SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन सूत्र भाग : 2 शरीर की जरूरत भी पड़ी रह गयी। भोजन भी जरूरत से ज्यादा है। राह पर चल रहे हैं, कुछ करने जैसा कर भी कहां रहे हैं! उस भर दिया और शरीर की जरूरत भी पूरी न हुई। तो तुम दो अर्थों | समय इतना ही होश रहे कि चल रहा हूं। जब मैं यह कह रहा हूं में चूके। कि इतना होश रहे चल रहा हूं-जयं चरे–तो इसका यह अर्थ अगर होशपूर्वक भोजन करोगे...इसलिए समस्त धर्मशास्त्र नहीं है कि तुम भीतर दोहराओ कि मैं चल रहा हूं, मैं चल रहा हूं। कहते हैं, भोजन करते समय बोलो मत, बात मत करो, क्योंकि अगर तुमने ऐसा दोहराया, शब्द निर्मित किये, तो तुम चूक गये। बात तुम्हें हटायेगी, चुकायेगी। भोजन करते समय सिर्फ भोजन तुम शब्द में लग गये, फिर चूक गये। जब मैं कह रहा हूं जागकर करो। भोजन करते वक्त भोजन को ही ब्रह्म समझो। चलो, तो इसका केवल इतना ही अर्थ है, मन में कोई चिंतन न इसलिए उपनिषद कहते हैं-'अन्नं ब्रह्म।' और ब्रह्म के साथ चले। निर्मल दर्पण हो मन का, सिर्फ चलने की छाया पड़े; कम से कम इतना तो सम्मान करो कि होशपूर्वक उसे अपने | सिर्फ चलने का भान रहे-बेभान न चलो। भीतर जाने दो। कभी रास्ते के किनारे खड़े होकर देखना, लोग कितने बेभान इसलिए सारे धर्म कहते हैं, भोजन के पहले प्रार्थना करो, प्रभ चल रहे हैं। चले जा रहे हैं. जैसे नींद में हों अलसाये. को स्मरण करो। स्नान करो, ध्यान करो, फिर भोजन में जाओ, तंद्रिल! आंखों में कोई नशा, भीतर कोई मूर्छा, बेहोशी! ताकि तुम जागे हुए रहो। जागे रहे तो जरूरत से ज्यादा खा न अनेकों को तुम पाओगे कि वे बात करते चल रहे हैं, चाहे साथ सकोगे। जागे रहे, तो जो खाओगे वह तृप्त करेगा। जागे रहे, तो कोई भी न हो। उनके ओंठ फड़क रहे हैं, वे कुछ कह रहे हैं। जो खाओगे वह चबाया जाएगा, पचेगा, रक्त-मांस-मज्जा बहुतों को तुम पाओगे, वे हाथ से कुछ इशारे भी कर रहे हैं; बनेगा, शरीर की जरूरत पूरी होगी। और भोजन शरीर की | किसी अनजाने साथी को सिर हिलाकर हां भी भर रहे हैं; सिर जरूरत है, मन की जरूरत नहीं। हिलाकर ना भी कर रहे हैं। चल नहीं रहे हैं और बहत-कुछ कर जागे हुए भोजन करोगे तो तुम एक क्रांति घटते देखोगे कि रहे हैं। तुम अपने को बार-बार पकड़ो। यह चोर पकड़ में आ धीरे-धीरे स्वाद से आकांक्षा उखड़ने लगी। स्वाद की जगह जाए, यह मूर्छा का चोर तुम्हारी पकड़ में आ जाए और इसकी स्वास्थ्य पर आकांक्षा जमने लगी। स्वाद से ज्यादा मूल्यवान | जगह तुम उपयोग के पहरेदार को अपने जीवन में जगा लो, तो भोजन के प्राणदायी तत्व हो गये। तब तम वही खाओगे. जो | सब हो जाएगा। यह शरुआत है। शरीर की निसर्गता में आवश्यक है, शरीर के स्वभाव की मांग 'गमन-क्रिया में तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्व देकर है। तब तुम कृत्रिम से बचोगे, निसर्ग की तरफ मुड़ोगे। उपयोगपूर्वक चले।' महावीर कहते हैं, इस उपयोग की क्रिया को हर क्रिया से जोड़ हम जब चलते हैं, तब हम कुछ और करते हैं। जब हम कुछ देना है। स्नान करो, तो उपयोगपूर्वक। सुनो, तो उपयोगपूर्वक। | और करेंगे, तब शायद हम चलने के संबंध में सोचेंगे। हमारा जैसे मुझे तुम सुन रहे अभी। एक ही सम्यक ढंग है सुनने का। | मन बड़ा अस्त-व्यस्त है। असम्यक ढंग तो बहुत हैं। सम्यक ढंग एक ही है, और वह है कभी साहिल पे रह कर शौक तूफानों से टकराएं कि जब तुम सुन रहे हो, तो सिर्फ सुनो, सोचो मत। जब तुम सुन कभी तूफां में रह के फिक्र है साहिल नहीं मिलता रहे, तो सिर्फ कान ही हो जाओ। तुम्हारा सारा शरीर ग्राहक हो किनारे पर होते हैं तो तूफानों में टकराने की आकांक्षा पैदा होती जाए। सोच लेना पीछे। दो क्रियाएं एक साथ न करो। अभी है। तूफानों में उलझ जाते हैं, तो साहिल पर पहुंचने की, किनारे एक क्रिया में ही होश नहीं सधता, तो दो में कैसे सधेगा? एक में | पर पहुंचने की अभीप्सा होती है। साध लो, तो फिर दो में भी सध सकता है, फिर तीन में भी सध कभी साहिल ये रह कर शौक तूफानों से टकराएं सकता है, फिर और भी जटिल आधार उपयोग के लिये दिये जा कभी तूफां में रह के फिक्र है साहिल नहीं मिलता सकते हैं। | ऐसे तम जहां नहीं हो, वहां होते हो; जहां हो, वहां नहीं होते। छोटी-छोटी क्रियाओं से शुरू करो! चलना बड़ी छोटी क्रिया | पकड़ो अभी! यहीं हो? पूरे-पूरे यहीं हो? इस क्षण में तन्मय 206 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy