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________________ है मन का मीत कब किया, कैसे किया, तुम ब्यौरे और विस्तार में जाना चाहते भी कम होगा। सुविधा तो बहुत है खोल देने की, लेकिन लाभ हो। तुम इस आदमी के भीतर इसके पाप में रस लेने लगते हो. कम होगा। क्योंकि अडचन बिलकल नहीं है. चनौती बिलकल तो चूक हो गयी। यह जो रस ले रहा है पाप में, यह तुमने जो नहीं है। जब तुम गुरु के सामने जाकर खोलते हो, तो संदेह और इसके सामने प्रगट किया है, इसे छिपाकर न रख सकेगा। इसकी श्रद्धा के बीच हजार बार डोलते हो। कहूं, न कहूं? इतना बचा यह अफवाहें बनायेगा। यह किसी से कहेगा। जो तुम्हारे सुनने लूं, या इतना कह दूं? थोड़ी साज-संवार करके कहूं, शृंगार में रस ले रहा है, वह किसी से कहने में भी रस लेगा। और इसके करके कहूं, थोड़ा लीप-पोतकर कहूं कि जैसा है वैसा ही कह सामने तुम्हारी प्रतिमा नीची हो जाएगी। यह तुम्हें कल तक | दूं? थोड़ा सुंदर बना लूं पाप को, थोड़े फूल लगा लूं पाप पर, धार्मिक समझता था, अब अधार्मिक समझेगा। और यह अपने थोड़े इस ढंग से कहूं कि मेरी मजबूरी थी। थोड़ा तर्क, थोड़े आपको तुमसे बड़ा मान लेगा। विचार का सहारा देकर कहूं, पाप पूरा मेरे ऊपर न पड़े, दूसरों पर कठिन है किसी व्यक्ति के सामने जाकर खोलना। पता नहीं, | भी उत्तरदायित्व बांटकर कहूं? गुरु के सामने जाने में तो हजार इस व्यक्ति में अभी कुतूहल शेष हो। अभी आक्रामक कुतूहल संकल्प-विकल्प होंगे। वहीं तुम्हारा विकास है, प्रौढ़ता है। इसके भीतर मौजूद हो। और यह तुम्हारे भीतर खोजबीन करने अगर तुमने संदेह की बात चुनी और श्रद्धा की छोड़ी, तो भटके लगे। और यह तुम्हारे सुकोमल हिस्सों से परिचित हो जाए और अतल खाइयों में। अगर संदेह चीखता-चिल्लाता रहा फिर भी किसी दिन हमला करे। किसी दिन बीच बाजार में खडे होकर तम श्रद्धा के साथ गये. श्रद्धा की बांह । चिल्ला दे—ए पापी! कहां जा रहा है? या किसी दिन इससे क्रांति घटी। तुम संदेह पर जीते, तुम श्रद्धा में प्रविष्ट हुए। कोई झंझट हो जाए, झगड़ा हो जाए और यह खोल दे सारी बात। गंगा के पास सुविधा तो है, चुनौती नहीं है। और जहां चुनौती आदमी आखिर आदमी है। | नहीं है, वहां विकास नहीं है। इसलिए गुरु-ऐसा मनुष्य जो इसलिए हिंदुओं ने और भी अदभुत बात खोजी। उन्होंने कहा, गंगा हो गया है उसमें दोनों गुण हैं। वह मनुष्य भी है वह गंगा में जाकर समर्पित कर आना। गंगा तो किसी से कहेगी तुम्हें समझ सकता है; उन्हीं अनुभवों से स्वयं भी गुजरा नहीं। गंगा में तो कोई कुतूहल नहीं है। गंगा तो वैसी ही बहती है और गंगा भी है। उसके भीतर गंगा भी बह रही है। वह रहेगी जैसी पहले बह रही थी। तुम आये या न आये, कोई फर्क तुम्हें क्षमा कर सकेगा। न पड़ेगा। गंगा के सामने तो तुम पूरा खोल सकोगे। वहां तो | अब इसे ऐसा समझें। छिपाने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि वहां दूसरा कोई | वही आदमी तुम्हें क्षमा कर सकता है जिसने स्वयं को क्षमा कर मनुष्य नहीं है जिससे छिपाने का कोई कारण हो, जो कल खोल दिया हो। जिसने स्वयं को क्षमा नहीं किया है, वह तुम्हें क्षमा दे, परसों खोल दे, किसी आवेश के क्षण में बोल दे। तो डर भी नहीं कर सकेगा। जो अभी स्वयं से लड़ रहा है, वह कैसे तुम्हें नहीं है, तुम पूरा खोल सकते हो। | क्षमा करेगा? समझो कि कोई आदमी अभी कामवासना से खद महावीर के सूत्र को हिंदुओं ने उसकी आत्यंतिक ऊंचाई पर ही लड़ रहा है और तुमने जाकर उसके सामने कामवासना की पहुंचा दिया। उन्होंने कहा, आदमी को हटा ही लो। गंगा ठीक बात कही, वह तुम पर टूट पड़ेगा। वह कहेगा पापी हो, जघन्य है। वैसे महावीर का भी मतलब यही था, उस आदमी के सामने पापी हो, नरक में सड़ोगे। वह तुमसे जब यह कहता है, तो वह खोलना जाकर जिसका आदमी हट गया हो और गंगा पैदा हो सिर्फ इतना ही बता रहा है कि अभी कामवासना को वह भी गयी हो। मतलब तो वही था। उस आदमी के पास चले जाना सरलता से ले नहीं सकता। अभी संघर्ष कायम है। अभी ऐसे ही जिसके भीतर अब गंगा बह रही हो। उसमें जरा डुबकी लगा नहीं सुन सकता जैसे और बातों को सुन लेता है। अभी लेना। खोल देना सब। इस बात को भी खयाल में ले लें कि जब कामवासना उसे हिला जाती है। शब्द ही हिला जाता है। अभी तुम गंगा के सामने खोलते हो, तो खोलने में बहुत अड़चन नहीं भय है। अभी खुद की जीत पूरी नहीं हई। अभी हार का खद ही है। क्योंकि तुम जानते हो गंगा ही है। अड़चन नहीं है, तो लाभ भीतर डर है। 247 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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