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________________ हला प्रश्न: आप कहते हैं कि राग और द्वेष के दो | दूसरी बात : जहां तक यात्रा है, वहां तक संसार है। जहां यात्रा १ पहियों से संसार निर्मित होता है। क्या इनके ठीक समाप्त हुई, वहीं मोक्ष है। विपरीत कोई दो पहिये और हैं, जिनसे मोक्ष तो दो पहियों की तो जरूरत है ही नहीं, एक पहिये की भी निर्मित होता है? कृपा करके समझाएं। जरूरत नहीं है। और एक पहिया हो भी, तो व्यर्थ होगा। | तीसरी बातः पूछा, 'राग-द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित पहली बात : जहां दो हैं, वहां संसार है। जहां एक बचा, वहां होता है।'-सच है। क्योंकि राग एक तरफ झुकाता, द्वेष मोक्ष प्रारंभ हुआ। दूसरी तरफ झुकाता। राग-द्वेष के झंझावात में हमारा चित्त कंपता द्वैत संसार है, अद्वैत मोक्ष है। है। आसक्ति और विरक्ति, राग और द्वेष, शत्रु और मित्र, इसलिए संसार के तो दो पहिये हैं, मोक्ष के नहीं। अपना और पराया, हितकर और अहितकर, इन दोनों के बीच दूसरी बात ः संसार गति है, प्रवाह है, खोज है, तलाश है, मार्ग हम कंपते हैं। जब दोनों के बीच हम थिर हो जाते हैं और कंपन है, इसलिए दो पहियों की जरूरत है। दो पहियों के बिना यह | समाप्त हो जाता है, न राग बुलाता, न द्वेष बुलाता; जहां हम गाड़ी चलेगी नहीं। निर्द्वद्व होकर, निष्कंप होकर बीच में समाधिस्थ हो जाते हैं; जहां मोक्ष, कहीं जाना नहीं है, मोक्ष तो पहुंच गए। मोक्ष तो वहां है, मध्य-बिंदु मिल जाता है, वहां मोक्ष है। जहां सब जाना समाप्त हुआ। गाड़ी चलती रहे तो मोक्ष नहीं है। | राग और द्वेष के विपरीत मोक्ष में कुछ भी नहीं है। राग और जहां रुक गया सब, ठहर गया सब, परम विश्राम आ गया, | द्वेष से मुक्ति, मोक्ष है। मोक्ष संसार का विरोध नहीं है, मोक्ष जिसके पार कोई लक्ष्य न बचा, वहीं मोक्ष है। संसार का अभाव है। संसार नहीं बचता, इतना ही कहो, बस वासना जहां शून्य होती है, कामना जहां विराम लेती है, लक्ष्य काफी है। फिर जो शेष रह जाता है, वही मोक्ष है। जहां संपूर्ण हो गए। सिद्धि जहां श्वास-श्वास में है-फूल | जैसे एक आदमी बीमार है; जब बीमारियां हटा लेते हैं हम, तो खिल गया। अब और खिलने को कछ बचा नहीं। पर्णता | जो शेष रह जाता है. वही स्वास्थ्य है। उतरी। अब कुछ और उतरने को बचा नहीं। स्वास्थ्य बीमारियों के विपरीत नहीं है कुछ, बीमारियों का इसलिए दो पहियों का तो सवाल ही नहीं है, एक पहिये की भी समाप्त हो जाना है। जहां कोई बीमारी नहीं बची, वहां स्वास्थ्य जरूरत नहीं है—पहिये की जरूरत नहीं है। सहज रूप से मुखरित होता है। तो पहली तो बात; जहां तक दो हैं, वहां तक संसार है। जहां संसार बाधा की तरह है, पत्थर है झरने को रोके हुए। पत्थर एक है, वहां मोक्ष है। हट गया, झरना बहा। झरना तो मौजूद ही है। मोक्ष तो मौजूद ही 347 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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