नहीं है। बाकी सब अनिश्चित है। एक ही बात | उन्होंने परमात्मा को पाया। यह छोटा, क्षुद्र जीवन गया, विराट निश्चित है, वह मृत्यु। जीवन मिला। सीमा टूटी, असीम से मिलन हुआ। असीम का किनारा तो निश्चित है। क्योंकि जिसका एक किनारा है, | आलिंगन है मृत्यु। उसका दूसरा किनारा भी होगा ही। कितने ही दूर...कितने ही महर्षिजन से पूछो तो वे कहेंगे, परमात्मा बाहें फैलाए खड़ा है। दूर। एक किनारे के होने में ही दूसरा किनारा हो गया है। अब संसार छूटता है निश्चित। पर संसार में पकड़ने जैसा भी कुछ तुम दृढ़तापूर्वक मान ले सकते हो कि दूसरा किनारा होगा ही। नहीं है। मिलता है अपरिसीम, जाता है क्षुद्र। मिलता है विराट, अनुमान की जरूरत नहीं है। यह तो सीधा गणित है। यह खोता है क्षुद्र। खोता है क्षणभंगुर, मिलता है शाश्वत। किनारा है तो वह किनारा भी होगा। एक छोर है तो दूसरा छोर भी नहीं, मृत्यु का देवता यमदूत काला-कलूटा, भैंसों पर सवार होगा। जन्म हो गया तो मृत्यु भी होगी। नहीं है। मृत्यु से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है क्योंकि मृत्यु है हम अक्सर जीवन को जन्म से ही जोडे रखते हैं। इसलिए हम विश्राम। इस जीवन में निद्रा से संदर तमने कछ जाना? गहरी जन्मदिन मनाते हैं, मृत्युदिन नहीं मनाते। हालांकि जिसको हम निद्रा, जब कि स्वप्न भी थपेड़े नहीं देते। सब वाय-कंप रुक जन्मदिन कहते हैं, वह एक तरफ से जन्मदिन है, दूसरी तरफ से जाते हैं। गहरी निद्रा, जब बाहर का संसार प्रतिछवि भी नहीं मृत्युदिन है। क्योंकि हर एक वर्ष कम होता जाता है। मौत करीब | बनाता, प्रतिबिंब भी नहीं बनाता। जब बाहर के संसार से तुम आती जाती है। अगर ठीक से पूछो तो जन्मदिन से ज्यादा | बिलकुल ही अलग-थलग हो जाते हो। गहरी निद्रा, जब तुम मृत्युदिन है क्योंकि जन्म तो दूर होता जाता, मौत करीब होती | अपने में होते हो डूबे, गहरे, तल्लीन-उससे सुंदर इस जगत में जाती है। जन्म का किनारा तो बहुत दूर पड़ता जाता, मौत का कुछ जाना है? किनारा करीब आता जाता। लेकिन फिर भी हम पीछे मुड़कर मृत्यु उसका ही अनंतगुना रूप है। मृत्यु से सुंदर कुछ भी देखते रहते हैं। हम जन्म के किनारे को ही देखते रहते हैं। नहीं। मृत्यु से ज्यादा शांत कुछ भी नहीं। मृत्यु से ज्यादा शुभ दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता इसलिए कहते हैं: और सत्य कुछ भी नहीं। लेकिन हमारे भय के कारण मृत्यु का भवसागर। होना निश्चित है, लेकिन दृष्टि में नहीं आता। बहुत | रूप हम विकृत कर लेते हैं। हमारे भय के कारण विकृति पैदा दूर है। होती है। 5491 ___ 2010_03 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 RANA - महावीर कहते हैं, महर्षिजन शरीर को नाव बनाकर, जन्म के थोड़े ही घटती है। इंच-इंच आती है. रत्ती-रत्ती आती है। किनारे को चेष्टापूर्वक छोड़ते हुए, मृत्यु के किनारे को अपने आप | रोज-रोज मरते हो, तब सत्तर साल में मर पाते हो। बूंद-बूंद उपलब्ध हो जाते हैं। वे खींचे-घसीटे नहीं जाते। उनके साथ | मरते हो तब सत्तर साल में मर पाते हो। यह जीवन का घड़ा जबर्दस्ती नहीं की जाती, वे स्वेच्छा से संक्रमण करते हैं। बूंद-बूंद रिक्त होता है, तब एक दिन पूरा खाली हो पाता है। इसका अर्थ हुआ, ऐसे जीयो कि तुम्हारा जीना मृत्यु के विपरीत ऐसा थोड़े ही कि एक दिन आदमी अचानक जिंदा था और एक न हो। ऐसे जीयो कि तुम्हारे जीवन में भी मृत्यु का स्वाद हो। दिन अचानक मर गया! सांझ सोए तो पूरे जिंदा थे, सुबह मरे ऐसे जीयो कि जीवन का लगाव ही तुम्हारे मन को पूरा न घेर ले, अपने को पाया; ऐसा नहीं होता। जीवन का विराग भी जगा रहे। जन्म के बाद ही मरना शुरू हो जाता है। इधर जन्मे, ली भीतर विजय आनंद एक फिल्म बनाता था। कहानी में नायक के | श्वास कि बाहर-श्वास लेने की तैयारी हो गई। फिर जन्म से मरने की घड़ी आती। नायक गिर-गिर पड़ता है, मरता है, निरंतर जीवन और मरण साथ-साथ चलते हैं। समझो कि जैसे लेकिन विजय आनंद का मन नहीं भरता। तो आखिर में वह दोनों तुम्हारे दो पैर हैं; या पक्षी के दो पंख हैं। न पक्षी उड़ सकेगा झल्लाकर, चिल्लाकर नायक से कहता है, अपने मरने में जरा दो पंखों के बिना, न तुम चल सकोगे दो पैरों के बिना। और जान डालिए। जन्म और मृत्यु जीवन के दो पैर हैं, दो पंख हैं। मैंने सुना तो मुझे लगा, यह सूत्र तो महत्वपूर्ण है। जरा उलटा तुम एक पर ही जोर मत दो। इसीलिए तो लंगड़ा रहे हो। तुमने कर लो। विजय आनंद ने कहा, अपने मरने में जरा और जान जिंदगी को लंगड़ी दौड़ बना लिया है। एक पैर को तुम ऐसा डालिए। मैं तुमसे कहता है, अपने जीवन में थोड़ी और मृत्यु | इनकार किए हो कि स्वीकार ही नहीं करते कि मेरा है। कोई डालिए। मृत्यु से घबड़ाइए मत। मृत्यु को काट-काट अलग बताए तो तुम देखना भी नहीं चाहते। कोई तुमसे कहे कि मरना मत करिए। रोज-रोज मरिए, क्षण-क्षण मरिए, प्रतिक्षण। पड़ेगा तो तुम नाराज हो जाते हो। तुम समझते हो यह आदमी जैसे हम श्वास लेते हैं और प्रतिक्षण श्वास छोड़ते हैं। भीतर | दश्मन है। कोई कहे कि मत्य आ रही है तो तम इस बात को जाती श्वास जीवन का प्रतीक है। बाहर जाती श्वास मृत्यु का स्वागत से स्वीकार नहीं करते। न भी कुछ कहो तो भी इतना तो प्रतीक है। जब बच्चा पैदा होता है, तो पहली श्वास भीतर लेता मान लेते हो कि यह आदमी अशिष्ट है। मौत भी कोई बात करने है, क्योंकि जीवन का प्रवेश होता है। जब आदमी मरता, तो की बात है? मौत की कोई बात करता है? । आखिरी श्वास बाहर छोड़ता, क्योंकि जीवन बाहर जाता। इसलिए तो हम कब्रिस्तान को गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि भीतर आती श्वास नाव में बैठना है, बाहर जाती श्वास नाव से | वह दिखाई न पड़े। मेरा बस चले तो गांव के ठीक बीच में होना उतरना है। प्रतिपल घट रहा है। जब तुम भीतर श्वास लेते हो तो चाहिए। सारे गांव को पता चलना चाहिए एक आदमी मरे तो। जीवन। जब तुम बाहर श्वास लेते हो तो मृत्यु। पूरे गांव को पता चलना चाहिए। चिता बीच में जलनी चाहिए ऐसा ही काश! तुम्हारे मन के क्षितिज पर भी उभरता रहे। | ताकि हर एक के मन पर चोट पड़ती रहे। ऐसा क्यों बाहर प्रतिक्षण तुम मरो और जीयो। और प्रतिक्षण जन्म और मृत्यु | छिपाया हुआ गांव से बिलकुल दूर? जिनको जाना ही पड़ता है घटते रहें, और तुम किसी को भी पकड़ो न। और तुम दोनों में मजबूरी में, वही जाते हैं। जो भी जाते हैं, वे भी चार आदमी के संतरण करो और सरलता से बहो, तो एक दिन जब विराट मृत्यु कंधों पर चढ़कर जाते हैं, अपने पैर से नहीं जाते। आएगी, तुम अपने को तैयार पाओगे। तो तुम नाव में रहे। तो एक झेन फकीर मर रहा था। मरते वक्त एकदम उठकर बैठ तुमने शरीर का नाव की तरह उपयोग कर लिया। गया और उसने अपने शिष्यों से कहा कि मेरे जूते कहां हैं? ध्यान रहे, प्रतिपल कुछ मर रहा है। ऐसा मत सोचना, जैसा उन्होंने कहा, क्या मतलब है? जूते का क्या करियेगा? लोग सोचते हैं कि सत्तर साल के बाद एक दिन आदमी अचानक चिकित्सक तो कहते हैं, आप आखिरी क्षण में हैं और आप ने भी मर जाता है। यह भी कोई गणित हुआ? मृत्यु कोई आकस्मिक | कहा, यह आखिरी दिन है। उसने कहा, इसीलिए तो जूते मांगता 1550 2010_03 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितमरण सुमरण है हूं। मैं चलकर जाऊंगा मरघट। बहुत हो गया यह दूसरों के कंधों ही है, उससे भय भी व्यर्थ है। धैर्यवान को भी मरना है, वीर पर जाना। जबर्दस्ती मैं न जाऊंगा। कहते हैं, मनुष्य जाति का पुरुष को भी मरना है, साहसी को भी मरना है, कापुरुष को भी पहला आदमी! उस आदमी का नाम था बोकोजू। यह झेन मरना है, कायर को भी मरना है। मरण अवश्यंभावी है। फकीर चलकर गया। कब्र खोदने में भी उसने हाथ बंटाया, फिर तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उचित है। तो फिर शान से मरना लेट गया और मर गया। | ही उचित है। जब जो होना ही है तो उसे प्रसादपूर्वक करना उचित यह तो कुछ बात हुई। यह इस आदमी ने जीवन का उपयोग है। जो होना ही है उसे शृंगारपूर्वक करना उचित है। जो होना ही नाव की तरह कर लिया। खेकर गया उस पार। लेकिन इसके है, उसे समारोहपूर्वक करना उचित है। जब मरना ही है तो फिर लिए तो बड़ी प्राथमिक, प्रथम से ही तैयारी करनी होगी। इसके रोते, झीकते, चीखते-चिल्लाते अशोभन ढंग से क्यों मरना! लिए तो पूरे जीवन ही आयोजना करनी होगी। मृत्यु से मिलन के आदमी के हाथ में इतना ही है-मरने से बचना तो नहीं | लिए पूरे जीवन धीरे-धीरे मरना सीखना होगा। है—आदमी के हाथ में इतना ही है, वह कापुरुष की तरह मरे या जीवन-धर्म की दृष्टि में मरने की कला को सीखने का | एक साहसी व्यक्ति की तरह मरे, धीरपुरुष की तरह मरे। चुनाव अवसर है। मृत्यु और न-मृत्यु में तो है ही नहीं। चुनाव तो इतना ही हमारे 'निश्चय ही धैर्यवान को भी मरना है और कापरुष को भी हाथ में है कि शान से मरें कि रोते मरें। आंसओं से भरे मरें या मरना है। जब मरण अवश्यंभावी है तब फिर धीरतापूर्वक मरना गीतों से भरे मरें। उठकर मौत को आलिंगन कर लें या ही उत्तम है।' चीखें-चिल्लाएं, भागें; और मृत्यु के द्वारा घसीटे जाएं। धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं। महावीर कहते हैं, विकल्प तो यहां है-मौत को स्वीकार तम्हा अवस्समरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिउं।। करके मरें या अस्वीकार करते हुए मरें। और जब मरना ही है, और जब मरना सुनिश्चित ही है, कहावत है, वीर पुरुष एक बार मरता है। कायर अनेक बार। अवश्यंभावी है, टलने की कोई सुविधा नहीं है, कभी टला नहीं ठीक है कहावत। क्योंकि जितनी बार भयभीत होता है, उतनी है; हालांकि आदमी अपने अज्ञान में ऐसा मानता है कि किसी बार ही मौत घटती है। वीर पुरुष एक बार मरता। अगर मुझसे और का न टला होगा, मैं टाल लूंगा। आदमी की मूढ़ता की कोई पूछो तो कहावत बिलकुल ठीक, पूरी-पूरी ठीक नहीं है। वीर सीमा है। | पुरुष मरता ही नहीं। कापुरुष बार-बार मरता, क्योंकि जिसने जो कभी नहीं हुआ, आदमी उसको भी मानता है कि कोई मरण को स्वीकार कर लिया उसकी मृत्यु कहां? मृत्यु तो हमारे तरकीब निकल आएगी, मेरे लिए हो जाएगा। आदमी का अस्वीकार के कारण घटती है। वह तो हमारे इनकार के कारण अहंकार ऐसा मदांध है कि यह बात मान लेता है कि मैं अपवाद घटती है। वह तो हम घसीटे जाते हैं इसलिए घटती है। हूं। और कोई मरता है, सदा कोई और मरता है। मैं तो मरता यह बोकोजू जो चल पड़ा जूते पहनकर मरघट की तरफ, यह नहीं। इसलिए मानने में सुविधा भी हो जाती है। जब भी अर्थी मरा? इसको कैसे मारोगे? इससे मौत हार गई। . तुमने देखी, किसी और की निकलते देखी है। और जब भी धैर्यवान को भी मरना, कापुरुष को भी। जब मरण ताबूत सजा, किसी और का सजा। चिता जली, किसी और की अवश्यंभावी है...।' महावीर का तर्क सीधा है: '...तो फिर जली है। तुम तो सदा देखनेवाले रहे। इसलिए लगता भी है कि धीरतापूर्वक मरना उचित है।' शायद कोई रास्ता निकल आएगा। मौत मेरी नहीं। मझे नहीं धीरतापर्वक मरने का क्या अर्थ होता है? धीरतापर्वक मरने घटती, औरों को घटती है। ये और सब मरणधर्मा हैं। मैं कुछ का अर्थ होता है, मृत्यु के भय लिए जरा भी अवसर न देना। अलग, अछूता, नियम के बाहर हूं। मृत्यु कंपाए न। धीरपुरुष ऐसा है, जैसे निष्कंप जल। झील महावीर कहते हैं मृत्यु अवश्यंभावी है; निरपवाद घटेगी। फिर | शांत। निष्कंप दीये की ज्योति। हवा के कोई झोंके नहीं आते। जो होना ही है, उससे बचने की आकांक्षा व्यर्थ है। फिर जो होना धीरपुरुष की वही परिभाषा है, जो गीता के स्थितप्रज्ञ की। ___ 2010_03 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 कृष्ण से अर्जुन ने पूछा है, किसको कहते हैं आप धीरपुरुष? असाधारण देश है। क्रांति के पहले रूस ने इतने बड़े साहित्यकार कौन है स्थितधी? स्थितधी का ठीक अर्थ धीरपुरुष है। कौन है| दिए, जितने दुनिया के किसी देश ने नहीं दिए। तालस्ताय, जिसको आप स्थितप्रज्ञ कहते हैं? कौन है जिसकी प्रज्ञा ठहर चेखव, गोर्की, दोस्तोवस्की, तुर्जनेव—ऐसे नाम कि जिनका गई? धी यानी प्रज्ञा। धी यानी आत्यंतिक बोध, अंतर्तम में कोई मुकाबला नहीं दुनिया में। एकबारगी जिन्होंने दुनिया को जलती हुई ज्योति। फीका कर दिया। अगर उस समय के दुनिया के दस बड़े कौन है स्थितधी? उपन्यास चुने जाएं तो पांच रूसी होंगे और पांच गैर-रूसी। महावीर कहते हैं वही, जिसे मृत्यु विचलित नहीं करती। जिसे | सारी दुनिया आधी-आधी बांट दी। अपनी मृत्यु विचलित नहीं करती, उसे फिर किसी की मृत्यु फिर अचानक क्रांति हुई और सब मर गया। हुआ क्या? विचलित नहीं करती। | बंदूक लग गई पीछे, कविता मर गई। जो सहज और स्वतंत्र न वही तो कृष्ण भी अर्जुन से कहते हैं कि ये जो तेरे सामने खड़े रहा, वह जीवंत नहीं रह जाता। तो कविता लिखी जाती है, हैं, तू यह मत सोच कि तेरे मारने से मारे जाएंगे। 'न हन्यते खेत-खलिहान की प्रशंसा में, फैक्ट्री इत्यादि की प्रशंसा में, हन्यमाने शरीरे।' कोई मरता नहीं। लोग भय के कारण मरते लेकिन उसमें कुछ प्राण नहीं है। जबर्दस्ती लिखी जाती है, हैं। कोई मारता नहीं। सरकारी आज्ञा से लिखी जाती है। उपन्यास भी लिखे जाते हैं। तो मत्य असली मत्य नहीं है। क्योंकि मत्य को जिसने स्वीकार | सब चलता है। किताब भी छपती हैं. किताब बिकती भी हैं किया वह तो अमृत के दर्शन को उपलब्ध होता है। मृत्यु तभी | लेकिन कुछ मूल स्वर खो गया। जबर्दस्ती हो गई। मृत्यु मालूम होती है जब हमारा अस्वीकार होता है। भूखे कवियों ने, सर्दी में ठिठुरते कवियों ने बेहतर कविता तुमने कभी खयाल किया? वही काम तुम अपनी मौज से करो लिखी थी। रूस में आज कवि जितना संपन्न है उतना दुनिया के और वही काम किसी की आज्ञा के कारण जबर्दस्ती करो। तुम किसी कोने में नहीं। अच्छे से अच्छा मकान उसके पास है, कवि हो. और एक सिपाही तम्हारी पीठ पर बंदक लगाए खड़ा | अच्छे से अच्छी कार उसके पास है, भोजन की व्यवस्था, अच्छी | हो, कहता हो करो कविता। तुम अचानक पाओगे, कविता सूख से अच्छी कपड़ों की व्यवस्था, उसके बच्चों का जीवन सुरक्षित। गई। तुम अचानक पाओगे, रसधार बहती नहीं। तुम अचानक दुनिया में मनुष्य-जाति के इतिहास में कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, पाओगे, शब्द जुड़ते नहीं। तुम अचानक पाओगे, गीत उठता उपन्यासकार, साहित्यकार कभी इतने सम्मानित और प्रतिष्ठित नहीं। न केवल यही, तुम्हारे भीतर क्रोध उठेगा, बगावत उठेगी। न थे। और न कभी इतने सुविधा-संपन्न थे, जितने रूस में हैं। अगर हिम्मतवर हुए तो लड़ने लग जाओगे। अगर लेकिन कविता मर गई। गरीबी में न मरी, भूख में न मरी, गैर-हिम्मतवर हुए तो झुककर तुकबंदी करने लगोगे। कविता | दीनता-दुर्बलता में न मरी, रोग, मृत्यु में न मरी, लेकिन सुविधा पैदा नहीं होगी। किसी तरह शब्द जमा दोगे उधार, मुर्दा, जिनमें में मर गई। पीछे बंदूक लगी है। जबर्दस्ती में मर गई। न कोई लय होगी, न कोई प्राण होगा, न कोई आत्मा होगी। जीवन का कुछ सूत्र है कि जो तुम स्वभाव, सौभाग्य, सहजता तुमने कविता पहले भी की है लेकिन तब तुमने अपनी मौज से से करते हो, उसका आनंद अलग। जो तुम जबर्दस्ती करते हो, की थी। दिनभर के थके-मांदे घर आए थे। शरीर की जरूरत थी जबर्दस्ती के कारण ही सब गलत हो जाता है। कि सो जाते, लेकिन आधी रात जगते रहे। टिमटिमाते दीये की। जो लोग स्वीकारपूर्वक मरे हैं, उनसे पूछो; महर्षिजनों से रोशनी में बैठ कागज काले करते रहे। तुम्हारे हृदय से बहती पूछो। मृत्यु परमात्मा का रूप है। वह परमात्मा का संदेशवाहक थी। उमंग और थी, उल्लास और था। है, डाकिया है। रूस में कविता मर गई। उन्नीस सौ सत्रह के बाद रूस में कोई नहीं, मृत्यु भैंसों पर सवार होकर नहीं आती। मृत्यु परियों की ढंग की कविता नहीं हुई; न एक ढंग का उपन्यास लिखा गया, न तरह सुंदर है। पक्षियों की तरह उड़कर आती। तुम्हें आलिंगन में ढंग की एक पेंटिंग बनी। सारा साहित्य मर गया। और रूस | ले लेती। तुम्हें गहनतम विश्राम और विराम देती। तुम्हें समाधि 15521 2010_03 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितमरण सुमरण है का सुख देती। लेकिन उसकी तैयारी करनी पड़े। उसे अर्जित दूसरा किनारा है। करनी पड़े। सफलता हो तो बहुत हंसो मत। सफलता में तो रो लो तो फिर मरना अवश्यंभावी है तो धीरतापूर्वक मरना उचित। धीर चलेगा। विफलता में हंसना है। जब जीत आ रही हो, हंसने की बनो। इसे रोज-रोज साधो। धीरता को रोज-रोज साधो। जरूरत नहीं। क्योंकि जीत के साथ हंसने से किसी को कोई लाभ छोटी-छोटी चीजें अधीर कर जाती हैं। एक प्याली गिरकर टूट | | कभी नहीं हुआ। तब रो लो तो चलेगा। जब फूलमालाएं गले में जाती है और तुम अधीर हो जाते हो। तो थोड़ा सोचो तो, जब तुम डाली जा रही हों तो सिर नीचे झुका लो तो चलेगा। तब उदास हो टूटोगे तो कैसे न अधीर होओगे! एक छोटी-मोटी दुकान चलाते | जाओ तो चलेगा। थे, डूब जाती है, तो अधीर हो जाते हो। तो जब तुम्हारे जीवन का मुझे आज साहिल पर रोने भी दो पूरा व्यवसाय छीन लिया जाएगा, जीवन का पूरा व्यापार बंद | कि तूफान में मुस्कुराना भी है! होगा, पटाक्षेप होगा, पर्दा गिरेगा तो तुम कैसे बेचैन न हो किनारे पर रो लो तो चलेगा क्योंकि तूफान में हंसने की तैयारी जाओगे! दिवाला निकल गया, एक मित्र नाराज हो गया, और करनी है। जो तूफान में हंसा वही हंसा। साहिल पर तो कोई भी तुम अधीर हो जाते हो। किसी ने गाली दे दी, अपमान कर दिया हंस लेता है। किनारे पर हंसने में क्या लगता है? हलदी लगे न और तुम अधीर हो जाते हो। फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। कुछ लगता ही नहीं किनारे पर कर तुम मृत्यु का सामना कर सकोगे? इसे तो। किनारे पर तो मुढ़ भी हंस लेते हैं, कायर भी हंस लेते हैं। साधो। ये सब अवसर हैं धीरज को साधने के, धैर्य को निर्मित तूफान में हंसने की तैयारी करनी है। करने के। जीवन एक गहन प्रयोगशाला है। और प्रतिपल मुझे आज साहिल पर रोने भी दो परमात्मा अनंत अवसर देता। कि तूफान में मुस्कुराना भी है! कभी किसी के द्वारा गाली दिलवा देता। कभी किसी के द्वारा सफलता में ऐसे खड़े रह जाओ, जैसे कुछ भी नहीं हुआ। तभी अपमान करवा देता। वह कहता है, साधो। धैर्य साधो। तुम विफलता में ऐसे खड़े रह सकोगे कि जैसे कुछ भी नहीं स्थितधी बनो। धीरज जगाओ। धीरता पैदा करो। यह आदमी हुआ। जो गाली दे रहा है, यह तुम्हारा हिताकांक्षी है। इसे पता हो न हो, ___ इसको कृष्ण ने कहा है, 'समत्वं योग उच्चते।' दुख में, सुख यह तुम्हारा कल्याणमित्र है। | में सम हो जाओ, यही योग है। यही धीरता है। कबीर ने तो कहा है, 'निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी बहुत कुछ और भी है इस जहां में छवाय।' घर के पास ही बसा लो उनको। आंगन कुटी छवा यह दुनिया महज गम ही गम नहीं है दो। अतिथि की तरह उनकी सेवा करो, पैर दबाओ। पर निंदक लेकिन वह जो बहुत कुछ है, उसे जानने की कला चाहिए। को दूर मत जाने दो, पास ही रखो। क्योंकि वह बार-बार तुम्हें साधारणतः तो आदमी को लगता है, दुख ही दुख है। क्योंकि हम धैर्य को जगाने का अवसर देगा। केवल दुख को चुनने में कुशल हैं। हम कांटे बीनने में बड़े सोचो थोड़ा इस पर। जो भी घटता है उसका सृजनात्मक निष्णात हो गए हैं। फूल हमें दिखाई ही नहीं पड़ते। फूल उसी उपयोग कर लो। दिवाला निकल जाए तो सृजनात्मक उपयोग को दिखाई पड़ते हैं, जो कांटों में भी फूल देखने के लिए तैयार हो कर लो। यह मौका है। इस वक्त अपने को कस लो। सफलता | जाता है। में तो सभी धैर्यवान मालम पडते हैं। वह तो धोखा है। फलों को कांटों में खोज लेना है। दख में सख की तरंग को असफलता जब घेर ले, तभी परीक्षा है। | पकड़ना है। अशांति में शांति की तरंग को पकड़ना है। और ऐसी छोटी-छोटी असफलताओं में साधते-साधते, विफलता में सफलता का स्वर खोजना है। छोटी-छोटी लहरों से लड़ते-लड़ते तुम बड़े सागर में उतरने के ऐसी खोज जारी रहे पूरे जीवन, तो तुम मृत्यु में महाजीवन खोज योग्य हो जाओगे। किनारे से दूर बड़े तूफान हैं। तूफानों के पार पाओगे। इन छोटी-छोटी तरंगों से जूझते-जूझते तुम मृत्यु की 553 2010_03 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 महातरंग से जूझने के योग्य हो जाओगे। फिर तुम्हें वह तरंग तैयार रहोगे, अन्यथा विचलित हो जाओगे। मिटा न पाएगी। जिसने धीर की अवस्था पा ली, उसे फिर कुछ अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि मृत्यु के क्षण में सम्हाल भी नहीं मिटा पाता है। लेंगे-अभी क्या जल्दी है ? अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि ले इसे महावीर एक बड़ा अनूठा शब्द देते हैं। वह उन्हीं ने दिया लेंगे राम का नाम मरते क्षण में। मगर तुम ले न पाओगे। अगर है। इसे वे कहते हैं : पंडितमरण। यह बड़ा प्यारा शब्द है। तुम्हारे पूरे जीवन पर राम का नाम नहीं लिखा है, तो मृत्यु के क्षण ‘एक पंडितमरण-ज्ञानपूर्वक, बोधपूर्वक मरण-सैकड़ों में भी तम ले न पाओगे। अगर पूरे जीवन काम-काम-काम जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे चलता रहा तो मरते वक्त राम नहीं चल सकेगा। क्योंकि मरते मरण सुमरण हो जाए।' | वक्त तो सारे जीवन का जो सार-निचोड़ है वही गूंजेगा। अगर हम तो जीवन तक को व्यर्थ कर लेते हैं। महावीर कहते हैं. जिंदगीभर धन ही धन गिनते रहे तो मरते वक्त तम रुपये गिनते मृत्यु को भी सार्थक किया जा सकता है। इस तरह मरो कि मृत्यु ही मरोगे। मन में गिनते मरोगे। सोचते मरोगे कि क्या होगा, भी, मरण भी सुमरण हो जाए। पंडितमरण इसे उन्होंने नाम दिया इतनी संपत्ति इकट्ठी कर ली है। अब क्या होगा, क्या नहीं होगा। महावीर ने जितना चिंतन मृत्यु पर किया है उतना शायद किसी एक आदमी मर रहा था। उसने अपनी पत्नी से पूछा कि मेरा मनीषी ने नहीं किया। इसलिए महावीर ने कुछ बातें कहीं हैं, जो बड़ा बेटा कहां है? उसने कहा कि आप घबड़ाएं मत, वह किसी ने भी नहीं कहीं। उन्हें हम धीरे-धीरे समझें, समझ आपके पैर के पास बैठा है। उसने कहा, और मंझला? कहा, पाएंगे। पहली बात, उन्होंने मृत्यु में एक भेद कियाः वह भी पास बैठा है, आप विश्राम करें। और उसने कहा, सबसे पंडितमरण। मरते तो सभी हैं। प्रज्ञापूर्वक मरना। पंडित शब्द छोटा? उसने कहा कि वह तो आपके दायें हाथ पर बैठा हुआ बनता है प्रज्ञा से-जिसकी प्रज्ञा जाग्रत हुई। जो देखता है; है। वह आदमी हाथ के घुटने टेककर उठने लगा। पत्नी ने कहा, होशपूर्वक है। ऐसे ही सोए-सोए नहीं मर जाता, जागा-जागा आप यह क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं उठकर? उसने कहा, मरता है। जो मृत्यु का स्वागत नींद में नहीं करता, होश के दीये कहीं जा नहीं रहा हूं। मैं यह पूछता हूं कि फिर दुकान कौन चला जलाकर करता है। रहा है? तीनों यहीं इक्कं पंडियमरणं छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि। अब यह आदमी मर रहा है। गिर पड़ा और मर गया लेकिन तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ।। दुकान चलाता रहा। जा रहा है लेकिन चिंता दकान की बनी है। ‘ऐसे मरो कि मृत्यु सुमरण बन जाए। ऐसे मरो कि तुम्हारी जल्दी लौट आएगा। फिर दुकान पर बैठ जाएगा। फिर बेटे होंगे मृत्यु पंडितमरण बन जाए।' | बड़े, मंझले, छोटे। फिर दुकान चलेगी, फिर मरेगा। फिर समझें हम। सीखना होगा जीवन की यात्रा में ही। क्योंकि घुटने, कोहनियां टेककर पूछेगा, दुकान कौन चला रहा है। मृत्यु तो एक बार आती है, इसलिए रिहर्सल का मौका नहीं है। ऐसे घूमता रहता चाक जीवन का। हम पुनरुक्त करते रहते तुम ऐसा नहीं कर सकते कि चलो, मरने का थोड़ा अभ्यास कर वही-वही। लेकिन एक बात याद रखना, यह धोखा कभी कोई लें। क्योंकि मृत्यु तो दुबारा नहीं आती, एक ही बार आती है। नहीं दे पाया। यद्यपि ऐसी कथाएं लिखी हैं। अजामिल की कथा तो जीवन में अभ्यास करना होगा मृत्यु का; और कोई उपाय है, कि मरते वक्त-सदा का पापी-बुलाया, 'नारायण, नहीं है। मृत्यु तो जब आएगी तो बस आ जाएगी। पहले से नारायण!' नारायण उसके बेटे का नाम था। पापी अक्सर ऐसे खबर करके भी नहीं आती। कोई पूर्वसूचना नहीं देती। मृत्यु | नाम रख लेते हैं। छिपाने के लिए नाम बड़े काम देते हैं। और अतिथि है। आने की तिथि नहीं बताती, इसलिए अतिथि। खबर कहते हैं, ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। और जब | नहीं देती कि अब आती हूं, तब आती हूं। बस आ जाती है। अजामिल मरा तो उन्होंने समझा कि मेरा नाम बुलाया था। तो अचानक एक दिन द्वार पर खड़ी हो जाती है। फिर क्षणभर वह स्वर्ग में बैठा है। सोचने का भी अवसर नहीं देती। तो अगर तुम तैयार ही हो तो ही यह जिन्होंने भी कहानी गढ़ी है, धोखेबाज लोग रहे होंगे, 554 2010_03 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितमरण सुमरण हे बेईमान रहे होंगे। अगर परमात्मा ऐसा धोखा खा जाता है तो फिर | जीवन के फूलों से—जो भी फूल रहे हों; सुगंध के कि दुर्गंध के, हद्द हो गई। तम भी न खाते धोखा जब वह 'नारायण, नारायण' उनका इत्र मरते क्षण में तम्हारे सामने होगा। बुला रहा था, तो किसी ने धोखा नहीं खाया। उसकी पत्नी ने तुमने यह बात सुनी होगी। लोग कहते हैं, मरते वक्त आदमी धोखा नहीं खाया, उसके लड़के ने धोखा नहीं खाया। और जब के सामने पूरे जीवन की तस्वीर आ जाती है। उसका मतलब वह नारायण को बला रहा था तो वे सभी जान रहे होंगे कि केवल इतना ही है कि परे जीवन का सार-निचोड, सारे अनभवों किसलिए बुला रहा है। कुछ न कुछ उपद्रव... । पुराना पापी का इत्र आदमी के हाथ होता है। वही इत्र लेकर आदमी चलता था। मरते वक्त कुछ और करवा जाना चाहता हो। है, दूसरी यात्रा पर निकलता है। मैंने सुना है, एक पापी मर रहा था। उसने अपने सब बेटों को ! पंडितमरण का अर्थ है, व्यक्ति पूरे जीवन मरने के लिए तैयारी इकट्ठा कर लिया, और कहा कि मेरी आखिरी बात मानोगे? वे करता रहा। जो अवश्यंभावी है उसके लिए तैयार होता रहा। सब डरे। बड़े तो बहुत डरे क्योंकि वे जानते थे बाप को, कि वह | बुद्ध के पास जब कोई संन्यासी पहली दफा दीक्षित होते थे तो आखिरी बात में कहीं उलझा न जाए। जिंदगीभर उलझाया अब वे उन्हें कहते थे, तीन महीने मरघट पर रहो। वे थोड़े चौंकते कि आखिरी बात...और जाते-जाते कोई ऐसा दंदफंद न खड़ा कर किसलिए? मरघट पर क्या सार है? बुद्ध कहते, पहले मृत्यु जाए। मगर छोटा बेटा जरा नया-नया था और बाप को जानता को ठीक से देखो। बैठे रहो मरघट पर। आती रहेंगी लाशें, नहीं था तो वह पास आ गया और उसने कहा, आप कहें। उसने जलती रहेंगी चिताएं, हड्डियां टूटती रहेंगी, सिर फोड़े जाते रहेंगे, कान में कहा कि ये सब तो लुच्चे-लफंगे हैं। इन्होंने कभी मेरी राख हो जाएगी। लोग राख को बीनने आ जाएंगे। तुम यह सुनी नहीं और आज भी नहीं सुन रहे हैं। में मर रहा हूँ; बाप मर देखते रहो तीन महीने। बस बैठे रहो मरघट पर। । कसम खाते हो कि करोगे? उसने कहा, कसम | तीन महीने अगर तुम भी मरघट पर बैठोगे, और कछ देखने न खाता हूं। आप बोलिए तो। मिलेगा तो मृत्यु अवश्यंभावी है यह सत्य तुम्हारा अनुभूत सत्य उसने कहा, तो ऐसा करना; जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश को हो जाएगा। टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में डाल देना और पुलिस में रिपोर्ट और किसी न किसी दिन तीन महीनों में, जिस दिन ध्यान ठीक लिखा देना। उसने कहा, लेकिन किसलिए? उसने कहा कि से पकड़ लेगा और चित्त एकाग्र होगा, चिता जल रही होगी... मेरी आत्मा बड़ी प्रसन्न होगी, जब सब बंधे जाएंगे। मेरी आत्मा और रोज-रोज चिता जलते देखोगे तो किसी दिन तुम नहीं सोचते की प्रसन्नता के लिए इतना तो कर देना। फिर मैं तो मर ही गया, ऐसा नहीं होगा कि तुम देख लोगे, यह मैं ही जल रहा हूं! यह देह तो काटने में हर्जा क्या है? जिंदगीभर से यह एक आकांक्षा रही मेरी जैसी देह है। यह देह ठीक मेरी जैसी देह है और राख हुई जा है कि इन सबको बंधा हुआ देख लूं। अब मरते बाप की यह रही है। मैं राख हो रहा हूं, यह तुम नहीं देख पाओगे? आकांक्षा—इनकार मत करना। देख, तूने कसम भी खा ली। यह अगर प्रतीति सघन हो जाए कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो तो वह जो अजामिल बुला रहा था बेटे को कि 'नारायण, तम फिर तत्क्षण उसकी तैयारी में लग जाओगे। अभी तो हम नारायण', पता नहीं कौन-सा उपद्रव करवाने के लिए बुला रहा। जीवन की तैयार में लगे हैं—जीवन, जो कि जाएगा। उसकी हो। कोई धोखे में नहीं था, लेकिन कथाकार कहते हैं कि ऊपर तैयारी कर रहे हैं, जो कि छीना जाएगा। मृत्यु जो कि आएगी ही, का नारायण धोखे में आ गया। ये आदमी की बेईमानियां हैं। इस उसकी कोई तैयारी नहीं है। इधर हम तैयारी कर रहे हैं; मकान धोखे में मत पड़ना। तुम इस धोखे में मत जीना। बनाते, धन जोड़ते, पद-प्रतिष्ठा-सारा आयोजन करते हैं कि मृत्यु के क्षण में तुम वही कर पाओगे, जो तुमने जीवनभर किया जीना है। मरने का आयोजन कब करोगे? और यह जीना सदा है। उसी का सार-निचोड़। उसी की निष्पत्ति। जैसे हजार-हजार रहनेवाला नहीं है। इंतजाम लोग ऐसा करते हैं, जैसे सदा रहना गुलाब के फूलों से इत्र निकाल लिया जाता है। इत्र तो बूंदभर है। और एक दिन अचानक इंतजाम के बीच में मौत आ धमकती होता है; हजार-हजार फूलों से निचुड़ता है। ऐसे ही तुम्हारे पूरे है। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा। और किसी भी घड़ी संदेश आ 1555 2010_03 www.jainelibrar.org Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 जिन सूत्र भाग: 2 | जाता है और बंजारे को अपना तंबू उखाड़ लेना पड़ता है । चल पड़ना पड़ता है। ‘पंडितमरण, ज्ञानपूर्वक मरण सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है, अतः इस तरह मरना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जाए।' अदभुत सदगुरु रहे होंगे महावीर । सिखाते हैं मरने की कला । कहते हैं, ऐसे मरो कि मरण सुमरण हो जाए। कैसे होगा मरण सुमरण? रोज-रोज मरो । प्रतिपल मरो । सुबह मरो, सांझ मरो। रात जब सोओ तो मर जाओ। जो दिन बीत गया उसके लिए मर जाओ। जो-जो बीतता जाता है उसके लिए मरते जाओ, उसको इकट्ठा मत करो। उसका बोझ मत ढोओ। बोझ की तरह अतीत को मत खींचो। जो गया, गया । उसे जाने दो। प्रतिपल नए हो जाओ! इधर मरे, उधर जन्म । इधर पुराने को छोड़ा, नए का आविर्भाव । तो मौत तुम्हें ऐसी जगह नहीं पाएगी, जहां तुम्हारे पास कुछ छीनने को हो । तुम्हारे पास कुछ होगा ही नहीं। किसी क्षण मौत आएगी तो तुम तो हर वक्त अतीत के लिए मरते जाते हो। अतीत के संबंध, आसक्तियां, राग, धन, पद, प्रतिष्ठा... तुम तो मरते जाते हो। सम्मान-अपमान, सफलता-विफलता... तुम तो मरते जाते हो । सुख-दुख, विषाद... तुम तो मरते जाते हो । मृत्यु एक दिन आएगी, तुम कोरे कागज की तरह पाए जाओगे। तुम्हारे पास पकड़ने को कुछ न होगा। तुम्हारे पास बुलाने को कुछ न होगा, चीखने-चिल्लाने को कुछ न होगा। तुम जानोगे, कोई मेरा नहीं । तुम जानोगे, कुछ मेरा नहीं । तुम खड़े हो जाओगे। तुम जूते पहनकर खड़े हो जाओगे। तुम मौत के हाथ में हाथ डाल लोगे। तुम कहोगे, मैं तैयार हूं। मैं तो सदा से तैयार था, इतनी देर क्यों लगाई ? इतनी देर कहां रही तू ? कबसे हम प्रतीक्षा करते। कबसे हम तैयार बैठे थे। बस, ऐसे आदमी से मौत हार जाती है। इसको महावीर फिर बिछुड़ जाएंगे। सुमरण कहते हैं। जीवन को, जो कि क्षणभंगुर है, उसे शाश्वत मत समझो। जो जाएगा वह जा ही चुका है। जो मिटेगा वह मिट ही रहा है। जो छूटेगा, वह तुम्हारे हाथ से छूट ही रहा है । व्यर्थ अटके मत रहो। व्यर्थ मुट्ठी मत बांधो, खोलो मुट्ठी । लेकिन हमारी तर्कदृष्टि और है। हम कहते हैं, जो छूटनेवाला है उसे जोर से पकड़ लो कि कहीं और जल्दी न छूट जाए। हम कहते हैं, जो क्षणभंगुर है उसे भोग लो। कहीं क्षण बीत न जाए। हम कहते हैं, इसके पहले मौत आए, जीवन को जी लो, निचोड़ लो रस । कहीं ऐसा न हो, कि मौत आ जाए और तुम रस ही न निचोड़ पाओ । चांदनी की डगर पर तुम साथ हो प्राण युग-युग तक अमर यह रात हो कल हलाहल ही पिला देना मुझे आज मधु की रात मधु की बात हो हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी बस बगूले- सी भटकती धूल है रात है, मधु है, समर्पित गात है आज तो यह पाप भी अवदात है सघन श्यामल केश लहराते रहें मैं हूं भ्रम में अभी तो रात है चांदनी की डगर पर तुम साथ हो प्राण युग-युग तक अमर यह रात हो -जो होना नहीं है उसकी हम आकांक्षा करते हैं। 2010_03 प्राण युग-युग तक अमर यह रात हो ! - कोई रात, कोई नींद, कोई सपना युग-युग तक होने को नहीं है। 1 चांदनी की डगर पर तुम साथ हो कौन किसके साथ है? चांदनी बड़ा झूठा सम्मोहन है। कौन किसके साथ है? लगते हैं कि लोग किसी के साथ हैं। राह पर अनजान मिल गए यात्री हैं। पलभर को साथ हो गया । नदी - नाव संयोग हैं। अभी नहीं थे साथ, अभी साथ हैं, अभी कल हलाहल ही पिला देना मुझे — कल मौत आए, ठीक। कल जहर पिलाओ, ठीक । आज मधु की रात मधु की बात हो। तो साधारणतः हम मृत्यु को टालते हैं कि कल होगी मृत्यु | आज तो जीवन है। आज क्यों मृत्यु की बात उठाएं? ऐसे विचारक भी हैं जगत में जो कहते हैं, मृत्यु की बात ही उठानी रुग्णता है। उनकी दृष्टि में महावीर तो मार्बिड, रुग्ण Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितमरण सुमरण है MARATHI विचारक हैं। फ्रायड जैसे विचारक हैं। जो कहते हैं, मृत्यु की कल हलाहल ही पिला देना मुझे बात ही नहीं उठानी चाहिए। हालांकि फ्रायड खुद मृत्यु से बड़ा आज मधु की रात मधु की बात हो। भयभीत होता था। वह इतना भयभीत हो जाता था कि कभी फिर भी हम जानते हैं क्योंकि जो है, उसे हम कैसे झुठला अगर कोई मौत की ज्यादा बात करे तो दो दफे तो वह बेहोश हो सकते हैं? गया था। किसी ने मौत की चर्चा छेड़ दी और वह घबड़ाने हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है लगा। वह फेंट ही कर गया, गिर ही गया कुर्सी से। नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है उसका शिष्य जुंग अपने संस्मरणों में लिखता है कि फ्रायड के रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी साथ वह अमरीका जा रहा था जहाज पर। जुंग की बड़ी बहुत | बस बगले-सी भटकती धूल है। दिनों की रुचि थी, इजिप्त की ममी–ताबूतों में, मुर्दा लाशों में। जानते तो हैंउसको क्या पता कि यह फ्रायड इतना घबड़ा जाता है। सोच भी बस बगले-सी भटकती धल है नहीं सकता था। दोनों जहाज के डेक पर खड़े थे। कुछ बात चल रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी पड़ी, संस्मरण निकल आया, उसने इजिप्त की ममियों की बात | इस रिक्तता को, इस सूनेपन को भरने के लिए हम हजार उपाय की। उसने उनका वर्णन किया। वह तो वर्णन करता रहा, करते हैं जिंदगी में। एकदम फ्रायड कंपने लगा और वह तो चारों खाने चित्त हो गया। महावीर कहते हैं, इस सूनेपन को तुम भर न पाओगे। तुम ऐसे व्यक्तियों से यह सदी प्रभावित हुई है। ऐसे व्यक्तियों ने कितना ही ढांक लो, यह उघड़ेगा। यह उघड़कर रहेगा। इस सदी के मानस को रचा है। फ्रायड का मनोविज्ञान इस सदी मृत्यु अवश्यंभावी है। तुम्हें अपनी इस शुन्यता का साक्षात्कार की आधारभूत शिला बन गया है। और फ्रायड कहता है, जो करना ही होगा। तुम्हें अपने को मिटते हुए देखना ही होगा। मृत्यु की बात करते हैं, वे मार्बिड, वे रुग्णचित्त। इससे तुम बच न सकोगे। इससे कोई कभी बच नहीं पाया। तो मगर थोड़ा सोचो। अगर फ्रायड और महावीर में चुनना हो तो बजाय बचने के, भागने के, मृत्यु को हम शुभ घड़ी में क्यों न कौन रुग्णचित्त मालूम होगा? महावीर मृत्यु का इतना चिंतन बदल लें? और चर्चा और इतना ध्यान करने के बाद जैसे महाजीवित मालूम | रात है, मधु है, समर्पित गात है पड़ते हैं। इधर फ्रायड, कहता है मृत्यु का चिंतन रुग्ण है। लेकिन भीतर से हम जानते भी हैं, सब जा रहा, सब क्षणभंगुर। पानी लगता है यह रैशनलाइजेशन है। लगता है, वह इतना डरता है | का बबूला—अब फूटा, तब फूटा। मगर दोहराए जाते हैं ऊपर खुद, कि अपनी सुरक्षा कर रहा है। वह इतना भयभीत है मृत्यु से सेकि जो मृत्यु की बात करते हैं, उनको वह रोकने की चेष्टा कर रहा रात है, मधु है, समर्पित गात है है कि यह बात ही रुग्ण है। यह बात ही मत उठाओ। आज तो यह पाप भी अवदात है महावीर में जीवन का फूल खिला है मृत्यु के मध्य में। नहीं, | सघन श्यामल केश लहराते रहें महावीर रुग्ण नहीं हैं। महावीर से स्वस्थ आदमी और खोजना मैं रहूं भ्रम में अभी तो रात है। मुश्किल होगा। हम कितनी-कितनी भांति भ्रम को पोसते हैं। कितनी-कितनी लेकिन हम साधारणतः महावीर की बजाय फ्रायड से राजी हैं। भांति भ्रम को उखड़ने नहीं देते। एक तरफ से उखड़ता है तो ठोंक हम कहें कुछ, चाहे हम जैन ही क्यों न हों, और जाकर मंदिर में | लेते हैं। दूसरी तरफ से उखड़ता है, वहां ठोंक लेते हैं। इधर महावीर की पूजा ही क्यों न कर आते हों, लेकिन अगर हम मन | पलस्तर गिरा, चूना उखड़ गया, पोत लेते हैं। टीमटाम करते में टटोलेंगे तो हम फ्रायड के साथ राजी हैं, महावीर के साथ रहते हैं। और यह टीमटाम करते-करते एक दिन बीत जाते; नहीं। अगर कोई मृत्यु की चर्चा छेड़ दे तो हम भी कहते हैं, कहां व्यतीत हो जाते हैं। की दुखभरी बातें उठा रहे हो! छोड़ो भी। इसके पहले कि ऐसी घड़ी आए, अपने को व्यर्थ 557 ___ 2010_03 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग:-2 समझा-समझाकर, पानी के बबूलों से मन को मत उलझाए उल्लेख भी नहीं है। लेकिन शाश्वत में इनने विजय की घोषणा रखना। क्षणभंगुर को क्षणभंगुर जानना शाश्वत को जानने की की है। विजय की दुंदुभी बजाई है अमृत में। पहली शर्त है। असार को असार की तरह पहचान लेना सार का अगर कहीं कोई शाश्वत का इतिहास है तो वहां तुम नादिर का, द्वार खोलना है। तैमूरलंग का और चंगीज का और हिटलर का और नेपोलियन जी उठे शायद शलभ इस आस में और सिकंदर का नाम न पाओगे। वहां तुम्हें महावीर का, बुद्ध रात भर रो-रो दीया जलता रहा का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, मोहम्मद का, जरथुस्त्र का नाम थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल मिलेगा। एक दूसरे ढंग की विजय है। वास्तविक विजय है। सो गई जब साधना होकर विफल 'असंभ्रांत, निर्भय सत्पुरुष एक पंडितमरण को प्राप्त होता है जब धरा ने भी न धीरज दिया और शीघ्र ही अनंत-मरण का-बार-बार के मरण का अंत व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया कर देता है।' आग तब पानी बनाने के लिए एक ही बार मर जाता है। पूरा-पूरा मर जाता है। कुछ रोकता रात भर रो-रो दीया जलता रहा नहीं, कुछ झिझकता नहीं। समग्ररूप से समर्पित हो जाता है मृत्यु लेकिन तुम चाहे रोओ, चाहे चीखो-चिल्लाओ; जो नहीं | को। तो पंडितमरण एक, फिर होनेवाले भविष्य के अनंत जन्म होता, नहीं होता। आग पानी नहीं बनती। और मृत्युओं से छुटकारा हो जाता है। आग तब पानी बनाने के लिए जागो! तुम्हारा तो जीवन भी अभी पंडित-जीवन नहीं है। रात भर रो-रो दीया जलता रहा यात्रा बड़ी है। मरण को भी पंडितमरण बनाना है। ऐसी झूठी रोते रहो, आग पानी नहीं बनती। और सब तुम पर हंसेंगे। बातों में बहुत मत उलझे रहो। अपने मन को समझाते मत रहो। जब धरा ने भी न धीरज दिया ये सांत्वनाएं, जो तुम दे रहे हो, बहुत काम न आएंगी। व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया खुद को बहलाना था आखिर, खुद को बहलाता रहा थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा. गाता रहा सो गई जब साधना होकर विफल भीतर तो आग है। हृदय तो जल रहा है। हृदय में तो कोई तुम जो भी कर रहे हो, वह विफल होना उसका निश्चित है। तृप्ति नहीं, मगर खुद को बहलाना था तो खुद को बहलाता रहा। लाख उपाय करो तो भी तुम हारोगे। यह जीवन ही हारने को है। मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा गाता रहा! इस जीवन का अर्थ ही विफलता है। यहां कोई जीत नहीं पाता। आग को भीतर छिपाए हो। मौत को भीतर छिपाए हो। ऊपर यहां विजय होती ही नहीं। जहां मृत्यु होनी है, वहां विजय से हंसते रहते, गाते रहते। कागज के फूल चिपकाए हो। कैसी? मत्य में ही अगर जीते तो जीत हो सकती है। यह धोखे की पट्टी टेगी। यह पर्दा उठेगा। इसके पहले कि इसलिए महावीर ने कहा है, जो मृत्यु को जीत लेता है वही जयी मौत उठाए, तुम ही उठा लो, तो शोभा है; तो सम्मान है, तो है, वही जिन है। जिन शब्द का अर्थ होता है, जीत लिया। तो दो गरिमा है।। तरह के विजेता हैं जगत में। एकः नेपोलियन, सिकंदर, | जो मौत करे वह तुम ही कर दो, इसी का नाम संन्यास है। जो तैमूरलंग, नादिरशाह—ये सब धोखे के विजेता हैं। मौत तो मौत करे वह तुम ही कर दो। जहां-जहां से मौत तुम्हें छीन लेगी, इनको बिलकुल भिखारी कर जाती है। | वहां-वहां तुम ही कह दो कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है। मौत फिर और एक दूसरी तरह के विजेता हैं : महावीर, बुद्ध, कृष्ण, | पत्नी से छीन लेगी? तो जान लो मन में कि पत्नी कौन किसकी क्राइस्ट। जीवन में तो इनकी कोई विजय की कहानी नहीं है। है? मौत पति से छीन लेगी? तो जान लो मन में, जाग जाओ, इतिहास में तो इनके कोई चरण-चिह्न नहीं हैं। समय के भीतर तो कौन किसका पति है? साथ हो लिए दो क्षण को। अजनबी हैं। इन्होंने कुछ जीता नहीं है, इसलिए इतिहास में इनका ठीक-ठीक एक-दूसरे की सेवा कर ली, बहुत। एक-दूसरे को दुख न दिया -558 2010_03 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितमरण सुमरण है तो काफी। सुख तो कौन किसको दे पाया? एक-दूसरे के लिए परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।' फूल, बिछाए... बिछे तो नहीं, चेष्टा की बहुत। एक-दूसरे के | यह महावीर की अनूठी बात है। सिर्फ महावीर ने कही है सारे रास्ते से थोड़े कांटे बीन लिए, पर्याप्त। इतना ही बहुत है। यह मनुष्य-जाति के इतिहास में। महावीर ने भर अपने संन्यासी को भी असंभव है। यह भी हो गया, चमत्कार है। स्वेच्छा-मरण की आज्ञा दी है। लेकिन कौन किसका है? अजनबी को अजनबी जानो। जो महावीर कहते हैं, जीवन तो साधन है; अपने आप में साध्य बच्चा तुम्हारे घर पैदा हुआ, वह भी अजनबी है। एक अज्ञात नहीं है। तुमसे कोई पूछे, किसलिए जीते? तो तुम कहोगे, जीने आत्मा न मालूम कहां से, न मालूम किन लोकों से, न मालूम के लिए जीते हैं। तुमसे कोई पूछे कि सौ साल जीना चाहते हो? किन ग्रह-नक्षत्रों से, न मालूम किन पृथ्वियों से, न मालूम किन तुम कहोगे, जरूर जीना चाहते हैं। जीवन-पथों से होकर तुम्हारे द्वार आ गई है। अपना मानने की क्या करोगे? सौ साल नहीं, हजार साल भी जीकर करोगे भूल मत करो। क्या? होगा क्या? तुम कहोगे, होने का सवाल कहां है? बस धन है तो ठीक, नहीं है तो ठीक। आसक्ति को थोड़ा शिथिल जीना ही बहुत है। हम लोगों को आशीर्वाद देते हैं, सौ साल करो। मुट्ठी खोलो। और ऐसा मत कहो कि जब मौत आएगी जीयो। कोई फिक्र ही नहीं करता कि सौ साल जीकर यह बेचारा तब निपट लेंगे। करेगा क्या? इसकी भी तो कुछ सोचो! तुमने तो आशीर्वाद दे तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता दिया। तुम तो मुफ्त में देकर मुक्त हो गए, अब यह फंस गया। तोड़ देने की नौबत तो आए यह लटका रहेगा किसी अस्पताल में। हाथ-पैर उल्टे-सीधे बंधे हम कयामत के खुद मुंतजिर हैं. होंगे। नाक में आक्सीजन जा रही होगी। शरीर में ग्लूकोज का पर किसी दिन कयामत तो आए इंजेक्शन लगा होगा। इसकी भी तो सोचो। तुमने तो दे दिया –आएगी मौत, तब निपट लेंगे। आशीर्वाद कि सौ साल जीयो। तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता सिर्फ जीना अपने आप में मूल्य थोड़े ही है! इसलिए महावीर तोड़ देने की नौबत तो आए ने इस बात को बड़ी हिम्मत से लिया। महावीर की बात आज लेकिन जब नौबत आएगी तो एक पल में घट जाती है। पल के नहीं कल दनिया में स्वीकार करनी पड़ेगी। छोटे-से खंड में घट जाती है। तुम्हें अवसर न मिलेगा। तुम | पश्चिम में बड़े जोर से इस पर आंदोलन चला है। हालांकि जाग भी न पाओगे और मौत तम्हें उठा ले जाएगी। उनको किसी को महावीर का पता नहीं क्योंकि महावीर पश्चिम नहीं, इस तरह टालो मत, स्थगित मत करो। मौत आ रही है, के लिए बिलकुल अपरिचित हैं। पश्चिम में इसका बड़ा चिंतन आ ही गई है। नौबत आ ही गई है। नौबत आती ही रही है। चल रहा है क्योंकि पश्चिम अब, सौ साल के करीब जीने की कयामत कल नहीं है, कयामत आज है, अभी है, यहीं है। तुम्हें | सुविधा उसको उपलब्ध हो गई है। यहां तो हम आशीर्वाद ही देते जो करना हो, अभी कर लो।। रहे। आशीर्वाद से ही कोई जीता है? लेकिन पश्चिम के विज्ञान चीजों को सीधा-सीधा देखो। आंखों में भ्रम मत पालो। तो | ने आशीर्वाद को पूरा कर दिया। जीवन भी पंडित का जीवन हो जाता है और मृत्यु भी पंडित की | अब लोग जी रहे हैं। सौ साल के पार पहुंच गए हैं कुछ लोग। मृत्यु हो जाती है। | अब वे बड़ी मुश्किल में हैं। वे कहते हैं, हमें मरने का हक 'साधक पग-पग पर दोषों की आशंका, संभावनाओं को चाहिए। पश्चिम में बूढ़ों की जमातें हैं, जो आंदोलन चला रही ध्यान में रखकर चले। छोटे से छोटे दोष को भी पाप समझे हैं। जो कह रही हैं, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हमें मरना उससे सावधान रहे। नए-नए लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित चाहिए। हमें तुम बचा नहीं सकते। हमको मरने का मौका दो। रखे।' मगर अब तक इसकी कोई दुनिया के किसी कानून में व्यवस्था 'जब जीवन तथा देह से लाभ होता दिखाई न दे तो नहीं है। आत्महत्या बड़ा अपराध है। बड़े मजे की बात है। 559 ___JainEducation International 2010_03 www.jainelibrary org Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 जिन सूत्र भाग: 2 अगर आत्महत्या करते हुए पकड़ लिए जाओ, तो सरकार तुमको डा। यह भी कोई बात हुई ? तुम खुद ही मर रहे थे। अब | तुमको और मारने की क्या जरूरत है? तुम तो खुद ही अपराध भी कर रहे थे, दंड भी दे रहे थे। निपटारा हुआ जा रहा था। लेकिन अगर पकड़ लिए गए— मर गए तो ठीक, अगर अपराध कर गुजरे तो फिर कोई दंड नहीं है - लेकिन अगर करते हुए पकड़ लिए गए और अपराध पूरा न हो पाया तो दंड है। यह अब तक तो ठीक था । हमारे नियम और कानून भी कारण से होते हैं। जीवन बड़ा मुश्किल रहा है, बड़ा असंभव रहा है। सत्तर साल, अस्सी साल जीना बड़ा मुश्किल रहा है । जितनी खोजें हुई हैं दुनिया में जमीन के नीचे पड़ी हुई मनुष्य की हड्डियों की, तो ऐसा लगता है पांच हजार साल पहले चालीस वर्ष आखिरी उम्र थी। क्योंकि पांच हजार वर्ष पहले की कोई भी हड्डी नहीं मिली है, जो चालीस वर्ष से ज्यादा पुराने आदमी की हो। और पीछे जाने पर, कोई सत्तर और पचहत्तर हजार साल पुरानी जो पेकिंग में हड्डियां मिली हैं, वे तो बताती हैं कि आदमी मुश्किल से पच्चीस साल जीता था। तो जीवन बड़ा मुश्किल रहा है। और पच्चीस साल भी, एक घर में अगर एक दर्जन बेटे |पैदा हों तो दो बच जाएं, बहुत । क्योंकि दस बच्चों में नौ बच्चे मर जाते थे। तो जीवन की बड़ी मुश्किल थी। जीवन बड़ा न्यून था । मुश्किल से मिलता था । जीवन का बड़ा अवसर था। सभी को नहीं मिल जाता था। तो सौ साल जीने का हम आशीर्वाद देते थे, वह ठीक है। अब जीवन बड़ा सुगम है। कम से कम पश्चिम में तो सुगम हो गया है। लोग सौ साल तक पहुंच रहे हैं। सत्तर-अस्सी साल औसत उम्र हो गई है। अस्सी साल का होना कोई बहुत बूढ़ा होना नहीं है। इसलिए हम चौंकते हैं, यहां जब अखबार में कभी खबर आती है कि नब्बे साल के बूढ़े ने विवाह कर लिया तो हम बहुत चौंकते हैं। यह भी क्या पागलपन है ? नब्बे साल का बूढ़ा, और विवाह ? लेकिन पश्चिम में शरीर की उम्र लंबा रही है । नब्बे साल का बूढ़ा भी विवाह करने की हालत में है। तो एक नया सवाल उठना शुरू हुआ है कि आदमी को मरने का हक होना चाहिए। यह जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए सभी विधानों में। क्योंकि एक आदमी अगर एक सौ दस साल 2010_03 का हो गया और मरना चाहता है... क्योंकि करोगे क्या ? रोज उठना वही, रोज सोना वही, रोज खा-पी लेना वही । फिर सब अपने संबंधी जा चुके, मित्र- प्रियजन जा चुके और एक आदमी जिंदा है। उसकी सारी दुनिया जा चुकी । वह सौ साल पहले पैदा हुआ था, वह दुनिया जा चुकी । सब बदल गया। वह बिलकुल अजनबी है। जैसे किसी और लोक में जबर्दस्ती उसको लाकर खड़ा कर दिया। बच्चों से कोई तालमेल नहीं रहा । बच्चे बिलकुल दूसरी दुनिया में जी रहे हैं। वह करे भी क्या जीकर ? सार भी क्या है ? कष्ट होता है, शरीर दुखता है, अर्थराइटिस है, हजार बीमारियां हैं। करे क्या जीकर? और जी रहा है क्योंकि मेडिकल साइंस ने जीने की सुविधा जुटा दी है। जी सकता है। अब हम आदमी को खींच सकते हैं, दो सौ साल तक भी । उसको मरने ही न दें। उसको अस्पताल में रखकर हम जिंदा रख सकते हैं। अब अस्पताल में डाक्टरों की भी बड़ी कठिनाई है। क्योंकि अगर वे आक्सीजन बंद करें तो उसका मतलब है, उन्होंने इसको मारा। पुराने नियम से वे हत्यारे हैं। उनका पुराना शास्त्र कहता है, किसी को मारना नहीं, बचाने की कोशिश करना। अगर वे इसको ग्लूकोज न दें तो यह मर जाएगा। लेकिन तब मारने का जुम्मा उनके ऊपर पड़ेगा। अभी कानून इसका मौका नहीं दे रहा है, लेकिन कानून को यह मौका देना पड़ेगा | महावीर की बात समझ में आने जैसी है। महावीर कहते हैं, जब कोई आदमी ऐसी जगह आ जाए, जहां शरीर से अब कुछ भी ध्यान में गति न होती हो, समाधि की तरफ यात्रा न होती हो; ध्यान से, धर्म से, समाधि से परमात्मा का अब कोई अनुभव में विकास न होता हो, कोई लाभ न होता हो... यह महावीर का लाभ ठीक से समझना। यह जैनियों का लाभ नहीं है कि अब कोई धन कमाने की सुविधा न रही, कि रिटायरमेंट हो गया, अब जीकर क्या करें ? महावीर जब कहते हैं, नए-नए लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे, तो वे यह कहते हैं, रोज-रोज परमात्मा का अधिकतम अंश अनुभव में आने लगे तो तो जीवन का कोई सार है। लेकिन कभी अगर ऐसा हो जाए कि जब जीवन तथा देह से लाभ होता दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे। यह शर्त सोचने जैसी है: 'परिज्ञानपूर्वक ।' महावीर कहते हैं, Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंडितमरण र पंडितमरण सुमरण है आत्महत्या का भी अधिकार है, लेकिन परिज्ञानपूर्वक। उस शब्द खुल रहे हैं, नए फूल नहीं खिल रहे, सब असार हो गया, हम में सब कुछ छिपा है। परिज्ञानपूर्वक का अर्थ होता है, जहर किसी पर बोझ होकर बैठ गए हैं तो विदा हो जाना चाहिए। खाकर मत मरना, पहाड़ से कूदकर मत मरना क्योंकि वह तो जीवन से जब तक सार निचड़ता हो....और सार का अर्थ है क्षण में हो जाता है, भावावेश में हो जाता है। छुरा मारकर मत आत्मा। सार का अर्थ यह नहीं कि तुम तिजोड़ी भरते जा रहे हो, मरना, गोली चलाकर मत मरना। लाभ होता जा रहा है। सार से महावीर का अर्थ है, भीतर की परिज्ञानपूर्वक का अर्थ है उपवास कर लेना। पानी, भोजन बंद संपदा अभी उपलब्ध हो रही है तो जीवन अभी योग्य है। अभी कर देना। नब्बे दिन लगेंगे, अगर आदमी स्वस्थ हो तो मरने में। इस नाव का उपयोग करना है। तीन महीने तक...तीन महीने तक सतत एक ध्यान बना रहे कि लेकिन कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम नाव पर गए यात्रा मैं मरने को तैयार हूं-परिज्ञान हुआ। तीन महीने में हजार करने, और एक ऐसी घड़ी आयी कि नाव में छेद हो गए और नाव दफा...तीन महीने बहुत दूर हैं, तीन मिनट में तुम्हारा मन हजार डूबने लगी, तो महावीर कहते हैं, छलांग लगाकर फिर तैर दफा बदलेगा कि मरना कि नहीं मरना? अरे छोड़ो भी! कहां के जाना। फिर नाव में ही मत बैठे रहना। फिर यह मत सोचना कि पागलपन में पड़े हो? रात सोए, उठकर बैठ गए, जल्दी पहुंच नाव को कैसे छोड़ दें? फिर छोड़ देना नाव को क्योंकि असली गए फ्रिज के पास और भोजन कर लिया कि यह तो नहीं चलेगा। सवाल दूसरा किनारा है। अगर नाव दूसरे किनारे की तरफ अभी क्या सार है मरने में? पता नहीं आगे कुछ है या नहीं है। भी ले जाने में समर्थ हो तो चलते जाना। अगर नाव असमर्थ हो और तीन महीने अगर तुम उपवास किए हुए, जल-अन्न त्यागे गई हो, देह कमजोर हो गई हो, जराजीर्ण हो गई हो तो छलांग हुए और एक ही भाव में बने रहो, तो यह धीर की अवस्था हो लगा देना। तैरकर पार हो जाना। नाव से ही थोड़े ही दरिया पार गई। यह हकदार है मरने का। इसको कोई अड़चन नहीं। इसने | होता है, तैरकर भी होता है, नाव के बिना भी होता है। अर्जित कर लिया। इसको महावीर कहते हैं परिज्ञानपूर्वक तो इतना स्मरण रहे। और नियम के संबंध में यह खतरा है कि मरना। लेकिन वे जानते हैं कि कुछ लोग अजीब हैं। वे हर जगह नियम का लोग अक्सर गलत अर्थ ले लेते हैं। से अपने लिए धोखा निकाल लेते हैं। __ मैंने सुना है, एक डाक्टर ने मुल्ला नसरुद्दीन को सलाह दी कि इसलिए दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, 'किंतु जिसके सामने अपने वह प्रतिदिन पांच किलोमीटर दौड़ा करे तो उसका स्वास्थ्य सुधर संयम, तप आदि साधना का कोई भय या किसी तरह की क्षति | जाएगा। और फिर घरेलू जीवन में भी सुख-शांति संभव होगी। की आशंका नहीं है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना हफ्ते भर बाद मुल्ला ने डाक्टर को फोन किया और बताया कि उचित नहीं है।' वह उनके परामर्श पर ठीक-ठीक चल रहा है। डाक्टर ने पूछा, अगर अभी त्याग, तप और ध्यान बढ़ रहा है और तुम्हारे शरीर और घरेलू जीवन कैसा बीत रहा है? मुल्ला ने कहा पता नहीं। की कमजोरी के कारण, बुढ़ापे के कारण, दोबल्य के कारण क्योंकि में तो अब घर से पैतीस किलोमीटर दूर पहुंच गया हूँ। तुम्हारे तप-ध्यान में कोई बाधा नहीं पड़ रही है, कोई आशंका नियम को समझकर चलना जरूरी है। और नियम से नासमझी नहीं है, तुम्हारा संयम आगे जा रहा है तो उसके लिए भोजन का | पैदा कर लेना बहुत आसान है, क्योंकि नासमझ हम हैं। हममें परित्याग करना उचित नहीं है। नियम जाते से ही तिरछा हो जाता है। और ऐसी भी संभावना है 'यदि वह फिर भी भोजन का त्याग कर मरना चाहता है तो | कि हम नियम का पालन भी कर लें और जो हम कर रहे थे उसमें कहना होगा, वह मुनित्व से विरक्त हो गया।' कोई फर्क न पड़े। वह च्युत हो गया। क्योंकि उसमें एक नई आकांक्षा पैदा हो गई। ऐसा भी हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन को उसके डाक्टर ने एक मरने की। मरना आकांक्षा से नहीं होना चाहिए। अब कुछ लाभ बार कहा कि अब यह शराब पीने की आदत सीमा के बाहर जा नहीं रहा और हम किसी के ऊपर बोझ हो गए हैं तो क्या सार | रही है। इसमें कुछ सुधार करना जरूरी है। तो तुम ऐसा करो कि है? अब कोई गति नहीं हो रही है, जीवन में कुछ नए साध्य नहीं योगासन शुरू करो। तो उसने डाक्टर की सलाह मानकर 5611 2010_03 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 जिन सूत्र भाग: 2 योगासनों का अभ्यास आरंभ कर दिया और सालभर में वह योग में 'दक्ष हो गया। घंटों शीर्षासन में खड़ा रहता। एक दिन मुल्ला की पत्नी से डाक्टर ने पूछा, योग के कारण नसरुद्दीन में कोई परिवर्तन आया? पत्नी ने कहा, हां एक दृष्टि से तो काफी परिवर्तन आया है। अब वे सिर के बल खड़े होकर भी मजे में पूरी बोतल पी सकते हैं । होगा! क्योंकि हम जैसे हैं, जैसे ही कोई नियम हमें मिला, हम उसे अपना रंगरूप दे देते हैं। वह नियम हमारे जैसा हो जाता है । बजाय इसके कि नियम हमें बदले, हम नियम को बदल लेते हैं। इसलिए तो दुनिया में इतने वकील हैं। उनका कुल काम इतना है कि कानून जब बने तो वे अपराध के हिसाब से कानून को बदलने की चेष्टा करें। वे अपराध के रंग में कानून को रंगें। तो जितने कानून बढ़ते जाते हैं उतने वकील बढ़ते जाते हैं। क्योंकि अपराधी अपराध छोड़ने को राजी नहीं है। वह कहता है, कानून से तरकीब निकालो। वह कानून का ही उपयोग अपराध करने के लिए कर लेता है। आवाज । और ऐसा ही वकील तुम्हारे भीतर भी है जिसको तुम बुद्धि कहो, तर्क कहो, मन कहो। तो नियम को समझना और मन की चालबाजी से सावधान रहना । मगर यह अहंकार को लगी चोट कोई आत्महत्या करने लायक नहीं थी। हंसकार टाल जाना था। आदमी बड़ी छोटी-छोटी बातों पर मरने को तैयार हो जाता है, यह खयाल रखना। तुमने महावीर कहते हैं, ‘साधक को पग-पग पर दोषों की आशंका भी कई दफे सोचा होगा कि मर ही जाओ। परीक्षा में फेल हो गए (संभावना) को ध्यान रखकर चलना चाहिए।' कि इंटरव्यू में न आए, मर ही जाओ । मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने जीवन में कम से कम दस बार आत्महत्या का विचार न किया हो । छोटी-छोटी बात - पति से झगड़ा हो गया कि बस पत्नी सोचने लगती है, कि क्या करें? केरोसिन डाल लें, कि गैस के चूल्हे में आग लगा लें, कि बिल्डिंग से कूद पड़ें, कि ट्रेन के नीचे सो जाएं? जरा-जरा सी बात ! लाभंतरे जीविय वूहइत्ता... मैं एक घर में रहता था। और मेरे पड़ोस में ठीक दीवाल से और जीवन का एक ही अर्थ है कि इससे महाजीवन का लाभ लगे हुए एक बंगाली प्रोफेसर रहते थे। अभी नया-नया मैं आया होता रहे। था और दीवाल बड़ी पतली थी, जैसी आजकल के मकानों की होती है। तो उनकी सब बातें मुझे सुनाई पड़ती थीं—न सुनना पच्चा परिणाय मलावंधसी... और अगर वह लाभ बंद हो जाए तो मौत को स्वेच्छा से चाहूं तो भी। पहले दिन... दूसरे दिन मैं थोड़ा हैरान हुआ । स्वीकार करे। लेकिन क्योंकि वह दूसरे दिन उन्होंने एकदम धमकी दी कि मैं जाकर मर जाऊंगा । तो मेरी कोई ज्यादा पहचान भी नहीं थी। बस थोड़ा परिचय हुआ था। अब वे तो निकल भी गए घर से अपना छाता चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किचिं पासं इह मन्त्रमाणो । छोटे-छोटे दोष को भी समझपूर्वक देखना चाहिए। ऐसा न कहे कि छोटा-सा दोष है, क्या हर्ज है, चल जाएगा। क्योंकि छोटा बड़ा हो जाता है। छोटा बीज बड़ा वृक्ष हो जाता छोटा कांटा आखिर में नासूर बन जाता है। छोटे दोष को छोटा न समझे। सावधान रहे। तस्स ण कप्पदि भत्त-पइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो । सो मरणं पत्थितो, होदि हु सामण्णणिव्विण्णो ।। लेकिन यदि अभी जीवन में कुछ भी संभावना शक्ति की थी, अगर जीवन में अभी एक बूंद भी रस बचा था तो उस रस को भी ध्यान में परिवर्तित करना है। उस रस को भी परमात्मा की खोज में लगाना है। तो जल्दबाजी न करे। क्योंकि बहुत लोग भगोड़े हैं। अगर उन्हें मरने का मौका मिल जाए तो वे कोई छोटे-से कारण से ही मर जाएंगे। कोई छोटी-मोटी बात, और वे मर जाएंगे। अहंकार को लगी कोई छोटी-मोटी चोट और वे मर जाएंगे। कल मैं पढ़ता था कि एक सर्कस के शेरों को सिखानेवाले रिंग मास्टर ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि एक शेर ने उसकी आज्ञा न मानी। अब शेर...! आदमी भी होता तो भी ठीक था। उसने आज्ञा न मानी इससे उनका बड़ा भारी, आत्मसम्मान की हानि हो गई। उन्होंने आत्महत्या कर ली । भद्द हो गई होगी क्योंकि सर्कस का मामला! वे चिल्लाते रहे होंगे, आवाज देते रहे होंगे। शेर तो शेर वह बैठा रहा होगा कि अच्छा चलो, देते रहो 2010_03 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठाकर । बंगाली ! बिना छाते के तो मरने भी नहीं जा सकते। मैं थोड़ा चिंतित हुआ । मैं गया। मैंने उनकी पत्नी से कहा कि मामला क्या है ? मेरा कोई इतना परिचय नहीं है, लेकिन कोई मरने जा रहा हो तो मुझे कुछ करना चाहिए। उसने कहा, आप बिलकुल बेफिकर रहो। वे अपने आप आ जाएंगे। पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं लगेगा। मैंने कहा, गए कहां हैं। उन्होंने कहा, वे कहीं जाते - वाते नहीं । यह तो जिंदगी हो गई मुझे। ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब वे मरने न जाते हों। जरा-जरा सी बात पर आदमी मरने को तत्पर है। इसलिए महावीर की सावधानी ठीक है। कि तुम ऐसा मत सोच लेना कि मरना कोई धर्म है । मरना तभी सार्थक हो सकता है, जब जीवन का कोई और उपयोग न रहा। जितने दूर तक यह नाव ले जा सकती थी, ले गई। अब तैरना पड़ेगा। अब यह नाव नहीं काम आती - तो ! अन्यथा सावधानीपूर्वक जीना, सावचेत जीना। छोटी-छोटी भूल को छोटी-छोटी मत मानना । कोई भूल छोटी नहीं होती । भूल छोटी होती ही नहीं। क्योंकि एक दफा छोटी भूल समझकर जो हृदय में पड़ जाती है, वह कल बड़ी हो जाती है, फैल जाती है, विस्तीर्ण हो जाती है। सभी लोग छोटे-छोटे दोष मानकर दोष करते हैं और एक दिन उनमें ग्रसित हो जाते हैं और निकलना मुश्किल हो जाता है। किसी मित्र ने कहा कि अरे! पी भी लो। जरा-सी शराब थी, तुमने सोचा इतनी शराब से क्या बननेवाला, बिगड़नेवाला ? साढ़े छह फीट लंबा शरीर है, तीन सौ पौंड वजन है, क्या बिगड़नेवाला है? तुम पी गए। मगर वह छोटा-सा दोष धीरे-धीरे पकड़ेगा। बुराई बड़े आहिस्ता आती है। बुराई जब आती है तो जूते उतारकर आती है। आवाज ही नहीं होने देती । पैरों की भी आवाज नहीं होती। इसलिए महावीर कहते हैं, बहुत सावधान रहना, बहुत सावचेत रहना । जीवन से एक सत्य साधना है— जीवन साधन साध्य नहीं — और वह सत्य है, महाजीवन । उस महाजीवन को साधने के लिए मृत्यु को सुमरण बनाना है, पंडित की मौत मरनी है, जाननेवाले की मौत मरनी है। और अज्ञानी की मौत तो हम सब बहुत बार मर चुके । उससे कुछ लाभ नहीं हुआ । उससे हम मरे ही नहीं, फिर-फिर लौट आए। 2010_03 पंडितमरण सुमरण है किससे महरूमिए- किस्मत की शिकायत कीजे हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ - अब किससे शिकायत करो भाग्य की ? किससे महरू मिए - किस्मत की शिकायत कीजे हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ कितनी बार तो हम मर भी चुके, फिर भी मरे नहीं । और कितनी बार हमने चाहा कि मर जाएं, वह भी नहीं हुआ। तुम्हारी चाह से मौत नहीं घटेगी। महावीर कहते हैं, जिसको मौत का अनुभव करना हो, उसे अचाह साधनी पड़ती है— निष्काम चाह, वासनाशून्यता । क्योंकि सब वासना जीवन से जुड़ी है। जब तक वासना तब तक तुम जीवन को पकड़े हो । जैसे ही वासना छूटती है, तुम कुछ भी नहीं मांगते, तुम मरने को तैयार हो गए। पंडितमरण की तैयारी हो गई। और जो ज्ञानी की तरह मरता है, मृत्यु एक बड़े अभिनव, सुंदर रूप में प्रगट होती है । मृत्यु परमात्मा की तरह आती है। आज इतना ही। 563 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern 03 For drse Onk www.ja Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां प्रवचन रसमयता और एकाग्रता Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, कुछ दिन भजन में; लेकिन एकाग्रता कहीं भी नहीं होती। आकस्मिक रूप से भगवान से मिलन हुआ और संन्यास भी ले लिया। क्या यह ध्यान कायम रहेगा? भगवान श्री कृष्ण के सिरदर्द के लिए ज्ञानियों ने पैर की धूल देने से इनकार किया लेकिन गोपियों ने दे दी—इसका रहस्य क्या है? क्या ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु भिन्न होती है? 2010_03 www.ainelibrary org Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न : कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, फिर | जीवन के प्रत्येक पल तुम ऐसा ही पाओगे। कुछ दिन पूजा और भजन चलता है, लेकिन बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी एकाग्रता कहीं भी नहीं होती। अपनी इस स्थिति अब कहां ले जाके बैठे ऐसे दीवाने को हम से परेशान हूं। कृपा कर मुझे साधे। बगीचे में बिठाओ तो लगता नहीं। मरुस्थल में ले जाओ तो घबड़ाता है। मन का स्वभाव ऐसा। न यहां लगता, न वहां लगता। मन का | बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी स्वभाव है द्वंद्व। जो करोगे वहीं से उचटा हुआ लगेगा। जहां हो अब कहां ले जाके बैठे ऐसे दीवाने को हम हेगा। जहां नहीं हो वहां का रस जन्मेगा। मन एक तरह का पागलपन है. एक तरह की विक्षिप्तता है। जो मिला, व्यर्थ हो जाता है। जो नहीं मिला, वे दूर के ढोल बड़े | मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन के पार होना ही स्वस्थ होना सुहावने लगते हैं। है। तो पहली तो बात, मन के इस स्वभाव को समझने की मन के इस स्वभाव को समझो। न तो ध्यान काम आता, न कोशिश करो। अक्सर लोग समझने की कम कोशिश करते हैं, भजन काम आता; मन के स्वभाव को समझना काम आता है। । छुटकारा पाने की ज्यादा कोशिश करते हैं। और छुटकारा बिना मन की यह प्रक्रिया है। पद मिल जाए तो असंतुष्ट, पद न समझे कभी नहीं है। तो तुम्हारी आकांक्षा यह होती है, कैसे मिले तो असंतुष्ट। पद न मिले तो पीड़ा, पद मिल जाए तो झंझट मिटे। लेकिन बिना समझे झंझट मिटी ही नहीं। नासमझी व्यर्थता का बोध। गरीब रोता, अमीर नहीं है। अमीर रोता कि में झंझट है। अमीर हो गया, अब क्या करूं? तो तुम चाहते हो, कैसे इस मन से छुटकारा हो? लेकिन पहले जो भी तुम्हारे पास है, वह पास होने के कारण ही दो कौड़ी का इस पहचानो तो। इससे दोस्ती तो साधो। इससे परिचय तो हो जाता है। और जो तुमसे बहुत दूर है, दूर होने के कारण ही बनाओ। इसके कोने-कांतर तो खोजो। दीया तो जलाओ कि उसका बुलावा मालूम होता है। इसके सारे स्वभाव को तुम ठीक से देख लो। उस देखने में, उस मन के इस आधारभूत जाल को समझो। इसे पहचानो। यह दर्शन में, उस साक्षीभाव में ही तुम पाओगे विजय की यात्रा पूरी ध्यान और भजन का ही सवाल नहीं है। भोजन करो तो मन में होने लगी। उपवास का रस उमगता है कि पता नहीं, उपवास करनेवाले न जिस दिन कोई मन को पूरा समझ लेता है, उसी दिन मन मालूम किस गहन शांति और आनंद को उपलब्ध हो रहे हों। | विसर्जित हो जाता है। जैसे सूरज के ऊगने पर ओसकण उपवास करो तो भोजन की याद आती है। तिरोहित हो जाते हैं, ऐसे ही बोध के जगने पर मन तिरोहित हो 569 ___ 2010_03 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 जिन सूत्र भाग: 2 जाता है। जैसे दीये के जलने पर अंधेरा नहीं पाया जाता, ऐसे समझ के, प्रज्ञा के दीये के जलने पर मन नहीं पाया जाता। तो मन से लड़ो मत — पहली बात । लड़ने का अर्थ ही नासमझी है। लड़कर कभी कोई जीता ? तुमने यही सुना है कि जो लड़े वे जीते। मैं तुमसे कहता हूं, लड़कर कोई कभी जीता ? समझकर जीत होती है। लड़नेवाले तो नासमझ हैं। लड़ोगे किससे ! छायाओं से लड़ रहे हो । जैसे कोई अपनी छाया से लड़ने लगे, खींच ले तलवार करने लगे हमला । परिणाम क्या होगा ? छाया कटेगी ? परिणाम यही होगा, खुद ही थकेगा । और डर है कि छाया से लड़ने में कहीं अपने हाथ-पैर न काट ले। क्रोध में, उबाल में, पागल न हो उठे। कहीं ऐसी घड़ी न आ जाए कि विक्षिप्तता में अपने को ही काट ले। अक्सर मन के साथ लड़नेवाले ऐसी ही स्थिति में पड़ जाते हैं। मन तुम्हारा है; तुम्हारी छाया । है नहीं, बस छाया जैसा है। रोशनी बढ़ाओ । थोड़े जागकर मन को समझो। जब ध्यान करो और मन कहे, भजन में, तो जरा जागकर देखो, एक तरफ खड़े होकर देखो कि मन क्या कह रहा है। जब भजन करो और मन कहे, ध्यान लगाओ, तब जागकर देखो कि मन क्या कह रहा है। इसकी चालबाजियां पहचानो । इसकी कूटनीति पहचानो। मन बड़ा राजनीतिज्ञ है। यह तुम्हें भटकाए रहता है। यह तुम्हें चलाए रहता है। । और तुमने ध्यान करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा और तुमने भजन करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। तो अब यह तो समझो कि मन कहीं लगेगा ही नहीं। मन का लगना धर्म नहीं । न लगना मन की आदत है। कहीं लगता नहीं । जो नहीं लगता वही मन है तो अब जब मन तुमसे कहे कि ध्यान करो, क्या भजन में पड़े हो? तो जागकर देखना कि यह फिर वही मन, जो कहीं नहीं लगता, भजन में भी नहीं लगा था, तब इसने कहा था, ध्यान करो। अब कहता है भजन करो। पहले कहा, संसार में उलझे रहो । फिर कहा, संन्यास ले लो। अब संन्यास में भी नहीं लगता; कहता है संसार में लौट चलो। इस मन को जरा देखना। कुछ करने की बात नहीं है, सिर्फ 2010_03. शांत भाव से देखना। तुम्हारे देखने में ही तुम पाओगे मन गिरने लगा। तुम पर उसकी पकड़ जाने लगी। तुम पर पकड़ छूट जाए। तुम थोड़े शिथिल हो जाओ मन के पास से । तुम थोड़े बाहर सरकने लगो । न तो ध्यान से घटती है बात, न भजन से; घटती है समझ से । इसलिए समस्त धर्मों का सार है जागरूकता । प्रश्नकर्ता पूछता है, एकाग्रता नहीं बनती। एकाग्रता की खोज ही गलत है । जागरूकता खोजो । एकाग्रता की खोज तो फिर मन के ही सिक्कों में फंसे। यह मन ही है, जो कहता है एकाग्र बनो। यह तुम्हें असंभव चीजें करने को देता है । फिर वे नहीं होतीं तो तुम हारे-थके परेशान हो जाते हो । एकाग्रता की कोई जरूरत ही नहीं है। थोड़ा जीवन की गणित की व्यवस्था के सूत्र समझने चाहिए। पहला सूत्र : जब भी मन नहीं होता, तब तुम एकाग्र होते हो । कभी अपने काम में पूरे संलग्न । चाहे बुहारी लगा रहे हो घर में, लेकिन पूरे संलग्न । अचानक तुम पाते हो, मन नहीं है। संगीत सुनते संलग्न, मन नहीं है। चित्र बनाते... किसी भी घड़ी जब तुम पाते हो कि मन नहीं है, तुम ही हो, तो एकाग्रता अपने आप घटती है। एकाग्रता घटाई नहीं जा सकती । एकाग्रता मन की तन्मयता का परिणाम है। जब मन डूबा होता है तब तुम एकाग्र होते हो । जब मन उभर आता है तब तुम अनेकाग्र हो जाते हो। मन तुम्हें अनेक में बांट देता है; खंड-खंड कर देता है। अब तुम चेष्टा कर रहे हो एकाग्र होने की । एकाग्र होने की चेष्टा और झंझट लाएगी क्योंकि करोगे किससे चेष्टा तुम एकाग्र होने की ? मन से ही करोगे। सब चेष्टा मात्र मन से होती है। अब तुम एक ऐसे काम में लगे हो, जैसे कोई आदमी अपने जूते के बंद खींच - खींचकर खुद को उठाने की कोशिश करे । खुद को कैसे उठाओगे जूते के बंद खींचकर ? थोड़े-बहुत उछल-कूद लो, फिर बार-बार जमीन पर पड़ जाओगे । यह असंभव चेष्टा है। मन कभी एकाग्र नहीं होता। जब एकाग्रता होती है तो मन नहीं होता । तो तुम मन के द्वारा एकाग्र होने की चेष्टा ही छोड़ो। तुम तो छोटे-छोटे कामों में रस लो। रस का परिणाम है एकाग्रता । बुहारी लगाओ तो ऐसे लगाओ, जैसे भगवान के मंदिर में लगा Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे हो । चाहे घर तुम्हारा ही हो; है तो भगवान का ही मंदिर । भोजन करो तो ऐसे ही करो जैसे भगवान को ही भोग लगा रहे हो । भोजन तो तुम ही कर रहे हो लेकिन अंततः तो भगवान को ही लग रहा है भोग। वही तो तुम्हारे भीतर आकर भूख बना । उसी ने तो तुम्हारी भूख जगाई । वही तो तुम्हारे भीतर भूखा है। उसके लिए ही तो तुम भोजन दे रहे हो। रस जगाओ। एकाग्रता की बात मत उठाओ। रस का सहज परिणाम एकाग्रता है। जो करते हो उसे रसपूर्ण ढंग से करो। उसमें डुबकी लो। छोटे और बड़े काम नहीं हैं दुनिया में । जिस काम में तुम डुबकी ले लो, वही बड़ा हो जाता है । बुहारी लगाने में डूब जाओ, वही बड़ा हो जाता है। कबीर कहते हैं: ‘खाऊं-पिऊं सो सेवा, उठूं बैठूं सो परिक्रमा ।' मेरा उठना बैठना ही उस परमात्मा की परिक्रमा है। और जो मैं खाता-पीता हूं, यही उसकी सेवा है। रस ! मेरे देखे अधिक लोगों के जीवन का कष्ट यही है कि वे जीवन में कहीं भी रस नहीं ले रहे हैं। जो भी कर रहे हैं, बेमन से कर रहे हैं | कर रहे हैं क्योंकि करना है। खींच रहे हैं। जैसे बैलगाड़ी में बैल; ऐसा जीवन को खींच रहे हैं। नाचते हुए, उमंग से भरे हुए नहीं । अगर तुम कोई ऐसे काम में लगे हो, जिसमें तुम रस ले ही नहीं सकते तो बदलो वह काम | कोई काम जीवन से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। अक्सर ऐसा हुआ है, हो रहा है कि लोग ऐसे काम में उलझे हैं जो उनमें रस नहीं जगाता। किसी को कवि होना था, वह जूते बेच रहा है, बाटा की दुकान पर बैठा है। और जिसको बाटा की दुकान पर बैठना था, वह कविता कर रहा है। तो उसकी कविता में जूते की पालिश की गंध आती । आएगी ही । लोग वहां हैं, जहां उन्हें नहीं होना था । और यह विकृति के कारण है। क्योंकि तुमने कभी अपने सहज भाव को तो खोजा नहीं। किसी के पिता ने कहा कि दुकान करो। इसमें ज्यादा लाभ है। किसी के पिता ने कहा, डाक्टर बन जाओ। किसी की मां को खयाल था, बेटा इंजीनियर बने। परिवार को धुन थी कि बेटा नेता बने । तो सब धक्का दे रहे हैं एक-दूसरे को कि यह बन जाओ, वह बन जाओ। कोई यह नहीं पूछता कि यह बेटा क्या बनने को पैदा हुआ है ? इससे भी तो पूछो। थोड़े इसके हृदय को भी तो 2010_03 रसमयता और एकाग्रता टटोलो। तो फिर लोग गलत जगहों पर पहुंच जाते हैं। एक बहुत बड़ा सर्जन, जिसकी सारी जगत में ख्याति थी, जब साठ वर्ष का हुआ और उसकी साठवीं वर्षगांठ मनाई गई तो सारी दुनिया से उसके मित्र इकट्ठे हुए, उसके मरीज इकट्ठे हुए और उन्होंने उसका बड़ा स्वागत किया। लेकिन वह बड़ा उदास था । उसके स्वागत में एक नृत्य का आयोजन किया गया था। त जब लोग नृत्य करने लगे और वह सर्जन देखता रहा तो उसकी आंख से आंसू टपकने लगे। उसके पास बैठे उसके मित्र ने पूछा, क्या मामला है? हम सब तुम्हारी वर्षगांठ पर इकट्ठे हुए प्रसन्नता । यह नृत्य तुम्हारे स्वागत में होता है, तुम रोते क्यों हो? तुम्हारी आंख में आंसू क्यों हैं? तुम किस पीड़ा से भीग गए हो ? उसने आंसू पोंछ लिए। उसने कहा कि नहीं, वह कोई बात नहीं है। पर मित्र ने जिद्द की। कहा कि क्या तुम्हें कोई जीवन में विफलता मिली? तुम जैसा सफल आदमी नहीं है। तुमने जो आपरेशन किया, सफल हुआ। तुम्हारे जैसा कुशल सर्जन दुनिया में नहीं। फिर क्या ? लेकिन उसने कहा, मैं कभी सर्जन होना ही नहीं चाहता था । मेरा दिल तो एक नर्तक होने का था। आज नाच को देखकर मैं रो उठा। मैं छोटा-मोटा नर्तक होता, कोई मुझे न जानता तो भी मेरी तृप्ति होती । आज मैं दुनिया का सबसे बड़ा सर्जन हूं, लेकिन मेरी कोई तृप्ति नहीं है। मेरी नियति ही मुझे न मिली। तो आज भी जब मैं किसी को नाचते देखता हूं तो बस, मुझे याद हो आती है। तुम अपनी जिंदगी को गौर से देखो। पहली तो बात - जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करो। हो सकता है तुमने र का अभ्यास नहीं किया। तुम्हें किसी ने सिखाया ही नहीं कि रस का अभ्यास कैसे करना । रस के अभ्यास का पहला सिद्धांत है कि जो भी कर रहे हो, इसका परिणाम मूल्यवान नहीं है। तुम्हें यही सिखाया गया है कि परिणाम मूल्यवान है। तुम करते हो, इससे दस रुपये मिलेंगे कि हजार रुपये मिलेंगे कि लाख रुपये मिलेंगे। लाख रुपये में मूल्य है, परिणाम में मूल्य है। रस का सिद्धांत है, जो तुम कर रहे हो, वह अपने आप में मूल्य है। अंतर्निहित है मूल्य । हजार मिलेंगे, दस हजार मिलेंगे, वह बात गौण है। करने में जो डुबकी लगेगी वही बात महत्वपूर्ण है। 571 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 अगर डूब गए तो मिल गए करोड़ों। अगर न डूबे और करोड़ों भी एकाग्रता ही खबर देती है। मिले तो कुछ भी न मिला। वह समय व्यर्थ गया, जो बिना डूबे अब इस बच्चे से तुम कहो, कि चिड़ियां गीत गा रही हैं, उन गया। वे दिन व्यर्थ ही बीते, जो बिना डूबे बीते। जब रसधार न पर एकाग्रता करो, यह न कर पाएगा। यह संभव नहीं होगा। बही तो तुम जीए न जीए बराबर। रस-विमुग्धता में ही जीवन हमें देखना चाहिए कि कहां हमारी एकाग्रता है। वहीं हमारा है। तो पहली तो बात जो कर रहे हो...। जीवन है। मगर आज अचानक जीवन बदलने का तुम्हारे हाथ में तुमसे नहीं कहता कि जल्दी बदलने में लग जाना। क्योंकि हो उपाय नहीं। आज तो पहचानने का भी उपाय नहीं कि कहां सकता है, तुम अपना काम भी बदल लो और रस न आए। तुम्हारी एकाग्रता होती है। तुम तो भूल ही गए। तुम्हारे जीवन की क्योंकि रस आने की तुम्हारी आदत ही न रही हो। तुमने रस सारी व्यवस्था उल्टी-सीधी हो गई है। दूसरों ने तुम्हें चला बनाने की बात ही न बनाई हो। | दिया। दूसरों ने तुम्हें मार्ग दे दिया। दूसरों ने तुम्हें दिशा और तो पहले तो जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करना। | आदर्श दे दिए। तुम्हें पूरी तरह भरमा दिया है। सौ में पचास मौके तो ऐसे हैं कि तुम उसी में रस ले पाओगे। रस पहले तो जो काम कर रहे हो उसमें रस लेने की आकांक्षा लेते ही एकाग्रता हो जाएगी। जगाओ। जो काम कर रहे हो उसे इतने भाव से करो, इतनी देखा, स्कूल में छोटे बच्चे पढ़ते हैं; बाहर चिड़िया गुनगुनाने मगनता से करो कि उससे अतिरिक्त ऊर्जा बचे ही नहीं लगी गीत. बच्चा एकटक होकर सनने लगता है। शिक्षक डंडा | विघ्न-बाधा डालने को। पीटता है टेबल पर, कि यहां ध्यान दो। एकाग्रता करो। एकाग्रता का और क्या अर्थ होता है? एकाग्रता कोई जबर्दस्ती एकाग्रता बच्चा कर ही रहा है। मगर शिक्षक पर नहीं कर रहा, | थोड़े ही है। एकाग्रता बड़ी स्वाभाविक घटना है। यह बात सच है। यह ब्लैकबोर्ड पर नहीं कर रहा। ब्लैकबोर्ड पर अब तुम यहां मुझे सुन रहे हो। जिनको मेरी बात में रस आ रहा लिखे अक्षरों पर नहीं कर रहा। लड़का तो एकाग्रता कर ही रहा है, वे एकाग्र हैं। एकाग्रता कर थोड़े ही रहे हो, एकाग्रता हो रही है। एकाग्रता तो हो ही रही है। वह जो चिड़िया गीत गा रही है | है। इसे समझने की कोशिश करो। तुम्हारे करने की थोड़े ही बात वह उसे सुन रहा है। शिक्षक कहता है, एकाग्रता करो। मन को है। तुम थोड़े ही बैठे हो सब मांस-पेशियों को खींचकर, आंखें ऐसा विचलित मत करो। | मुझ पर गड़ाकर और चेष्टा कर रहे हो कि एकाग्रता! ऐसे बात बिलकुल गलत कह रहा है शिक्षक। शिक्षक उसके मन एकाग्रता करोगे तो तुम सुन ही न पाओगे, जो मैं कह रहा हूं। को विचलित करने की कोशिश कर रहा है। वह एकाग्र है। एकाग्रता सहज है। तुम्हें रस आ रहा है। उसी रस के कारण तुम अगर कोई बाधा न दे, तो यह सारा संसार थोड़ी देर के लिए मिट चले आए हो। उसी रस के कारण तुम रोज चलते आए हो। वही जाएगा। वह चिड़िया की गुनगुनाहट होगी, उसका गीत होगा, रस तुम्हें लाता रहा है। इस बच्चे की भावदशा होगी। और यह एक बात सीख | रस है तो एकाग्रता है। लेगा-रस की। तो तुम रस को जगाओ, एकाग्रता की बात ही छोड़ दो। अगर रस चूंकि उसे चिड़िया के गीत में आ रहा है, इसलिए एकाग्र हो | रस जगे ही न तो फिर समझो, फिर हिम्मत करो, साहस करो। गया है। उसी कक्षा में ऐसे बच्चे भी होंगे, जिन्हें रस गणित के बदलो उस व्यवस्था को, जिसमें रस नहीं जगता। हो सकता है सवाल में आ रहा है। वे वहां एकाग्र हो गए होंगे। वह व्यवस्था तुम्हारे लिए नहीं है। हमें लोगों को एकाग्रता नहीं सिखानी चाहिए। उनका रस तो दरिद्र हो जाना बेहतर है समृद्ध होने की बजाय। सड़क का देखकर उन्हें दिशा देनी चाहिए। जो बच्चा गणित को सुनकर | भिखारी हो जाना बेहतर है सम्राट होने की बजाय-अगर रस एकाग्र हो गया है, बाहर भौंकते कुत्ते, लड़ती बिल्लियां, गीत आ जाए। क्योंकि रस ही सम्राट बनाता है। गाती चिड़ियां, रास्ते पर बैठे मदारी की बीन-कुछ नहीं सुनाई तो कभी-कभी तुम किसी भिखारी के चेहरे पर ऐसी आभा पड़ती। यह बच्चा आइंस्टीन होने को पैदा हुआ है। इसकी | देखोगे, जो सम्राटों के चेहरों पर नहीं दिखती। रसविमुग्ध है 572 2010_03 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता वह। अपने काम में लीन है। एकाग्रता जरूर आती है, मगर परिणाम की तरह आती है। रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक भिखारी एकाग्रता साधन नहीं है; जहां रस लोगे वहीं घट आती है। रस आया, पांच बजे सुबह उसका दरवाजा खटखटाने लगा। वह के पीछे बंधी चली जाती है। रस की छाया है। बड़ा नाखुश हुआ। पांच बजे सुबह नींद से भरे उसको उठाया। तो तुम कहीं भी रस लो। अगर मंदिर में रस न आता हो, फिक्र वह बड़ा झल्लाता हुआ बाहर आया। ऐसे वह देना पसंद करता छोड़ो। फिर मंदिर में परमात्मा तुम्हारे लिए नहीं घटेगा। जहां रस था। दान उसका रस था। लेकिन यह कोई वक्त है? ही नहीं है, वहां एकाग्रता नहीं होगी। एकाग्रता नहीं होगी, तो उसने भिखारी को कहा कि सनो जी। यह कोई समय है? | परमात्मा कहां होनेवाला है। भिखारी ने कहा कि आप भी सुनो। आप बैंकिंग का धंधा करते अगर तुम्हें बांसुरी के गीत में रस आता है तो वहीं तुम्हारा हैं, मैं कोई सलाह तो देता नहीं। यह हमारा धंधा है। इसमें हम परमात्मा तुम्हें मिलेगा। अगर नर्तक की पायलों में तुम्हें रस सलाह किसी की मानते नहीं। | आता है तो तुम्हारा परमात्मा वहीं नाचेगा। रथचाइल्ड ने प्रकाश जलाया कि इस आदमी को देखना तुम्हारे परमात्मा की खोज तुम्हारे रस से ही तय होगी। रसो वै चाहिए, जो दुनिया के बड़े से बड़े करोड़पति को कह सकता है सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। किसी शास्त्र ने नहीं कहा कि सुनो, तुम बैंकिंग का धंधा करते हो, हम तुम्हें कभी सलाह | कि परमात्मा का स्वभाव एकाग्रता है। सच्चिदानंद! वह रस की देते नहीं। हमारी सलाह का कोई मतलब भी नहीं, क्योंकि हमें | बात है। तुम्हें जहां आ जाए रस, जहां आ जाए आनंद, जहां कोई अनुभव भी नहीं। तुम हमें सलाह मत दो। हम जन्मजात उमंग उठे, जहां तुम खिल उठो। फिर वह कुछ भी हो। चाहे भिखारी हैं। खेल हो, तो प्रार्थना बन गई। और ऐसे तुम बैठे-बैठे प्रार्थना उस आदमी के चेहरे को देखा, वह बड़ा प्रसन्न आदमी था। करते रहो, भजन करते रहो, ध्यान करते रहो; रस उमगे नहीं, रथचाइल्ड ने लिखा, मैं मंत्रमुग्ध हो गया। यह हिम्मत भिखारी मेघमल्हार बजे नहीं, हृदय गुनगुनाए नहीं-ऐसे तुम करते चले की नहीं, सम्राट की होती है। रथचाइल्ड को ऐसा कहना, जिसके जाओ जबर्दस्ती, यंत्रवत, करनी चाहिए, कर्तव्यवश, लोग कहते पास भीख मांगने आए कि चुप! सलाह मत देना। मेरे धंधे को | हैं इससे रस मिलेगा इसलिए कर रहे हैं। मैं भलीभांति जानता हूं। नहीं, जहां रस मिलता है वहीं परमात्मा आता है। रथचाइल्ड ने उसे खूब दिया; और कहा, मैं खुश हुआ इस इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई बात से कि कोई आदमी अपने भिखमंगेपन की भी इतनी प्रतिष्ठा अनुशासन नहीं है। क्योंकि अनुशासन कोई भी होगा, पराया रखता है। होगा, दूसरे का होगा। तुम्हें अपना अनुशासन खोजना पड़ेगा। कभी तुम्हें राह का भिखारी भी प्रसन्न मिल सकता है। प्रसन्नता प्रत्येक व्यक्ति को अपना मार्ग खोजना पड़ेगा। मैं इशारे देता हूं। का कोई संबंध इससे नहीं कि तुम्हारे पास क्या है। जो भी तुम्हारे उन इशारों से तुम अपना मार्ग समझने की कोशिश करो। पास है, उसमें अगर रस है तो प्रसन्नता है। तुम अगर हाथ के | कबीर ज्ञान को भी उपलब्ध हो गए तो भी कपड़ा बुनते रहे। भिक्षापात्र को भी गीत गुनगुनाते हुए ढो रहे हो तो आनंद है। और जुलाहापन उन्होंने छोड़ा नहीं। किसी ने पूछा कि अब तो आप तुम्हारे पीछे स्वर्णरथ चल रहे हैं और तुम मुर्दा, बुझे, तो कुछ अर्थ बंद करें। कभी सुना नहीं कि कोई बुद्धपुरुष और कपड़े बुनता नहीं है। रहा और जुलाहा बना रहा और बाजार में कपड़े बेचने जाता एकाग्रता मत पूछो। यद्यपि तुम्हें यही सिखाया गया है स्कूल | रहा। अब तो छोड़ो। से लेकर विश्वविद्यालय तक। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु लेकिन कहते हैं, कबीर ने कहा, इसी कपड़े के बुनने ने तो मुझे भी तुम्हें यही सिखाते हैं कि-एकाग्रता। मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा से मिलाया। इसे कैसे छोड़ दूं? यह मेरी प्रार्थना। यह | रसमग्नता। वह शब्द हटा दो। क्योंकि वह शब्द सीधा काम का | मेरी पूजा। यह मेरी अर्चना। ही नहीं है। 'झीनी झीनी बीनी रे चदरिया।' 571 ___ 2010_03 | Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः2 वह जुलाहे का गीत है। कोई और दूसरा तो गा भी नहीं की कोशिश कर रहे हो, जो चढ़ाव पर है। तो नदी चढ़ाव पर तो सकता। बुद्ध कैसे गाएंगे? बुद्ध ने कभी चदरिया बीनी नहीं। नहीं बहती, ढाल पर ही बह सकती है। रसधार भी ढाल पर ही उन्हें कुछ पता भी नहीं। महावीर कैसे गाएंगे? चदरिया थी, वह | उतरकर, बहकर मिलता है। भी छोड़ दी! उनसे तो पूछो कैसी छोड़ी रे चदरिया, तो बता तो फिर बदलो। इसीलिए साहस की जरूरत है। पहले सारी सकते हैं। चेष्टा कर लो। और फिर तुम्हें लगे कि नहीं, इस ढंग से मेरे लिए लेकिन कबीर ने बुन-बुनकर पाया। वे ताने-बाने चादर के परमात्मा से मिलन नहीं हो सकेगा तो बदलो। उस बदलाहट को बुनते-बुनते उनका ध्यान फला। वहीं रसविमुग्ध हुए। पर कैसे | मैं संन्यास कहता हूं। बदलने की हिम्मत रखो। पाया उन्होंने? क्योंकि हमें बुद्ध की बात समझ में आ जाती है | एक आदमी चालीस साल तक लंदन के बाजार में दलाल का कि दूर बोधिवृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे हुए हैं। कि महावीर वनों काम करता रहा। बड़ा सफल आदमी था। खूब कमाई थी। सब में, पर्वतों में, एकांत में, बारह वर्ष मौन में खड़े हुए। तरह का सुख था। किसी ने कभी सोचा भी न था, एक रात वह कबीर...कबीर कपड़ा बुन-बुनकर पा लिए। घर से नदारद हो गया। पत्नी भी भरोसा न कर सकी, बेटे भी रस से बुना होगा। कबीर कहते थे, राम के लिए बुन रहा हूं। | भरोसा न कर सके, मित्र भी भरोसा न कर सके, काम धंधे में जो सभी ग्राहकों में राम देखते थे। जब अपना कपड़ा बुनकर और लोगों से संबंध था वे भी भरोसा न कर सके। क्योंकि न तो वह काशी के बाजार में बेचने जाते, कोई मिल जाता रास्ते में और आदमी कभी किसी और स्त्री के संग में देखा गया था. कि पत्नी कहता, कहां जा रहे हो? तो वे कहते, राम आए होंगे। उनको सोच भी सके कि वह किसी स्त्री के साथ भाग गया। न उसके जरूरत है, कपड़ा बुनकर लाया हूं। बड़ा बढ़िया बुना है। राम कोई धार्मिक रुझान थे कि वह कोई जाकर किसी आश्रम में को देने जा रहा हूं। संन्यासी हो गया होगा। न कोई दुख था कि आत्महत्या कर ली जब कोई ग्राहक उनसे कपड़ा खरीदता तो वे कहते, सम्हालकर होगी। सब भांति सुखी-संपन्न आदमी था; जिसको हम रखना राम। बड़ी मेहनत से बुना है। बड़े रस से बुना है। कपड़ा सुखी-संपन्न कहते हैं, वैसा आदमी था। सब ठीक-ठाक था। ही नहीं है, पीढ़ी दर पीढ़ी चले ऐसी मजबूती से बुना है। अपने | कोई तीन साल बाद उस आदमी का पता चला कि वह पेरिस में प्राण उंडेले हैं। | चित्रकला सीख रहा है। भिखमंगे की हालत हो गई है। भागे तो जिसको ग्राहक में राम दिखाई पड़े, अब उसे किसी उसके मित्र। उससे कहा, तुमने यह क्या किया? तुम्हारे पास बोधिवृक्ष के नीचे जाने की जरूरत न रही। सभी लोग बोधिवृक्ष सब था, सब ठीक था। उसने कहा, वही अड़चन थी। सब ठीक | के नीचे जा भी नहीं सकते। और अच्छा है कि जाते नहीं; नहीं तो था, कहीं कुछ गड़बड़ न थी। लेकिन कोई प्रफुल्लता न थी। बड़ी झंझट खड़ी हो जाए। एकाध बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठता कहीं कोई उमंग न थी। सब ठीक चल रहा था और सब ठीक मैं है, चलता है। एकाध महावीर मौन खड़ा हो जाता है, चलता है। | चला रहा था, लेकिन कोई रसधार न बह रही थी। लेकिन सभी ऐसे खड़े हो जाएं तो जीवन बड़ा विरस हो जाएगा। मेरे जीवन में सदा से आकांक्षा थी कि चित्रकार बनूं। दलाल अधिक को तो कबीर जैसा होना पड़ेगा। अधिक को तो गोरा बनना मैंने कभी चाहा न था। वह सफलता सांयोगिक थी। अब जैसा होना पड़ेगा। गोरा कुम्हार बस घड़े बनाता रहा। और घड़े मैं खुश हूं। मेरे पास अब कुछ भी नहीं है। चित्र बनाता हूं, बिक बनाते-बनाते खुद को भी बना लिया। रैदास जूते सीते-सीते, जाते हैं तो भोजन के लायक, कपड़े के लायक इंतजाम कर पाता जूते बनाते-बनाते पहुंच गए। | हैं। अपने पास रहने का छप्पर भी नहीं है। एक मित्र के कमरे में तो तम जो कर रहे हो, उसमें रस डालो। उंडेलो रस। वही बना हूं, रह रहा हूं। लेकिन वापस मझे जाना नहीं है। मैं प्रसन्न तुम्हारा भजन, वही तुम्हारा ध्यान। हूं। और जो मित्र गए थे उन्होंने देखा कि वह आदमी एक अगर तम्हारी सारी चेष्टाएं असफल हो जाएं तो फिर साहस अदभत ऊर्जा से. एक अदभत आभा से भरा था। सख गया था | करो। तो फिर तुम गलत जगह हो। तुम कुछ ऐसी जगह बहने शरीर उसका, लेकिन एक रोशनी थी। उसने कहा, मैं किसी से 2010_03 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता नाराज नहीं हूं। मेरी पत्नी को कहना, मैं किसी से नाराज नहीं हूं। | यहां आ गई। इरादा था कि यहां से दक्षिण भारत घूमने सब ठीक था। मैं बिलकुल, जैसा जिसको हम सुखी-संपन्न | जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर कुछ ऐसी पागल हुई कि कहते हैं, वैसा आदमी था। मेरे बच्चे ठीक हैं, मेरे बेटे ठीक हैं, | संन्यास भी ले लिया। और अब ऐसा लगने लगा कि जैसा मेरी पत्नी ठीक है। सब ठीक था। पहले कभी नहीं लगा था। जिस किनारे पर अब तक खड़ी थी लेकिन मत तीक से कहीं कळ होता? ठीक से कछ ज्यादा | वह किनारा ओझल हो गया है आंख से: और अब तो आप ही चाहिए। ठीक से क्या होगा? ऐसे तो ठीक-ठीक-ठीक, और | मेरे कृष्ण बन गए हैं, जिनकी मैं आराधना करती थी। और यह मर जाएंगे। सुविधापूर्वक जी लिए और मर गए। नाच तो पैदा विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान मिला यहां, वह कायम ही न हुआ। जीवन में फूल तो खिले ही नहीं। रहेगा। और पुकारने पर आप सदा आते रहेंगे। लौटा नहीं वापस। बड़ा चित्रकार बन गया। 'मेरे तो रजनीश ही दूसरो न कोई।' इसे मैं संन्यास कहता हूं। न उसने गैरिक वस्त्र पहने, न वह | किसी आश्रम में गया लेकिन इसे मैं संन्यास कहता हूं। संन्यास | __ पूछा है त्रिवेणी ने। नई-नई महिला, नया-नया उसका आना का अर्थ हुआ, साहस इस बात का कि अगर दिखाई पड़े कि मेरा हुआ है। लेकिन जैसे बहुत दिन का प्यासा जल के पास आ जीवन मरुस्थल में खोया जा रहा है तो अपनी राह बदल लेने | जाए, दिल खोलकर पी ले, ऐसा उसने पीया है। की। चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। तो कभी-कभी ऐसा होता है, जो मुझे बहुत सुनते रहे, वे खाली आदमी कमजोर है। वह सुविधा से जीता है। चाहे कुछ न हाथ रह जाते हैं। और ऐसा भी होता है, कभी-कभी कोई नया मिले, लेकिन सुविधा तो है, सुरक्षा तो है। कुछ न मिले! व्यक्ति एकदम भरपूर हो उठता है। प्यास पर निर्भर है। इसलिए ये सारे प्रश्न उठते हैं कि एकाग्रता कैसे सधे? तो | त्रिवेणी कोई पढ़ी-लिखी महिला नहीं है, ग्रामीण है; गैर-पढ़ी पहले तो कोशिश करना। सध जाए तो शुभ। चेष्टा करने से लिखी है। पर हृदय उसका बड़ा पढ़ा-लिखा मालूम होता पचास प्रतिशत मौके हैं, सध जाएगी। न सधे तो हिम्मत करना। है-'ढाई आखर प्रेम के।' बुद्धि का कोई शिक्षण नहीं हुआ है देर मत लगाना, क्योंकि जिंदगी रोज हाथ से सरकी जाती है। लेकिन हृदय जीवंत है। जिंदगी उन्हीं की है, जो हिम्मत से जिंदगी को बदलने के लिए तो घटना बड़ी सरलता से घट गई है। पति-पत्नी दोनों यहां तैयार होते हैं। नहीं तो जिंदगी बह जाती है। चिकने घड़े के ऊपर हैं। लक्ष्मी मुझे कहती थी कि दोनों दिनभर रसविमुग्ध बैठे रहते जैसे वर्षा का जल बह जाता है, कुछ भरता-करता नहीं। या हैं। जाते ही नहीं आश्रम से। खोए-खोए। जैसे कुछ मिल गया उल्टे घड़े पर जैसे वर्षा गिरती रहती है—टप-टप। बहुत है-कोई खजाना। भरोसा भी नहीं हो रहा है कि मिल गया है। आवाज, शोरगुल मचता है लेकिन घड़ा खाली का खाली रहता इतने अचानक मिला है। विश्वास भी नहीं आता कि मिल गया है। उल्टा रखा है। | है। हटते भी नहीं। कहीं जाते भी नहीं। ठगे-ठगे! तो जरा गौर से देखना। तुम्हारा घड़ा अगर भरता न हो तो कहीं त्रिवेणी मुझे मिलने आयी थी। कुछ कहा नहीं उसने। कुछ उल्टा तो नहीं रखा है? कहने को उसके पास है भी नहीं। यह प्रश्न भी किसी दूसरे से तो न तो मौलिक सवाल ध्यान का है, न भजन का है; मौलिक लिखवाया होगा। यह प्रश्न भी किसी और ने तैयार किया होगा। सवाल समझ का है। मन के स्वभाव को समझो। लेकिन वह मौजूद रही, बैठी रही। और बैठे-बैठे उसने जो एकाग्रता की बात ही मत उठाओ, रसमयता की बात उठाओ। कहना था, कह दिया बिना कहे। उसकी मौजूदगी से उसने रसमयता के पीछे-पीछे तुम पाओगो, एकाग्रता घूघर बजाती हुई अपने भाव अर्पित कर दिए। अपना भाव-सुमन चढ़ा दिया। चली आती है। लोग आते हैं, बहुत बात कर जाते हैं और बिना कछ कहे भी चले जाते हैं। आए, बकवास कर जाते हैं। त्रिवेणी आयी, बैठी दूसरा प्रश्नः बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ रही चुपचाप एक तरफ। न कुछ बोली, न पास पैर छूने आयी। 5751 ___ 2010_03 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 जिन सूत्र भाग: 2 मगर उसने छू लिए पैर। गहन भाव की बात है। जाते हो। तुम भूल ही जाते हो । आनंद इत्यादि की बकवास भूल यह प्रश्न कई तरह से सोचने जैसा है। पहली बात : 'बिना जाते हो । अचानक तुम पाते हो, मिला। क्योंकि तुम्हारे खोने में किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ यहां आ गई। ' ही आनंद है। और तो कोई आनंद नहीं है। तुम नदी भी पार कर लेते हो, तैर भी जाते हो । मित्र कहते हो, हमें तो कुछ मिला नहीं । "तुम कहते थे, बड़ा आनंद मिलता है। ऐसे कभी-कभी तुम किसी को यहां मेरे पास ले आते हो, कहते हो चलो, सुनने में बड़ा आनंद आता है। बस, तुम गड़बड़ में उसको डाल रहे हो। यह तो भूलकर कहना ही मत कि सुनने में बड़ा आनंद आता है। क्योंकि आनंद का लोभ सभी को है। वह भी सोचेगा कि चलो, आनंद की तो खोज हम भी कर रहे हैं। अगर सुनने से ही आनंद मिलता है, इतना सस्ता मिलता है, चले चलते हैं। क्या बिगड़ता है ? सुन ही लें। ऊपर से जिसे हम उद्देश्य कहते हैं, ऊपर से जिसे हम चेष्टापूर्वक खोज कहते हैं, वह बड़ी उथली है। भीतर एक निरुद्देश्य खोज चल रही है। वह जन्मों-जन्मों से चल रही है। हमें कभी पता भी नहीं होता कि कहां किस द्वार पर हमारे लिए द्वार खुल जाएंगे! हमें पता भी नहीं होता कि कहां किस घड़ी में जीवन को शरण मिल जाएगी। शायद हम चेष्टा करके उसकी खोज भी नहीं कर रहे थे। अकस्मात घटता है। अक्सर चेष्टा करनेवाले लोग वंचित रह जाते हैं। क्योंकि चेष्टा में अहंकार है । मेरे पास दो तरह के लोग आते हैं। एक, जो जान-बूझकर धर्म की खोज में निकले हैं। उनके साथ बड़ी अड़चन है। वे सब आश्रमों में हो आए हैं। सब गुरुओं के पास हो आए हैं, सब शास्त्र पढ़ लिए हैं। कहीं कुछ नहीं होता । जब ऐसा व्यक्ति मेरे पास आता है तो मैं जानता हूं, होना बहुत मुश्किल है। उसकी सचेष्ट - आकांक्षा ही बाधा बन रही है। उसकी आकांक्षा के कारण ही वह बंद है। दूसरे तरह के लोग हैं, जो कभी निरुद्देश्य आ जाते हैं। अकारण ! वे ज्यादा खुले होते हैं। कुछ पाने की खोज नहीं होती। कुछ पाने की अपेक्षा नहीं होती। मन ज्यादा खुला होता है। सरलता से चीजें घट जाती हैं। तुम इसे समझने की कोशिश करना। जो-जो तुमने उद्देश्यपूर्वक खोजा है, उसे तुम कभी न पा सकोगे। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह उद्देश्यपूर्वक खोज से नहीं मिलता। आनंद, सत्य, प्रभु, कोई भी सीधी खोज से नहीं मिलते। आकस्मिक घटते हैं। अनायास घटते हैं। प्रसादरूप मिलते हैं। मगर वह पूरे समय बैठा है, देख रहा है किनारे से। जैसे तुमने देखा हो, बिल्ली बैठी रहती है, चूहे की राह देखती रहती है। ऐसे लगती है बिलकुल शांत बैठी है, ध्यान कर रही है। ऊपर से देखो तो ऐसा लगता है, बड़ी महावीर बनी बैठी है, ध्यान-मग्न; लेकिन उसकी नजर लगी है चूहे की पोल पर कि कब निकले ! अभी तक नहीं निकला, अब निकले। बड़ी देर हुई जा रही है, भूख बढ़ती जा रही है। तो वह जो आदमी आ गया है सुनने, इसलिए कि आनंद मिलेगा, वह आनंद के चूहे पर लगाए नजर बैठा है। और ध्यान रखना, बिल्ली की नजर से चूहा डरता है। निकलता ही नहीं । वह भी अंदर से देख लेता है कि कहीं कोई ध्यानमग्न तो नहीं बैठा है! अगर बैठा है तो खतरा है। चूहे भी बिल्ली के पास नहीं आते। कितना ही ध्यान करो! क्योंकि चूहे कहते हैं, सौ-सौ चूहे खाए हज को चली। इतने चूहे खा चुकी है, इसका भरोसा चूहों नहीं आता कि यह ध्यान में बैठी होगी। 2010_03 कोई मित्र तुमसे कहता है कि मैं तैरने जाता हूं नदी में, बड़ा आनंद आता है। तुम कहते हो, तो हम भी आएंगे। आनंद की तो हम भी तलाश कर रहे हैं। बस, गड़बड़ हो गई। तुम्हें न मिलेगा ! क्योंकि तुम तैरोगे ही नहीं। एक हाथ मारोगे और सोचोगे, आनंद अभी तक नहीं मिला। कब मिलेगा अब ? आधी नदी पार भी हो गई, अभी तक आनंद नहीं मिला ? अब तुम उदास होने लगोगे । तो अक्सर जो आकस्मिक रूप से आ गए हैं...। तुमको मैं कहता हूं, अपने मित्रों को कभी मत कहना कि बड़ा क्योंकि आनंद मिलता है तब, जब तुम तैरने में परिपूर्ण लीन हो आनंद मिलता है, चलो। नहीं तो तुम उसके कारण बाधा न आनंद बड़ी नाजुक घटना है । तुम जब बिलकुल बेखबर होते हो, मस्त होते हो, तब तुममें प्रवेश कर जाता है। सामने के द्वार 'आता ही नहीं, पीछे के द्वार से आता है। ऐसा ढोल इत्यादि बजाकर आता ही नहीं । चुपचाप, पगध्वनि भी नहीं होती ऐसे चला आता है। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता जाओगे। तुम ही बाधा बन जाओगे। वे आएंगे और आनंद नहीं पत्नी अब धोखा देने लगी? या कभी-कभी यह भी संदेह होता मिलेगा तो वे कहेंगे, तुमने धोखा दिया। और तुम्हें भी क्या खाक है क्या पहले-पहल धोखा दिया था? क्या मैं कोई सपने में खो मिलता होगा, जब हमको नहीं मिला। सुना तो हमने भी वही, | गया था? सुना तुमने भी वही। हमें तो कुछ भी न मिला। तो तुम नाहक की कुछ भी नहीं हुआ है। एक जीवन की छोटी-सी घटना तुम बातें करते हो। | नहीं समझ पा रहे हो। जब पहली दफा किसी स्त्री या किसी नहीं, त्रिवेणी को हो गया होगा। वह यहां आने के लिए आयी पुरुष से मिले थे तो मिलने में कोई भी अपेक्षा न थी-निरपेक्ष। ही न थी। जाते थे पति-पत्नी दक्षिण की यात्रा को, पूना बीच में घटना आकस्मिक घट गई थी। लेकिन अब अपेक्षा है। | पड़ गया। सोचा होगा चलो, यहां भी देखते चलो। मगर कोई ऐसा हर तरफ होता है। पहली दफा ध्यान में लोगों खोज नहीं थी। ऐसी कोई चेष्टा नहीं थी। ऐसी कोई अपेक्षा भी कभी-कभी ऐसी अनुभूति आती है। फिर कठिन हो जाता है। नहीं थी कि आनंद मिलेगा कि रसधार बहेगी कि बादल | क्योंकि फिर दूसरे दिन ध्यान नहीं करते। फिर तो वे थोड़ा उमड़ेंगे-घुमड़ेंगे कि बिजली चमकेगी। ऐसा कुछ खयाल ही न हिलते-डुलते हैं, और भीतर तैयार रहते हैं कि अब हो....अब था। इतनी सरलता से कोई आ जाता है तो घटना घट जाती है। हो...अब हो। नहीं होता। क्योंकि जब पहली दफा हआ था तो सरलता से आना मुश्किल है। क्योंकि जो सरल हैं, वे आएं 'अब हो, अब हो' ऐसी कोई आवाज भीतर नहीं थी। अब क्यों? जो जटिल हैं वे आते हैं। जटिल को मिलना मुश्किल। तुमने एक नई चीज जोड़ दी, जो बाधा बन रही है। जो खोज रहा है वह आता है। जो खोज नहीं रहा वह आता नहीं।। इधर मेरे हजारों लोगों पर ध्यान-प्रयोग करने के जो नतीजे हैं, जो खोज रहा है उसको मिलता नहीं। | उनमें एक नतीजा यह है कि पहली दफा जैसी झलक मिलती है, तो कभी-कभी जब न खोजनेवाला आ जाता है सत्संग में, तो फिर बड़ी कठिन हो जाती है। फिर जब तक वह पहली झलक घटना घट जाती है। भूल नहीं जाती, दूसरी झलक नहीं मिलती। कभी महीनों लग 'बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति को साथ आ गई।' जाते हैं भूलने में। जब बिलकुल हार-हारकर आदमी सोचता है, इसीलिए कुछ हो गया। अपेक्षा न हो तो जीवन में बड़ी घटनाएं कि अरे! वह भी मिली न होगी। कल्पना कर ली होगी। जब घटती हैं। जो-जो तुमने अपेक्षा बांधी, वही-वही नहीं घटेगा। पहली झलक भूल जाती है तब दूसरी झलक मिलती है। दूसरी, अपेक्षा के कारण ही घटना बंद हो जाता है। | तीसरी, चौथी झलक के बाद यह समझ में आना शुरू होता है कि तुमने देखा! किसी से प्रेम हो जाता है, खूब रस बहता है। मैं जो मांग रहा था, वह बाधा बन रही थी। लेकिन यह थोड़े दिन ही चलता है। यह हनीमून भी पूरा निरुद्देश्य आने से ही कुछ हुआ। अब ऐसी निरुद्देश्यता को होते-होते चल जाएगा, संदिग्ध है। यह सुहागरात पर ही समाप्त | कायम रखना। अब खतरा है। त्रिवेणी पूछती है कि घर जाकर हो जाता है। उसी स्त्री से, उसी पुरुष से बड़ा रस मिला था। फिर यह ध्यान कायम रहेगा न? अब खतरा है। जो हुआ है, बिना क्या हो जाता है? मांगे हुआ है। अब भी क्यों मांगना? जब अभी बिना मांगे हो अपेक्षा नहीं थी, जब मिला था। तब तुमने सोचा न था कि गया है तो फिर भी बिना मांगे होता रहेगा। मिलेगा। तब तुम सचेत रूप से खोज नहीं रहे थे, मांग नहीं रहे अब खतरा है। अब खतरा यह है कि जो रस उसे मालूम हुआ थे; मिला था। फिर सचेत रूप से मांगने लगे। अब तुम कहते है, अब वह चाहेगी कि वह घर पर कायम रहे। लौट-लौटकर हो रोज-रोज मिलना चाहिए। अब तुम कहते हो, आज नहीं उसको फिर पाना चाहेगी। इस चाह से ही मर जाएगा। अब मिला, बात क्या है? कोई धोखा चल रहा है? निरुद्देश्य न रही त्रिवेणी। अब त्रिवेणी को उद्देश्य मिल गया। अब तुम मांग करते हो। अब तुम दावेदार बन गए। अब तुम अब दुबारा अगर वह पूना आएगी तो भी खतरा है। जरूर मकदमा लड़ने को तैयार हो। अब तम कलह करते हो पत्नी से आएगी। आना पड़ेगा उसे। क्योंकि वह जो रस मिला, अब कि आज सुख नहीं दिया। या फिर तुम्हें संदेह होता है कि क्या उसकी वासना जगेगी। अब वह बार-बार आएगी। अब मैं भी 2010_03 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 उससे डरा हूं। क्योंकि जब वह बार-बार आएगी और न पाएगी हम अपने ढंग से जीएंगे, अपने ढंग से नाचेंगे। न हम किसी को तो मुझ पर नाराज होगी। जोर-जबर्दस्ती करते कि वह हमारे ढंग का हो। न हम किसी को इसलिए अभी से सावधान कर देता हूं। बात ही छोड़ो। जैसी जोर-जबर्दस्ती करने देंगे कि हम उसके ढंग के हों। न हम किसी आयी थी निरुद्देश्य, ऐसी ही घर वापस लौट जाओ। जैसे को दबाएंगे, न हम दबेंगे। निरुद्देश्य मन से मुझे यहां चाहा, मुझे प्रेम किया, ऐसे ही घर पर संन्यास बड़ी गहरी उदघोषणा है। वह इस बात की उदघोषणा भी करना। आनंद मत मांगना, ध्यान मत मांगना। मांगना ही है कि अब न तो मैं किसी पर आग्रह थोपूंगा अपना कि वह मेरे मत कुछ। घटेगा। खूब-खूब घटेगा। जितना घटा है वह तो जैसा हो, और न मैं चाहूंगा कि कोई चेष्टा करे मुझे अपने जैसा सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी एक झाला आया है। अभी तो बनाने की। तो न तो मैं किसी का मालिक बनूंगा, और न किसी मूसलाधार वर्षा होगी। मगर मांगना मत। यह तो सिर्फ शुरुआत को मालिक बनने दूंगा। न मैं किसी की स्वतंत्रता छीनूंगा, और न है। और जब दुबारा यहां आओ तो अपेक्षा लेकर मत आना। किसी को मेरी स्वतंत्रता छीनने दूंगा। फिर ऐसे ही आ जाना। कठिन होगा। क्योंकि इस बार तो | दोहरी उदघोषणा है संन्यास। अब जो मेरी मौज है, वैसे ही निरुद्देश्य आना स्वाभाविक हुआ था। अब दूसरी बार बड़ा जीऊंगा। यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अपनी मौज में कठिन होगा। लेकिन अगर समझा कि पहली दफा निरुद्देश्य किसी को कष्ट दो। क्योंकि कष्ट देने का तो अर्थ हआ, जाने से घट गया था तो अब उद्देश्य लेकर क्यों जाएं? उदघोषणा इकहरी हो गई। तुम दूसरे पर अपने को थोपने लगे। चले आना. जब आने की सविधा बने। यह सोचकर मत जीवन के परम रहस्यों में एक है कि न तो दसरे के जीवन में आना कि वहां जाकर खूब आनंद होगा; कि वहां खूब बाधा देना और न किसी को अवसर देना कि तुम्हारे जीवन में ध्यानमग्नता आएगी; कि डूबेंगे। यह सोचकर ही मत आना। बाधा दे। बड़ा कठित है। आसान है बात, या तो दूसरे के जीवन फिर ऐसे आना जैसे अजनबी हो। फिर घटेगा। जितना घटा पर हावी हो जाओ, दूसरे की छाती पर बैठ जाओ, मूंग दलो; उससे बहुत ज्यादा घटेगा। और इस सूत्र को अगर समझ लिया | यह आसान है। या दूसरे को अपनी छाती पर बैठ जाने दो, वह तो घटता ही रहेगा। मूंग दले, यह भी आसान है। और यही अक्सर घटता है। या तो परमात्मा शुरू होता है, अंत कभी भी नहीं होता। हमारे पात्र | तुम किसी की छाती पर मूंग दलोगे, या कोई तुम्हारी छाती पर मूंग भर जाते हैं, फिर भी बरसता रहता है। पात्र ऊपर से बहने लगते दलेगा। इसलिए मैक्यावेली ने कहा है, इसके पहले कि दूसरा हैं, फिर भी बरसता रहता है। बाढ़ आ जाती है, बरसता ही रहता तुम्हारी छाती पर मूंग दले, देर मत करो; उचको, झपटो, बैठ है। लेकिन अड़चन खड़ी होती है कि जैसे ही हमने अपेक्षा की जाओ दूसरे की छाती पर, तुम मूंग दलना शुरू करो। नहीं तो कि हम सिकड़े। हमारा पात्र बंद हुआ। हम अपात्र हुए। कोई न कोई तुम्हारी छाती पर दल देगा। 'बिना किसी उद्देश्य के यहां आ गई। इरादा कुछ और मैक्यावेली कहता है, रक्षा का एकमात्र उपाय आक्रमण है। था—दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर इसके पहले कि कोई हमला करे, तुम हमला कर दो। राह मत कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया...।' देखो कि वह करेगा, फिर रक्षा कर लेंगे। क्योंकि जिसने राह ठीक कहती है। संन्यास एक तरह का पागलपन है। संन्यास देखी वह तो पिछड़ गया। एक तरह की मस्ती है। हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर है। तो दुनिया में ऐसा ही हो रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को या के बाहर है। सोच आदि को जो एक खा जाती है। तो या तो बड़ी मछली बनो या छोटी मछली किनारे हटाकर रख देता है वही संन्यस्त होने का अधिकारी है। बनोगे। और क्या करोगे? जो कहता है, लोक-लाज खोई। जो कहता है, अब फिक्र नहीं साधारण हैं दोनों बातें। यही हो रहा है। यही कलह है, यही कि लोग क्या कहेंगे। जो कहता है, दूसरों के मत का अब कोई संघर्ष है—देशों में, जातियों में, व्यक्तियों में, सारे संबंधों में। प्रभाव नहीं। अब हम अपने ढंग से जीएंगे। जीवन हमारा है, पति पत्नी पर हावी होना चाहता है कि वह मेरे ढंग से चले। 5781 2010_03 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमयता और एकाग्रता एक पत्नी मेरे पास आती है। वह कहती है पति को बस, रस यही है। पति को तूने दीन-हीन कर दिया है। तेरी | किसी तरह शराब रुकवा दें। और कुछ भी करे, मगर शराब न मालकियत कायम हो गई शराब पीने के कारण। ऐसे पति सब पीये। मैंने पूछा उसको कि सच में तू शराब के इतने विपरीत है या तरह से ठीक हैं। अगर शराब छोड़ दें तो तेरी मालकियत खतम अपनी चलाने का आग्रह है? क्योंकि तेरे पति को मैं जानता हूं। हो जाएगी। त ऊंची हो गई है. पति को नीचा बना लिया है। पति भला आदमी! तुझसे डरते हैं, तू डराती है। अगर तेरे पति ने शराब छोड़ी तो वे और शराबी अक्सर भले आदमी होते हैं। खतरा तो उनसे है, | तुझे डराएंगे। इसकी तू तैयारी कर ले। जो माला इत्यादि लिए बैठे हैं। उनमें भले आदमी खोजना बहुत जीवन में हम या तो डरते हैं या डराए जाते हैं। हम मश्किल है। वे अक्सर दष्ट प्रकति के लोग होते हैं। शराबी तो अच्छे-अच्छे बहाने खोज लेते हैं डराने के। और हम अगर डराए अक्सर भले आदमी होते हैं। जाते हैं तो भी हम अच्छे-अच्छे तर्क ले लेते हैं कि हम क्यों डर तेरे पति को मैं जानता हूं, भला आदमी है। ऐसे किसी को कुछ रहे हैं। हम कहते हैं कि वह बात ठीक ही है, इसलिए हम डर रहे गड़बड़ भी नहीं करता। वह कहती है, ऐसे तो कुछ गड़बड़ नहीं हैं। संन्यास का अर्थ इन दोनों स्थितियों के पार जाना है। संन्यास करते, पीकर ऐसा कुछ खराब भी नहीं करते। सिर्फ आपका | का अर्थ है, न तो हम डराएंगे किसी को; क्योंकि हम कौन हैं? प्रवचन देते हैं पीकर-दो-दो तीन-तीन घंटे! ऐसी कोई बुरी और न हम किसी से डरेंगे। न तो हम किसी को उसके मार्ग से बात भी नहीं कहते। ज्ञान की बातें करते हैं। तो मैंने कहा, हर्जा विचलित करेंगे, न हम अपने मार्ग से विचलित होंगे। क्या है? वे मेरा ही प्रवचन देते हैं। बात तो यही कहते हैं। बात इसका अर्थ हुआ, संसार से संबंध छोड़ा। क्योंकि संसार में दो भी बिलकुल दोहराते हैं। जब वे पी जाते हैं तो शब्द शब्द दोहराते ही तरह के संबंध हैं—या तो डराए जाओ, या डराओ। अगर हैं, भाव-भंगिमा दोहराते हैं। तो फिर मैंने कहा, हर्ज क्या है ? तू तुम मेरी बात समझो तो पत्नी को छोड़कर नहीं जाना, दुकान समझना कि टेप रिकार्ड लगाया है। सुन लिया कर। छोड़कर नहीं जाना, घर छोड़कर नहीं जाना। संसार से संबंध नहीं, मगर वह कहती है, यह ठीक नहीं है। मैंने कहा, एक छोड़ने का यह सार है कि मत डरना किसी से और मत डराना काम कर। तीन महीने...कितने दिन से तेरे पति पीते हैं? वह किसी को। तुम संसार के बाहर हो गए। क्योंकि इन दोनों में ही कहने लगी, कोई बीस साल से। मैंने कहा, बीस साल की संसार बंटा है। तब तुम न बड़ी मछली रहे, न छोटी मछली रहे। आदत है, छूटते-छूटते छूटेगी। मगर तू एक काम कर। तू तीन | तुम मछली ही न रहे। तुम संसारी न रहे। महीने कहना छोड़ दे। तू तो कोई शराब नहीं पीती, सिर्फ कहती बड़ी हिम्मत चाहिए। रास्ता कठिन होगा क्योंकि तुम अचानक है कि मत पीयो। और बीस साल का अनुभव है कि वे सुनते अकेले पड़ जाओगे। और तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा दांव पर लग नहीं। कहने में कुछ सार भी नहीं है। तीन महीने के लिए तू जाएगी। क्योंकि जिनने प्रतिष्ठा दी थी, वे प्रतिष्ठा खींच लेंगे कहना छोड़ दे। वापस। उन्होंने कुछ शर्तों से प्रतिष्ठा दी थी। वे कहते थे, तुम उसने पांच-सात दिन के बाद आकर कहा कि असंभव। मेरी बड़े बुद्धिमान हो, अब न कहेंगे। वे कहते थे, तुम बड़े होशियार भी बीस साल की आदत है। यह नहीं हो सकता। इससे मुझे हो, अब न कहेंगे। अब तो वे कहेंगे, तुम पागल हो गए, बड़ी बेचैनी होती है, इसलिए नहीं कह सकती। इसकी तो आप सम्मोहित हो गए। किसके जाल में पड़ गए! तुमने अपनी बुद्धि मुझे छुट्टी दे दें। गंवा दी। अब तो वे तुम पर संदेह करेंगे। तो मैंने कहा, अब तू सोच। तेरे पति की तो शराब की आदत है | तो तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा कठिनाई में पड़ जाएगी। संन्यास बीस साल की। कैसे छूटेगी? तुझे सिर्फ कहना रोकना है, वह महंगा सौदा है। पागल ही कर सकते हैं। भी नहीं छूटता। वह भी तेरी शराब हो गई। | त्रिवेणी ठीक कहती है कि 'यहां आकर संन्यास ले लिया। और मजा तुझे अंदाज में नहीं है, अगर मैं तेरे पति को राजी कर ऐसी पागल हो गई कि संन्यास ले लिया। और अब आप ही मेरे लूं और वे शराब न पीयें तो तू दुखी हो जाएगी। क्योंकि तेरा सारा | कृष्ण बन गए हैं।' 579 2010_03 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 जहां प्रेम हो गया वहीं कृष्ण का आविर्भाव हो जाता है। कृष्ण इसलिए यह जो मौका मिला, यह जो पलक थोड़ी खुली, से थोड़े ही प्रेम होता है! जहां प्रेम होता है, वहीं कृष्ण का इसको और खोलते ही चले जाना। आविर्भाव हो जाता है। यही कठिन बात है। '...अब यह विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान यहां मिला अगर तुम किसी दूसरे को सिद्ध करोगे कि मुझे कृष्ण के दर्शन | है, वह कायम रहेगा।' हो गए तो वह हंसेगा। उसका हंसना भी ठीक है। वह कहेगा, यह बात छोड़कर जाओ। यह साथ लेकर मत जाओ। यह हमें तो कोई कृष्ण के दर्शन होते नहीं; तुम्हें कैसे हो गए? कुछ रहेगा कायम, लेकिन तुम यह बात यहीं छोड़ जाओ। तुम यह भ्रांति हो गई होगी। बात ही मत उठाओ। यह विश्वास खतरनाक है। यह विश्वास वह भी ठीक है। क्योंकि कृष्ण के दर्शन तो प्रेम में होते हैं; प्रेम तो इस बात की सूचना है कि अविश्वास आना शुरू ही हो गया। की आंख हो तो होते हैं। और प्रेम की आंख हो तो कुछ और ही डर लगने लगा मन में कि अब घर वापस जाना है। पता नहीं जो होने लगता है, जो इस जगत में होता ही नहीं। यहां हो रहा था, वह वहां होगा या नहीं होगा। तुम्हारा घर मोहब्बत में कदम रखते ही गुम होना पड़ा मुझको परमात्मा के उतने ही निकट है जितना यहां। सभी घर उसके हैं। निकल आयीं हजारों मंजिलें एक-एक मंजिल से सभी जगह वही है। अगर प्रेम की आंख खुली, कि एक दूसरा ही लोक खुला। तुम यह विश्वास ही उठाने का मतलब हुआ कि कहीं गहरे में हजारों मंजिलें खुल जाती हैं। इधर प्रेम की आंख बंद हुई कि सब अविश्वास आने लगा कि अब जाती हूं घर, अब पता नहीं जो बंद हो जाता है। हुआ है, वह साथ जाएगा या नहीं? फिक्र छोड़ो। विश्वास की कृष्ण दिखाई पड़ सकते हैं, जहां तुम्हारा प्रेम जग जाए। प्रेम | कोई जरूरत नहीं है। कृष्ण को निर्मित करता है। प्रेम कृष्ण का आविष्कार करता है। तुम आनंदमग्न, नाचती, गीत गुनगुनाती वापस जाओ। तुम्हारे तो तुम्हारा प्रेम जगा, इसे स्मरण रखना। और इस प्रेम को मुझ गीतों में बंधा हुआ, जो यहां घटा है वह तुम्हारे साथ चला पर ही मत रोक लेना। इसे और बढ़ाना, कि धीरे-धीरे कृष्ण सब आएगा। अपेक्षाशून्य! जैसे निरुद्देश्य आना यहां हुआ था, ऐसे जगह दिखाई पड़ने लगें। जो घटना तुमने मुझ पर घटा ली है, | ही निरुद्देश्य वापस चली जाओ। दूर न जा पाओगी। वह तुम्हारी प्रेम की आंख के कारण घटी है। इसी आंख से वृक्ष याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई को देखना। तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं हरे-भरे। इसी आंख काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए से पहाड़ को देखना तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं। कैसे आकाश | कभी नहीं हो पाते दूर। प्रेम की झलक मिल जाए...। को छूते शिखर। हिमाच्छादित! कृष्ण खड़े हैं। याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई। तुम इसी प्रेम की आंख से देखते चले जाना, तो हर जगह कृष्ण | फिर दिल कभी भूलता ही नहीं। दिल में घट जाए, एक दफा दिखाई पड़ेंगे। यह प्रेम की आंख जो पैदा हुई है, यह बढ़ती जाए, दिल में झंकार हो जाए, फिर दिल कभी भूलता ही नहीं। यह मुझ पर रुके न। क्योंकि रुक जाए तो खतरा हो जाता है। याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई रुकने से संप्रदाय बन जाता है। बढ़ने से धर्म, रुकने से संप्रदाय। काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए तुमने अगर यह जिद्द की कि यही आदमी कृष्ण है, और कोई फिर तुम जाओ कितने ही दूर-पृथ्वी के किसी दूर के कोने पर कृष्ण नहीं तो बस, जल्दी ही यह प्रेम मर जाएगा। क्योंकि प्रेम | भी, तो भी घर से दूर न हो पाओगे। वह घर परमात्मा है, जिससे फैलता रहे तो जीता है। प्रेम बढ़ता रहे तो जीता है। प्रेम सिकुड़ | हम कभी दूर नहीं हो पाते। जाए तो मरने लगता है। तुमने गर्दन पर फांसी लगा दी। जैसे एक दफा पुलक आ जाए, झलक आ जाए। वह झलक आयी [ दो और कोई मर जाए, ऐसा प्रेम को है। इसलिए विश्वास इत्यादि की बात मत उठाओ। विश्वास तो सिकोड़ना मत, अन्यथा मर जाएगा। फिर एक दिन तुम पाओगे | थोथी चीज है। विश्वास तो अविश्वास को ढांकने का उपाय है। कि मुझमें भी दिखाई नहीं पड़ेंगे कृष्ण। विश्वास तो शंका को छिपाने की व्यवस्था है। विश्वास तो संदेह 580 2010_03 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को लीपापोती करना है। तुम जैसी निरुद्देश्य यहां आयी थीं, बिना किसी भाव के; कुछ पता न था क्या घटेगा, ऐसे ही वापस जाओ बिना कुछ पता लिए कि क्या घटेगा । बहुत कुछ घटने को है । मैं तुमसे पहले तुम्हारे घर पहुंच गया हूं। 4 . जो ध्यान यहां मिला वह कायम रहेगा और पुकारने पर आप सदा आते रहेंगे ?" तुम फिक्र ही न करो। कभी-कभी बिना पुकारने पर भी आऊंगा। द्वार पर दस्तक दूं तो घबड़ाना मत। कभी अचानक सामने खड़ा हो जाऊं तो घबड़ाना मत। प्रेम न तो समय जानता, न स्थान जानता । क्षेत्र और काल दोनों के पार है। दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल रोके जो रुकती नहीं आहें दिल की दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की — वे प्रेम के रास्ते सदा ही खुले हुए हैं। अपेक्षा से बंद हो जाते हैं। द्वार बंद हो जाता, भिड़ जाता। अपेक्षा भर मत ले जाओ। प्रफुल्लता से, मग्न भाव से जाओ। दिन-रात खुली रहती है राहें दिल की तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की दिल की निगाह के लिए कोई भौतिक उपस्थिति जरूरी नहीं है। दिल की आंख दूर से देख लेती है। और दिल की आंख न हो तो पास से भी नहीं देख पाती। दिल की आंख न हो तो आदमी अंधे की तरह आता, अंधे की तरह चला जाता। ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल आता हूं तुम्हारे साथ। लेकिन तुम्हारी अपेक्षा रही तो न आ पाऊंगा। अपेक्षा छोड़ दो। अपेक्षा का त्याग कर दो। आता हूं तुम्हारे साथ एक तसव्वुर की तरह, एक भाव की तरह, एक भक्ति की तरह । ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल रोके जो रुकती नहीं आहें दिल की रोना ! अपेक्षा मत ले जाओ। हंसना ! अपेक्षा मत ले जाओ। 2010_03 रसमयता और एकाग्रता गाना, नाचना, चुप होकर बैठ जाना। अपेक्षा मत ले जाओ। सहज होना; सहजस्फूर्त । और फिर संबंध नहीं टूटता है। तू सोज-ए-हकीकी है मैं परवाना हूं तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं तू रूह है मैं जिस्म हूं तू अस्ल है मैं क्ल जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं भक्त कहता है : तू सोज-ए-हकीकी है, मैं परवाना हूं तू है सत्य का दीया, मैं हूं पतिंगा, परवाना। तुझ पर जलने को आता हूं। तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं .- तू फूलों के रंग जैसी शराब है, मैं तेरा पात्र हूं। तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं तू रूह है मैं जिस्म - तू है आत्मा, तू अस्ल है मैं नक्ल भक्त अपने को पोंछ देता है, मिटा देता है। अपेक्षा रखोगे तो तुम रहोगे। क्योंकि अपेक्षा तुम्हारी है; तुम्हारे अहंकार की, अस्मिता की है। अपेक्षाएं हटा दो। अपेक्षाओं के गिरते ही तुम्हारा अहंकार गिर जाएगा। तू रूह, मैं जिस्म मैं शरीर । तू अस्ल, मैं नक्ल तब भक्त नक्ल हो जाता है, नकल हो जाता है। वह कहता है तेरी छाया, प्रतिबिंब दर्पण में बनी तेरी प्रतिछवि । तू अस्ल, मैं नक्ल जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं ज्यादा से ज्यादा वह कहानी हूं, वह गीत हूं, जिसमें तेरा बयान है। अपने को पोंछो। अपने को हटाओ। उसी ढंग से परमात्मा के लिए जगह बनती है। तो मैं कहता हूं, त्रिवेणी, घर जाओ - खाली, शून्यवत | कोई अपेक्षा नहीं, कोई अतीत अनुभव की स्मृति नहीं । जो हुआ है वह फिर-फिर हो, ऐसी वासना नहीं— शून्य ! उस शून्य में ही उसका दीया उतर आएगा; उसकी रोशनी भरेगी। तू वादा-ए-गुलरंग मैं पैमाना हूं 581 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 यह शून्यता ही तुम्हें पात्र बना देगी। फूलों के रंगों जैसी शराब, | उन्हें थोड़े ही मतलब है! उन्हें अपने नर्क की पड़ी है, कि पैर की परमात्मा की मस्ती उसमें उतरेगी और भरेगी। तुम मिटोगे तो धुल दे दें और फंस जाएं। यह भी खब आदमी फंसाने के उपाय परमात्मा हो सकता है। कर रहा है! अभी पैर की धूल दे दें, फिर फंसें खुद। तुम्हारा तो सिरदर्द ठीक हो, हम नर्क में सड़ें। नहीं, यह पाप हमसे न हो तीसरा प्रश्न : कथा कहती है कि श्री कृष्ण भगवान ने जब सकेगा। इनको अपनी फिक्र है। गोपियों को अपना पता ही नहीं सिरदर्द मिटाने के लिए भक्तों से उनकी चरणधूलि मांगी, तब | है। इसलिए उन्होंने कहा, पैर की धूल तो पैर की धूल। इसे थोड़ा सबने इंकार कर दिया, लेकिन गोपियों ने चरणधूलि दी। प्रभु, | समझ लेना। इस प्रसंग का रहस्य बताने की कृपा करें। प्रेम के अतिरिक्त और कोई विनम्रता नहीं है। गोपियां तो समझती हैं सब लीला उसकी है। यह सिरदर्द उसकी लीला, यह रहस्य बिलकुल साफ है। बताने की कोई जरूरत नहीं है। पैर, यह पैर की धूल उसकी लीला। वही मांगता है। उसकी ही सीधा-सीधा है। दसरे डरे होंगे। दसरों की अस्मिता रही होगी, | चीज देने में हमें क्या अड़चन है? अहंकार रहा होगा। तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर अब यह बड़े मजे की बात है। अहंकार को विनम्र होने का | हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी पागलपन होता है। अहंकार को ही विनम्र होने का खयाल होता यह भगवान, जिसने दुनिया बनाई हो-यजदां, स्रष्टा; है। तो जो दूसरे रहे होंगे, उन्होंने कहा, पैर की धूल भगवान के कभी-कभी हंसता तो होगा; कैसा दिलचस्प जुर्म किया। यह लिए? कभी नहीं। कहां भगवान, कहां हम! हम तो क्षुद्र हैं, | दुनिया बनाकर कैसा मजेदार पाप किया। तुम विराट हो। हम तो ना-कुछ हैं, तुम सब कुछ हो। लेकिन तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर इस ना-कछ में भी घोषणा हो रही है कि हम हैं, छोटे हैं। हमारे हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी पैर की धूल तुम्हारे सिर पर ? पाप लगेगा, नर्क में पड़ेंगे। भक्त कहते हैं-हंसी उसको भी तो आती होगी कि खब लेकिन गोपियां जो सच में ही ना-कुछ हैं, उन्होंने कहा हमारे मजाक रहा! पैर कहां? हम कहां? हमारे पैर की धूल भी तुम्हारे ही पैर की कृष्ण खूब हंसे होंगे, जब ज्ञानियों ने धूल न दी और गोपियों ने धूल है। और यह धूल भी कहां ? तुम ही हो। और फिर तुम्हारी | धूल दे दी। खूब हंसे होंगे। छोटी-सी मजाक भी न समझ पाए। आज्ञा हो गई तो हम बीच में बाधा देनेवाले कौन ? हम कौन हैं ज्ञानियों से ज्यादा बुद्धू खोजना मुश्किल है। शास्त्र समझ गए, जो कहें नहीं? शास्त्र का सागर समझ गए, और जरा-सी मजाक न समझ पाए, प्रेम की विनम्रता बड़ी अलग है। ज्ञान की विनम्रता थोथी है, जरा-सी बात न समझ पाए। परमात्मा के लिए इतना भी न कर धोखे से भरी है। ज्ञानी जब तुमसे कहता है, हम तो आपके पैर | पाए। गोपियां तो खूब खुश हुई होंगी। उन्होंने तो सोचा होगा, की धूल हैं, तुम मान मत लेना। जरा उसकी आंख में देखना। | चलो अपराध तुम्ही करवा रहे हो तो करेंगे। दिलचस्प हो गया वह कह रहा है, समझे कि नहीं, कि हम महाविनम्र हैं! अपराध, तुम्हारी आज्ञा से हो रहा है। तुम यह मत कहना कि ठीक कहते हैं आप: बिलकुल सही खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर कहते हैं आप। तो वह नाराज हो जाएगा और फिर कभी तुम्हारी | सजा और ऐसी सजा चाहता हूं तरफ देखेगा भी नहीं। वह सुनना चाहता है कि तुम कहो, कि | उन्होंने तो सोचा होगा, चलो अच्छा। अब ऐसी सजा देना कि | अरे! आप और पैर की धूल? नहीं-नहीं। आप तो पूज्यपाद! हम और खताएं करें। अब ऐसा दंड देना कि हम और खताएं करें आप तो महान, आपकी विनम्रता महान। वह यह सुनना चाहता ताकि तुम और दंड दो। यह संबंध बना रहे। यह दोस्ती बनी है कि तुम कहो कि आप महान। रहे। यह गठबंधन बना रहे। दूसरों ने इंकार कर दिया होगा। कृष्ण के सिर में दर्द है, इससे | | खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर 5821 2010_03 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजा और ऐसी सजा चाहता हूं गोपियां तो प्रसन्नता से नर्क चली जाएंगी, अगर उनके नर्क के जाने से कृष्ण का सिरदर्द ठीक होता हो। उन्हें तो क्षणभर भी खयाल न आया होगा कि यह कोई पाप हो रहा है। प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहां शिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है । सब शिष्टाचार के नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम महानियम है। सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है । ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां ही अलग हैं। वे दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। जिसको हम ज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती - रत्ती हिसाब लगाता है । कर्म, कर्मफल, क्या करूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा। । भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता है। वह कहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप | कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप ही करेंगे। भक्त का समर्पण आमूल है। मदहोशी ! बेहोशी ! परमात्मा के हाथ में अपना हाथ पूरी तरह दे देना – बेशर्त । - सर वाइजो - शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं नेजोड़कर बदनाम किया — खूब सिर मारा और बदनाम किया, | तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फूलों के रंग जैसी शराब को वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न होती। वाइजो - शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी भक्त तो शराबी जैसा है। ज्ञानी हिसाबी - किताबी है। दोनों के गणित अलग-अलग हैं। भक्त तो जानता ही नहीं क्या बुरा है, क्या भला है। भक्त तो कहता है, जो भगवान करे वही भला । जो मैं करना चाहूं वह बुरा, और जो भगवान करे वह भला । तो गोपियों ने सोचा होगा, भगवान कहते हैं अपनी चरण रज | दे दो, उन्होंने जल्दी से दे दी होगी। भगवान कराता है तो भला ही 2010_03 रसमयता और एकाग्रता कराता होगा। उनका समर्पण समग्र है। आखिरी प्रश्न: ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु क्या भिन्न हैं? क्या उनकी प्रक्रियाएं भी भिन्न हैं ? मृत्यु तो एक ही है; ध्यान की हो कि प्रेम की। लेकिन प्रक्रियाएं, उस मृत्यु तक पहुंचने के मार्ग, विधियां भिन्न-भिन्न हैं। ध्यान से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। प्रेम से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। मिटना तो दोनों हालत में होता है, लेकिन दोनों के मार्ग बड़े अलग-अलग हैं। ध्यान के पहले चरण पर तुम नहीं मिटते। ध्यान के पहले चरण पर तो तुममें जो गलत है उसको मिटाया जाता है, सही को बचाया जाता है। अशुभ को मिटाया जाता है, शुभ को बचाया जाता है। अशुद्धि जलाई जाती है, शुद्धि बचाई जाती है। तो ज्ञान के मार्ग पर या ध्यान के मार्ग पर व्यक्ति शुद्ध होने लगता है। मिटता नहीं, परिशुद्ध होता है, लेकिन बचता है। आखिरी छलांग में परिशुद्धि ऐसी जगह आ जाती है, जहां शुद्धता भी अशुद्धि मालूम होने लगती है। जहां होना मात्र अशुद्धि मालूम होती है, वहां आखिरी छलांग में ध्यानी अपने को बुझा देता है। भक्त पहले कदम पर बुझाता है। वह इसका हिसाब नहीं करता - अच्छा और बुरा। तो भक्ति छलांग है और ध्यान क्रमिक विकास है। ध्यान एक-एक कदम, धीरे-धीरे चलता है; आहिस्ता-आहिस्ता । भक्ति बिलकुल पागलपन है। वह एकदम छलांग लगा लेती है। ध्यानी ऐसे है, जैसे सीढ़ियों से उतरता है छत से - एक - एक कदम, सम्हल - सम्हलकर । सम्हलना ध्यान का सूत्र है— सावधानी | भक्त ऐसा है, छत से छलांग लगा देता है। फिक्र ही छोड़ता है हाथ-पैर टूटेंगे, बचेंगे, मरेंगे, क्या होगा। वह छलांग लगा देता है। उसकी श्रद्धा आत्यंतिक है। वह कहता है, उसे बचाना है वह बचा ही लेगा । जाको राखे साइयां। उसे नहीं बचाना है तो तुम सीढ़ियों पर भी सम्हल - सम्हलकर चलो तो भी मर जाओगे, तो भी मिट जाओगे। तो. भक्त तो छलांग लगाता है—एक ही कदम। फिर एक कदम के बाद उसे कुछ करना नहीं पड़ता। फिर तो जमीन का 583 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 जिन सूत्र भाग: 2 गुरुत्वाकर्षण खींच लेता है। ऐसा थोड़े ही कि तुमने एक कदम छलांग लगाई, फिर तुम पूछते हो अब हम क्या करें छलांग लगाकर ? पूछने का मौका ही नहीं है । गए! एक कदम तुमने उठाया कि जमीन खींचने लगती है। एक कदम तुम न उठाते तो जमीन की कशिश के लिए तुम उपलब्ध न थे। एक कदम उठाया कि जमीन की कशिश काम करने लगी। तो भक्ति का शास्त्र कहता है कि तुम छलांग लो, फिर परमात्मा की कशिश बाकी काम कर देती है। तुम छोड़ो, वही कर लेगा । ध्यानी कहता है, हम छोड़ न पाएंगे ऐसे। हम तो जो गलत है बैलगाड़ी का क्या हुआ ? उसे छोड़ेंगे। पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं ? तो तुम्हें सोचना है अपने भीतर कि तुम्हें कौन-सी बात ठीक लगती है। अगर पागल होने की हिम्मत है तो भक्ति । अगर तर्क बहुत प्रगाढ़ है, सोच-विचार काफी निखरा हुआ है, बुद्धि बलशाली है तो भक्ति तुम्हारे काम की नहीं। घबड़ाहाट कोई भी नहीं है। पहुंचोगे तो वहीं जब तुम सीढ़ियां उतर रहे हो तब भी कशिश ही तुम्हें खींच रही है। तुम धीरे-धीरे उतर रहे हो, बस इतनी ही बात है। भक्त तेजी से जा रहा है, तीर की तरह जा रहा है। तुम आहिस्ता-आहिस्ता जा रहे हो, एक-एक कदम जा रहे हो। जब तुम एक कदम उतरते हो सीढ़ी से तब भी कशिश ही तुम्हें खींचती है। लेकिन तुम एक कदम उतरते हो, फिर दूसरा कदम उतरते हो। तुम पर निर्भर है। और जल्दबाजी में ऐसा मत करना, यह मत सोचना कि चलो यह सीधा मार्ग है भक्ति का; छलांग लगा जाओ। अगर तुम्हारे मन में यह न जंचे तो छलांग लगेगी ही नहीं । तो अपने मन को पहचानना । तुम्हें जो ठीक लगे वही तुम्हारे लिए ठीक है। और सदा ध्यान रखना जो तुम्हारे लिए ठीक है, वह जरूरी नहीं कि सभी के लिए ठीक हो । जो दूसरे के लिए ठीक है वह तुम्हारे लिए गैर-ठीक हो सकता है। जो दूसरे के लिए अमृत है, तुम्हारे लिए जहर हो सकता है। मृत्यु तो एक ही है। मृत्यु दो नहीं हैं। अंतिम परिणाम तो एक ही है, लेकिन चलनेवाले दो ढंग के हैं। कुछ हैं, जो होशियारी से चलते हैं, सम्हल-सम्हलकर चलते हैं। रास्ते पर देखा, कोई आदमी सम्हलकर चलता है। और शराबी को देखा, डावांडोल चलता है। भक्त तो शराबी जैसा है। उसने तो भक्ति की सुरा पी ली। अब वह डांवाडोल चलता है। अब गिर जाए, तो उसे फिकर नहीं । न पहुंच पाए तो उसे फिकर नहीं । तुमने कभी एक मजे की घटना देखी है? शराबी गिर जाता है रास्ते पर, हाथ-पैर नहीं टूटते । तुम जरा गिरो ! एक बैलगाड़ी में दो आदमी बैठे थे - एक शराबी शराब पीए और एक आदमी पूरे होश में। बैलगाड़ी उलट गई। जो होश में था, उसके हाथ-पैर टूट गए। जो शराबी था उसको पता ही नहीं चला। जब उसने सुबह आंख खोली तो उसने कहा, अरे ! 2010_03 तुमने देखा, कभी-कभी छोटे बच्चे गिर पड़ते हैं छत से, चोट नहीं खाते। बड़ा आदमी गिरे तो जरूर चोट खाता है। क्या कारण होगा? शराबी जब गिरता है तो उसे पता ही नहीं चलता कि गिर रहे हैं। गिरने का पता चले तो आदमी रोकता है। रोके तो विरोध खड़ा होता है, प्रतिरोध होता है। जब होशवाला आदमी गिरता है तो वह सब तरह से अपने को रोकता है कि गिर न जाऊं। जमीन खींच रही है नीचे, वह खींच रहा है, सम्हाल रहा है अपने को जमीन के विपरीत। तो दोहरी शक्तियों में विरोध होता है । उसी में हड्डियां टूट जाती हैं। शराबियों को गिरते देखकर और चोट लगते न देखकर चीन और जापान एक विशेष कला विकसित हुई, उसका नाम है ज्युदो, जुजुत्सु । यह देखकर कि शराबी गिरता है रोज । पड़े हैं। नाली में। फिर सुबह उठकर घर जाते हैं, फिर नहा-धोकर फिर चले दफ्तर । न उनकी हड्डी-पसली टूटी, न कहीं कुछ है। तुम सुबह पहचान भी नहीं सकते कि ये रातभर सड़क पर रहे हैं। सुबह बिलकुल ठीक मालूम पड़ते हैं । तुम तो गिरो इतना ! बच्चा रोज गिरता है, दिनभर गिरता है घर में। मां-बाप तो गिरें; फौरन हड्डी-पसली टूट जाएगी। अभी अमरीका में उन्होंने एक प्रयोग किया हार्वर्ड युनिवर्सिटी में कि एक बड़े पहलवान को, बड़े शक्तिशाली आदमी को एक छोटे बच्चे की नकल करने को कहा। आठ घंटे बच्चा जो करे वह तुम करो। वह आदमी सोचता था, मैं शक्तिशाली आदमी हूं, गुजर जाऊंगा। काफी, हजारों डालर मिलनेवाले थे। चार घंटे में चारों खाने चित्त हो गया। क्योंकि वह बच्चा कभी गिरे तो अब उसको गिरना पड़े। यह बड़ी झंझट की बात । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बच्चा... . बच्चे को आनंद आ गया। उसने कहा कि यह मेरी नकल कर रहा है। तो वह और जोर-जोर से करने लगा । चार घंटे में वह जो पहलवान था, उसने कहा माफी करो। वे हजारों डालर रखो अपने। यह तो हमारी जान ले लेगा। आठ घंटे में हम मर ही जाएंगे। क्योंकि उचकता, कूदता, चिल्लाता, चीखता । और जो वह करे, वही उसे करना है। मनोवैज्ञानिक प्रयोग करके देख रहे थे कि छोटे बच्चे में कितनी ऊर्जा है, फिर भी थकता नहीं । कारण क्या होगा ? छोटा बच्चा अभी अपने को सम्हालता नहीं। अभी जो घटता है, उसके साथ लेता है। अगर बच्चा गिरता है, तो वह गिरने में सहयोग करता है। तुम गिरते हो तो विरोध करते हो। तुम्हारे विरोध के कारण हड्डी टूट जाती है। हड्डी गिरने के कारण नहीं टूटती । हड्डी तुम्हारे विरोध के कारण टूटती है। अगर तुम गिरने में साथ हो जाओ, अगर जब तुम गिरने लगो तो गिरने से तुम्हारे बचने की कोई आकांक्षा न हो, तुम गिरने के साथ सहयोग कर लो, तुम गिरने से एक कदम आगे गिर जाओ, तुम कहो, लो राजी; तो चोट न खाओगे। तो तुम ऐसे गिर जाओगे... बिना किसी प्रतिरोध के । तुम पृथ्वी की गोद में गिर जाओगे। चोट न खाओगे । शराबी चोट नहीं खाता। ऐसे ही भक्त भी चोट नहीं खाता। वह गिरता है; बड़ी ऊंची छलांग है उसकी। मगर वह शराबी है। उसने प्रेमरस पीया है। उसने प्रेम की सुरा पी ली। मगर तुम अगर नहीं हो शराबी और तुम्हारा स्वभाव वैसा नहीं है तो करना मत। तुम अपनी सीढ़ियां उतरना । छोटी-छोटी सीढ़ियां - सीढ़ियां बनाकर उतरना । कोई जल्दी भी नहीं है क्योंकि दोनों तरह से लोग पहुंच जाते हैं। तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम इसमें से एक को अपनी स्वभाव की प्रकृति की अनुकूलता बिना देखे चुन लो। इसलिए मैं भक्ति की भी बात करता हूं, ध्यान की भी बात करता हूं। मैं दोनों की बात करता हूं क्योंकि तुममें दोनों तरह के लोग हैं। अंतिम घटना तो एक है, लेकिन उस तक पहुंचने के रास्ते बड़े भिन्न हैं। अगर तुम्हें विचार की बड़ी पकड़ है तो तुम ध्यान से चलो। अगर तुम्हारा हृदय खुला है, तुम छोटे बच्चे हो सकते हो, या कि तुम स्त्रैण हो सकते हो, तुम प्रेम बहा सकते हो और प्रेम में बह 2010_03 रसमयता और एकाग्रता सकते हो बिना शर्त लगाए, तो फिर प्रेम के मार्ग से उतरो । मिटोगे तो दोनों हालत में क्योंकि जब तक तुम न मिटोगे, तब तक परमात्मा न हो सकेगा। और जिस दिन तुम मिटोगे उस दिन तुम्हें चाहे पता न भी चले कि तुम मिट गए हो, सारी दुनिया को पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। जिनके पास भी आंखें हैं उन्हें पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। तुम्हारा शून्य बड़ा मुखर होता है ! शून्य बड़ा संगीतपूर्ण होता है। शून्य का सन्नाटा सुनाई पड़ने लगता है। जो लोग भी मिट गए हैं, उनके पास लोग भागे चले आते हैं, खिंचे चले आते हैं। समझ में भी नहीं आता कि क्या आकर्षण है। आकर्षण इतना ही है कि जहां कोई मिट गया वहां शून्य पैदा हो गया। वैज्ञानिकों से पूछो, हवा चलती है, क्यों चलती है ? यह हवा अभी चल रही है, यह गुलमोहर का वृक्ष कंप रहा है। यह हवा क्यों चल रही है? तो वैज्ञानिक कहते हैं, हवा के चलने का एक कारण है, एक ही कारण है। जब कहीं जोर की गर्मी पड़ती है तो वहां की हवा विरल हो जाती है। वहां शून्य पैदा हो जाता उस शून्य को भरने के लिए आसपास की हवा दौड़ने लगती है । क्योंकि शून्य को प्रकृति बर्दाश्त नहीं करती । उसको भरना पड़ता है । आसपास की हवा उस शून्य को भरने के लिए दौड़ती है, इसलिए हवा चलती है। इसलिए गर्मी में बवंडर उठते हैं, तूफान उठते हैं। क्योंकि शून्य पैदा हो जाता है। सूरज की गर्मी के कारण हवा विरल हो जाती है, फैल जाती है। जगह खाली हो जाती है। उसे भरने हवा आती है। ठीक ऐसा ही परमात्मा के आत्यंतिक लोक में भी घटता है। जब कोई व्यक्ति मिट जाता है, खाली हो जाता, तो प्रकृति या परमात्मा शून्य को बर्दाश्त नहीं करता । उस शून्य को भरने के लिए चेतना की लहरें चल पड़ती हैं। तुम चेतना की लहरों की तरह यहां आ गए हो। जहां कहीं कोई व्यक्ति मिटा कि चेतनाएं उस तरफ सरकने लगती हैं। ऐसा व्यक्ति हिमालय पर बैठा हो तो लोग वहां रास्ता खोजते हुए, पगडंडियां बनाते हुए पहुंच जाते हैं। जाना ही पड़ेगा। शून्य को परमात्मा बर्दाश्त नहीं करता। उसे भरना ही पड़ेगा। जहां गुरु पैदा होगा वहां शिष्य आते चले जाते हैं । के होने गुरु एक ही अर्थ है, जहां शून्य पैदा हुआ। 585 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है प्रेम तुम्हारे जीवन में घटेगा, पता भी नहीं चलेगा तुम्हें किसी और को भी शायद पता न चले, फिर भी सबको पता चल जाएगा। और ऐसा भी पता चलता रहता है कि मालूम नहीं हो रहा है। किसी को मालूम नहीं हो रहा है। लेकिन चुपचुप, गुपचुप, हृदय से हृदय तक खबर पहुंच जाती है। मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है और मृत्यु तो मोहब्बत की आखिरी घड़ी है। वह तो चरमोत्कर्ष, वह तो आखिरी उत्कर्ष, वह तो चरम स्थिति है। जहां कोई व्यक्ति बिलकुल शून्य हो जाता है, सब तरफ से परमात्मा दौड़ पड़ता है अनेक-अनेक रूपों में उसे भरने को।। इसी को हिंदू अवतरण कहते हैं। यह परमात्मा का दौड़कर किसी को भर देना अवरतण है-उतर आना। कोई खाली हो गया. परमात्मा दौड़ा उसे भरने को। ध्यानी को भी भरता है. प्रेमी को भी भरता है। लेकिन भरता तभी है, जब तुम मिटते हो। अपने को बचाना मत। कोई भी मार्ग खोजो। अपने को मिटाने का मार्ग खोजो। संसार है अपने को बचाने की चेष्टा; धर्म है अपने को मिटाने का साहस। आज इतना ही। 586 2010_03 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां प्रवचन त्रिगुप्ति और मुक्ति 2010_03 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहा महातलायस्स सन्निरुद्धे जलागमे। उस्सिचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे।। एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्मं, तवसा निज्जरिज्जइ।।१५२।। Namal ORANE RER तवसा चेव ण मोक्खो संवरहीणस्स होई जिणवयणे। ण हु सोत्ते पविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं।।१५३।। ज अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं बासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं।। सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई। एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए।।१५४।। ANNE सव्वे सरा नियटुंति, तक्का जत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने।।१५५।। . Lim 2 . 5 . 5 . GANN 3 2010_03 www.jainelibrary org Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OT म के दो रूप संभव हैं: एक विज्ञान जैसा, एक | कुछ ऐसा है, जो भक्त के भीतर प्रगट होगा। व काव्य जैसा। जीवन को देखने के दो ही ढंग हैं, दो | भक्त बीज है भगवान का। ही ढंग हो सकते हैं या तो कवि की आंख से. या तो जब बीज खिलता है. फलता है तो ऐसा थोडे ही कि बीज वैज्ञानिक की आंख से। दोनों सही हैं। दोनों में कोई ऊंचा-नीचा अपने खिले हुए फूलों को देखता है; बीज तो खो गया होता है। नहीं है, पर दोनों बड़े विपरीत हैं। खिले फूल होते हैं। बीज का और वृक्ष का कभी मिलना थोड़े ही जो काव्य की दृष्टि से सही है, वही विज्ञान की दृष्टि से होता है। जब तक बीज है तब तक वृक्ष नहीं है, जब वृक्ष है तब कल्पना मात्र मालूम होता है। जो विज्ञान की दृष्टि से सही है, बीज जा चुका। वही काव्य की दृष्टि से अत्यंत रूखा-सूखा, गणित और तर्क तो भगवान का दर्शन, ऐसी कोई चीज महावीर के साथ संभव मालूम होता है। जो विज्ञान की दृष्टि से सत्य है वह काव्य की नहीं है। भक्त ही अपनी परमशुद्ध अवस्था में भगवान हो जाता दृष्टि से मुर्दा मालूम होता है। और जो काव्य की दृष्टि से सत्य है। इसलिए पूजा किसकी? अर्चना किसकी? दीये किसके है वह विज्ञान की दृष्टि से केवल सपना मालूम होता है। नाम पर जलें? यज्ञ, हवन किसका हो? इसे अगर खयाल रखा तो बड़ी सुगमता होगी। महावीर का महावीर मनुष्य-जाति के उन थोड़े-से प्राथमिक अग्रणी लोगों जीवन को देखने का ढंग वैज्ञानिक का ढंग है। वे ऐसे देखते हैं, में से हैं, जिन्होंने धर्म को विज्ञान की शक्ल दी; जिन्होंने धर्म को जैसे वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में निरीक्षण करता है। उनकी गणित का आधार दिया। जो-जो कल्पना-पूर्ण था वह अलग दृष्टि में काव्य बिलकुल नहीं है। इसलिए भक्ति का कोई उपाय | कर लिया। महावीर के साथ नहीं है। प्रार्थना का, पूजा का कोई उपाय | ध्यान रखना, जब मैं कह रहा हूं कल्पनापूर्ण, तो मैं नहीं कह महावीर के साथ नहीं है। रहा हूं असत्य, क्योंकि मेरे लिए भक्त भी उतने ही सच हैं, नारद और जिन्होंने महावीर के साथ पूजा और प्रार्थना जोड़ ली, भी उतने ही सत्य हैं और चैतन्य भी और मीरा भी। ये देखने के उन्होंने बड़ा अन्याय किया है। महावीर के साथ तो परमात्मा दो ढंग हैं। शब्द का भी कोई अर्थ नहीं है। महावीर के लिए तो परमात्मा भी एक वैज्ञानिक वक्ष के पास आए तो उसे सौंदर्य दिखाई नहीं आदमी का कल्पनाजाल है। आत्मा ही सब कुछ है। आत्मा की पड़ता, इसलिए नहीं कि सौंदर्य नहीं है। वृक्ष हरा है, फूल से भरा ही श्रेष्ठतम दशा को उन्होंने परमात्मा कहा है। परमात्मा कहीं है है; सूरज की रोशनी में नाचती उसकी पत्तियां हैं, हवाओं के नहीं, जिसे हमें खोजना है। परमात्मा हमें होना है। परमात्मा झोंकों में प्रफुल्लित मग्न खड़ा है। लेकिन वैज्ञानिक को कुछ भी ऐसा कुछ नहीं है, जो भक्त के सामने खड़ा हो जाएगा। परमात्मा यह दिखाई नहीं पड़ता। वैज्ञानिक को दिखाई पड़ता है वृक्ष का 591 ___ 2010_03 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 592 जिन सूत्र भाग: 2 विज्ञान – वनस्पति-विज्ञान | उसे दिखाई पड़ता है वृक्ष किन तत्वों से बना है। उसे दिखाई पड़ता है किन-किन खनिज से मिलकर बना है। पृथ्वी ने क्या-क्या दिया, हवा-पानी से क्या मिला, आकाश- सूरज ने क्या दिया। वैज्ञानिक को दिखाई पड़ता है, यह वृक्ष कैसे निर्मित हुआ है। कैसे इसका सृजन हुआ है। किन चीजों के तालमेल से यह घटना घटी। कवि भी उसी वृक्ष के नीचे आता है। उसे इस सबकी कुछ भी याद नहीं आती। नहीं कि जो वैज्ञानिक कहता है वह गलत है। उसे खनिज, रसायन, पदार्थ, जिनसे बना है वृक्ष, उनका कोई भी बोध नहीं होता। उसे कुछ और ही बोध होता है। उसे दिखाई पड़ती हैं सूरज की किरणें वृक्ष की पत्तियों पर नाचतीं। उसे एक सौंदर्य का, एक अपूर्व सौंदर्य का अनुभव होता है—ऐसा कि वह खुद भी नाच उठे। हवा के गुजरते हुए झोंके उसे किसी और ही लोक की खबर और संदेश दे जाते हैं। वह गुनगुनाने लगता है। वैज्ञानिक गंभीर हो जाता है । सोचने लगता है, विचारने लगता है, विश्लेषण करने लगता है । कवि गुनगुनाने लगता है। गंभीर रहा हो तो गंभीरता गिरा देता है, नाचने लगता है। दोनों सच हैं। सत्य इतना बड़ा है कि दोनों सच हो सकते हैं, साथ-साथ सच हो सकते हैं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना । बहुत कंजूसी हुई है इसलिए इसे मैं कहता हूं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना। ऐसा मत कहना कि मेरी दृष्टि जहां पूरी होती है वहां सत्य पूरा हो जाता है। तुम्हारी दृष्टि की सीमा है, सत्य की कोई सीमा नहीं। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी को भी समा लेता है। सत्य इतना विराट है कि विरोधाभास भी संयुक्त हो जाते हैं, परिपूरक हो जाते हैं। अमरीका के बड़े महत्वपूर्ण कवि वाल्ट ह्विटमेन से किसी ने | कहा, तुम्हारी कविताओं में बड़े विरोध हैं, बड़े विरोधाभास हैं, कंट्राडिक्शन हैं। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं दूसरी बात कहते हो। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं ठीक उससे उल्टी बात कहते हो । पता है वाल्ट ह्विटमेन ने क्या कहा ? वाल्ट ह्विटमेन ने कहा, मैं बहुत विराट हूं । मेरे भीतर सभी विरोध सम जाते हैं और परिपूरक हो जाते हैं। सत्य बड़ा विराट है। उसमें विज्ञान भी समा जाता है, उसमें काव्य भी समा जाता है। उसमें सारे तथ्य भी समा जाते हैं और सारी कल्पनाएं भी समा जाती हैं। उसमें गणित और तर्क भी समा जाता है। उसमें रस और भक्ति और प्रेम भी समा जाता है। जब हम भक्ति की तरह देखते हैं तो हम कुछ चुनते हैं। और जब हम तर्क की तरह देखते हैं तब भी हम कुछ चुनते हैं। जो भी हम देखते हैं वह हमारा चुनाव है। इसका महावीर को बोध था। इसलिए महावीर ने अपनी दृष्टि तो कही, साथ ही यह भी कहा कि यह दृष्टि मात्र है। और सभी दृष्टियों से जो पार हो जाता है, वही परम सत्य को जान पाता है। जो न वैज्ञानिक रह गया, न कवि रह गया । जिसके पास अपने देखने का कोई पक्षपात नहीं, कोई चश्मा नहीं । जिसकी आंख खुली, खाली, निर्दोष, कुंआरी है। जो कुंआरी आंख से देखता है। लेकिन कुंआरी आंख से देखना बड़ा कठिन है। क्योंकि कुंआरी आंख से देखने का अर्थ है, हृदय भी सत्य जैसा विराट होना चाहिए। क्योंकि सारे विरोध समाहित करने होंगे। रात और दिन को विरोध में खड़ा न करना होगा। सुख- और दुख को विरोध में खड़ा न करना होगा। जीवन और मृत्यु को विरोध में खड़ा न करना होगा। दोनों को साथ-साथ देखना होगा, विपरीत की तरह नहीं, एक-दूसरे के परिपूरक की तरह । जैसे शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। काले ब्लैकबोर्ड पर ही लिखा जा सकता है सफेद खड़िया से । सफेद दीवाल पर लिखोगे तो दिखाई न पड़ेगा। तो काला सफेद का दुश्मन नहीं है, परिपूरक है। सफेद को उभार लाता है, सफेद को प्रगट करता है, सफेद के लिए अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना बनता है। 2010_03 दुनिया से जिस दिन कविता खो जाएगी, उस दिन विज्ञान भी खो जाएगा। जिस दिन दुनिया से विज्ञान खो जाएगा, उस दिन कविता भी खो जाएगी। वे एक-दूसरे को उभारते हैं, प्रगट करते हैं। दुनिया समृद्ध है क्योंकि अनंत अनंत दृष्टियों का यहां मेल है। दुनिया में इतने धर्म हैं, वे मनुष्य को समृद्ध करते हैं। वे अलग-अलग देखने की दृष्टियां हैं। तुम्हें जो रुचिकर लगे, तुम्हें जो भा जाए उस पर चलना । यह वचन तो ऋषि का हो गया। यह तो बड़ी सूझ का गया। लेकिन भूलकर भी ऐसा मत सोचना कि यही सत्य है, यही मात्र यह तो बड़ी अंतर्दृष्टि का हो गया। सत्य है। जिसने ऐसा सोचा, यही सत्य है, उसने अपने सत्य को Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिगुप्ति और मुक्ति असत्य कर लिया। उठा। जब भी आदमी ने जगत के सत्य की खोज करनी चाही, तो इसलिए महावीर ने स्यातवाद को जन्म दिया। स्यातवाद का उसने प्रतिमा बनाई किसी परमात्मा की-हिंदुओं का परमात्मा अर्थ होता है, मैं भी ठीक, तुम भी ठीक। मैं भी ठीक, तुम भी | है, बौद्धों का, ईसाइयों का, मुसलमानों का, जैनों का। सबकी ठीक, कोई और भी हो वह भी ठीक। जो कहा गया है वह भी दृष्टि है। दृष्टि के अनुकूल उनका परमात्मा है। ठीक, और जो अभी कहा जाएगा वह भी ठीक। जो दृष्टियां | बाइबल कहती है कि परमात्मा ने आदमी को अपनी ही शकल प्रगट हो गई हैं वे तो ठीक हैं ही, जो दृष्टियां भविष्य में प्रगट में बनाया। हालत ठीक उल्टी है। आदमी परमात्मा को अपनी होंगी वे भी ठीक हैं। | शकल में बनाता है। तुम्हारी जो शकल है वही तुम्हारे परमात्मा लेकिन सभी दृष्टियां अधूरी हैं। कोई दृष्टि पूरी नहीं है। कोई की शकल होती है। उससे अन्यथा हो भी नहीं सकती। तुम्हारी दृष्टि पूरी हो नहीं सकती। दृष्टि मात्र अधूरी है। जहां सारी शकल में ही तो तुम अपने परमात्मा को गढ़ोगे। थोड़ा सुंदर, दष्टियां शांत हो जाती हैं वहां दर्शन का जन्म होता है। लेकिन थोड़ा सजाया-संवारा, थोड़ा निखारा, भूल-चूकें काटी, लेकिन दृष्टियां तो तभी समाप्त होती हैं, जब तुम बिलकुल समाप्त हो होगी तो तुम्हारी ही शकल। थोड़ी सुंदर नाक बनाओगे, थोड़ी जाते हो। जब तक तुम हो, दृष्टि बनी रहती है। तुम्हारे देखने का सुंदर आंख बनाओगे, लेकिन होगी तो तुम्हारी ही शकल। राम ढंग प्रभावित करता रहता है। तुम हिंदू हो, तुम मुसलमान हो, हों कि कृष्ण हों, तुम्हारी ही शकल है। थोड़े सजे-संवरे! जो तुम जैन हो, तुम ईसाई हो, तो तुम्हारे देखने का ढंग प्रभावित सुंदरतम की कल्पना हो सकती थी उस कल्पना को...लेकिन वे करता रहता है। तुम जो भी देखते हो, उसे तुम रंगते जाते हो। कल्पनाएं भी बदल जाती हैं। उसे तुम अपने भाव का वस्त्र उढ़ाते जाते हो। तुम उसे अपनी हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया वेशभूषा पहनाते जाते हो। वे कल्पनाएं भी बदल जाती हैं। जब तुम बिलकुल मिट जाते हो, जब न तुम्हारे भीतर हिंदू है, न जब हमने कृष्ण की कल्पना की तो नीलवर्ण सुंदरतम वर्ण मुसलमान है, न जैन है, न ईसाई है, न आस्तिक है, न नास्तिक | समझा जाता था, इसलिए कृष्ण को हमने श्याम कहा। आज तो है: जब तम यह भी नहीं जानते कि मैं विश्वास करता है कि शायद श्याम कहने को कोई राजी न होगा. अगर नया परमात्मा अविश्वास करता हूं; जब तुमने सब धूल झाड़ दी, जब तुम बनाओ। आज अगर नया परमात्मा बनाओगे तो गौरांग होगा, बिलकुल निपट शून्य हो गए, निराकार हो गए तो दर्शन का जन्म गोरा होगा। कविता की भाषा बदल गई। उन दिनों श्याम वर्ण होता है। तब जो जाना जाता है, उसे महावीर कहते हैं, वही सत्य की बड़ी चर्चा थी, बड़ी महिमा थी। है। और वैसा सत्य ही मुक्त करता है। ऐसे श्याम वर्ण की खूबियां हैं। गोरा रंग उथला-उथला होता ये आज के सूत्र, कैसे हम उस मुक्तिदायी सत्य तक पहुचें, | है; उसमें गहराई नहीं होती। श्याम वर्ण में बड़ी गहराई होती है। कैसे उस मोक्ष को पा लें, कैसे हम सभी पक्षपातों से, सभी जालों | जैसे नदी बहुत गहरी हो तो नीली हो जाती है; उथली हो तो से छट जाएं, कैसे हमारे ऊपर से सारी सीमाएं गिर जाएं और हम सफेद रहती है। असीम हो जाएं, उसके सूत्र हैं। उस दिन की धारणा थी तो श्याम वर्ण। उस दिन की धारणा थी हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया तो हमने मोर-मुकुट पहनाया। आज किसी को मोर-मुकुट करें तो हम भी मगर किस खुदा की बात करें पहनाओगे तो कठिनाई हो जाएगी। इसलिए महावीर ने खुदा की बात ही न की। राम को हमने धनुषबाण दिया। आज धनुषबाण दोगे तो राम हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया हिंसक मालूम होंगे। हवा में अहिंसा है। बात अहिंसा की और जब भी आदमी बोला. जब भी आदमी ने सोचा तो एक नए शांति की है। आज तो कबतर देना पडेगा। उडाओ कबतर। परमात्मा को जन्म दिया। जब भी आदमी ने विचार किया तो एक आज धनुषबाण लेकर राम चलेंगे तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। नए परमात्मा को गढ़ा। एक मंदिर उठा, मस्जिद उठी, गुरुद्वारा खुद भी नहीं चल पाएंगे। साथ भी चलने में लोग झिझकेंगे कि 593 __ 2010_03 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 594 जिन सूत्र भाग: 2 धनुषबाण तो रखो महाराज ! इसे साथ लेकर चलो तो आदिवासी मालूम पड़ते हो। और फिर धनुषबाण का वक्त गया। लेकिन उस दिन शौर्य की प्रतिष्ठा थी, बल की पूजा थी, वीर्य की पूजा थी तो हमने धनुषबाण दिया था। धनुषबाण के बिना राम जंचते ही न उस दिन । उस दिन कबूतर का किसी को खयाल ही नहीं था कि शांति के कपोत उड़ाओ । वक्त बदल जाता है, खुदा की शकल बदल जाती है। समय बदल जाता है, सोचने के ढंग बदल जाते हैं, मापदंड बदल जाते हैं, धारणाएं बदल जाती हैं । तो परमात्मा का रूप हम बदलते चले जाते हैं। यहूदियों का परमात्मा बहुत क्रुद्ध है। जरा-सी बात पर नाराज जाए, जला दे, राख कर दे। ईसाइयों का परमात्मा अति दयालु है। वक्त बदल गया था। यहूदी जहां से गुजर रहे थे, वहां बड़े सख्त और कठोर परमात्मा की जरूरत थी। जहां से जीसस ने परमात्मा की कहानी को पकड़ा, वहां सख्त, कठोर |परमात्मा बेहूदा मालूम होने लगा था। थोड़ा अमानवीय मालूम होने लगा था। तो प्रेमपूर्ण परमात्मा । तो जीसस ने कहा, परमात्मा प्रेम है। ऐसी शकल बदलती जाती है। लेकिन महावीर ने कहा कि ऐसा कब तक करते रहोगे ? यह तुम अपनी ही शकल को झांककर देखते रहते हो। यह बात ही बंद करो। इसमें समय मत वाओ। परमात्मा को खोजने की फिकर ही छोड़ो। क्योंकि वह खोज में तुम अपनी ही शकल को निर्मित करते हो । बेहतर हो, तुम अपनी ही शकल के भीतर उतरो और अपने को खोज लो । यह महावीर का बुनियादी सूत्र है। परमात्मा की खोज आत्मखोज बननी चाहिए। क्योंकि तुम जो परमात्मा बनाओगे वह तुम्हारी ही प्रतिछवि होनेवाली है। इसलिए इसको बनाने में व्यर्थ जाल में मत पड़ो। यह तुम्हारा ही खिलौना होगा। तुम अपने भीतर जाओ। उसे खोजो, जिसने सारे परमात्मा बनाए उसे खोजो, जिसने सारे मंदिर निर्मित किए। उसे खोजो, जिसने सारी प्रार्थनाएं गढ़ी और रचीं। वह जो तुम्हारा चैतन्य का स्रोत है, वह जो तुम्हारा मूलाधार है, उस गंगोत्री की तरफ बहो । । अपने को जान लो । अपने को बिना जाने तुम जो भी परमात्मा के संबंध में सोचोगे, तुम्हारा अज्ञान ही प्रतिफलित होगा । यह खोज कैसे हो? और जब तक यह खोज न हो जाए तब 2010_03 तक अज्ञान के कारण बड़े उपद्रव होते हैं । परमात्मा के नाम पर लाभ तो कुछ हुआ दिखाई पड़ता नहीं, हानि बहुत हुई मालूम होती है। कितने दंगे-फसाद ! कितना खून-खराबी ! कितना रक्तपात ! सारा इतिहास धर्म के नाम पर बलात्कारों से भरा पड़ा है। मस्जिद-मंदिर ने लड़वाया ही ज्यादा आदमी काटे । सुंदर बहाने दिए गलत कामों के लिए। खूबसूरत नारे दिए वीभत्स प्रक्रियाओं को छिपा लेने के लिए। अगर हिंदू को काटो तो पुण्य हो रहा है। अगर तुम मुसलमान हो तो हिंदुओं को काटने में पुण्य है। या हिंदुओं को जबर्दस्ती मुसलमान बना लेने में पुण्य है। अगर तुम हिंदू हो तो बात बदल जाती है । अगर तुम ईसाई हो तो येन-केन-प्रकारेण कैसे भी लोगों को ईसाई बना डालो ! खरीद लो रोटी से, धन से, किसी भी उपाय से अब तक आदमी ने धर्म के नाम पर जो किया है वह धार्मिक तो नहीं मालूम होता। लेकिन यह स्वाभाविक है। आदमी जो भी करेगा उसमें आदमी की ही छाया पड़ेगी। अगर हम हिंसक हैं तो हमारा धर्म हिंसक होगा। अगर हम मांसाहारी हैं तो हमारे धर्म में मांसाहार के लिए हम कोई उपाय खोज लेंगे। अगर लड़ने की, ईर्ष्या की, जलन की वृत्ति है, तो हम अपने धर्म के आधार बना लेंगे, जिनसे हम लड़ेंगे, झगड़ेंगे। आदमी बड़ा चालाक है, बड़ा कपट से भरा है। वह जो करना चाहता है, उस के लिए अच्छे बहाने खोज लेता है। वह बहानों की आड़ में फिर सारे काम करते चला जाता है। ये मुसलसल आफतें, ये यूरसें, ये कत्ले-आम आदमी कब तक रहे औहामे-बातिल का गुलाम ये निरंतर होते धर्म के नाम पर आक्रमण, ये लगातार होते हुए अनाचार ! आदमी कब तक मिथ्या भ्रमों का शिकार रहे! अगर आज दुनिया में नई पीढ़ियां धर्म के प्रति तिरस्कार से भरी हैं तो इसका कारण नई पीढ़ियां नहीं हैं, अब तक धर्म के नाम पर जो हुआ है उसका बोध । महावीर को यह बात ढाई हजार साल पहले दिखाई पड़नी शुरू हुई कि धर्म के नाम पर जो भी हो रहा है, वह किसी दिन दुनिया में अधर्म ही लाएगा; धर्म उससे आनेवाला नहीं है। इसलिए महावीर ने कुछ सीधी-सीधी बातें कहीं, जिनका मंदिर और मस्जिद, कुरान और बाइबल से कोई लेना देना नहीं। कुछ छोटे-से सूत्र प्रगट किए, जो मनुष्य के Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रिगुप्ति और मुक्ति अंतर्जीवन में जाने का विज्ञान बन सकते हैं-कैसे तुम अपने न रह जाए। भीतर जाओ और कैसे तुम अपने को परिशुद्ध कर लो। फिर तुम तो तीन काम महावीर कहते हैं। पहला तो मूलस्रोत को रोक जो भी करोगे वह धार्मिक होगा। इसको खयाल में लेना। दो। दूसरा, जो है उसे उलीचो। तीसरा, सूरज की खुली रोशनी आमतौर से कहा जाता है, तुम धार्मिक हो जाओ, फिर तुम जो को मौका दो ताकि कहीं भी छिपा हुआ, भूमि में दबा हुआ कुछ न भी करोगे वह शुभ होगा। महावीर ने कहा, पहले तुम शुभ हो रह जाए। सब सूख जाए। जाओ. फिर तम जो करोगे वह धार्मिक होगा। इन बातों में बड़ा मनष्य तालाब जैसा है। अनंत-अनंत जन्मों के कर्म भरे पडे फर्क है। हैं। न मालूम कितनी बुराइयां की हैं, न मालूम कितने धोखे दिए हम लोगों को कहते हैं, पहले मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना हैं, न मालूम कितने पाप, न मालूम कितने अशुभ, न मालूम करो, फिर तुम धीरे-धीरे शुभ हो जाओगे। शुभ होने का मार्ग ही कितनी वासनाएं की हैं, आकांक्षाएं की हैं। लोभ, काम, यही है। लेकिन वह जो अशुभ आदमी मंदिर जाएगा, वह मंदिर | क्रोध-वह सब भरा हुआ पड़ा है। को अशुभ कर आएगा। मंदिर उसे शुभ न कर पाएगा। मंदिर तो अब इससे छुटकारा पाना है। इस हृदय की भूमि को मुक्त जड़ है; आदमी को न बदल सकेगा। आदमी मंदिर को बदल करना है। तो पहली बात, स्रोत रोको। देता है। बहुत से लोग हैं, जो यह करना चाहते हैं लेकिन स्रोत नहीं इसलिए महावीर कहते हैं, पहले तुम शुभ होने लगो, फिर तुम रोकते। तो इधर एक हाथ से वे कोशिश भी करते रहते हैं और जहां जाओगे वहीं मंदिर होगा। यह सूत्र समझना। दूसरे हाथ से मिटाते भी चले जाते हैं। _ 'जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बंद करने | तुमने भी बहुत बार सोचा होगा कि जीवन में शुभ का अवतरण से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः | हो, सत्य का पदार्पण हो, मंगल की वर्षा हो, हम भी कुछ सूख जाता है, वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म, दिव्यता में जीएं। तो कभी-कभी तुमने थोड़ी चेष्टा भी की है। पापकर्म के प्रवेश-मार्ग को रोक देने पर, तथा तप से निर्जरा को कुछ अच्छा करें; दान करें, पुण्य करें, सेवा करें; कर्तव्य को प्राप्त होता है, नष्ट होता है।' निभाएं। यह तुमने थोड़ी-बहुत कोशिश भी की है, लेकिन तुम महावीर कहते हैं, एक तालाब भरा है, इसे हमें सुखा लेना है। जल्दी थक जाते हो। जल्दी ही पाते हो, यह हो नहीं पाता। हम चाहते हैं कि जमीन वापस मिल जाए। इस तालाब को हम क्यों? क्योंकि मूल वृत्ति तो टूटती नहीं। मूल धारा तो बहती समाप्त करना चाहते हैं। तो हम क्या करेंगे? चली जाती है। वह नदी तो गिर रही है, वह तो गिरती ही रहती तीन काम करने जरूरी हैं। एक सबसे बुनियादी, कि इस है। थोड़ा-बहुत उलीचते हो। दान किया तो थोड़ा उलीचा। दान तालाब में आने का जो जलस्रोत है, वह रोक दिया जाए। अगर यानी थोड़ा दिया। मगर इससे क्या होगा? आदमी लाख इस तालाब में जल के झरने पड़ते ही रहे तो हम उलीचते भी रहे | कमाता है तो हजार का दान कर देता है। लाख कमाता तभी तो पागलपन होगा। तुम उलीचते रहोगे और नए जल के झरने | हजार का दान करता है; नहीं तो करता ही नहीं। पानी को भरते रहेंगे। दान का मौलिक अर्थ यह है कि तुम परिग्रह मत करो। लेकिन इसलिए जो प्राथमिक, वैज्ञानिक कदम होगा वह यह कि पहले । दान वही करता है जिसके पास काफी आ रहा है। और वह जल के आनेवाले झरनों को रोक दो। सोचता है, अब करें भी क्या? थोड़ा दान भी कर लें? एक हाथ दूसरा काम होगा, जो भरा हुआ जल है, वह जल के झरने से दान करता है लेकिन दान भी ऐसी जगह करता है, इस ढंग से रोकने से नहीं समाप्त हो जाएगा, उसे उलीचो। करता है कि आगे और आने का इंतजाम हो जाए। तो राजनेताओं और उलीचने से भी परा साफ न हो जाएगा। सर्य के ताप को दान दे देता है, राजनैतिक पार्टियों को दान दे देता है। दान का को...सूर्य के ताप की भी सहायता लेनी होगी, ताकि कहीं भी मजा भी ले लिया और नए लाइसेंस का इंतजाम भी कर लिया। पड़ा न रह जाए। जमीन बिलकुल सूख जाए। जमीन में दबा भी | मूल स्रोत खुला रहता है। मूल धारा गिरती चली जाती है। 595 ___ 2010_03 www.jainelibrary org Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 उसमें से थोड़ा-थोड़ा बांटता भी है। तो दानी होने का मजा भी ले बजाईं कि चलो, एक भव्य जीव और पैदा हुआ। तुमने कसम ले लेता है, लेकिन कभी परिग्रह से मुक्त नहीं हो पाता। ली। तुमने प्रतिज्ञा ले ली। तुमने कहा कि मैं अब कभी क्रोध न तो पहले तो लोभ की वृत्ति को ही तोड़ देना पड़े। दान जिसे करूंगा। या ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया। करना है उसे पहले लोभ छोड़ देना पड़े। दान जिसे करना है, लेकिन यह कोई व्रत से हल होनेवाली बात है? इतना सस्ता पहले उसे वह जो लोभ की मूर्छा है, वह त्याग देनी पड़े। मामला है? तो तुम क्रोध के विज्ञान को समझ ही नहीं रहे। जो ...वैसे ही संयमी का करोडों भवों में संचित कर्म पापकर्म के क्रोध के विज्ञान का मौलिक आधार है वही भर रहा है इस प्रतिज्ञा प्रवेशमार्ग को रोक देने पर तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है, से भी। तुम्हारे अहंकार को मजा आ रहा है, रस आ रहा है। नष्ट होता है।' | इसीलिए तो लोग त्यागी-तपस्वियों की खुब प्रशंसा करते हैं। तो पहले तो हमें अपने पापकर्म कहां से उदय होते हैं, इसकी रथयात्रा निकाल देते हैं, शोभायात्रा निकाल देते हैं। बैंडबाजे के तलाश करनी चाहिए। साथ त्यागी का स्वागत कर देते हैं। अब यह जो त्यागी है, मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं, कि आपके सामने हम इसका अहंकार फुसलाया जा रहा है। इसका प्रभाव बढ़ रहा है। कसम लेते हैं कि हम क्रोध न करेंगे। मैं उनसे कहता हूं, तुम इसकी अस्मिता प्रगाढ़ हो रही है। और अस्मिता ही सारे रोगों का कसम तो लेते हो, यह उलीचना तो हआ. लेकिन अब तक तम कारण है। वह अहंकार ही सारे लोगों का कारण है। क्रोध करते क्यों रहे? जब तक तुम उसका मूल न खोजोगे, तो जरा त्यागी का तुम अपमान करके देखना, तब पता तुम्हारी कसम से थोड़े ही कुछ होगा? यह हो सकता है कसम से | चलेगा। संसारी तो शायद तुम धक्का-मुक्का दे दो, उसके पैर तुम दबाने लगो, रोकने लगो, क्रोध को प्रगट न करो। लेकिन पर पैर रख दो तो कहेगा, चलता ही रहता है। संसार में यह होता क्रोध पैदा नहीं होगा ऐसा कैसे संभव है? कसम के न लेने से ही रहता है। जरा त्यागी के पैर पर पैर पड़ जाए, तब अड़चन हो थोड़े ही पैदा हो रहा था, जो कसम के लेने से रुक जाएगा। क्रोध जाएगी। तुम जैसा त्यागी को क्रोधी पाओगे वैसा तुम संसारी को पैदा होता था किसी कारण से। उस कारण को खोजो। क्रोधी न पाओगे। घर में एक आदमी धार्मिक होने लगे तो घर भर क्यों क्रोध पैदा होता है? अहंकार को चोट लगती है तो क्रोध परेशान हो जाता है। पैदा होता है। तुम्हारी प्रतिमा को कोई नीचे गिराता है तो क्रोध | तुम सभी को अनुभव होगा। एकाध घर में कोई उपद्रवी हुआ पैदा होता है। तुम समझते हो अपने को जैसा, वैसा कोई नहीं और धार्मिक हो गया...। अब वे पूजा कर रहे हैं तो घर में कोई होता है। और जब तक अहंकार है भीतर, आवाज नहीं कर सकता, बच्चे खेल नहीं सकते, रेडियो नहीं अहंकार का घाव है भीतर, तब तक क्रोध होता ही रहेगा। तुम | चलाया जा सकता। उनके ध्यान में बाधा पड़ती है। वह सारे घर लाख कसमें खाओ। का दमन करने लगता है। वे भोजन करने बैठे हैं तो, वे अब मजे की बात यह है कि अक्सर लोग अहंकार के कारण ही | चलें-उठे-बैठे तो। कसम भी खा लेते हैं। इस मनुष्य के जाल को समझना। मंदिर | तुम कभी किसी त्यागी के साथ रहे हो? त्यागी को दूर से में गए, मुनि के पास गए, साधु के पास गए, वहां भीड़ भरी है। देखना सुख। त्यागी के पास रहो, तुम भाग खड़े होओगे। वहां कोई कसम खा रहा है कि अब मैं प्रतिज्ञा लेता हूं, अणुव्रत क्योंकि वहां हर चीज बंधी-बंधी मालूम पड़ेगी। तुम भी बंधे हुए लेता है कि अब कभी क्रोध न करूंगा। लोग ताली बजा रहे हैं। मालूम पड़ोगे। त्यागी बड़ा बोझरूप हो जाएगा। उसका लोग कह रहे हैं, धन्यभागी है। कितना भव्य जीव! तुम्हारे अहंकार पत्थर की तरह है। वह तुम्हारी छाती पर लटक अहंकार को भी फुरफुरी लगी। जाएगा। होना तो उल्टा चाहिए था कि त्यागी विनम्र हो जाता, तमने कहा, अरे। यह आदमी भव्य जीव हआ जा रहा है। हम कि त्यागी के साथ रहना आनंद और सौभाग्य हो जाता, कि बैठे यहां क्या कर रहे हैं? तुम भी खड़े हो गए। तुम्हें पक्का पता | उसके पास थोड़ी देर रहने को मिल जाता तो तुम्हारे जीवन में भी भी नहीं तुम क्यों खड़े हो गए हो! लेकिन लोगों ने और तालियां फूल खिलते। मगर ऐसा होता नहीं। लोग त्यागियों को 596 2010_03 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिगुप्ति और मुक्ति सूखता।' नमस्कार करके बच निकलते हैं। वह नमस्कार भी बच निकलने | जागकर देखना कि क्रोध उठता कैसे है। यह सीधी बात है। की तरकीब है कि महाराज! आप यहां ठीक, हम अपनी जगह | बुद्ध एक दिन सुबह-सुबह अपने भिक्षुओं के बीच आए, ठीक। अब आप मिल गए तो पैर छूए लेते हैं। और करें भी | बैठे; और उन्होंने एक रूमाल हाथ में लिया हुआ था, उसमें एक क्या? मगर आपने महान त्याग किया है। गांठ बांधी, दूसरी गांठ बांधी, पांच गांठे बांधीं। भिक्षु देखते रहे खयाल रखना, आदमी को क्रोध आता है अहंकार पर चोट चौंककर कि मामला क्या है? ऐसा उन्होंने कभी किया न था। लगने से। और क्रोध त्याग की भी वह चेष्टा करता है अहंकार फिर उन्होंने पूछा कि भिक्षुओ, इस रूमाल में पांच गांठें लग को ही भरने के लिए। तो मूल रोग तो जारी रहता है। आदमी को गईं। तुमने दोनों हालतें देखीं, जब इसमें कोई गांठ न थी और | लोभ है, मद है, मत्सर है मूर्छा के कारण। उसे होश नहीं कि मैं अब जब कि गांठ लग गई। क्या यह रूमाल दूसरा है या वही | कौन हूं। इसी बेहोशी में वह कसमें भी लेता है, संसार भी त्याग | है? गांठ से शून्य और गांठ लगे रूमाल में कोई फर्क है या यह देता है। हिमालय चला जाता है। लेकिन बेहोशी तो छूटती वही है? नहीं। बेहोशी अपनी जगह बनी है। एक भिक्षु ने कहा कि महाराज! आप झंझट में डालते हैं। एक तो महावीर कहते हैं, 'यह जिनवचन है कि संवरविहीन मुनि अर्थ में तो यह रूमाल वही है। गांठ जरूर लग गईं लेकिन को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के रूमाल तो वही का वही है। और दूसरे अर्थ में रूमाल वही नहीं आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं है क्योंकि पहले रूमाल में गांठें नहीं थीं। वह गांठमुक्त था, इसमें गांठे हैं। 'संवरविहीन मुनि...।' बुद्ध ने कहा, ऐसा ही आदमी है। आदमी परमात्मा ही है, बस जिसने मूल स्रोत को नहीं रोका है। जिसमें आने का मार्ग तो | गांठें लग गई हैं। फर्क इतना ही है जितना गांठ लगे रूमाल में खुला ही हुआ है और जो थोड़े-बहुत उलीचने में लग गया है। और गैर-गांठ लगे रूमाल में है! दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। तुम एक नाव में जा रहे हो, छेद हो गए हैं नाव में, पानी भरा जा गांठ में थोड़ी उलझन बढ़ गई है, बस। गांठ खोलनी है। रहा है। तुम छेद तो रोकते नहीं, पानी उलीचते हो। यह नाव तो बुद्ध ने कहा, ठीक है, गांठ खोलनी है। तो मैं तुमसे पूछता बहुत ज्यादा देर चलेगी नहीं, यह डूबेगी। पानी उलीचना जरूरी | हूं, मैं क्या करूं कि जिससे गांठ खुल जाएं? और उन्होंने दोनों है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है छेदों का बंद कर देना। रूमाल के कोने पकड़कर खींचना शुरू किया। एक भिक्षु ने खड़े महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि पानी मत उलीचो। लेकिन होकर कहा कि महाराज! इससे तो गांठें और छोटी हुई जा रही पानी उलीचने से क्या होगा? अगर छेद नया पानी लाए चले जा हैं। आप खींच रहे हैं, इससे तो गांठों का खुलना मुश्किल हो रहे हैं तो तुम व्यर्थ की चेष्टा में लगे हो। पहले छेद बंद करो, | जाएगा। यह कोई ढंग न हुआ खोलने का। इससे तो और फिर पानी उलीच लो तो कुछ राह बनेगी। तो नाव के उस पार | उलझन बढ़ जाएगी। खींचने से कहीं गांठें खुली हैं? गांठे छोटी पहुंचने का उपाय होगा। होती जा रही हैं, और सूक्ष्म होती जा रही हैं। इतनी छोटी हो छेद खोजो अपने जीवन के। बराई को छोड़ने की उतनी चिंता जाएंगी तो फिर खोलना मश्किल हो जाएगा। मत करो। बुराई कहां से आती है इसकी खोज करो। लेकर तो बुद्ध ने कहा, मैं क्या करूं? तो उस भिक्षु ने कहा, आप प्रकाश, ध्यान का दीया लेकर अपने भीतर खोज करो कहां से रूमाल मेरे हाथ में दें। मैं पहले देखना चाहता हूं कि गांठें किस बुराई आती है। | ढंग से लगाई गई हैं। क्योंकि जब तक यह पता न हो कि लगाई बुद्ध से कोई पूछता कि क्रोध कैसे छोड़ें तो बुद्ध कहते, पहले कैसे गईं तब तक खोली नहीं जा सकतीं। बुद्ध ने कहा, मेरी बात यह तो जानो कि तुम क्रोध करते कैसे हो। छोड़ने की बात पीछे। तुम्हारी समझ में आ गई। इतना ही दिखाने के लिए मैंने यह नंबर दो है, दोयम। प्रथम है, तुम क्रोध करते कैसे हो। तो अब रूमाल, ये गांठें और यह प्रयोग किया था। शश करो कि जब क्रोध हो तब तम परी तरह जिस चीज को भी खोलना हो वह लगी कैसे? खोलने के लिए तुम ऐस 1591 ___ 2010_03 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 जल्दी मत करना। क्योंकि डर यह है कि कहीं तुम खींचने-तानने तक न भरो तो सूख भी सकता है। क्योंकि जब पानी कोई भरता में गांठ को और छोटा न कर लो। ही नहीं कुएं में तो झरना धीरे-धीरे अवरुद्ध हो जाता है। धूल जम और मैं ऐसा ही देखता हूं। यही हुआ है, हो रहा है। आदमी जाती है। कंकड़-पत्थर बैठ जाते हैं, मिट्टी बैठ जाती है। झरना क्रोध को छोड़ना चाहता है। और इसको बिना समझे कि क्रोध धीरे-धीरे मुंद जाता है। झरने का काम ही नहीं रह जाता। तुम की गांठ लगी कैसे, खींचतान में पड़ जाता है। क्रोध की गांठ एक बाल्टी पानी निकालते हो, एक बाल्टी पानी झरने को कुएं में और छोटी हो जाती है। संसारी में क्रोध की गांठ थोड़ी | भरना पड़ता है। तो झरना चलता रहता है। जो झरे, वही झरना। फुसली-फुसली है, जल्दी खुल सकती है। त्यागी में बहुत जब झरे ही न, तो झरना बंद हो जाता है। मुश्किल है। गृहस्थ में इतनी उलझी नहीं है, जितनी संन्यासी में | अगर वर्षों तक कुएं से पानी न भरा जाए तो संभव है कुआं उलझ जाती है। घर में जो बैठा है, इसकी बड़ी मोटी-मोटी गांठ सूख जाए। लेकिन उलीचनेवाला अगर झरने बंद न करे, तब तो है। वह जो मुनि होकर मंदिर में बैठ गया है, उसकी बड़ी सूक्ष्म कुआं कभी नहीं सूखेगा। क्योंकि कुएं के पीछे सागर छिपा है, गांठ है। उसने खूब खींच ली हैं। हां, सूक्ष्म होने में एक लाभ जहां से झरने भागे चले आ रहे हैं। इधर तुम उलीचते हो, झरनों मालूम पड़ता है-लाभ है नहीं-वह यही मालूम पड़ता है कि को और गति मिल जाती है। वे और तेजी से भागे चले आते हैं। गांठ अगर बहुत सूक्ष्म हो जाए तो किसी को दिखाई नहीं पड़ती। उनको और काम मिल जाता है। मगर गांठ से छुटकारा थोड़े ही होता है! दिखाई नहीं पड़ने से इसलिए जिस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य को थोपने की कोशिश की छुटकारा तो नहीं होता। और कामवासना के झरने को रोका नहीं, कामवासना को समझा तो लोग गांठों को सूक्ष्म करते जाते हैं। तुम कामवासना नहीं, उसके विज्ञान को पहचाना नहीं, वह और मुश्किल में पड़ छोड़ना चाहते हो। ब्रह्मचर्य की चर्चा सदियों तक चली है। जाएगा। तुम कोशिश करके देखो। जैसे-जैसे तुम ब्रह्मचर्य की ब्रह्मचर्य के बड़े स्तुति में गीत गाए गए हैं। तो तुम्हारे मन में भी चेष्टा करोगे, तुम पाओगे खोपड़ी में झरने ही झरने खुल गए, लोभ जगता कि हम भी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हों। अच्छा है, वासना ही वासना के। वही-वही विचार उठते हैं, वही-वही शुभ है भाव, लेकिन जब तक कामवासना को समझा नहीं, तब स्वप्न आते हैं। कहीं भी नजर डालो, तुम्हें बस वासना का ही तक तुम मुक्त कैसे हो सकोगे? जब तक कामवासना को | विस्तार दिखाई पड़ेगा। तुम जो भी देखोगे वहां वासना दिखाई जागकर देखा नहीं कि यह गांठ लगती कैसे? इसके लगने की पड़ेगी। विधि क्या है? यह कैसे जकड़ लेती है और मन को घेर लेती है, | मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोवैज्ञानिक के पास गया था। एक और मन को डुबा लेती है? खींच लेती, अवश कर देती, | ऊंट निकल रहा था रास्ते पर से। तो उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा, असहाय कर देती। जहां नहीं जाना वहां खिंचे चले जाते हैं। जो इस ऊंट को देखकर तुम्हें किस बात की याद आती है? उसने नहीं करना वह फिर-फिर कर लेते हैं। इस गांठ को ठीक से कहा, स्त्री की। जरा मनोवैज्ञानिक भी चौंका। उसने कहा अच्छा जानना जरूरी है। कोई बात नहीं। यह जो घड़ी लटकी है इसको देखकर तुम्हें तो महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति संवरविहीन है...। संवर किसकी याद आती है? उसने कहा, स्त्री की। उसने कहा, मुझे महावीर का पारिभाषिक शब्द है। संवर का अर्थ है आने का देखकर तम्हें किसकी याद आती है. उसने कहा, स्त्री की। उसने मार्ग। जिसने मूल उदगम को नहीं रोका है। कुएं से पानी उलीच कहा, तुम हद्द पागल आदमी हो! उसने कहा, पागल क्या? रहा है और झरना नया पानी लिए चला आ रहा है। झरना भरे जा मुझे स्त्री के सिवाय किसी की याद ही नहीं आती। इसमें ऊंट का रहा है कुएं को और तुम उलीचे जा रहे हो। तुम्हारे उलीचने से | कोई संबंध नहीं है, न घड़ी का, न तुम्हारा। मुझे याद ही स्त्री की कुछ लाभ नहीं है। खतरा तो यह है कि तुम्हारे उलीचने से आती है। इससे ऊंट का कोई संबंध मत जोड़ना कि ऊंट को आनेवाला झरना और गतिमान हो जाएगा। देखकर मुझे स्त्री की याद आती है। याद ही बस एक आती है। यह तुमने खयाल किया होगा। अगर किसी कएं का पानी वर्षों तम जरा कोशिश करके देखो। जिस चीज से तम जबर्दस्ती 5981 | 2010_03 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिगुप्ति और मुक्ति छूटना चाहो, उसकी याद सघन हो जाती है। एक दिन तय करके स्वर्ण-अवसर है। क्रोध जैसी महत्वपूर्ण घटना घट रही है। इसे देख लो कि महीनेभर ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। महीनेभर का ही तुम फिजूल की बकवास में खराब मत कर देना। जब क्रोध उठे लेना, ज्यादा का मत लेना क्योंकि प्रायोगिक है। उस महीने में तो द्वार-दरवाजे बंद करके बैठ जाना। और क्रोध की गांठ तुम्हारे तुम पाओगे कि सारी जीवन-ऊर्जा बस कामवासना में ही संलग्न मन पर कैसे लग रही है उसका पूरा दर्शन करना, अवलोकन हो गई। दो-चार दिन उपवास करके देख लो, बस भोजन ही करना, निरीक्षण करना, देखना, दबाना मत, क्योंकि दबाने की भोजन, भोजन ही भोजन। ऐसे विचार तुम्हें भोजन के पहले कोई जरूरत नहीं है। किसी पर निकालना भी मत, क्योंकि किसी कभी भी न आते थे, वे उपवास में आते हैं। तो उल्टी घटना घट पर निकालने में समय खो जाएगा। वह तो घड़ी देखने की है, जाती है। साक्षात्कार की। मैं जैनों के घरों में ठहरता रहा। उनके पर्युषण पर्व आते, किसी ने गाली दी, तुम क्रोध से उबलने लगे; भागो! बंद करो दस-दस दिन का उपवास कर लेते। इधर सोहन बैठी है पीछे अपना द्वार-दरवाजा। बैठकर कमरे में आंख बंद करके देखो। वह आठ-आठ दिन के उपवास करती रही, उससे पूछो। यह जो धुआं उठ रहा है क्रोध का, कहां से आ रहा है? कहां है सालभर चौके में काम करती है, भोजन बनाती है, भोजन | इसका ईंधन? कहां है इसकी मल चिनगारी? खिलाती है और अच्छा भोजन बनाती है-भोजन की याद ही और यह तो तभी संभव है इसको देखना, जब तुम कोई विरोध न आएगी। अक्सर जो महिलाएं भोजन बनाती हैं उनको भोजन न करो। तुम यह न कहो कि यह बरा है, गंदा है, पाप है। में रस ही खो जाता है। भोजन बनानेवाले को भोजन करने में क्योंकि जैसे ही तमने यह कहा, तुम्हारी आंखें बंद हो गईं। उतना मजा नहीं आता। दुश्मन को हम आंख मिलाकर थोड़े ही देखते हैं। सिर्फ गहरे प्रेम लेकिन उपवास कर लो तो सब झरने खुल जाते हैं। सब तरफ में ही, मैत्री में ही किसी की आंख में आंख डालकर देखते हैं। से रसधार बहने लगती हैं। जैसे स्वाद ही जीवन का केंद्र बन दुश्मन से तो हम बचकर निकल जाते हैं। जाता है। और इसलिए जैन पर्युषण के बाद जैसे भोजन पर टूटते अगर क्रोध को तुमने दुश्मन समझ लिया तो फिर तुम कभी हैं...! तुम जाकर साग-सब्जीवालों से पूछ सकते हो कि | क्रोध का निरीक्षण न कर पाओगे। निरीक्षण न किया तो गांठ पर्युषण के बाद एकदम दाम बढ़ जाते हैं। मिठाई के दुकानदारों कैसे लगती है, समझ में न आएगा। गांठ कैसे लगती है समझ में से पूछ सकते हो कि पर्युषण के बाद एकदम बिक्री बढ़ जाती है। न आया तो गांठ खोलोगे कैसे? कसमें खाने से थोड़े ही गांठ आठ दिन, दस दिन किसी तरह सोच-सोचकर विचार खुलती है! कर-करके टाले रखते हैं। और दस दिन के बाद पागल होकर इसलिए मैं कहता हं महावीर ने धर्म को वैज्ञानिक रूप दिया टूट पड़ते हैं। धर्म को मनोविज्ञान बनाया। उसको ठीक जहां से काम शुरू जिस चीज को तुम जबर्दस्ती रोकोगे, उसको महावीर कहते हैं होना चाहिए, वहां से इशारे किए। संवर न हुआ। अकेली तपश्चर्या से कोई पहला इशारा उनका यह है कि मूलस्रोत की पहचान; मूल मुनि मोक्ष को उपलब्ध नहीं होता। संवर पहली बात है। झरने उदगम की पहचान। को सुखाओ। __ और तुमने खयाल किया? अगर गंगा को पकड़ना हो, वश में झरना कहां है? सभी चीजों का मौलिक झरना कहां है? वह करना हो तो गंगोत्री पर जितना सरल है फिर आगे कहीं भी उतना मनुष्य की अचेतना में है। वह मनुष्य की मूर्छा में है। हम सरल नहीं है। गंगोत्री पर तो ऐसे छोटा-सा झरना है गंगा। बेहोश हैं। हमें पता ही नहीं गांठ कैसे लगती है। रोज गांठ | गौमख में से गिरती है, बहत बड़ी हो भी नहीं सकती। गंगा को लगती है और हम देख नहीं पाते। क्रोध रोज उठता है और हम अगर वश में करना हो तो गंगोत्री पर करना आसान है। प्रयाग में देख नहीं पाते कि यह गांठ हमारे रूमाल पर लगती कैसे? या काशी में अगर वश में करने गए तो तुम पागल हो जाओगे। तो अब जब क्रोध उठे तो उस मौके को खोना मत। वह बड़ा वह वश में होनेवाली नहीं। बहुत बड़ी हो जाती है। 599 ___ 2010_03 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 नी सभी चीजें अपने मूल उदगम पर बड़ी छोटी होती हैं, तुम्हारी तो सिर्फ चलने का ही काम करे, बस। तुम कुछ और हजार बातें सीमा के भीतर होती हैं। न सोचो। तो क्रोध को वहां देखो, जहां से क्रोध उठता है। काम को वहां रास्ते पर तुम चल रहे हो, हजार बातें सोच रहे हो। तो चलना देखो जहां से काम उठता है। झगड़े का सवाल नहीं है। एक तो मछित होगा ही। मन हजार जग वैज्ञानिक अवलोकन की बात है। सकता है। एक ही जगह हो सकता है। भोजन तुम कर रहे हो, 'यह जिनवचन है कि संवरहीन मुनि को केवल तप करने से उस वक्त बैठे तुम दुकान पर विचार कर रहे हो। बैठे घर में, मोक्ष नहीं मिलता, जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर भोजन कर रहे, विचार चल रहा बाजार का। तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता।' मैंने सुना है, एक आदमी एक साधु के पास जाता था। बड़ा तो पहली चीज, मूलस्रोत की पहचान। उस मूलस्रोत को एक भक्तिभाव में रस लेता था, भजन-कीर्तन करता था। और जो ही नाम दिया जा सकता है, वह है मूर्छा। महावीर का शब्द है लोग भी भजन-कीर्तन इत्यादि करने लगते हैं, वे चाहते हैं सभी प्रमाद-सोए-सोए जीना। को करवा दें। हिंसा का भाव है वह। क्योंकि तुम कौन हो सभी हम जी तो जरूर रहे हैं, लेकिन हमारा जीना बड़ी तंद्रा से भरा | | को करवाने वाले? वह अपनी पत्नी को भी लगाना चाहता था। हुआ है। कुछ ठीक पक्का पता नहीं है क्यों जी रहे हैं। कुछ दुनिया में सबसे कठिन काम वही है। पति को अगर पक्का पता नहीं कौन हैं। कुछ पक्का पता नहीं कहां जा रहे हैं, भजन-कीर्तन करना है, पत्नी निश्चित रूप से भजन-कीर्तन नहीं कहां से आ रहे हैं। धक्कमधुक्की है, चले जा रहे हैं। करेगी। दो में से एक ही करता है। दोनों...आकस्मिक संयोग कभी भीड़ में देखा? कोई भीड़ का रेला आ रहा हो, लोग चले | हो जाए, बात अलग। ऐसा होता नहीं। ले जा रहे हो। रुकना भी मश्किल क्योंकि तो वह पत्नी को बडी खींचतान मचाता था. बडा शोरगल भीड़ धक्के दे रही है। तुम्हें यह पक्का पता भी नहीं कहां जा रहे, मचाता था कि चल, धर्म कर कुछ। समय खो रही है। जीवन जा कहां से ले जाए जा रहे, यह भीड़ कहां जा रही है। लेकिन यह रहा है। लेकिन पत्नी अपनी जिद्द पर थी। उसने अपने गुरु को सोचकर कि सब जा रहे हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे, आदमी कहा। गुरु ने कहा, मैं आऊंगा। मैं तेरी पत्नी को समझाऊंगा। चलता चला जाता है। हम पैदा भीड़ में होते हैं, और भीड़ में ही कल सुबह आता हूं पांच बजे। मर जाते हैं। और हमें पता ही नहीं चल पाता हमें जाना कहां था, तो पति तो उठ जाता था चार बजे ही से। जोर से शोरगुल होना क्या था। क्या होने को हम पैदा हुए थे। हमारी नियति क्या मचाता था। उसको ही वह भजन-कीर्तन कहता था। हालांकि थी। हमारा स्वभाव क्या था। मोहल्ला भर उसको गाली देता था। बच्चे घर के गाली देते थे। यह मूर्छा तोड़ना पहली बात है। कैसे टूटे यह मूर्छा? जो मगर धार्मिक आदमी जब इस तरह के काम करता है तो कोई भी करो, महावीर कहते हैं; विवेकपूर्वक करो। रुकावट भी नहीं डाल सकता। जैन मनि विवेक का बड़ा गलत अर्थ करते हैं। जब तम जैन | वह जब आया साध, उसने द्वार पर दस्तक दी तो पत्नी बहारी मुनि से पूछोगे कि महावीर जब कहते हैं ‘जयं चरे, जयं लगा रही थी। उसने पत्नी से कहा कि देखो, तुम्हारा पति कितना चिट्ठे'—विवेक से उठे, विवेक से बैठे, तो उनका मतलब क्या ध्यान में लीन है। उसकी पत्नी ने कहा, छोड़ो बकवास! वह इस है? तो जैन मुनि कहेगा, विवेक से बैठने का मतलब जमीन समय बाजार गया हुआ है और एक जूते की दुकान पर जूते खरीद झाड़कर बैठें। कोई चींटी न मर जाए। पानी छानकर पीएं कि रहा है। कोई हिंसा न हो जाए। यह विवेक का अर्थ! वह पति तो अंदर बैठा था। उसने यह सुना तो वह बड़ा हैरान यह विवेक का अर्थ नहीं है। विवेक का अर्थ है. बैठने की हआ। उसने कहा हह हो गई। झठ की भी एक सीमा होती है। क्रिया में मूर्छा न हो। जब तुम बैठो तो सिर्फ बैठो। उस वक्त पांच बजे रात न तो दुकानें खुली, और मैं इधर अपने ध्यान में तुम्हारा चैतन्य सिर्फ बैठने का ही काम करे, बस। जब तुम चलो लगा हूं। अब यह दिखता है कि यह सोचकर कि मैं बीच में उठ 6001 2010_03 . Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिगुप्ति और मुक्ति नहीं सकता...। वह निकलकर बाहर आ गया। उसने कहा, कर रहे हैं। हालांकि जो वे अर्थ कर रहे हैं वह मेरे अर्थ में तूने समझा क्या है? मैं इधर घर में बैठा हूं। ध्यान कर रहा हूं, समाविष्ट हो जाता है, लेकिन उनके अर्थ में मेरा अर्थ समाविष्ट तुझे पता है। झूठ बोल रही है सरासर! नहीं होता। उसकी पत्नी ने कहा, अब तुम ईमान से कह दो। कम से कम | जो व्यक्ति जागरूकता से जीएगा वह स्वभावतः देखकर तुम्हारे गुरु की मौजूदगी में ईमान से कह दो, कि तुम नहीं चमार | चलेगा कि किसी कीड़े-मकोड़े पर पैर न पड़ जाए। इसके लिए की दुकान पर थे? जूते नहीं खरीद रहे थे? देखकर चलने की अलग से जरूरत न रहेगी, जागकर चलना वह थोड़ा चौंका। और गुरु सामने खड़ा था, एकदम झूठ बोल | काफी है। वह तो नींद में ही, बेहोशी में ही चलते हो इसलिए भी न सका। गुरु ने कहा, क्या मामला क्या है? | ऐसी भूल हो जाती है। उसने कहा, यह बात तो ठीक कह रही है मगर इसको पता कैसे | जो आदमी जागकर जी रहा है उसके सारे जीवन की प्रक्रियाओं चला? क्योंकि जूते फट गए हैं मेरे, तो मैं ध्यान तो कर रहा था, | में जागरण का प्रकाश पड़ने लगेगा। उसके जीवन से हिंसा लेकिन खयाल बाजार का था। और मैं जरूर पहुंच गया था | समाप्त हो जाएगी। जिसके भीतर तनाव नहीं, उसके बाहर हिंसा चमार की दुकान पर। झगड़ा मच गया था, क्योंकि दाम वह | समाप्त हो जाती है। जिसके भीतर संघर्ष नहीं, उसके बाहर बहुत ज्यादा बता रहा था। मोल-भाव कर रहा था। मगर इसको संघर्ष समाप्त हो जाता है। बाहर तो हम लड़ते इसीलिए हैं कि पता कैसे चला? भीतर लड़ रहे हैं। बाहर तो हमारे जीवन में धुआं इसीलिए अब यह तो किसी को भी पता नहीं कि स्त्रियों को पता कैसे दिखाई पड़ता है कि भीतर हम जल रहे हैं। चलता है, मगर चल जाता है। छिपा नहीं सकते स्त्रियों से कुछ। बाहर के बदलने से कछ भी न होगा, भीतर की बदलाहट होगी पता चल ही जाता है। तो बाहर की बदलाहट अपने से हो जाती है। अंतस बदला तो तो तुम जब ध्यान कर रहे हो, तब ध्यान ही हो। मगर यह तभी आचरण अपने से बदल जाता है। हो पाएगा जब तुम और काम भी ध्यानपूर्वक ही करने लगो। तो मेरी दृष्टि में महावीर के सूत्र का अर्थ हुआः अंतस में दीया चलो तो सिर्फ चलो। भोजन करो तो सिर्फ भोजन करो। बिस्तर | जला रहे। पर लेटो तो बस फिर लेट ही जाओ। फिर मन न दौड़ता रहे | तुम जरा कोशिश करो। बहुत कठिन मामला है। जैन मुनि जो हजार जगह! नहीं तो लेटने की क्या जरूरत? दौड़ते ही रहो। | कहता है वह सरल है; इसलिए दो कौड़ी का है। वह तो कोई भी लोग लेट जाते हैं बिस्तर पर, फिर कहते हैं नींद नहीं आती। | अभ्यास कर ले सकता है। उसका कोई बहुत मतलब नहीं है। नींद न आने का कुल कारण इतना है कि तुम लेटते ही नहीं। पानी छानकर पी लेने का कोई बहुत मतलब नहीं है। मैं यह शरीर तो पड़ा है बिस्तर पर लाश की भांति; मन भाग रहा है नहीं कह रहा कि पानी छानकर मत पीना। लेकिन यह मत समझ दूर-दूर लोकों में; न मालूम कहां-कहां की योजनाओं में। लेना कि पानी छानकर पी लिया तो मोक्ष कु जब मन भागा हुआ है तो नींद नहीं घट सकती। विश्राम तो ठीक किया। हाइजनिक है, स्वास्थ्यवर्धक है। पानी छानकर तभी संभव है जब मन और शरीर तालमेल करते हैं। मन कहीं पीया तो वैज्ञानिक दृष्टि से ठीक काम किया। लेकिन इससे कुछ जा रहा है, शरीर बिस्तर पर पड़ा है। दोनों में इतना खिंचाव है, मुक्ति करीब आ रही है ऐसा मत सोच लेना। जमीन बुहारकर तनाव है, नींद संभव नहीं है। | बैठे, ठीक किया। जो करने योग्य था वह किया। लेकिन इससे साधु ही सोता है। साधु ही सो सकता है। क्योंकि साधु ही कुछ अतिमानवीय रोशनी का जन्म नहीं हो जाएगा। इससे कुछ जगता है। जब जगता है तो बस जगता है। जब सोता है तो बस परमात्मा तुममें नहीं उतर आएगा। सोता है। इतने सस्ते में तुम परमात्मा को लाना चाहते हो तो तुम जरा महावीर का जो वचन है, विवेक, जागरूकता, अप्रमाद, जरूरत से ज्यादा मांग रहे हो। तम कहते हो. हम रोज बहारी यतनाचार, जतनपूर्वक जीना-उसका अर्थ जैन मुनि बड़ा क्षुद्र लगाकर बैठे, रोज पानी छानकर पीया, मोक्ष कहां है? लेकिन 1601 2010_03 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 जिन सूत्र भाग: 2 तुम मोक्ष की कीमत कितनी आंक रहे हो? मोक्ष का मतलब हुआ: बुहारी लगाकर बैठे पानी छानकर पीया = मोक्ष ? मोक्ष दो कौड़ी का कर दिया तुमने । बनता है— निन्यानबे पर भी भाप नहीं बनता, साढ़े निन्यानबे पर भी भाप नहीं बनता, ठीक सौ डिग्री पर बनता है। ऐसे ही तुम्हारे प्रयत्न की एक डिग्री है। तुम्हारी चेष्टा की एक डिग्री है, तुम्हारे नहीं, मोक्ष बड़ी घटना है। और उस बड़ी घटना की बड़ी तप की एक डिग्री है। ठीक उस जगह आकर अचानक रोशनी हो तैयारी जरूरी है। जाती है, अंधकार कट जाता है। उसके एक क्षण पहले तक गहन अंधेरी रात थी। + उस तैयारी का पहला कदम तुम उठाना शुरू करो। मैं कहता हूं कठिन है। क्योंकि अगर तुम जागकर चलना चाहोगे तो तुम पाओगे, क्षणभर भी नहीं चल पाते। अगर भोजन तुम होश से करना चाहोगे तो एकाध कौर कर लिया तो बहुत । फिर भटके, फिर भटके। लेकिन बार-बार लौटाते रहो! पकड़-पकड़कर अपने घर आते रहो। फिर जब याद आ जाए कि अरे! कहां चला गया? फिर चबाने लगे बिना होश के, फिर लौटकर आ जाओ। फिर हाथ शिथिल कर लो। फिर से अपने को जगाकर बैठ जाओ। फिर से भोजन शुरू कर दो। राह चलते-चलते एक कदम चलोगे, होश रहेगा, दूसरे कदम पर फिर बेहोशी आ गई, फिर कोई खयाल उतर आया, फिर किसी खयाल में खो गए। जब याद आ जाए, फिर अपने को सम्हाल लो। शुरू-शुरू में तो ऐसा ही होगा। पकड़ोगे, खोओगे; पकड़ोगे, खोओगे। हाथ लगेगा धागा, छूटेगा; छूटेगा हजार बार । तुम फिकिर मत करो । हजार बार छूटे, हजार बार पकड़ो। इससे हताश भी मत होना, क्योंकि यह बात ही ऐसी है कि सधते-सधते सधती है। यह बात इतनी मूल्यवान है कि यह एक दफा में सध जाती तो इसका कोई मूल्य ही न था । ये कोई मौसमी फूल नहीं हैं कि डाल दिए बीज और दो-चार सप्ताह में फूल आ । ये तो देवदार और चिनार के बड़े वृक्ष हैं, जो बहुत समय लेते हैं। बड़े होते हैं। आकाश को छूने जाते हैं। गए। मोक्ष से बड़ी और कोई घटना इस संसार में नहीं है, न इस संसार के बाहर है। मोक्ष महत्तम घटना है। इसलिए उसके लिए जितना भी श्रम किया जाए वह अंततः थोड़ा है। जब मोक्ष की उपलब्धि होती है तो पता चलता है, जो हमने किया था वह न कुछ था। हां, जब तक मिला नहीं है मोक्ष, तब तक ऐसा लगता है कि कितना कर रहे हैं, और कुछ भी नहीं हो रहा है... कुछ भी नहीं हो रहा है। और बात खयाल रखना, जैसे सौ डिग्री गर्मी पर पानी भाप 2010_03 हताश मत होना। लौट मत जाना। यह मत सोचना कि क्या फायदा ! हो सकता है, तुम सनतानबे डिग्री पर थे कि अनठानबे डिग्री पर थे और लौट गए, निराश हो गए। एक कदम और — एक कदम और लौटना ही मत। जीवन की एक ही बात को याद रखो तो महावीर का सारा सार-संचय तुम्हारे पास रहेगा। उठो जागकर बैठो जागकर, चलो जागकर बोलो, सुनो-जो भी करो - अपने को झकझोर कर । भीतर दीया जागने का जगा रहे। तुम मुझे यहां सुन रहे हो, तुम इस तरह सुन सकते हो कि बैठे हैं, हजार बातें चल रही हैं खोपड़ी में, यह मेरी बात भी सुनाई पड़ रही है उन्हीं हजार बातों के बीच में। कहीं-कहीं कुछ-कुछ शब्द भीतर प्रवेश कर जाते हैं। वे हजार बातों में लिपटकर उनका अर्थ भी बदल जाता है। कुछ का कुछ सुनाई पड़ जाता है। कहा कुछ, सुन कुछ लेते हो । अर्थ कुछ था, अर्थ कुछ निकाल लेते हो । ऐसे सोए-सोए सुनकर तुम जो ले जाते हो, वह तुम्हारा ही होगा। उसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है । जागकर सुनो। जागकर सुनने का अर्थ है, सुनते वक्त तुम कान ही कान हो जाओ। तुम्हारा पूरा शरीर कान की तरह काम करे तो जागकर सुना। भोजन करते वक्त तुम स्वाद ही स्वाद हो जाओ। तुम्हारा पूरा शरीर बस भोजन करे। चलते वक्त तुम पैर ही पैर हो जाओ। बस तुम चलो। सोचते वक्त तुम मन ही मन हो जाओ; फिर सिर्फ सोचो। I तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सोचने के लिए समय ही मत दो घड़ी दो घड़ी निकाल लो और उस समय सिर्फ सोचो। जरूरत है उसकी भी । वह भी तुम्हारे जीवन का अंग है। उसे भी समय चाहिए। सब समय को ठीक से बांट दो। मगर एक खयाल रहे कि जो भी कृत्य हो वह मूर्च्छा में न हो । अगर हाथ में आ-आकर होश छूट जाता हो, तो इतना ही खयाल रखना कि थोड़ी चेष्टा और । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिगुप्ति और मुक्ति मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल तरफ बहने लगती है तो पुण्य कहें। और इन दोनों के बीच जो हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद जोड़नेवाला सेतु है, वह तप है। तप शब्द बिलकुल ठीक है। -स्वीकार हो जाती प्रार्थना। वह ताप से ही बना है; गर्मी से ही बना है। मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल लेकिन कुछ नासमझ हैं, वे धूप में खड़े हो जाते हैं। वे कहते हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद हैं, तप कर रहे हैं। कुछ नासमझ हैं, अंगीठियां लगाकर बैठ अगर नहीं मिलती प्रार्थना को स्वीकृति, अगर प्रार्थना पूरी नहीं जाते हैं। वे कहते हैं तप कर रहे हैं। होती तो इतना ही जानना कि अभी दिल की हिम्मत, दिल का आदमी के पागलपन की कोई सीमा नहीं। अंगीठियां लगाकर -अभी दिल खोलकर मांगा ही नहीं। द्वार पर दिल तुम तप करोगे? शरीर को जला लोगे, पसीने-पसीने हो खोलकर दस्तक ही न दी। कुछ कमी रह गई। | जाओगे। इससे तप का कोई संबंध नहीं है। धूप में खड़े इतना ही खयाल रखना कि कुछ कमी रह गई। फिर चेष्टा | रहोगे-सिर से सूरज को ऊगने-डूबने दोगे? इससे तप का करना। किसी भी दिन कमी पूरी हो जाएगी। और कोई भी नहीं कोई संबंध नहीं है। तुम नाहक कष्ट झेलोगे। कह सकता, कब पूरी हो जाएगी। क्योंकि अब तक कोई तप है आंतरिक। खयाल करो, सूरज की किरणों में दोनों बातें थर्मामीटर नहीं बन सका, जिससे हम पता लगा सकें कि आदमी | हैं: ताप भी है, और प्रकाश भी है। प्रत्येक ताप के साथ प्रकाश का होश समाधि के करीब आ गया या नहीं। कोई उपाय नहीं। | भी जुड़ा है। प्रकाश के दो गुणधर्म हैं: एक तो चीजों को जैसे थर्मामीटर में हम पता लगा लेते हैं कि आदमी का बुखार प्रकाशित करना और उत्तप्त करना। ज्यादा तो नहीं हो गया? कम तो नहीं हो गया? अब तक कोई ऐसे ही तुम्हारे भीतर चैतन्य का जब प्रकाश जगना शुरू होता है थर्मामीटर नहीं बना, कि पता चल सके कि आदमी का होश | तो दो घटनाएं घटती हैं। एक तो तुम भीतर प्रकाशित होने लगते कितना है? अभी होश को मापने का कोई उपाय नहीं है। हो और तुम्हारी जीवन-ऊर्जा उत्तप्त होने लगती है। तो एक तरफ इसलिए तुम्हें टटोल-टटोलकर ही चलना होगा। मगर एक तो तुम सौ डिग्री की तरफ बढ़ने लगते हो, जहां छलांग लगेगी, बात पक्की है-जिन्होंने खोजा, उन्हें मिला। अगर तुम्हें न मिले | सीमा टूटेगी। दृश्य का बंधन गिरेगा। नीचे की तरफ बहने की तो ऐसा मत सोचना कि होश मिलता ही नहीं। अधिक लोग पुरानी आदत से छुटकारा होगा। और दूसरी तरफ जैसे-जैसे जल्दी ही ऐसा सोच लेते हैं कि न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा ताप सघन होता जाएगा वैसे-वैसे तुम रोशनी से मंडित होते है, न कोई होश है। यह कुछ होनेवाली बात नहीं है। इस तरह जाओगे। तुम्हारे भीतर एक प्रभामंडल जन्मेगा। अंगीठियां पस्ते-हिम्मत मत हो जाना, हताश मत हो जाना। जलाने की जरूरत नहीं; तुम्हारे चेहरे से, तुम्हारी आंखों से, तपश्चर्या का यही अर्थ है, जब महावीर कहते हैं तप, तो तुम्हारे व्यक्तित्व से, तुम्हारे उठने-बैठने से, प्रकाश की झलक उनका यही अर्थ है। तप का अर्थ है, अपने को तपाते जाना, मिलनी शुरू होगी। तुम एक दीया बन जाओगे। गरमाते जाना। सौ डिग्री पर भाप बनोगे, छलांग लगेगी। देखा! और धीरे-धीरे व्यक्ति पारदर्शी हो जाता है। तुम उसके दीये पानी नीचे की तरफ बहता है। फिर जब भाप बन जाता है तो | को बाहर से भी देख सकते हो। जिनके पास भी थोड़ी देखने की ऊपर की तरफ उठने लगता है। वही पानी, जो सदा नीचे की आंख है और सहानुभूति से भरी आंख है, वे किसी भी तरफ बहता था, अब अचानक ऊपर की तरफ उठने लगता है। जीवित-जागते व्यक्ति के भीतर रोशनी को देखने में समर्थ हो वही पानी जो दृश्य था, अब अदृश्य होने लगता है। वही पानी | जाते हैं। जो गड्ढों की तलाश करता था, आकाश की तलाश में निकल तो तपश्चर्या का अर्थ तुम यह मत ले लेना कि अपने को व्यर्थ जाता है। बस सौ डिग्री का फर्क है! | कष्ट देने हैं। तपश्चर्या का अर्थ है, जो कष्ट आ जाएं उन्हें ठीक ऐसे ही मनष्य की चेतना साधारणतः नीचे की तरफ बहती स्वीकार करना है, देने नहीं हैं। आनेवाले कष्ट ही काफी हैं, अब है। इस नीचे की तरफ बहने को हम पाप कहें। जब ऊपर की और देने की क्या जरूरत है? इतने जन्मों के कर्मों का जाल है 603 2010_03 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 हमने बहुत-से कष्ट तो अर्जित ही कर लिए हैं; वे आ ही रहे हैं। में ही तुम अचानक पाओगे, एक क्रांति हो गई। जब तुम पूरे मन बस उन्हें तुम सहिष्णुता से, समभाव से झेल लेना। दुखी मत से स्वीकार करोगे, तुम पाओगे, सिरदर्द उतना दर्द न रहा, जितना होना। दुख आए तो, स्वीकार कर लेना। जो दुख आए तुम | मालूम होता था। अस्वीकार करने से दुख अनंतगुना मालूम होने उससे परेशान और उद्विग्न मत होना, राजी हो जाना। कहना कि लगता है। स्वीकार करने से क्षीण हो जाता है। अगर तुमने पूरी किसी को कभी दुख दिया होगा, वह लौट आया है। छुटकारा | तरह स्वीकार कर लिया तो तुम अचानक पाओगे कि दर्द तो हुआ जाता है। गया। इतना फासला हो जाता है तुममें और दर्द में। बुद्ध पर एक आदमी थूक गया तो बुद्ध बड़े प्रसन्न हो गए। अगर दर्द को भी तुमने मेहमान की तरफ स्वीकार कर लिया तो उन्होंने आनंद से कहा, देख आनंद! इस आदमी पर जरूर मैंने तप। अलग से दुख देने की कोई जरूरत नहीं है। कभी थूका होगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा है। कभी इसे कुछ दुख यह महावीर तो कह ही नहीं सकते कि अपने को दुख दो, दिया होगा, कुछ अपमान किया होगा। आज छुटकारा हुआ। क्योंकि महावीर कहते हैं, किसी को दुख मत दो; उसमें तुम भी अगर यह न थूक जाता तो अटके रहते। इसके साथ उलझे सम्मिलित हो। यह तो बात बड़े पागलपन की हो जाएगी कि रहते। यह छुटकारा होना ही था। आज खाता बंद। आज कहा जाए कि दूसरे को दुख मत दो और अपने को दुख दो। जो लेन-देन पूरा हो गया। तुम दूसरे के साथ नहीं करते वह अपने साथ क्यों करो? दया जब जीवन में दुख आए तो उसे इस भांति स्वीकार कर लेना कि दूसरे के साथ है तो अपने साथ भी चाहिए। अपने किए गए किसी कर्म का फल है, स्वीकार कर लिया। सच तो यह है कि जो अपने साथ दया करता है वही दूसरे के इससे उद्विग्न मत होना, तो नया दुख निर्मित न होगा और पुराना साथ दया कर सकता है। और जो अपने साथ कठोर है वह दुख भस्मीभूत हो जाएगा। किसी के भी साथ कोमल नहीं हो सकता। जो अपने साथ जिंदगी के गमों को अपनाकर कोमल नहीं, वह किसके साथ कोमल होगा? जो अपने से प्रेम हमने दरअसल तुझको अपनाया। नहीं कर सका वह किसी को प्रेम नहीं कर सकेगा। जो व्यक्ति वे जिसने जीवन के दख स्वीकार कर लिये, उसने परमात्मा को अपने को प्रेम करता है वही दसरों को प्रेम कर सकता है। जो स्वीकार कर लिया। घटना घटती है, पहले घर में घटती है, अपने भीतर घटती है; और मजे की बात है...साधारणतः हम सुख खोजते हैं और फिर उसकी किरणें दूसरों तक फैलती हैं। दुख पाते हैं। और जब कोई व्यक्ति दुख को स्वीकार करने इसलिए महावीर यह तो कह ही नहीं सकते कि तुम अपने को लगता है तो जीवन में सुख की वर्षा होने लगती है। यह जीवन दुख दो। इतना ही कहा है कि जो दुख आए वह तुम्हारे दूसरों को का गणित है। खोजो सुख, पाओगे दुख। मिले दुख, स्वीकार दिए हुए दुखों का परिणाम है। उसे स्वीकार कर लो। कर लो और तुम अचानक पाओगे, महत सुख उत्पन्न होने लगा। 'अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या करोड़ों वर्षों में दुख के स्वीकार में ही सुख की क्षमता पैदा हो जाती है। जितने कर्म का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति जरा करके देखो! जब कोई दुख आए, उसे स्वीकार करके त्रिगुप्ति के द्वारा एक सांस में सहज कर डालता है।' देखो। छोटा-मोटा दुख! प्रयोग करो, स्वीकार कर लो। ऐसा | अब यह बात सीधी-साफ है, लेकिन फिर भी न मालूम कैसा सोचो ही मत कि मेरे ऊपर कोई विपदा आ गई है। ऐसा सोचो दर्भाग्य कि महावीर को माननेवाले लोग त्रिगप्ति की तो बात भल मत कि परमात्मा मेरे साथ अन्याय कर रहा है। ऐसा सोचो मत। गए, बस वे करोड़ों वर्षोंवाली तपश्चर्या में लगे हुए हैं। शिकायत लाओ ही मत। गिला, शिकवा लाओ ही मत। इतना ज अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं बासकोडीहिं। ही जानो कि मैंने कुछ दुख बोए होंगे, फल काट रहा हूं, ठीक, हजारों-लाखों वर्ष तक, लाखों जन्मों तक, कोटि-कोटि जन्मों चलो निपटारा हुआ जाता है। | तक कोई तप करे, तब कहीं बड़ा अल्प कर्म का विनाश होता है। सिरदर्द आए...छोटा-सा दुख है, स्वीकार कर लो। स्वीकार तं नाणी तिहिं गुत्तो... 604 2010_03 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और ज्ञानी त्रिगुप्ति के द्वारा... खवेइ ऊसासमित्तेणं... एक सांस में उतने कर्मों से मुक्त हो जाता है। क्या है यह त्रिगुप्ति ? महावीर कहते हैं, 'मन, वचन, काया, इनकी प्रवृत्तियों में atra होकर जीना त्रिगुप्ति ।' ये तीन गुप्त बातें, ये तीन सीक्रेट, ये तीन कुंजियां मन, वचन, काया । शरीर से जो भी करो, होशपूर्वक करना । मन से जो भी करो, होशपूर्वक करना। वचन से जो भी करो, होशपूर्वक करना। ये तीन कुंजियां—इनको जो साध लेता है, वह करोड़ों जन्मों में भी श्रम करके जो आदमी पाता है, उसे एक सांस में बिना श्रम के पा लेता है। अज्ञानी आदमी कुछ भी करे तो जो भी करेगा, उसके अज्ञान से ही निकलेगा न ! वह तप भी करे तो भी अज्ञान से निकलेगा । और अज्ञान से जो भी निकलेगा उससे नए कर्मबंधों का जन्म होता है। वह त्याग भी करे तो भी अज्ञान से ही करेगा। अज्ञानी व्यक्ति का अर्थ है - यह मत सोचना कि जो शास्त्र नहीं जानता—अज्ञानी से अर्थ है, जो जागा हुआ नहीं है; जो | ज्ञानपूर्वक नहीं जी रहा है। यहीं सुविधा हो जाती है चीजों के अर्थ बदल लेने में। जब महावीर कहते हैं अज्ञानी व्यक्ति तो समझ में आ गई बात, कि ज्ञानी होना जरूरी है। पढ़ो शास्त्र, कंठस्थकरो शास्त्र, बन जाओ तोते, तो ज्ञानी हो जाओगे । त्रिगुप्ति और मुक्ति तपश्चर्या करे तो भी कुछ खास लाभ नहीं होता । ज्ञानी व्यक्ति क्षणभर में, श्वासभर में होश से जीए तो बहुत लाभ होता है। इस बात को इंगित करने के लिए कि ज्ञानी से अर्थ शास्त्र को जाननेवाला नहीं है, तीसरा सूत्र बिलकुल साफ है। महावीर कहते हैं, मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है। इसलिए शास्त्र काम न आएंगे। क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति ही नहीं है। वहां तो केवल चैतन्य का प्रवेश है, शब्दों का कोई प्रवेश नहीं है। वहां तुम तो जा सकते हो लेकिन तुम्हारी बुद्धि और तर्क नहीं जा सकता। तर्क और बुद्धि को पीछे ही छोड़ जाना पड़ता है। | जैसे कोई आदमी हिमालय पर चढ़ता है, तो जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ने लगती है, बोझ कम करने लगता है। पहले सोचा था सब सामान ले चलें । फिर जब पहाड़ चढ़ता है तो पता चलता है, इतना सामान तो ले जाना संभव न होगा। तो जो-जो काम का नहीं है, छोड़ दो। फिर और ऊंचे पहाड़ पर चढ़ता है तो पता चलता है, और भी कुछ छोड़ना पड़ेगा। जब तेनसिंग और हिलेरी गौरीशंकर पर पहुंचे तो बिलकुल सब सामान छोड़कर पहुंचे। कुछ भी न था । उतनी ऊंचाई पर कुछ भी ले जाना संभव नहीं होता। मोक्ष आखिरी ऊंचाई है चेतना की। वहां तो विचार भी ले जाने संभव नहीं होते, संकल्प-विकल्प भी संभव नहीं होते। इसलिए महावीर कहते हैं, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। इसलिए शास्त्र जो भी कहते हैं, वे सब प्राथमिक सूचनाएं हैं, अंतिम का कोई दर्शन नहीं है। शास्त्र जो भी कहते हैं, वह सब क, ख, ग, है । वह पहली प्राथमिक पाठशाला है। शास्त्रों में जीवन का विश्वविद्यालय नहीं है, प्राथमिक शिक्षा है। शास्त्रों पर मत रुक जाना । शब्द कितने ही संगृहीत हो जाएं, उससे कोई ज्ञानी नहीं होता । वह तो यंत्रवत है। पढ़ो, बार-बार पढ़ो, गुनो, याद हो जाते हैं। याद से तुम्हारे जीवन में थोड़े ही कुछ रोशनी आएगी ! तुम्हारे | जीवन में कोई दीया प्रगट हो, तुम्हारे जीवन में कोई अनुभव जगे, तुम्हारा अनुभव हो तो ही ज्ञान। उधार ज्ञान ज्ञान नहीं । 'मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं, क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है। वहां न तर्क का प्रवेश है, न वहां मानस-व्यापार संभव है। मोक्षावस्था संकल्प-विकल्पातीत है; साथ ही समस्त मल - कलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं अनुभव ही जीवन का विश्वविद्यालय है। वहां शब्दों की कोई प्रवृत्ति नहीं है । क्योंकि जो व्यक्ति भीतर जाएगा, उसे पहले तो शरीर छोड़ना पड़ता है। क्योंकि शरीर हमारा सबसे बाहरी रूप है । जैसे कोई आदमी इस भवन में अंदर आएगा तो दरवाजा, दरवाजे से लगी हुई चारदीवारी छोड़कर आना पड़ता है। रागातीत होने कारण सातवें नर्क तक की भूमि का ज्ञान होने पर भी वहां किसी प्रकार का खेद नहीं है।' तो पहले तो शरीर छूट जाता है। फिर जब और भीतर प्रवेश करते हैं तो मन की प्रक्रियाएं छूट जाती हैं। जब और भीतर प्रवेश पहले सूत्र में कहते हैं, अज्ञानी व्यक्ति करोड़ों जन्मों तक करते हैं तो हृदय के भाव छूट जाते हैं। जब बिलकुल भीतर 2010_03 605 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 अपने घर में पहुंच जाते हैं, ठीक अंतर्गृह में, तो वहां शुद्ध चेतना | प्रेम, मोक्ष, परमात्मा तो कभी-कभी घटता है, इसलिए सिद्ध बचती है, कोई भी और नहीं बचतान शरीर, न मन, न भाव। नहीं हो पाता; चलो। लेकिन इतने लोग तो प्रेम करते हैं—इतने इस शुद्ध अवस्था में मुक्ति के पहले दर्शन होते हैं। लैला, इतने मजनू, इतने शीरी, इतने फरिहाद! फिर भी कुछ कह तो महावीर कहते हैं, त्रिगुप्ति के द्वारा ऐसी मुक्ति की दशा का नहीं पाता कोई। | अनुभव तुम्हें होगा, वही ज्ञान है। वहां तर्क का प्रवेश नहीं, कल मैं एक गीत पढ़ता थाः इसलिए कोई मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता कि है। न कोई | कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई सिद्ध कर सकता कि नहीं है। क्योंकि जो चीज सिद्ध ही नहीं की दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई जा सकती तर्क से कि है, उसको असिद्ध भी नहीं किया जा | और फिर खत्म हुई ऐसे कहानी अपनी सकता। सिर्फ अनुभव से जो लेगा स्वाद, वही जानेगा-गूंगे उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई का गुड़। जो लेगा स्वाद, वह जानेगा कि है। लेकिन वह भी रही हरेक जगह सांस पर रही न गई तुम्हें सिद्ध नहीं कर पाएगा। बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई अगर तुम गूंगे से पूछो कि तुझे स्वाद मिला, बोल! तो वह इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह तुम्हारा हाथ खींचेगा। उस तरफ जहां उसको स्वाद मिला। तुम पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई भी आ जाओ और तुम भी चख लो गुड़। प्रेम नहीं कहते बनता। प्रेम को शब्द की पोशाक पहनाते नहीं यही महावीर-बुद्ध, यही दुनिया के सारे सत्पुरुष कर रहे हैं। | बनती। खींच रहे हैं हाथ तुम्हारा कि आओ! हम जहां गए, वहां खूब कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई पाया। तुम भी थोड़ा स्वाद लो। कौन प्रेमी नहीं कहना चाहा है? तुमने कभी प्रेम किया किसी तम कहते हो. पहले सिद्ध करो. फिर हम आएंगे। छोडो को? तब तम्हें अडचन आती है. कैसे कहें कि मझे प्रेम है? हाथ। ऐसे हाथ मत खींचो। हम ऐसे बुद्धिहीन नहीं हैं कि हर कहो, शब्द बड़े छोटे मालूम पड़ते हैं। जो है, उसके मुकाबले किसी के साथ हो लें। तुम पहले सिद्ध कर दो कि परमात्मा है, | ना-कुछ मालूम पड़ते हैं। लाख सिर पटको, कहो कि मुझे प्रेम है मोक्ष है, आत्मा है, तो हम आने को तैयार हैं। हम तर्कशील तो भी तुम्हें लगता है, कह कहां पाए ? व्यक्ति हैं। हम सोच-विचार कर चलते हैं। हम अंधविश्वासी कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई नहीं हैं। प्रेमी कितना सिर पटकते हैं, कितने उपाय करते हैं। चलो फूल तो फिर तुम कभी भी न जा सकोगे। तो तुम्हें पता नहीं तुमने का गुलदस्ता खरीद लाओ, कि हीरे-जवाहरात के हार ले किससे अपना हाथ छुड़ा लिया। तुमने उससे अपना हाथ छुड़ा | आओ। मगर हीरे-जवाहरात से भी नहीं कहा जाता। फूल भी लिया जो तुम्हें तुम तक पहुंचा देता। तुमने उससे अपना हाथ नहीं कह पाते। कुछ है, जो प्रगट नहीं हो पाता। छुड़ा लिया जो तुम्हारे लिए जीवन में सौभाग्य की किरण होकर दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई आया था। और तुमने जिस बात के नाम पर हाथ छुड़ा लिया उस और फिर खत्म हई ऐसे कहानी अपनी कूड़ा-कर्कट को तुम मूल्य दे रहे हो तर्क। सभी प्रेमियों की ऐसे ही कहानी खत्म होती है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसके लिए कोई तर्क नहीं है। | उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई प्रेम के लिए कोई सिद्ध कर सका कि है? प्रेम जैसी सामान्य रही हरेक जगह सांस पर रही न गई जीवन की अनुभव की घटना भी सिद्ध नहीं होती। सबको | बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई अनुभव होती है तो भी सिद्ध नहीं होती। इस जमीन पर करोड़ों कह भी देते हैं तो भी रह जाती है बात। कह भी देते हैं तो भी लोग प्रेम करते हैं लेकिन फिर भी सिद्ध नहीं होता। खैर महावीर लगता है कहां कही? कह भी देते हैं तो भी मन तड़फता रह जाता और बुद्ध तो कभी-कभी अपवाद रूप होते हैं। यह आत्यंतिक है, कह न पाए। 606 2010_03 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई लगता है कह भी दिया और लगता है कह भी न पाए। लगता है हो भी गया और लगता है हो भी न पाया। ऐसी विडंबना साधारण प्रेम के साथ घट जाती है। तो परमात्मा की तो हम बात ही छोड़ दें। वह तो आत्यंतिक घटना है, आखिरी घटना है । उसको बताने के लिए कोई शब्द आदमी की भाषा में नहीं है । उसको बताने के लिए कोई विचार आदमी के पास नहीं है। उसकी तरफ इशारा करने में हमारी कोई अंगुली काम नहीं आती । हमारी अंगुली बड़ी स्थूल और वह बड़ा सूक्ष्म । स्थूल को स्थूल से दिशा-निर्देश किया जा सकता स्थूल को स्थूल से कहा जा सकता है। सूक्ष्म को कैसे स्थूल से कहें? वह बड़ा जीवंत और हमारे सब शब्द मुर्दा । इसलिए जिन्होंने जाना वे मौन रहे। महावीर ने तो अपने संन्यासी को मुनि नाम इसीलिए दिया कि जानोगे - बस चुप! मुनि कहा इसीलिए कि मौन घटेगा । मौन से ही उसे जानोगे, जानकर मौन से ही उसे कह पाओगे। 2010_03 त्रिगुप्ति और मुक्ति अतीत है। ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने । वह मन के बहुत पार है। वह इतने पार है मन के कि और सारी बातें तो छोड़ ही दो, आध्यात्मिक व्यक्ति में जो ओज प्रगट होता है, वह ओज भी उस जगह तक नहीं पहुंचता। वह ओज भी बाहर-बाहर रह जाता है। वहां पहुंचते-पहुंचते ओज भी खो जाता है। क्योंकि ओज के लिए भी अंधकार का सहारा चाहिए। ओज के प्रगट होने के लिए अंधकार की पृष्ठभूमि चाहिए। इसलिए महावीर कहते हैं, 'साथ ही समस्त मल- कलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं है।' अब यह बड़ी महत्वपूर्ण बात वे कह रहे हैं। अत्यंत असाधारण बात वे कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, प्रकाश को देखने के लिए भी अंधेरे की पृष्ठभूमि चाहिए। जब तुम दीया जलाते हो तो तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ती है। तुम सोचते हो रोशनी के कारण, तो गलती है तुम्हारा खयाल । वह जो चारों तरफ अंधेरा घिरा है, उसकी दीवाल कारण। थोड़ा सोचो कि दुनिया से अंधेरा मिट जाए, फिर तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ेगी ? फिर कैसे दिखाई पड़ेगी ? फिर नहीं दिखाई पड़ेगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि महावीर ने कुछ कहा नहीं। बहुत कहा, लेकिन उस सारे कहने से भी बात कही न गई। शब्द की पोशाक पहनाई न गई। लाख तरह से उपाय किया होगा । इधर से हारे तो उधर से किया होगा, उधर से हारे तो और कहीं से किया होगा। इस दरवाजे से प्रवेश न हो सका तो दूसरे दरवाजे पर खटखटाया होगा। लेकिन अंतिम निर्णय में यह कहा कि वह मोक्ष कुछ ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता। तुम्हें भी अनुभव हो जाए, बस ऐसी शुभाकांक्षा की जा सकती है । या तुम हाथ देने को राजी हो जाओ हाथ में तो तुम्हें भी ले जाया जा सकता है। सदगुरु का अर्थ यही है - जो तुम्हें ले जाए। सत्संग का अर्थ यही है, जहां तुम किसी और के हाथ में अपना हाथ देने को तैयार हो जाओ। 'मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन नहीं है...।' सव्वे सरा नियति तक्का जत्थ न विज्जइ । और तर्क से उसे कहा नहीं जा सकता...। तक्का जत्थ न विज्जइ । तुमने कभी खयाल किया ? जब स्वास्थ्य परिपूर्ण होता है तो बिलकुल पता नहीं चलता। थोड़ी बीमारी रहे तो ही पता चलता है। पैर में दर्द है तो शरीर का पता चलता है। सिर में दर्द है तो मई तत्थ न गाहिया...। वहां मन का कोई व्यापार ही नहीं रह जाता। मन के पार है, मन सिर का पता चलता है। जिस आदमी ने सिर का दर्द नहीं जाना अभी मैं बोलता हूं, तुम्हें सुनाई पड़ता है क्योंकि बोलने के आसपास शून्य भी छाया हुआ है। अगर शून्य मिट जाए तो बोलना संभव न रहे। अगर बोलना मिट जाए तो शून्य का अनुभव होना मुश्किल हो जाए। शोरगुल के कारण ही शांति का अनुभव होता है, खयाल रखना। अगर बिलकुल सन्नाटा हो, कोई आवाज न होती हो तो शांति का पता ही न चलेगा। पता चलने के लिए विपरीत चाहिए, द्वंद्व चाहिए। महावीर कहते हैं, वह इतना आत्यंतिक एक है, वहां कोई दो नहीं बचते; कि वहां ओज तक का पता नहीं चलता। वहां इतनी रोशनी है कि रोशनी का पता नहीं चलता । अंधेरा है ही नहीं । वहां इतनी शुद्धता है कि शुद्धता का भी पता नहीं चलता । क्योंकि शुद्धता का पता होने के लिए कुछ अशुद्धि, कुछ मल - कलंक शेष रह जाना चाहिए। 607 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 2 | उसे सिर का पता ही नहीं चलता। शरीर में कोई पीड़ा हो तो पता बाहर। मोक्ष से तो सिर्फ इतना ही पता चलता है कि हम सारे चलता है। बच्चों को शरीर का पता नहीं चलता, सिर्फ बूढ़ों को बंधन से मुक्त। हमारा होना सीमा के पार, मर्यादा के पार। सारी पता चलता है। जिस दिन शरीर का पता चलने लगे, समझना जंजीरें छूट गईं, कारागृह गिर गया और हम मुक्त गगन में उड़ बुढ़ापा करीब आ रहा है। शरीर के पता चलने का अर्थ है कि चले। उस अनंत में खो चले, विसर्जित हो चले। कुछ जराजीर्ण होने लगा। अनंत-अनंत जन्मों की अज्ञानपूर्ण चेष्टा भी वहां नहीं ले जा हमारे पास एक बड़ा बहुमूल्य शब्द है-वेदना। वेदना शब्द सकती, और ज्ञानपूर्ण एक श्वास वहां ले जा सकती है। इसलिए के दो अर्थ हैं। एक तो अर्थ है-ज्ञान। वेद भी उसी से असली सवाल जागने का, जाग्रत होने का है। बना—विद से। वेदना का अर्थ है, ज्ञान। और दूसरा अर्थ है, महावीर की सारी चिंतना को एक शब्द में निचोड़कर रखा जा दुख। बड़ी अजीब-सी बात है। इस एक शब्द के दो अर्थः ज्ञान सकता है—उनके सारे विज्ञान को-और वह शब्द है, और दुख। मगर बड़ी सार्थक बात है। दुख का ही पता चलता जागरूकता, अवेयरनेस, अप्रमत्त हो जाना। है। दुख का ही ज्ञान होता है। आनंद का तो पता ही नहीं चल यह बड़ा अनूठा धर्म है। यह सीधा विज्ञान का धर्म है। इसमें सकता। आनंद तो लापता है। जब आनंद घटता है तो उसके मंदिर की जरूरत नहीं, मूर्ति की जरूरत नहीं, पूजा-अर्चना की विपरीत तो कुछ भी नहीं बचता इसलिए पता कैसे चलेगा? | जरूरत नहीं, क्रिया-कांड की जरूरत नहीं, पंडित-पुरोहित की महावीर कहते हैं, वहां तो रोशनी भी नहीं रह जाती। या इतनी जरूरत नहीं, यज्ञ-हवन की जरूरत नहीं। इसमें कोई रोशनी हो जाती है, रोशनी ही रोशनी हो जाती है, कि उसे किन | साधन-सामग्री की जरूरत नहीं। कुछ भी जरूरत नहीं। इसमें शब्दों में कहें? इसलिए महावीर ने सच्चिदानंद शब्द का भी | तुम काफी हो। बस तुम ही प्रयोगशाल हो। प्रयोग नहीं किया। उपनिषद कहते हैं : सच्चिदानंद। महावीर | तुम्हारे भीतर सब मौजूद है। वह भी मौजूद है जिसको जगाना उसका भी प्रयोग नहीं करते। वे कहते हैं, असत रहा नहीं तो सत | है। बस, थोड़ा अपने को हिलाना-डुलाना है। अभी तुम किसको कहें? अचित रहा नहीं तो चित किसको कहें? दुख | गांठ-लगे रूमाल हो, बस जरा गांठ को खोल लेनी है। जो तुम्हें रहा नहीं तो आनंद किसको कहें? होना है वह तुम हो; थोड़ी-सी बाधाएं हैं, उनको गिरा देना है। इसलिए महावीर ने और एक छलांग ली–सच्चिदानंद के पार। कुछ है नहीं कहने को वहां, लेकिन चल सकते हो, पहुंच आज इतना ही। सकते हो। | इस अज्ञात पर जाने की जिनमें हिम्मत है...यह अज्ञात है। इसे अगर तुमने कहा कि पहले सिद्ध हो जाए तो हम चलेंगे जरूर, लेकिन सिद्ध तो हो जाए! तो तुम कभी जा ही न सकोगे क्योंकि यह कुछ बात सिद्ध होनेवाली नहीं है। तुम जाओगे तो सिद्ध होगी। तुम्हारे अनुभव से सिद्ध होगी। तो महावीर कहते हैं, ज्ञान की घटना ही...। और उस ज्ञान की घटना की तरफ जाना हो तो त्रिगुप्ति-मन, वचन, काया-तीनों के व्यापार में जागरण को सम्हालना। ज्ञान की अंतिम आत्यंतिक दशा का नाम मोक्ष। जिसको हिंदू ब्रह्म कहते हैं, उसको महावीर मोक्ष कहते हैं। और निश्चित महावीर का शब्द ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि ब्रह्म से ऐसा लगता है, कहीं कोई बाहर। ईश्वर से ऐसा लगता है, कहीं कोई 6081 2010_03 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internation 2010 3 For www.ja Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां प्रवचन एक दीप से कोटि दीप हों Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of C . C .S a तता c . प्रश्न-सार जिन-धारा अनेकांत-भाव और स्यातवाद से भरी है, फिर भी प्रेमशून्य क्यों हो गई? जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने से कोई तुम्हें रोके तो उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो। प्रेमपुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा? अतीत में एक गुरु के पास एक ही मार्ग के साधक इकट्ठे होते थे। और आपके आश्रम में सभी विपरीत मार्गों का मेला लगा हुआ है-यह कैसे? - त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देवा सीमार माझे असीम, तुमी बाजाओ आपन सूर आमार मध्ये तोमार प्रकाश ताई एतो मधुर एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया; वह कौन था? 2010_03 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORI पहला प्रश्न : जिन-धारा अनेकांत-भाव और | सबसे छुड़ा लेना आदमी को जरूरी था। वाद से भरी है: फिर भी प्रेम शन्य क्यों हो तो महावीर, आदमी बायें तरफ बहत झक गया था इसलिए गई? कृपा करके समझाएं। दायें तरफ झुके। जो थोड़े-से लोग उनकी बात को समझ सके, वे संयम को, संतुलन को उपलब्ध हो गए। लेकिन फिर पीढ़ी दर प्रेमशून्य होना ही थी; होना अनिवार्य था। हो गई, ऐसा नहीं। पीढ़ी लोग समझ से तो नहीं मानते, परंपरा से मानते हैं। फिर कोई भी जीवन-व्यवस्था परिपूर्ण नहीं है। प्रत्येक जीवन- | | लोग दायीं तरफ बहुत झुक गए। फिर वे इतनी दायीं तरफ झुक व्यवस्था का कुछ लाभ है, कुछ हानि है। गए कि ध्यान के नाम पर, तप के नाम पर उन्होंने प्रेम की हत्या जो लोग प्रेम को, प्रार्थना को, पूजा को आधार मानकर चलेंगे, | कर दी। जीवन को रसशून्य कर डाला। खतरा है कि उनका प्रेम, उनकी पूजा, उनकी प्रार्थना उनके संसार तो फिर भक्ति का पुनराविर्भाव हुआ। वल्लभ, रामानुज, को ही छिपाने का रास्ता बन जाए। प्रेम के पीछे राग के छिप जाने चैतन्य, निम्बार्क—एक अनूठा युग आया भक्ति का। फिर का डर है। प्रेम तो नाम ही रहे और भीतर राग खेल करने लगे। | भक्ति का पुनरउदभव हुआ। प्रेम तो नाम ही रहे, वीतरागता से बचने का उपाय हो जाए। यह अति हो गई थी-ध्यान की, तप की, तपश्चर्या की। तो प्रेम के मार्ग का खतरा है; वैसे ही ध्यान के मार्ग का खतरा इससे आदमी सूख गया। फूल खिलने बंद हो गए। फिर प्रेम को है। ध्यान के मार्ग का खतरा है कि राग को छुड़ाने में, मिटाने में जगाना पड़ा। तो कबीर, नानक, मीरा, दादू, रैदास-अदभुत प्रेम छूट जाए। राग को हटाने में प्रेम हट जाए। | भक्त पैदा हुए। इन्होंने फिर बायें तरफ मोड़ा। मनुष्य बहुत चालबाज है। इसलिए तुम उसे जो भी दो, वह जो थोड़े-से लोग समझे, जिन्होंने जागरूक रूप से इस बात अपने ढंग से ढाल लेगा। अगर तुम ध्यान की बात कहो तो वह को पहचाना वे संयम को उपलब्ध हो गए। उनके जीवन में प्रेम प्रेम को मार डालेगा। अगर तुम प्रेम की बात कहो, वह राग को भी रहा, राग छूटा। प्रेम बचा, राग छूटा। प्रीति बची, प्रीति के बचा लेगा। थोथे बंधन छूटे। प्रीति संसार से मुक्त हुई और परमात्मा की इसलिए प्रत्येक सदी में, प्रत्येक समय में, युग में जो उचित था, तरफ बही, प्रार्थना बनी। लेकिन जो नहीं समझे, जिन्होंने फिर उस समय के लिए जो उचित था; जिससे संतुलन निर्मित परंपरा को पकड़ा, उन्होंने फिर बात वहीं की वहीं पहुंचा दी। होता...जब महावीर जन्मे, तब प्रेम के नाम पर बहुत उपद्रव हो ऐसा सदा होता रहेगा। कोई मार्ग परिपूर्ण नहीं हो सकता। चुका था। परमात्मा के नाम पर बहुत तमाशा हो चुका था। | इसलिए कोई मार्ग शाश्वत नहीं हो सकता। बदलाहट करनी ही मंदिर, पूजा, पंडित, यज्ञ-हवन, बहुत खेल हो गए थे। उन | होगी। ऐसा ही समझो कि तुम मरघट किसी की अर्थी ले जाते हो 1613/ 2010_03 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः2 तो कंधे बदल लेते हो। एक कंधा दुखने लगता है तो अर्थी दूसरे संभावना है। महावीर ने परमात्मा तो हटा दिया, खतरा हट कंधे पर रख लेते हो। इसका कुछ यह मतलब नहीं है कि दूसरा गया। लेकिन खतरे के साथ-साथ लाभ भी हट गए। लाभ था कंधा कभी न दुखेगा। थोड़ी देर बाद दूसरा भी दुखेगा। फिर तुम कि परमात्मा के सहारे प्रेम विकसित होता है। वह हमारा पहले कंधे पर रख लोगे। इस कारण कि दूसरा भी दुखेगा, अगर परमप्रिय हो जाता है। वह हमारा प्यारा है। और अहंकार निर्मित न बदलो तो मुश्किल में पड़ जाओगे। अर्थी को मरघट तक ही न | नहीं होता। ले जा पाओगे। कंधे बदलने होते हैं। मनुष्य-जाति कंधे बदलती इसलिए जैन मुनि से ज्यादा अहंकारी मुनि तुम कहीं भी न रहती है। | पाओगे। क्योंकि अहंकार को समर्पित करने की जगह न रही। पूछा है, 'जिन-धारा से प्रेम शून्य क्यों हो गया?' | कोई चरण न रहे, जहां जाकर अहंकार को रख दो। अपने से जिन-धारा ध्यान की धारा है, तप की धारा है। प्रेम को साधना बड़ा कुछ भी न रहा। महावीर ने तो कहा था, तुम ही परमात्मा का अंग नहीं माना है महावीर ने, साधना की पूर्णाहुति माना है। हो। इसलिए नहीं कहा था कि तुम्हारा अहंकार बच जाए, जब कोई चलते-चलते मंजिल पर पहुंचेगा तो प्रेम प्रगट होगा। इसलिए कहा था ताकि तुम परमात्मा के नाम से जो जाल चल रहे मंजिल तक कौन पहुंचता है! जो पहुंचता है उसको प्रगट होता हैं, उसमें कहीं उलझो न।। है। महावीर पहुंचे, प्रेम प्रगट हुआ। जैनी तो मंजिल तक पहुंचे लेकिन परिणाम तो महावीर के हाथ में नहीं है। परमात्मा को नहीं। चले ही नहीं, पहुंचने की तो बात दूर। शास्त्र लिए बैठे हैं, छुड़ा दिया तुमसे; फिर तुम क्या करोगे परमात्मा के अभाव में, थोथे सिद्धांत लिए बैठे हैं। तो प्रेम तो समाप्त हो ही जाएगा। वह तो तुम्हारे हाथ में है। महावीर ने तो कह दी बात। कहते ही महावीर ने परमात्मा को जगह न दी क्योंकि परमात्मा के नाम तीर निकल गया। अब उसको तरकस में वापस नहीं ले जाया जा से खूब हो चुका था उपद्रव। खूब धोखाधड़ी, खूब पाखंड। बड़ी सकता। जो कह दिया वह महावीर से छूट गया। अब तुम्हारे सुविधा है परमात्मा के नाम से पाखंड चलाने की, क्योंकि हाथ में है कि तुम उसमें से क्या अर्थ निकालोगे। परमात्मा बड़ी आड़ बन जाता है। फिर तुम कुछ भी करो, सब मैं रहीम खानखाना का जीवन पढ़ता था। अकबर के नौ रत्नों परमात्मा की लीला है। लूटो-खसोटो तो परमात्मा की लीला में एक थे। अकबर उनसे बड़ा खश था और बहत है। क्या करोगे तुम? परमात्मा करवा रहा है। | जमीन-जायदादें दीं। करोड़ों रुपया उन्हें भेंट किया। वह जैसा तो हर चीज के लिए परमात्मा आड़ बन जाता है। महावीर ने उनके पास पैसा आता था ऐसे ही वे लुटा भी देते थे। मरे तो परमात्मा को हटा दिया बीच से। तो हानियां तो बंद हो गईं, भिखारी थे। करोड़ों रुपये आए-गए उनके हाथ में, लेकिन जो लेकिन परमात्मा को हटाने से एक खतरा है। परमात्मा हटा तो आया-बांटा। बांटने में कभी रुके नहीं। ऐसा बांटा कि शायद आदमी अकेला रह जाता है। प्रेमपात्र ही हट जाता है तो प्रेम के अकबर भी थोड़ा ईर्ष्यालु हो उठता था। उमगने की सुविधा नहीं रह जाती। बहुत कठिन है शून्य को प्रेम कहते हैं गंग कवि ने एक दोहा कहा। वे इतने खुश हो गए करना। कोई चाहिए, जिसे तुम प्रेम कर सको। रहीम, कि छत्तीस लाख रुपये एक-दो कड़ियों के लिए बोरों में अकेले कमरे में तुम बैठे हो। मैं तुमसे कहता हूं, भर जाओ प्रेम बंधवाकर चुपचाप रातोंरात गंग कवि के घर भेज दिए, किसी को | से। तुम कहोगे किसके प्रति ? मैं कहूंगा, तुम इसकी फिकर पता न चले। गंग बहुत हैरान हुआ तो गंग ने एक पद लिखा। छोड़ो। भर जाओ बस प्रेम से। इस सूने कमरे को प्रेम से भर सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन दो। तो भी तुम क्या करोगे? तुम ज्यादा से ज्यादा सोचोगे ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन प्रेयसी की बात, अपने बेटे की, बेटी की, मित्र की, अपने यह देना कहां से सीखे? सीखे कहां नबाबज्यू? यह नबाबी प्रियतम की। उस सोच में, उस कल्पना में ही तुम प्रेम से भर कहां सीखी? यह सम्राट होना कहां सीखा? पाओगे कमरे को। सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन बिना कल्पना के प्रेम को जगाना बहुत थोड़े-से सिद्धपुरुषों की देनेवाले बहुत देखे, लेकिन रात चोरी से अंधेरे में...। अंधेरे 614 2010_03 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दीप से कोटि दीप हों में तो लोग चुराने आते हैं, देने कोई आता है? किसी को पता न | जगह न रह गई। महावीर तो बड़े कुशल रहे होंगे, बिना परमात्मा चले-ऐसी देनी देन। के अहंकार को छोड़ दिया। ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन लेकिन जैनों से इतनी आशा नहीं की जा सकती। परमात्मा हट देनेवाला तो अकड़कर खड़ा हो जाता है। सारे संसार को गया तो अकड़ आ गई। हम ही सब कुछ हैं। कोई ईश्वर नहीं, दिखलाना चाहता है। और तुम, जैसे-जैसे तुम्हारा हाथ ऊंचा कहीं जाकर झुकना नहीं। तो तुम मुसलमान फकीर में जैसी होता जाता है, देने की क्षमता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आंख | विनम्रता देखोगे, सूफी फकीर में जैसी विनम्रता देखोगे, वैसी तुम नीची होती जाती है। जैन मुनि में नहीं देख सकते। भक्त में तुम जैसी विनम्रता देखोगे, रहीम ने इसके उत्तर में एक दोहा लिखा: वैसी तुम जैन मुनि में नहीं देख सकते। बड़ी अकड़ है। देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन जैन मुनि तो श्रावक को हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन सकता। नमस्कार ही भूल गया। अकड़ ऐसी हो गई कि नमन देनेवाला कोई और है, जो दिन-रात भेज रहा है और लोग शक की कला ही जाती रही। त्याग-तपश्चर्या से अहंकार भरा; कटा हम पर करते हैं; इसलिए आंखें नीची हैं। इसलिए देने में संकोच नहीं। इसलिए मैं कहता हूं: अमृत को जहर बनाने की सुविधा है। क्योंकि लोग सोचेंगे, हमने दिया। है, जहर को अमृत बनाने की सुविधा है। यह परमात्मा की धारणा का लाभ है : त्याग-तपश्चर्या से अहंकार कटना चाहिए। देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन परमात्मा की धारणा का यह लाभ है कि तुम अपने को किसी त्यागी और तपस्वी को तो यह सोचना चाहिए कि किए हुए के चरणों में पूरा रख सकते हो। सब तरह से रख सकते हो। पापों का प्रक्षालन कर रहा हूं त्याग-तपश्चर्या करके। जो किए थे देनहार कोई और है भेजत सो दिन-रैन पाप, उन्हें काट रहा हूं। इसमें गौरव कहां? इसमें गरिमा क्या? कोई भेजे चला जा रहा है। हमारा किया कुछ भी नहीं है। कोई पश्चात्ताप है। आंखें नीची होनी चाहिए। लेकिन त्यागी कर रहा है। अकड़कर खड़ा हो जाता है। वह...जानते हो कितने उपवास लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन किए? कितना धन छोड़ा? कितना बड़ा घर छोड़ा? कितना इसलिए आंखें संकोच से नीची कर लेते हैं कि लोग बड़ी गलत | साम्राज्य छोड़ा? आंखें तो नहीं झुकतीं, आंखें अकड़कर खड़ी बात सोच रहे हैं कि हम दे रहे हैं। देनेवाला कोई और है। हो जाती हैं। तो अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। परमात्मा और फिर जैन तत्व में आदमी के ऊपर कोई भी नहीं है। की धारणा का लाभ है कि अहंकार न बचे। | इसलिए बड़ी अड़चन हो जाती है। कहां रखो इस बोझिल सिर अगर कोई ठीक से उपयोग करे तो सभी धारणाएं लाभपूर्ण हैं। को? यह पत्थर की तरह तुम्हारी आत्मा पर बैठ जाता है। और अगर कोई ठीक से उपयोग न करे तो सभी धारणाएं इसलिए जैन दृष्टि से धीरे-धीरे प्रेम तिरोहित हो गया। खतरनाक हैं। सत्यों से फांसी लग सकती है। सत्य तुम्हारे प्राण परमात्मा ही जब न हुआ तो प्रेम रखो कहा? प्रेम करो को संकट में डाल सकते हैं। सत्य जहर हो सकता है। सब किसको? भक्ति खो गई। पीनेवाले पर निर्भर है। समझदार तो ऐसे भी हुए हैं कि जहर को मगर यह होना ही था। इसमें किसी का दोष भी नहीं है। ये भी औषधि बनाकर पी गए। और नासमझ ऐसे हुए हैं कि अमृत जीवन के सहज नियम हैं। को भी जहर बना लिया, विषाक्त हए और मर गए। मैं तुमसे जो कह रहा रहूं, तुममें से जो समझ पाएंगे उनके ही महावीर ने परमात्मा का तत्व हटाया, उसके साथ बड़े जंजाल | काम का है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, कहते से ही मेरे हाथ के थे, वे भी हट गए। पंडित हटा, पुरोहित हटा, पूजा-प्रार्थना हटी, बाहर हो गया। फिर तुम क्या उसका अर्थ करोगे, तुम पर निर्भर धोखाधड़ी, बीच के दलाल हटे लेकिन अहंकार को रखने की है। फिर मेरी उस पर कोई मालकियत भी न रही। फिर मैं यह भी 2010_03 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616 जिन सूत्र भाग: 2 नहीं कह सकता कि तुमने मेरे सत्य को बिगाड़ा | क्योंकि कहा, कि मेरा सत्य कहां रहा? तुम्हारा हो गया। सुन लिया, तुम्हारे कान में पड़ गया, तुम्हारा हो गया, अब तुम जो चाहो, सो करो। जो अर्थ निकालना हो, निकालो। जैसा अर्थ, जिस दिशा में ले जाना हो, ले जाओ। तुम मालिक हो गए। तुम्हें दिया, तुमसे बोला कि मेरी मालकियत समाप्त हो गई। अब मैं तुम पर कोई मुकदमा नहीं चला सकता। कहा? अब मुल्ला नसरुद्दीन नेता के पक्ष में गवाही देने आया था। वह बोला, इसका बिलकुल पक्का सबूत है। यद्यपि वहां सैकड़ों लोग आ-जा रहे थे, लेकिन इसने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा । | तुम सुनोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसका उपयोग भी करोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसमें से कुछ चुन लोगे, कुछ छोड़ दोगे। मैंन सुना है, कुरान में एक वचन आता कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा। एक मुसलमान शराब पीता था। उसके धर्मगुरु ने उससे कहा कि भाई, मैंने सुना है तुम कुरान भी पढ़ते हो। कभी-कभी तुम्हारे द्वार से निकलता हूं तो तुम्हारी आयतें सुनकर मैं भी मस्त हो जाता हूं। शराबी था, मस्ती से गाता होगा। लेकिन तुम कुरान में इतनी सी बात नहीं समझ पाए कि लिखा है कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा ? मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा चला। गांव के एक नेताजी को किसी आदमी ने उल्लू का पट्ठा कह दिया। अब ऐसे तो सभी नेता उल्लू के पट्ठे होते हैं। नहीं तो नेता क्यों हों ? आदमी अपने को तो सम्हाल ले! आदमी खुद तो चल ले ! आदमी सारी दुनिया को बदलने चल पड़ता है। सारी दुनिया को ठीक करने चल पड़ता है। नेता बहुत नाराज हुआ। उसने मानहानि का मुकदमा चला दिया । मजिस्ट्रेट ने पूछा मुल्ला को — मुल्ला गवाह था कि जिस होटल में यह घटना घटी, वहां पचासों लोग आ-जा रहे थे। और जिस आदमी ने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा, उसने नाम लेकर भी नहीं कहा; सिर्फ उल्लू का पट्ठा कहा। तो इसका क्या सबूत है कि उसने नेताजी को ही कहा, किसी और को नहीं मजिस्ट्रेट ने कहा, इसका प्रमाण क्या है? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, क्योंकि वहां और दूसरा पट्टा मौजूद ही नहीं था । उस मुसलमान ने कहा, समझता तो भला हूं, लेकिन एक-एक कदम चल रहा हूं। अभी आधे वाक्य तक पहुंचा हूं— 'जो शराब पीएगा।' अभी यहीं तक पहुंचा हूं। अपनी-अपनी सीमा, सामर्थ्य! अभी आधे वाक्य पर नहीं पहुंचा हूं। धीरे-धीरे चल रहा हूं, कभी पहुंच जाऊंगा। तुम अपने मतलब से चुन लोगे। तुम जो चुनना चाहते हो वही करोगे तो वह बिलकुल ही रूपांतरित हो जाएगा। चुन लोगे 1 2010_03 अब करोगे क्या ? पक्ष में गवाही देने आए हैं! तुम्हारे मतलब तुम्हारे हैं। तुम पक्ष में खड़े होओ कि विपक्ष में; बहुत फर्क नहीं पड़ता । तुम गवाही कहां से दे रहे हो, बहुत फर्क नहीं पड़ता । तुम तो तुम ही हो । तुम्हारे पास आते-आते किरणें तक मैली हो जाती हैं। तुम्हारे हाथ आते-आते सोना भी कचरा हो जाता है। तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते सभी सत्य असत्य हो जाते हैं। कोई उल्लू इसलिए तो लाओत्सु कहता है, 'सत्य को कहना ही मत; क्योंकि कहा कि असत्य हुआ।' कहा कि असत्य हुआ। किसी ने सुना कि असत्य हुआ । क्योंकि सुननेवाले को शब्द पहुंचेगा । शब्द को अर्थ तो वही चढ़ाएगा । अर्थ की खोल तो वही पहनाएगा। मैं तो नग्न सत्य तुम्हें दे दूंगा । वस्त्र तो तुम पहनाओगे। वे वस्त्र तुम्हारे होंगे। जब सजा-संवारकर तुम सत्य को खड़ा इसलिए दुनिया में प्रतियुग में दृष्टियों को बदलना पड़ता है। कभी ध्यान की धारा प्रवाहमान होती, कभी प्रीति की धारा प्रवाहमान होती । दोनों की जरूरत है । वे दोनों आवश्यक हैं। जब एक अति पर चली जाती है तो दूसरी धारा उसे खींचकर फिर संतुलन पर लाती है। ऐसा नहीं है कि वह संतुलन सदा रहेगा, लेकिन संतुलन के थोड़े-से क्षणों में कुछ लोग मुक्त हो जाएंगे। फिर असंतुलन हो जाएगा, फिर कोई खींचकर संतुलन को पैदा करेगा। भक्ति और ध्यान विरोधी नहीं हैं, परिपूरक हैं। जब एक अति जाती है तो दूसरा उसे सुधार लेता है। हो तुमने कभी रस्सी पर चलनेवाले बाजीगर को देखा ? जब नट रस्सी पर चलता है तो हाथ में एक डंडा रखता है। रस्सी पर चलना खतरनाक काम है— इतना ही खतरनाक जैसा जिंदगी Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दीप से कोटि दीप हों है। शायद इतना खतरनाक नहीं भी है, जितनी जिंदगी है। सम दो अतियों के मध्य में होता है; न इधर, न उधर। लेकिन क्योंकि रस्सी से गिरे तो हाथ-पैर टूटेंगे, जिंदगी से गिरे तो मौत तुम बार-बार अतियों में चले जाओगे यह सुनिश्चित है। तुम निश्चित है। एक अति से बचोगे तो दूसरी अति में चले जाओगे क्योंकि अति रस्सी पर चलनेवाला नट क्या करता? अगर वह देखता है कि में जाना मन की आदत है। इसलिए फिर-फिर तुम्हें खींच लेना बायें तरफ ज्यादा झुक गया है और खतरा गिरने का है, तो तत्क्षण होगा। यह जारी रहेगा। जब तक मनुष्य है इस पृथ्वी पर, यह अपने हाथ की लकड़ी को दायें तरफ झुका लेता है। वजन दायें जारी रहेगा। ध्यान और भक्ति के बीच खींचतान जारी रहेगी। तरफ डाल देता है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चल सकता। महावीर और मीरा को आते रहना पड़ेगा नए-नए रूपों में। क्योंकि थोड़ी देर में ही पाता है कि अब दायें तरफ गिरने का और अगर तुममें थोड़ी समझ हो, तुममें अगर थोड़ी भी आंख खतरा है, तो फिर वजन बायें तरफ डाल देता है। ऐसा बायें-दायें हो तुम्हारे पास तो तुम देख पाओगे, वे तुम्हें अलग-अलग नहीं वजन को डालता हुआ रस्सी पर अपने को सम्हालता है। खींच रहे, दोनों बीच के लिए खींच रहे हैं। भक्ति और ज्ञान बायें और दायें हैं। और इन दोनों के बीच में ध्यानी की अलग भाषा है। उसका अलग शास्त्र है, अलग मार्ग है अगर तुम मुझसे पूछो। न तो भक्ति मार्ग है, न ज्ञान मार्ग शब्दावलि है। वह मोक्ष की बात करता है, मुक्ति की बात करता है। इनके ठीक मध्य में, जहां संतुलन है वहां मार्ग है। लेकिन है। बंधन छोड़ने की बात करता है। त की तरफ ज्यादा झक गए हो तो महावीर ज्ञान की प्रेमी कि बिलकल विपरीत भाषा है। वह प्रेम की, मिलन की. तरफ खींचते हैं, ध्यान की तरफ खींचते हैं। तुम्हें लगता है ध्यान आत्यंतिक बंधन की बात करता है। वह कहता है, परमात्मा से की तरफ खींच रहे हैं। उनका प्रयोजन केवल तम्हें बीच में ले कभी छटना न हो। आना है, मध्य में ले आना है। क्योंकि मध्य में मुक्ति है। काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह जब महावीर जा चुके होते हैं और तुम उनकी सुन-सुनकर रहिमन दाख सुहावनो जो गल प्रीतम बांह धीरे-धीरे ज्यादा ध्यान की तरफ झुक जाते हो-ऐसे, कि अब रहीम कहते हैं, क्या करूंगा लेकर कल्पवृक्ष की छांव को और गिरे और खोपड़ी तोड़ लोगे, तो कोई रामानुज, कोई वल्लभ, बैकुंठ को। दो कौड़ी हैं। प्यारे का हाथ मेरे गले में पड़ा तुम्हें भक्ति की तरफ खींचने लगता है। तुम्हें लगता है कि ये | बस, परमअवस्था हो गई। तो पहुंच गए उस अंगूर के तले; लोग दुश्मन हैं। क्योंकि एक कहता था दायें, एक कहता है स्वर्ग के तले। बायें। एक उधर खींच गया, दूसरा इधर खींचने लगा। तुम बड़ा काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह विरोध करते हो। जैन को भक्ति की तरफ खींचो, तो एकदम रहिमन दाख सुहावनो.... लड़ने को खड़ा हो जाएगा। किसी भक्त को ध्यान की तरफ बैठे हैं अंगूर की छाया में। खींचो, तप की तरफ खींचो, एकदम झगड़ने को खड़ा हो - जो गल प्रीतम बांह जाएगा। तुम्हें लगता है ये दुश्मन हैं। अगर प्यारे का हाथ गले में है। नानक एक तरफ खींच रहे, महावीर एक तरफ खींच रहे, मीरा ज्ञानी कहेगा, प्यारे का हाथ गले में? बात क्या कर रहे हो? एक तरफ खींच रही, मोहम्मद एक तरफ खींच रहे, यह मामला रहिमन दाख सुहावनो...अंगूर, शराब...क्या बातें कर रहे क्या है? तुम तो कहते हो किसी एक से ही तय हो जाना ठीक हो? ये तो सब बंधन की बातें हैं। ये भाषाएं अलग हैं। इनकी है। ऐसे तो खिंचा-खिंचव्वल में खराबी हो जाएगी। लेकिन ये पद्धति अलग है। दोनों ही तुम्हें सत्य की तरफ़ खींच रहे हैं। सत्य संतुलन है। ठीक | अगर तुम बहुत ध्यान की तरफ चले गए हो तो किसी मीरा को मध्य में, जहां न बायां रह जाता न दायां; जहां कोई अति नहीं रह खींच लेने का अवसर देना। अगर बहुत प्रेम की तरफ चले गए जाती-निरति; वहीं समाधि है, वहीं सम्यकत्व है, वहीं समत्व हो, और प्रेम कीचड़ बनने लगा हो और राग बनने लगा हो तो है, वहीं समता का जन्म है। किसी महावीर को खींचने की सविधा देना। दोनों का उपयोग 617 ___ 2010_03 Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कर लेना मध्य में आने को। जैसी जब जरूरत हो, वैसा उपयोग यहां पना में आता है तो एकदम पक्का भाव हो जाता है। लेकिन कर लेना। जैसे ही अपने गांव की याद आती है, फिर घबड़ा जाता हूं कि असली बात न भूले कि सत्य को पाना है, कि जागना है, कि गेरुए वस्त्र, माला! गांव में लोग पागल समझेंगे। तो गांव के जो है, उसे जानना है। कारण नहीं ले पा रहा हूं। तो मैंने उनसे कहा, गांव का इससे क्या लेना-देना? पागल न दूसरा प्रश्नः जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे समझे जाओ, यह है असली भय। गांव क्या करेगा? अगर साथ चलने में के में कोई तुम्हें रोके तो तुम उसे मार डालो और मेरे पागल समझे जाने को राजी हो तो गांव क्या करेगा? अगर साथ चल पड़ो। प्रेम के पुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा? आप | पागल हो ही जाओगे तो गांव क्या करेगा? तो हमें ऐसी आज्ञा नहीं देते। लेकिन यदि ऐसी समस्या हमारे गांव क्या कर सकता है! लेकिन भीतर भाव है कि गांव में जो सामने भी आए तो आप क्या आज्ञा देंगे-वही, जो जीसस ने प्रतिष्ठा है, वह न मिट जाए। तो प्रतिष्ठा रोक रही है, गांव तो दी? | नहीं रोक रहा। सीधी बातों को सीधा न करके हम उलझाते हैं। प्रतिष्ठा का मोह रोक रहा है। गांव तो नहीं रोक रहा। प्रतिष्ठा के मार डालो। मोह को मार डालो। लेकिन तुम समझे नहीं जीसस का अर्थ, इसलिए अड़चन हो जीसस का मतलब इतना ही है। जीसस अपने शिष्यों से कहते गई। बाहर थोड़े ही कोई तुम्हें रोक सकता है, रोकनेवाले भीतर थे कि यदि मेरे साथ चलने में कोई तुम्हें रोके तो उसे मार डालो | हैं। पत्नी थोड़े ही तुम्हें रोक सकती है, अगर तुम जा रहे हो सत्य और मेरे साथ चल पड़ो। की तरफ। बेचारी पत्नी क्या रोकेगी! मरोगे तो कैसे रोकेगी? हजार बाधाएं आती हैं जीसस जैसे व्यक्ति के साथ चलने में। जब मरने में नहीं रोक सकती तो संन्यास में कैसे रोकेगी? जो वे बाधाएं बाहर नहीं हैं, वे तुम्हारे भीतर हैं। होना है, अगर होना है तो पत्नी कैसे रोकेगी? अगर पत्नी भी | एक बहुत बड़ा धनपति, और बहुत प्रतिष्ठित विद्वान और रोक पाती है तो कहीं तुम्हारा ही भीतर डांवाडोल है। पत्नी का जेरूसलम के विश्वविद्यालय का अध्यापक निकोदेमस जीसस तुम बहाना लेते हो। | को मिलना चाहता था। लेकिन दिन में मिलने जाने से डरता जीसस कहते हैं कि उस डांवाडोलपन को मार डालो। कोई था—दिन में। क्योंकि लोगों को पता चल जाए तो वह प्रतिष्ठित जीसस पत्नी को मार डालने को थोड़े ही कहेंगे। इतनी अकल, आदमी था। पांच पंचों में एक था जेरूसलम के। लोग क्या जितनी तुममें है, इतनी तो उनमें भी रही होगी। कम से कम इतना कहेंगे? वह बड़ा पंडित था। उसके वचन शास्त्रों की तरह तो भरोसा करो कि इतनी अकल उनमें भी रही होगी। | समझे जाते थे। लोग क्या कहेंगे कि तुम भी पूछने गए? तो तुम्हें भीतर हैं रोकनेवाली चीजें। राग है, मोह है, लोभ है, क्रोध है। भी पता नहीं है अभी? शत्र भीतर है, बाहर नहीं। बाहर तो सिर्फ प्रक्षेपण होता है। उम्र भी उसकी ज्यादा थी। जीसस तो अभी जवान थे-कोई जब तुम कहते हो, फलां आदमी मेरा शत्रु है, मेरे राह में, मार्ग तीस साल की, इकतीस साल की उम्र थी। में रोड़े डाल रहा है तो वह आदमी सिर्फ पर्दा है, शत्रुता तुम्हारे वह उम्र में भी बड़ा था, प्रतिष्ठा में भी बड़ा था, धन में भी बड़ा भीतर है, जो तुम उसके ऊपर आरोपित कर रहे हो। शत्रुता को | था। नाम भी उसका बड़ा था। सारा देश उसे जानता था। हजारों मार डालो, फिर देखो कौन शत्रु! और मित्रता को मार डालो, उसके शिष्य थे, विद्यार्थी थे। वह कैसे इस आवारा आदमी के | फिर देखो कौन मित्र है! राग को मिटा दो फिर देखो, कौन | पास चला जाए दिन में? और वहां भीड़ भी आवाराओं की लगी अपना, कौन परायाअहंकार को छोड़ दो, फिर देखो कौन हुई थी। वे क्या कहेंगे? लोग हंसेंगे। गांवभर में भद्द हो | रोकता है। कैसे रोक सकता है? | जाएगी। प्रतिष्ठा टूट जाएगी। एक मित्र संन्यास लेने आए थे। वे कहते हैं, लेना तो है। जब | तो एक दिन आधी रात अंधेरे में, जब सारे लोग जा चुके थे तब 618 2010_03 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दीप से कोटि दीप हों वह अंधेरे में सरकता चुपचाप जीसस के पास पहुंचा। हिलाया मार्ग में आए, मार डालना। लेकिन मेरा अर्थ समझ लेना। उनको, कहा कि सुनो। एक बात पूछनी है। तुम्हें मिल गया? किसी को मार मत डालना। कि पत्नी बीच में आए तो उठाकर जीसस ने कहा, दिन में क्यों न आए? निकोदेमस बोला, लोगों एक टेंडपा उसका सिर तोड़ दो। के कारण। __ भीतर तुम्हारे जो-जो बाधाएं हैं उन्हें गिरा दो। बाहर कभी कोई जीसस ने कहा, इतने लोग आते हैं, लोगों के कारण कोई बाधा नहीं है-रही ही नहीं। बाहर तो हमारी तरकीबें हैं। जो रुकता नहीं। रुकने का कारण कहीं भीतर होगा। निकोदेमस, हम भीतर से करने में डरते हैं, लेकिन इतनी भी हिम्मत नहीं है कि किसे धोखा दे रहे हो? इतने बड़े पंडित और समझदार होकर स्वीकार कर लें अपनी कमजोरी, उनके लिए हम बाहर कारण इतनी-सी बात भी समझ में नहीं आ रही? रात में मिलने आए | खोजते हैं। यह बाहर का सब तर्कजाल है। हो ताकि किसी को पता न चले? ताकि कल भरी दुपहरी में तुम | तुम कहते हो पत्नी दुखी होगी, इसलिए संन्यास नहीं ले रहे कह सको कि यह जीसस आवारा है? जो जाते हैं इसके पास, | हो। लेकिन और कितने काम तुमने किए, तब तुमने पत्नी के नासमझ हैं, भूले-भटके हैं। यह दूसरों को भटका रहा है। ताकि दुखी होने की कोई फिकर न की; संन्यास में ही फिकर कर रहे तुम अपनी प्रतिष्ठा भी बचा लो निकोदेमस! और तुम्हारे पास हो? पत्नी तुम्हारी सुखी रही है इसका अर्थ है पूरे जीवन? अभी कुछ है भी नहीं, इसलिए तुम पूछने को भी तरसते हो। तक मैंने सुखी पत्नी नहीं देखी, न सुखी पति देखा। सब रोते _हां, मुझे मिला है लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जब तक तुम मरो दिखाई पड़ते हैं। पति सोचता है, पत्नी दुख दे रही है। पत्नी नहीं, तुम्हारा पुनर्जन्म न हो, तुम न पा सकोगे। सोचती है, पति दुख दे रहा है। और फिर भी तुम कहते हो, पत्नी निकोदेमस भी प्रश्न पूछनेवाले की तरह गलत समझा। उसने दुखी होगी। इतने दुख दिए, यही एक दुख देने में डर रहे हो? । कहा, मरो नहीं? क्या मतलब? और पुनर्जन्म से तुम क्या नहीं, कहीं कुछ और बात है। शराब पीते हो तब नहीं सोचते चाहते हो? क्या मैं फिर किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करूं? यह कि पत्नी दुखी होगी। जुआ खेलते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी तो असंभव है। दुखी होगी। किसी और स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो तब नहीं जीसस ने कहा, सीधी-सीधी बात है। असंभव मत बनाओ। सोचते कि पत्नी दुखी होगी। तब कहते हो क्या करें! मजबूरी न तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम मरो; और न मैं यह कह रहा हूं, | है। हो गया, प्रेम हो गया; अब क्या करें? किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करो। मैं इतना ही कह रहा हूं कि ऐसा ही कह न सकोगे कि संन्यास हो गया, अब क्या करें? तुम्हारा पुराना अहंकार गिरे। तुम नए हो जाओ। प्रतिष्ठा पाकर नहीं, पत्नी से किसको प्रयोजन है? और फिर दूसरे को दुख देना क्या मिला? देखो जीवन को सीधा-सीधा। प्रतिष्ठा है तुम्हारे न देना तुम्हारे बस में है? सुख देना तुम्हारे हाथ में है? पास, पद है तुम्हारे पास, तथाकथित ज्ञान का अंबार लगा है | जो तुम नहीं करना चाहते हो उसके लिए तुम बाहर कारण तुम्हारे पास; मिला क्या? छोड़ो उसे, जिससे नहीं मिला तो तुम खोज लेते हो। जो तुम करना चाहते हो, उसके लिए भी कारण उसे पाने के हकदार हो सकते हो, जिससे मिल सकता है। मैं देने खोज लेते हो। करते तुम वही हो, जो तुम करना चाह को तैयार हैं। लेकिन पहले इस सबको मार आओ, मिटा सदा कारणों का सहारा ले लेते हो। आओ। पुराने को गिराओ ताकि नया निर्मित हो सके। ये जब जीसस कहते हैं, मार डालो जो बाधा बने—उनका कुल घास-फूस उखाड़ो और फेंको ताकि फूलों के बीज बोए जा प्रयोजन इतना है कि अपने भीतर से सारा जाल गिरा दो, फिर सकें। निकोदेमस ने कहा कि यह जरा कठिन है। तुम्हें जो ठीक लगे, करो। तभी कोई जीसस के पीछे आ सकता लेकिन अगर सत्य को पाना इतना भी मूल्यवान नहीं है कि तुम है। तभी कोई मेरे साथ आ सकता है। कुछ चुकाना पड़ेगा थोड़ी कठिनाई से गुजर सको तो तुम सत्य पाने के हकदार भी | मूल्य। सत्संग मुफ्त तो नहीं है। महंगे से महंगा सौदा है। और संसार में सब चीजें छोटी-मोटी चीजें देने से मिल जाती सीधा-सा मतलब है। वही मैं भी तुमसे कहता हूं कि जो तुम्हारे हैं, यहां तो कोई अपने को पूरा दे सकेगा तो ही पा सकेगा। नहीं। 619 ___ 2010_03 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 कहते हो कि 'प्रेम के पुजारी से ऐसी आज्ञा ?' करते थे वे आ गईं। इस आदमी के पास कुछ है। हम इसके यह प्रेम की ही आज्ञा है। यह आज्ञा बड़ी प्रेमपूर्ण है; नहीं तो | साथ चलेंगे। यह भी न पूछा तुम कौन हो? पता-ठिकाना? दी न गई होती। जीसस तुम्हें प्रेम करते हैं इसलिए ऐसा कह तुम्हारा अधिकार क्या? तुम्हारी आप्तता क्या? किस अधिकार सके। यह पुकार प्रेम की ही पुकार है। अन्यथा तुम्हें पीछे चलाने के बल से बोल रहे हो कि हमारे पीछे आओ, फेंको जाल? में कुछ जीसस को सुख मिलनेवाला नहीं है। न तुम्हें पीछे वे पीछे हो लिए। वे गांव के बाहर निकलते थे कि एक आदमी चलाते, न फांसी मिलती। तुम्हें पीछे चलाया, फांसी मिली। | भागा हुआ आया और उसने कहा कि तुम दोनों कहां जा रहे हो अकेले बैठे रहते, कोई फांसी लगानेवाला न था। तुम्हें चलाया | पागलो? तुम्हारा बाप, जो बीमार था, वह मर चुका। तो कंधे पर अपनी सूली ढोनी पड़ी। अकेले बैठे रहते, तुम्हें पीछे उन दोनों ने जीसस से कहा, हमें तीन-चार दिन की मोहलत, न चलाते तो सली ढोने की कोई नौबत न आती। सुविधा दे दें। हम जाकर अपने पिता का अंतिम संस्कार कर तुम्हें साथ चलाकर जीसस को क्या मिला? फांसी मिली, आएं। तो जीसस ने कहा कि जो मुर्दे गांव में हैं, काफी हैं। वे मुर्दे सूली मिली। कोई सिंहासन तो मिल न गया। लाभ जीसस को का संस्कार कर लेंगे। तू फिकर न कर। तुम फिकर मत करो। क्या हो गया? लेकिन प्रेम था। बिना चलाए न रह सके। जो | तुम मेरे पीछे चल पड़े तो अब लौटकर मत देखो। मरे हुए बाप मिला था, बिना बांटे न रह सके। जो पाया था, चाहा कि तुम्हारी को दफनाने के लिए मरे हुए लोग काफी हैं गांव में; वे फिकर कर झोली में भी भर दें। किसी गहन प्रेम से ही पुकारा था कि आओ लेंगे। मुर्दे मुर्दे को दफना लेंगे। तुम मेरे पीछे आओ। मेरे पीछे। किसी बड़े खजाने की खबर उनको मिल गई थी। वह | यह हमें लगेगा बड़ी कठोर बात है। और प्रेमी, प्रेम के खजाना इतने पास है और तुम भिखमंगे हो। तो कहा था, चले संदेशवाहक जीसस के मुंह से, कि दफना लेंगे मुर्दे मुर्दे को... । आओ मेरे पीछे। जिनको भी जीसस का खजाना समझ में आ लेकिन मुर्दे को दफनाकर भी क्या होना है? जो जा ही चुका, जा गया, वे चल पड़े। ही चुका। अब तुम इस लाश को मिट्टी में गड़ा दो कि आग में जीसस सुबह निकलते हैं एक झील के पास से। दो मछुए जला दो कि पशु-पक्षियों के लिए छोड़ दो। क्या फर्क पड़ता | मछलियां मार रहे हैं। उन्होंने जाल फेंका है, अभी सूरज ऊगा है है? कि तुम विधि-विधान पूरा करो कि मंत्र जाप करो; क्या और जीसस पीछे आकर खड़े हो गए। और उन्होंने एक मछुए के फर्क पड़ता है ? जो चुका, जा चुका। अब तो यह खोल पड़ी रह कंधे पर हाथ रखा और कहा कि देख, मेरी तरफ देख। कब तक | गई है। प्राण तो उड़ चुके। पिंजड़ा पड़ा रह गया है; पक्षी तो जा मछलियां पकड़ता रहेगा? अरे आ! मैं तुझे कुछ बड़ी चीजें चुका। अब यहां कुछ भी नहीं है। पकड़ने का राज बताता हूं। और फिर मैं सदा यहां न रहूंगा। मेरे इसलिए जीसस कहते हैं, यह काम तो मुर्दे भी कर लेंगे। जाने का वक्त जल्दी ही आ जाएगा। इसलिए तम्हें जाने की कोई जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर वह मछआ तो चौंका होगा। यह कौन अजनबी आदमी? मत देखो. अन्यथा मेरे साथ न चल सकोगे। और कैसी अजीब-सी बातें कर रहा है। लेकिन उसने जीसस को। जिन्हें जीसस के साथ चलना हो, उन्हें आगे देखना चाहिए। देखा, वह सीधा भोला-भाला आदमी रहा होगा। वह कोई जो जा चुका, जा चुका। अतीत न हो चुका। जो ऊग रहा सूरज, पंडित न था। उसे शास्त्रों का कुछ पता नहीं था। मछलियां मारने | उस तरफ ध्यान देना चाहिए क्योंकि वहां जीवन है। वहां जीवन में ही जिंदगी बिताई थी। सीधा-सादा भोला-भाला आदमी था।। की संभावना है। वहां जीवन की नियति है। वहां भाग्य का छिपा तर्क, गणित, जाल कुछ भी न था। | हुआ खजाना है। उसने जीसस की आंखों में देखा-सीधे आदमी ही आंखों में हिम्मतवर लोग रहे होंगे। यह घड़ी ऐसी थी कि कहते कि यह आंखें डालकर देख सकते हैं और उस के हाथ से जाल छट | भी क्या बात हई। जिस पिता ने हमें जन्म दिया वह मर गया और गया। उसने अपने भाई को भी ललकारा, जो डोंगी में बैठकर तुम हमें रोकते हो? लेकिन बड़े सीधे-साफ लोग रहे होंगे। जाल डाल रहा था कि तु भी आ। जिन आंखों की हम तलाश उनकी बात समझ में आ गई। उन्होंने कहा, यह बात तो ठीक ही 620 Jalt Education International 2010_03 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दीप से कोटि दीप हों - है। दफनाकर भी क्या होगा? और इतने लोग तो गांव में हैं ही, | एक अजनबी आदमी गांव में आए, जल्दी ही तुम पाओगे, वे दफना ही लेंगे। दो-चार दिन के भीतर उसने अपने जैसे लोग खोज लिए। अगर वे नहीं गए वापस। वे जीसस के साथ ही चलते रहे। वह भक्त था तो भक्तों के सत्संग में पहुंच जाएगा। गीत यह आवाज प्रेम की ही आवाज थी। यह करुणा का ही संदेश | गुनगाएगा, नाचेगा, प्रभु का स्मरण करेगा। शराबी था तो था। क्योंकि जीसस को पता है, एक बार व्यक्ति मक्त हो जाए | शराबखाने पहंच जाएगा। शराबियों के गले में हाथ पड़ जाएंगे। तो नाव ज्यादा देर इस किनारे पर नहीं टिकती। थोड़ी देर टिकती | जुआरी था, जुआघर खोज लेगा। है। थोड़ी देर टिक जाए, यह भी चमत्कार है। थोड़ी देर भी चेष्टा भक्त वर्षों रह जाए इस गांव में, और उसे पता न चलेगा कि से टिकती है। यह नाव जल्दी छट जाएगी। अगर पीछे जआघर कहा है। और जआरी वर्षों रह जाए. उसे पता न चलेगा लौट-लौटकर देखते रहे, और व्यर्थ की बातों में उलझते रहे और कि कहीं भजन भी हो रहा है। उसी रास्ते से गुजर जाएगा। व्यर्थ के बहाने खोजते रहे और कहा कि कल आएंगे, परसों लेकिन भजन आंख में दिखाई न पड़ेगा, कान में सुनाई न पड़ेगा। आएंगे, तो तुम कभी न आ पाओगे। शोरगुल मालूम होगा। उससे कोई संबंध न जुड़ेगा। लेकिन इसलिए जीसस कहते हैं, जो मार्ग में आए, जो बाधा बने, उसे कहीं पासों की खनकार सुनाई पड़ जाए तो वह सजग हो हटा दो, मिटा दो। जाएगा। उसकी दुनिया आ गयी। उसके भीतर कोई चीज मैं भी तुमसे यही कहता हूं। जो व्यर्थ है उसके साथ संग मत | तालमेल खा गई। जोड़ो। जो थोथा है उससे दोस्ती मत बनाओ। थोथे से दोस्ती तुम बाहर उन्हीं से दोस्ती बना लेते हो, जैसे तुम हो। इसलिए तुम्हारे भीतर के थोथेपन का सबूत है। बाहर को दोष मत देना। भीतर अपने खोजना। ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे। रहीम कहते हैं: ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं तीसरा प्रश्न: आपने कहा है कि एक-दूसरे से विपरीत ओछे से दोस्ती मत बांधो। व्यर्थ से दोस्ती मत बांधो। असार | अनेक मार्ग हैं, जो एक परमात्मा पर ले जाते हैं। अतीत में ऐसा से दोस्ती मत बांधो। अंगार समझो ओछे को। रहा है कि एक ही मार्ग के साधक एक गुरु के पास इकट्ठे होते तातै जारे अंग थे। जैसे योगी अलग, भक्त अलग, तांत्रिक अलग, ध्यानी जब गरम होता, जलता होता तो शरीर को जलाता है। अलग। इससे सभी को अपने मार्ग पर चलने में सुविधा थी। सीरो पै कारो लगे परंतु आपके पास, आपके आश्रम में तो सब विपरीत मार्गों का और जब ठंडा हो जाता है तो शरीर में कालिख लगाता है। मेला लगा हुआ है—योगी और भक्त, तांत्रिक और सूफी, ऐसा अंगार समझो ओछेपन को। जलाएगा या तो, अगर जीवित कर्मयोगी और ध्यानी, सब एक साथ। ऐसा कैसे? इससे रहा, गरम रहा। अगर मरा, मुर्दा हुआ तो कोयला हो जाएगा, तो | बाधाएं भी बनती हैं। इस संबंध में कुछ कहने की कृपा करें। फिर शरीर को काला करेगा। मगर हर हालत में सताएगा। पर ध्यान रखना, जीवन के सारे सूत्र आत्यंतिक अर्थों में अंतस | यह सच है। अतीत में ऐसा ही था। एक गुरु एक संकीर्ण मार्ग के संबंध में हैं। तुम किसी ओछे आदमी से दोस्ती क्यों करते का उपदेष्टा होता था। उसके लाभ भी थे, हानियां भी थीं। हो? दोस्ती अकारण तो नहीं होती। तुम्हारे भीतर कुछ ओछापन | लाभ तो यह था कि तुम्हारे मन में कभी दुविधा पैदा न होती होता है जो उसके साथ तालमेल खाता है। तुम बुरे आदमी की थी। एक ही बात...एक ही बात...एक ही बात सुनते थे। एक दोस्ती कैसे कर लेते हो? कोई आसमान से दोस्ती थोड़े ही ही बात...एक ही बात...एक ही बात करते थे। संदेह पैदा न टपकती है। होता था। चुपचाप अपने मार्ग को पकड़कर चलते थे। लेकिन 6211 ___ 2010_03 Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 जिन सूत्र भाग: 2 खतरा था। संकीर्णता पैदा होती थी। सांप्रदायिकता पैदा होती थी, कि मैं ही ठीक हूं, और सब गलत हैं । यही मार्ग ठीक है, और सब मार्ग गलत हैं। तो लाभ था, हानि थी । और लाभ से हानि ज्यादा बड़ी सिद्ध हुई। लाभ तो बहुत थोड़े लोगों को हुआ, हानि करोड़ों को हुई सारी दुनिया सांप्रदायिक हो गई। सारी दुनिया में यह मतांधता फैल गई कि हम ठीक और बाकी सब गलत । । जैन से पूछो, वह कहता है हमारा गुरु गुरु, बाकी सब कुगुरु । हमारा शास्त्र शास्त्र, बाकी सब कुशास्त्र । मुसलमान से पूछो, हिंदू से पूछो, ईसाई से पूछो। सब संकीर्ण हो गए, सांप्रदायिक हो गए। धर्म की तो हत्या हो गई। सुविधा तो मिली होगी थोड़े-से लोगों को, सरल - चित्त लोगों को- जिन्होंने इतना ही जाना कि हमारे लिए क्या ठीक है, हमें मिल गया और चुपचाप उस पर चल पड़े। सौ में से एक को तो सुविधा मिली होगी, निन्यानबे तो सिर्फ संकीर्ण हो गए। मैं ठीक उल्टा प्रयोग कर रहा हूं, जैसा कभी नहीं हुआ है। मैं यह फिकर कर रहा हूं कि चाहे सुविधा थोड़ी कम हो, संकीर्णता न हो। मानना मेरा ऐसा है कि जो एक सरल आदमी पुरानी संकीर्ण सीमाओं से जा सका, वह सरल आदमी मेरे पास भी जा सकेगा। उसे दुविधा पैदा नहीं होगी यहां भी। क्योंकि सरल आदमी मुझे देखेगा । मैं क्या कहता हूं इसकी बहुत फिकर ही नहीं करता । सरल आदमी तो मुझ पर भरोसा करता है । वह कहता है वे जो कहते होंगे, ठीक कहते होंगे। उसे कोई दुविधा पैदा नहीं होती। वह मेरे विरोधाभास में भी मुझे ही देखता है। दोनों में मुझे ही देखता है। और सरल आदमी तो अपने काम की बात चुन लेता है और चल पड़ता है। जटिल आदमियों के साथ झंझट है। लोभियों के साथ झंझट है। उन लोभियों को दुविधा पैदा होगी क्योंकि वे चाहते हैं, ध्यान भी झपट लें, प्रेम भी झपट लें। भक्ति पर भी कब्जा कर लें, ध्यान पर भी कब्जा कर लें। तपस्वी भी हो जाएं, जीवन का रस भी न खोए। त्याग का भी मजा ले लें, अहंकार का भी मजा ले लें और परमात्मा की पूजा का भी रस आ जाए। लोभी! उसको तकलीफ होगी। सरल - चित को तो मेरे पास कोई तकलीफ नहीं है। उसको कभी कोई तकलीफ नहीं है, किसी के पास कोई तकलीफ नहीं है। सरल - चित्त आदमी तो 2010_03 अपने मतलब की बात खोज लेता, चल पड़ता। तुम जाते हो नदी के किनारे । प्यासा आदमी तो अपने चुल्लू में पानी भर लेता है। पूरे नदी की थोड़े ही फिक्र करता है कि अब इसको घर ले जाएं, बांधकर रखें, क्या करें, क्या न करें। वह धन्यवाद देता है नदी को कि ठीक। अपनी चुल्लू भर ली, अपनी प्यास बुझा ली, बात खतम हो गई। हां, अगर तुम लोभी हो तो तुम प्यास तो भूल ही जाओगे, तुम सोचोगे इस नदी पर कब्जा कैसे किया जाए। यह पूरी नदी मेरे तिजोड़ी में कैसे बंद हो जाए। इस पूरी नदी का मैं मालिक कैसे हो जाऊं। तो तुम अड़चन में पड़ोगे | सरल तो पहले भी अड़चन में नहीं पड़ा, अब भी नहीं पड़ेगा। मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह नया है । मैं चाहता हूं कि संसार में अब संकीर्णता न रहे, सांप्रदायिकता न रहे। संप्रदाय के नाम पर बहुत हानि हो चुकी । आदमी लड़े और कटे और मरे । आदमी निर्मित नहीं हुआ, विनष्ट हुआ। अब संप्रदाय नहीं चाहिए। अब तो दुनिया में धर्म नहीं चाहिए, धार्मिकता चाहिए । मंदिर-मस्जिद नहीं चाहिए, धर्म-भावना चाहिए। कुरान- गीता छूटें, छूटें; सदभाव न छूटे। जैन, हिंदू, मुसलमान नहीं चाहिए। अब तो भले, सीधे, सरल-चित्त लोग चाहिए। क्योंकि जैन, हिंदू, मुसलमान तो हजारों वर्षों से जमीन पर हैं। और जमीन रोज नर्क होती चली गई। इनके होने से कुछ लाभ नहीं हुआ। ये तो अब विदा लें। इनको तो हम अलविदा कहें। अब तो खाली आदमी, सूना आदमी, स्वस्थ - सरल आदमी चाहिए। इसलिए मैं सारे धर्मों की बात कर रहा हूं। इसमें जो सरल हैं उनको तो बड़ा लाभ होगा, जो जटिल हैं उनको बड़ी दु होगी। लेकिन मेरे देखे, मेरे लेखे अगर सौ आदमी पुरानी दुनिया में चलते थे धर्म के मार्ग पर तो निन्यानबे संकीर्ण हो गए, एक सरल पहुंचा। मैं तुमसे कहता हूं, वह एक सरल तो मेरे पास भी पहुंच जाएगा और निन्यानबे संकीर्ण न हो पाएंगे। और अगर निन्यानबे संकीर्ण न हों तो उनके पहुंचने की संभावना भी बढ़ गई। मैं तुम्हें विराट करना चाहता हूं। तुम्हें पूरी दृष्टि देना चाहता हूं। तुम सब देख लो। फिर तुम्हें जो रुचिकर लगे उस पर चल पड़ो। कठिनाई तो तब होगी जब तुम सभी रास्तों पर चलने की कोशिश करने लगोगे। तब अड़चन होगी । लेकिन यह तो पागलपन है। तुम केमिस्ट की दुकान पर जाते Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दीप से कोटि दीप हों हो, अपना प्रिस्क्रिप्शन दिखाते हो, दवा ली, चल पड़े। तुम यह | यह तो अच्छा हुआ कि दोनों का कहीं मिलना नहीं होता बीच नहीं कहते कि यहां लाखों दवाएं रखी हैं। तुम यह नहीं कहते कि में। नहीं तो गंगा कहेगी, पागल हुई? पश्चिम में कहीं सागर एक ही दवा से क्या होगा? सब दवाएं दे दो। तुम अपना रोग है? सदा से पूरब में रहा। हम सदा पूरब में मिलते रहे सागर देख लेते हो, अपनी औषधि लेकर अपने घर चले आते हो। तुम से। तेरा दिमाग फिर गया नर्मदा? लौट आ। मेरे साथ हो ले। चिंता में नहीं पड़ते कि केमिस्ट की दुकान पर लाखों दवाएं रखी हमारे संप्रदाय में सम्मिलित हो जा।। हैं और हम एक ही लिए जा रहे हैं? तुम लोभ में नहीं पड़ते। और नर्मदा कहेगी, तू पागल हो गई? हम सदा से गिरते रहे मैं तुम्हारे सामने सब द्वार खोल रहा हूं। तुम्हें जो द्वार रुच जाए, | सागर में। यही हमारा ढंग रहा। तुझे कुछ भ्रांति है। पूरब में कहीं तुम उससे प्रवेश कर जाना। अब तुम यह कोशिश मत करना कि सागर है? पूरब से तो हम आते हैं, पश्चिम को हम जाते हैं। सभी द्वारों से तुम प्रवेश करो; अन्यथा तुम पगला जाओगे। पूरब में सागर होता तो हम आते ही क्यों पूरब से? पूरब में कुछ संकीर्ण तुम मेरे पास न हो सकोगे, लेकिन अगर लोभी हुए तो भी नहीं है। भटक जाओगी। पागल हो जाओगे। लेकिन वह भी मेरे कारण नहीं, अपने लोभ नदियां आपस में बात नहीं करतीं, अच्छा है। दोनों सागर के कारण। | पहुंच जाती हैं। सभी नदियां अंततः सागर पहुंच जाती हैं। मैं तो तुम्हें सारा दृश्य दे रहा हूं, पूरा नक्शा दे रहा हूं दुनिया ऐसा ही सभी चेतनाएं अंततः परमात्मा में पहुंच जाती हैं। तुम का। फिर तुम्हें जो तुम्हारे भीतर धुन बजा देता हो, उसे पकड़ अपना मार्ग पकड़ लो और ध्यानपूर्वक, स्मरणपूर्वक, उस पर लो। मेरे लिए रास्ते मूल्यवान नहीं हैं, तुम मूल्यवान हो। चलो। दूसरों को उनके मार्ग पर चलने दो। आशीर्वाद दो उन्हें विधियों का कोई मूल्य नहीं है, व्यक्तियों का मूल्य है। तुम्हें जो कि वे भी पहुंचे। प्रार्थना करो उनके लिए कि वे भी पहुंचे। इससे विधि रुच जाए, जिस विधि से तुम्हारे भीतर कमल खिलने लगे, क्या फर्क पड़ता है कैसे पहुंचते हैं, कौन-सा वाहन लेते हैं! | वही तुम्हारा मार्ग हो गया। | पहुंचें। और उनसे आशीर्वाद मांगो अपने लिए कि हम भी पहुंच लेकिन मेरे पास एक बात तम्हें जरूर समझ में आ जाएगी कि जाएं, जो हमने मार्ग चुना है उससे। तो दुनिया में एक सदभाव | जो तुम्हारे लिए मार्ग है, जरूरी नहीं है सबके लिए हो। जो तुम्हारे पैदा हो। हो चुका संप्रदाय बहुत, अब सदभाव चाहिए। | लिए मार्ग नहीं है, हो सकता है दूसरे के लिए हो। क्योंकि तुम यहां मेरे पास देखोगे भक्ति से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां चौथा प्रश्नः त्वमेव माता च पिता त्वमेव देखोगे ध्यान से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां मुसलमानों को त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव प्रभु की तरफ बढ़ते देखोगे, जैनों को, हिंदुओं को, ईसाइयों को, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव यहूदियों को। त्वमेव सर्वं मम देव देव तो एक बात तो यहां तुम्हें सीख ही लेनी पड़ेगी कि सब पहुंच -सरोज के वंदन। जाते हैं। पहुंचने की गहरी आकांक्षा हो, अभीप्सा हो। सब पहुंच जाते हैं। सब मार्गों से पहुंच जाते हैं। सभी मार्ग उस की तरफ ले जो मैं अभी कह रहा था। कोई ध्यान से खिल जाता, कोई प्रेम जाते हैं। उस एक ही यात्रा चल रही है। वह एक ही तीर्थ है। से खिल जाता। सभी यात्राएं वहीं पहुंच जाती हैं। सरोज का प्रश्न एक भक्त का प्रश्न है। भक्त के पास प्रश्न भी लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुम सभी मार्गों पर दौड़ने नहीं है, निवेदन है। शायद निवेदन कहना भी ठीक नहीं, लगो। तब तुम पगला जाओगे। तब तुम कहीं न पहुंचोगे। अहोभाव की अभिव्यक्ति है। पूछने को कुछ नहीं है, धन्यवाद चलना तो एक ही मार्ग पर होगा। देने को कुछ है। देखा ? गंगा बहती है पूरब की तरफ, नर्मदा बहती पश्चिम की ध्यान का मार्गी पूछता है, क्या करें। प्रेम का मार्गी धन्यवाद तरफ; दोनों सागर पहुंच जाती हैं। देता है कि जो हुआ, वह बहुत है। और न हो तो चलेगा। जो हो 628 ___JainEducation International 2010_03 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 ही गया है वह अपनी पात्रता से ज्यादा है। ऐसे ही पात्र के ऊपर या अंडा पहले। दो में से कुछ एक ही पहले हो सकता है। से बहा जा रहा है; बाढ़ आ गई है। | लेकिन तुमने कभी खयाल किया? दोनों एक-दूसरे के पहले यहां तुम इन प्रश्नों में भी दखोगे। अलग-अलग लोग, | खड़े हैं। अलग-अलग उनकी लहरें, अलग उनकी तरंगें। मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था। अलग-अलग अब सरोज पूछती है—प्रश्न है ही नहीं इसमें। वह कहती है | मिलता था तब तो ठीक था। एक-दूसरे के सौंदर्य की बात तुम ही पिता, तुम ही माता, तुम ही बंधु, तुम ही सखा। तुम ही करता, खूब चर्चा करता। दोनों स्त्रियों की भी आपस में सब कुछ। तुम ही देवताओं के देवता। धीरे-धीरे पहचान हो गई। उन्होंने कहा कि यह आदमी धोखा दे भक्त के पास एक अहोभाव है। भक्त खोज नहीं रहा है, भक्त | रहा है, इसको फांसना पड़ेगा। को मिल गया है। भक्त कहता है जीवन बरस ही गया है। एक दिन नौका-विहार के लिए दोनों ने इकट्ठा मुल्ला नसरुद्दीन उत्सव चल ही रहा है। जो मिलना था वह मिल ही गया है। को अपने साथ ले लिया। नदी पर बैठकर, पूर्णिमा की रात, बीच परमात्मा ने उसे दे ही दिया है। मझधार में मुल्ला से कहा कि नसरुद्दीन, अब कहो कौन सुंदर ध्यानी तो खोज रहा है कि मिलेगा तब आनंदित होगा। भक्त है? अब मुल्ला बहुत घबड़ाया। अकेले में एक स्त्री को कह दो आनंदित है। ध्यानी खोजेगा तो आनंदित होगा, भक्त आनंदित कि तुम दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री हो; कोई हर्जा नहीं। सभी है इसलिए खोज लेगा। ध्यानी का साधन पहले है, साध्य अंत | कहते हैं। कहना ही पड़ता है। फिर इससे कुछ अड़चन नहीं में। भक्त का साध्य पहले है, साधना अंतिम। | आती। दूसरी स्त्री को फिर अकेले में कह दो। इससे कोई इसलिए भक्त और ध्यानी की भाषा में बड़े जमीन-आसमान तार्किक झंझट नहीं आती। अलग-अलग समय में के अंतर हैं। वे एकदम उल्टी बातें बोलते हैं। इसलिए तो ज्ञानी | अलग-अलग स्थान में दोनों वक्तव्य ठीक मालूम होते हैं। कहते हैं कबीर को–उलटबांसी। उल्टी बांसुरी बजा रहे हो। लेकिन दो स्त्रियां...! और कबीर भी कहते हैं, 'एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागी और मुल्ला थोड़ा घबड़ाया क्योंकि दोनों नाराज मालूम होती आग।' नदी में आग लगी देखी। हैं। नदी का मामला। मझधार। धक्का दे दें। अब यह कोई सोच-विचारवाला आदमी कहेगा कि दिमाग | तो उसने कहा, यह भी कोई बात है? अरे तुम एक-दूसरे से खराब हो गया है। कबीर यही कह रहे हैं कि मैंने साध्य को पहले सुंदर हो। एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर हो। एक-दूसरे से देखा, साधन को पीछे। मंजिल पहले पाई, मार्ग पीछे। मिलन | बढ़-चढ़कर सुंदर हो। परमात्मा से पहले हो गया तब बाद में समझ आयी कि कैसे अब एक दूसरे से बढ़-चढ़कर संदर हो, इसका मतलब क्या मिलें। नदिया लागी आग, एक अचंभा मैंने देखा। होता है? लेकिन शायद यही ज्यादा सच है। यह वक्तव्य बेबूझ लेकिन गणित से, तर्क से, विचार से चलनेवाला आदमी हो जाता है लेकिन ज्यादा सच है। कहेगा, यह तो उलटबांसी हो गई। यह तो उल्टी बात हो गई। | अंडा मुर्गी के पहले, मुर्गी अंडे के पहले। दोनों एक-दूसरे के दोनों की भाषाएं निश्चित उल्टी हैं। लेकिन तुम ऐसा समझो पहले। दोनों असल में दो नहीं हैं। मुर्गी अंडे का ही एक रूप है। कि कोई कहता है मुर्गी से अंडा होता है, और कोई कहता है अंडे | अंडा मुर्गी का ही एक रूप है। मुर्गी अंडे का ही एक ढंग है और से मुर्गी होती है। क्या ये सच में उल्टी बातें हैं? ये दोनों ही सच | अंडे पैदा करने का। अंडा मुर्गी का ही एक ढंग है और मुर्गी पैदा हैं। लेकिन इतनी हिम्मत चाहिए समझने की कि दोनों एक साथ करने का। ये दोनों दो हैं ऐसा सोचने से गड़बड़ खड़ी हो जाती सच हैं। बड़ा कठिन मालूम होता है क्योंकि हम तो संकीर्णता से है। ये संयुक्त घटनाएं हैं।। सोचते हैं। हम कहते हैं. मर्गी पहले तो अंडा बाद में। अब कोई| इसे तम ऐसा समझो कि एक ही सिक्के के दो पहल हैं। कौन कहता है अंडा पहले, तो हमें झगड़ा खड़ा हो जाता है। हम कहते आगे, कौन पीछे? युगपत हैं, साथ-साथ हैं। साधन और हैं, ये दोनों बातें तो एक साथ नहीं हो सकतीं। या तो मुर्गी पहले, साध्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 624 2010_03 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दीप से कोटि दीप हों भक्त को साध्य पहले मिलता है, फिर वह साधन खोजता है। तो है ही नहीं। क्योंकि भक्त प्रश्न पूछ नहीं सकता। अहोभाव वह परमात्मा को पहले खोज लेता है फिर उसका रास्ता खोजता है। वह अपने हृदय की बात कह रही है कि ऐसा उसे हुआ है। है। तुम कहोगे यह बात अजीब है। क्या करें? अब उसे लगता है कि गुरु ही पिता, गुरु ही माता, गुरु ही | एक अचंभा मैंने देखा. नदिया लागी आग। ऐसा होता भक्त संगी, गुरु ही साथी, गुरु ही ज्ञान, गुरु ही परमात्मा। को। पहले भगवान मिल जाता है, फिर वह उसी से पूछ लेता है | प्रेम जहां भी पड़ता है वहीं परमात्मा की छवि देख लेता है। अब रास्ता कहां है? अब तुम्हीं बता दो। जब मिल ही गए तो तुझ से अब मिलके ताज्जुब है कि अर्सा इतना तुम्हारा पता-ठिकाना क्या? आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गजरा ध्यानी पहले रास्ता खोजता है। ध्यानी ज्यादा और जब परमात्मा की उसे झलक मिलती है तो उसे भरोसा ही | ज्यादा व्यवस्था से चलता है। उसके जीवन में एक शृंखला है। नहीं आता कि आज तक इतना अर्सा तुझसे बिना मिले गुजरा | भक्त बड़ा बेबूझ है। प्रेम सदा से बेबूझ है। | कैसे? यह हो ही कैसे सका? यह मैं हो कैसे सका इतने दिन । यहदियों में एक धारणा है-बड़ी प्रीतिकर धारणा। यहदी तक? यह मेरे होने की संभावना ही कैसे हो सकी? भक्ति का ही एक मार्ग है। यहूदी कहते हैं, इसके पहले कि भक्त उसे भरोसा ही नहीं आता कि मैं था भी। भक्त को तो उसी दिन भगवान को खोजे, भगवान भक्त को खोज लेता है। यहूदी धर्म भरोसा आता है अपने होने पर, जब भगवान का मिलन होता है। की बड़ी गहरी देन में से एक देन यह है। वे कहते हैं, तुम खोजना | उसी दिन भक्त होता है। उसके पहले तो सब सपना था। एक ही तब शुरू करते हो जब वह तुम्हें खोज लेता है, नहीं तो तुम झूठी दास्तान थी। न किसी ने कही, न किसी ने सुनी, एक झूठी शुरू ही नहीं करते। जब वह किसी तरह तुम्हारे भीतर आ ही दास्तान थी। जाता है, तभी तुम्हारे भीतर उसे पाने की आकांक्षा जगती है; नहीं | तुझसे अब मिलके ताज्जब है कि अर्सा इतना तो आकांक्षा ही नहीं जगती। आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गुजरा यहूदी कहते हैं, तुम ही नहीं खोज रहे भगवान को, भगवान भी | बहुत दिनों में मोहब्बत को हो सका मालूम तुम्हें खोज रहा है। तुम ही नहीं तड़फ रहे उसके लिए, वह भी जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई तडफ रहा है। और मजा तो तभी है जब आग दोनों तरफ से प्रेमी को पता चलता है धीरे-धीरे प्रेम में पगते-पगते कि लगे। अगर भक्त ही खोजता रहे भगवान को और भगवान को जो तेरी हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई जरा भी न पड़ी हो—मिल गए तो ठीक, न मिले तो ठीक; और जो तेरे बिना गुजरी वह रात रात हुई। वह हुई, न हुई बराबर भगवान उपेक्षा से भरा हो तो खोज का सारा मजा ही चला गया, हुई। तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ। रस ही चला गया। 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव।' ध्यानी कहता है सत्य तुम्हें नहीं खोज सकता, तुम सत्य को तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ। खोज सकते हो। एकतरफा है उसकी खोज। वह कहता है हम | जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई। खोजेंगे। सत्य कैसे खोजेगा? सत्य को तो उघाड़ना पड़ेगा। इसलिए अगर किसी के हाथ में हाथ जाने से तुम्हारे जीवन में भक्त कहता है यह कोई हमी खोज रहे ऐसा नहीं, वह भी रसधार बहे तो लगेगा तुम्हीं पिता, तुम्ही माता; क्योंकि नया जन्म उघड़ने को आतुर है। यह हमीं उसका चूंघट उठाने नहीं चले हैं, | हुआ। एक जन्म है, जो माता-पिता से होता है, वह शरीर का वह भी घूघट डालकर बैठा है कि आओ, उठाओ; कि बड़ी देर जन्म है। फिर एक जन्म है, जो सदगुरु से होता है; वह आत्मिक लगाई, कहां रहे? आओ! परमात्मा भी खोज रहा है। यह जन्म है, वह वास्तविक जन्म है। वह तुम्हारी चेतना का खोज दोनों तरफ से है। यह आग दोनों तरफ से है। यह यात्रा | आविर्भाव है। दोनों तरफ से चल रही है। जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई अब यह सरोज का जो प्रश्न है, एक भक्त का प्रश्न है। प्रश्न इसलिए फिर सदगुरु सभी कुछ मालूम होने लगता है। यह 1625 2010_03 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 भक्त का अपना ही हृदय सदगुरु में झलकता। जो उसे भीतर फिर इस उड़ान को कोई रोक सकता नहीं। यह होकर रहेगी। दिखाई पड़ता है, वही उसे सदगुरु में दिखाई पड़ता है। सदगुरु यह हो ही गई है। तो दर्पण है, तुम अपना ही चेहरा देख लेते हो। पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल और भक्त को फिर बड़ा भरोसा आ जाता है। गुरु का साथ क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं? मिला कि भरोसा आ गया। अगर गुरु है तो परमात्मा है। अगर भक्त को तो ऐसे ही लगने लगता है कि भगवान पुकार रहा है। कोई ऐसा व्यक्ति है, जो तुम्हें अपने से पार दिखाई पड़ता है, यहां जो भक्त की तरह मेरे पास आए हैं, उन्हें मेरी हर आवाज में जिसे देखने में तम्हारी आंखें जमीन से आकाश की तरफ उठ लगेगा आपने मझे पकारा तो नहीं? जाती हैं, तो बस पर्याप्त है। पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल कहते हैं मंसूर को सूली लगी तो वह खिलखिलाकर हंसने क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं? लगा। वह खिलखिलाकर हंसा तो लोगों ने पूछा, तुम हंसते क्यों उसे अपनी धड़कन की आवाज भी ऐसे लगती है कि परमात्म हो? वह कहने लगा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चलो, मुझे के पैरों की आवाज है। सूली पर लटका देखने के लिए कम से कम तुम्हारी आंखें तो | क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं? ऊपर उठीं। तुम जमीन पर सरकते लोग, घसिटते लोग-तुम | हर जुल्म गवारा है मगर यह भी खबर है आकाश की तरफ आंख ही नहीं उठाते। चलो, मेरी फांसी के दिल आपकी है चीज, हमारा तो नहीं बहाने-वह लटका था एक बड़े ऊंचे खंभे पर-तुम्हारी आंखें हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले तो आकाश की तरफ उठीं, इसलिए हंसा। यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई सब तरफ उसे उसी की नजरों का इशारा दिखाई पड़ता है। आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में फूल खिलते हैं तो लगता परमात्मा हंसा। चांद निकलता तो आकाश तक पहुंचना होगा कि नहीं होगा, कहना मुश्किल है। | लगता परमात्मा निकला। चांदनी फैल जाती है तो लगता लेकिन भक्त कहता है: परमात्मा फैला। आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल मैं रो ही नहीं रहा हूं, मेरे भीतर आह ही नहीं उठ रही है, मेरी | क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं? उड़ान में प्रार्थना का भी बल है। हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले अर्श तक देखिये पहंचे कि न पहुंचे कोई यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं भक्त यह भी नहीं कहता कि पहुंच ही जाऊंगा। नहीं, प्रेम इस | भक्त को बड़ी गहरी आंख उपलब्ध हो जाती है। बिना कुछ तरह के दावे नहीं करता। झिझकता है भक्त। भक्त कहता है: किए, बिना मांगे, बिना प्रयास के–प्रसाद से। चाहिए दिल, अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई जो रो सके। चाहिए दिल, जो हंस सके। चाहिए दिल. जो संदेह पहुंचना हो कि न पहुंचना हो। लेकिन एक अर्थ में भक्त | न करे, श्रद्धा करे। झिझकता है कि पहुंचना होगा कि नहीं, और एक अर्थ में आश्वस्त होता है कि पहुंचना तो हो ही गया। पांचवां प्रश्न : पूछा है आनंद सागर ने। आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में सीमार माझे असीम मेरी उड़ान में सिर्फ आह ही नहीं है, प्यास ही नहीं है, तुझे तुमी बाजाओ आपन सूर खोजने की अभीप्सा ही नहीं है, तुझे पा लेने की प्रार्थना भी है। आमार मध्ये तोमार प्रकाश तुझे पा लिया इसका धन्यवाद भी। ताई एतो मधुर आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में कत वर्णे कत गंधे 626 Jal Education International 2010_03 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दीप से कोटि दीप हों कत गाने कत छंदे जगाओ उसे मेरे हृदय में। अरूप तोमार रूपेर लीला आमार मध्ये तोमार शोभा जागे हृदय पूर मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मेरी कोई शोभा है तो तुम्हारी मौजूदगी आमार मध्ये तोमार शोभा, से है। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, बस तुम हो। मैं तो शून्य हूं। एमन सुमधुर तुम विराजो तो सब हो जाता है। तुम न विराजो तो रिक्त रह जाता हे भगवान रजनीश! हूं। मेरे शून्य में तुम उतर आओ तो सब है मेरे पास। तुम चले लहो सागरेर नमन, प्रवीणेर वंदन। जाओ तो सब भी हो मेरे पास तो बस रिक्तता है, खालीपन है। आमार मध्ये तोमार शोभा ऐसा ही लगता है प्रेमी को कि मेरी सीमा में असीम उतरा; कि एमन सुमधुर मेरे आंगन में आकाश उतरा। भक्त जब सुनता है तो एक-एक भक्त की सारी आकांक्षा परमात्मा के लिए जगह देने की, शब्द अमृत बनकर बरसता है। भक्त जब सुनता है खुले हृदय अवकाश देने की है। भक्त जगह खाली करता है। भक्त कहता से तो जो ज्ञानी को, ध्यानी को, केवल शब्द मालूम होते हैं, भक्त है, मैं हटता, तुम आओ। मैं चला, तुम विराजो। यह सिंहासन को सिर्फ शब्द नहीं मालूम होते; उन शब्दों में एक अनूठा | तुम्हारे लिए खाली करता। जीवन, एक आभा, उन शब्दों में शून्य की झनकार...। ऐसा भक्त अपने को गलाता, मिटाता, शून्य करता। सीमार माझे असीम जैसे-जैसे शून्य होता वैसे-वैसे पूर्ण उसमें उतरता। एक दिन लगता, मेरी सीमा में असीम आया। गुरु का मिलन सीमा से भक्त अचानक पाता है, एक सुबह जागकर अचानक पाता है, असीम का मिलन है। शिष्य यानी सीमा। शिष्य वही जिसे कि भक्त तो बचा ही नहीं, भगवान ही बचा है। एक दिन भक्त अपनी सीमा का पता चल गया और जो राजी है असीम के चरणों | अचानक पाता है, उसकी बांह गले में पड़ गई। एक दिन भक्त में अपनी सीमा को डाल देने को। अचानक पाता है उसकी अंगूर की छाया तले बैठे हैं। नहीं, भक्त सीमार माझे असीम को बैकुंठ की चाह नहीं, न भक्त को कल्पवृक्षों की चाह है। तुमी बाजाओ आपन सूर उसके प्रेम की वर्षा होती रहे। और शिष्य कहता है, बजाओ तुम अपनी वीणा। बजाओ तुम भक्त मिटना चाहता है। मिटने में ही प्रेम की वर्षा है। अपना स्वर। मैं राजी हूं। मैं सुनूंगा, मैं नाचूंगा। मैं घूघर और जो शिष्य भक्त की तरह गुरु के पास आता है, अनायास पहनकर आ गया हूं। तुम बजाओ अपना स्वर। | गुरु उसके माध्यम से बहुत-से काम करने शुरू कर देता है। तुम आमार मध्ये तोमार प्रकाश छोड़ो भर, कि तुम उपकरण बन जाते हो। और गुरु के पास तो मैं तो अंधेरा हूं, लेकिन जलाओ तुम अपना दीया। तुम्हारा | सिर्फ सीखना है छोड़ने की कला। अगर तुम गुरु के पास अपने प्रकाश हो मेरे,मध्य को छोड़ सके तो तुमने अ, ब, स सीख लिया छोड़ने का। यही ताई एतो मधुर। अ, ब, स काम आएगा परमात्मा के पास छोड़ने में। कत वर्णे कत गंधे परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बड़ा अदृश्य है। उपस्थित कहा न जा सके ऐसा रूप। कही न जा सके ऐसी गंध। | है और उपस्थिति मालूम नहीं होती। उसी का स्वर गूंज रहा है कत गाने कत छंदे लेकिन सब सुनाई पड़ता है, वही सुनाई नहीं पड़ता। बांधा न जा सके जो छंद में। गीत में जो समाए न, अटाए न। गुरु में परमात्मा थोड़ा-सा दृश्य होता है-थोड़ा-सा। एक अरूप तोमार रूपेर लीला किरण उस सूरज की उतरती मालूम होती है। थोड़ा रूप धरता। तुम्हारी रूप की लीला अपूर्व है, अरूप है। यही तो अवतार का अर्थ है : अवतरित होता। जैसे भाप उतर जागे हृदय पूर आए, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी. जल 627 _ 2010_03. Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी, जल की तरह | जब-जब सुनोगे गीत मेरे दिखाई पड़ने लगी। संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे गुरु का इतना ही अर्थ है कि जिसके माध्यम से तुम्हें अदृश्य की याद आ जाए, तुम्हारी सीमा में असीम का आंदोलन हो उठे, तरु समझी नहीं। पागल नहीं था, मैं ही आया था। मैं ही तुम्हारे अंधेरे में थोड़ा प्रकाश लहरा जाए। तुम्हारे बंद पड़े जल गुनगुना गया हूँ। में, तुम्हारे ठहर गए जल में; फिर से लहर आ जाए, फिर से गति 'तुम मुझे यूं भुला न पाओगे आ जाए, फिर से प्रवाह आ जाए। जब-जब सुनोगे गीत मेरे तो न केवल इधर तुम मिटोगे, उधर तुम होने लगोगे, तुम संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे' धीरे-धीरे अंतिम मरण का पाठ सीखोगे। तुम पाओगे, जब गुरु और जो मैंने तुझसे कहा तरु, उसे औरों से कह। बात को के पास जरा-सा झुकने से इतना मिल जाता है तो फिर पूरे ही क्यों फैला। न झुक जाएं? दिल ने आंखों से कही, आंखों ने उनसे कह दी पूरा जो झुका उसे परमात्मा मिल जाता है। थोड़ा जो झुका उसे बात चल निकली है अब देखें कहां तक पहुंचे। गुरु मिल जाता है। और थोड़ा झुकना पूरा झुकने की प्राथमिक शिक्षा है। आज इतना ही। एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए गुरु के पास जो शिष्य झुकते हैं, उनके बुझे दीये जलने लगते एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए आंगन-आंगन खिले कल्पना सजे द्वार बंदनवारों से उठे गीत समवेत स्वरों से पगडंडी-पथ-गलियारों से रोम-रोम उन्मन मुंडेर का पाटल-सा मुसकाए एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए पोप-पोर उमगे अणुओं का बिछले दिशा-दिशा अरुणाई पग-पग उठे किरण पुखराजी डग-डग फेनिल श्वेत जन्हाई कोसों तक ऊसर भूमि में नेह-बीज अकुराए एक दीप से कोटि दीप हों अंधकार मिट जाए अगर झुक सकते हो तो चूको मत। अगर जरा झुक सकते हो तो उतना ही झुको। उससे और झुकने की कला आएगी क्योंकि झुककर जब मिलेगा तो पता चलेगा कि नाहक अकड़े खड़े रहे। नाहक प्यासे रहे। व्यर्थ ही जीवन को रात बनाया। जो जीवन दिन बन सकता था, उसे अपने हाथ ही अंधकार में सम्हाले रहे। आखिरी प्रश्न ः तरु ने पूछा है। एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया: तुम मुझे यूं भुला न पाओगे 628 2010_03 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 03 इकतीसवां प्रवचन याद घर बुलाने लगी Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.२ .२ .३ CHANNEL ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव विज्जदे बाहा। ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होई णिव्वाणं।।१५६।। ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हयो ण णिद्दा य। ण य तिण्हा णेव छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।१५७।। ण वि कम्मं णोकम्म, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि। ण वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।१५८।। णिव्वाणं ति अवाहंति, सिद्धी लोगाग्गमेव य। खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो।।१५९।। लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के। गइ पुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु।।१६०।। अव्वाबाहमणिंदिय-मणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं । पुणरागमणविरहियं, णिच्चं अचलं अणालंबं ।।१६१।। 2010_03 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नी पर तिरता है आईना उठती हो। आंख झिलमिलाने लगी वासना का अर्थ ही है कि जो हम हैं, उसमें रस नहीं आ रहा, पात-पात डोलती है प्रार्थना | कुछ और होना चाहिए। चाह का अर्थ ही है बेचैनी। चाह उठती सांझ गुनगुनाने लगी ही बेचैनी से। राहत नहीं है। कोई कांटा चुभ रहा है। कोई रोक लूं मैं बादलों की घंटियां अतृप्ति सब तरफ से घेरे है। सब मिल जाता है। फिर भी बजने से पुरवा के पांव में अतृप्ति वैसी की वैसी बनी रहती है-अछूती, अस्पर्शित। झलकने लगीं पीली बत्तियां धर्म का जन्म मनुष्य के भीतर इस महत घटना से होता जले हुए दीपों के गांव में है-बेचैनी की इस घटना से होता है। जैसे परदेश में हैं, जहां न अंधकार झूलता है पालना कोई अपनी भाषा समझता, न कोई अपना है। जहां सब संबंध याद घर बुलाने लगी सांयोगिक हैं। जहां सब संबंध मन के मनाये हुए हैं; वास्तविक याद घर बुलाने लगी! इन थोड़े-से शब्दों में सारे धर्म का सार नहीं हैं। और जहां पानी का धोखा तो बहुत मिलता है, पानी नहीं है—याद घर बुलाने लगी। जहां हम हैं, वहां हम तृप्त नहीं। जो | मिलता-मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता जल का हम हैं उससे हम तृप्त नहीं। एक बात निश्चित है कि हम अपने स्रोत, पास आते रेत ही रेत रह जाती है। घर नहीं, कहीं परदेश में हैं। कहीं अजनबी की भांति भटक गए| इस भटकाव को हम कहते हैं संसार। इस भटकाव में घर की हैं। कहां जाना है यह भला पता न हो, लेकिन इतना सभी को | याद आने लगी तो धर्म की शुरुआत हुई। पता है कि जहां हम हैं, वहां नहीं होना चाहिए। पानी पर तिरता है आईना एक बेचैनी है। कुछ भी करो, कितना ही धन कमाओ, कितनी आंख झिलमिलाने लगी ही पद-प्रतिष्ठा जुटाओ, कुछ कमी है, जो मिटती नहीं। कोई अगर बाहर देख-देखकर ऊब पैदा हो गई हो, देख-देखकर | घाव है, जो भरता नहीं। कोई पुकार है जो भीतर कहे ही चली | देख लिया हो, कुछ देखने जैसा नहीं है, आंख झपकने लगी हो, जाती है। यह भी नहीं, यह भी नहीं; कहीं और चलो। खोजो भीतर देखने का खयाल उठने लगा हो, आंख बंद करके देखने घर। द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे दस्तक दिए। न मालूम कितने- का भाव जगने लगा हो तो हो गई शुरुआत। कितने जन्मों में, कितने-कितने ढंग से अपने घर को खोजा है। हाथ भर-भरके देख लिए, जब पाया तब राख से भरे पाया। मगर सारी खोज एक ही बात की है कि कोई ऐसा स्थान हो, कभी हीरों से भरा लेकिन हीरे राख हो गए। सोने से भरा, सोना जहां तृप्ति हो। कोई ऐसी भावदशा हो, जिसमें कोई वासना न मिट्टी हो गया। संबंधों से भरा, तथाकथित प्रेम से भरा और सब 633 ___ 2010_03 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 अंततः मूल्यहीन सिद्ध हुआ। और अब हाथ को और भरने की लेकिन सत्य का अनुभव ऐसा है कि उससे मिलता हुआ कोई आकांक्षा न रही। भी अनुभव इस संसार में नहीं है। जो बाहर देखा है उससे किसी पात-पात डोलती है प्रार्थना से भी जो भीतर दर्शन होते हैं, उसका तालमेल नहीं। जो परदेश सांझ गुनगुनाने लगी। में जाना है और जो स्वदेश लौटने का अनुभव होता है, उसे तो जिस दिन बाहर से आंख हटने लगती है. उसी दिनः परदेश की भाषा में कहने का कोई उपाय नहीं। पात-पात डोलती है प्रार्थना तो यह स्वभाव को विभाव में कहने की चेष्टा है। सांझ गुनगुनाने लगी रहिमन बात अगम्य की कहन-सुनन की नाहीं तो अब घर जाने का समय करीब आ गया। जे जानत ते कहत नहीं, कहत ते जानत नाहीं प्रार्थना, जो बाहर से घर की तरफ लौटने लगे और अभी घर कुछ बात ऐसी है अगम्य की, कि कहने-सुनने की नहीं है। जो नहीं पहुंचे—बीच का पड़ाव है। जो संसार में हैं उनके हृदय में जानते हैं, कहते नहीं। जो कहते हैं, जानते नहीं। प्रार्थना नहीं उठती। जो परमात्मा में पहुंच गए, उनको प्रार्थना की इसका यह अर्थ नहीं कि जाननेवालों ने नहीं कहा है; कहा है जरूरत नहीं रह जाती। प्रार्थना सेतु है बाहर से भीतर आने का; और कहकर भी कह नहीं पाया है। कहा है और फिर कहा कि परदेश से स्वदेश आने का; विभाव से स्वभाव में आने का। कह नहीं पाए। फिर-फिर कहा है। महावीर जीवनभर निर्वाण के पात-पात डोलती है प्रार्थना संबंध में अनेक-अनेक ढंगों से, अनेक-अनेक इशारों का सांझ गुनगुनाने लगी। उपयोग करके बोलते रहे, लेकिन कैसे कहो उसे? कैसे कहो संसार की सांझ आ गई। और जो संसार की सांझ है वही उसे, जो शब्दों के शून्य हो जाने पर अनुभव होता है? कैसे कहो निर्वाण की सुबह है। उसे, जो भाषा के अतिक्रमण पर अनुभव होता है? कैसे कहो रोक लूं मैं बादलों की घंटियां उसे, जो घर के भीतर आने का अनुभव होता है? बजने से पुरवा के पांव में भाषा तो सब घर के बाहर की है। भाषा तो सब बाजारू है। झलकने लगी पीली बत्तियां भाषा तो दूसरे से बोलने के लिए है। जब तुम अकेले हो, जले हुए दीपों के गांव में बिलकुल अकेले हो, अपने नितांत स्वरूप में आ गए, वहां कोई अंधकार झूलता है पालना दूसरा नहीं है तो भाषा का कोई प्रयोजन नहीं है। वहां बोलने का याद घर बुलाने लगी। कोई उपाय नहीं है। वहां तो परम मौन है। आज के सूत्र महावीर की अंतिम निष्पत्तियां हैं। ये सूत्र निर्वाण अपने से बाहर गए, दूसरे से मिले-जुले, संबंध बनाया तो के हैं। ये सत्र घर आ गए व्यक्ति का आखिरी वक्तव्य हैं। ये बोलना पड़ता है। तो ऐसा नहीं है कि जिन्होंने जाना, नहीं बोला. सूत्र ऐसे हैं, जो कहे नहीं जा सकते, जिन्हें कहने की चेष्टा भर की लेकिन बोल-बोलकर भी बोल नहीं पाए। बोल-बोलकर अंततः जा सकती है। ये सूत्र ऐसे हैं, जो अभिव्यक्त नहीं होते, भाषा यही कहा कि क्षमा करना, हम जो कहते थे, वह कह नहीं पाए। छोटी पड़ती है. शब्द संकीर्ण हैं। और विराट को संकीर्ण शब्दों लेकिन फिर भी जिन्होंने कहा है उनमें महावीर का वक्तव्य | के सहारे लाना पड़ता है। अत्यधिक वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक होना कठिन है, लेकिन अगर इसलिए इन शब्दों को बहुत कसकर मत पकड़ना। इन्हें बहुत सारे वक्तव्यों को तौला जाए तो महावीर का वक्तव्य सहानुभूति से, बहुत श्रद्धा से भाषा की असमर्थता को याद रखते अतिवैज्ञानिक है। सत्य को देखा जाए, तब तो बहुत दू हुए समझना। से। सभी वक्तव्य दूर होते हैं। और वक्तव्यों को देखा जाए तो एक तो गणित की भाषा होती है, जहां दो और दो चार होते हैं। निकटतम है। बस, दो और दो चार होता और कुछ भी नहीं होता। सब पहला सूत्रः सीधा-साफ होता है। ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव विज्जदे बाहा। 6341 Main Education International 2010_03 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद घर बुलाने लगी ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।। उसी-उसी वृक्ष के नीचे आकर बैठोगे। फिर अगर कोई 'जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा, न मरण है न | | लकड़हारा किसी दिन उस वृक्ष को काटने आ गया तो तुम लड़ने जन्म, वहीं निर्वाण है।' को तैयार हो जाओगे कि मत काटो। यह मेरा वृक्ष है। अब यह भी कुछ कहना हुआ? यह तो 'नहीं' से कहना भागोगे कहां? जहां जाओगे...संसार तो संसार है, वहां तो हुआ, नकार से कहना हुआ। क्या नहीं है वहां, यह कहा। क्या | हमेशा दो हैं। है, यह तो कहा नहीं। क्या है उसे कहा भी नहीं जा सकता। इसलिए संन्यास का अर्थ होता है; अकेले होने की क्षमता। यह तो ऐसे ही हुआ, कि किसी स्वस्थ आदमी को हमने कहा अकेला होना नहीं, अकेले होने की क्षमता। जहां भी हो, यह कि, न टी. बी. है, न कैंसर है उसमें, न मलेरिया लगा है, न स्मरण बना रहे कि 'मैं अकेला हूँ।' तब बीच-बाजार में तुम प्लेग हुई; स्वस्थ है। स्वास्थ्य को बताया, बीमारियां नहीं हैं संन्यासी हो। गृहस्थ होकर संन्यासी हो। पत्नी है, बच्चे हैं, इससे। यह कोई स्वास्थ्य की परिभाषा हुई ? बीमारियों का दुकान है, बाजार है-तुम संन्यासी हो। इतनी याद बनी रहे कि अभाव स्वास्थ्य है? लेकिन बस यही निकटतम परिभाषा है। 'मैं अकेला हूं।' स्वास्थ्य तो ज्यादा है बीमारियों के अभाव से। स्वास्थ्य की तो तुम अपने को दो में बांटने की आदत छोड़ दो। अपनी विधायकता है। स्वास्थ्य की तो अपनी उपस्थिति है। 'जहां न दुख न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, वहीं खयाल किया? सिरदर्द न हो तो जरूरी नहीं है कि सिर स्वस्थ | निर्वाण है।' हो। जैसे सिरदर्द नकार की तरफ ले जाता है, पीड़ा की तरफ ले नदियां दो-दो अपार, बहती हैं विपरीत छोर जाता है, ऐसा सिर का स्वास्थ्य आनंद की तरफ ले जाएगा। दर्द कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूं का न होना तो मध्य में हुआ, दोनों के मध्य में हुआ। दर्द का होना ओ मेरे सूत्रधार! एक अति, स्वास्थ्य का होना एक अति, दोनों के मध्य में हुई | नौकाएं दो भारी अलग-अलग दिशा में जाती इतनी-सी बात कि दर्द नहीं है। कब तक मैं दोनों को साथ-साथ खेता रहूं अगर कोई तमसे पछे. कैसे हो? तम कहो. दखी नहीं हैं, तो एक देह की पतवार। वह भी थोड़ा चिंतित होगा। तुम यह नहीं कह रहे हो कि सुखी | दो-दो दरवाजे हैं अलग-अलग क्षितिजों में हो, तुम इतना ही कह रहे हो कि दुखी नहीं हूं। जरूरी नहीं कि कब तक मैं दोनों की देहरियां लांघा करूं | तुम सुखी हो। दुख का न होना सुख के होने के लिए शर्त तो है एक साथ! लेकिन सुख के होने की परिभाषा नहीं है। पर मजबूरी है। छोटी-सी मेरी कथा, छोटा-सा घटना क्रम उस परम सत्य को हम इतना ही कह सकते हैं कि संसार नहीं हवा के भंवर-सा पलव्यापी यह इतिहास है। निर्वाण संसार नहीं है। इन सारे सूत्रों में अलग-अलग ढंग टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बांट दिया तुमने से महावीर यही कहते हैं कि संसार नहीं है। ओ अदृश्य विरोधाभास! न वहां दुख, न सुख। सुख और दुख संसार है। द्वंद्व संसार | जैसे आदमी दो नावों पर साथ-साथ सवार हो और दोनों नावें है। दो के बीच सतत संघर्ष संसार है। इसलिए संन्यासी का अर्थ विपरीत दिशाओं में जाती हों, ऐसा है संसार। जैसे आदमी दो होता है, जिसने अकेला होना सीख लिया। इसका यह अर्थ नहीं दरवाजों से एक साथ प्रवेश करने की कोशिश कर रहा हो और होता कि जंगल भागकर अकेला हो गया। क्योंकि इस संसार में | दोनों दरवाजे इतने दूर हों जैसे जमीन और आकाश, ऐसा है अकेले होने का तो कोई उपाय नहीं है। संसार। जैसे कोई एक ही साथ जन्मना भी चाहता हो और मरने जंगल में रहोगे तो भी अकेले नहीं हो। बैठोगे वक्ष के नीचे से भी बचना चाहता हो. दो विपरीत आकांक्षाएं कर रहा हो और कौआ बीट कर जाएगा। संबंध जुड़ गया क्रोध का दोनों के बीच उलझ रहा हो, परेशान हो रहा हो, ऐसा है संसार। | के नीचे, वृक्ष छाया देगा। संबंध जुड़ गया राग का। फिर हमारी सभी आकांक्षाएं विपरीत हैं। इसे थोड़ा समझना। 635 2010_03 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 इसकी समझ तुम्हारे भीतर एक दीये को जन्म दे देगी। एक तरफ | मांगते हैं। तुम चाहते हो, दूसरे लोग मुझे सम्मान दें और दूसरी तरफ तुम मैंने सुना है, शेख फरीद से एक धनपति ने कहा, यह बड़ी चाहते हो, कोई अपमान न करे। साधारणतः दिखाई पड़ता है इन अजीब बात है। मैं तुम्हारे पास आता हूं तो सदा ज्ञान की, आत्मा दोनों में विरोध कहां? | की, परमात्मा की बात करता हूं। तुम जब कभी आते हो तो तुम इन दोनों में विरोध है। यह तम दो नौकाओं पर सवार हो गए। सदा धन मांगते आते हो। तो सांसारिक कौन है? इसका विश्लेषण करो : तुम चाहते हो, दूसरे मुझे सम्मान दें। शेख फरीद ने कहा, मैं गरीब हूं इसलिए धन मांगता हूं। तुम ऐसा चाहकर तुमने दूसरों को अपने ऊपर बल दे दिया। दूसरे अज्ञानी हो इसलिए ज्ञान मांगते हो। जो जिसके पास नहीं है वही शक्तिशाली हो गए, तुम कमजोर हो गए। अपमान तो शुरू हो | मांगता है। मैं तो तुम्हारी याद ही तब करता हूं जब गांव में कोई गया। अपमान तो तुमने अपना कर ही लिया। दूसरे जब करेंगे तकलीफ होती है, मदरसा खोलना होता है, अकाल पड़ जाता है, तब करेंगे। तुम अपमानित तो होना शुरू ही हो गए। यह कोई कोई बीमार मर रहा होता उसको दवा की जरूरत होती है तो मैं सम्मान का ढंग हुआ? जहां दूसरे हमसे बलशाली हो गए। आता हूं। मैं दीन हूं, दरिद्र हूं। यह मेरा गांव गरीब और दरिद्र दूसरों से सम्मान चाहा इसका अर्थ है कि दूसरों के हाथ में है। स्वभावतः मैं कोई ब्रह्म और परमात्मा की बात करने तम्हारे तुमने शक्ति दे दी कि वे अपमान भी कर सकते हैं। और निश्चित पास नहीं आता। वह तो हमारे पास है। ही अपमान करने में उन्हें ज्यादा रस आएगा। क्योंकि तुम्हारे तुम जब मेरे पास आते हो तो तुम धन की बात नहीं करते अपमान के द्वारा ही वे सम्मानित हो सकते हैं। वे भी तो सम्मान क्योंकि धन तुम्हारे पास है। तुम ब्रह्म की बात करते आते हो, जो चाहते हैं, जैसा तुम चाहते हो। तुम किसका सम्मान करते हो? | तुम्हारे पास नहीं है। तुम सम्मान मांगते हो। वे भी सम्मान मांग रहे हैं। वे तुम्हारा इसे थोड़ा सोचना। जिससे तुमने धन मांगा, तुमने घोषणा कर सम्मान करें तो उन्हें कौन सम्मान देगा? | दी कि तुम निर्धन हो। धन मांगनेवाला निर्धन है। पद मांगा, प्रतिस्पर्धा है। एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो तुम। तुम जब दूसरे घोषणा कर दी कि तुम हीन हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं पद के से सम्मान मांगते हो तब तुमने उसे क्षमता दे दी, हाथ में कुंजी दे आकांक्षी हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं-इनफीरियारिटी दी कि वह तुम्हारा अपमान कर सकता है। अब सौ में निन्यानबे | काम्पलेक्स। सभी राजनीतिज्ञ हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं। होंगे मौके तो वह ऐसे खोजेगा कि तुम्हारा अपमान कर दे। कभी ही; कोई दूसरा और उपाय नहीं है। जब तुम सिद्ध करना चाहते मजबूरी में न कर पाएगा तो सम्मान करेगा। सम्मान तो लोग हो कि मैं शक्तिशाली हूं तो तुमने अपने भीतर मान रखा है कि मजबूरी में करते हैं। अपमान नैसर्गिक मालूम पड़ता है। सम्मान तुम शक्तिहीन हो। अब किसी तरह सिद्ध करके दिखा देना है बड़ी मजबूरी मालूम पड़ती है। झुकता तो आदमी मजबूरी में है। कि नहीं, यह बात गलत है। अकड़ना स्वाभाविक मालूम पड़ता है। कमजोर बहादुरी सिद्ध करना चाहता है। कायर अपने को वीर तो जैसे ही तुमने सम्मान मांगा, अपमान की क्षमता दे दी। सिद्ध करना चाहता है। अज्ञानी अपने को ज्ञानी सिद्ध करना और दूसरा भी सम्मान की चेष्टा में संलग्न है। वह भी चाहता है, | चाहता है। हम जो नहीं हैं उसकी ही चेष्टा में संलग्न होते हैं। अपनी लकीर तुमसे बड़ी खींच दे। जैसा तुम चाहते हो वैसा वह और जो हम नहीं हैं, हमारी चेष्टा से प्रगट होकर दिखाई पड़ने चाहता है। लगता है। पीड़ा और बढ़ती चली जाती है। हई। सम्मान देगा तो भी तम सम्मानित न जन्म तो हम मांगते हैं. जीवन तो हम मांगते हैं. मौत से हम हो पाओगे क्योंकि सम्मान देनेवाला तुमसे बलशाली है और डरते हैं। हम चिल्लाते हैं, मौत नहीं। और सब हो, मृत्यु नहीं। अपमान करेगा तो तुम पीड़ित जरूर हो जाओगे। मृत्यु की हम बात भी नहीं करना चाहते। लेकिन जन्म के साथ तुमने धन मांगा, तुमने अपनी निर्धनता की घोषणा कर दी। हमने मृत्यु मांग ली। क्योंकि जो शुरू होगा वह अंत होगा। क्योंकि निर्धन ही धन मांगता है। जो हमारे पास नहीं है वही हम मृत्यु जन्म के विपरीत नहीं है, जन्म की नैसर्गिक परिणति है। 636 2010_03 Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद घर बुलाने लगी जो शुरू होगा वह अंत होगा। जो बनेगा वह मिटेगा। जिसका में तुमने दुख मांग लिया। अक्सर लोग संसार से ऊबते भी हैं तो सृजन किया जाएगा उसका विध्वंस होगा। तुमने एक मकान उनके ऊबने का कारण गलत होता है। बनाया, उसी दिन तुमने एक खंडहर बनाने की तैयारी शुरू कर एक जैन मुनि मुझे मिलने आए, कोई पांच साल हुए। मैंने दी। खंडहर बनेगा। तुम जब भवन बना रहे हो तब तुम एक उनसे पूछा, आपने संसार क्यों छोड़ दिया, उन्होंने कहा, संसार खंडहर बना रहे हो। क्योंकि बनाने में ही गिरने की शुरुआत हो में कुछ मिलता ही नहीं। कोई सार ही नहीं। गई। तुमने एक बच्चे को जन्म दिया, तुमने एक मौत को जन्म संसार में कुछ मिलता नहीं, कुछ सार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया। तुम जन्म के साथ मौत को दुनिया में ले आए। दिया? तो मिलने की आकांक्षा अब मोक्ष की तरफ लगा दी। नदियां दो-दो अपार, बहती हैं विपरीत छोर अब वहां मिलेगा। परमात्मा की तरफ लगा दी, आत्मा की तरफ कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूं लगा दी। लोभ गया नहीं, वासना गई नहीं, सिर्फ दिशा बदली। ओ मेरे सूत्रधार! और जहां वासना है वहां संसार है। नौकाएं दो भारी अलग-अलग दिशा में जातीं तो यह संन्यास संसार का अतिक्रमण न हुआ, संसार का ही कब तक मैं दोनों को साथ-साथ खेता रहूं फैलाव हुआ। अब यह आदमी नए लोभ में परेशान है। मैंने एक देह की पतवार! पूछा, मेरे पास किसलिए आए हो? वे कहने लगे, शांति नहीं -पतवार एक, नौकाएं दो विपरीत दिशाओं में जाती। मिलती। मैंने कहा, जिसने संसार छोड़ दिया–छोड़ते ही शांति दो-दो दरवाजे हैं अलग-अलग क्षितिजों में मिल जानी चाहिए। फिर छोड़ने के बाद अब बचा क्या है, जो कब तक मैं दोनों की देहरियां लांघा करूं अशांत करे? सांसारिक व्यक्ति कहता है मैं अशांत हूं, समझ में एक साथ! आता है। आप कहते हैं, अशांत हैं? तो फिर फर्क क्या हुआ? छोटी-सी मेरी कथा, छोटा-सा घटनाक्रम फिर इस बात को फिर से सोचें। संसार छूटा नहीं है। द्वंद्व हवा के भंवर-सा पलव्यापी यह इतिहास अभी मौजूद है। लाभ-हानि की दृष्टि अभी मौजूद है। मिलना टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बांट दिया तुमने चाहिए और नहीं मिलता है। जहां मिलना चाहिए का भाव ओ अदृश्य विरोधाभास! आया, वहां नहीं मिलता है, इसकी छाया भी पड़ी। जहां अपेक्षा जिसे हम संसार कहते हैं वह विरोधाभास है, और विरोधाभास आयी वहां विफलता हाथ लगी-लग ही गई; थोड़ी देर-अबेर से जो पार हो गया वही निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है। होगी। तुमने बीज तो बो दिए, फसल काटने में कितनी देर तो महावीर का पहला सूत्र हुआ ः विरोध के पार है निर्वाण। | लगेगी? अगर संन्यासी भी अशांत है, साधु-मुनि भी अशांत 'जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, | हैं, तो फिर भेद क्या करते हो सांसारिक में और साध और मनि वहीं निर्वाण है।' | में? दोनों अशांत हैं। जहां विरोध नहीं, द्वंद्व नहीं; जहां दो नहीं, दुई नहीं; जहां द्वैत | संसार में कुछ मिलता नहीं इसलिए संसार मत छोड़ना। संसार नहीं, जहां अद्वैत है, वहीं है निर्वाण। जहां एक ही बचता है, | के मांगने में भूल हो गई है। पाने में भूल नहीं हो रही है, मांगने में आत्यांतिक रूप से एक बचता है, वहीं है निर्वाण। जब तक | भूल हो गई है। भूल अपनी वासना में हो गई है, अपनी चाहत में तुम्हारे भीतर विरोध है, जब तक तुम दो की आकांक्षा करते, जब हो गई है, अपनी चाह में हो गई है। वहीं हमने द्वंद्व मांग लिया। तक तुम्हारी आकांक्षाओं में संघर्ष और द्वंद्व है तब तक तुम कैसे | संसार उसी द्वंद्व का फैलाव है। शांत हो सकोगे? तब तक कैसा सुख? कैसी शांति? कैसा | इसे ऐसा समझो, संसार के कारण वासना नहीं है। वासना के चैन? तब तक कभी विराम नहीं हो सकता। | कारण संसार है। अगर तुमने सोचा संसार के कारण वासना है, तुम्हारी मांग में ही भूल हुई जा रही है। नहीं, कि तुम जो मांगते तो तुम्हारा पूरा जीवन का गणित गलत हो जाएगा। तब तुम हो वह नहीं मिलता है, इसलिए तुम दुखी हो। तुमने मांगा, उसी संसार को छोड़ने में लग जाओगे और वासना तो छूटेगी नहीं। 63/ ___ 2010_03 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 ऐसा देखो कि वासना संसार है ताकि वासना छूटे। वासना छूटे | पीछे बांध लिया। बैल को गाड़ी के आगे ही रखना तो गाड़ी तो संसार छूट जाता है। चलेगी। अगर बैल को गाड़ी के पीछे बांध लिया तो गाड़ी तो महावीर कहते हैं: चलेगी नहीं, बैल भी न चल पाएंगे। हालांकि कुछ ज्यादा फर्क ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हयो ण णिद्दा य। नहीं कर रहे हो। कुछ लोग बैल को गाड़ी के आगे रखते हैं, ण य तिण्हा व छहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।। तुमने गाड़ी को बैल के आगे रखा। ऐसा कुछ बड़ा फर्क नहीं है, 'जहां न इंद्रियां हैं न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है न | जरा-सा फर्क है। तृष्णा, न भूल, वहीं निर्वाण है।' ये सारी बातें निर्वाण के परिणाम हैं, निर्वाण के साधन नहीं हैं। अब एक बात काफी सूक्ष्म है। याद न रहे तो भूल जा सकती इन्हें निर्वाण के पीछे आने देना। इन्हें निर्वाण के आगे मत रख | है। महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि तमने अगर भूख मिटा दी, लेना, जैसा जैन मनियों ने किया है। सोचते हैं उपवास करें तृष्णा मिटा दी, निद्रा मिटा दी तो निर्वाण हो जाएगा। इसको ऐसा क्योंकि महावीर कहते हैं, वहां भूख नहीं लगती। अगर वहां मत पकड़ लेना जैसा कि जैन मुनियों ने पकड़ा है और सदियों से भूख नहीं लगती तो वहां उपवास कैसे करोगे, थोड़ा सोचो! भटकते हैं। उपवास तो वहीं हो सकता है, जहां भूख लगती है। महावीर महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि निद्रा छोड़ दोगे तो निर्वाण | कहते हैं वहां निद्रा नहीं आती; तो जगे रहो, खड़े रहो। उपलब्ध हो जाएगा। महावीर यह कह रहे हैं, निर्वाण उपलब्ध हो एक गांव में मैं गया तो एक संन्यासी की बड़ी धूम थी। मैंने जाए तो वहां निद्रा नहीं है। इन दोनों बातों में बड़ा फर्क है। ये पूछा, मामला क्या है? दस साल से खड़े हैं। खड़े श्री बाबा एक-सी लगती हैं बातें, इसलिए भूल होनी बड़ी स्वाभाविक है। उनका नाम। वे सोते ही नहीं। मैं उनको देखने गया, वह आदमी जिनसे भूल हो गई वे क्षमायोग्य हैं क्योंकि भूल बड़ी बारीक है। करीब-करीब मुर्दा हालत में है। अब दस साल से जो न सोया हो जरा-सा धागे भर का फासला है। | और खड़ा रहा हो-क्योंकि डरते हैं कि बैठे, लेटे, कि नींद महावीर निर्वाण की परिभाषा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आयी। खड़े हैं। तो पैर हाथीपांव हो गए। सारा खून शरीर का निर्वाण ऐसी चित्त की दशा है, ऐसे चैतन्य की दशा है, जहां न | सिकुड़कर पैरों में समा गया। पैर सूज गए हैं। लकड़ियों का दुख है न सुख, न नींद है, न भूख है न प्यास। क्योंकि वहां सहारा लिए हुए, रस्सियां बांधे हुए छत से, उनके सहारे खड़े हैं। इंद्रियां नहीं, वहां देह नहीं तो देह से बंधे हुए धर्म नहीं। अब यह आदमी-फांसी लगाए हुए है। लेकिन इसका तुम उल्टा अर्थ ले सकते हो। तुम यह अर्थ ले और यह फांसी और कठिन। दस क्षण में लग जाए, खतम सकते हो कि महावीर निर्वाण की साधना बता रहे हैं। यह सिर्फ हुआ। यह दस साल से फांसी पर लटका हुआ है। बैठ नहीं निर्वाण की परिभाषा है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम नींद का | सकता, लेट नहीं सकता। और सम्मान बहुत मिल रहा है त्याग कर दो, भोजन का त्याग कर दो तो तुम निर्वाण को उपलब्ध | इसलिए अहंकार खूब बढ़ रहा है। हो जाओगे। अगर भोजन का त्याग किया तो सूखोगे, निर्वाण | और इसकी आंखें देखो, तो पशुओं की आंखों में भी को उपलब्ध नहीं हो जाओगे। अगर निद्रा का त्याग किया तो थोड़ी-बहुत बुद्धि दिखाई पड़े, वह भी इसकी आंखों में दिखाई दिनभर उनींदे बने रहने लगोगे; निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो नहीं पड़ेगी। दिखाई पड़ भी कैसे सकती है? क्योंकि बुद्धि के जाओगे। उदास हो जाओगे, महासुख का अनुभव नहीं होगा। लिए विश्राम चाहिए। यह आदमी विश्राम नहीं ले रहा है। इसके अगर तुमने सुख और दुख से अपने को सब भांति तटस्थ करने भीतर की तुम अवस्था ऐसे ही समझो कि जैसे शाकभाजी हो चेष्टा की तो तम कठोर हो जाओगे। तम्हारी संवेदनक्षमता गया। अब यह आदमी कोई आदमी नहीं है, गोभी का फल है। खो जाएगी, लेकिन निर्वाण को उपलब्ध न हो जाओगे। | इसके भीतर अब कोई मस्तिष्क नहीं है। मस्तिष्क के सूक्ष्म तंतु निर्वाण को उपलब्ध होने से ये सब बातें घटती हैं। इन बातों विश्राम के न मिलने से टूट जाते हैं। को घटाने में मत लग जाना। क्योंकि तब तुमने बैल को गाड़ी के । इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि साधुओं में प्रतिभा नहीं 638 2010_03 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद घर बुलाने लगी | दिखाई पड़ती। तुम उनकी पूजा किसी और कारण से करते हो, बहुत मुश्किल से होता है। और जैन मुनि को देख लो। उसने | प्रतिभा के कारण नहीं करते। उनके जीवन में कोई सृजनात्मक | असुंदर होने को अपनी साधना बना रखी है। ऊर्जा नहीं दिखाई पड़ती; न कोई आभामंडल है। महावीर ने अपने शरीर को सताया हो ऐसा मालूम नहीं होता। तुम्हारी पूजा के कारण और हैं। तुम कहते हो इस आदमी ने सौ शरीर के पार गए होंगे ऐसा तो मालूम होता है, लेकिन शरीर को दिन का उपवास किया इसलिए पूजा करते हैं। अब सौ दिन का सताया हो ऐसा नहीं मालूम होता। और जिसको तुम सताते हो उपवास करने के लिए किसी बुद्धि की तो जरूरत नहीं है। सच उससे पार जा नहीं सकते। जिसको तुम सताते हो उसको सताने तो यह है कि जितना बुद्ध आदमी हो, उतनी आसानी से कर के लिए उसी के पास बने रहना पड़ता है। जरा दूर गए कि | सकता है। जितना जड़बुद्धि हो, जिद्दी हो, दंभी हो, उतनी घबड़ाहट होती है कि कहीं शरीर फिर न लगाम के बाहर निकल आसानी से कर सकता है। जाए, नियंत्रण के बाहर निकल जाए। बुद्धिमान आदमी तो शरीर की जरूरत को समझेगा, मन की जो आदमी कामवासना दबाएगा वह कामवासना पर ही बैठा जरूरत को समझेगा, बुद्धिपूर्वक जीयेगा, संयम से...यह तो रहेगा। उसी की छाती पर चढ़ा रहेगा। जरा उतरा कि चारों खाने असंयम हुआ। कुछ जड़ हैं, जो खाए चले जा रहे हैं; जो खाने चित्त ! कामवासना उसकी छाती पर बैठ जाएगी। तो वह उतर ही के लिए ही जीते हैं। और कुछ जड़बुद्धि हैं, जो अपने को भूखा नहीं सकता। जिसने क्रोध को दबाया वह क्रोध से इंचभर हट मार रहे हैं। भूखा मारने के लिए ही जीते हैं। नहीं सकता। क्योंकि हटा कि क्रोध प्रगट हुआ। और ज्वालाएं महावीर की बात समझना। महावीर निर्वाण की परिभाषा कर लपट रही हैं भीतर। तो उन ज्वालाओं को किसी तरह दबाए पड़ा रहे हैं। ऐसा समझो कि कोई मीरा से पूछे कि प्रभु को पाकर तुझे रहता है। क्रोध को दबानेवाला क्रोध के साथ ही खड़ा रहता है। क्या हुआ? तो वह कहे, उमंग उठी, नाच उठा, गीत उठे-पद काम को दबानेवाला काम के साथ ही खड़ा रहता है। धुंघरू बांध मीरा नाची रे। तुम सोचो तो ठीक है, तो नाचना | 'जहां न इंद्रियां हैं न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है न सीख लें तो प्रभु से मिलन हो जाएगा। तृष्णा, न भूख, वहीं निर्वाण है।' तो नर्तकियां तो बहुत हैं। नर्तक तो बहुत हैं। उनको कोई प्रभु महावीर यह कह रहे हैं कि जब तुम निर्वाण में पहुंचोगे तो कैसे तो उपलब्ध नहीं हो रहा। नाचने से अगर प्रभु उपलब्ध होता तो पहचानोगे कि निर्वाण आ गया? यह उसकी पहचान बता रहे नर्तकियों को उपलब्ध हो गया होता, नर्तकों को उपलब्ध हो गया हैं। वे कह रहे हैं, वहां तुम न दुख पाओगे न सुख, वहां तुम न होता। कितने तो लोग 'ता-ता थै-थै' कर रहे हैं, कुछ भी तो पीड़ा पाओगे न बाधा, वहां तुम न मरण पाओगे न जन्म-समझ नहीं हो रहा। लेना आ गया घर। वहां तुम इंद्रियां न पाओगे, न इंद्रियों के मीरा जो कह रही है वह परिभाषा है। मीरा कह रही है, प्रभु को कष्ट, न मोह पाओगे न विस्मय, न निद्रा पाओगे न तृष्णा, न पाने से हृदय खिला, नाच जन्मा, रसधार बही, गंगा चली, घूघर भूख-तो समझ लेना कि आ गया घर। बजे। यह बैलों के पीछे गाड़ी है। तुमने देखा कि अरे! तो फिर जब कोई व्यक्ति ध्यान की गहराइयों में उतरते-उतरते, नाचना तो हम भी सीख ले सकते हैं। नाचना सीखने से प्रभु नहीं उतरते-उतरते आत्मा के भीतर प्रवेश करता है, अचानक पाता है मिलता, प्रभु मिलने से नाच घटता है। कि यहां न तो शरीर है...इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर छूट ऐसा ही महावीर की निर्वाण की परिभाषा को समझना। जैन गया। महावीर निर्वाण को उपलब्ध होने के बाद भी चालीस मुनि कितनी तकलीफ झेल रहा है-अकारण। जड़ता की भर | साल तक शरीर में रहे। चालीस-ब्यालीस साल तक शरीर का सूचना मिलती है। महावीर की प्रतिमा देखी तुमने? और जैन | उपयोग किया; और ऐसा उपयोग किया, जैसा किया जाना मुनि को साथ खड़ा करके देख लो तो तुमको समझ में आ चाहिए। हम तो चालीस जन्मों में ऐसा उपयोग नहीं करते, जाएगा। महावीर की प्रतिमा का रूप ही कछ और है, रंग ही उन्होंने चालीस वर्ष में कर लिया। उनके कारण कल्याण की धार कुछ और है। कहते हैं, महावीर जैसा सुंदर आदमी पृथ्वी पर बही। श्रेयस पृथ्वी पर उतरा। खूब फूल खिले लोगों की आत्मा 639 2010_03 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 के। खूब वर्षा हुई उनके कारण; और जिनके बीज जन्मों से दबे हुआ। यह तल तो नींद से अछूता रहा है। कुंआरा है यह तल। पड़े थे, अंकुरित हुए। इस पर न नींद कभी आयी, न कभी सपना उतरा। इंद्रियां यहां निर्वाण की उपलब्धि के बाद भी चालीस-ब्यालीस साल तक तक पहुंचीं नहीं। शरीर यहां तक पहुंचा भी शरीर था, इंद्रियां थीं। लेकिन महावीर कहते हैं, निर्वाण की | इंद्रियों के पार। अवस्था, आंतरिक ऐसी अवस्था है कि वहां पहुंचकर तुम्हें पता यह अनुभव है और अनुभव की व्याख्या है। और तुम जब इस चलता है, अरे! शरीर बड़े पीछे रह गया। शरीर बड़े दूर छूट अनुभव में उतरोगे तो तुम्हारे लिए मील के पत्थर बना रहे हैं वे। गया। शरीर परिधि पर पड़ा रह गया और तुम केंद्र पर आ गए। कि तुम यहां से समझ लेना कि निर्वाण शुरू होता है। तुमसे यह इंद्रियां भी वहीं पड़ी रह गईं शरीर पर। स्वभावतः जब शरीर पीछे नहीं कहा जा रहा है कि तुम ऐसा करना शुरू कर दो। छोड़ दो छूट गया तो शरीर की भूख, प्यास, निद्रा, जागृति, सब पीछे छूट भोजन, नींद छोड़ दो, बैठ जाओ। यह तो पागलपन होगा। गई। अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर कोई चौबीस घंटे जहां तुम हो शरीर पर...ऐसा समझो कि कोई आदमी अपने जागा हुआ चैतन्य है, जिसको निद्रा की कोई जरूरत ही नहीं है, घर की चारदीवारी के पास ही खड़ा रहता है और सोचता है, यही जो कभी पहले भी नहीं सोया था। तुम्हें याद न थी। तुम्हें पहचान | घर है। धूप आती तो उसके सिर पर धूप पड़ती है, सिर फटने न थी। वह कभी भी न सोया था। वह सो ही नहीं सकता। सोना लगता है। वर्षा आती तो वर्षा में भीगता, शरीर कंपने लगता। उसका गुणधर्म नहीं है। लेकिन वह जानता है यहीं चारदीवारी के बाहर, यहीं मेरा घर है।। इसलिए कृष्ण कहते हैं, 'या निशा सर्व भूतानां, तस्यां जागर्ति | महावीर कहते हैं, तुम्हारा घर, तुम्हारा अंतर्गृह-वहां न वर्षा संयमी।' सब जब सोते हैं तब भी संयमी जागता है। इसका यह होती, न धूप आती। तुम जरा पीछे सरको। तुम जरा परिधि को मतलब नहीं है कि संयमी पागल की तरह टहलता रहता है कमरे | छोड़ो और केंद्र की तरफ चलो। जैसे-जैसे तुम केंद्र की छाया में में; कि बैठा रहता है अपनी खाट पर पालथी मारे, कि संयमी सो | पहुंचोगे, तुम अचानक पाओगे, सुरक्षित। सभी बाधाओं से कैसे सकता है? सुरक्षित। वे सभी घटनाएं परिधि पर घटती हैं। हालांकि ऐसे मूढ़ संयमी भी हैं, जो नींद में उतरने से घबड़ाते हैं | जैसे सागर की सतह पर तूफान आते, आंधियां आतीं, लेकिन क्योंकि नींद में उतरे कि जो संयम किसी तरह साधा है वह टूटता | सागर की गहराई में न तो कभी कोई तूफान आता, न कोई आंधी है। दिनभर किसी तरह स्त्रियों की तरफ नहीं देखा, सपने में क्या | आती। जैसे-जैसे गहरे जाने लगो...जो लोग सागर की गहराई करोगे? सपने में तो तुम्हारा बस नहीं। आंख बंद हुई कि में खोज करते हैं वे कहते हैं कि सागर की गहराई में अनूठे जिन-जिन स्त्रियों से दिनभर आंख चुराते रहे, वे सब अनुभव होते हैं। अनूठा अनुभव होता है। एक अनुभव तो यह आयीं और सुंदर होकर, और सजकर आ जाती हैं। जैसी होता है कि वहां कोई तूफान नहीं, कोई आंधी नहीं, कोई लहर सुंदर स्त्री सपने में होती है वैसी कहीं वस्तुतः थोड़े ही होती है! नहीं। सब परम सन्नाटा है। जैसा सुंदर पुरुष सपने में होता है, वस्तुतः थोड़े ही होता है! जैसे-जैसे गहरे जाते हो...जैसे पैसिफिक महासागर पांच तो भागोगे कहां? नींद में तो भाग भी न सकोगे। और नींद में मील गहरा है। आधा मील की गहराई के बाद सूरज की किरणें भूल गए सब शास्त्र कि तुम जैन हो कि हिंदू हो कि मुसलमान कि भी नहीं पहुंचतीं। पांच मील की गहराई पर सूरज की किरण संसारी कि संन्यासी-गया सब! कभी पहंची ही नहीं। अनंत काल से गहन अंधकार वहां सोया तो आदमी नींद से डरता है। मगर जो नींद से डर रहा है वह है। वहां सतह की कोई खबर ही नहीं पहुंची। हवा है, तूफान है, कोई निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाता। आंधी है, बादल है, बरसात है, धूप है, ताप है, शीत आयी, गर्मी महावीर कहते हैं, जो निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है वह | आयी, कुछ वहां पता नहीं चलता। वहां कोई मौसम बदलता जानता है कि नींद तो है ही नहीं। यहां तो नींद कभी घटी ही नहीं। वहां सदा एकरस। नहीं। इस गहराई के तल पर तो नींद का कभी प्रवेश ही नहीं। पैसिफिक महासागर की जो गहराई है, वह तो कुछ भी नहीं; 640/ 2010_03 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद घर बुलाने लगी जब तुम अपनी गहराई में उतरोगे, वहां भूख कभी नहीं पहुंची, तुम करीब-करीब हेनरी फोर्ड के माडल हो। बस एक ही गेयर कोई नींद कभी नहीं पहुंची, कोई दुख, कोई सुख वहां कभी नहीं पता है कि चले! और ऐसा भी नहीं है कि गेयर तुम्हारे भीतर पहंचा। ये मील के पत्थर हैं। | नहीं है। है, लेकिन तुम्हें लगाना नहीं आता। तुम्हें पता नहीं कि और आज नहीं कल इस परिधि से हटना पड़ता है, क्योंकि पीछे भी लौट सकता है यह यंत्र। यह अपने भीतर भी डुबकी शरीर क्षणभंगुर है, मरेगा। तो जो परिधि पर खड़े हैं, कंप रहे हैं। मार सकता है। तुमने दूसरों में ही डुबकी लगाई तो उसी का क्योंकि मौत उन्हें कंपा रही है। यह बड़ा विस्मयकारी मामला अभ्यास हो गया है। है। तुम कभी नहीं मरते और कंप रहे हो, घबड़ा रहे हो। ऐसा ही ध्यान का इतना ही अर्थ है : रिवर्स गेयर—पीछे लौटने की समझो कि रस्सी देख ली अंधेरे में और भाग खड़े हुए सांप प्रक्रिया, अपने में जाने की प्रक्रिया। समझकर; पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। छाती धड़क रही है। यह शरीर तो जाएगा। इसके पहले कि यह चला जाए, इसकी रुकते ही नहीं रोके-सांप! | लहर पर सवार होकर जरा भीतर की यात्रा कर लो। यह अश्व ऐसे ही समझो कि किसी सिनेमाघर में बैठे थे और कोई चिल्ला | तो मरेगा। अश्वारोही बन जाओ। जरा भीतर की यात्रा कर लो। दिया पागल कि 'आग, आग लग गई।' और भागे। शब्द ही | क्या करोगे शब्दवेदी धुन चुकेगी जब? था, कहीं कोई आग न थी। लेकिन भीतर एक भाव समा गया तब कहां, किस छोर पर, किसके लिए कि आग। फिर तो तुम्हें कोई रोके भी तो न रुकोगे। कौन से संदर्भ जाएंगे दिए? जिसे अभी हम अपना जीवन समझ रहे हैं वह परिधि का बैजयंती आकाश टुकड़ों में बंटेगा जब जीवन है—बड़ा अधूरा, बड़ा खंडित। उसी खंड को हम पूरा क्या करोगे तब? मान बैठे हैं। यही अड़चन है। इसलिए घबड़ाहट स्वाभाविक एक गहरी खनक अविनीता हवाएं है। वहां मौत भी आएगी, दुख भी आएगा, बुढ़ापा आएगा, शीर्षकों पर शीर्षकों की आहटें आएं न आएं शरीर जीर्ण-जर्जर होगा, कंपोगे। एक कोई रक्त-निचुड़ा शब्द महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि इस शरीर को काट डालो, । जिसका अर्थ हम शायद न समझें मिटा डालो। महावीर कह रहे हैं, इस शरीर का उपयोग कर लो।। और शायद समझ पाएं जैसा यह शरीर संसार में जाने के लिए वाहन बनता है, ऐसा ही घटाएं घिरकर न बरसें तो न बरसे र अंतर्यात्रा के लिए भी वाहन बन जाता है। चोरी करने कि ऋतएं उसी कोमल कोण से परसें न परसें जाओ कि मंदिर में ध्यान करने जाओ, शरीर दोनों जगह ले जाता कि हम तरसें, कि हम तरसें, कि हम तरसें है। किसी की हत्या करने जाओ या किसी को प्रेम से आलिंगन किंतु सारी तरसने भी चुक जाएंगी जब करो, शरीर दोनों में वाहन बन जाता है। शरीर तो बड़ा अदभुत क्या करोगे तब? यंत्र है। तुमने एक ही तरकीब सीखी-इससे बाहर जाना। और केसर झर चुकेगी जब इसमें शरीर का कोई कसूर नहीं। क्या करोगे तब? शायद तुम्हें पता हो, हेनरी फोर्ड ने जब पहली कार बनाई तो यह होनेवाला है। केसर तो झरेगी। यह वीणा तो रुकेगी। ये उसमें रिवर्स गेयर नहीं था। खयाल ही नहीं था कि पीछे भी ले तार तो टेंगे। ये टूटने को बने हैं। यह वीणा बिखरने को सजी जाना पड़ेगा। जो पहला माडल था, बस वह आगे की तरफ है। परिधि पर तो सब बनेगा और मिटेगा। केंद्र पर शाश्वत है। जाता था। मोड़ना हो तो बड़ा चक्कर लगाना पड़े। आधामील तुम परिधि में रहते-रहते केंद्र को बिलकुल ही भूल मत जाना। का चक्कर लगाकर आओ तब कहीं मोड़कर आ पाओ। तब परिधि में रहो जरूर, केंद्र की याद करते रहो। परिधि में रहो उसे समझ में आया कि यह बात तो ठीक नहीं। गाड़ी पीछे भी जरूर, कभी-कभी केंद्र में सरकते रहो। परिधि में रहो जरूर, लौटनी चाहिए। तो फिर रिवर्स गेयर आया। केंद्र की सुरति न भूले, स्मृति न भूले। केंद्र से संबंध न टूटे। ___ 2010_03 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 2 | यह केसर तो झरेगी। क्या करोगे तब? तब बहत पछताओगे. पता नहीं कि मिट तुम सकते नहीं। ऐसी उलझन है। जो आदमी | तब रोओगे। लेकिन रोने से कुछ आता नहीं। रोने से कुछ होता | मिटने को राजी है वह उसको पा लेता है जो कभी नहीं नहीं। जागो! इसके पहले कि केसर झर जाए, इसके पहले कि उसको पाते ही से भय मिट जाता है। जीवन का दीया बुझे, तुम जीवन के उस शाश्वत दीये को देख लो मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे जो कभी नहीं बुझता। उससे संबंध जोड़ लो। इस लहर का कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है उपयोग कर लो। यह लहर तुम्हारी शत्रु नहीं है, यह तुम्हारी मित्र परिधि पर तो मिटना होगाहै। इसी से संसार, इसी से सत्य, दोनों की यात्राएं पूरी होती हैं। कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है। पत्थर दे रहे हैं। जब तक तमने स्वयं मिटता है बीज। परिधि पर ही मिटता है। खोल टटती है और के भीतर के अमृत को नहीं जाना तब तक तुम मरघट में हो, तत्क्षण अंकुरण हो जाता है नया जीवन। और एक बीज से कब्रिस्तान में। करोड़ों बीज पैदा होते हैं। और जो बंद बीज था वह हजारों फूलों इब्राहीम फकीर हुआ। उससे कोई पूछता कि गांव कहां? | में खिलता और नाचता और हंसता है। बस्ती कहां? तो वह कहता, बायें जाना। दायें भूलकर मत जाना कि दाना खाक में मिलकर गले-गुलजार होता है बायें जाना, नहीं तो भटक जाओगे। बायें से बस्ती पहुंच | मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे जाओगे। बेचारा राहगीर चलता। चार-पांच मील चलने के बाद अगर कुछ होना चाहते हो तो मिटना सीखो। अगर कोई मर्तबा । वह बड़े क्रोध में आ जाता कि यह आदमी चाहते हो, अगर वस्ततः चाहते हो हस्ती मिले. होना मिले. कैसा है! फकीर वहां चौरस्ते पर बैठा है। वह लौटकर आता, अस्तित्व मिले तो-मिटो। परिधि पर मिटो ताकि केंद्र पर हो भनभनाता कि तुम आदमी कैसे हो जी! मुझे मरघट भेज दिया? | सको। परिधि से डुबकी लगा लो और केंद्र पर उभरो। परिधि मैं बस्ती की पूछता था। को छोड़ो और केंद्र पर सरको। इब्राहिम कहता, बस्ती की पूछा इसीलिए तो वहां भेजा क्योंकि 'जहां न कर्म हैं न नोकर्म, न चिंता है न आर्तरौद्र ध्यान, न जिसको लोग बस्ती कहते हैं वह तो बस उजड़ रही है, उजड़ रही धर्मध्यान है न शुक्लध्यान, वहीं निर्वाण है।' है। रोज कोई मरता है। इस मरघट में जो बस गया सो बस ण वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि। गया। 'बस्ती।' कभी इधर किसी को उजड़ते देखा ही नहीं।। ण वि धम्मसक्कझाणे. तत्थेव य होड णिव्वाणं।। इसलिए तुमने बस्ती पूछी तो मैंने कहा, बस्ती भेज दें। जहां न कर्म हैं, न कर्मों की आधारभत शंखलाएं-नोकर्म। न कबीर कहते हैं, 'ई मुर्दन के गांव।' हमारे गांव को कहते हैं जहां कर्म है न कर्मों को बनानेवाली सूक्ष्म वासनाएं। न चिंता है, मुर्दो के गांव। न चिंतन, न आर्तरौद्र ध्यान।। हम जब तक परिधि पर हैं, हम मुर्दे ही हैं। हमने अपने मर्त्य ठीक है, आर्तरौद्र ध्यान तो हो ही कैसे सकते हैं? क्रोध और रूप से ही संबंध बांध रखा है तो मुर्दे हैं। और हम कंप रहे हैं और दुख में भरे हुए चित्त की अवस्थाएं हैं। लेकिन महावीर कहते हैं घबड़ा रहे हैं। घबड़ाहट स्वाभाविक है, मिटेगी न। | न जहां धर्मध्यान, न शुक्लध्यान। जहां ध्यान की आत्यंतिक मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं बड़ा भय लगता है। मैं अवस्थाएं भी पीछे छूट गईं। सविकल्प समाधि पीछे छूट गई, पूछता हूं, किस बात का भय ? वे कहते हैं किसी बात का खास | निर्विकल्प समाधि पीछे छूट गई। समाधि ही पीछे छूट गई। भय नहीं, बस भय लगता है। ठीक कह रहे हैं। लगेगा ही। वे जहां बस तुम हो शुद्ध; और कुछ भी नहीं है। कोई तरंग, कोई कहते हैं, किसी तरह यह भय मिट जाए। यह भय ऐसे नहीं विकार, कुछ भी नहीं है। बस तुम हो शुद्ध निर्विकार। जहां मिटेगा। यह तो तुम रूपांतरित होओगे तो ही मिटेगा। यह तो तुम्हारा सिर्फ धड़कता हुआ जीवन है, वहीं निर्वाण है। का स्वाद लगेगा तो ही मिटेगा। यह भय मौत का है। संसार ही नहीं छोड़ देना है, धर्म भी छोड़ देना है। महावीर मौत का भय है और मिटना तुम चाहते नहीं। और तुम्हें यह कहते हैं धर्मध्यान, शुक्लध्यान। शुक्लध्यान महावीर का 542 _ Jan Education International 2010_03 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद घर बलाने लगी। आत्यंतिक शब्द है ध्यान के लिए। जहां ध्यान इतना शुद्ध हो न रह जाए तभी वस्तुतः ध्यान हुआ। तो कांटे को कांटे से जाता है कि कोई विषय नहीं रह जाता—निर्विकल्प ध्यान। निकाल लेना, फिर दोनों कांटों को फेंक देना। लेकिन महावीर कहते हैं वह भी छूट जाता है। वह भी कुछ है। स्वभावतः यह बड़ी लंबी यात्रा है। इससे बड़ी कोई और यात्रा वह भी उपाधि है। तुम कुछ कर रहे हो। ध्यान कर रहे हो। कुछ नहीं हो सकती। आदमी चांद पर पहुंच गया, मंगल पर पहुंचेगा, अनुभव हो रहा है। अनुभव यानी विजातीय। फिर और दूर के तारों पर पहुंचेगा। शायद कभी इस अस्तित्व की इधर मैं तुम्हें देख रहा हूं तो तुम मुझसे अलग। फिर तुम भीतर परिधि पर पहुंच जाए-अगर कोई परिधि है। लेकिन यह भी ध्यान में प्रविष्ट हुए। तो धर्मध्यान में आदमी शुभ भावनाएं यात्रा इतनी बड़ी नहीं है जितनी स्वयं के भीतर जानेवाली यात्रा करता, शुभ भावनाओं का दर्शन होता है; जिसको बुद्ध ने है। सारे अनुभव के पार, जहां सिर्फ प्रकाश रह जाता है चैतन्य ब्रह्मविहार कहा है, महावीर ने बारह भावनाएं कहीं, उनका का। जहां रंचमात्र भी छाया नहीं पड़ती अन्य की, अनन्यभाव से अनुभव करता। लेकिन विषय अभी भी बना है। दो अभी भी तुम्ही होते हो बस, तुम ही होते हो। हैं। फिर निर्विकल्प ध्यान में ऐसी अवस्था आ जाती है कि कोई यह धीरे-धीरे होगा। बड़े धैर्य से होगा अधीरज से नहीं होगा। विकल्प न रहा, लेकिन सिर्फ एक महासुख का अनुभव है। तुम सारे प्रयास करते रहो तो भी सिर्फ तुम्हारे प्रयास तमने कर मगर फिर भी सूक्ष्म रेखा अनुभव की बनी है। लिए इससे नहीं हो जाएगा। सारे प्रयास करते-करते, तो महावीर कहते हैं जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं, जहां करते-करते एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम्हें अपने प्रयास भी केवल अनुभोक्ता रह जाता है बिना अनुभव के; जहां शुद्ध | बाधा मालूम पड़ने लगते हैं। प्रयास करते-करते एक दिन प्रयास चैतन्य रह जाता है और कोई विषय नहीं बचता, सच्चिदानंद भी भी छूट जाते हैं तब घटता है। जहां नहीं बचता, वहीं निर्वाण है। धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय खयाल रखना; धन, पद, प्रतिष्ठा तो रोकती ही है; दान, | माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय | दया, धर्म भी रोकता है। पद-प्रतिष्ठा छोड़कर दान-धर्म करो, कबीर का वचन है, धीरे-धीरे रे मना। धीरे-धीरे सब कुछ फिर दान-धर्म छोड़कर भीतर चलो। बाहर तो रोकता ही है, फिर होता है। और सिर्फ माली सौ घड़े पानी डाल दे इससे कोई फल भीतर भी रोकने लगता है। पहले बाहर छोड़कर भीतर चलो, नहीं आ जाते। फिर भीतर को भी छोड़ो। सब छोड़ो। ऐसी घड़ी ले आओ, जहां । माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय बस तुम ही बचे। एक क्षण को भी यह घड़ी आ जाए, तो तुम्हारा ठीक समय पर, अनुकूल समय पर, सम्यक घड़ी में घटना अनंत-अनंत जन्मों से घिरा हुआ अंधकार क्षण में तिरोहित हो घटती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि माली पानी न सींचे। जाता है। क्योंकि माली पानी न सींचे तो फिर ऋतु आने पर भी फल न पहुंच सका न मैं बरवक्त अपनी मंजिल पर लगेंगे। माली पानी तो सींचे, लेकिन जल्दबाजी न करे। प्रतीक्षा कि रास्ते में मुझे राहबरों ने घेर लिया करे। श्रम और प्रतीक्षा। श्रम और धैर्य। लुटेरे तो रास्ते में लूट ही रहे हैं। रहजन तो लूट ही रहे हैं, फिर धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय राहबर भी लूट लेते हैं। और यह यात्रा बड़ी धीमी है क्योंकि फासला अनंत है। तुम्हारी क्रोध तो लूट ही रहा है, ध्यान भी लूटने लगता है एक दिन। परिधि और तुम्हारा केंद्र इस जगत में सबसे बड़ी दूरी है। तुम्हारी हिंसा तो लूट ही रही है, एक दिन अहिंसा भी लूटने लगती है। परिधि पर संसार है और तुम्हारे केंद्र पर परमात्मा। स्वभावतः तो खयाल रखना कि अहिंसा सिर्फ हिंसा को मिटाने का उपाय | दूरी बहुत बड़ी होने ही वाली है। तुम्हारी परिधि पर दृश्य है, है। और ध्यान केवल मन की चंचलता को मिटाने का उपाय है। | तुम्हारे केंद्र पर अदृश्य। तुम्हारी परिधि पर रूप है, तुम्हारे केंद्र जब चंचलता मिट गई तो इस औषधि को भी लुढ़का देना | पर अरूप। तुम्हारी परिधि पर सगुण है, तुम्हारे केंद्र पर निर्गुण। कचरेघर में। इसको लिए मत चलना। जब ध्यान की भी जरूरत यात्रा बड़ी बड़ी है; काफी बड़ी है। अनंत यात्रा है। अनंत धैर्य 643 2010_03 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः25 चाहिए होगा। लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है।' "जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण | कभी करके देखना। तुंबी को अगर मिट्टी में लपेट दो तो जल है। अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध में डूब जाएगी। मिट्टी के वजन से डूब जाएगी। जो नहीं डूबना थी, वह डूब जाएगी। तुंबी तो लोग तैरने के काम में लाते हैं। णिव्वाणं ति अवाहंति सिद्धी लोगाग्गमेव य। बांध लेता है आदमी। नहीं तैरना जानता है तो तुंबी के सहारे तैर खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरति महेसिणो।। जाता है। वह तुंबी जो दूसरों को तैरा देती है, खुद भी डूब जाती सिर्फ महर्षि ही जिस स्थान को प्राप्त करते हैं। जिन्होंने सब है, अगर मिट्टी का आवरण हो जाए। को शद्ध किया ऐसे ऋषि इस स्थान को प्राप्त | महावीर कहते हैं शरीर के आवरण से हम डबे। मिट्टी ने करते हैं। जिनके ध्यान में जरा-सी भी कलुष न रही-संसार की डुबाया। जो डूबने को न बने थे वे डब गए। उबरे रहना जिनका भी नहीं, परलोक की भी नहीं। स्वभाव था, जिनके सहारे और भी तर जाते और तैर जाते, जो 'जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण | तरण-तारण थे, वे डूब गए। है। अबाध है...।' तुंबी डूब जाती है मिट्टी के आवरण से। परिभाषा चल रही है। अंततः इसके पहले कि महावीर विदा | _ 'जैसी मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का हों, अपने सूत्र पूरे करें, वे अंतिम अवस्था के संबंध में लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है...।' दिशा-निर्देश दे रहे। बस, इतना ही फर्क है तुममें और सिद्धपुरुषों में। तुममें और 'अबाध है'—उसकी कोई सीमा नहीं। बुद्धपुरुषों में। तुममें और जिन-पुरुषों में। इतना ही फर्क है। तुम 'सिद्धि है'-वहां पहुंचकर अनुभव होता है आ गए, पहुंच भी वैसी ही तुंबी, जैसी वे। तुम जरा मिट्टी से लिपे-पुते पड़े, तो गए। वहां पहुंचकर पता चलता है, अब जाने को कहीं न रहा। डूबे जल में। उन्होंने अपनी मिट्टी से अपने को दूर जान लिया, वहां पहुंचकर पता चलता है अरे! यात्रा समाप्त हुई। एक पृथक जान लिया। तादात्म्य तोड़ दिया। मिट्टी खिसक गई, तुंबी अहोभाव। सब पूरा हो गया, परिपूर्ण हो गया। अब कुछ भी न उठ गई। होने को शेष रहा, न जाने को शेष रहा। घर वापस आ गए। जब तुंबी उठती है जल में तो जाकर अग्रभाग में स्थिर हो जाती ‘सिद्धि, लोकाग्र।' जो व्यक्ति इस अवस्था में पहुंच गया, है। पानी की सतह पर स्थिर हो जाती है। ऐसा महावीर कहते हैं, वह लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है। वह वहां पहुंच जाता जो डूबे हैं इस संसार में वे तुंबियों की तरह हैं मिट्टी लगी-डूबे | है, जहां पहुंचने के लिए हम सदा से दौड़ते रहे—प्रथम हो जाता | हैं। जब मिट्टी छूटती है, तादात्म्य छूटता है, यह मोह भंग होता | है, तो उठी आत्मा, चली। 'क्षेम'-कल्याण की अनुभूति होती है। परम स्वास्थ्य की | और इसको महावीर कहते हैं लोकाग्र—आत्यंतिक अवस्था। अनुभूति होती है। | जहां लोक समाप्त होता है, उस जगह जाकर सिद्धपुरुष ठहर 'शिव'-बड़ी शुद्धता, सुगंध, सुरभि। बड़ी गहन जाते हैं। ये तो सिर्फ प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का अर्थ ले लेना। पावनता। जैसे कमल और कमल और हजारों कमल भीतर प्राण इन प्रतीकों को लेकर नक्शे मत खींचने लगना। पर खिलते चले जाते हैं। 'जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का इस स्थिति में कोई भी बाधा नहीं लेप दूर होते ही तैरने लगती है, अथवा जैसे एरण्ड का फूल धूप पडती। कोई बाधा पड़ नहीं सकती। बेशर्त है। इसे कोई डिगा से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को जाते हैं, अथवा | नहीं सकता। इसमें कोई विघ्न नहीं डाल सकता। यह विघ्नों के जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है, पार है, अनाबाध है। अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान 'जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का | | होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर 644] Jan Education International 2010_03 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है।' तो निर्वाण की सूचना समझना कि घर पास आने लगा, जब तुम्हारी गति ऊपर की ओर होने लगे। हिंसा से अहिंसा की ओर होने लगे। क्रोध से करुणा की ओर होने लगे, बेचैनी से चैन की ओर होने लगे, पदार्थ से परमात्मा की ओर होने लगे। धन ध्यान की ओर होने लगे, तो समझना कि गति ऊपर की तरफ शुरू हो गई। तुंबी छूटने लगी मिट्टी से । आज नहीं कल लोकाग्र में ठहर जाएगी। वहां पहुंच जाएगी, जिसके आगे और जाना नहीं है। लाउअ एरण्डफले अग्गीधूमे उसू धणुविमुक् गइ पुव्वपओगेण एवं सिद्धाण वि गती तु ।। 'परमात्मतत्व अव्याबाध, अतींद्रिय, अनुपम, पुण्य-पापरहित, पुनरागमन - रहित, नित्य, अचल और निरालंब होता है।' यह जो परमात्मतत्व है, यह जो निर्वाण है, यह जो घर लौट आना है, यह कैसा तत्व है? इसके संबंध में क्या कहा जा सकता है ? इतना ही — 'परमात्म तत्व अव्याबाध।' इसमें कोई बाधा कभी नहीं पड़ती। इसके विपरीत ही कोई नहीं है, जो बाधा डाल सके। यह सबके पार है। इस तक किसी चीज की पहुंच नहीं है । सब चीजें इससे पीछे छूट जाती हैं। जिनसे बाधा पड़ सकती | है वे बहुत पीछे छूट जाती हैं। अतींद्रिय है। इंद्रियों के पार है, क्योंकि देह के पार है। 'अनुपम' – यह शब्द समझना । अनुपम का अर्थ है, जैसा कभी न जाना था; जैसा कभी न देखा था । न कानों सुना, न आंखों देखा। जो कभी अनुभव में आया ही न था । बहुत अनुभव हुए सुख, दुख के, सफलता के, विफलता के । बहुत अनुभव हुए - रस - विरस, स्वाद - बेस्वाद, सुंदर - असुंदर, लेकिन यह अनुपम है। ऐसा भी नहीं कह सकते यह सुंदर है। क्योंकि तब भ्रांति होगी कि शायद जो हमारे सुंदर के अनुभव हैं, उन जैसा है। नहीं, यह हमारे किसी अनुभव जैसा नहीं है। यह तो बस अपने जैसा है। अनुपम का अर्थ होता है अपने जैसा इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। यह अतुलनीय है । 'पुण्य-पापरहित, पुनरागमनरहित, नित्य, अचल और निरालंब... ।' । हमें तो वही शब्द समझ में आते हैं, जो हमारे अनुभव के हैं। 2010_03 याद घर बुलाने लगी मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन शराबघर गया। शेखी मारना उसकी आदत है। शेखी मार रहा था शराबघर के मालिक के सामने कि मैं हर तरह की शराब स्वाद लेकर पहचान सकता हूं। और ऐसा ही नहीं है, अगर तुम दस-पांच शराबें भी इकट्ठी एक प्याली में मिला दो तो भी मैं बता सकता हूं कि कौन-कौन सी शराब मिलाई गई है। मालिक ने कहा तो रुको। वह भीतर गया, मिला लाया एक ग्लास में मार्टिनी, ब्रांडी, रम, ह्विस्की - जो भी उसके पास था, सब मिला लाया। मुल्ला पी गया और एक-एक शराब का नाम उसने ले लिया कि ये ये चीजें इसमें मिली हैं । चकित हो गया वह मालिक भी। उसने कहा, एक बार और। वह भीतर गया और एक गिलास में सिर्फ पानी भर लाया । मुल्ला ने पीया, बड़ा बेचैनी में खड़ा रह गया। कुछ सूझे न । शुद्ध पानी है। स्वाद ही उसे इसका याद नहीं रहा है शुद्ध पानी का । उसने इतना ही कहा, कि यह मैं नहीं जानता यह क्या है ! मगर एक बात कह सकता हूं, इसकी बिक्री न होगी । हमारा जो भी अनुभव है वह कई तरह की शराबों का है। शुद्ध जल का तो हम स्वाद ही भूल गए हैं। बेहोशियों का है; होश का तो हम स्वाद ही भूल गए । विक्षिप्तताओं का है, स्वास्थ्य का तो हम स्वाद ही भूल गए। गर्हित, व्यर्थ, असार का है; सार का तो हम स्वाद ही भूल गए। इसलिए महावीर कहते हैं अनुपम । हमारे अनुभव से किसी से उसका मेल नहीं है। इसलिए तुम किसी अपने अनुभव के आधार से उसके संबंध में मत सोचना। खतरा यही हो जाता है। जैसे कि कोई कहे, कोई ज्ञानी, सिद्ध - कहे महासुख; तो हमको लगता है हमारा ही सुख होगा; करोड़ गुना, अरब गुना बड़ा, लेकिन है तो सुख । बस भूल हो गई। उसकी मजबूरी है। वह क्या कहे ? किन शब्दों में कहे ? महासुख कहता है तो भी अड़चन हो जाती है। क्योंकि तुम अपने सुख को ही सोचते हो। तुम अपने सुख में ही गुणनफल करके सोच सकते हो लेकिन तुम्हारा सुख सुख ही कहां है? उसको करोड़ गुना कर लो तो भी वह सुख नहीं है। आनंद कहो तो झंझट। क्योंकि तुमने जो आनंद जाना है वे अजीब-अजीब आनंद जाने तुमने। कोई ताश ही खेल रहा है, कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। अब क्या करो ? कोई शराब 645 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 पी रहा है, कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। कोई वेश्या का नृत्य दामिनी गई दमक देख रहा है, और कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। अब कहो कि | मेघ बजे परमात्मा आनंद है तो इस आदमी के मन में कुछ ऐसे ही लगेगा, | अगर सत्पुरुषों के पास ऐसा कुछ हो जाए–मेघ बजे, दामिनी कि होगा कुछ वेश्या का नाच देखने जैसा, शराब पीने जैसा, चमके, कोई अनूठा नाद सुनाई पड़ने लगे, कोई अदृश्य की ताश खेलने जैसा। जरा बड़ा करके सोच लो। पुकार खींचने लगे, कोई चुनौती मिले तो फिर ललचायी आंखों लेकिन जो भेद होनेवाला है इसके आनंद में और सिद्ध के | से देखते ही मत रहना। आनंद में, इसकी कल्पना में, वह परिमाण का होगा, मात्रा का | फूले कदम्ब होगा। और सिद्धपुरुष का आनंद गुणात्मक रूप से भिन्न है। जाने कबसे वह बरस रहा मात्रा का भेद नहीं है। यह बात ही अनुपम है। ललचायी आंखों से नाहक इसलिए महावीर ठीक कहते हैं कि अनुपम है। तुम अपने | जाने कबसे तू तरस रहा किसी अनुभव से विचार मत करना। तुम्हारा कोई अनुभव | मन कहता है छू ले कदम्ब, मापदंड नहीं बन सकेगा। फूले कदम्ब यह निर्वाण तो जब घटता है तभी जाना जाता है। यह तो स्वाद | जब यह चाहत उठे, यह चाहत का ज्वार उठे तो रुकना मत। जब मिलता है तभी पहचाना जाता है। तोड़-ताड़ सारी जंजीरें चल पड़ना। छोड़-छाड़ सारा तो सत्परुषों के पास तम सिर्फ प्यास ले लो. बस काफी है। मोह-मायापाश चल पडना। लौटकर देखना भी मत। यह उनकी बातें सुन, उनके जीवन को अनुभव कर, उनकी उपस्थिति आह्वान मिल जाए सतपुरुषों से, बस इतना काफी है। से तुम सिर्फ प्यास ले लो, तो बस काफी है। उनके कारण तुम पर लोग अजीब हैं। शास्त्र लेते हैं, प्यास नहीं लेते। सिद्धांत उतावले हो उठो, व्यग्र हो उठो खोजने के लिए; बस काफी है। ले लेते हैं, सत्य की चुनौती नहीं लेते। उनसे सिद्धांत मत लेना; सिद्धांत मिल ही नहीं सकते। उनसे एक अपूर्व घटना है। इस जगत की सबसे अपूर्व घटना है शास्त्र मत लेना। शास्त्र बनाया कि भूल हो गई। उनसे तो प्यास किसी व्यक्ति का सिद्ध या बुद्ध हो जाना। इस जगत की अनुपम लेना जीवंत और चल पड़ना। घटना है किसी व्यक्ति का जिनत्व को उपलब्ध हो जाना, जिन हो मेघ बजे धिन-धिन धा धमक-धमक जाना। उस अपूर्व घटना के पास जला लेना अपने बुझे हुए दीयों दामिनी गई दमक को। अवसर देना अपने हृदय को, कि फिर धड़क उठे उस मेघ बजे, दादुर का कंठ खुला अज्ञात की आकांक्षा से, अभीप्सा से। तो शायद कभी तम जान धरती का हृदय धुला पाओ निर्वाण क्या है। बताने का कोई उपाय नहीं। मेघ बजे, पंक बना हरिचंदन लिखा-लिखी की है नहीं देखा-देखी बात फूले कदम्ब तुम देखोगे तो ही जानोगे। लिखा-लिखी में उलझे मत रह टहनी-टहनी में कंदुक सम फूले कदम्ब, जाना। समय मत गंवाना। ऐसे भी बहुत गंवाया है। फूले कदम्ब महावीर के इन सत्रों पर बात की है इसी आशा में कि तम्हारे जाने कबसे वह बरस रहा भीतर कोई स्वर बजेगा, तुम ललचाओगे, चाह उठेगी, चलोगे। ललचायी आंखों से नाहक पाना तो निश्चित है। पा तो लोगे, चलो भर। न चले तो जो सदा जाने कबसे तू तरस रहा से तुम्हारा है, उससे ही तुम वंचित रहोगे। चले तो जो मिलेगा मन कहता है छू ले कदम्ब, वह कुछ बाहर से नहीं मिलता, तुम्हारा ही था। सदा से तुम्हारा फूले कदम्ब था। भूले-भटके, भूले-बिसरे बैठे थे। अपने ही खजाने की मेघ बजे, धिन-धिन धा धमक-धमक खबर मिली। 646 2010_03 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ बजे धिन धिन धा धमक-धमक दामिनी गई दमक मेघ बजे, दादुर का कंठ खुला धरती का हृदय धुला मेघ बजे, पंक बना हरिचंदन फूले कदम्ब टहनी - टहनी में कंदुक सम फूले कदम्ब, फूले कदम्ब जाने कबसे वह बरस रहा ललचायी आंखों से नाहक जाने कबसे तू तरस रहा मन कहता है छू ले कदम्ब, फूले कदम्ब 2010_03 आज इतना ही। याद घर बुलाने लगी। 647 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो एक परिचय बुद्धत्व की प्रवाहमान धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं, वे पश्चात भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी और सन 1957 में अतीत की किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी नहीं हैं। | सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में प्रथम ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और उनके साथ ही | (गोल्डमेडलिस्ट) रहकर एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। इसके समय दो सुस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है : ओशो पूर्व तथा पश्चात वे जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक ओशो पश्चात। पद पर कार्य करने लगे। विद्यार्थियों के बीच वे 'आचार्य रजनीश' ___ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत के नाम से अतिशय लोकप्रिय थे। का, एक नये युग का सूत्रपात हुआ है, जिसकी आधारशिला विश्वविद्यालय के अपने नौ सालों के अध्यापन-काल के अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति | दौरान वे पूरे भारत में भ्रमण भी करते रहे। प्रायः ही 60-70 में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, सर्वथा हजार की संख्या में उपस्थित होनेवाले श्रोताओं में वे अनूठे संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं। आध्यात्मिक जन-जागरण की लहर फैला रहे थे। उनकी वाणी मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसंबर 1931 को | में और उनकी उपस्थिति में वह जादू था, वह सुगंध थी जो किसी जन्मे ओशो का बचपन का नाम रजनीश था। उन्होंने जीवन के पार के लोक से आती है। प्रारंभिक काल में ही एक निर्भीक स्वतंत्र आत्मा का परिचय | सन 1966 में ओशो ने विश्वविद्यालय के प्राध्यापक पद दिया। खतरों से खेलना उन्हें प्रीतिकर था। 100 फीट ऊंचे पुल से त्यागपत्र दे दिया ताकि वे ध्यान की कला को और एक नये से कूद कर बरसात में उफनती नदी को तैर कर पार करना उनके मनुष्य-ज़ोरबा दि बुद्धा—के अपने जीवनदर्शन को अधिक से लिए साधारण खेल था। युवा ओशो ने अपनी अलौकिक अधिक लोगों तक पहुंचा सकें। 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक ऐसा बुद्धि तथा दृढ़ता से पंडित-पुरोहितों, मुल्ला-पादरियों, मनुष्य है जो भौतिक जीवन का पूरा आनंद मनाना जानता है; जो संत-महात्माओं—जो स्वानुभव के बिना ही भीड़ के अगुवा बने | मौन होकर ध्यान में उतरने में भी सक्षम है—ऐसा मनुष्य जो बैठे थे—की मूढ़ताओं और पाखंडों का पर्दाफाश किया। भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह से समृद्ध है। 21 मार्च 1953 को इक्कीस वर्ष की आयु में ओशो संबोधि सन 1970 में वे बंबई में रहने के लिए आ गये। अब को उपलब्ध हुए। संबोधि के संबंध में वे कहते हैं : 'अब मैं पश्चिम से सत्य के खोजी भी जो भौतिक समृद्धि से ऊब चुके किसी भी प्रकार की खोज में नहीं हूं। अस्तित्व ने अपने समस्त थे और जीवन के किन्हीं और गहरे रहस्यों को जानने और द्वार मेरे लिए खोल दिये हैं।' उन दिनों वे जबलपुर के एक समझने के लिए उत्सुक थे, उन तक पहुंचने लगे। ओशो ने उन्हें कालेज में दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी थे। बुद्धत्व घटित होने के | बताया कि अगला कदम ध्यान है। ध्यान ही जीवन में सार्थकता 2010_03 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के फूलों के खिलने में सहयोगी सिद्ध होगा। शिष्यों ने ओरेगॅन के मध्य भाग में 64,000 एकड़ जगह खरीदी इसी वर्ष सितंबर में, मनाली (हिमालय) में आयोजित जहां उन्होंने ओशो को रहने के लिए आमंत्रित किया। धीरे-धीरे अपने एक शिविर में ओशो ने नव-संन्यास में दीक्षा देना प्रारंभ यह जगह एक फूलते-फलते शहर में परिवर्तित होती गई। वहां किया। इसी समय के आसपास वे आचार्य रजनीश से भगवान लगभग 5000 प्रेमी मित्र मिल-जुलकर अपने सद्गुरु के श्री रजनीश के रूप में जाने जाने लगे। सान्निध्य में आनंद और उत्सव के वातावरण में एक अनूठे नगर सन 1974 में वे अपने बहुत से संन्यासियों के साथ पूना | के सृजन को यथार्थ रूप दे रहे थे। आ गये जहां 'श्री रजनीश आश्रम' की स्थापना हुई। पूना आने जैसे अचानक एक दिन ओशो मौन हो गये थे वैसे ही पर उनके प्रभाव का घेरा विश्वव्यापी होने लगा। अचानक अक्टूबर 1984 में उन्होंने पनः प्रवचन देना प्रारंभ कर श्री रजनीश आश्रम, पूना में प्रतिदिन अपने प्रवचनों में | दिया। ओशो ने मानव-चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर मध्य सितंबर 1985 में ओशो की सचिव के रजनीशपुरम किया। कृष्ण, शिव, महावीर, बुद्ध, शांडिल्य, नारद, जीसस छोड़कर चले जाने के बाद उसके अपराधों की खबरें ओशो तक के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक पहुंची। उसके अपराधपूर्ण कृत्यों के संबंध में बताने के लिए एक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, मलूकदास, रैदास, विश्व पत्रकार-सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें ओशो ने स्वयं दरियादास, मीरा आदि पर उनके हजारों प्रवचन उपलब्ध हैं। प्रशासन-अधिकारियों से अपनी सचिव को गिरफ्तार करने को जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से कहा। लेकिन अधिकारियों की खोजबीन का उद्देश्य कम्यून को अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी जैसी नष्ट करना था, न कि सचिव के अपराधपूर्ण कृत्यों का पता अनेक साधना-पद्धतियों के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार लगाना। प्रारंभ से ही कम्यून के इस प्रयोग को नष्ट करने के लिए प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, | अमरीका की संघीय, राज्य और स्थानीय सरकारें हर संभव दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट, प्रयास कर रही थीं। यह उनके लिए एक अच्छा मौका था। पर्यावरण, संभावित परमाणु युद्ध का विश्व-संकट जैसे अनेक अक्तूबर 1985 में अमरीकी सरकार ने ओशो पर विषयों पर भी उनकी क्रांतिकारी जीवनदृष्टि उपलब्ध है। आप्रवास-नियमों के उल्लंघन के 35 मनगढंत आरोप लगाए। शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए उनके ये प्रवचन छह बिना किसी गिरफ्तारी-वारंट के ओशो को बंदूकों की नोक पर सौ पचास से भी अधिक पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं हिरासत में ले लिया गया। और तीस से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुके हैं। वे कहते 12 दिनों तक उनकी जमानत स्वीकार नहीं की गयी और हैं, “मेरा संदेश कोई सिद्धांत, कोई चिंतन नहीं है। मेरा संदेश उनके हाथ-पैर में हथकड़ी व बेड़ियां डालकर उन्हें एक जेल से तो रूपांतरण की एक कीमिया, एक विज्ञान है।" दूसरी जेल ले जाया जाता रहा। जगह-जगह घुमाते हुए उन्हें वे दिन में केवल दो बार बाहर आते रहे.-प्रातः प्रवचन देने पोर्टलैंड (ओरेगॅन) ले जाया गया। सामान्यतः जो यात्रा पांच के लिए और संध्या समय सत्य की यात्रा पर निकले हुए साधकों घंटे की है, वह आठ दिन में पूरी की गयी। जेल में उनके शरीर को मार्गदर्शन एवं नये प्रेमियों को संन्यास-दीक्षा देने के लिए। के साथ बहत दुर्व्यवहार किया गया और यहीं संघीय सरकार के __वर्ष 1979 में कट्टरपंथी हिंदू समुदाय के एक सदस्य द्वारा अधिकारियों ने उन्हें 'थेलियम' नामक धीमे असरवाला जहर उनकी हत्या का प्रयास भी उनके एक प्रवचन के दौरान किया दिया। गया। ___ 14 नवंबर 1985 को अमरीका छोड़ कर ओशो भारत अचानक शारीरिक रूप से बीमार हो जाने से 1981 की लौट आये। यहां की तत्कालीन सरकार ने उन्हें विश्व से वसंत ऋतु में वे मौन में चले गये। चिकित्सकों के परामर्श पर अलग-थलग कर देने का पूरा प्रयास किया। उनकी देखभाल उसी वर्ष उन्हें जून में अमरीका ले जाया गया। उनके अमरीकी करनेवाले उनके गैर-भारतीय शिष्यों के वीसा रद्द कर दिये गये, ___ 2010_03 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें मिलने के लिए आनेवाले पत्रकारों और उनके शिष्यों को भीतर से क्षीण होता चला गया, जिसके बावजूद वे ओशो कम्यून वीसा देने से इनकार किया गया। तब ओशो नेपाल चले गये। इंटरनेशनल, पूना के गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम में 10 अप्रैल लेकिन उन्हें नेपाल में भी अधिक समय तक रुकने की अनुमति 1989 तक प्रतिदिन संध्या दस हजार शिष्यों, खोजियों और नहीं दी गयी। | प्रेमियों की सभा में प्रवचन देते रहे और उन्हें ध्यान में इबाते रहे। ___ फरवरी 1986 में वे विश्व-भ्रमण के लिए निकले जिसकी 17 सितंबर 1989 से गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम में शुरुआत उन्होंने ग्रीस से की। लेकिन अमरीका के दबाव के केवल आधे घंटे के लिए आकर ओशो मौन दर्शन-सत्संग के | अंतर्गत 21 देशों ने या तो उन्हें देश से निष्कासित किया या फिर संगीत और मौन में सबको डुबाते रहे। यह बैठक "ओशोव्ह देश में प्रवेश की अनुमति ही नहीं दी। इन तथाकथित स्वतंत्र रोब ब्रदरहुड" कहलाती है। ओशो 16 जनवरी 1990 तक लोकतांत्रिक देशों में ग्रीस, इटली, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, ग्रेट प्रतिदिन संध्या सात बजे व्हाइट रोब ब्रदरहुड की सभा में ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, हालैंड, कनाडा, जमाइका और स्पेन उपस्थित होते रहे। प्रमुख थे। ___17 जनवरी को वे सभा में केवल नमस्कार करके वापस ओशो जुलाई 1986 में बम्बई और जनवरी 1987 में पूना | चले गए। 18 जनवरी को व्हाइट रोब ब्रदरहुड की सांध्य-सभा में अपने आश्रम लौटे, जो अब ओशो कम्यून इंटरनेशनल के में उनके निजी चिकित्सक स्वामी अमृतो ने सूचना दी कि ओशो नाम से जाना जाता है। यहां वे पनः अपनी क्रांतिकारी शैली में के शरीर में इतना दर्द है कि वे हमारे बीच नहीं आ सकते, लेकिन अपने प्रवचनों के आग्नेय बाणों से पंडित-पुरोहितों और वे अपने कमरे में ही सात बजे से हमारे साथ ध्यान में बैठेंगे। राजनेताओं के पाखंडों व मानवता के प्रति उनके षड्यंत्रों का | दूसरे दिन 19 जनवरी 1990 की संध्या-सभा में घोषणा की गई पर्दाफाश करने लगे। कि ओशो अपनी देह छोड़कर पांच बजे अपराह्न को महाप्रयाण इसी बीच भारत सहित सारी दुनिया के बद्धिजीवी वर्गव कर गए हैं। ओशो की इच्छा के अनुरूप उसी संध्या उनका शरीर समाचार माध्यमों ने ओशो के प्रति गैर-पक्षपातपूर्ण व विधायक | गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम में दस मिनट के लिए ला कर रखा चिंतन का रुख अपनाया। छोटे-बड़े सभी प्रकार के समाचारपत्रों गया। दस हजार शिष्यों और प्रेमियों ने उनकी आखिरी विदाई का व पत्रिकाओं में अक्सर उनके अमत-वचन अथवा उनके उत्सव संगीत-नत्य, भावातिरेक और मौन में मनाया। फिर संबंध में लेख व समाचार प्रकाशित होने लगे। देश के उनका शरीर दाहक्रिया के लिए ले जाया गया। अधिकांश प्रतिष्ठित संगीतज्ञ, नर्तक, साहित्यकार, कवि व 21 जनवरी 1990 की पूर्वाह्न में उनके अस्थि-फूल का शायर ओशो कम्यून इंटरनेशनल में अक्सर आने लगे। मनुष्य कलश महोत्सवपूर्वक कम्यून में ला कर च्वांग्त्सू हॉल में निर्मित की चिर-आकांक्षित ऊटोपिया का सपना साकार देखकर उन्हें | एक संगमरमर की समाधि में स्थापित किया गया। अपनी ही आंखों पर विश्वास न होता। ओशो की समाधि पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है : 26 दिसंबर 1988 को ओशो ने अपने नाम के आगे से 'भगवान' संबोधन हटा दिया। 27 फरवरी 1989 को ओशो कम्यून इंटरनेशनल के बुद्ध सभागार में प्रवचन के दौरान उनके OSHO 10,000 शिष्यों व प्रेमियों ने एकमत से अपने प्यारे सद्गुरु को Never Born 'ओशो' नाम से पुकारने का निर्णय लिया। Never Died अक्तूबर 1985 में अमरीका की रीगन सरकार द्वारा ओशो Only Visited this को थेलियम नामक धीमा असर करने वाला जहर दिये जाने के Planet Earth between कारण एवं उनके शरीर को प्राणघातक रेडिएशन से गुजारे जाने Dec 11 1931 - Jan 19 1990 के कारण उनका शरीर तब से निरंतर अस्वस्थ रहने लगा था और 2010_03 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिंदी साहित्य जिन-सूत्र (दो भागों में) महावीर या महाविनाश महावीर : मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र) लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया मगन भया रसि लागा चूंघट के पट खोल न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) मीरा पद धुंघरू बांध झुक आई बदरिया सावन की अष्टावक्र महागीता (छह भागों में) महावीर महावीर-वाणी (दो भागों में) महावीर-वाणी (पुस्तिका) पलट अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर 2010_03 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में) जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी भजगोविन्दम् मूढमते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चुनें (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहुं दिस मोती (गुलाल) जरथुस्त्र : नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र) सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये जो बोलैं तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) ___ 2010_03 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आई गई हिरा बहुतेरे हैं घाट कोंपलें फिर फूट आईं फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी चेति सकै तो चेति क्या सोवै तू बावरी एक एक कदम चल हंसा उस दे कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो मूलभूत मानवीय अधिकार नया मनुष्यः भविष्य की एकमात्र आशा सत्यम् शिवम् सुंदरम् सो वैस सच्चिदानंद पंडित-पुरोहित और राजनेता : मानव आत्मा के शोषक ॐ मणि पद्मे हुम् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः हरि ॐ तत्सत् | एक महान चुनौती : मनुष्य का स्वर्णिम भविष्य धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं तंत्र संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (पांच भागों में ) पत्र - संकलन क्रांति - बीज पथ के प्रदीप 2010_03 अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल बोध कथा मिट्टी के दीये ध्यान, साधना, योग ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति रजनीश ध्यान योग हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् नेति नेति मैं कहता आंखन देखी पतंजलि: योगसूत्र ( दो भागों में ) साधना शिविर साधना-पथ ध्यान - सूत्र जीवन ही है प्रभु माटी है कुम्हार मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां मैं समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की) साधना -सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज ओशो के संबंध में भगवान श्री रजनीश : ईसा मसीह के पश्चात सर्वाधिक विद्रोही व्यक्ति Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशोटाइमस... ཉ། ཊ། བཤག विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र एक वर्ष में 24 अंक हिंदी व अंग्रेजी में संयुक्त रूप से प्रति तीन माह में प्रकाशित होने वाली रंगीन पत्रिका संपर्क सूत्रः ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि. 50, कोरेगांव पार्क, पूना-411001 फोनः 660963 ओशो एवं ओशो-साहित्य की समस्त जानकारी हेतु संपर्क सूत्रः ओशो कम्यून इंटरनेशनल, 17 कोरेगांव पार्क, पूना 411001 2010_03 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य तो तुम्हारे जीवन का परिष्कार है। सत्य तो तुम्हारे ही होने का शुद्धतम ढंग है। सत्य कोई संज्ञा नहीं है, क्रिया है। सत्य कोई वस्तु नहीं है, भाव है। तो तुम जितने संघर्ष में उतरोगे, जितने मथे जाओगे, जितने जलोगे, जितने तूफानों की टक्कर लोगे, उतना ही तुम्हारे भीतर सत्य आविर्भूत होगा; उतनी ही तुम्हारी धूल झड़ेगी; गलत अलग होगा: निर्जरा होगी व्यर्थ से। झाड़-झंखाड़ ऊग गए हैं, घास-फूस ऊग आया है-आग लगानी होगी, ताकि वही बचे, जिसके मिटने का कोई उपाय नहीं। अमृत ही बचे; मृत्यु को तो खाक कर देना होगा। यह बैठे-बैठे न होगा। इसके लिए बड़े प्रबल आह्वान की, बड़ी प्रगाढ़ चुनौती की जरूरत है। किश्ती को भंवर में घिरने दे, मौजों के थपेड़े सहने दे! भंवर दुश्मन नहीं है। महावीर के रास्ते पर भंवर मित्र है, क्योंकि उसी से लड़कर तो तुम जगोगे: उसी से उलझकर तो तम उठोगे। उसी की टक्कर को झेलकर, संघर्ष करके. विजय करके, तुम उसके पार हो सकोगे। इसलिए महावीर का मार्ग कहा जाता है, 'जिन का मार्ग', जिनों का मार्ग; उन्होंने, जिन्होंने जीता। जिन शब्द का अर्थ है : जिसने जीता। जैन शब्द उसी जिन से बना। जिन का अर्थ है : जिसने जीता। ओशो 2010.03 Mainelibrary Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जगत की सबसे अपूर्व घटना है किसी व्यक्ति का सिद्ध या बुद्ध हो जाना। इस जगत की अनुपम घटना है किसी व्यक्ति का जिनत्व को उपलब्ध हो जाना, जिन हो जाना। उस अपूर्व घटना के पास जला लेना अपने बुझे हुए दीयों को। अवसर देना अपने हृदय को, कि फिर धड़क उठे उस अज्ञात की आकांक्षा से, अभीप्सा से। महावीर के इन सूत्रों पर बात की है इसी आशा में कि तुम्हारे भीतर कोई स्वर बजेगा, तुम ललचाओगे, चाह उठेगी, चलोगे। ओशो A ROTI BOOK 2010_03 For Povetersonal