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__ जिन सूत्र भागः2
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और भाव
उनको एक अड़चन होती है उपवास तोड़ने में, अब कैसे भोजन देशविरत का अर्थ होता है, जिसने अपने जीवन में अब सीमा ग्रहण करें? क्योंकि शरीर भूल ही गया। बहुत देर तक भूखे बनानी शुरू की। जिसने अपने जीवन को परिधि देनी शुरू की।
बैठे-बैठे, शास्त्र लिए-लिए भूख विस्मृत हो जाती है। जिसने अपने जीवन में जो व्यर्थ है उसे हटाना, जो सार्थक है उसे | बहत लोगों की परमात्मा की भूख मर गई है। इतने दिन लाना शुरू किया। जिसने कहा, अब मैं यूं ही ऊलजलूल, | परमात्मा से उपवास किया है, मर ही जाएगी। परमात्मा की भूख असंगत न जीयूंगा। कभी बायें गए, कभी दायें गए, कभी दक्षिण मर गई हो तो बड़ी कठिनाई हो जाती है। ऐसे ही लोग कहते हैं | गए, कभी पूरब गए, कभी पश्चिम गए, ऐसे चल-चलकर कहीं कि परमात्मा मर गया। मरी है उनकी भख। लेकिन ठीक ही कोई पहंचेगा? सब दिशाओं में दौडते रहे तो विक्षिप्तता आएगी। कहते हैं। जिसकी भूख मर गई उसका भोजन भी मर गया। देशविरत का अर्थ होता है दिशा तय हुई, देश तय हुआ, सीमा भोजन तो तभी तक रसपूर्ण है जब तक भूख है। भूख में रस है बांधी, संयम में उतरे। अब जो करने योग्य है वही करेंगे, जो | भोजन का। भूख न लगी हो, सुस्वाद से सुस्वादु भोजन रखा रहे करने योग्य नहीं है, नहीं करेंगे। अब कर्तव्य में ही रस होगा, | | तो भी मन में कोई तरंग नहीं आती। अगर भूख बिलकुल मर गई अकर्तव्य में धीरे-धीरे विरसता को लाएंगे। सीमा दी जीवन को, | हो तो भोजन भोजन जैसा भी मालूम न पड़ेगा। भोजन भोजन | दिशा दी। और सारी ऊर्जा एक दिशा में डाली।
के कारण। भख की व्याख्या है। अन्यथा जैसे शरीर, मन, वचन–तीनों असंयमी के सभी दिशाओं में भोजन भोजन जैसा न लगेगा।
भागते रहते हैं। संयमी और असंयमी में इतना ही फर्क है कि परमात्मा नहीं मर गया है, अनेक लोगों की भूख मर गई है। असंयमी सभी दिशाओं में एक साथ भागता रहता है, इसलिए
मरने का कारण यही है कि भूख को जिलाने के लिए भी | उथला रह जाता है। भोजन चाहिए। भूख भी भूखी रहे तो मर जाती है।
जैसे कि किसी तालाब को तुम सभी दिशाओं में खोल दो, कुछ करो। जो दृष्टि मिले उसके अनुसार दो पग चलो। जो सभी दिशाओं में पानी बह जाए, तो जहां बड़ी गहराई थी और अनुभव में आए उसे थोड़ा आचरण में डालो।
नीला जल दिखाई पड़ता था, वहां सब छिछला पानी हो जाएगा। जो तुम्हें दिखाई पड़े कि ठीक है, बस इसको मानकर सैद्धांतिक अगर बहुत फैल जाए तो कीचड़ ही रह जाएगी। तालाब तो खो रूप से मत बैठे रहो, अन्यथा ज्यादा देर दिखाई भी न पड़ेगा। ही जाएगा। फिर धुंध छा जाएगी। फिर मन धुएं से घिर जाएगा। थोड़े चलो। संयम का अर्थ है, संरक्षित ऊर्जा। महावीर का पारिभाषिक थोड़े आगे बढ़ो। जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे वैसे-वैसे ज्यादा स्पष्ट शब्द है-देशविरत। सीमा बनाई, देश बनाया। हर कहीं न दर्शन होंगे।
| भागते रहे। अपने जीवन को संयत किया, संग्रहीत किया। तो महावीर कहते हैं अविरत सम्यकदृष्टि : चतुर्थ भूमि। इसमें अपनी ऊर्जा को एक जगह भरा तो गहराई आनी शुरू होती है। बोध तो हो जाता है, होने लगता है लेकिन भोगों और हिंसा आदि | | असंयमी आदमी छिछला होता है। आवाज बहुत करता है, पापों से विरति का भाव जाग्रत नहीं होता।
जैसा छिछला जल करता है। जहां छिछली नदी होती है वहां पांचवां गुणस्थान ः देशविरत। अब संयम का क्षेत्र शुरू | बड़ा शोरगुल मचता है। कंकड़-पत्थरों पर दौड़ती है, बड़ा हुआ। अब जो तुम्हें दिखाई पड़ता है उसे तुम आचरण में उतारने शोरगुल मचाती है। नदी जितनी गहरी होती है उतना ही शोरगुल लगे। बहुत ज्यादा जानने की जरूरत नहीं है। थोड़ा जानो, कम हो जाता है। गहरी नदी पता ही नहीं चलता कि बहती भी है लेकिन उस थोडे को उतारो। हजार मील लंबे शास्त्र का कोई कि नहीं बहती? गति बड़ी शांत हो जाती है। सार नहीं, इंचभर शास्त्र-लेकिन उतारो, चलो। चलने से रास्ते देशविरतः संयम, सीमा का बांधना, कर्म और विचार को | तय होते हैं। बैठे-बैठे सोचने से कोई रास्ते तय नहीं होते। परिधि देना। इसे तुम थोड़ा सोचना। विचार करनेवाले कहीं भी नहीं पहुंचते। अस्तित्वगत है पहुंचना, | तुम जो विचार करते हो उसमें से निन्यानबे प्रतिशत न करो तो विचारगत नहीं। बौद्धिक नहीं है, जीवनगत है।
चलेगा। उसमें से निन्यानबे प्रतिशत सिर्फ व्यर्थ है, शुद्ध कचरा
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