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________________ जिन सत्र भाग:2 EUR हैं। कोई गति नहीं मालूम होती। सागर की तरफ बहाव नहीं सोते उसी इंद्रिय पर बार-बार लौट आते हो। भोजन का दीवाना मालूम होता। भोजन के ही संबंध में सोचता रहता है। लेकिन एक अर्थ में लोग पश्चिम की बजाय ज्यादा शांत हैं। नीरो के संबंध में कहा जाता है कि वह इतना भोजन के लिए गरीब हैं, दीन हैं, हीन हैं, दुखी हैं, फिर भी शांत हैं। सुविधा नहीं | पागल था कि भोजन करते-करते ही रात सो जाता था। और है, सुख नहीं है, शायद भोजन-वस्त्र-छप्पर भी नहीं है, तो भी उठते से ही भोजन की मांग शुरू हो जाती। इतना ज्यादा भोजन पश्चिम के मुकाबले ज्यादा शांत हैं—कम बेचैन हैं। कोई कर नहीं सकता। क्योंकि भोजन की एक सीमा है, एक पश्चिम में गति पर जोर है। प्रगति पर जोर है। दौड़ो, | जरूरत है। तो उसने चिकित्सक रख छोड़े थे। वह भोजन करे, प्रतिस्पर्धा करो, जीवन भागा जाता है। रुको मत। भागते ही | चिकित्सक उसे जल्दी से वमन करवा दें, ताकि वह फिर भोजन रहो। इसलिए स्पीड, गति को रोज-रोज नया विकास मिलता कर सके। पेट भरा हो तो कैसे भोजन करोगे? तो वमन। ऐसा चला जाता है। परिणाम यह हुआ कि पश्चिम पागल होने के | पागल कोई आदमी नहीं हुआ, जैसा नीरो पागल था। लेकिन करीब है। धन भी है, सुविधा भी है—गति हो तो सुविधा बढ़ती | थोड़ा-बहुत नीरो तुम अपने में छिपा हुआ पाओगे। जब पेट भर है, धन बढ़ता है, समृद्धि बढ़ती है, विज्ञान बढ़ता है; सब | गया हो, तब भी तुम भोजन किये चले जाओ, तब थोड़ा-बहुत दिशाओं में संपन्नता बढ़ती है, बढ़ी—लेकिन आदमी भीतर से | अंश में नीरो तुम्हारे भीतर है। नीरो अतिशयोक्ति है। तुम भी दौड़-दौड़कर थक गया, टूट गया। दौड़-दौड़कर यह याद ही न | लेकिन उसी दिशा में गतिमान हो। रही कि मैं कौन हूं। दौड़-दौड़कर यह भी भूल गया कि कहां जा पेट भर गया हो, फिर भी बैठकर तुम भोजन का चिंतन रहा हूं। दौड़ना ही याद रहा, मंजिल का पता दौड़ में खो गया। करो—अतीत भोजनों का, या भविष्य में होनेवाली संभावनाओं आपाधापी में आत्मा का स्मरण ही न रहा। का-तो भी तुम पागल हो। क्योंकि भोजन पेट का काम है। दौड़ बहुत है। लेकिन क्या महावीर ऐसी ही दौड़ को कहते | चिंतन-धारा में भोजन की इतनी छाया पड़े तो कहीं कुछ रुग्ण हो हैं? पश्चिम तो विक्षिप्त हुआ जा रहा है। पूरब मुर्दा हुआ जा | गया। कहीं कुछ चूक हो गयी। कहीं तुम्हारे भीतर से जीवन का रहा है, पश्चिम पागल हुआ जा रहा है। महावीर कहते हैं, डबरे | सहज संयम उखड़ गया। तुम्हारी चूल ढीली पड़ गयी। तुम्हारा मत बनना। लेकिन विक्षिप्त तूफान भी मत बनना। चलना, चाक डगमगाने लगा। जरूरत जितनी है उससे ज्यादा चिंतन विवेकपूर्वक। गति + विवेक। गति + उपयोग। गति + चैतन्य। | घातक है। फिर चिंतन से घाव बनता है। तो तुम डबरे की तरह सड़ भी न पाओगे और दौड़नेवाले की तरह | फिर मजा है कि शरीर की जरूरत तो पूरी हो जाती है, चिंतन से पागल भी न हो जाओगे। न तो तुम लाश बनोगे, न तुम बवंडर | जो घाव बनता है वह जरूरत कभी पूरी नहीं होती। भोजन की तो बनोगे। इन दोनों के बीच तुम्हारे जीवन की महिमा का अवतरण | पूर्ति है, स्वाद की कहां पूर्ति है ! भोजन तो एक मात्रा में शरीर को होगा। उस संतुलन को साध लेना ही संयम है। भर देगा, जरूरत पूरी कर देगा, स्वाद की कोई मात्रा कभी भी मन कहते हैं महावीर, इंद्रियों के पांच विषय हैं, इसलिए मन में | को तृप्त नहीं कर पाती। पांच तरह के चिंतन चलते हैं। तुम्हें खोजना चाहिए कि तुम किस | मधु पीते-पीते थके नयन इंद्रिय पर अत्यधिक चिंतन करते हो। कुछ हैं, जो भोजन का ही | फिर भी प्यासे अरमान! चिंतन करते हैं; कुछ हैं, जो रूप का चिंतन करते हैं; कुछ हैं, | कुछ है प्यास जो मिटती नहीं। न पीने से, न खाने से, न भोगने जिन्हें वाणी में, संगीत में, ध्वनि में रस है, वे उसी का चिंतन | से... । करते हैं। कुछ हैं, जो स्पर्श का चिंतन करते हैं, आलिंगन का, | मधु पीते-पीते थके नयन चुंबन का, इसका चिंतन करते हैं। फिर भी प्यासे अरमान! लेकिन अगर तुम गौर करोगे, तो तुम पकड़ लोगे कि तुम किस | जीवन में मधु, मधु में गायन, इंद्रिय का बहुत अधिक चिंतन कर रहे हो। चलते, बैठते, उठते, गायन में स्वर, स्वर में कंपन, 204 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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