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________________ जिन सूत्र भाग:-2 समझा-समझाकर, पानी के बबूलों से मन को मत उलझाए उल्लेख भी नहीं है। लेकिन शाश्वत में इनने विजय की घोषणा रखना। क्षणभंगुर को क्षणभंगुर जानना शाश्वत को जानने की की है। विजय की दुंदुभी बजाई है अमृत में। पहली शर्त है। असार को असार की तरह पहचान लेना सार का अगर कहीं कोई शाश्वत का इतिहास है तो वहां तुम नादिर का, द्वार खोलना है। तैमूरलंग का और चंगीज का और हिटलर का और नेपोलियन जी उठे शायद शलभ इस आस में और सिकंदर का नाम न पाओगे। वहां तुम्हें महावीर का, बुद्ध रात भर रो-रो दीया जलता रहा का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, मोहम्मद का, जरथुस्त्र का नाम थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल मिलेगा। एक दूसरे ढंग की विजय है। वास्तविक विजय है। सो गई जब साधना होकर विफल 'असंभ्रांत, निर्भय सत्पुरुष एक पंडितमरण को प्राप्त होता है जब धरा ने भी न धीरज दिया और शीघ्र ही अनंत-मरण का-बार-बार के मरण का अंत व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया कर देता है।' आग तब पानी बनाने के लिए एक ही बार मर जाता है। पूरा-पूरा मर जाता है। कुछ रोकता रात भर रो-रो दीया जलता रहा नहीं, कुछ झिझकता नहीं। समग्ररूप से समर्पित हो जाता है मृत्यु लेकिन तुम चाहे रोओ, चाहे चीखो-चिल्लाओ; जो नहीं | को। तो पंडितमरण एक, फिर होनेवाले भविष्य के अनंत जन्म होता, नहीं होता। आग पानी नहीं बनती। और मृत्युओं से छुटकारा हो जाता है। आग तब पानी बनाने के लिए जागो! तुम्हारा तो जीवन भी अभी पंडित-जीवन नहीं है। रात भर रो-रो दीया जलता रहा यात्रा बड़ी है। मरण को भी पंडितमरण बनाना है। ऐसी झूठी रोते रहो, आग पानी नहीं बनती। और सब तुम पर हंसेंगे। बातों में बहुत मत उलझे रहो। अपने मन को समझाते मत रहो। जब धरा ने भी न धीरज दिया ये सांत्वनाएं, जो तुम दे रहे हो, बहुत काम न आएंगी। व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया खुद को बहलाना था आखिर, खुद को बहलाता रहा थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा. गाता रहा सो गई जब साधना होकर विफल भीतर तो आग है। हृदय तो जल रहा है। हृदय में तो कोई तुम जो भी कर रहे हो, वह विफल होना उसका निश्चित है। तृप्ति नहीं, मगर खुद को बहलाना था तो खुद को बहलाता रहा। लाख उपाय करो तो भी तुम हारोगे। यह जीवन ही हारने को है। मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा गाता रहा! इस जीवन का अर्थ ही विफलता है। यहां कोई जीत नहीं पाता। आग को भीतर छिपाए हो। मौत को भीतर छिपाए हो। ऊपर यहां विजय होती ही नहीं। जहां मृत्यु होनी है, वहां विजय से हंसते रहते, गाते रहते। कागज के फूल चिपकाए हो। कैसी? मत्य में ही अगर जीते तो जीत हो सकती है। यह धोखे की पट्टी टेगी। यह पर्दा उठेगा। इसके पहले कि इसलिए महावीर ने कहा है, जो मृत्यु को जीत लेता है वही जयी मौत उठाए, तुम ही उठा लो, तो शोभा है; तो सम्मान है, तो है, वही जिन है। जिन शब्द का अर्थ होता है, जीत लिया। तो दो गरिमा है।। तरह के विजेता हैं जगत में। एकः नेपोलियन, सिकंदर, | जो मौत करे वह तुम ही कर दो, इसी का नाम संन्यास है। जो तैमूरलंग, नादिरशाह—ये सब धोखे के विजेता हैं। मौत तो मौत करे वह तुम ही कर दो। जहां-जहां से मौत तुम्हें छीन लेगी, इनको बिलकुल भिखारी कर जाती है। | वहां-वहां तुम ही कह दो कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है। मौत फिर और एक दूसरी तरह के विजेता हैं : महावीर, बुद्ध, कृष्ण, | पत्नी से छीन लेगी? तो जान लो मन में कि पत्नी कौन किसकी क्राइस्ट। जीवन में तो इनकी कोई विजय की कहानी नहीं है। है? मौत पति से छीन लेगी? तो जान लो मन में, जाग जाओ, इतिहास में तो इनके कोई चरण-चिह्न नहीं हैं। समय के भीतर तो कौन किसका पति है? साथ हो लिए दो क्षण को। अजनबी हैं। इन्होंने कुछ जीता नहीं है, इसलिए इतिहास में इनका ठीक-ठीक एक-दूसरे की सेवा कर ली, बहुत। एक-दूसरे को दुख न दिया -558 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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