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जिन सूत्र भाग: 2
अब यह बात महावीर कहते हैं, अशरण। किसी की शरण मत जाओ। लेकिन महावीर के पास शिष्य आते हैं। शिष्य कहते हैं, 'सिद्धे शरणं पवज्झामि ।' हे सिद्ध पुरुष ! हम तुम्हारी शरण आते हैं। 'अरिहंते शरणं पवज्झामि ।' हे पहुंचे हुए पुरुष ! हम तुम्हारी शरण आते हैं।
महावीर इनको स्वीकार भी करते हैं। तब तो बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। महावीर कहते हैं अशरण ! और ये शरण आनेवाले लोग भी स्वीकार हो जाते हैं। इनकी भी महावीर दीक्षा करते हैं । इनको संन्यस्त करते हैं। इनको सत्य के मार्ग का इंगित करते हैं।
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तो विरोध दिखाई पड़ता है, लेकिन सिर्फ दिखाई पड़ता है जब महावीर शिष्य बनाते हैं तो वे इतना ही कह रहे हैं कि मैं तुमसे जरा ऊंचाई पर खड़ा हूं। तुम वृक्ष के नीचे हो, मैं वृक्ष पर खड़ा हूं। यहां से मुझे जरा दूर तक दिखाई पड़ता है। जैसे मैं इस वृक्ष पर चढ़ आया हूं, उतने दूर तक तुम मेरे सूचन का उपयोग कर सकते हो। तुम भी इस वृक्ष पर चढ़ आ सकते हो।
तुम रास्ते पर किसी से पूछते हो, नदी का रास्ता कहां है? कोई आदमी बता देता है, तो क्या तुम्हारा गुरु हो गया ? क्या तुम उसकी शरणागति हो गए? तुम उसे धन्यवाद देकर नदी की तरफ चले जाते हो। तुम ऐसा थोड़े ही, कि उसके चरण पकड़ लेते हो कि अब मैं तुम्हें कभी भी न छोडूंगा महाराज ! क्योंकि आपने नदी का रास्ता बताया। वह कहेगा, अगर नदी का रास्ता बताया तो कोई गलती तो नहीं की। जाओ नदी ।
नदी का रास्ता पूछने में तो हम ऐसी भूल नहीं करते, लेकिन परमात्मा का रास्ता पूछने में अक्सर ऐसी भूल करते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, सुन लो, समझ लो, मैं जो कहता हूं उसे गुन लो। फिर पकड़ो अपनी गैल । जाओ अपनी डगर पर। फिर मेरे पैर पकड़कर मत रुको। मैंने कोई कसूर तो किया नहीं। मुझे क्यों सताते हो? जाओ। जितना मैं जानता हूं, कह दिया। इसका कुछ उपयोग करना हो, कर लो। तो एक तरफ महावीर कहते हैं, अशरण । क्योंकि वे जानते हैं, आदमी बड़ा पागल है।
आदमी ऐसा पागल है कि मील के पत्थरों को पकड़कर रुक जाता है। हालांकि मील के पत्थर पर लगा है तीर, कि चलो आगे । जाओ आगे। दिल्ली बहुत दूर है। मगर वह पत्थर
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पकड़कर छाती से लगाकर बैठा है कि मिल गई दिल्ली। दिल्ली लिखा है पत्थर पर। हालांकि लिखा है, हजार मील दूर कि दो हजार मील दूर । वह उसकी फिकर नहीं कर रहा है।
तुम कभी मील के पत्थर के पास बैठकर यह नहीं कहते कि बड़ा विरोधाभास है, दिल्ली लिखा है और दो हजार मील भी लिखा है ! दिल्ली है तो ठीक, पत्थर ठीक। अगर दो हजार मील तो यहां दिल्ली क्यों लिखते हो ? फिर दो हजार मील वहीं लिखना दिल्ली ।
महावीर कहते हैं, शिष्य बनना एक बात है, शरण जाना दूसरी बात है। शिष्य बनने का अर्थ इतना है, कोई पहुंचा, किसी ने जाना, कोई जागा, उसका लाभ ले लो। कोई बहुत भटका, तब उसे मार्ग मिल गया, तुम उससे थोड़ा समझ लो । मगर रहना अपने पैरों पर । झुको उसके सामने, जो जानता है। लेकिन झुक इसीलिए कि उठकर चलना है। झुके ही मत रह जाना कि फिर पैर पकड़ लिए तो छोड़ेंगे नहीं ।
तो तुम तो चल ही न पाओगे, तुम किसी चलनेवाले को भी रोक लोगे। शिष्य गुरुओं के द्वारा पहुंचते हैं कि नहीं पता नहीं, बहुत से गुरुओं को डुबाते हैं यह पक्का है। इतने जोर से पकड़ लेते हैं कि न तो खुद जाते हैं, न उसे जाने देते हैं।
तो महावीर कहते हैं कि जाग्रत पुरुष से सीखो। वह वृक्ष पर बैठा है, उसे दूर का दृश्य दिखाई पड़ता है । तुम नीचे खड़े हो अंधेरे में, घाटी में। वह पर्वत के शिखर पर खड़ा है। उसकी दृष्टि का विस्तार बड़ा है। उसकी सुन लो, समझ लो । सोचो, विचार कर लो। तुम्हारी बुद्धि उससे राजी हो जाए, तुम्हारा हृदय उसके साथ धड़के, तो फिर चलो।
लेकिन ध्यान रखना, चलना तुम्हें ही होगा।
इसीलिए कहते हैं, अशरण। किसी और के पैर से तुम न चल सकोगे। चलना तुम्हें ही होगा इस बात पर बार-बार जोर देने के लिए कहते हैं कि मार्ग कोई भी बता दे, नक्शा कोई भी तुम्हें दे चलना तुम्हें ही पड़ेगा।
हम साधारण जीवन में सदा सहारा मांगते रहते हैं । कोई पति का सहारा, पत्नी का सहारा, बाप का, बेटे का सहारा, मित्र का सहारा । सहारे के हम आदी हो गए हैं। हम बैसाखियों पर ही चलने के आदी हो गए हैं। तो जब हम धर्म के जीवन में प्रवेश करते हैं, पुरानी आदत कहती है, सहारा! कोई गुरु का सहारा ।
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