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________________ - S यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से निकाल लिया, तम्हारी मर्जी। यह महल तो खाली न रहेगा। हम पी भी गये, छलका भी गये मेहमान तो आएंगे। तुम न आए तो कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी तुम बुद्धिमानों की सभा जैसी सभा मत बना लेना अपनी। जगह कोई और होगा। उस अंजुमने-इर्फानी में | मझे सनकर तमने जो पाया, वह तो भोजन के टेबिल से गिर | -बड़े बद्धिमानों की सभा थी। गये टुकड़े हैं। उनसे ही तृप्ति मत मान लेना। मेरे पास आकर उस महफिले-कैफो-मस्ती में तुम जो पाओगे...। -मस्ती और आनंद और उल्लास के क्षण में बद्धिमानों की मेरे पास आने का और क्या उपाय है? कंधे से कंधा लगाकर बड़ी सभा थी। खड़े हो जाओ तो मेरे पास थोड़े ही आ जाओगे। हृदय से हृदय | सब जाम-बकफ बैठे ही रहे लगाकर खड़े हो जाओ, तो! संन्यासी ने वही किया है। उसने -बुद्धिमान थे, कैसे पीएं! तो अपने जाम सामने रखकर बैठे हिम्मत की है। उसने मेरे साथ होने के लिए जगहंसाई मोल ली ही रहे। गैर-बुद्धिमान जो थेहै। लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, पागल हुए! लोग कहेंगे, बुद्धि हम पी भी गये, छलका भी गये! खो दी! कुछ तो सोचो! सम्मोहित हो गये? किस जाल में पड़ पी लो और छलका लो! कब तब जाम लिये बैठे रह गये हो? तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और किसी की बातों में आ | किसकी राह देखते हो? कोई कहे? किसकी प्रतीक्षा कर रहे गया! पर उसने मेरे साथ रहना चुना है, संसार के साथ रहना नहीं हो? समय बीता जाता है। पल-पल, घड़ी-घड़ी मधुशाला के चुना। उस चुनाव में ही क्रांति घटती है। द्वार बंद होने का समय आया जाता है। फिर मत रोना। अभी छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना अपनी करोगे, फिर मत चीखना-चिल्लाना! क्योंकि बंद तेरे शादाब ओंठों की मगर कुछ और है साकी दरवाजों के सामने चीखने-चिल्लाने से फिर कुछ भी नहीं होता। तुम्हें अगर पैमाने से छलकती शराब से ही तृप्ति होती हो, । और में कहता हूं, ऐसा बहुत-से लोग कर रहे हैं। महावीर को तुम्हारी मर्जी। गये पच्चीस सौ साल हो गये, कितने लोग अभी भी उस दरवाजे छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना के सामने चीख रहे, चिल्ला रहे हैं! उन्हीं को जैन कहते हैं। बुद्ध खूब है वह शराब भी। को गये पच्चीस सौ साल हो गये, कितने लोग उस दरवाजे के तेरे शादाब ओंठों की मगर कुछ और है साकी सामने प्याले लिये खड़े हैं कि खोलो द्वार, हम प्यासे हैं; भरो लेकिन अगर ओंठों पर ओंठ रखकर ही पीना हो शराब को, तो हमारे प्याले! लेकिन मधुशाला जा चुकी! उन्हीं को तो बौद्ध संन्यास लिये बिना कोई उपाय नहीं है। और यह तो तुम पास कहते हैं। ऐसे ईसाई हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं। आओगे तो ही जानोगे। यह बात समझाने-समझने की नहीं। मैं तुम्हें आगाह किये देता। मेरे जाने के बाद तुम संन्यास यह बात कुछ करने की है। लोगे। लेकिन तब किसी मतलब का न होगा: फिर थोथा होगा। मेरे किये जो हो सकता है, वह मैं कर रहा हूं। लेकिन तुम भी महावीर के साथ संन्यासी होने में तो साहस था; महावीर के हाथ बढ़ाओ। मैंने तुम्हारे द्वार पर दस्तक दी है, कम से कम बाद जैन-मुनि होने में कोई साहस नहीं। जैन-मुनि प्रतिष्ठा है दरवाजा खोलो! अब। अब तो उसका आदर है। महावीर के साथ तो अनादर नहीं तो ऐसा न हो कि तुम समझदारी में बैठे ही रह जाओ। यह था। जैन-मुनि होना उस समय तो केवल कुछ थोड़े-से मधुशाला सदा न खुली रहेगी। कोई मधुशाला सदा नहीं खुली हिम्मतवर लोगों की बात थी। इसीलिए तो महावीर को महावीर रहती है। द्वार-दरवाजे बंद होने का समय आ जाएगा। कहा। उनके साथ जो खड़े हुए, उनके लिए भी हिम्मत की बात उस महफिले-कैफो-मस्ती में, थी। सब तरह से प्रतिष्ठा, पद, मान, सम्मान खोना पड़ा। उस अंजुमने-इर्फानी में जीसस के साथ जो चले, उनके लिए तो सूली मिली। अब तो सब जाम-बकफ बैठे ही रहे. जीसस के पीछे जो चलते हैं, वे सिंहासनों पर विराजमान हैं। Jain Education International 2010 03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrar org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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