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समता ही सामायिक मा
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कंपन में सांस, सांस में रस,
आवश्यकता पूरी हुई कि क्रिया रुक जाती है। आवश्यकता से रस में विष, विष मध्य जलन,
रंचमात्र ज्यादा नहीं जाती। न केवल यह आध्यात्मिक अर्थों में जलन में आग, आग में ताप,
महत्वपूर्ण है, यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है। ताप में प्यार, प्यार में पीर,
मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते हैं, भोजन हम ज्यादा कर पीर में प्राण, प्राण में प्यास,
जाते हैं, क्या करें? तो मैं उनसे कहता हूं, होशपूर्वक भोजन प्यास में तृप्ति, तृप्ति का नीर,
करो। और कोई डाइटिंग काम देनेवाली नहीं है। एक दिन, दो और यह तृप्ति, तृप्ति ही क्षणिक,
दिन डाइटिंग कर लोगे जबर्दस्ती, फिर क्या होगा? दोहरा टूट विश्व की मीठी-मीठी मधर थकान!
पड़ोगे फिर से भोजन पर। जब तक कि मन की मौलिक व्यवस्था फिर भी प्यासे अरमान!
नहीं बदलती, तब तक तुम दो-चार दिन उपवास भी कर लो तो एक कदम दूसरे कदम पर ले जाता है। दूसरा तीसरे पर ले क्या फर्क पड़ता है। फिर दो-चार दिन के बाद उसी पुरानी आदत जाता है। वर्तुल बड़ा होता चला जाता है।
में सम्मिलित हो जाओगे। मूल आधार बदलना चाहिए। मूल लेकिन मौलिक प्यास अपनी जगह बनी रहती है। क्योंकि उस आधार का अर्थ है, जब तुम भोजन करो, तो होशपूर्वक करो, तो मौलिक प्यास का संबंध जीवन की आवश्यकता से नहीं रहा, तुमने मूल बदला। जड़ बदली। उस मौलिक प्यास का संबंध मन की अनंत भूख से जुड़ गया, होशपूर्वक करने के कई परिणाम होंगे। एक परिणाम होगा, अनंत आकांक्षा से जुड़ गया। मन के क्षितिज से जुड़ते ही कोई ज्यादा भोजन न कर सकोगे। क्योंकि होश खबर दे देगा कि अब भी प्यास तृप्ति की सीमा के बाहर हो जाती है। दुष्पूर हो जाती है, शरीर भर गया। शरीर तो खबर दे ही रहा है, तुम बेहोश हो, उसे भरा नहीं जा सकता।
इसलिए खबर नहीं मिलती। शरीर की तरफ से तो इंगित आते ही महावीर कहते हैं अपने संन्यासी को कि तू इंद्रियों के सारे रहे हैं। शरीर तो यंत्रवत खबर भेज देता है कि अब बस, रुको। विषय, उनका चिंतन, उनका मनन छोड़कर चलता हो, तो मगर वहां रुकनेवाला बेहोश है। उसे खबर नहीं मिलती। शरीर बस चलना। इतना ही ध्यान रहे, उपयोगपूर्वक) उपयोग तो टेलीग्राम दिये जाता है, लेकिन जिसे मिलना चाहिए वह सोया महावीर का अपना पारिभाषिक शब्द है। उपयोग का अर्थ है, | है। उसे कुछ पता नहीं चलता। फिर धीरे-धीरे इस बेहोशी की होशपूर्वक, योगपूर्वक। उपयोग का अर्थ है, योगपूर्वक चलना। मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि शरीर की सूचनाओं का खटका भी भीतर का दीया डगमगाये न। भीतर एक सहज स्मरण बना रहे | मालूम नहीं होता। कि मैं चल रहा हूं, मैं चल रहा हूं।
होशपूर्वक भोजन करो। भोजन करते वक्त सिर्फ भोजन करो। यह तो उदाहरण के लिए महावीर ने कहा। ऐसा ही स्मरण | उस समय न बाजार की सोचो, न व्यवसाय की सोचो, न सभी क्रियाओं के साथ धीरे-धीरे जोड़ देना। हर क्रिया के साथ राजनीति की सोचो-न धर्म की सोचो। उस समय कुछ सोचो भीतर का दीया जुड़ जाए। भोजन करते वक्त, भोजन कर रहा हूं ही मत। उस क्षण तुम्हारा सारा उपयोग, उस क्षण तुम्हारा सारा ऐसा होश बना रहे, तो तुम ज्यादा भोजन न कर सकोगे। तुम | बोध भोजन करने की सहज-क्रिया में संलग्न हो। तो पहली चकित हो जाओगे। ज्यादा भोजन तभी कर लेते हो जब तुम्हें | बात, जैसे ही शरीर खबर देगा रुकने का क्षण आ गया, वह तुम्हें होश नहीं रहता। अगर मित्र आ गये हैं घर पर, तो तुम ज्यादा | सुनायी पड़ेगा। दूसरी बात, अगर तुम होशपूर्वक भोजन करोगे, भोजन कर लेते हो। क्योंकि मित्रों के साथ मस्ती में, बातचीत में तो ज्यादा चबाओगे। बेहोशी में आदमी सिर्फ किसी तरह धकाये बेहोशी बढ़ जाती है। रेडियो चलाकर बैठ जाते हो, ज्यादा जाता है अंदर। जब तुम ठीक से चबाते नहीं, तो अतृप्ति बनी भोजन कर लेते हो! क्योंकि भोजन की स्मृति नहीं रह जाती, मन रहती है। रस उत्पन्न नहीं होता। शरीर में भोजन तो भर जाता है, रेडियो में जाता है, शरीर यंत्रवत भोजन को भीतर डालता चला लेकिन प्राण नहीं भरते। शरीर में भोजन
है, लेकिन जाता है। जहां भी तुम होश को ले आओगे, वहीं पाओगे, यह भोजन पचेगा नहीं। यह मांस-मज्जा न बनेगा। इसलिए
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